शोध आलेख : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता का सामाजिक-राजनीतिक सरोकार (संदर्भ : आपातकाल और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता) / भूमिका राजेन

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता का सामाजिक-राजनीतिक सरोकार 
(संदर्भ : आपातकाल और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता )
- भूमिका राजेन

शोध सार : आधुनिक काल में हिंदी कविता की मूल्य चेतना में आमूल परिवर्तन राजनीतिक परिदृश्य के प्रति जागरूकता के रूप में हुआ। आजादी के पश्चात स्थापित लोकतंत्रात्मक व्यवस्था ने शासन तंत्र में लोक की भागीदारी को वैधानिक रूप से सुनिश्चित किया तथा शासन का उद्देश्य लोककल्याण संविहित हुआ। परंतु आजादी के कुछ समय पश्चात ही जनतंत्र में से जन धीरे-धीरे लुप्त होने लगा। चूँकि कविता अपने आधुनिक रूप में मानवीय जीवन की खुरदरी वास्तविकता से अपनी प्रतिबद्धता जता चुकी थी, इसलिए कविता में आजादी से मोहभंग तथा तत्कालीन शासन व्यवस्था के लोक-अमंगलकारी रवैया का तीखा प्रतिरोध शुरू हुआ। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना नयी कविता के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं, शुरू की कविताओं में रोमानी भावबोध के बावजूद सर्वेश्वर अपने समय के सत्य से विमुख नहीं रह पाते हैं। उनकी कविताओं में आपातकाल और उसके आसपास के समय के सामान्य व्यक्ति के संत्रास, पीड़ा, अशब्द अभिव्यक्तियाँ मुखर है। सर्वेश्वर की इन कविताओं का विश्लेषण उस दौर का विश्लेषण माना जा सकता है।

बीज शब्द : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, आपातकाल, आधुनिक हिंदी कविता, राजनीतिक चेतना, नयी कविता, प्रतिरोध की कविता, इंदिरा गांधी, भारतीय राजनीति, मोहभंग।

मूल आलेख : 26 जून 1975 से लेकर 21 मार्च 1977 तक का समय भारत देश के लिए सबसे अलोकतांत्रिक काल के रूप में जाना जाता है। यह वह दौर था जब अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तमाम वैधानिक प्रावधानों को दरकिनार करते हुए 26 जून 1975 को आंतरिक आपातकाल घोषित कर दिया। इस समय जनता से उनके जीने के अधिकार के अतिरिक्त सभी मानवाधिकार को छीन लिया गया। सभी विरोधी दल के नेताओं को जो इंदिरा गांधी के शासन के लिए खतरा थे उन्हें मीसा कानून के तहत जेल में बंद कर दिया गया। उनके साथ जेल में अपराधियों से बदतर सलूक किया गया। प्रेस पर सेंसरशिप लागू की गयी जिससे शासन की कुरीतियों को छिपाया जा सके और आम जनता तक कोई भी बात पहुँच सके। अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं रहा जो भी शासन के विरुद्ध आवाज उठाने का प्रयास करता उसे सीधे जेल में डाल दिया जाता, जिसके चलते कई कॉलेज प्राध्यापक, वकील आदि को जेल जाना पड़ा। उस समय की विडंबना यह है कि एक लोकतांत्रिक देश में अपनी आवाज उठाने पर एक लाख से अधिक लोगों की गिरफ्तारियाँ हुई और उन्हें अपील, वकील तथा दलील का भी अधिकार नहीं था। इन सब के चलते पुलिस प्रशासन भी निरंकुश हो गया जिससे लोगों में दहशत का वातावरण फैल गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शासन को अपने अनुकूल चलाने के लिए संविधान से भी खिलवाड़ किया और अपने अनुकूल उसमें बदलाव भी किए। संविधान संशोधनों का दौर चला और कार्यपालिका पर पूर्ण रूप से नियंत्रण रखने के लिए न्यायपालिका की शक्ति को कम कर दिया गया। यहाँ तक कि नागरिक अधिकारों का भी हनन किया गया। जुलाई 1975 में आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा) को भी परिवर्तित किया गया। जिसने एकपब्लिक स्टेट’(गणराज्य) कोपुलिस स्टेट में तब्दील कर दिया। दूसरी और जनकल्याण के नाम पर बीस सूत्रीय कार्यक्रमों का निर्माण किया, जो मात्र कार्यक्रम ही रह गए वह सामान्य जनता की स्थिति में कोई सकारात्मक बदलाव उपस्थित नहीं कर पाए।

कविता व्यक्ति के जीवन का अंग बन चुकी है जिसे वास्तविक जीवन से अलग करके देखना संभव नहीं है। जिस प्रकार समय के साथ परिवेश और समाज में परिवर्तन होता है ठीक उसी प्रकार कविता के मूल्यबोध में परिवर्तन उपस्थित होता रहता है। कविता की यथार्थ के प्रति प्रतिक्रिया भी हर समय की मौलिक होती है। कविता ही वह एक माध्यम है जिसमें किसी काल की सामान्य स्थितियों तथा सामान्य व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिंबि देखा जा सकता है। यह एक ऐसा कारगर माध्यम है जो पूर्व समय में गुजरे व्यक्ति की मनोदशा से वर्तमान व्यक्ति को भावात्मक रूप से जोड़ता है। इसी भावात्मक रूप से हर व्यक्ति को जोड़ने का प्रयास सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने भी किया। सर्वेश्वर नयी कविता के महनीय कवि हैं। कविता में समसामयिकता के समावेश का श्रेय सर्वेश्वर को है। इनकी प्रारंभिक रचनाओं 'काठ की घंटियाँ', 'बाँस का पुल' और 'एक सूनी नाव' में वैयक्तिक स्वर की अधिकता है। वहीं आगे के संग्रहों में वह सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश को अपने में समाहित करते दिखाई पड़ते हैं। देश और समाज की तत्कालीन विद्रूप परिस्थितियाँ उनके भावबोध में परिवर्तन उपस्थित करती हैं। उनके आगे के संग्रहोंगर्म हवाएँ, कुआनो नदी, खूँटियों पर टँगे लोगऔरकोई मेरे साथ चलेमें विद्यमान यथार्थ की मौलिक समझ मिलती हैं।

कोई भी दौर जब आता है तो वह अचानक नहीं जाता उसके पूर्व उसकी स्थितियों का निर्माण होना प्रारंभ हो जाता है। आपातकाल के पूर्व का समय भी कुछ ऐसा था। 'कुआनो नदी' संग्रह आपातकाल के पूर्व का संग्रह है। इस संग्रह में उन स्थितियों को देखा जा सकता है जिसने आम जनजीवन को खटास से भर दिया। यह खटास राजनीतिक देन थी जिसने धीरे- धीरे लोगों के मन को असंतोष से भरना प्रारंभ किया था। 1971 का चुनाव और उसमें दिया गया नारा 'गरीबी हटाओ' एक ऐतिहासिक महत्व रखता है जिसके बल पर इंदिरा गांधी भारी बहुमत से विजयी हुई, परंतु यह नारा खोखला साबित हुआ 'गरीबी हटाओ' की जगह गरीबी, भुखमरी, लाचारी, महँगाई और अधिक बढ़ गई। बांग्लादेश से युद्ध और एक लाख से अधिक बांग्लादेशी शरणार्थियों के शिविरों पर राष्ट्रीय कोश से अत्यधिक व्यय किया गया। जिससे भारत देश की जनता की स्थिति और दयनीय होने लगी। सर्वेश्वर की कविताओं 'गरीबी हटाओ', भुजैनियाँ का पोखरा', 'दुकेली मौत' ,'शरणार्थी', 'बाँस गांव' में इन स्थितियों का चित्रण मिलता है।

इस दौरान अनेक छात्र वर्ग बढ़ती मँहगाई, गरीबी, भुखमरी को लेकर आंदोलन करते थे, जो हिंसात्मक रूप ले लेते। प्रशासन उन्हें दबाने के लिए लाठी चार्ज जैसे कदम उठा लेता जिससे लोग गंभीर रूप से घायल होते। मार्च 1974 के हुए बिहार आंदोलन में तो एक सप्ताह ही में 27 लोग मारे गए थे।[1] इस निरंतर होते हिंसात्मक आंदोलनों का जिक्रकुआनो नदीमें मिलता है।

"यह बच्चा है इसका कटा हुआ धड़

बस्ता लिये स्कूल के फाटक पर पड़ा है

इसके हाथ में पत्थर है/ जिसे वह पुलिस पर फेंक रहा था,

यह बूढ़ा अपनी सूखती फसल के लिए/ रात में बरहा काट रहा था,

यह जवान जब कुछ नहीं बना/ छर्रों की बंदूक लिये हवेलियाँ लूटने की

सोच रहा था।"[2]

इन पंक्तियों में उस स्थिति की संपूर्ण वेदना प्रकट होती है। गरीबी इंसान को हवेलियाँ लूटने तक के लिए मजबूर कर रही है परंतु इन सारी स्थितियों के पीछे के कारण जानने और उसे सुलझाने की जगह ऐसे नौजवानों को हटाया जा रहा था।हंजूरीजैसे कितने ही भूख से पीड़ित व्यक्ति काम की तलाश में रहते हैं और अंततः अपने परिवार का पोषण ना करने के कारण अपने परिवार सहित आत्महत्या का मार्ग अपनाते है। वहीं कुछ नौजवान अपनी स्थिति से लड़ने के लिए 'मंटू बाबू' की तरह हथियार उठाते हैं। परिणामस्वरूप दोनों को ही हत्यारा घोषित कर जेल नसीब होती है। ऐसी स्थिति के कारण ही सारा वातावरण मुर्दा ठंडेपन से भरा लगता है।

"कितनी ठंड है/कपोलों पर ढुलके आँसू/ जम गए।

कितनी ठंड है/ शब्द कंठ में ही/ बर्फ़ हो गए।

फिर भी स्मृतियाँ/ आग की तरह धधक रही हैं,

जैसे बर्फ में मशाल लेकर/ कोई जा रहा हो।"[3]

भूखा व्यक्ति अपने पेट भरने के अतिरिक्त कुछ भी सोचने में अक्षम होता है। भूख ही उसकी प्राथमिक समस्या रही है। जिसके पेट भरे होते हैं वह ही अध्यात्म और विचारधारा की बात सोचते हैं। 'पोस्टमार्टम की रिपोर्ट' कविता इसी स्थिति का पोस्टमार्टम है। वहीं 'भूख' कविता एक नवीन सौंदर्यबोध को लेकर आती है। यह सौंदर्य किसी रूप का सौंदर्य नहीं बल्कि जीवन जीने के संघर्ष का सौंदर्य है। यह कविता हर उस प्राणी में सौंदर्य को देखती है जो अपनी भूख से लड़ने के लिए खड़ा होता है। यह कविता आम जन में चेतना लाने और अपनी भूख के लिए लड़ने की प्रेरणा देने के सन्दर्भ में है।

अब यहाँ विडंबना यह है कि आम जन जब अपनी लड़ाई लड़ने के लिए स्वयं खड़ा होता है तो इस आग में अपनी रोटी सेकने वाले राजनीतिक तत्व भी सम्मिलित हो जाते हैं। जैसा कि बिहार आंदोलन में हुआ। वहाँ भी मुख्य बात परिवर्तित हो गयी और सत्ता परिवर्तन पर पहुंच गयी। अक्सर ऐसी विषाक्त राजनीति के मध्य गरीब ही पिसता है। वह अपने लिए लड़ नहीं पाता परंतु जब लड़ने जाता है तो अक्सर राजनीतिक दाव-पेंच में उसका मोहरे के ढंग से उपयोग किया जाता है। इसी वर्ग की आवाज़ बनती हुई सर्वेश्वर की कविताएँ दिखाई पड़ती हैं।

"जब सब बोलते थे/ वह चुप रहता था,

जब सब चलते थे/ वह पीछे हो जाता था,

जब सब खाने पर टूटते थे/ वह अलग बैठे टूँगता रहता था ,

जब सब निढाल हो सोते थे/ वह शून्य में टकटकी लगाये रहता था,

लेकिन जब गोली चली/ तब सबसे पहले वही मारा गया।"[4]

इन्हीं समकालीन आवश्यकता के अनुरूप सर्वेश्वर की कविताएं अधिक मुखर और आक्रामक होती चली गयी हैं। तत्कालीन परिवेश में निरंतर उथल-पुथल मच रही थी। गरीब भूखे पेट सोने को विवश था। बेरोजगारी ने आम नागरिक के जीवन को हिला के रखा था परंतु सत्ता की अपनी एक अलग लड़ाई जारी थी। राजनारायण ने इलाहबाद उच्च न्यायालय में इंदिरा गांधी के खिलाफ 1971 के चुनाव के अंतर्गत भ्रष्ट आचरण अपनाने हेतु याचिका दायर की थी, जिसका 12 जून 1975 में न्यायमूर्ति सिंहा ने फैसला सुनाया। उन्हें भ्रष्ट आचरण में लिप्त होने का दोषी पाया गया और उनके चुनाव को अमान्य घोषित किया गया। जिससे कारण उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से त्यागपत्र देना था और अगले चुनाव में उनकी भागीदारी भी असंभव थी। इसके चलते इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की। जिसका निर्णय 14 जुलाई 1975 को आने वाला था। इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्ण अय्यर ने यह घोषित किया कि इंदिरा गांधी सर्वोच्च न्यायालय की संपूर्ण पीठ का फैसला आने तक अपने पद पर आसीन रह सकती हैं। इस फैसले ने विपक्ष में हलचल मचा दी और वे इंदिरा गांधी के त्याग पत्र की माँग करने लगे। जय प्रकाश नारायण ने 25 जून को एक रैली के तहत 29 जून से एक सप्ताह के लिए राष्ट्रव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन की घोषणा की। इसमें उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वह सरकारी काम को चलने दे और सेना, पुलिस बल आदि सरकारी अधिकारियों से अपील की गई कि वह सरकारी आदेशों को ना माने। इस आंदोलन का अंत प्रधानमंत्री निवास का घेराव कर उनसे त्याग पत्र देने का दबाव बनाना था। इंदिरा गांधी भी पद छोड़ने के लिए राजी नहीं थी, वह अपनी ताकत को ऐसे ही खोना नहीं चाहती थी जिसके कारण उन्होंने आंतरिक आपातकाल की घोषणा की। आपातकाल के कारण वातावरण में निस्तब्ध शांति छा गयी परंतु यह शांति वातावरण में ही थी लोगों के जीवन में नहीं। आम नागरिक पहले से ही लोकतंत्र में अपनी विचित्र स्थिति से जूझ रहा था। लेकिन पूर्व में भले ही उसके पास आवास, रोजगार और भोजन की कमी थी पर स्वतंत्रता थी भले ही वह नाम मात्र की थी। परन्तु आपतकाल ने वैधानिक ढंग से सारे मानवाधिकार को छीन लिया गया था सिर्फ साँस लेने की ही अनुमति थी। 'मुक्ति की आकांक्षा' कविता भी उस स्वतंत्रता की महता को बताती है। इस दौर में इंदिरा ने अपने अनेक कार्यक्रम चलाए जिससे जनता को यह दिलासा दिया जा सके कि वह उनकी हितैषी हैं। जिसमें से एक भूमिहीनों को घर बाँटने का कार्यक्रम था। परंतु यह कार्यक्रम भी एक सुंदर छलावा था क्योंकि मूल वस्तु छीन कर सिर्फ आवास दे देने से भूख नहीं मिट सकती तथा व्यक्ति स्वयं स्वतंत्र महसूस नहीं कर सकता। इस स्थिति का सर्वेश्वर की कविताओं में तीखा व्यंग्य देखने को मिलता है।

"पक्षियों गाओ !

उदास क्यों होते हो कि जबान काट ली गयी है

पंख तोड़ दिये गये हैं/ यह तो देखो कि तुम्हारा

और तुम्हारे घर का रंग कितना निखरा है।"[5]

आपातकाल के दौरान अभिव्यक्ति की भी स्वतंत्रता नहीं थी जिसके कारण व्यक्ति खूंटी पर टँगे 'कोट' के समान हो गया था। जिसमें गर्माहट देने की क्षमता है, स्थितियों में बदलाव लाने का सामर्थ्य है, परंतु फिर भी उसे खूंटी पर टँगे सही वक्त आने का इंतजार करना है।

खूंटी पर कोट की तरह/ एक अरसे से मैं टँगा हूँ

कहाँ चला गया/ मुझे पहनकर सार्थक करने वाला?[6]

इन्हीं स्थितियों के कारण सर्वेश्वर की कविताओं में तत्कालीन परिवेश एक जंगल के रूप में दिखाई पड़ता है। 'जंगल का दर्द' कविता में वह स्थिति व्यक्त होती है जिसके द्वारा उसमें रहने वाला जीव अर्थात आम जन संतोषी और टुकड़खोर बनता है। एक जंगल में विभिन्न तरह के जानवर निवास करते हैं कुछ खूंखार होते है, कुछ आदत से टुकड़खोर होते हैं। इन खूंखार जानवरों में भेड़िया और तेंदुआ रूपी राजनीतिज्ञों को और कुत्ते को चापलूस या टुकड़खोर वर्ग के रूप में देखा है। यह कविताएँ भेड़िया को भगाने के लिए मशाल जलाने और आम जन को भेड़िये की ही तरह अपनी आँखें सुर्ख करने की नसीहत देती हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि इन कविताओं में मशाल जलाना अर्थात क्रांति की बात की है जो कि राजनेता नहीं कर सकता।

भेड़िया गुर्राता है/ तुम मशाल जलाओ।

उसमें और तुममें/ यही बुनियादी फर्क़ है।

भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।[7]

सर्वेश्वर की कविताएँ वास्तविक परिस्थितियों का सजग  अध्ययन प्रस्तुत करती हैं इसलिए वह आम जन को बदलाव लाने की सीख देने से नहीं चूकती। यह बताती है कि "भेड़िया फिर आयेंगे/अचानक /तुममें से ही कोई एक दिन /भेड़िया बन जाएगा।"[8] इसलिए स्वयं की शक्ति को पहचानने के लिए भेड़िये का आना आवश्यक है। बदली स्थितियों में सर्वेश्वर की कविताएं बताती हैं कि अब समय के बदलाव के साथ अपनी लड़ाई लड़ने और साँप को मारने के लिए अस्त्र बदलने की आवश्यकता है।

"कंकड़ों में रेंग रहा है साँप

लाठियाँ मारने पर भी/ वह सुरक्षित है।

क्या प्रतीक्षा करूँ/ जब तक वह

समतल भूमि पर जाए,

या अपना अस्त्र/ बदल दूँ?"[9]

आम जनता को हमेशा से शोषणकारी राजनीतिक वर्ग अपनी पैरों की धूल समझता आया है। जब भी उसे अपने फायदे के लिए उसका प्रयोग करना होता है वह उसे अपने अनुकूल बहलाता है और मतलब सिद्ध हो जाने पर उसे फिर वो ही धूल के रूप में रौंद देता है। सर्वेश्वर की कविताएँ इसी पैरों से रौंदी हुई धूल को आँधी बनने और दीमक बनने की प्रेरणा देती हैं ताकि वह अपने आप को पहचान सके और अपना रास्ता खुद तय कर सकें।

"तुम धूल हो/ जिंदगी की सीलन से/ दीमक बनो।

रातोंरात/ सदियों से बंद इन/ दीवारों की

खिड़कियाँ/ दरवाजे/ और रोशनदान चाल दो।"[10]

इसी तरह सर्वेश्वर की कविताओं में स्थितियों में बदलाव लाने की कोशिश नजर आती है। उसमें शोषित वर्ग को जाग्रत करने की क्षमता है। वह बताती हैं कि एकता में वह शक्ति है जो परिस्थिति में बदलाव ला सकती है क्योंकि स्थिति हमेशा एक सी नहीं होती थोड़ी कोशिश करने पर सुधार अवश्य होता है

पचपन करोड़ सिर/ एक साथ पटके जाने पर/ टूट जाएगा हिमालय,

यह तो है एक अन्यायी शासन/ का जर्जर द्वार।

बढ़ो बेशुमार /गंदी बस्तियों, झोपड़ों, गटरों से निकल/ बनाकर कतार,

चढ़ो इस जंगल पर/ बनकर बिराट आरे की धार/ साधिकार!”[11]

आपातकाल के समय की एक और निरंकुशता को जान लेना परम आवश्यक है जिससे तत्कालीन समय की बेकसूर जनता की मनःस्थिति को जाना जा सके। यह स्थिति थी संजय गांधी द्वारा जुलाई 1976 में इंदिरा शासन को प्रभावकारी और जनहितैषी दिखाने के लिए पांच-सूत्री कार्यक्रम का लाया जाना, जो पूर्व के बीस-सूत्री कार्यक्रम से भी अधिक महत्वपूर्ण हो गए थे। इन सूत्रों में थे - विवाह में दहेज़ का प्रतिबंध, परिवार नियोजन जिसमें परिवार को दो बच्चे तक सीमित करने की अपील की, वृक्षारोपण, जाति व्यवस्था का उन्मूलन एवं साक्षरता। वस्तुत: ये सूत्र बुनियादी सुधारों के लिए आवश्यक थे परंतु इनका कार्यान्वयन जिस ढंग से हुआ वह किसी भी ढंग से मानवीय नहीं था। इन सूत्रों में से संजय गांधी ने परिवार नियोजन सूत्र पर अधिक दबाव दिया। जिसके कारण सरकार ने इसका कड़ाई से पालन करना प्रारंभ कर दिया। इसको लागू करने में सरकार ने समझाने के मार्ग की जगह लोगों के साथ जोर जबरदस्ती का मार्ग अपनाया। संजय गांधी को खुश करने के लिए और बड़े आँकड़े एकत्र करने की चाह में राज्य सरकारों ने आम जनता के साथ ज्यादती करनी चालू कर दी। नसबंदी को अनिवार्य कर दिया गया। लोगों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें पकड़-पकड़ के नसबंदी की जाने लगी। गांवों में इससे इतनी दहशत थी कि लोग खेत में घंटों छुपे रहते थे। सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, स्वास्थ्य कर्मी के लिए मनमाने ढंग से एक निश्चित कोटा तय किया गया जिसके अंतर्गत उन्हें कुछ लोगों को आवश्यक रूप से नसबंदी करवाने के लिए प्रोत्साहित करना होता था। पुलिस बल भी अपनी मनमानी पर उतर आयी थी जिससे आम जन का जीवन छिन्न-भिन्न हो गया था। इससे मुख्यतः गरीब जनता ही प्रभावित हुई। उन पर अत्याचार का ये एक विकराल रूप था जिससे सर्वेश्वर की कविता में आक्रोश के रूप में देखा जा सकता है।

मैं आँख बचाकर/ सरकारी पोस्टर फाड़ देता हूँ

और उसकी जगह गाली लिख देता हूँ।

'गरीबी हटाओ' को/ अक्सर मैंने 'बीबी हटाओ' कर दिया है।

पोस्टरों से मुझे नफरत है/ चाहे वे गउ छाप हों/ चाहे लाल लंगोट छाप।[12]

इंदिरा गांधी ने इस दमनकारी चक्र रूपी आपातकालीन दौर की समाप्ति 18 जनवरी 1977 में मार्च में आमचुनाव की घोषणा कर के की। इस घोषणा के साथ ही सभी राजनीतिक बंदियों को भी छोड़ा गया। उन्हें ऐसा लगा था कि यह ही चुनाव करवाने और सत्ता में बने रहने का उत्तम समय है। विपक्षी दल के पास जनता के मध्य अपनी पकड़ बनाने का समय भी नहीं मिलेगा। उन्हें लगा था कि उन्होंने आपातकालीन दौर में जनता के लिए अनेक लाभकारी कार्य किए हैं जिसका उन्हें लाभ प्राप्त होगा परंतु ऐसा समझना गलत साबित हुआ क्योंकि उनके कुशासन का जवाब जनता ने उन्हें भारी बहुमत से पराजित कर के दिया।

आपतकाल के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार का शासन भी उतना प्रभावकारी साबित नहीं हुआ। उनके पार्टी के आंतरिक द्वंद्व के कारण आम जनता की ओर ध्यान नहीं दिया गया। इससे गरीब जन की स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही। सर्वेश्वर की कविताएँ इसलिए प्रश्न उठाती है -

प्रश्न जितने बढ़ रहे हैं/ घट रहे उतने जवाब

होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है।[13]

इन सवालों का कोई प्रत्युत्तर कभी मिला नहीं, क्योंकि आपातकाल और उसके बाद के दौर ने भी यह साबित किया है कि सत्ता की लड़ाई चाहे किस भी रूप में क्यों ना हो पिसा उसमें आम आदमी ही जाएगा। परंतु आपातकालीन दौर इन सभी परिस्थितियों से भिन्न शर्मनाक रहा है। भारत देश और देश के नागरिकों के लिए उन स्थितियों को वर्तमान दौर में भी पचा पाना मुश्किल है। उस दौर में हुई घटनाएँ आज भी व्यक्ति को झकझोर देती हैं। लोकतांत्रिक देश में रहकर भी तानाशाही शासन में जीवन व्यतित करना आम नागरिक के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है। सर्वेश्वर की कविताएं बताती है ही आपातकाल बीत जाने के बाद भी हर व्यक्ति के मन उसकी तिक्तता बसी हुई है।

जंगल की याद

अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है

जो मुझ पर चली थी/ उन आरों की जिन्होंने

मेरे टुकड़े - टुकड़े किए थे

मेरी संपूर्णता मुझसे छीन ली थी।[14]

आपातकाल ने केवल जनता को ही नहीं बदला बल्कि कविता के नजरिए में भी बुनियादी परिवर्तन उपस्थित हुआ, कविता ने न्यूनतम मानवीय अधिकार बनाए रखने के लिए निरंतर संघर्षी की मुद्रा धारण कर ली; इसलिए सर्वेश्वर की परवर्ती कविताएँ जनता में जागृति लाने और स्वयं के लिए लड़ने की प्रेरणा देती हैं। सर्वेश्वर के इस कथन से आज़ादी के बाद उपस्थित इस पूरे परिवर्तन को समझा जा सकता है- “शांति और युद्ध पर अनेक कविताएँ मैंने लिखीं। आज़ादी के स्वागत में एक भी नहीं। कुछ दिनों तक तटस्थ रहा लेकिन धीरे-धीरे दस रुपए में कोयले के बोरे की जगह चालीस रुपए में कोयले के बोरे को सायकिल के कैरियर में खाना बनाने के लिए घर लादकर लाने पर वह तटस्थता भंग होती गयी और फिर धीरे-धीरे लगने लगा कि यह हमारी आज़ादी नहीं है। सत्ता की लूट की आज़ादी है। यह घाव गहरा होता जा रहा है और कुआनो नदी, जंगल का दर्द, से लेकर यह तकलीफ़ और घनी होती जैसे एक लड़ाई में बदलती जा रही है।[15] कविता अब उन रास्तों को बताती हैं जिसके द्वारा एक आम आदमी अपने अंदर निरंतर एक आग जलाये रखे ताकि जरूरत पड़ने पर वह हर भेड़िये बनते आदमी को रोक सके। आपातकालीन दौर भारत देश के लिए सबसे शर्मनाक रहा है। भारत देश और देश के नागरिकों के लिए उन स्थितियों को वर्तमान दौर में भी पचा पाना मुश्किल है। उस दौर में हुई घटनाएँ आज भी व्यक्ति को झकझोर देती हैं। लोकतांत्रिक देश में रहकर भी तानाशाही शासन में जीवन व्यतित करना आम नागरिक के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं था सर्वेश्वर की कविताएं बताती है कि आपातकाल बीत जाने के बाद भी हर व्यक्ति के मन में उसकी तिक्तता बसी हुई थी। परंतु उस तिक्तता को मन में रखने और निरंतर उससे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने की बात सर्वेश्वर ने की है।

निष्कर्ष : आपातकालीन परिस्थितियों के समानांतर सर्वेश्वर की कविता को रखने पर स्वातंत्र्योत्तर भारतीय जन में विकसते असंतोष का क्रमिक विकास लक्षित किया जा सकता है। साथ ही आपातकाल के समय कविता की राजनीतिक जागरूकता और प्रतिरोधी रवैए का आकलन भी किया जा सकता है। आपातकालीन ढंग ने सामान्य जन के बुनियादी विश्वासों को जड़ से हिला दिया था, राजनीति व्यवस्था और राजनीतिकों के प्रति संदेह का भाव उस समय की जनता और कविता दोनों में देखने को मिलता है। सर्वेश्वर ने तत्कालीन स्थितियों का चित्रण दार्शनिक तटस्थता से नहीं किया बल्कि उनकी कविताओं में उस समय के व्यक्ति की खीझ, कुढ़न, डाह प्रामाणिकता से मिलती है। अपने समय के प्रतिनिधि हस्ताक्षर होने के नाते सर्वेश्वर की कविताओं से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आधुनिक हिंदी कविता राजनीतिक रूप से अधिक चेतस, अधिक सचेत हैं तथा निरंतर जनता के समक्ष राजनीतिक दुरभिसंधियों की सही समझ प्रस्तुत करती है।

संदर्भ :
[1] बिपिन,चंद्र, आज़ादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय,2017, पृ. 331
[2] सर्वेश्वर दयाल, सक्सेना, कुआनो नदी, राजकमल प्रकाशन,2015, पृ. 25
[3] सर्वेश्वर दयाल, सक्सेना, जंगल का दर्द, राजकमल प्रकाशन,2019, पृ. 11
[4] सर्वेश्वर दयाल, सक्सेना, खूँटियों पर टंगे लोग, राजकमल प्रकाशन,2018, पृ. 6
[5] वही, पृ. 42
[6] वही, पृ. 20
[7] सर्वेश्वर दयाल, सक्सेना, जंगल का दर्द, राजकमल प्रकाशन,2019, पृ. 1
[8] वही, पृ. 33
[9] वही, पृ. 37
[10] वही, पृ. 42
[11] सर्वेश्वर दयाल, सक्सेना, खूँटियों पर टंगे लोग, राजकमल प्रकाशन,2018, पृ. 50
[12] वही, पृ. 64
[13] वही, पृ. 73
[14] वही, पृ. 13
[15] वीरेन्द्र जैन(संपा.), सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ग्रंथावली-2, वाणी प्रकाशन,2004, पृ. 409

भूमिका राजेन
शोधार्थी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
सम्पर्क : rajenbhoomika@gmail.com, 8806718106 

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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