स्वतंत्रता पूर्व प्रतिबंधित नाटक और ‘नील दर्पण’
- अरहमा खान

सन् 1757 ई० के प्लासी के युद्ध के पश्चात् ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। इसके एक साल पहले पहली आधुनिक रंगशाला ‘प्ले हाउस’ बन चुकी थी और 1775-1800 तक अंगेजों ने अपने मनोरंजन के लिए भारत में सात से अधिक रंगशालाओं का निर्माण कराया और ये सभी रंगशालाएं पश्चिमी पद्धति से प्रभावित थीं। सन् 1795 ई० में पहली बार विक्टोरियन रंगमंच पर बांग्ला में अनुदित अंग्रेजी के दो नाटकों- ‘द डिस्गाइज’ एवं ‘लव इज द बेस्ट डॉक्टर’ रुसी नागरिक लेबेदेफ के बंगाल थियेटर द्वारा प्रस्तुत करने का उल्लेख मिलता है। इससे पहले भारतीय भाषाओं में रंगमंच की अनुमति नहीं थी। इन दोनों नाटकों को बांग्ला में प्रस्तुत करने के लिए तत्कालीन गवर्नर जनरल ‘सर जॉन शोर’ की अनुमति लेनी पड़ी थी। औपनिवेशिक विचार के लोगों ने सन् 1813 ई० में उच्च वर्ग के भारतीय अभिजात वर्ग के लिए भी रंगमंच का दरवाजा खोल दिया। नाटक की प्रस्तुति देखने के लिए उच्च वर्ग के भारतीयों की संख्या बढ़ने लगी। यह अब केवल दर्शक के रूप में नहीं रंगकर्मी के रूप में शामिल होने लगे तथा यूरोपीय नाटकों की प्रस्तुति भी करने लगे। यूरोपीय पद्धति के नाटक की रंगयुक्ति तथा तकनीकी प्रभाव भारत के लिए बिल्कुल नई और आकर्षित थी। इसी कारण नयी रंग संस्कृति के प्रति भारतीय उच्च वर्ग आकर्षित हुआ। उच्च वर्गीय भारतीय को महसूस हुआ कि भारतीय भाषाओं में भी नाटक को प्रस्तुत किया जा सकता हैं और इसके लिए प्रयास भी शुरू किये गए, इसके फलस्वरूप देशी भाषा में पाश्चात्य पद्धति के रंगमंच का विकास होने लगा। देशी भाषा में विकसित पाश्चात्य पद्धति के नाट्य प्रस्तुति में अंग्रेजी शासन पर होने वाली व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ दर्शकों को बहुत पसंद आती। भाषा का ज्ञान न होने के कारण कुछ समय तक अंग्रेज इन व्यंगात्मक टिप्पणियों से अनभिज्ञ थे, परन्तु धीरे-धीरे अंग्रेज सरकार को ज्ञात होने लगा। अंग्रेज देशीय रंगमंच के बढ़ते चलन को दबाने के लिए पाश्चात्य रंगमंच को आदर्श रंगमंच बताने लगे तथा देशीय रंगमंच को अनैतिकता, अबौद्धिकता और अभ्रदता की बहुलता और निम्न स्तर के रंगमंच से सम्बोधित करने लगे। सन् 1831 में बंगाल के निवासी प्रसन्न कुमार टेगौर ने ‘हिन्दू थियेटर’ खोला। यह थियेटर भारतीय पारंपरिक नाटकों से बिल्कुल अलग थे। औपनिवेशीकरण की विस्तार-नीति के तहत अंग्रेजों ने स्कूल-कॉलेजों में भी यूरोपीय नाटकों की प्रस्तुति की अनुमति दे दी और पाश्चात् संस्कृति में ढलते देखकर उनको प्रोत्साहित करने लगे।
सन् 1842 में अंग्रेजों की अफगान से हार फिर सन् 1857 के जन विद्रोह ने अंग्रेजों को विचलित कर दिया। ब्रिटेन विश्व के समक्ष अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाये रखना चाहता था। अंग्रेज भारत में अपनी पकड़ कमजोर नहीं करना चाहते थे परिणामतः उन्होंने भारत में नये-नये दमनकारी कानून बनाने शुरू कर दिये थे। अंग्रेजों द्वारा बनाये गये दमनकारी कानून में से एक सन् 1876 का नाट्य प्रदर्शन अधिनियम हैं, जिसने उभरते हुए रंगमंच को अपने शिकंजे में ले लिया। उन्नीसवीं सदी के छठे दशक तक मशीनों पर आधारित उद्योगों की स्थापना हो चुकी थी। सूती कपड़ा मिलों में नील का उपयोग रंगाई के लिए किया जाता था। निलहे अंग्रेज (इंडिगो प्लांटर्स) बंगाल और बिहार के किसानों से जबरन नील की खेती कराकर उनका जमकर शोषण कर रहे थे। सन् 1860 तक आते-आते नील की खेती का मुद्दा राष्ट्रवादी प्रदर्शन का हिस्सा बन गया। दीनबंधु मित्र ने इसी मुद्दे पर आधारित ‘नीलदर्पण’ नाटक की रचना की। ‘नीलदर्पण’ नाटक सन् 1860 में ढाका से प्रकाशित हुआ। नाटक का प्रदर्शन अनौपचारिक रूप से 8 मार्च 1862 में कोलकत्ता के नाट्य समाज में हुआ तथा औपचारिक रूप से 7 दिसम्बर 1872 में नेशनल थियेटर द्वारा हुआ। इन्हीं मुद्दों को उठाये जाने पर अंगेजी सरकार ने छानबीन के लिए नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया। नाटक को अंग्रेजी में अनुवाद के लिए चर्च मिशनरी सोसाइटी के पादरी जेम्स लांग ने किसान असंतोष के लिए बने आयोग के सचिव सीटन कार (seaton-carr) से अंग्रेजी में अनुवाद की अनुमति ले ली। अनुदित नाटक को माइकेल मधुसूदन दत्त ने जेम्स लांग की सहायता से प्रकाशित करवाया। लांग ने अनुदित नाटक की प्रतियों को इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भिजवाया। वहाँ नाटक को राजद्रोह की संज्ञा दी गई। ‘दीनबन्धु मित्र (1830-1873) द्वारा बांग्ला में रचित पहले विद्रोह-नाटक ‘नीलदर्पण’ (द इंडिगो-प्लांटिंग मिरर) के प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगाने की सूचना (मारवाड़ी गजट, 5 सितम्बर 1897)- इसी प्रकार की है।’ इस कारण लांग को एक माह के कारावास और एक माह के अर्थदंड से दंडित किया गया। बंगाल में ‘नीलदर्पण’ के प्रदर्शन पर रोक लगने के बाद लखनऊ की छत्तर मंजिल (वर्तमान नाम सी० डी० आर० आई०) में नाटक के प्रदर्शन के बाद विद्रोह हुआ। इसके पश्चात् कई नाटकों तथा प्रहसनों को अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंधित कर नियमों में कठोरता दे दी।
सन् 1876 ई० में उपेन्द्रनाथ दास का प्रसहन ‘गजानंद ओ युवराज’ ग्रेट नेशनल थियेटर में प्रस्तुत हुआ। इस प्रहसन में प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत प्रादेशिक विधान-परिषद् के सदस्य जगदानंद मुखर्जी ने घर की महिलाओं से पारंपरिक रूप से होने वाले परिहास के रूप में किया है। इसी कारण स्थानीय पुलिस ने अध्यादेश निकाला- ‘बंगाल शासन को कतिपय ऐसे नाट्य प्रदर्शन को, जो कि अपमानजनक, निंदाजनक, राजद्रोहजनक, अश्लील या अन्यथा लोकहित के प्रतिकूल हो, प्रतिबंधित करने का अधिकार दे दिया।’ उपेन्द्रनाथ दास के नाटक ‘सुरेन्द्र विनोदनी’, ‘गायकवाड़ दर्पण’ तथा दक्षनन्दन उपाध्याय के ‘चाकर दर्पण’ में भी अंग्रेजी राज्य की आलोचना की गयी है। 1 मार्च 1876 में ‘द पुलिस ऑफ पिग ऐंड शीप’ प्रहसन जिसमें कमिश्नर स्टुअर्ट हॉग और पुलिस अधिक्षक लैंब का मजाक बनाये जाने के कारण इसके प्रदर्शन पर रोक लग गई और साथ ही उपेन्द्रनाथ के नाटक ‘सुरेन्द्र विनोदनी’ पर भी रोक लग गई। इस मण्डली के नाटककार तथा निर्देशक उपेन्द्रनाथ दास थे, उन्हें एक महीने की कैद की सजा सुनाई गई। इसके पश्चात् भी श्रृंखला टूटी नहीं अन्य नाटक ‘भारतमाता विलाप’ (1873) तथा अर्धेदु शेख मुस्तफी का प्रहसन ‘मुस्तफी साहिबा का पक्का तमाशा’ (1873) पर शासन की नजर गयी।
इसी के चलते 16 दिसम्बर 1876 को नाट्य प्रदर्शन अधिनियम (ड्रामेटिक परफॉरमेंसेज एक्ट, 1876) बनाया गया। राधाकृष्ण दास के नाटक ‘महाराणा प्रताप’ के निर्देशन के समय माधव शुक्ल ने ‘जय-जय श्री तिलकदेव भारत हितकारी’ गीत जोड़ दिया जिसके कारण शुक्ल के नाटक ‘महाभारत’ को जब्त कर लिया गया। जलियांवाला बाग़ कांड पर आधारित श्री कृष्ण पहलवान की नौटंकी ‘खूने नाहक’ के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई। वृंदावनलाल वर्मा का नाटक ‘सेनापति उदल’ (1908) प्रकाशित होने से पूर्व सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया। गोरखपुर से निकलने वाली ‘स्वदेश’ पत्रिका में पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की एकांकी ‘लाल क्रांति के पंजे’ प्रकाशित होने के कारण पत्रिका के सम्पादक पं० दशरथ प्रसाद द्विवेदी को ढाई साल तथा उग्र को एक साल की सजा मिली। उग्र जी की एकांकी ‘अफजल वध’ (1928) मतवाला पत्रिका में प्रकाशित होने पर बंगाल सरकार ने सम्पाक पर केस दर्ज किया। माणिकलाल डांगी ने शाहजहाँ थिएट्रिकल कंपनी कोलकाता में कई नाटकों को प्रस्तुत किया, उनमें से ज्यादातर प्रतिबंधित कर दिए गये। डांगी जी का सन् 1939 में ‘दुर्गादास राठौड़’ नाटक प्रतिबंधित किया और सन् 1939 लाहौर में सिकंदर हयात की मिनिस्ट्री ने ‘हिटलर’ नाटक पर प्रतिबन्ध लगाया। सन् 1942 में बी० सी० मधुर का नाटक ‘जागो बहुत सोये’ नाटक का मंचन अमृतसर में हुआ। इससे पूर्व बंगाल सरकार के नाटक का मंचन हो चुका था। नाटक देखने के पश्चात् लोग भावुक हो गये और एकत्रित होकर नारे लगाए।
इसी कारण नाटक पर प्रतिबन्ध लग गया। ज्यादातर प्रतिबंधित नाटक राजनीति से सम्बन्धित हैं, परन्तु नारायणप्रसाद बेताब का नाटक ‘कत्ले नज़ीर’ (1901) का कथानक दिल्ली में नज़ीर नाम की वेश्या के क़त्ल पर आधारित है।
भारत में अंग्रेजों का आगमन हुआ तो उन्होंने कृषि का वाणिज्यिकरण किया साथ ही साथ व्यावसायिक कृषि जैसे नील, कपास, चाय, मसाले आदि की खेती पर जोर दिया। भारत की कृषि प्रणाली व्यक्तिगत एवं पारिवारिक उपभोग न होकर व्यावसायिक कृषि में परिवर्तित होने लगी। व्यावसायिक कृषि में नील की खेती सर्वप्रथम सन् 1777 में बंगाल में लगायी गयी। यूरोप में ब्लू डाई की अच्छी मांग की वजह से नील की खेती करना आर्थिक रूप से लाभदायक था। नील से जमीन की उर्वरक शक्ति घटती है। इसी के चलते अंग्रेजी नीलकर मनमाने तरीके से नील की खेती भारत में करते थे। उन्नीसवीं सदी के छठे दशक तक मशीनों पर आधारित उद्योगों की स्थापना हो चुकी थी। इंडिगो प्लांटर्स बंगाल और बिहार के किसानों से जबरन खेती कराकर उनका शोषण कर रहे थे। सन् 1860 में नील की खेती का मुद्दा राष्ट्रवादी प्रदर्शन बन गया। उसी समय सन् 1860 में देशबन्धु मित्र ने ‘नील दर्पण’ नाटक लिखकर नील की खेती से प्रताड़ित किसानों की पीड़ा से प्रत्यक्ष रूप से अवगत कराया। ‘राजनैतिक नाटकों में ‘नील दर्पण’ (1860) अन्यतम है जिनमें नील की खेती करने वाले अंग्रेजों के अत्याचारों का खुला प्रदर्शन किया गया।’ इस नाटक में अपने समय की ज्वलंत समस्या को उठाया गया था। सन् 1872 में कलकत्ता नेशनल थियेटर ने इसका विधिवत् सार्वजनिक प्रदर्शन किया। ‘नीलदर्पण अर्थात् स्थापित होते ही बंगला का स्थायी रंगमंच जनता की पीड़ाओं का वाहक और तीव्र राजनीतिक चेतना का प्रवक्ता बन चुका था।’ बुद्धिजीवियों में किसानों के प्रति गहरी सहानुभूति को जागृत करने वाला महत्वपूर्ण नाटक है साथ ही नील की खेती में हुई गड़बड़ियों के पहलुओं पर भी प्रकाश डालता है, जिनका आधिकारिक रूप से रिपोर्टों में उल्लेख नहीं मिलता है।
नाटक के कथानक में पश्चिमी-शिक्षित ग्रामीण मध्यम वर्ग को केंद्र में रखा गया है। परिवार के मुखिया, गोलोकचन्द्र बसु, जो बुजुर्ग कुलपति हैं, शांति बनाए रखने के लिए समझौता और नील से बचाव के लिए भारी रकम का भुगतान भी करते हैं। इसी के विपरीत उनका बड़ा बेटा नवीनमाधव बसु निलहों के अत्याचार के विरुद्ध अपने जीवन को जोखिम में डालने से भयभीत नहीं होता और छोटा बेटा बिंदुमाधव शहर में कॉलेज से पश्चिमी शिक्षा ग्रहण कर रहा था। बिंदुमाधव कानूनी दाव पेंच से अवगत होने पर भी नील से परिवार को बचा नहीं पाता है। नाटक में स्वरपुर, शामनगर, शांतिघाटा नामक तीन काल्पनिक गाँवों का निर्माण किया गया है। लेखक ने औपनिवेशिक शासन के साथ सीधा टकराव न करके प्रामाणिक व्यग्रता को प्रमुखता दी। नाटक का प्रारंभ साधुचरण और गोलोकचन्द्र बसु के वार्तालाप से होता है। साधुचरण नील से मुक्ति का उपाय केवल गाँव को छोड़ना मानता है। किसान इतने असहाय थे कि उनके समक्ष सारे उपाय धूमिल हो चले थे। गोलोकचन्द्र नील से पूर्व स्वरपुर का एक नक्शा दर्शाता है- ‘बड़े-बूढ़े जो जमीन जायदाद बना गये, उसकी वजह से कभी दूसरे की नौकरी नहीं करनी पड़ी। जितना धन होता है उसमें बरस भर का खाना-पीना चल जाता है, मेहमानदारी चल जाती है, पूजा का खर्च निकल आता है। जो सरसों मिलती है उसमें तेल की जरुरत पूरी होने के बाद आठ-सत्तर रुपये की बिक्री भी हो जाती है। समझते हो भैया, मेरे सोने के स्वरपुर में किसी बात का दुख नहीं। खेती के चावल खेत की दाल, खेत का तेल, खेत का गुड़, बगीचे की तरकारी और तालाब की मछलियाँ।’ गोलोकचन्द्र सुखद समय के नोस्टेल्जिया में घिरे हुए नजर आते है। इसी प्रकार नवीनमाधव तथा अन्य पात्रों द्वारा लेखक दोनों समय की तुलना करवाते है। नील से पूर्व किसान साधारण सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे थे तथा खेती से प्राप्त अन्न उनके निर्वाह हेतु पर्याप्त था। लेखक मुख्यत: कृषि में पैतृक तत्वों पर जोर देने के लिए चिंतित हैं। नाटक गरीब किसानों के अतुलनीय आर्थिक और सामाजिक शोषणों के प्रमाणिक पहलुओं को दिखाने में भी तत्पर है।
बसु परिवार की स्त्रियाँ विचारशील तथा युक्तिसंगत हैं और शिक्षा को सार्थक कर्म भी समझती हैं। गोलोकचन्द्र बसु की छोटी पुत्र वधु सरलता अपनी व्यथा सुनाती है- ‘हम पाँच सखियाँ एक साथ बाग़ में नहीं जा सकती, नगरभ्रमण में अक्षम है, अपने मंगल के लिए सभा-स्थापना सम्भव नहीं, हमारा कॉलेज नहीं, कचहरी नहीं, ब्रह्म समाज नहीं...स्त्री का मन कातर होने पर बहलाने का कोई उपाय नहीं।’ स्त्री की व्याकुलता तथा झटपटाहट को लेखक सरलता के माध्यम से उद्धरित करते हैं। सरलता पश्चिमी संस्कृति से स्पष्ट रूप से परिचित है, अत: वह अपने पति को बंगला में अनुदित शेक्सपियर की पुस्तकों को पढ़ने की इच्छा व्यक्त करती है। बसु परिवार की स्त्रियाँ खाली समय में विद्यासागर की ‘बेताल’ कथा सुनकर अपना मनोरंजन करती हैं। नाटक में स्त्रियाँ शिक्षा के महत्त्व को उजागर करती हैं। उसी प्रकार नवीनमाधव भी आधुनिक शिक्षा को प्राथमिकता देते हैं। वह आशा करता है कि नीलकरों के अत्याचार समाप्त होने के पश्चात् वह अपने घर के मैदान में एक स्कूल स्थापित करेगा। अशिक्षित व्यक्ति के मुकाबले साक्षर व्यक्ति को न्याय प्राप्त करने के बेहतर मौके प्राप्त होते हैं। नवीनमाधव अपने पिता पर नीलकरों के विरुद्ध अदालत जाने के लिए दबाव डाल रहे थे। नवीनमाधव को जमींदार के रूप में परोपकारी पक्ष की तरह उजागर किया गया है। ‘दीनबन्धु मित्र ने स्वयं को समकालीन जमींदार-साहूकार के रक्षक के रूप में प्रतिपादित किया, जैसे कि नवीनमाधव को नायक के रूप में व्यक्त किया।’
नाटक में दो नीलकर वुड और रोज़ दमनकारी शासक के प्रतीक के रूप में चित्रित हैं। ये जबरन किसानों की खेती पर कब्ज़ा करके उनसे नील की खेती करवाते हैं। कानून के बल पर अनभिज्ञ किसानों की खेती पर जबरन अधिपत्य जमाते, जो भी प्रतिरोध करता उनको लठैत के बल पर आतंकित करते और फौजदारी के मुकदमों में फंसा कर उसको आर्थिक रूप से तोड़ देते हैं। नीलकर अर्थ के समक्ष नैतिकता को महत्वहीन समझते हैं। रोज़ के द्वारा नीलकरों के चरित्र का खाका लेखक प्रस्तुत करते है- ‘हम नीलकर है। हम दूसरा जम है। खड़ा-खड़ा कितना गाँव जला दिया, बेटा को दूध पिलाता हुआ कितना माँ लोग जलकर मर गया। वह देखकर क्या हमको तरस आता? तरस आता तो क्या हमारा कोठी रहता? हाम लोग बुरा आदमी नेहीं, नील का काम में हमारा सुभाव ही ऐसा हो गया।’ लेखक नीलकरों की बुरी से बुरी छवि प्रस्तुत करके सन् 1860 के नील विद्रोह में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराना चाहते थे। नाटक में नीलकरों के निरंतर लालच और अत्याचार को प्रभावी ढंग से कुछ उदाहरणों के माध्यम से उजागर किया गया है। ‘तो बंगला में नील-दर्पण (दीनबन्धु मित्र, 1860) जैसी रचना लिखी गई जो नील साहबों के अत्याचारों के विरुद्ध एक प्रतिवाद के रूप में सामने आई और उसने जातीय अथवा सांप्रदायिक सीमाओं से ऊपर उठकर साम्राज्यवादी शोषण के आर्थिक तथा नैतिक प्रश्नों को सामने रखने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।’ नाटक का मुख्य उद्देश्य तत्कालीन ग्रामीण किसानों पर नीलकरों का शोषण और उत्पीड़न को उद्धटित करना था।
नाटक में प्रायः किसान दमन के प्रति नीरस दिखाई देते हैं, वहीं लेखक ने तोराप किसान को विद्रोही के रूप में चित्रित किया है। ‘एक प्रगतिशील लेखक के रूप में दीनबन्धु की प्रसिद्धि के लिए तोराप काफी हद तक जिम्मेदार है।’ तोराप गर्भवती किसान महिला क्षेत्रमणि को अधर्मी नीलकर रोज़ से बचाता है और अपने अन्दर बसे गुबार या यूं कहें सारे किसानों का बदला रोज़ को पीटकर लेता है। ‘इसे मेरे हाथ के थप्पड़ की जरुरत है। (गर्दन पकड़कर थप्पड़ मारते हुए) चिल्लाया तो जहन्नुम भेज दूँगा। (गला दबाते हुए) पाँच दिन चोर की, एक दिन साह की। पाँच दिन खिलाया, अब एक दिन खा।’ लेखक दर्शकों को कहीं न कहीं सुख के क्षण भी प्रदान करता है। नाटक में गोपीनाथ और मिसरानी पदी सही-गलत की दृष्टि रखने वाले हैं, परन्तु स्वार्थपूर्ति हेतु घिनौने कार्य में नीलकरों के सहयोगी बने रहते हैं।
नाटक में बंगाल में नील की खेती करने वाले भारतीय किसानों के ऊपर अंग्रेजों के अमानुषिक अत्याचारों की भावपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। नाटक में उस समय की ज्वंलत समस्या को उठाया गया है। नाटक में दो निलहों- जे० जे० वुड और पी० पी० रोज को सीधे तौर पर किसानों पर अत्याचार का दोषी ठहराया गया है। यह नाटक जैसाकि नाम से ही स्पष्ट है कि यह नील की खेती करने वाले किसानों की दर्दनाक कथा को बयान करता है। एक रैयत की बेटी क्षेत्रमणि के साथ रोज़ बदसलूकी, बेकारी और अत्याचार के कारण सारे पात्र दम तोड़ देते हैं। नाटक के कथानक से प्रतीत होता है कि दीनबन्धु अन्य लोगों की विपत्ति से प्रभावित होते थे, इसी कारण उन्होंने बंगाल के रैयतों के दुखों के प्रति पूरी सहानुभूति व्यक्त की और नील दर्पण की रचना की। नाटक में विदेशी ताकतों के विरुद्ध गरीब किसान तथा जमींदारों का एकीकरण मिलता है। नाटक में संवादों ने सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखा है। नाटक की भाषा में पात्रों तथा स्थिति के अनुसार विभाजन मिलता हैं।
अरहमा खान
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
arhamakhanjmi@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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