शोध आलेख : हिंदी सिनेमा और भारतीय मूल्य-बोध / डॉ. बिमलेंदु तीर्थंकर

हिंदी सिनेमा और भारतीय मूल्य-बोध
- डॉ. बिमलेंदु तीर्थंकर

शोध सार : हिंदी सिनेमा ने भारतीय समाज को गहरे स्तर तक प्रभावित किया है। यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जितना प्रभाव सिनेमा का समाज पर पड़ा है, उतना किसी अन्य कला का नहीं। सिनेमा अपने जन्म के साथ ही अपने जादुई आकर्षण के कारण समाज के हर वर्ग में काफी लोकप्रिय रहा है। परंतु यह एक विचित्र विडंबना है कि हाल-फिलहाल तक सिनेमा को बहुत अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। अब सिनेमा के प्रति लोगों का नजरिया बदल रहा है। आधुनिक भारतीय समाज के मूल्य-बोध को निर्धारित-प्रभावित करने वाले कारकों में सिनेमा का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अपने जन्म के साथ विभिन्न पड़ावों से गुजरते हिंदी सिनेमा का इतिहास जानना, दरअसल, भारतीय समाज का मनोविज्ञान जानना भी है। प्रस्तुत लेख में हिंदी सिनेमा के महत्त्वपूर्ण बदलाव और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को रेखांकित करने की कोशिश की गई है। 

बीज शब्द : मूक सिनेमा, कला फिल्म, मुख्यधारा की फिल्में, विश्वबंधुत्व, अशरीरी प्रेम, भूमंडलीकरण, नव-उदारीकरण, जीवन-मूल्य, ट्रेजडी।

मूल आलेख : हाल-फिलहाल तक सिनेमा देखना व्यक्ति के बिगड़ जाने का प्रतीक माना जाता था। पर आज शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसकी सिनेमा में दिलचस्पी हो। अब सिनेमा देखना अपने आप को सुसंस्कृत होने का प्रमाण माना जाने लगा है, परंतु शुरू में ऐसी स्थिति नहीं थी। बच्चों को तो सिनेमा देखने की मनाही थी, व्यस्क भी चोरी-छुपे ही सिनेमा देखते थे। सिनेमा एक जादुई असर वाली कला है। सिनेमा का जितना व्यापक असर जीवन और समाज पर पड़ता है, उतना शायद ही किसी दूसरे कला रूप का पड़ता हो। इसका कारण यह है कि सिनेमा में सभी कलाओं का समाहार होता है। सभी कलाओं के सर्वश्रेष्ठ तकनीकि रूप का नाम सिनेमा है। सिनेमा कहानी भी है, गीत भी है, संगीत भी है, नृत्य भी है, फोटोग्राफी भी है, तकनीक का कलात्मक रूप भी। फिल्मकार सत्यजित रे के शब्दों में, “फिल्म छवि है, फिल्म शब्द है, फिल्म गीत है, फिल्म नाटक है, फिल्म कहानी है, फिल्म संगीत है, फिल्म में मुश्किल से एक मिनट का टुकड़ा भी इन बातों का एक साक्ष्य दिखा सकता है।[1]

हिंदी सिनेमा के इतिहास पर नजर डालें तो हम पायेंगे कि भारतीय जीवन-मूल्य सिनेमा को गहरे स्तर तक प्रभावित करता है, वहीं सिनेमा भी हमारे जीवन मूल्यों को संस्कारित करने का काम करता है। प्रसिद्ध राजनेता राममनोहर लोहिया ठीक ही कहा करते थे किभारत को एक करने वाली दो ही शक्तियाँ हैंएक गांधी और दूसरी फिल्में।इस कथन में अतिशयोक्ति हो सकती है, परंतु यह सच है कि आधुनिक भारत के निर्माण और जनमानस के मन को रचने-बनाने में सिनेमा की महत्त्वपूर्ण और सक्रिय भूमिका रही है। फिल्म समीक्षक सुभाष सेतिया के शब्दों में, “भारतीय सिनेमा देश के सामान्य जन-जीवन से इतना गहरा गूंथा हुआ है कि इसके बिना समाज गतिशील और जीवंत हो ही नहीं सकता। इस समय फिल्म में जिस तरह के रचनात्मक मोड़ दिखायी दे रहे हैं, उनसे आशा बंधती है कि भारतीय सिनेमा केवल देश के जनमानस में अपनी जड़ों को और गहरा बनायेगा, बल्कि विश्व मंच पर भारत की छवि को दैदीप्यमान करने में भी अपना योगदान बढ़ायेगा।[2]

हिंदी सिनेमा ने अपनी सौ साल से ऊपर की यात्रा पूरी कर ली है। फिल्मों का इतिहाससत्य हरिश्चंद्रसे शुरू होता है। इस फिल्म में हरिश्चंद्र की भूमिका खुद दादा साहेब फाल्के ने ही की थी। इस फिल्म के निर्देशक भी वे थे। शुरुआत की फिल्मों में आवाज नहीं थी। इस मूक दौर में 1288 फिल्में बनी थीं लेकिन उनमें से मात्र 13 फिल्में ही राष्ट्रीय अभिलेखागार में मिलती हैं। राष्ट्रीय अभिलेखागार में जिन 13 फिल्मों की चर्चा मिलती है, वे हैं दादा साहेब फाल्के की सत्य हरिश्चंद्र, कालिया मर्दन, श्री कृष्ण जन्म, लंका दहन, हिमांशु राय की प्रेम संयास, सिराज, प्रपंच पास, जीपी पवार की दिलेरा जिगर, गुलामी का पतन, हरिलाल एम भट्ट की पितृ-प्रेम, पी एन राव की मार्तण्ड वर्मा, संत तुकाराम तथा भक्त प्रह्लाद। शुरुआती दौर में अधिकतर फिल्में धार्मिक थीं। बीच-बीच में कुछ ऐतिहासिक और सामाजिक फिल्मों का निर्माण भी हुआ। यह दिलचस्प तथ्य है और इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि आखिर शुरुआती दौर में हिंदी सिनेमा का मुख्य विषय धार्मिक क्यों रहा? इस संदर्भ में विचार करने पर दो बातें सामने आती हैं। पहली बात तो यह कि सिनेमा दूसरी कलाओं से भिन्न इस अर्थ में है कि सिनेमा में पूंजी बहुत लगती है। सिनेमा में पूँजी लगाने वाले कला-प्रेमी व्यापारी होते हैं, अतः सिनेमा में जो भी पैसा लगाता है, वह अधिक से अधिकरिटर्नचाहता है। इसलिए उसे एक ऐसे विषय की तलाश होती है जोटेस्टेडहो और पैसा वसूल होने की पूरी गारंटी हो और फिल्मों के लिए धर्म एक ऐसा विषय रहा, जिसमें पैसा वसूल होने की सौ फीसदी गारंटी थी।

दूसरा कारण यह था कि वह समय विभिन्न तरह के सुधार आंदोलनों का था, जिसमें कई सुधार आंदोलन धार्मिक संस्थाओं द्वारा चलाये जा रहे थे। भारतीय नवजागरण का बहुत बड़ा आयाम धार्मिक सुधार आंदोलन का था। धर्म की नयी व्याख्या से विभिन्न तरह की सामाजिक बुराइयों और रूढ़ियों पर प्रहार किया जा रहा था। खुद राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के सबसे बड़े योद्धा महात्मा गाँधी ने अपने विभिन्न सामाजिक कार्यक्रम धार्मिक कलेवर में चलाये। अतः हिंदी फिल्में अपने शुरुआती दौर में धार्मिक फिल्मों के माध्यम से जनजागरण का काम करती रहीं।मूक फिल्मों का समय भारतीय जीवन को कई तरह से आंदोलित करने का समय था। पहले धार्मिक पौराणिक पात्रों को लेकर फिल्मों का निर्माण हुआ। यह जनता को फिल्मों के जादू से जोड़ने का एक नायाब तरीका था। क्योंकि उस समय फिल्म को ओछा माध्यम माना जाता था। ऐसा माना जाता था कि सिनेमा सभ्य समाज का हिस्सा नहीं है। धार्मिक फिल्मों के माध्यम से भारतीय जनमानस में अपनी पैठ बनाने के बाद मूक सिनेमा में ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं पर भी फिल्मों का निर्माण हुआ। पौराणिक फिल्मों ने भारतीय जीवन की मानसिक चेतना को जहाँ एक संबल दिया, वहीं ऐतिहासिक पात्र पर बनी फिल्मों ने लोगों को राष्ट्रीयता से जोड़े रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।[3]

हिंदी सिनेमा का अंत प्रायः सुखांत होता है। ऐसे अंत के लिए फिल्म समीक्षकों द्वारा बार-बार सवाल उठाया जाता है। यह दूसरी बात है कि फिल्मों के इस अंत को दर्शकों ने खूब सराहा और अपना भरपूर प्यार दिया। दूसरी तरफ यूरोप की फिल्में प्रायः दुखांत होती हैं। इस दुखांत कोट्रेजडीभी कहा जाता है।ट्रेजडीकी यह परंपरा यूरोप में नाटकों से आयी है। अरस्तु ने इसी दुखांत के कारण नाटकों कोट्रेजडीकहा था। दरअसलसुखांतऔरदुखांतकी यह परंपरा दो जीवन मूल्यों और दर्शन से जुड़ी हुई है। भारतीय जीवन दर्शन मेंसत्यमेव जयतेकी अवधारणा काफी पुरानी है और आज भी तमाम किंतु-परंतु के बाद भारतीय जनमानस इस अवधारणा पर विश्वास करता है। जीवन में परेशानियाँ हैं, कठिनाइयाँ हैं, संघर्ष है, मनुष्य को इन सभी से जूझना पड़ता है, पर अंत में इन बाधाओं को पार करता हुआ मनुष्य, जीवन आनंद की ओर बढ़ता है। संस्कृत नाटकों में इसे हीफलागमकहा गया है। सत्य परेशान हो सकता है, पर पराजित नहीं। यह अवधारणा भारतीयों में काफी लोकप्रिय है। हिंदी सिनेमा ने इस अवधारणा से प्रेरणा भी ली है और इसे काफी मजबूत भी किया है। इस क्रम में हिंदी सिनेमा एक खास तरह के फार्मूलेबाजी की शिकार भी हुई। दरअसल, हिंदी सिनेमा की हैप्पी इंडिंग भारतीय जीवन-दृष्टि और मूल्यबोध का ही परिणाम है। लगातार पराजित होने के बावजूद, पराजय का भाव स्वीकार करने का साहस, मनुष्य की अपराजेय जिजीविषा का सूचक हैं। यह अपराजेय जिजीविषा का भाव भारतीय जीवन-दृष्टि और मूल्यबोध में गहरे तक पैठा हुआ है।

हिंदी सिनेमा के इतिहास को मुख्यतः पाँच भागों में बाँट सकते हैंपहला दौर मूक सिनेमा का है। ( सन 1913 से सन 1931 तक, सन 1931 में प्रदर्शित अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्देशित आलमआरा पहली बोलती फिल्म थी।) दूसरे दौर में सन 1931 से सन 1947 तक की फिल्मों को रख सकते हैं। तीसरा दौर सन सन 1947 से सन 1960 तक का है जिसमें आज़ादी का उल्लास, समाजवादी रूझान, गाँधीवादी मूल्यों जैसी विशेषताएँ देख सकते हैं। चौथे दौर का समय सन 1960 के आस-पास मान सकते हैं। सन 60 तक आते-आते हिंदी सिनेमा में बड़े परिवर्तन होते हैं और सिनेमा का स्वरूप काफी बदल जाता है। सिनेमा के इस बदलते हुए स्वरूप और स्वप्न को लेकर फिल्म समीक्षक विजय कुमार लिखते हैं, “पचास और साठ के दशक की फिल्में जिन्हें स्कूल और कॉलेज से भाग-भागकर देखते हुए मेरी पीढ़ी के लोग बड़े हुए हैं, वे अछूत कन्या, पड़ोसी या धरती के लाल थीं। हमारा समय बाजी, जाल, आरपार, सीआईडी, टैक्सी ड्राइवर, देवदास, नौ दो ग्यारह, पेइंग गेस्ट, फंटुश, पॉकेटमार, काली टोपी लाल रूमाल, चोरी-चोरी, काला बाजार, चलती का नाम गाड़ी, अलबेला, चाइना टाउन और दिल तेरा दीवाना जैसी फिल्मों का था। श्री 420, दो बीघा जमीन, गंगा जमना, प्यासा, कागज के फूल, हम दोनों और गाइड जैसी फिल्में हमारे समय की क्लासिक फिल्में थीं। यह समय कितनी जल्दी बदल गया था। पॉपुलर सिनेमा की एक नई संस्कृति आकार ले रही थी। चालीस के दशक का आदर्शवाद अपना रंग खो चुका था। बांबे टॉकीज, प्रभात और न्यू थियेटर्स जैसी कंपनियाँ बंद हो चुकी थीं। पृथ्वी थियेटर्स और इप्टा की बातें केवल हमने अपनी पिछली पीढ़ी से सुनी थीं। अब तो सिनेमा निर्माण में तमाम गलत-सही रास्तों से अकूत धन रहा था। बड़ा बजट, विशाल वितरण और मुनाफा चीजों के केंद्र में थे। लेकिन मनोरंजन की इसी पॉपुलर संस्कृति के बीच अभी भी राजकपूर, गुरुदत्त, बिमलराय और महबूब खान की अपनी-अपनी स्वप्नजीविता बाकी थी। इनके यहाँ सिनेमा अब भी निर्देशक के ऑट्यूर' को दूर तक निभा सकता था।[4]

साठ तक आते-आते भारतीय समाज में बहुत सारे परिवर्तन देखने को मिलते हैं। आज़ादी के स्वप्न का तिलस्म टूटता है। आजादी जिन स्वप्नों और उद्देश्यों को लेकर आगे बढ़ी थी, समय के साथ वे तार-तार होते गए। आम आदमी में हताशा-निराशा बढ़ती गयी। भ्रष्टाचार चारों तरफ व्याप्त था। इन सभी का चित्रण हिंदी सिनेमा मेंहाइपर रियलिटीके साथ देखने को मिलता है। इसके साथ ही सिनेमा में व्यापक तौर पर हिंसा का प्रवेश होता है। पाँचवा दौर नब्बे के आसपास से मान सकते हैं। मौटे तौर से इस समय को नव उदारीकरण या फिर भूमंडलीकरण के नाम से संबोधित किया जाता है।भूमंडलशब्द कोई नया शब्द नहीं है। भारतीय संस्कृति मेंवसुधैव कुटुंबकम्सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है। इसका अर्थ हैधरती ही परिवार है। अब सवाल उठता है कि क्या आज के भूमंडलीकरण का कोई संबंध इस भाव से है? बिना लाग-लपेट के कहा जाए तो नहीं... बिल्कुल नहीं।बसुधैव कुटुंबकम्में विश्वबंधुत्व और मनुष्यता का भाव है, वहीं आज के भूमंडलीकरण में विशुद्ध रूप से बाजार है। इस बाजार ने मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने दिया है, बल्कि उसे उपभोक्ता बना दिया है। आर्थिक सफलता या कहें कि किसी भी कीमत पर सफलता ही जीवन का उद्देश्य हो गया। सारे नैतिक मूल्य ध्वस्त हो गए। येन-केन-प्रकारेण सफलता ही नैतिकता बन गई। अनियंत्रित पूँजी और तकनीकि के रथ पर बैठा हुआ यह भूमंडलीकरण भारतीय जीवन-मूल्यों पर गहरा आघात किया जिसकी परिणति पेज3, रागिनी एमएमएस, प्यार का पंचनामा, दिल दोस्ती इटीसी इत्यादि फिल्मों में देखने को मिलती है। फिल्मों का विषय बदल गया। प्रस्तुति का ढंग बदल गया। स्त्री-देह अब एक उत्पाद के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। इन सारी बातों का प्रभाव इस दौर के सिनेमा में देखा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर यह सिनेमा भूमंडलीकरणीय नकारात्मक प्रभाव का प्रतिरोध भी रचता है और नये जीवन मूल्यों की तलाश भी करता है।

हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा, जिसे पॉपुलर सिनेमा कहा जाता है, अपने व्यवसायिक दृष्टिकोण और उद्देश्य के कारण आलोचकों का कोपभाजन बना रहा। मुख्यधारा के सिनेमा पर यह भी आरोप लगता रहा कि जीवन के यथार्थ से दूर हल्के ढंग से मनोरंजन करना ही इसका उद्देश्य बन गया। हालाँकि मनोहर श्याम जोशी यह कहते हैं कि सिनेमा की शायद ही ऐसी कोई घटना हो जो किसी--किसी के जीवन में घटित हुआ हो। खैर, इस विवाद का यहाँ अवकाश नहीं है। तमाम आरोपों के बावजूद हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा ने हमारे संस्कार और जीवन-दृष्टि को जिस तरह संस्कारित किया और भारतीयता की खुशबू बिखेरी है, वह काफी सराहनीय है। हिंदी सिनेमा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए फिल्म समीक्षक जवरीमल पारख लिखते हैं, “हिंदी सिनेमा आरंभ से ही संविधान की मूल आत्मा की अभिव्यक्ति का सबसे लोकप्रिय और सशक्त माध्यम रहा है। फिल्मों को मनोरंजन के लोकप्रिय माध्यम के रूप में ही देखा जाता रहा है। लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में देश को बनाए और बचाए रखने में आमतौर पर भारतीय सिनेमा और खासतौर पर हिंदी सिनेमा के योगदान का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है।5 सिनेमा का कोई भी रूप हो, वह समाज से किसी किसी रूप में जुड़ा रहता है।साहित्य की तरह सिनेमा भी अपनी प्राणशक्ति समाज से प्राप्त करता है, इसलिए सिनेमा पर विचार करते हुए समाज के साथ उसके संबंधों पर विचार करना आवश्यक है। सिनेमा चाहे मनोरंजन के लिए हो या व्यवसाय के लिए या फिल्म कला की उत्कर्ष की अभिव्यक्ति के लिए, उसमें अपने दौर का समाज किसी किसी रूप में व्यक्त हुए बिना नहीं रह सकता। यह अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष और अतिरंजित रूप में भी हो सकती है और अप्रत्यक्ष और रचनात्मक रूप में भी।6 इस क्रम में अपनी पसंद की कुछ फिल्मों का उल्लेख यहाँ जरूरी है।

सन 1951 में राजकपूर द्वारा निर्देशित और अभिनित फिल्मआवाराआई, जो रिलिज़ के साथ ही सुपरहिट फिल्म साबित हुई।आवारा कुलीनता के फॉर्मूले में कैद इस धारणा को तोड़ती है कि अच्छा आदमी बनाया नहीं जा सकता, वह पैदा होता है। इससे यह कयास भी टूटता है कि हमारे अच्छे-बुरे सिद्ध होने का संबंध हमारे जन्म से है। जैसे एक अपराधी का बेटा अपराधी। कथानक का दारोमदार भी इसी बिन्दु पर टिका है।7 इस फिल्म का संगीत काफी लोकप्रिय हुआ। इस फिल्म का टाइटिल सौंगमैं आवारा हूँआज भी सिने-प्रेमियों के बीच काफी लोकप्रिय है।आवारामें यह दिखाने की कोशिश की गई है कि परिस्थितियाँ आदमी को बुरा बना देती हैं। परिस्थितियाँ ठीक रहें तो आदमी अच्छा हो सकता है। यही बात राजकपूर की दूसरी फिल्मश्री 420में भी कही गई है। हालाँकिश्री 420का कथानक बिल्कुल अलग है। इस कथा में यह भी दिखलाया गया है कि चाहे जितनी परेशानियाँ आएँ,सत्य का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए।श्री 420का गीतमेरा जूता है जापानी/ये पतलून इंग्लिश्तानी/ सर पे लाल टोपी रूसी/ फिर भी दिल है हिंदुस्तानीभारत के करोड़ों जनता का राष्ट्रीय उद्गार जैसा है। भारत की विविधता में जो एकता है,उसका प्रतीक यह गीत बनता है। सन 1960 में राधूकरमाकर के निर्देशन में बनी फिल्मजिस देश में गंगा बहती हैप्रदर्शित हुई। इस फिल्म के बारे में हरि मौर्य लिखते हैं, “फिल्म का निर्माण काल वह समय है जब स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तेरह वर्ष बीत जाने पर भी देश की दशा सुधरने पर देशवासियों का मोहभंग होना शुरू हो गया था, साहित्य में यह नई कहानी और नई कविता के रूप में पहले ही हो चुका था। फिल्म मेंश्री 420’, ‘जागते रहोऔर फिरजिस देश में गंगा बहती हैके माध्यम से नेहरू युग की समाप्ति के दौर में यह फिल्म आती है। इसके कुछ स्पष्ट संकेत फिल्म में दिखाई देते हैं।8 जिस देश में गंगा बहती हैफिल्म में भारतीय संस्कृति और जीवन-मूल्य को एक व्यापक फलक पर चित्रित किया गया है। हमारे देश में बार-बार यह बात कही जाती है कि सत्य,अहिंसा और करुणा से किसी भी कठोर व्यक्ति का दिल जीता जा सकता है। गाँधी जी इसे हृदय परिवर्तन की घटना कहते थे। यह हृदय परितर्वन कोई नई बात नहीं थी। भारतीय संस्कृति में इसे बार-बार कहा गया है। इतिहास गवाह है कि आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में चंबल के कई दुर्दांत अपराधियों ने 60 के दशक में अपने हथियार रख दिए थे।जिस देश में गंगा बहती हैफिल्म में भी राजू के भोलेपन, सादगी और ईमानदारी से प्रभावित होकर राका जैसा खूँखार अपराधी सत्य के रास्ते पर चलने को राजी हो जाता है।होंठों पर सच्चाई रहती है/ जहाँ दिल में सफाई रहती है / हम उस देश के वासी हैं / जिस देश में गंगा बहती हैफिल्म का यह गीत तो भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता हुआ गीत है। इस फिल्म में कुल नौ गीत हैं। इनमें से आठ गीत शैलेन्द्र ने लिखा है। ये सारे गीत वस्तुतः कथात्मक संरचना के अटूट हिस्से हैं। ऊपर जिस गीत की चर्चा हुई है, उसका अगला हिस्सा है- ‘जब कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं।यह पंक्ति आज की व्यवस्था और शिक्षा पर करारा व्यंग्य करती है। शिक्षा हमारी परंपरा में ज्ञान का पर्याय है और ज्ञान वही है जो मनुष्य की चेतना का विस्तार करे। विस्तृत चेतना का व्यक्ति विश्व बंधुत्व की भावना से ओतप्रोत होता है। विश्व बंधुत्व का यह भाव भारतीय जीवन-दृष्टि में शुरू से देखने को मिलता है। परंतु अफसोस कि अब शिक्षा, सूचनाओं का पर्याय मान लिया गया है और ये सूचनाएं हमें चालक और स्वार्थी बना रही हैं। इसीलिए इस फिल्म में कहा गया कि ज्यादा जानने वाले लोग इंसान और इंसानियत को कम पहचानते हैं। गीतों की तरह इस फिल्म का संवाद भी लाजवाब है और भारतीय जीवन मूल्यों को उद्घाटित करने वाला है। फिल्म का एक दृश्य है- जहाँ नायक राजू पर यह संदेह व्यक्त किया जाता है कि वह पुलिस का आदमी है। उससे पूछा जाता है- ‘तू पुलिस का आदमी भी है और पापियों को मुक्ति का रास्ता भी दिखाता है! कौन है रे तू, कहाँ का रहने वाला है?’ राजू जो जवाब देता है वह एक तरह से भारत की पहचान है। वह कहता है- ‘ताऊ जी! एक देश है इस दुनिया में जहाँ दाता भिखारी को भिक्षा नहीं दे पाता तो हाथ जोड़कर कहता है, मेरे को माफी दे दे भाई! जहाँ खिलाने वाला खाने वाले को बोलता है कि- आपने बड़ी दया की है जो मेरा चौका पवित्र किया। जहाँ पापी और हत्यारा अपने पाप से पलटता है तो रामायण जैसा ग्रंथ लिखता है और ऋषि बाल्मीकि कहलाता है। ताऊ जी! हम उस देश के वासी है जिस देश में गंगा बहती है। जब सभी डाकू आत्म समर्पण के लिए तैयार हो जाते हैं तो राका डाकू से प्रेम करने वाली बिजली कहती है- ‘ठहरो! मेरा राका भी आज से उसी देश का वासी बनेगा, मैं उसे तैयार करती हूँ।फिल्म के अंत में राका पुलिस के घेरे के बीच फिर बंदूक उठा लेता है तो राजू उसे समझाता है- ‘राका फेक दे इस दोनाली को, लोहे की इस डायन ने महात्मा गाँधी सरीखे को नहीं पहचाना वो तेरे को क्या पहचानेगी?’9 इस फिल्म में गंगा भारतीयता की पर्याय है, जो निर्मलता, पवित्रता, भाईचारा, सादगी, सत्य, अहिंसा इत्यादि मूल्यों के प्रतीक हैं। अफसोस कि आज गंगा भी मैली हो गई है और ये मूल्य भी कमजोर पड़ गए हैं। 

विमल रॉय एक बहुत ही समर्थ निर्देशक थे। उनके निर्देशन मेंदो बीघा जमीन सन 1953 में भारतीय रजत-पटल पर आयी। यह फिल्म रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानी पर आधारित है। यह फिल्म छोटे किसानों की त्रासदी से जुड़ी हुई है। पूँजीवादी व्यवस्था के दुश्चक्र ने किस प्रकार छोटे किसानों को भूमिहीन किया,यह फिल्म इस स्थिति को उभारती है। जमीन सिर्फ भरण-पोषण का ज़रिया ही नहीं, बल्कि किसानों की धड़कन है। सरकार या पूँजीपति कोई भी मुआवज़ा देकर इसकी भरपाई नहीं कर सकता। विस्थापन का यह दर्द आज भी अनवरत जारी है।दो बीघा जमीनमें मुख्य भूमिका बलराज साहनी ने निभाई है। बलराज साहनी कोकई चेहरों वाला अभिनेता कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि बलराज साहनी किरदार को पर्दे पर ऐसे उपस्थित करते थे कि उनके अपने चेहरे की कोई झलक नहीं आती। इस संदर्भ में भीष्म साहनी कहते हैं, “बलराज की सफलता का राज था कि वे किसी किरदार को निभाते वक्त उसमें अपना दिल ही नहीं, आत्मा भी झोंक देते थे।... यही कारण है कि जब आप बलराज की किसी फिल्म को याद करते हैं, तो बलराज याद नहीं आते, वह किरदार याद आता है। हर किरदार अपने आप में अलग नजर आता है। अभिनेता बलराज गायब हो जाता है। वे अपनी पहचान को किरदार में भुला देते थे। यह इस कारण होता था क्योंकि वे किरदार से गहरे स्तर पर जुड़ जाते थे। बलराज कहते थे कि एक्टिंग सिर्फ कला नहीं है, यह एक विज्ञान भी है।10 बलराज साहनी इस फिल्म की शूटिंग कलकत्ता में कर रहे थे तभी उन्हें बिहार का एक रिक्शा मजदूर मिला जो रूआँसा होकर बोला कि यह तो मेरी कहानी है। मेरी भी लगभग दो बीघा जमीन थी जो रेहन पर रखी हुई है, उस जमीन को छुड़ाने के लिए पंद्रह वर्ष से कलकत्ता में रिक्शा चला रहा हूँ।इस फिल्म के किरदार को निभाने के लिए बलराज साहनी कई हफ्ते तक कलकत्ता में रिक्शा खींचने वालों की बस्ती में रहे थे। यहाँ उन्होंने रिक्शा खींचने के लिए खुद को प्रशिक्षित ही नहीं किया था, बल्कि रिक्शा खींचने वालों के तौर-तरीके भी सीखे थे।11

सन 1957 में महबूब खान की फिल्ममदर इंडियारिलीज़ हुई।मदर इंडियामें भारतीय स्त्री और कृषक-जीवन की महाकाव्यात्मक अभिव्यक्ति की गयी है।मदर इंडियामें जहाँ एक तरफ कृषक जीवन की परेशानी, महाजनों की लूट की कथा है, वहीं दूसरी तरफ यह एक स्त्री के अदम्य साहस, संघर्ष, सत्य और निष्ठा की भी कहानी है। महबूब खान ने राधा के माध्यम से संपूर्ण भारतीय स्त्रियों के जीवन-मूल्यों को उभारा है। इसलिए राधा सिर्फ एक स्त्री की कहानी भर नहीं रह जाती, वह बनती हैमदर इंडिया इस संदर्भ मेंमदर इंडियाके दो दृश्यों का उल्लेख जरूरी है। राधा के बच्चे भूख से तड़प रहे हैं। छोटा बेटा बिरजू तो भूख से बेहोश ही हो जाता है। राधा लाला के पास मदद के लिए जाती है। लाला उसकी मदद के लिए तैयार तो है, परंतु उसकी इज्जत से खेलना चाहता है। सतीत्व की रक्षा भारतीय स्त्रियों की आत्मा में बसा हुआ मूल्य है। राधा समझौता करने से इनकार कर देती है। इस प्रसंग पर सुबोध कुमार श्रीवास्तव लिखते हैं,  “मदर इंडिया ऑस्कर के लिए नामांकित हुई थी। पर उसे ऑस्कर प्राप्त नहीं हुआ। हो ही नहीं सकता था। इस फिल्म को पश्चिम के रंगीन चश्में से देखा भी नहीं जा सकता। मदर इंडिया को देखने और समझने के लिए ठेठ भारतीय आँखें चाहिए। संभवतः निर्णायकों के गले यह बात उतरी होगी कि जब राधा के बच्चे चने के एक-एक दाने के लिए तरस रहे थे और भूखों मर रहे थे, तब भी वह सुक्खीलाल के आगे समर्पण क्यों नहीं करती? पति के खर्राटों से तंग आकर जहां पत्नी अपने पति को तलाक दे देती हो, वहाँ के लोग राधा के बलिदान को क्या समझते।12 दूसरा दृश्य फिल्म के अंत का है, जहाँ बिरजू लाला की हत्या कर उसकी बेटी को उठाकर ले जा रहा है। राधा का तर्क है कि बिरजू! तुम्हारी दुश्मनी लाला से थी, तुमने बदला ले लिया। लाला की बेटी तो सारे गाँव की बेटी है, यह गाँव की लाज है। इसे छोड़ दे। बिरजू नहीं मानता। राधा अपने ही बेटे को गोली मार देती है। भारतीय समाज में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे, जहाँ आपसी दुश्मनी से स्त्रियों और बच्चों को अलग रखा जाता है। बेटियाँ सारे गाँव की बेटियाँ समझी जाती हैं। भले ही कहने के लिए ही सही, भारतीय जनमानस अपने जीवन मूल्यों के रूप में इन बातों को बार-बार दुहराता है।

सन 1960 में प्रदर्शित के.आसिफ द्वारा निर्देशित फिल्ममुगले आज़मबहुत सारी खूबियों के लिए याद की जाती है। यह फिल्म भारत की सामासिक शक्ति को व्यक्त करती है। आज़ाद हिंदुस्तान में धर्म-निरपेक्षता एक बड़े मूल्य के रूप में देखा गया। अकबर का चरित्र इस फिल्म में बहुत ही उदार और धर्मनिरपेक्ष दिखलाया गया है। इस फिल्म के बारे में जवरीमल पारख लिखते हैं, “मुग़ल--आजम में अकबर को हिंदुस्तान से जोड़ा जाता है लेकिन एक शासक के रूप में नहीं, उसकी परंपरा, मर्यादा और गरिमा की रक्षा करने वाले के रूप में भी। दरअसल, फिल्मकार सलीम और अनारकली की प्रेम-कहानी को अकबर और हिंदुस्तान के बीच के संबंधों के रूबरू रखकर दिखाता है। अकबर अपने इस कदम और फैसले को हिंदुस्तान के हक में किए गए फैसले के रूप में रखता है और इस तरह सलीम और अनारकली की प्रेम-कहानी के विरोध का औचित्य वह हिंदुस्तान के प्रति अपने कर्तव्य में खोजता है।13

प्रेम-त्रिकोण को लेकर हिंदी सिनेमा के इतिहास में कई फिल्में बनीं। सन 1964 में प्रदर्शितसंगमभी एक ऐसी ही फिल्म थी। भारतीय जीवन-मूल्य में प्रेम के लिए शरीर से ज्यादा आत्मा को महत्त्व दिया गया है।भारत में तीर्थ को स्वर्ग की सीढ़ी माना जाता रहा है। लेकिन जहाँ दिलों का संगम होता है, वहाँ स्वर्ग स्वयं उतार आता है। फिर प्यार करने वाले दिलों को किसी तीर्थ की सीढ़ी चढ़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती। दिलों के ऐसे ही जज़्बातों के मेल की एक कहानी हैसंगम14 प्रेम पाना नहीं त्याग का नाम है। तभी तो फिल्म के अंत में राजकपूर कहते हैं – ‘मैंने तो राधा से प्यार ही नहीं किया, समझा ही नहीं। राधा से तो प्यार गोपाल ने किया था। प्रेम दो आत्माओं का संगम है। हिंदी सिनेमा ने इस अशरीरी प्रेम का चित्रण बार-बार किया है। एक ऐसी ही फिल्म थीअमर प्रेम

नब्बे का दशक भूमंडलीकरण का समय है।इस दौर की हिंदी फिल्मों की मुख्य प्रवृत्तियों पर विचार करने पर भूमंडलीय यथार्थ के प्रति हिंदी सिनेमा के रूख को काफी हद तक समझा जा सकता है। इस दौर में बनने वाली फिल्मों में दिखाई देने वाली मुख्य प्रवृत्ति का संबंध भारतीय पूंजीपति वर्ग की वैश्विक महत्त्वकांक्षाओं से है। इस दौर में ऐसी बहुत-सी फिल्में बनीं हैं, जिनमें भारतीय उद्योगपति का व्यापार अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, एशिया, और अफ्रीका तक में फैला है।15 इस कारण फिल्मों का विषय बदल गया। गाँव, गरीबी, संयमित जीवन, सादगी इत्यादि विषय के रूप में फिल्मों से प्रायः नदारद हो गए। पूँजी और तकनीकि के रथ पर बैठा यह भूमंडलीकरण भारतीय समाज को झकझोर कर रख दिया। नव-उदारीकरण के कारण जहाँ नये-नये रोजगार के अवसर प्राप्त हुए, वहीं भारतीय जीवन मूल्यों में आमूल-चूल परिवर्तन भी आया। कई पुराने मूल्य टूटे और नये मूल्य बने। सन 1995 में प्रदर्शित फिल्मदिलवाले दुलहनिया ले जायेंगेमें भूमंडलीकरण के असर को देखा जा सकता है। फिल्म का नायक राज, पहले के नायकों की तरह शराफत की मूर्ति नहीं है। वह शराब पीता है, लड़कियों को फ्लर्ट करता है, परंतु दूसरी ओर स्त्री अस्मिता के प्रति अत्यंत सजग है। भूमंडलीकरण के इस असर को सन 2004 में प्रदर्शित अब्बास मस्तान की फिल्मऐतराजमें देखा जा सकता है। आज किसी भी कीमत पर सफलता मनुष्य का उद्देश्य हो गया है। इस फिल्म में भी एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो सफल होने के लिए अपने प्रेमी को छोड़कर एक बूढ़े पूँजीपति से शादी कर लेती है। कुछ दिनों के बाद वही लड़का उसके दफ्तर में मैनेजर बनकर आता है, तो उससे प्रेम संबंध स्थापित करना चाहती है। उसके लिए शादी और प्रेम दोनों अलग-अलग है। परंतु लड़के का जीवन मूल्य आड़े हाथ जाता है। वह अपनी शादी के प्रति वफादार है। इस प्रकार इस दौर की फिल्मों में जहाँ स्थापित मूल्य ध्वस्त हो रहे हैं, वहीं इन मूल्यों को बचाने की जद्दोजहद भी दिखती है। यथार्थ जीवन में नैतिकता की लड़ाई तो हम लगभग हार गए हैं, परंतु हिंदी सिनेमा अभी भी नैतिकता की लड़ाई लड़ रहा है।

फिल्म पर बात करते हुए हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि फिल्म एक तकनीकि भी है और विषय भी। तकनीकि बदलने के साथ फिल्मों का रिश्ता भी विषय के साथ बदल जाता है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कई महत्त्वपूर्ण बदलाव हुए। इन्हीं बदलावों में एक है, सूचना क्रांति का विस्फोट। इसका परिणाम यह हुआ कि इंटरनेट, कंप्यूटर इत्यादि सूचना के माध्यम घर-घर पहुँच गए। लोकल ग्लोबल हो गया और ग्लोबल लोकल के समक्ष उपस्थित हुआ। अब कोई भी व्यक्ति अपने मनचाहे विषय या घटना को कैमरे में शूट कर इंटरनेट के माध्यम से दुनिया के सामने ला सकता है। इसका व्यापक असर फिल्मों पर पड़ा। कम बजट की कई सार्थक फिल्में दर्शकों के सामने आईं। इस दवाब का असर यह हुआ कि बड़े बजट और बड़े स्टार वाली फिल्में भी मेलों, ड्रामा से अलग सार्थक विषयों पर बात करने लगी। ऐसी दर्जनों महत्त्वपूर्ण फिल्मों का जिक्र किया जा सकता है जो इधर के वर्षों में बनीं। एक ऐसी ही महत्त्वपूर्ण फिल्म है सन 2016 में प्रदर्शितदंगल यह फिल्म महिला कुश्ती पर आधारित है। हरियाणा के एक छोटे से गाँव में जन्मी गीता फोगाट ने रेसलिंग में सन 2010 के कॉमनवेल्थ गेम में गोल्ड मेडल अपने नाम किया था। इनके पिता महावीर सिंह फोगाट भी मशहूर रेसलर थे। यह फिल्म रेसलिंग की प्रतिछाया में महिला सशक्तिकरण की आवाज बुलंदी से उठाती है। महावीर सिंह फोगाट जब अपनी बेटियों को कुश्ती लड़ने की बात कहते हैं तो गाँव में तरह-तरह की बात होती है। सभी आर्थिक और सामाजिक परेशानियों को झेलते हुए गीता और बबीता कुश्ती की ट्रेनिंग अपने पिता से लेती हैं। फिल्म में एक दृश्य आता है जब अभ्यास के लिए कोई नहीं मिलता है और उन्हें लड़कों से कुश्ती लड़ना पड़ता है। यह प्रतीक है कि पुरुष मानसिकता से बगैर टकराए, उसके वर्चस्व को नहीं तोड़ा जा सकता।

इस प्रकार हिंदी फिल्म शुरू से लेकर अभी तक विभिन्न सामाजिक समस्याओं को उठाती रही है। बदले हुए समय के साथ फिल्में भी बदलीं और उनमें निहित संदेश भी।

संदर्भ :
[1]सत्यजित रे : वसुधा, प्रह्लाद अग्रवाल (अतिथि संपादक), अंक 81, पृ. 12
[2]सुभाष सेतिया : जीवन में गहरे पैठा है सिनेमा, आजकल, अक्टूबर 2012, पृ. 47
[3]प्रो. रमा : हिंदी सिनेमा में साहित्यिक विमर्श, हंस प्रकाशन, 2019, पृ. 4
[4]विजय कुमार : हिंदी सिनेमा : आदि से अनंत, प्रह्लाद अग्रवाल (संपादक), साहित्य भंडार,
इलाहाबाद, पृ. 11
5 जवरीमल पारख : आजादी के 75 साल और हिंदी सिनेमा, हंस, अगस्त 2022, पृ.112
6 वहीं
7 प्रताप सिंह : सिनेमा का जादुई सफर, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, 2011, पृ.39
8 हरि मौर्य : एक असंभव सच्चे इंसान की फिल्म, वसुधा, सं. प्रह्लाद अग्रवाल, अंक-81, पृ. 246
9 ‘जिस देश में गंगा बहती है’ फिल्म से
10 भीष्म साहनी : नया पथ (हिंदी सिनेमा के सौ बरस), जनवरी 2013, पृ. 12
11 चंदन श्रीवास्तव : नया पथ (हिंदी सिनेमा के सौ बरस), जनवरी 2013, पृ. 12
12 सुबोध कुमार श्रीवास्तव : वसुधा, प्रह्लाद अग्रवाल (अतिथि संपादक), अंक-81, पृ. 176
13 जवरीमल पारख : वसुधा, प्रह्लाद अग्रवाल (अतिथि संपादक), अंक-81, पृ. 222-223
14 सतीश बिरथरे : प्रेम त्रिकोण का सबसे रंगीन तिलस्म, वसुधा, अंक-81, पृ. 277
15 जवरीमल पारख : आजादी के 75 साल और हिंदी सिनेमा, हंस, अगस्त 2022, पृ. 117
16 संदर्भित फिल्में : आवारा, श्री 420, मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, जिस देश में गंगा बहती है, मुग़ल-ए-आज़म, संगम, अमर प्रेम, दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएंगे, ऐतराज, दंगल।

डॉ. बिमलेंदु तीर्थंकर
सह-आचार्य,हिंदी विभाग, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली–7
सम्पर्क : bimlendutirthankar@yahoo.com, 9873404932

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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