आलेख : ‘आजादी के तराने’ : भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की स्वर्णिम गाथा / डॉ. शशि कला जायसवाल

‘आजादी के तराने’ : भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की स्वर्णिम गाथा 
- डॉ. शशि कला जायसवाल 


साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। समाज में होने वाले तमाम बदलावों को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति प्राप्त होती है, साथ ही वह समाज को बदलावों के लिए प्रेरित एवं उद्वेलित भी करता है। यह उद्वेलन जब कभी शासन- सत्ता के विरोध में मुखरित होता है, तब उसे दबाने की चेष्टा की जाती है। उस पर पाबंदियाँ लगाई जाती हैं। "भारत के तमाम अभिलेखागारों में ऐसी तमाम साहित्यिक रचनाएँ हैं, जो कभी प्रतिबंधित की  गई थीं। यदि इन प्रतिबंधित रचनाओं को हिंदी साहित्य में शामिल कर लिया जाए तो साहित्य की अनेक लुप्त परंपराएँ सामने आ सकती हैं और साथ ही साहित्य का विपुल भंडार भी प्राप्त होगा।"1

'प्रतिबंधित' शब्द निषेध के अर्थ में प्रयुक्त होता है। लेकिन राजनीतिक संदर्भ में निषेध या प्रतिबंधित शब्द का प्रयोग हर उस कार्रवाई या प्रक्रिया से लिया जा सकता है, जिसे शासन- सत्ता अपने प्रभुत्व के लिए खतरे के रूप में देखती है। अतः शासक वर्ग अपनी दमनात्मक नीतियों के द्वारा उन विचारों, आंदोलनों, साहित्यिक रचनाओं और पत्र-पत्रिकाओं के मुद्रण, लेखन या वितरण आदि को आम जनता तक पहुंचने से रोकने का प्रयास करता है। निरंकुश शक्तियाँ अपने प्रभुत्व और वर्चस्व को स्थापित करने एवं उसे बनाए रखने के लिए उन सभी गतिविधियों पर अपना नियंत्रण रखना चाहतीं हैं, जो उनके विरुद्ध जनता को मानसिक या शारीरिक रूप से विचारोत्तेजित कर सकती हैं। उन्हें अपने अस्तित्व-बोध, कर्तव्य-बोध और जाति-बोध को जागृत करने के लिए प्रेरित करती हैं।

यदि हम वैश्विक स्तर पर प्रतिबंधित साहित्य पर दृष्टिपात करे, तो पाते हैं कि वहाँ भी प्रतिबंधित साहित्य का अपना इतिहास है। वहां पर भी "अतीत में प्रतिबंधित पुस्तकों को नियमित रूप से जलाया जाता था। उनके लेखक अक्सर अपने काम को प्रकाशित करने में असमर्थ थे। वे निर्वासित किए गए, जेल गए , यहाँ तक कि उन्हें मौत की धमकी भी दी गई। बीसवीं शताब्दी में जलने वाली सबसे बदनाम पुस्तक 1930 के दशक में नाजी पार्टी के रूप में हुई जो एडोल्फ हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी की सत्ता में आई थी।"2

सन् 1913 में हेलन केलर की पुस्तक जिसका शीर्षक था, 'हाउ आई बिकम ए सोशलिस्ट' को नाजियों द्वारा जला दिया गया था। जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप केलर नाजी सत्ता को चुनौती देते हुए अपने जर्मन छात्रों के लिए लिखे खुले पत्र में कहती हैं- "आप मेरी किताबों और यूरोप के सबसे अच्छे दिमागों की किताबों को जला सकते हैं, लेकिन उन किताबों के विचार लाखों चैनलों से होकर गुजरेंगे और आगे बढ़ेंगे।"3 इसी प्रकार जर्मन विद्वान एडल्स हक्सले की पुस्तक 'ब्रेन न्यू वर्ल्ड' और जॉयस की पुस्तक 'यूलिसिस' भी शामिल है, जिसे प्रतिबंधित किया गया था। प्रतिबंधित साहित्य पर अपने विचार व्यक्त करते हुए 'कुर्ट वोनगुट' लिखते हैं- "मुझे इससे नफरत है कि अमरीकियों को कुछ पुस्तकों और कुछ विचारों से डरना सिखाया जाता है, जैसे कि वे बीमारियाँ हों।"4 इस प्रकार हम देख सकते हैं कि विश्व के किसी भी देश का साहित्य प्रतिबंधों से अछूता नहीं है। समय-समय पर इस तरह की कार्रवाई को अंजाम दिया जाता रहा है।

भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ, जिसे हम चाह करके भी विस्मृत नहीं कर सकते वह है- भारत का स्वतंत्रता आंदोलन। एक ऐसा युगीन इतिहास जो कड़वाहट, दम्भ, पीड़ा, संत्रास, आत्मसम्मान तथा गौरव के साथ शहीदों का लहू भी समेटे है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इस महायज्ञ में, समाज के प्रत्येक वर्ग ने अपने-अपने तरीके से बलिदान की आहुति दी। स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में साहित्यकारों- लेखकों का योगदान भी अविस्मरणीय है। इन कलमकारों ने अपनी लेखनी से ब्रिटिश सत्ता को इतना बेचैन कर दिया, कि उन्हें रौलेट एक्ट जैसे काले  कानून का सहारा लेना पड़ा। उन्होंने भारतीय प्रिंटिंग प्रेस, साहित्य एवं पत्रिकाओं की आजादी छीनने का षड्यंत्र रचा। निश्चित ही वे कलम और विचारों की ताकत को पहचानते थे कि यही भारतीय जनमानस की सुप्त चेतना को उद्वेलित कर सकता है। यह उद्वेलन ब्रितानी हुकूमत के लिए किंचित भी ठीक नहीं था। "कहने की आवश्यकता नहीं है कि आजादी की लड़ाई की रफ्तार के साथ-साथ अंग्रेजी शासन के दमन की रफ्तार भी तेज हुई । सन् 1857 की विफलता ने भारतीयों के मनोबल को तो ठेस पहुंचाई, किंतु उन्हें एकता का पाठ भी पढ़ा दिया। भारतेंदु और उनके युग के लेखकों ने अंग्रेजों के शोषण और उनकी दमनमूलक नीति का विरोध करते हुए, देश की तत्कालीन दुर्दशा और हीनावस्था के प्रति क्षोभ व्यक्त किया।"5

ब्रिटिश भारत में पहला समाचार पत्र जेम्स आगस्टस हिक्की ने 1780 में प्रकाशित किया; जिसका नाम था 'बंगाल गजट' अथवा 'कोलकाता जनरल एडवाइजरी' किंतु सरकार के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाने के कारण, 1872 में इसका प्रेस ज़ब्त कर लिया गया।"6 इतना ही नहीं, राजा राममोहन राय के 'मिरात-उल- अखबार' को भी बंद करा दिया गया, क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत को अखबार का उद्देश्य अप्रीतिकर  लगा। तत्कालीन भारत में 'हिंदू','स्वदेश मित्र','वायस ऑफ इंडिया', 'ट्रिब्यून' आदि उल्लेखनीय पत्र- पत्रिकाएँ निकलती थीं, जिनका उद्देश्य राष्ट्रीय एवं नागरिक सेवा की भावना थी। इन समाचार पत्रों में सरकार की भेदभावपूर्ण एवं दमनकारी नीतियों की खुलकर आलोचना की जाती थी। वास्तव में समाचारपत्र सरकार के सम्मुख विपक्ष की भूमिका निभा रहे थे, जो ब्रितानी हुकूमत को स्वीकार न था। अतः 1823 में उन्होंने भारतीय प्रेस के संचालन, स्थापना और बिना अनुमति प्रकाशन को प्रतिबंधित कर दिया। "कांग्रेसी आंदोलनकारियों को शरण देना, 'यंग इंडिया', 'हरिजन', जैसे अखबारों को बेचना, बाँटना और पढ़ना गैरकानूनी करार दिया गया। पत्र- पत्रिकाएँ और पर्चे बाँटना, राष्ट्रीय नाटक खेलना और देखना, कविताएँ पढ़ना, उत्सव मनाना, राष्ट्रीय उपन्यास, कहानी और कविता लिखना या पढ़ना, प्रभात फेरी निकालना, उसमें गीत गाना, आदि राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के लिए अलग-अलग रूप थे।"7 ब्रिटिश हुकूमत ने इन सब पर प्रतिबंध लगा दिया था।

    कहते हैं भावनाओं के ज्वार को जितना दबाया जाता है, वह उतने ही दोगुने वेग से फूटता है। भारतीय स्वतंत्रता की चेतना को ब्रिटिश सरकार ने लाखों जतन करके, नैतिक- अनैतिक का विचार किए बिना, साहित्यकारों की लेखनी और उनके विचारों को जितना अधिक दबाने का प्रयत्न किया, वह उतनी ही धारदार होती गई और भारतीय जनमानस को स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की आग भरती गई। भारत का  स्वाधीनता संग्राम और समकालीन भारतीय साहित्य इस बात का स्पष्ट उदाहरण है। "जिस समय ग़ालिब ने 1857 की दुःखद घटनाओं से प्रेरित होकर अपनी ग़ज़ल लिखी, उस समय उनके सम्मुख अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाने की कोई कल्पना न थी।------ किंतु मोहम्मद हुसैन आजाद और अल्ताफ हुसैन 'हाली' तक आते-आते राजनैतिक और सामाजिक आंदोलन संबंधी विचारों का जन्म हो चुका था। इस्माइल मेरठी और सुरूर जहानाबादी के समय में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सुख-चैन के त्याग की भावना एवं पराधीनता के अभिशाप के विरुद्ध प्रतिक्रियाएँ एक स्पष्ट रूप धारण करने लगी थी।"8
 
    उर्दू अदब के तमाम साहित्यकारों की रचनाओं में मज़हबी प्रेम, राष्ट्रीय एकता, परतंत्रता के नुकसान और स्वाधीनता की आवश्यकता तथा इसके लिए प्राणों के उत्सर्ग का भाव मुखरित होते देखा जा सकता है। शायद इक़बाल, चकबस्त, अजाज मख़दूम, सरदार जाफ़री, फैज़ अल्ताफ मशहदी जैसे प्रसिद्ध कवियों- ग़ज़लकारों की रचनाओं ने, देश में एक हलचल मचा दी। "रक्तरंजित हृदय से निकली इन रचनाओं ने, ब्रिटिश सरकार को बहुत भयभीत कर दिया था। उनकी यही कोशिश रही कि जनता तक पहुंचने से पहले ही, इन रचनाओं को अपने अधिकार में ले लिया जाए। ब्रिटिश सरकार यद्यपि अपने इस उद्देश्य में पूर्णतः कभी सफल न हुई।"9 मौलाना शिबली नोमानी द्वारा 'आजादी की नज़्में' में लिखी एक नज़्म की पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं- 

कोई पूछे के ए तहज़ीबे इंसानी के उस्तादों ।
यह ज़ुल्म आराईयां ताके ये हश्र अंगेजियां कब तक ।
यह माना तुमको तलवारों की तेजी आजमानी है।
हमारी गर्दन ऊपर होगा इसका इम्तहां कब तक।"10

अंग्रेजों को 'तहज़ीबे इंसानी के उस्ताद' कहकर उन पर करारा व्यंग्य करता है कवि। जिन्हें इंसानियत के नाम पर कलंक कहना अतिशयोक्ति न होगा।

आज़ादी के लिए जुनून की हद से गुजर जाने की ताब इन कलमकारों की रचनाओं में सहज ही दिखाई पड़ती है। साहित्यकारों के तेज़ाबी विचारों से भय खाना ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए लाज़मी ही था। जिसके कारण वे प्रतिबंधित की गईं। उन्हें आज़ादी हर कीमत पर चाहिए थी क्योंकि-

ज़िद है अगर ज़िद दुनिया को हिला देंगे।
मशरिक़ का सिरा लेकर मग़रिब से मिला देंगे।।
हम सीन-ए-हस्ती अंगार हैं अंगार,
शोले भड़क उठ्ठेगें झोंके जो हवा देंगे।।
मजदूर हो, देहका हो,हिंदू हो मुसलमान हो ।
सब एक  तो हो जाओ फिर उनको दिखा देंगे।।"11

इन पंक्तियों को पढ़कर या सुनकर, भारतीय स्वतंत्रता प्रेमियों की भुजाओं का फड़क उठना स्वाभाविक ही था। हर व्यक्ति सीना तानकर देश की आज़ादी के लिए ब्रिटिश हुकूमत की गोलियाँ झेलने को तैयार खड़ा था। सफी 'लखनवी' की "उतना ही वो उभरेंगे जितना के दबा देंगे" शीर्षक से लिखी गई यह नज़्म आजादी के  दीवानों के जुनून को पुख़्ता करती है।

कौम कहती है हवा बंद हो,पानी रुक जाए ।
पर यह मुमकिन नहीं कि अब जोश-ए-जवानी रुक   जाए।।"12

'जोश-ए-जवानी' (पंडित बृज नारायण 'चकबस्त') शीर्षक रचना युवाओं को हर मूल्य पर आजादी पाने के लिए प्रेरित कर रही थी। आज़ादी के इस मार्ग पर कितनी मुश्किलें आएंगी? उसे कैसे संघर्ष करते आगे बढ़ना है? यह उपर्युक्त पंक्तियों को देखकर समझा जा सकता है। जमील 'मजहरी' की यह रचना बड़े ही बेबाक तरीके से कहती है-
 
बुझे न शमे-दिल कहीं, हवा है तेज बाग की।
अगर अंधेरी रात है बढ़ाओ लौ चिराग की ।।
जो अक्ल राह रोक दे,तो उसका साथ छोड़ दे।
जो मजहब आकर टोक दे,तो उसकी कैद तोड़ दे।।"13

इन प्रतिबंधित साहित्यिक नज़्मों ,ग़ज़लों में स्वाभिमान के लिए मर मिटने और स्वाधीनता के लिए कुछ भी कर गुजरने का आह्वान दिखाई पड़ता है। अली सरदार 'जाफरी' की नज़्में भी भारतीय युवाओं को आजादी के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं जिसका शीर्षक है 'आगे बढ़ेंगे'-

"गरजती है तोपें, गरजने दो उनको।
दुहल बज रहे हैं, तो बजने दो उनको।।
जो हथियार सजते हैं, सजने दो उनको।
बढ़ेंगे अभी और आगे बढ़ेंगे।।"14

'मैं उनके गीत गाता हूँ', जाँ निसार अख़्तर की  यह ग़ज़ल भारत माँ की यज्ञवेदी पर आत्मबलिदान के लिए प्रस्तुत होने वाले, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु जैसे अनेकानेक नौजवानों की कहानी को बार-बार दोहराने के लिए भारतीय युवाओं में जोश भरता जान पड़ता है। पंक्तियाँ देखिए-

"मैं उनके गीत गाता हूँ।
जो शाने पर बगावत का अलम लेकर निकलते हैं।
किसी ज़ालिम हुकूमत के धड़कते दिल पर चलते हैं।।
जो रख देते हैं सीन, गर्म तोपों के दहानों पर ।
नज़र से जिनकी बिजलियाँ कूदती हैं आसमानों पर।।
वतन के नौजवानों में नए  जगाऊंगा।
मैं उनके गीत गाऊंगा, मैं उनके गीत गाऊंगा।"।15

और आगे जाकर यही कविता मजदूरों और मेहनतकश लोगों को भी अपने साथ जोड़ती है, और उन्हें उनकी शक्ति का एहसास कराते हुए कहती है-

"वो मेहनतकश जो अपने बाज़ुओं पे नाज करते हैं ।
वो जिनके कुव्वतों से वे इसतबदाद डरते हैं।।"16

तमाम प्रतिबंधित हिंदी- उर्दू कविताएँ, नज़्में, ग़ज़लें भारतीय समाज के दर्द और इतिहास को अपने भीतर समेटे हुए हैं। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में मुक्ति के स्वर सबसे अधिक प्रखर रूप में सुनाई पड़ते हैं, और 1857 का विद्रोह इसकी परिणति के रूप में सामने आता है। भले ही यह क्रांतिकारी घटना भारतीय इतिहास में, असफलता की कहानी कहती हो, किंतु यह परिघटना प्रत्येक हिंदुस्तानी की आँखों को, आज़ादी का स्वप्न देखने का जज़्बा पैदा करती  है, उनके भीतर आज़ाद मुल्क की उम्मीद जगाती है। कुछ इस तरह कि-

"उरूजे कामयाबी पर कभी हिंदुस्तां होगा। 
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।।
कभी वह दिन भी आएगा कि जब स्वराज देखेंगे।
 जब अपनी ही जमीन होगी और अपना आसमां होगा।।"17
(क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल 'क्रांति गीतांजलि' से)

स्वतंत्रता के इस महासमर में, जहाँ गाँधीजी इसे भरसक हिंसामुक्त बनाए रखने के पक्षधर थे, किंतु आज़ादी को हर कीमत पर पाने की कसम उठाने वाले क्रांतिकारी वीरों को हिंसा- अहिंसा की परवाह न थी। गाँधीजी के अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए देश को आज़ाद कराने की परिकल्पना को साकार रूप देने में कलम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कवियों, रचनाकारों एवं शायरों ने अपनी ओजयुक्त वाणी से देश के नौजवानों, किसानों, स्त्रियों एवं मजदूरों सभी को स्वतंत्रता की यज्ञ-वेदिका पर आहुति के लिए प्रेरित किया। शायर माहिर लिखते हैं कि -

"होती हैं आज़ाद कौमें, सर कटा देने के बाद। 
खौफ़ दिल से एकदम हटा देने के बाद।। 
वेदों मे लिखा यही है लिखा कुरान में ।
होती है आज़ाद कौमें,सिर कटा देने के बाद।।"18
माहिर हिंदुस्तानी 'आजाद जमात' से।।

इस प्रकार तत्कालीन प्रतिबंधित साहित्य के अंतर्गत और भी तमाम शायर और कवियों की रचनाएँ प्राप्त होती हैं। जिनका नामोल्लेख मैं यहाँ करना चाहूंगी, जैसे- जमील मज़हरी,मोईन हसन, तिलोकचंद 'महरूम', शमीम करहानी, रवीश सिद्दीकी, अफसर मेरठी, रजी अजीमाबादी, सागर निजामी, उमर अंसारी,जॉन वुल, उस्मान हामिद, मनोहर सहाय 'अनवर', कुंवर हरिसिंह 'जरी', किशनचंद 'जेबा', पंडित दत्ता प्रसाद 'फिदा', सागर 'अकबराबादी', सेवक राम बासिर, शोख 'देहलवी', महाराज बहादुर 'वर्क', फलक, कामरेड भारतीय 'शौक' आदि।
आजादी को ही अपना धर्म मानने वाले इन साहित्यकारों की रचनाएँ सुनकर, पढ़कर, देखकर अंग्रेज यूँ ही खौफ़ज़दा नहीं थे, उन्हें वास्तव में एहसास हो रहा था कि अगर इनकी आवाज और विचारों पर काबू न पाया गया तो इनकी लेखनी ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला देगी। एक अज्ञात शायर का इंकलाबी फरमान देखिए-

"बांध ले बिस्तर फिरंगिया, राज अब जाने को है।
जुल्म काफी कर चुके, पब्लिक बिगड़ जाने को है।।
मालवी ने वार अपना कर दिया इंग्लैंड पर।
देखना अब मानचिस्टर भी उड़ जाने को है
गोलियाँ तो खा चुके, अब तोप भी हम देख लें।
मर मिटेंगे देश पर, फिर इंकलाब आने को है।।"19

इन साहित्यकारों की कलम से निकले इंकलाबी गीत कविताएँ नज़्में देश के गौरव का प्रतीक हैं। जन-जन में जोश, स्फूर्ति और प्रेरणा भरने वाले यह गीत भारतीय समाज की जिजीविषा और उसके संघर्षों का जीवंत उदाहरण हैं। "स्वाधीनता संग्राम के समय जो भाषायी, राष्ट्रीय एवं धार्मिक एकता हमारे सामने आई… उसी के आधार पर, आज हम पुनः कल्पना करते हैं कि आज की नई पीढ़ी भी एकस्वर होकर एक नवीन सामाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के माध्यम से आधुनिक भारत का निर्माण करेंगे।"20


 संदर्भ
1- ई पाठशाला : प्रतिबंधित साहित्य का इतिहास : लेखक- डॉ गजेंद्र पाठक
2- http/www.greenlane.com प्रतिबंधित पुस्तकों का इतिहास
3- http/www.greenlane.com प्रतिबंधित पुस्तकों का इतिहास
4- http/www.greenlane.com प्रतिबंधित पुस्तकों का इतिहास
5- प्रतिबंधित हिंदी साहित्य: संपादक रुस्तम राय: राधाकृष्ण प्रकाशन 1999:भूमिका से
6- वही
7- वही
 8- आजादी के तराने: संपादक डॉ राजेश कुमार परती: प्रकाशन राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली 1986:भूमिका से
9-क्षवही: भूमिका से
10- आजादी के तराने: संपादक- डॉ राजेश कुमार परती: प्रकाशन-अंतरराष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली 1986:पृष्ठ 5
11- वही पृष्ठ 8
12- वही पृष्ठ 9
13- वही पृष्ठ.27
14- वही पृष्ठ 39
15- वही पृष्ठ 45
16- वही पृष्ठ 46
17-  वही पृष्ठ 68
18- वही पृष्ठ 109
19- वही पृष्ठ 145
20- आजादी के तराने: संपादक डॉ राजेश कुमार परती:राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली 1986 : भूमिका से

डॉ. शशि कला जायसवाल
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय गाजीपुर
सम्पर्क : 9455868861

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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