शोध आलेख : समकालीन हिंदी-कविता में स्त्री / डॉ. इंदू कुमारी

समकालीन हिंदी-कविता में स्त्री
- डॉ. इंदू कुमारी

शोध सार : सामान्यतः नब्बे के दशक से अभी तक के समय को कविता का समकाल कहा जा सकता है। यह दौर भूमंडलीकरण का दौर है। इस भूमंडलीकृत समय में मनुष्य के सामने संभावनाओं का द्वार है, तो कई चुनौतियाँ भी हैं। आधी आबादी अर्थात् स्त्री की स्थिति भी इस समय काफी बदली है। अब हम परंपरागत दृष्टि और मूल्यों से स्त्री का आकलन नहीं कर सकते। इस बदले हुए समय में स्त्री की परिस्थितियां बदली हैं। साहित्य अपने समय का संवेदनात्मक इतिहास होता है। समकालीन कविता स्त्री के स्वप्न और संघर्ष को बड़े ही विस्तार से चित्रित करती है। इस आलेख में इसी दृष्टि से विचार किया गया है।

बीज शब्द : स्त्री-मुक्ति, पावर-वुमेन, महिला-सशक्तिकरण, भूमंडलीकरण, नवउदारवाद, समकालीनता, नवजागरण, लैंगिक-भेदभाव आदि।

मूल आलेख : समकालीनतासमय सापेक्ष शब्द है। इस समय जो समकालीन है, वह कुछ अंतराल के बादभूत हो जायेगा। अब सवाल यह उठता है कि समकालीन हिंदी कविता का समय कब से मानें? आज के समय को सामाजिक क्षेत्र में भूमंडलीकरण, तो आर्थिक क्षेत्र में नवउदारीकरण के नाम से पुकारा जाता है। बीसवीं सदी का नौंवा दशक भारत समेत संपूर्ण विश्व में बदलाव का समय था। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया दो ध्रुवीय नहीं रह गई। अमेरिकी नेतृत्व में भूमंडलीकरण अब एक घोड़े की रेस बन गया। 1991 में भुगतान संकट के कारण भारत में आर्थिक सुधारों का सूत्रपात हुआ। इसे नवउदारवादी दौर कहा गया। इस नवउदारवादी दौर में यहाँ कई दूरगामी परिवर्तन हुए। समाज और जीवन में बाजार और तकनीक का अभूतपूर्व हस्तक्षेप हुआ। इस हस्तक्षेप के कारण समाज के घोषित मूल्य ध्वस्त हो गए। हिंदी कविता इस बदलाव को बहुत संवेदनशीलता से अभिव्यक्त करती है। अतः मोटे तौर पर समकालीन हिंदी कविता का समय बीसवीं सदी के नौवे दशक से माना जाता है। इस समय पहचान आधारित अस्मिताएँ स्त्री, दलित, आदिवासी भी मुखर होती हैं।

स्वाधीनता मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा है। स्त्री की स्वाधीनता का एक क्षेत्र साहित्य भी है। उसमें वह आत्माभिव्यक्ति के माध्यम से अपनी अस्मिता की पहचान करती है और स्वतंत्रता की व्यंजना भी करती है। स्त्री-लेखन आज की कविता का एक मुख्य स्वर है। इस कविता में स्त्री होने की विडंबना के बीचो-बीच स्वाभिमान और स्वाधीनता की महता को समझने और अर्जित करने का संघर्षपूर्ण स्वप्न भी मौजूद है। स्त्री-लेखन अपनी मूल स्थापना और अंतिम लक्ष्य में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की शिनाख्त कर साहित्य और समाजशास्त्र दोनों जगह स्थान बनाता है। यहपारंपरिकमाइंड सेट से लड़ने की कोशिश में परंपरा और माइंड सेट दोनों की ताकत को एक ठोस सामाजिक-मानसिक सच्चाई और चुनौती के रूप में सतह पर लाता है।[1]

समकालीन हिंदी कविता में स्त्री-लेखन का स्वर काफी मजबूती से उभरा है। स्त्री-रचनाकारों ने अपनी पीड़ा, अनुभव और आकांक्षा को बखुबी उकेरा है। स्त्री लेखन के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए महादेवी वर्मा कहती हैं किपुरुष के लिए नारी अनुमान है,परन्तु नारी के लिए अनुभव| अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी, वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरांत भी शायद ही दे सकें|”2 समकालीन कविता में एक तरफ स्त्रियाँ अपने लेखन से अपने को अभिव्यक्त कर रही थीं, वहीं दूसरी ओर पुरुष रचनाकार भी स्त्री-जीवन को काफी संवेदनशीलता से अपनी कविताओं में चित्रित कर रहे हैं।

आज की कविता स्त्री होने की यातना या त्रासदी को स्वर देती है। अनामिका की एक कविता है – “पढ़ा गया है हमको / जैसा पढ़ा जाता है कागज / बच्चों की फटी कॉपियों का / चनाजोरगरम के लिफाफे बनाने के पहले / सुना गया हमको / यों ही उड़ते मन से / जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने / सस्ते कैसेटों पर / ठसाठस्स ठूसी हुई बस में।3 इस शिकायत के साथ एक स्त्री की आकांक्षा यह है कि –“हम भी इंसान हैं / हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर / जैसे पढ़ा होगा बीए के बाद / नौकरी का पहला विज्ञापन।”4 यहाँ पुरुषों के द्वारा हल्के, बल्कि कई बार उपेक्षा के भाव से देखे जाने की मुखालफत के साथ गंभीरतापूर्वक, पूरी संजीदगी से जीवन में शामिल करने का आह्वान है।बेजगहशीर्षक की अपनी दूसरी कविता में अनामिका परंपरागत शिक्षा के उन आरंभिक पाठों का स्मरण करती हैं, जिसके तहत स्त्री को एक कमतर ईकाई के मनोविज्ञान में ढाला जाता रहा है –“याद था हमें एक-एक अक्षर / आरंभिक पाठों का / राम, पाठशाला जा / राधा, खाना पका / राम, बताशा खा / राधा, झाड़ू लगा।5 लड़के के हिस्से शिक्षा स्नेह और लड़कियों के लिए काम का आदेश। सिमोन ने इसी संदर्भ में कहा है – ‘स्त्री होती नहीं, बना दी जाती है। महज सेविका और यौन-वस्तु बनने के खिलाफ स्त्रियाँ अब पितृसत्ता के मर्दवादी व्यवहारों का उद्घाटन करते हुए तीखे प्रश्न पूछती हैं – ‘क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए? मात्र एक तकिया / थके-माँदे आओ और जिस पर सिर टिका दो / एक खूँटी, जिस पर ऊब, उदासी और थकान से भरी कमीज टांग दो। एक चादर जिसे जब चाहे, जहाँ चाहे, बिछा दिया जाए?6 कहने का आशय यह है कि परंपरागत रूप से स्त्री पुरुष के लिए तरह-तरह की वस्तुएँ बनती रही है, लेकिन अब वह अपने इस वस्तुकरण का विरोध करती है। यह आधुनिक स्त्री हैअपनी स्थिति को पहचानकर उसमें अपेक्षित परिवर्तन करने की तड़प के कारण। परंपरागत स्त्रीत्व का आदर्श अब सर्वमान्य नहीं रहा। अब इस पर सवाल उठाया जा रहा है, जो बिल्कुल जायज है। इसके प्रति घृणा का भी जन्म होता है। इस दौर की कविताओं ने इस वांछनीय घृणा के लिए भी अपनी शक्ति के अनुसार जीवन में लगातार जगह बनाई है। इनमें से एक तरीका हैपुरुष के स्त्री-विरोधी व्यवहारों का उद्घाटन। बाहर से सुसंस्कृत और भीतर से विलास लोलुप पुरुषों के स्त्री-विरोधी चरित्र की पहचान निर्मला पुतुल इस प्रकार करती हैं – ‘क्या तुम जानते हो / एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण? / बता सकते हो तुम / एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखे / उसके स्त्रीत्व की परिभाषा? अगर नहीं! तो फिर क्या जानते हो तुम / रसोई और बिस्तर के गणित से परे / एक स्त्री के बारे में…?7  

स्त्री को उसके तन के भूगोल के परे जाकर पहचानने वाले पुरुष ऊँगली पर गिनने भर होंगे। लड़कियाँ व्रत करती हैं, ताकि उन्हें ऐसा पति मिले जो उनके मन की गाठों को पढ़ सके, पर मिलते हैं ऐसे पति जो अपनी असफलता और कायरता की खीज़ अपनी पत्नी पर ही निकालते हैं। चंद्रकांत देवताले के शब्दों में भयभीत आदमी के / साहसी किस्सों का सबसे बड़ा खज़ाना / उसकी बीबी के पास होता है।8  

स्त्री-मुक्ति इस दौर में लिखी जा रही कविताओं का प्रमुख स्वर है। गुलामी की अनुभूतियाँ सघन होकर मुक्ति की जरूरत बनती है और विशिष्ट दृष्टिकोण से संपन्न होकर यह जरूरत मुक्ति के रास्ते तलाशती हैं। कविता स्त्री-मुक्ति की इस प्रक्रिया का प्रवेश द्वार बनती है। निर्मला पुतुल ने लिखा हैमैं कविता नहीं / शब्दों में खुद को रचती देखती हूँ / अपनी काया से / बाहर खड़ी होकर अपना होना।9 यहाँ स्त्री अपना होना शरीर के बाहर देखती है। यह पहचान उसे महज शरीर समझने वाली दृष्टि का विरोध भी है और वास्तविक स्त्रीत्व का आत्मविश्वास भी। बाजार स्त्री को आजाद करने का दावा करता है। कुछ हद तक करता भी है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि स्त्री की यह मुक्ति उसके अबाध इस्तेमाल के प्रयोजन से है। सौंदर्य प्रतियोगिताओं से विज्ञापन जगत तक बाजार ने स्त्री शरीर का वस्तुकरण ही किया है। यह दीगर है कि इसके फलस्वरूप ऐसी स्त्रियाँ भी सामने आई हैं, जो पारंपरिक आवरणों से मुक्त होने के साथ-साथ इस्तेमाल होने से भी इंकार करती हैं। यही स्त्रियाँ इक्कीसवीं सदी की नायिकाएँ होंगी।

अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता और लैंगिक भेदभाव करने वाले समाज में अपने स्त्री होने के हक की माँग इन दिनों मुखर हुई है। शैलचंद्रा के शब्दों में –“क्या हुआ गर लड़की हूँ / मुझे भी घर में थोड़ी जगह चाहिए / लड़की होने की सजा गर्भ में मुझे मत दो / हूँ जीवित प्राणी इस धरती का / मुझे भी मेरे हिस्से का थोड़ा प्यार दो / प्यार दो अधिकार दो / मुझे भी इस धरती में जीने का हक दो / हूँ जननी मैं पुरुष की / फिर क्यों जन्म से पहले ही घोंट दिया जाता है गला मेरा / इक्कीसवीं सदी में भी।10  

अपने हिस्से का प्यार और अधिकार माँगती इक्कीसवीं सदी की स्त्री अपने अधिकार-सीमा का अतिक्रमण नहीं करती। वह चाहती है कि मादा भ्रूण की हत्या हो / परिवार नामक संस्था में वहथोड़ा ही चाहती है। सभी को उसका वाजिब हिस्सा मिल सके, यही है लैंगिक न्याय की आकांक्षी स्त्री की समावेशी हसरत। उसके मन में हर सदस्य के हिस्से के प्यार और अधिकार का सम्मान है। आज की स्त्री पुरुष के शिकंजे से अधिकाधिक मुक्त हो रही है। इसने स्वयं को पुरुष के नजरिये से अनुकूलित करना बंद कर दिया है। अतः उसके जीवन में लज्जा और कौमार्य की रूढ़ि, जो स्त्री स्वभाव कम और पितृसत्तात्मक रिवाज ज्यादा थे, का क्षरण हो रहा है।

आज की कविता में घर स्त्री-जीवन को बेरंग एकरस बनाने वाला पारंपरिक स्थान भर नहीं रहा। यद्यपि वहाँ स्त्रियाँ हैं, उनकी लंबी प्रतीक्षा भी, लेकिन साथ में हैंकुछ सपने, चंद मौके। मधु बी. जोशी के शब्दों मेंमाँ की हाँडी में / हमेशा फालतू बिस्तर / कोई जाए / माँ के घर में / हमेशा फालतू जगह / कोई आज आए / कोई कौन? / खो गए बच्चे? / कभी मिल पाया प्रेमी? कोई सपना या कोई मौका11 बच्चे तो माँ की प्रतीक्षा में पहले से शामिल रहे हैं। लेकिन प्रेमी या कोई मौका अब जाकर शामिल हुए। यद्यपि कविता में ये जितनी सहजता से शामिल है वैसे जीवन में नहीं।

कविता की निगाह में यदि स्त्री-मुक्ति के वैयक्तिक संदर्भ हैं, तो स्त्री-मुक्ति के सांगठनिक और सांस्थानिक पक्ष भी और उनके अंतर्विरोध भी। सांगठनिक और सांस्थानिक नारी-आंदोलनों के खोखलेपन को उजागर करते हुए निर्मला पुतुल लिखती हैं एक बार फिर / ऊँची नाक वाली अधकटे ब्लाउज पहने महिलाएँ / करेंगी हमारे जुलूस का नेतृत्व / किसी विशाल बैनर के तले / मंच से खड़ी माइक पर वे चीखेंगी / व्यवस्था के विरुद्ध / और हमारी तालियाँ बटोरते / हाथ उठाकर देंगी / साथ होने का भरम।12 निर्मला पुतुल मुक्ति के इस संघर्ष में औरत और औरत के अंतर को साफ-साफ देख लेती हैं। समकालीन हिंदी कविता में स्त्री-मुक्ति के स्वप्न भी हैं तथा स्त्री-मुक्ति के अंतर्विरोधों की पहचान भी।

अनामिका अपनी एक कविता तुलसी का झोला में समाज की परंपरागत माइंडसेट  पर सवाल उठाती हैं और स्त्री को नये तरीके से देखने की बात कहती हैं – “घन-घमंड वाली चौपाई भी लिखते हुए / याद आई? --- नहीं आई? / घन-घमंड वाली ही थी रात वह भी / जब मैं तुमसे झगड़ी थी / कोई जाने या नहीं जाने, मैं जानती हूँ क्यों तुमने / ‘घमंड की पटरी घन से बैठाई / नैहर बस घर ही नहीं होता / होता है नैहर अगरधत्त अंगड़ाई / एक निश्चित उबासी, एक नन्ही-सी फुर्सत! / तुमने उस इत्ती-सी फुरसत पर / बोल दिया धावा / तो मेरे हे रामबोला, बम भोला - / मैंने तुम्हें डाटा! / डॉटा तो सुन लेते / जैसे सुना करती थी मैं तुम्हारी --- / पर तुमने दिशा ही बदल दी!’’13 कविता में तुलसीदास और रत्नावली की कथा के माध्यम से पुरुष मानसिकता पर जबरदस्त हमला किया गया है। पत्नी से डांट और उपेक्षा मिलने के बाद तुलसीदास बैराग की ओर मुड़े। बैराग अर्थात परंपरागत समाज में सांसारिक मुक्ति का राजपथ! क्या यह मुक्ति, स्त्री को संभव है? स्त्रियां तो रोज ही पति से डांट सुनती हैं। वह कहां घर छोड़कर बैरागी हो जाती हैं! पुरुष घर छोड़े तो समाज उसे आदर से देखता है। स्त्री घर छोड़े तो उसे अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है। जिस मीरा को हम आज महान भक्त कवयित्री के रूप में आदर देते हैं, उन्हें अपने समय में कितना विरोध और दुख झेलना पड़ा, इतिहास इस बात का गवाह है। समाज की इस दुहरी मानसिकता पर यह कविता सवाल खड़ा करती है तथा यह मांग करती है कि इस परंपरागत दृष्टि से स्त्री को देखना उचित नहीं है। आज की स्त्री अपने लिए एक स्पेस चाहती है। वह उस परंपरागत स्त्री से अलग है, जहां पति की इच्छा ही उसके जीवन को संचालित करती है – “थोड़ी सी फुरसत चाही थी! / फुरसत नमक ही है, चाहिए थोड़ी-सी / तुमने तो सारा समंदर ही फुरसत का / सर पर पटक डाला!14 परंपरागत समाज में स्त्री को मुक्ति की राह में बाधक समझा जाता था। भक्ति काल में तो स्त्री माया की पर्याय ही थी। माया, जो सत्य के राह पर जाने से रोके आज की कविता इसका विरोध करती है – “ ‘आराममें भी तो एकरामहै कि नहीं - / ‘आरामजो तुमको मेरी गोदी में मिलता था? / मेरी गोदी भी अयोध्या थी, थी काशी! तुमने कोशिश तो की होती इस काशीकरवट की!”15 आज की स्त्री अपने को एक नया आकार देती है और नए ढंग से देखने की मांग करती है – “एक विनय पत्रिका मेरी भी तो है! / लिखी गई थी वो समानांतर / लेकिन बाँची नहीं गई अब तलक!16 आज की स्त्री अपने को संपूर्णता में देखने की मांग करती है। समतामूलक समाज की स्थापना के लिए लैंगिक भेद का पुरजोर विरोध आज की कविता करती है – “कब तक बंटना, कब तक छँटनादेखिए मुझे अपने अंतिम दशमलव तक / - फिर कहिए, क्या मैं बहुत भिन्न हूँ आप से?17 इस प्रकार स्त्री बराबरी का हक पितृसत्तात्मक समाज से मांगती है। 

भक्ति काव्य में माया और पापिनी कही जाने वाली और रीतिकाव्य में महज शरीर में विघटित हो गई स्त्री को आधुनिक कविता उपयुक्त मानवीय व्यक्तित्व प्रदान कर भूल सुधार करती है। स्त्री को जीवन की जरूरी और सारवान इकाई मानते हुए मंगलेश डबराल लिखते हैं – “एक स्त्री के कारण तुम्हें मिल गया एक कोना / तुम्हारा भी हुआ इंतजार / एक स्त्री के कारण तुम्हें दिखा आकाश / और उसमें उड़ता चिड़ियों का संसार / एक स्त्री के कारण तुम बार-बार चकित हुए तुम्हारी देह नहीं गई बेकार / --- एक स्त्री के कारण एक स्त्री / बची रही तुम्हारे भीतर|18  एक पुरुष की मनुष्यता उसके भीतर बची हुई स्त्री के कारण है। इसीलिए स्त्रियों का बचाव, उनका सम्मान मनुष्यता का सम्मान है। यत्र नार्यस्तु पूज्यते... का उद्घोष वाले भारतवर्ष में स्त्री पुरुष समानता आज भी एक आकांक्षा ही है। ध्यान से देखें तो लैंगिक असमानता के कारण स्त्रियों का जीवन दुख की कथा रही है। बेटे के जन्म पर जहां हर घर में खुशियां मनाई जाती है, वहीं कई घरों में आज भी बेटी के आने पर मातम का माहौल बन जाता है |             

त्याग, समर्पण और सहनशीलता जैसे मूल्यों के वृत्त में ही स्त्री को देखने के आदी और इसमें फिट बैठने वाले स्त्रियों को महान कहने वाले लोगों की कमी आज भी नहीं है। इस ढांचे में अनुकूलित होना स्त्री का चुनाव नहीं, उसकी विवशता है। इसी संदर्भ में सिमोन बोउआ ने कहा हैगुलामी, गुलाम का पेशा नहीं होती। अपने शरीर पर अपना अधिकार ना रहेयह भी एक तरह की गुलामी ही है। गुलामी विवाह के बाद ही शुरू नहीं होती, पहले भी जारी रहती है। स्त्री की यौन पवित्रता भी उसके जीवन की तरह स्वयं उसके लिए नहीं है। गुलामी के इस नए चेहरे को उदय प्रकाश इन शब्दों में दिखाते हैं – “एक औरत नाक से बहता खून पोछती हुई बोलती है / कसम खाती हूं, मेरे अतीत में कहीं नहीं था प्यार / वहाँ था एक पवित्र, शताब्दियों से लंबा, आग जैसा धधकता सन्नाटा / जिसमें सिक रही थी सिर्फ़ आपकी खातिर मेरी देह।19 प्यार करना स्त्री-मन की सहज इच्छा है। वह पुरुष से प्यार करना चाहती है और पुरुष भी उसका प्यार पाना चाहता है। लेकिन औसत स्थितियों में स्त्री ही पुरुष की इच्छा का माध्यम बनती है, स्त्री की इच्छा पूरी करने के लिए पुरुष कभी माध्यम नहीं बनता। इसलिए भी सिमोन के शब्दों में वहसेकेंड सेक्सबनती है।

आज अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के समर्थकों की मान्यता है कि भूमंडलीकरण ने औरतों को पावर वुमेन बना दिया है। एक निजी फार्म में ऊँचे प्रबंधकीय पद पर काम करती हुई औरत भूमंडलीकरण के समर्थकों द्वारा पेश की जानेवाली सर्वाधिक आकर्षक छवि है। लेकिन गौरतलब है कि दुनिया की संपूर्ण श्रम-शक्ति में लगभग 45 फीसदी औरतों का हिस्सा है और भूमंडलीकरण से निकली यहपावर वुमेनइन करोड़ों औरतों के एक प्रतिशत का भी प्रतिनिधित्व नहीं करती। हाँ, यह सच है कि भूमंडलीकृत समाज में स्त्री ने कुछ पाया है तो कुछ खोया भी है। समकालीन कविता तटस्थ ढंग से इन दोनों की आवाज उठाती है।

संदर्भ :
[1] स्त्री लेखन : स्वप्न और संकल्प, रोहिणी अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2011, पृष्ठ 5-6
2  श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2010, पृष्ठ 63
3  खुरदुरी हथेलियाँ, अनामिका, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ 13
4  वहीं, पृष्ठ 13-14
5  वहीं, पृष्ठ 15
6  अपने घर की तलाश में, निर्मला पुतुल, संथाली से अनुवाद : अशोक सिंह, प्रकाशन रमणिका फाउंडेशन, दिल्ली, संस्करण 2004, पृष्ठ 4
7  नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, संथाली से अनुवाद : अशोक सिंह, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण 2005, पृष्ठ 8
8  कवि ने कहा (चुनी हुई कवितायें), चंद्रकांत देवताले, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2012, पृष्ठ 97
9 अपने घर की तलाश में, निर्मला पुतुल, संथाली से अनुवाद : अशोक सिंह, प्रकाशन, रमणिकाफाउंडेशन, दिल्ली, संस्करण 2004, पृष्ठ 4-5
  10 साक्षात्कार, इक्कीसवीं सदी में स्त्री, शैलेश चंद्रा, अप्रैल 2003, पृष्ठ 48
  11 अकेली औरतों के घर, मधु बी. जोशी, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2005, पृष्ठ 30
  12 अपेक्षा : 12, अंबेडकरवादी युवा कविता विशेषांक, जुलाई-सितंबर, 2005, पृष्ठ 57
  13 कवि ने कहा, अनामिका , किताबघर प्रकाशन , नई दिल्ली ,सं 2008 ,पृष्ठ 73 -74
  14 वहीँ, पृष्ठ 74
  15 वहीँ, पृष्ठ 74
  16 वहीँ, पृष्ठ 74
  17 वहीँ, पृष्ठ 104
  18 कवि ने कहा, मंगलेश डबराल , किताबघर प्रकाशन , नई दिल्ली, सं 2008, पृष्ठ 122
  19 रात में हारमोनियम, उदय प्रकाश , वाणी प्रकाशन ,दिल्ली , सं 2009 , पृष्ठ 31 – 32

डॉ. इंदू कुमारी
सह-आचार्य, हिंदी विभाग, माता सुंदरी कॉलेज फॉर विमेन, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110002
सम्पर्क : induvimal2013@gmail.com, 9873405194

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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