आलेख : प्रतिबंधित लोक साहित्य में 'गांधी' / सोनम तोमर

प्रतिबंधित लोक साहित्य में 'गांधी'
- सोनम तोमर

“जेल जाने को हम उम्मीदवार बैठे हैं।
देखलो देखलो साहब तैयार बैठे हैं।।
हमारे पूज्य महात्मा को तुमने कैद किया।
उन्हीं की याद में हम खाए खार बैठे हैं।।”

         गांधी जी की गिरफ्तारी पर लिखी गई इस कविता को सम्पादक अवधबिहारी लाल जी ने प्रकाशित किया था। लेखक के नाम का पता नहीं चला; क्योंकि उस समय लोग ब्रिटिश सरकार के कारण अपने असली नाम से नहीं लिखते थे। ऐसे साहित्य में तमाम उदाहरण देखे जा सकते हैं। प्रेमचंद स्वयं पहले नवाब राय के नाम से लिखते थे। नाम बदलकर लिखने के पीछे एक कारण रचना और व्यक्ति पर प्रतिबंधन का डर था। उपरोक्त कविता भी ब्रिटिश सरकार द्वारा 30 मार्च, वर्ष 1931 को प्रतिबंधित कर दी गई थी। उस दौर में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी पत्र-पत्रिकाएं और साहित्यिक रचनाओं पर राजद्रोह का आरोप लगाकर प्रतिबंधित कर दिया जाता था। ‘चाँद’ पत्रिका के फांसी अंक को भी प्रतिबंधित किया गया था। ‘हिन्दू पंच’ ने 1 जनवरी 1930 को अपना विशेषांक 'बलिदान अंक' प्रकाशित किया जिसे अंग्रेजों द्वारा जब्त कर लिया गया था। साहित्यिक रचनाओं में प्रेमचंद के ‘सोजे वतन’ से लेकर ‘भारत-भारती’ जैसी रचनाओं को प्रतिबंधित किया गया। महात्मा गांधी के ‘हिन्द स्वराज’ को भी अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। बीसवीं सदी के दूसरे दशक से गांधी का देश के राजनीतिक आंदोलनों पर प्रभाव दिखाई देने लगता है। सत्य, अहिंसा और असहयोग के सहारे गांधी इस देश के  स्वाधीनता की लड़ाई का नेतृत्व संभालते हैं। गांधी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। गांधी देश की आज़ादी की लड़ाई के साथ-साथ आंतरिक मोर्चों पर कई अलगाववादी ताकतों से भी संघर्ष कर रहे थे। गांधी का अंग्रेजों से संघर्ष का जो कुछ अनुभव भारत आने से पहले का था वह अफ्रीका से संचित था। गांधी वकालत की पढ़ाई करने विदेश गए और पढ़ाई पूरी करने के बाद अभ्यास के लिए दक्षिण अफ्रीका चले गए। गांधी जिस समय दक्षिण अफ्रीका गए उस समय अफ्रीका ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश था। भारत भी उस समय ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा था। मजदूरी के लिए भारी मात्रा में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को अफ्रीका ले जाया गया था। वहां उनसे मजदूरी आदि का काम लिया जाता था। गांधी जब अफ्रीका गए तो वहां गरीबी और भुखमरी के साथ-साथ अंग्रेजों का काले लोगों के प्रति नस्लीय भेदभाव देखने को मिला। गांधी खुद भी उसके शिकार हुए। गांधी ने अंग्रेजों के इस नस्लीय भेदभाव को तोड़ने के लिए लड़ाई छेड़ दी। गोपालकृष्ण गोखले, बालगंगाधर तिलक, दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी  इत्यादि के द्वारा अंग्रेजों से संघर्ष जारी था। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। \

        9 जनवरी 1915 में गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आये। अफ्रीका में संघर्ष के दौरान गांधी को आंदोलन आदि का अनुभव हो चुका था। गांधी भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष से भी परिचित थे। गांधी से पहले यह संघर्ष बड़े-बड़े नगरों और व्यक्तित्वों तक सीमित था। गांधी यह जान चुके थे कि अंग्रेजों से आज़ादी आसानी से या हिंसा से नहीं मिलने वाली है; इसलिए गांधी ने पहले देश का भ्रमण किया और फिर आंदोलनों से आम जनमानस को जोड़ने का कार्य किया जिसमें महिलाएं, किसान, मजदूर आदि शामिल थे। महानगरों तक सीमित आंदोलन को सुदूर गांवों तक फैलाया। इसीलिए भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बहुतायत लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा लेकिन महात्मा गांधी इस पंक्ति में आगे खड़े दिखाई देते हैं। गांधी के आगमन ने भारतीय लोकमन में उम्मीद की किरण जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।            

        गांधी नौ वर्ष के थे जब भारत में वायसराय लिटन द्वारा 1878 ई में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट पास कर दिया गया। इस एक्ट के माध्यम से भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले सभी समाचार पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगाया गया; अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों पर यह नियम नहीं लागू किया गया। इस एक्ट के द्वारा ब्रिटिश सरकार जनता की आवाज को दबाना चाहती थी। अंग्रेजों को डर था कि इन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भारतीय जनता में एकता और देशभक्ति की भावना बढ़ न जाए। इसीलिए जो कोई भी अंग्रेजी सरकार के विरोध में लिखता उसको प्रतिबंधित कर दिया जाता था। इसके उपरांत भी “समय-समय पर उपनिवेश शासकों द्वारा भारतीय प्रेस पर विभिन्न प्रतिबंधों के बावजूद 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में भारतीय समाचार पत्रों एवं साहित्य की आश्चर्यजनक प्रगति हुई। 1877 में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषायी एवं हिंदी समाचार पत्रों की संख्या लगभग 169 थी तथा इनकी प्रचार संख्या लगभग एक लाख तक पहुंच गई थी। भारतीय प्रेस जहां एक ओर उपनिवेशी नीतियों की आलोचना करता था वहीं दूसरी ओर देशवासियों से अपनी एकता स्थापित करने का आह्वान करता था। प्रेस ने आधुनिक विचारों एवं व्यवस्था जैसे -स्वशासन, लोकतंत्र, दीवानी अधिकार एवं औद्योगीकरण इत्यादि के प्रचार-प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।" समाचार पत्रों की संख्या से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि प्रतिबंधन का भय होने के बावजूद भारतीय समाज लगातार सक्रिय था और आजादी का बिगुल बज चुका था। प्रतिबंधित लोक साहित्य की रचनाएं अधिकतर 1930-31 के आसपास लिखी गई थीं। 1930 में गांधी को भारत आए पंद्रह वर्ष हो चुके थे और गांधी की आवाज जन-जन तक पहुंच चुकी थी। भारत गुलामी के सारे बंधन तोड़ने को व्याकुल था। 12 मार्च से 6 अप्रैल 1930 गांधी द्वारा अहमदाबाद साबरमती आश्रम से दांडी गुजरात में 400 किलोमीटर तक नमक आन्दोलन को सफलतापूर्वक संपन्न किया गया। नमक आन्दोलन के बाद भारत की जनता को आजादी साफ दिखाई देने लगी थी और यह भी कि आजादी केवल गांधी के नियमों से ही संभव है। गुलाम भारत के उस पीड़ादायक समय के बारे में सोचती हूं जहां कुछ कहने और लिखने तक का भी अधिकार नहीं था। तो उम्मीद फ़ाज़ली का शेर याद आता है,-

 'आसमानों से फरिश्ते जो उतारे जाएं 
 वो भी इस दौर में सच बोले तो मारे जाएं'

भारत भूमि के देशभक्तों ने मरना कबूल किया लेकिन सच बोलने से डरे नहीं अडिग रहे। भारत के इतिहास के तमाम पन्ने उनके खून के छीटों से रंगे हुए हैं; जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में अपना जीवन देश के नाम कर दिया। गांधी आगमन के बाद भारतवासियों को इस बात का एहसास हो चुका था कि हिंसा के बल पर स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती है इसीलिए अहिंसा के पुजारी गांधी से जनता‌ कम समय में अधिक से अधिक जुड़ती चली गई जिसमें महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। 

    महात्मा गांधी के बारे में भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी में भी काफी कुछ लिखा गया है। महात्मा गांधी जी स्वयं गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी में साधिकार लेखन कार्य करते रहे। दक्षिण अफ्रीका से वापसी के बाद गांधी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय हुए। गांधी द्वारा आजादी की लड़ाई को जन-जन तक पहुंचाया गया। गुजराती भाषी होते हुए भी गांधी ने हिन्दी को आजादी की लड़ाई में एक शस्त्र की तरह प्रयोग किया। हिन्दी की ताकत को गांधी जी अच्छे से समझते थे। साम्राज्यवाद विरोधी कान्ति (1857) का गढ़ हिन्दी भाषी क्षेत्र रहा। हिन्दी-उर्दू के साथ साथ अन्य बोलियों में उस समय 1857 के क्रांतिकारियों के यशगान की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। अंग्रेजों से आजादी के जंग की शुरूआत भी गांधी हिन्दी भाषी क्षेत्र से करते है। गांधी की बढती लोकप्रियता और जन-जन तक की पहुंच को देखते हुए ब्रिटिश सरकार चिन्तित थी। महात्मा गांधी को स्वयं कई बार जेल जाना पड़ा और उनकी लिखी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ को प्रतिबंधित कर दिया गया। “मुझे पता नहीं कि हिंद स्वराज पुस्तक भारत में जब्त क्यों कर ली गई? मेरी दृष्टि में तो यह जब्ती ब्रिटिश सरकार जिस सभ्यता का प्रतिनिधित्व करती है उसके निंद्य होने का अतिरिक्त प्रमाण है। इस पुस्तक में हिंसा का तनिक-सा भी समर्थन कहीं किसी रूप में नहीं है। हाँ, उसमें ब्रिटिश सरकार के तौर-तरीकों की जरूर कड़ी निन्दा की गई है। अगर मैं यह न करता तो मैं सत्य का भारत का और जिस साम्राज्य के प्रति वफादार हूँ उसका द्रोही बनता। वफादारी की मेरी कल्पना में वर्तमान शासन अथवा सरकार को, उसकी न्यायशीलता या उसके अन्याय की ओर से आँखें मूँदकर चुपचाप स्वीकार कर लेना नहीं आता। न्याय और नीति के नाम पर वह आज जो कर रही है उसे मैं नहीं मानता।"

      ‘हिन्द स्वराज' पुस्तक के लेखन को 1857 की क्रान्ति से जोड़कर देखते हुए नामवर सिंह राजमोहन गांधी के माध्यम से कहते हैं कि “हिंद स्वराज लिखने के पहले गांधी जी जब लंदन में पढ़ रहे थे तो उनके अध्यापक टोरी ने उनसे कहा कि तुमने सिपाही विद्रोह पर, मालेशन की किताब पढ़ी है। गांधीजी लंदन में वह किताब नहीं पढ़ सके। प्रीटोरिया, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने यह किताब पढ़ी और फिर ‘हिन्द स्वराज' लिखा और मदनलाल धींगरा ने जो बम फेंका था उस पर अपनी टिप्पणी व्यक्त की।" गांधी अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ जनाक्रोश को 1857 की इस देशव्यापी क्रांति से समझ गये थे और बर्बरतापूर्ण दमन से अंग्रेजों के ताकत को भी।‌ इसलिए गांधी जी 1857 जैसी क्रांति का पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे। लोगों के असंतोष को व्यवस्थित  रूप से कैसे देश के हित में इस्तेमाल किया जा सकता है इसलिए भारत आने से पूर्व ही 1908 में  'हिंद स्वराज' लिखी। ‘हिन्द स्वराज' में भावी भारत के भविष्य की तस्वीर के साथ-साथ अंग्रेजी शासन से  मुक्ति का मार्ग भी सुझाया। हिंसा और अराजकता का विरोध किया। आत्मबल और आत्मनिर्भरता के माध्यम से आजादी का स्वप्न दिखाया। 

      गांधी के बारे में तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखा जा रहा था। औपनिवेशिक दौर की प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं में गांधी के बारे में लिखित कविता, कजरी, होली, गज़ल, आल्हा, गीत को पढ़कर गांधी का लोक से सम्बन्ध को समझा जा सकता है। “साहित्य और काव्य के बारे में खुद गाँधीजी ने कहा था, इन्हें जब जीवन में स्थान मिलता है, तब वह सामान्यजन की धरोहर बनती हैं। इस दृष्टि से यह प्रतिबंधित साहित्य स्वराज्य प्राप्ति का अधिष्ठान था। स्वराज्य के आंदोलन को ठीक से जानने के लिए इस प्रतिबंधित साहित्य को जानना, उनका अध्ययन करना, सिर्फ आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है। उसके सिवा गाँधीजी द्वारा चलाए गए स्वतंत्रता आंदोलन को सही अर्थ में समझना असंभव है। यह प्रतिबंधित साहित्य इस आंदोलन की नींव का पत्थर था जो दिखता नहीं लेकिन सारी इमारत अपने सशक्त कंधों पर संजोए रखता था।" राकेश पाण्डेय द्वारा गांधी पर संपादित पुस्तक ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधी’ में संकलित कविता ‘अब तो उठो किसानो भाई’ के नाम से एक 'होली'‌ को प्रतिबंधित किया गया था। जिसमें लेखक नजराना, लगान को देने से लोगों को मना कर रहा है और गांधी को आशा की किरण के रुप में देख रहा है- 

“अत्याचार के दूर करन को गाँधी दियो पठाई 
असहयोग की इसकी औषधि प्रभु ने तुम्हें बताई।
 देशी शिक्षा वस्त्र आदि से देव गाँवन फैलाई
 कहै विनोद यहै गांधी की आशा है सुखदाई ।।”

गांधी जी के असहयोग आंदोलन, स्वदेशी शिक्षा, स्वदेशी वस्त्रों का प्रयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का जिक्र इस कविता में किया गया है। इसी क्रम में छांगुर त्रिपाठी का ‘भजन चरखा’ व ‘झंडा प्रार्थना’ को देखा जा सकता है इस कविता में महात्मा गांधी के मोहन नाम का जिक्र किया गया है। मोहन भगवान कृष्ण को भी कहा जाता है  जैसे मोहन ने कौरवों के अन्याय और अत्याचार से पाण्डवों को मुक्त कराया भले ही उसके लिए गीता का ज्ञान देना पड़ा, ठीक उसी तरह इस ब्रिटिश परतंत्रता से आज़ादी के लिए इस मोहन (गांधी) की अभ्यर्थना की गयी है - 

“परतंत्रता का पर्दा अब तो उठा दे मोहन।
स्वाधीनता का दर्शन अब तो करा दे मोहन।।
आत्मा अमर है सच को गीता का ज्ञान दे दे। 
बलिदान की पहली सब को सिखादे मोहन।।"

प्रतिबंधित लोक साहित्य में ऐसी तमाम प्रार्थनाएं और स्तुतियां गांधी पर लिखी गईं जिनके माध्यम से यह साफ दिखाई पड़ता है कि उस समय लोक जनमानस गांधी को ईश्वर तुल्य मान रहा था और गांधी में अपनी मुक्ति मार्ग को खोज रहा था। ब्रजभाषा में रचित यह कविता किसी विनीत ‘बली’ द्वारा रचित है जिसमें गांधी की प्रशंसा के साथ उनकी प्रार्थना की गई है। कविता कला में अपनी असमर्थता और राजनीति की अज्ञानता जाहिर करने के बावजूद इस विकट समय में गांधी के विश्वास और आशीष के बल पर लेखक लोगों को जगाने और उनमें आत्मविश्वास भरने के लिए यह कविता करने की ढिठाई कर रहा है - 

“'गांधी हौं न तेरे गुनगान के सुयोग्य 'बली 
कविता की राखौं हौं न नेकहूँ शकति है। 
प्राप्त सतसंगहूँ न काहू देश-भक्तहूँ को,
नहीं राजनीतिहूँ में मेरी कछु गति है ।। 
समय विकट है औ बाधा है अनेक खड़ी, 
मारग है ऊंचा और सूक्षम जुगति है 
तेरे ही एकान्त कृपा आशिष विश्वास बल, 
निपट ढिठाई आज करौं यथामति है।”

     गांधी के आने के बाद विदेशी वस्तुओं, वस्त्रों एवं चीजों का बहिष्कार कर स्वदेशी को अपनाया गया। अंग्रेजों द्वारा आर्थिक शोषण से देश अन्न, वस्त्र की कमी से जूझ रहा था। अकाल से करोड़ों लोग काल के गाल में समा चुके थे। देश के हस्तकला उद्योग और कुटीर उद्योग को अंग्रेज बर्बाद कर चुके थे। लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की पहल में गांधी ने चरखे पर जोर दिया जिससे वस्त्रों की कमी की आपूर्ति की जा सके। 30 मार्च 1931 को एक कविता ‘हमारा चरखा’ नाम से लिखी गई जिसके संग्रहकर्ता महाशय प्यारेलाल वैश्य ने किया था। इस कविता में चरखे को मसीन गन बताया गया है। स्वदेशी चरखे को हथियार के रूप में प्रस्तुत किया गया है। गांधी ने जब चरखा चलाना शुरू किया तो काफी लोगों ने इसमें अपनी सहभागिता निभाई ये लोग अधिकांशत: ग्रामीण वर्ग से आते थे।

“चला दो चर्खा हर एक घर में, 
तब ये चर्ख तुम हिला सकोगे।
बन्धा तभी तुम सिलसिला सकोगे, 
उन्हें कबड्डी खिला सकोगे।।
हमारे चरखें में ऐसा फन है, 
जो आज कल की मशीन गन है।”

चरखे पर बहुतायत संख्या में कविताएं लिखी गई और कुछ लोगों ने ग़ज़ल भी लिखीं। ग़ज़ल दादरा (चर्खा ) नाम से एक ग़ज़ल लिखी गई थी; इसको भी 30 मार्च 1931 में प्रतिबंधित कर दिया गया था। इस गज़ल के माध्यम से लेखक यह भी दिखाना चाहता है कि जब से हम लोगों ने अपनी स्वदेशी चीजों का उपयोग बंद कर विदेशी वस्तुओं पर आश्रित हो गए थे उसका परिणाम कितना भयावह हुआ। लेखक समाज को यह बताना चाहता है कि हमें पुराना मार्ग गांधी ने दिखाया।\

“टेक- गांधी बाबा ने भारत जगांव दिया है। 
हमें चरखे का मंतर बताय दिया है।
शेर- जब से घर-घर में ये चरखे का चलाना छूटा। 
बस उसी रोज से भारत का नसावा फूटा। 
आके परदेशियों ने खूब खसोटा लूटा। 
धर्म छूटा सभी इन्सान का पौरुष टूटा। 
आंखों से पट्टी हटाकर गुलामी की, 
मारग पुराना दिखाय दिया है। गांधी। II”

“घर-घर में आजादी की चिंगारी सुलगी हुई थी, अगर पुरुष घर से बाहर अपना योगदान दे रहे थे तो महिलाएं भी अपनी भूमिका का निर्वाह करने में कहीं पीछे नहीं थीं। स्त्रियां भी विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को आत्मसात कर अपनी वस्त्रों और सौन्दर्य प्रसाधनों में भी स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग को वरीयता देने के लिए तत्पर थीं। जिसका उल्लेख प्रतिबंधित साहित्य की अन्य कविताओं में स्पष्ट देखने को मिलता है। जैसे: 

महिला का स्वदेशी व्रत
साड़ी ना पहनब विदेशी हो पिया देशी मंगा दे। 
देशी चुनरिया, देशी ओढ़नियां, देशी लहंगवा सिला दे हो 
पिया देशी मंगा दे ॥ साड़ी...॥
देशी चोली, देशी गोली देशी ही रंग में रंगा दे हो।
पिया देशी मंगा दे ॥ साड़ी... ।।”

इसी प्रकार स्वदेश और स्वदेशी, चंपारण आंदोलन, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो आंदोलन आदि को केंद्र में रखकर बहुत सारी कविताएं लिखी गईं। साथ ही स्वदेशी गान भी लिखे गए। इस स्वदेशी गान पर श्री बेनीमाधव खन्ना ने 41 रु.पुरस्कार दिया गया था। 

“जियें तो स्वदेशी बदन पर बसन हो,
मरे अगर तो स्वदशी कफन हो ॥ टेक ॥ 
पराया सहारा है अपमान होना,
जरुरी है निज शान का ध्यान होना
है वाजिब स्वदेशी पै कुर्बान होना,”

देश प्रेम से जुड़ी गीत और कविताएं आज भी हमारे आंखों में आँसू ला देती हैं। उपरोक्त कविता अत्यंत ही मार्मिक है। कुछ इसी भावबोध पर आधारित गीत को राज्यसभा सदस्यों के विदाई में जब चाँद कादरी गाते हैं तो सदन में उपस्थिति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत अन्य सदस्य भावुक हो उठते हैं। कभी लता जी के गीत ‘ए मेरे वतन के लोगों जरा आखँ में भर लो पानी’ से नेहरू भी भाव विभोर हो उठे थे । इन गीतों का गुलाम भारत के नागरिकों पर व्यापक प्रभाव था। कहते हैं कि गांधी के अनन्य प्रेमी रसूल मिया के गीत 'छोड़ द गोरकी के गुलामी बलमा' से प्रभावित होकर लोगों ने अंग्रेजों की नौकरी छोड़ दी थी। बिस्मिल द्वारा लिखित ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गीत को आधार बनाकर गांधी के नमक सत्याग्रह पर एक गीत लिखा गया। यह गीत ‘अटल राज की कुंजी अर्थात महात्मा जी की पुकार' पुस्तक में संकलित है इसे भी 30 मार्च 1931 में प्रतिबंधित कर दिया गया।

“मेरा रंग बसन्ती चोला माई रंग दे वसन्ती चोला 
इसी रंग में गाँधी जी ने नमक पर धावा बोला ॥
मेरा रंग दे वसन्ती चोला।”

30 मार्च 1931 को गांधी की गिरफ्तारी पर भारतीय जनता ने तरह-तरह से जनांदोलन किए कुछ ने नारे लगाए तो कुछ ने कलम के माध्यम से कविताएं, प्रार्थना, गीत इत्यादि लिखकर जनता को जागरूक और एकजुट किया। महात्मा गांधी की गिरफ्तारी पर भारतीयों को चेतावनी देते हुए। मुन्ना लाल वर्मा प्रकाश ने एक गजल लिखी:-

“गये हैं कृष्ण मंदिर गांधी जी कौम के खातिर। 
तो तन मन धन से हो हमको फिकर इनके छुड़ाने की ।।
 जीहां पर बरसी हो दुआ रही जो खान रत्नों की। 
उसी भूमि पर किल्लत हो रही है दाने-दाने की ॥”

यह प्रतिबंधित लोक साहित्य अधिकतर लोकभाषा और बोलियों में लिखा गया है। गांधी भारत की आत्मा है उनके बारे में विचार करने पर हमारे मानस पटल पर एक ऐसे व्यक्तित्व का चित्रण होता है जो मानवीय मूल्यों के लिए सत्य और अहिंसा के मजबूत संकल्प के साथ अंग्रेजों के सम्मुख अडिग खड़े रहते हैं। गाँधी का दर्शन हर कालखंड में विमर्श का विषय रहा है। इसका जनमानस पर गहरा प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। गाँधी की हत्या के 74 वर्ष पूरे होने के बाद आज भी उनका जीवनदर्शन समकालीन विश्व की विविध समस्याओं का निदान करने वाला जीवनमार्ग प्रस्तुत करता है। आदर्शवाद, अस्तित्ववाद, प्रयोजनवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद इत्यादि जैसे विविध दार्शनिक उपागमों के विद्यमान होने के बावजूद गांधीवाद का औचित्य न केवल अपनी पूरी महत्ता के साथ बरकरार है बल्कि इसकी प्रासंगिकता लगातार बढ़ रही है। आज भारत सहित दुनिया के अन्य देश जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, युद्ध, महंगाई, महामारी, गरीबी, बेरोजगारी इत्यादि जैसी अनेक प्रकार की जटिल समस्यायों का सामना कर रहे हैं इन समस्यायों की सूक्ष्मता से पड़ताल करने पर यह साफ़ तौर से समझ आता है कि इनका कारण हमारे आचार-विचार, व्यवहार और जीवनदृष्टि में समाहित है। आधुनिकता के इस धुंधले दौर में गांधी का दर्शन प्रकाशपुंज की तरह हमें मार्ग दिखाता है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप विकसित हुई सभ्यता को गांधी ‘आसुरी सभ्यता’ की संज्ञा देते हैं। गाँधी इस कारण से अद्वितीय नहीं हैं कि उन्होंने असाधारण बातें की है बल्कि इसकी वजह यह है की उन्होंने असाधारण बातों को बेहद साधारण तरीके से प्रस्तुत किया है। गाँधी कहतें हैं, कि ‘मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है।’ उनका सम्पूर्ण जीवन सादगी, सुचिता, त्याग, अपरिग्रह, अहिंसा, प्रेम और करुणामय रहा। हाल ही में पूरा विश्व कोरोना जैसी भयावह आपदा की चपेट में बुरी तरह से प्रभावित हुआ। इस दौर में बड़ी संख्या में लोग शहर से गाँव पहुंचने के लिए बेचैन  दिखे। कोरोना के इस भयावह दौर में विकास के शहर केन्द्रित पूंजीवादी मॉडल ने अपने घुटने टेक दिए इसलिए इस दौरान ‘वर्क फ्रॉम होम’ मॉडल को व्यापक स्तर पर अपनाया गया। यह बात इतने वर्षो पहले गांधी ने स्वाबलंबन और आत्मनिर्भरता के माध्यम से कर दिया था। इस मुश्किल परिस्थितियों में गाँधी की सामजिक-आर्थिक दृष्टि अत्यधिक प्रासंगिक दिखाई देती है। गांधी गाँवों को विकास का केंद्र बनाने की बात करते हैं।

  गाँधी अहिंसा और सत्याग्रह को एक मजबूत उपकरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। आज रूस और यूक्रेन के मध्य भयावह युद्ध चल रहा है, हाल ही में अमेरिका के एक स्कूल में अंधाधुंध गोलीबारी से काफी संख्या में बच्चों के मौत की खबर आई। देशों के बीच सीमा विवाद की खबर आम हो गयी है इत्यादि जैसी लगातार हो रही हिंसक घटनाओं को हमें गाँधी के इस उक्ति से समझना होगा कि एक आँख के बदले दूसरी आँख पूरे संसार को अँधा कर देगी। लोकनीति के बारे में भी गांधी का विचार बहुत स्पष्ट है। वे सत्ता के केन्द्रीकरण के संकटों को समझते हुए सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात करते हैं। गांधी मजबूत और पारदर्शी स्थानीय स्वशासन व्यवस्था की वकालत करते हैं। जहाँ लोग प्रत्यक्ष तौर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार बन सके और सभी सुविधाओं का लाभ हर वर्ग को मिल सके। गाँधी स्वच्छता पर विशेष बल देते हैं। स्वच्छता से उनका तात्पर्य केवल शरीर की सफाई से नहीं बल्कि हृदय की पवित्रता से भी है वे कहते हैं स्वच्छता ही सेवा। भारत सरकार द्वारा चलाया जा रहा ‘स्वच्छता भारत अभियान’ गाँधी के स्वच्छता के विचारों से प्रेरित है।‌ आज जब दुनिया के देश पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित विभिन्न समझौतों पर हस्ताक्षार हो रहें है तो यहाँ इस बात की जरूरत साफ़ महसूस होती है कि हमें अपने पर्यावरण नीतियों की प्रभावशीलता को बढ़ाना है तो इनमें गांधी दर्शन को समाहित करना होगा और उन्हें लोक तक पहुंचाना होगा। अक्टूबर 2018 में मैथिली भोजपुरी अकादमी, दिल्ली द्वारा ‘लोक में गांधी:गीत गायन’ कार्यक्रम आयोजित कराया गया। इसमें गांधी पर भोजपुरी में लिखे गए लोक गीतों का गायन चंदन तिवारी द्वारा किया गया। ये गीत विशेषकर चरखा, जमींदारी प्रथा और स्वदेशी पर आधारित थे। कुछ शीर्षक इस प्रकार हैं, ‘चरखवा चालू रहे’, ‘हम चरखवा कातब हरि’, ‘छोड़ द जमींदारी प्रथा’ आदि गीतों को सुनकर ऐसा लगता है कि यह गीत भी आजादी पूर्व लिखे गए होंगे और आज तक लोक में प्रचलित हैं। गांधी का लोक पर प्रभाव कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। गांधी जनमानस में युगों-युगों तक रहेंगे, इस संदर्भ में प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह 

‘दिनकर’ की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं,
“एक देश में बाँध संकुचित करो न इसको,
गाँधी का कर्तव्य-क्षेत्र दिक नहीं, काल है।
गाँधी हैं कल्पना जगत के अगले युग की,
गाँधी मानवता का अगला उद्विकास हैं।"

सोनम तोमर
शोध छात्रा, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
tomarsonam888@gmail.com  

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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