आलेख : जब्‍तशुदा गीतों में क्रांति की चेतना / डॉ. राजकुमार व्‍यास

जब्‍तशुदा गीतों में क्रांति की चेतना 
- डॉ. राजकुमार व्‍यास

    कविता का लोकवादी स्‍वर अपने समय और उसकी संवेदना को व्‍यक्‍त करता है। भारतीय स्‍वतंत्रता के संघर्ष के संदर्भ में कविता की भूमिका का अनुशीलन करते समय सायास कविता और अनायास कविता की परिधि एकमेक हो जाती है। संवदेना और चेतना के प्रति समर्पित रचनाकार की स्‍वातंत्र्य यज्ञ में सक्रिय भागीदारी थी। स्‍वाधीनता के ऐतिहासिक संघर्ष के वैचारिक भावबोध के संदर्भ में अनेक धारणाएँ प्रचलित हैं। स्‍वाधीनता की चेतना का‍ विकास भी इन्‍हीं धारणाओं के सहारे क्रमश: गतिमान होता है और विचारों और भावनाओं का नैरंतर्य रचनाकारों और राजनीतिज्ञों दोनों के लिए ही चुनौतीपूर्ण रहा है। स्‍वाधीनता के संघर्ष में काव्‍य-गीतों ने निर्णायक भूमिका निभाई। इन गीतों ने लोकजीवन और राष्‍ट्रीय चेतना बहुत गहराई से प्रभावित किया-   ‘‘ कविता सदा से मानवीय प्ररेणा का महत्‍वपूर्ण माध्‍यम रही है। स्‍वतंत्रता आंदोलन इसकी उत्‍कृष्‍ट मिसाल है। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष का शंखनाद फूँकते हुए कविता ने आम आदमी को इस संघर्ष के लिए प्रेरित किया। ’’ गीतों के बगावती तेवर अंग्रेज सरकार को बर्दाश्‍त नहीं थे। नतीजा ये हुआ कि अनेक गीतों को प्रतिबंधित कर दिया गया और सरकार ने दमनात्‍मक कार्रवाई करते हुए यह गीत जब्‍त कर लिए – ‘‘ ब्रिटिश हुकूमत कविता की इस आंदोलनकारी भूमिका से अपरिचित नहीं थी और इसीलिए समय-समय पर इस तरह के साहित्‍य को जब्‍त करती रही। ये कविताएँ न केवल उस समय के जनाक्रोश  और आकांक्षाओं को ही व्‍यक्‍त करती हैं, बल्कि उस दौर का ऐतिहासिक दस्‍तावेज भी हैं।’’ जागरण गीत इस क्रांति चेतना के मूर्त रूप थे और दमन के विरुद्ध मोर्चा लेकर उपस्थित थे। राष्‍ट्र की अजस्र काव्‍यधारा का समस्‍त भावबोध और शिल्‍प राष्‍ट्रीय चेतना में तिरोहित हो गया था। 

    रचनाकारों और विशेषकर कवियों ने इस अवसर पर अपनी काव्य प्रतिभा को देश सेवा में समर्पित कर दिया। समय बहुत ही विकट था अंग्रेजी के सामने भारतीय भाषाओं की स्थिति बहुत अलग थी। खड़ीबोली आकार ग्रहण कर रही थी। और अन्‍य बोलियों का स्‍वर लोकगीतों और लोकसाहित्‍य से आधार ग्रहण कर रहा था। हिन्‍दी की सेवा ही देश की सेवा थी और साहित्‍यकार, इतिहासकार, पत्रकार और अर्थशास्‍त्री बनकर देश की सेवा का मार्ग चुना जा सकता था। भारत की सांस्‍कृतिक और राजनीतिक अस्मिता का उत्‍स उस वातावरण में होता है जिसके कारण स्‍वाधीनता का प्रथम संग्राम लड़ा गया। यह आजादी की पहली थी लड़ाई जिसे गदर कहा गया और ब्रिटिश सरकार जिसे सिपाही विद्रोह कहकर अपनी झेंप मिटाना चाहती है। ‘‘ वह जन आंदोलन यद्यपि असफल हो गया किंतु अपने पीछे एक राष्ट्रीय चेतना छोड़ गया। अंग्रेज शासक के विरुद्ध हिंदुस्तान की संगठित राष्ट्रीय भावना का वह प्रथम आह्वान था और तभी से हमारी राष्ट्रीयता का जयनाद आरंभ हो गया।उत्तर मध्य युग की चेतना और इस चेतना में साम्‍य में केवल यह है कि हिंदुत्व की प्रबल चेतना थी पर अंतर और भी अधिक स्पष्ट है। शिवाजी और भूषण की हिंदू भावना सामंती थी जबकि दयानंद, राममोहन की हिंदू-भावना का स्वरूप सांस्कृतिक एवं सामाजिक था।दयानंद का भारत कश्मीर से कन्याकुमारी तक का भारत था।’’  धर्म सुधार आंदोलन और नव जागरण का स्‍वर क्रमागत रूप से स्‍वाधीनता के संघर्ष में बदल गया। 

    अंग्रेजों ने गदर पर बहुत ही मुश्किल से काबू पाया था। इसलिए भारतीय राष्‍ट्रीय चेतना के संदर्भ में वे बहुत ही सतर्क थे। चौकसी बहुत बढ़ गई थी। साहित्‍यकारों के लिए यह चौकसी ही चुनौती थी और अपने फन के माहिर इन फनकारों ने इस चुनौ‍ती को बखूबी स्‍वीकार किया और करारा जवाब भी दिया - ‘प्रह्लाद’ में में राष्‍ट्रीय चेतना की अभिव्‍यक्ति‍ कुशलतापूर्वक की गई थी। ‘प्रह्लाद’ में हिरण्‍यकशिपु अंग्रेजों का प्रतीक था। ‘मेरा नाटककाल में ’ राधेश्‍याम कथावाचक ने लिखा है- ‘कंपनी के उस समय के एक मैनेजर मि० माणिकशाह बल्‍सरा ने मुझसे कहा कि यहाँ तक खुफिया पुलिस का बड़ा अफसर दो बार अपनी डायरी लेकर आया कि कहीं से भी नाटक को हुकूमत के विरुद्ध पकडूँ और बंद कराऊँ, पर वह फेल रहा।  ‘प्रह्लाद’ और ‘ प्रमोद ’ निश्‍चय ही हुकूमत के विरुद्ध  खूब खुल-खुलकर उस नाटक में बोलते थे, पर आड़ यह थी की किस हुकूमत के विरुद्ध ...?’’  संकेत में अपनी बात कहना और जनता की उदासी दूर करके उसे गतिशील बनाए रखना रचनाकारों के लिए एक रोमांचकारी अनुभव था। विजेन्‍द्र स्‍नातक का कथन है कि अप्रस्‍तुत विधान और प्रतीक विधान छायावादी काव्‍य शिल्‍प के मुख्‍य आधार रहे हैं। सन् 1918 के बाद का समय भारतीय राष्‍ट्रीय आंदोलन के चरम का समय है और छायावाद के उत्‍थान का समय भी यही है। इसी काव्‍य प्रवृत्‍ति‍ के साथ एक धारा विकसित होती है जिसे राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक धारा कहा जाता है।

इतिहास और पुराण की अनेक कथाएँ-उपकथाएँ और किंवदंतियाँ भारतीय चेतना में अपने अमिट स्‍वरूप में सुरक्षित थीं। रचनाकारों ने इतिवृत के भावबोध को प्रतीकात्‍मकता के साथ अपने वर्तमान से जोड़ दिया। शिल्‍प के स्‍तर पर की गई यह कारीगरी पकड़ना अंग्रेजों के बस की बात नहीं थी। ‘‘ एक ऐसे समय में जब भारत का वर्तमान अंधकारमय और असुंदर हो, जब उसका भविष्‍य अनिश्चित हो, तब भारतीयों के पास अतीत का गौरव ही वर्तमान में स्‍वाभिमान तथा नये ओर सुंदर भविष्‍य की प्रेरणा के स्रोत के रूप में बचा रह गया था। अतीत की जड़ों को गहराई में टटोलने से कला, साहित्‍य और संस्‍कृति में वसंत आया। ’’  अतीत को टटोलने का हर प्रयास सफल हुआ। विगत का वैभव भारतीयों की जातीय स्‍मृ‍ति का अंग था उसे तात्‍कालिक विभाव-अनुभाव की आवश्‍यकता थी और रचनकारों ने अपने शैल्पिक सौष्‍ठव से इस अभाव की तुरंत ही पूर्ति कर दी  '' भारत वासियों ने वर्तमान पराधीनता के अपमान को भूलने के लिए अतीत के स्वर्ण युग का सहारा लिया। वर्तमान की हार का उत्‍तर उन्‍होंने अतीत की जीत से दिया। हीनता का भाव दूर हुआ।  जो जाति वर्तमान में विभाजित थी, वह अतीत की पृष्ठभूमि पर एक हो उठी। इस तरह अतीत के पुनरुत्थान ने संपूर्ण देश में एक जातीय है अथवा राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात किया। '' वैभवशाली अतीत ने संघर्षशील वर्तमान को कभी भी निराश नहीं किया।

    उन्‍नीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध  भारतीय स्‍वाधीनता के आंदोलन के साथ ही दो महायुद्धों के कारण भी विश्‍व इतिहास में स्‍थायी महत्‍व रखता है। विश्‍व इतिहास की युगांतकारी घटनाओं से भी भारत भूमि और यहाँ के निवासी प्रभावित हो रहे थे। इन वैश्विक प्रभावों के कारण साहित्‍य में भी सार्वभौमिकता के प्रति संवेदना के भाव दिखाई देते हैं। ‘‘भारतीय समाज विश्‍व समाज का एक अंग है, एक ऐसा अंग जो दूसरे समाजों के साथ अंत: क्रिया करताहै , खुद पर उन समाजों के प्रभाव को महसूस करता है और उन्‍हें स्‍वयं भी प्रभावित करता है। भारतीय समाज की ऐतिहासिक गति आंतरिक सामाजिक शक्तियों परस्‍पर क्रिया का ही नहीं, अपितु अंतर्राष्‍ट्रीय विश्‍व की शक्ति‍यों और भारतीय समाज पर उनके प्रभाव का भी उत्‍पादन है।’’  रूस में साम्‍यवादी क्रांति के बाद तो जनचेतना को जागृत करने की सैद्धांतिकी अपना व्‍यवहारिक आश्रय ही भारत भूमि में तलाशने लगी थी - ‘‘ प्रगतिवादी समीक्षकों ने इस बात पर बल दिया कि आज के कवि के लिए सबसे अधिक आवश्‍यकता अपनी चेतना का संस्‍कार करने की है ;  और तब तक वह अपनी चेतना का संस्‍कार नहीं कर सकता, जब तक कि वह विश्‍व चेतस् न हो।’’ विचारधारा के स्‍तर पर प्रगतिवादी विचारकों ने जनचेतना को संस्‍कारित करने के लिए साहित्‍य को माध्‍यम के रूप में ग्रहण किया। 

    पुनरुत्‍थानवादी और प्रगतिवादी दोनों ही विचारधाराएँ साम्राज्‍यवादी ताकतों के विरुद्ध जनजागरण का कार्य कर रही थीं। नामवर सिंह राष्‍ट्रीय आंदोलन के दौर और उसकी चेतना के विकास में एक चरणबद्धता की ओर संकेत करते हैं - ''जाति अथवा राष्ट्रीय भावना के इतिहास में यदि पुनरुत्थान-भावना प्रथम चरण है तो देश-प्रेम द्वितीय चरण अपने गाँव और प्रांत की सीमा से बाहर निकलकर संपूर्ण देश को अपनी जन्मभूमि समझना राष्ट्रीयता का मंगलाचरण है।'' बीसवीं शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध की हिन्‍दी कविता अपने ऐतिहासिक क्रमश: पुनरुत्थान-भावना और देश-प्रेम का वरण करते हुए चलती है। विदेशी सत्‍ता ने इस क्रम की पहचान के हजारों उपक्रम किए और इन जागरण के गीतों पर प्रतिबंध यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि इनकी पहचान को पहचान लिया गया था। इकबाल का यह कहना भी गवारा नहीं था कि हमारा देश सारी दुनियाँ सारे जहाँ से अच्‍छा है। 

सारे जहाँ से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा
हम बुलबुले हैं उसकी यह गुलिस्‍तां हमारा । 

साहिर लुधियानवी ने भी अपने समय और उसकी चेतना को स्‍वरबद्ध किया और अंग्रेज हुकूमत की आँख की किरकरी बनने का खतरा भी मोल लिया –‘‘इस युग के रचनाकारों में देशभक्ति और राजभक्ति को लेकर दुविधा का भाव था। अंग्रेज शाासकों ने धार्मिक आधार पर अपनी ओर आकृष्‍ट करने का प्रयास भी आरंभ कर दिया था’’  दुविधाग्रस्‍त समय में साहिर ने हुकूमत की बुनियाद को ढहा देने की प्रेरणा दी और यह स्‍पष्‍ट कर दिया कि वे किसी पक्ष में हैं - 

हुकूमत की बुनियाद ढाए चला जा,
जवानों को बागी बनाए चला जा ।
बरस आग बनकर फिरंगी के सर पर 
तकब्‍बुर की दुनिया को ढाए चला जा । 

रचनाकार अपने समय के सच से प्रेरित होता है और स्‍वाधीनता के आंदोलन के समय का सच स्‍वाधीनता का आंदोलन ही था। रचनाकार इस सच से दूर हो सकता था इस नकार नहीं सकता था। साहिर लुधियानवी यहाँ युवाओं का आह्वान कर रहे हैं कि बगावत ही अंतिम लक्ष्‍य है और बागी होना भी है और बागी बनाना भी है। असरार उल हक ‘मजाज’ ने  ‘एक जिलावतन की वापसी’ में इन्‍हीं भावों को व्‍यक्‍त किया है - 

सरफरोशाने बलाकश का सहारा बन जा,
उठ और इफलाके-बगावत का सितारा बन जा । 
वतन हमारा रहे शादकाम और आजाद,
हमारा क्‍या है अगर हम रहे, रहे न रहे । 

 काकोरी की रेल-डकैती में शामिल रहे। अशफाक ने देश के लिए कुर्बान होने को अपनी खुशकिस्‍मती माना है। वे अपनी शायरी में देश की खुशहाली की कामना करते हैं। 

मैं उनके गीत गाता हूँ, मैं उनके गीत गाता हूँ, 
जो शाने पर बगावत का अलम लेकर निकलते हैं
किसी जालिम हूकूमत के धड़कते दिल पर चलते हैं 
जो आजादी की देवी को लहू की भेंट देते हैं । 

जांनिसार अख्‍तर ने तो बलिदानियों और देशभक्‍तों को ही अपनी रचना का विषय बनाया।  ‘ मैं उनके गीत गाता हूँ’ गीत में वे देशभक्‍तों के अदम्‍य साहस और वीरता का वर्णन करते हैं। 

समय के साथ आजादी के आंदोलन का नेतृत्‍व और भावधारा दोनों ही बदल गए थे। नरम दल की नरमाई पुरानी बात हो गई थी और गरम दल की गरमी देश के कोने-कोने में पहुँच रही थी। रामचन्‍द्र शुक्‍ल ने लिखा है- आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गाँव-गाँव राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना जगाई गई। सरकार से कुछ माँगने के स्‍थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को ही ‘स्‍वतंत्रता देवी की वेदी पर बलिदान’ होने को प्रोत्‍साहित करने में लगी। अब जो आंदोलन चले वे सामान्‍य जन समुदाय को भी साथ लेकर चले। इससे उनके अंदर अधिक आवेश और बल का संचार हुआ।’’  देश के लिए जेल जाना एक गौरव की बात थी। सरकार के दमन का मुकाबला करने के लिए जो नैतिक साहस चाहिए ये था वह साहित्‍य से मिल रहा था। जनता की चित्‍तवृत्ति‍ का प्रतिबिंब ये जागरण गीत थे। मुहम्‍मद मुस्‍तफा खां ‘मद्दाह’ ने ‘कड़े मरहले’ गीत में अपने साथि‍यों को कड़ी परीक्षा से गुजरने का संकेत किया है - 

नहीं सहल आजादी ए हिन्‍द यारो,
अभी तुमको मैदां में आना पड़ेगा।
अभी इम्तिहां तुमको देने पड़ेंगे,
अभी तुमको जेलों में जाना पड़ेगा।

जेल का वातावरण जागरण गीतों की स्‍वर लहरियों और इंकलाब के नारों से गूँजता रहता था। कैदी अपनी जंजीरों को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं इसकी प्रतीकात्‍मकता देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने से संबद्ध है -  

क्‍या हिन्‍द का जिंदां काँप रहा  है, गूँज रही हैं तकबीरें, 
उकताएँ हैं शायद कुछ कैदी और तोड़ रहे हैं जंजीरें।
क्‍या उनको खबर थी होठों पर जो कुफ्ल लगाया करते थे,
इक रोज इसी खामोशी से टपकेंगी दहकती तकरीरें। 

शब्‍दावली ही चित्रावली का भार उठाए हुए थी। पुलिस हिरासत और न्‍यायिक हिरासत जैसे शब्‍द लोकजीवन में मुहावरे की तरह शामिल हो गए थे। जोश मलीहाबादी, ‘शिकस्‍ते जिंदा का ख्वाब’ गीत में इन्‍हीं लम्‍हों को पूरी रोमानियत के साथ व्‍यक्‍त करते हैं। क्रांतिकारी के जीवन का एक पड़ाव थी जेलयात्रा। इन प्रतिबंधित गीतों में जेल के जीवन और देश की सेवा के लिए जेल जाने के गौरव का गान है। आंदोलन के प्रति जनचेतना में इन वर्णनों को बड़ा महत्‍व है । जेल में लाख तकलीफें हैं लेकिन सबकुछ सहन करना है देश के लिए। यह वर्णन युवाओं में साहस का संचार करते थे और यही बात ब्रिटिश हुकूमत को अच्‍छी नहीं लगती थी। सरेआम पेड़ों पर फाँसी दिए जाने के बाद भी देश और देशवासियों में आजादी की लौ ललक रही थी तो यह जागरण गीतों का ही असर था। सूफी कविता की रोमानियत यहाँ देश के प्रेम झलक रही थी। वतन के बाग और गुंचे ही नौजवानों के लिए सुरूर का सामां होते थे। ब्रजनारायण चकबस्‍त ‘खाके हिन्‍द’ कविता में यही कह रहे हैं - 

हुब्‍बे वतन समाए आँखों में नूर होकर,
सर में खुमार होकर, दिल में सुरूर होकर। 
गुंचे हमारे दिल के इस बाग में खिलेंगे,
इस खाक से उठे हैं, इस खाक में मिलेंगे।  

अपनी धरती और उसकी सेवा करते हुए वापस उसी में मिल जाने की तैयारी और खाक से उठने का गौरव और उसी की खाक में दफ्न हो जाने का अरमान। गीत के माध्‍यम से देशवासियों को अदम्‍य साहस और शौर्य संदेश दिया गया है। देश की माटी का कण-कण शहीदों की कुर्बानियों से महकता है। स्‍वाधीनता के लिए उत्‍सर्ग होनेवाले वीरों से ही यह माटी पावन हो गई है। कुर्बानियों की राह पर पहुँच जाना, बलिदानियों की राह में बिछ जाना ही जीवन का उद्देश्‍य और परम लक्ष्‍य हो गया था। अपने आराध्‍य का जो सामीप्‍य रसखान की कविता में मिलता है वही सामीप्‍य माखनलाल चतुर्वेदी की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है - 

चाह नहीं मैं सुरबाला को गहनों में गूँथा जाऊँ
..मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक 

प्राचीन गौरव को वर्तमान की प्रेरणा का स्रोत बनाने का के दायित्‍व का निर्वहन जयशंकर प्रसाद ने भी किया और उनकी इतिहास दृष्टि उनकी रचनाओं सहज ही व्‍यक्‍त होती है। चन्‍द्रगुप्‍त नाटक का यह गीत दृष्‍टव्‍य है - 

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से 
प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्‍वयंप्रभा समुज्‍वला 
स्‍वतंत्रता पुकारती 
बढे़ चलो, बढे़ चलो । 

स्‍वाधीनता के लिए उत्‍सर्ग करना ही होगा और युवाओं ने बलिदान को तमन्‍ना का नाम दिया। उनकी यह तमन्‍ना जालिम शासक को ललकारती है। उसकी बाजूओं के जोर की आजमाइश करना चाहती है। 

सरफरोशी की तमन्‍ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल  में है।  

रामप्रसाद बिस्म‍िल की आत्‍मकथा  भी जब्‍त कर ली गई थी।  जो फिर देश के आजाद होने के बाद प्रकाशित हुई। आजादी की लड़ाई की रूपरेखा में केन्‍द्रीय प्रतीक तिरंगा झंडा था। झंडा गीत देशवासियों में उत्‍साह का संचार कर देता था और वे प्राण-प्रण से आजादी के महासमर में बलिदान को निकल पड़ते थे। प्रभात फेरियों में झंडागीत और उसकी स्‍वर-लहरियाँ वातावरण को रोमांच से भर देती थी - 

विजयी विश्‍व तिरंगा प्‍यारा 
झंडा ऊँचा रहे हमारा । 
स्‍वतंत्रता के भीषण रण में
लखकर बढ़े जोश क्षण-क्षण में 
काँपे शत्रु देखकर मन में  
मिट जाए भय-संकट सारा। 

तिरंगे का देखने भर से देश के दुश्‍मन को कँपकँपी छूट जाती थी। कवि ने यहाँ यही बयान किया है। तिरंगा साथ रखना कितने साहस का कार्य था। यह भारतीय अस्मिता का प्रतीक थे जो उस समय साम्राज्‍यवादी ताकतों से संघर्ष कर रही थी। वर्तमान के संघर्ष को विगत की गौरवपूर्ण घटनाओं से प्रेरणा मिलती है। बीसवीं सदी का स्‍वतंत्रता संग्राम उन्‍नीसवीं सदी के गदर से बहुत कुछ सबक और प्रेरणा ले रहा था। ऐसे में सुभद्रा कुमारी चौहान की यह कविता उल्‍लेखनीय है -  

बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी ।

अतीत का गौरवगान जन चेतना के लिए अमृत के समान था। पूरा देश आजादी के लिए आंदोलित हो उठा। जेल, सजा, कुड़की, बेंत,फाँसी, अहिंसा, तिरंगा और खादी जैसे शब्‍द ही आंदोलन के प्रतीक थे और रोजमर्रा के जीवन में शामिल हो गए थे। इसलिए ब्रि‍टिश सरकार ने खादी गीत को भी प्रतिबंधित कर दिया - 

खादी के धागे-धागे में अपनेपन का मान भरा,
माता का इसमें मान भरा, अन्‍यायी का अपमान भरा। 
....
खादी ही बढ़, चरणों पर पड़ नुपूर-सी लिपट मना लेगी,
खादी ही भारत से रूठी आजादी को घर लाएगी। 

स्‍वदेशी वस्‍त्रों के उत्‍पादन के पीछे का अर्थतंत्र विदेशी व्‍यापार के असंतुलन को समाप्‍त करने का था और जनांदोलन ने यह बात गाँव-गाँव तक पहुँचा दी थी। खादी ही देश की आर्थिक दशा को सुधार सकती है और इसमें छिपी आत्‍मनिर्भरता ही देश को आजादी दिलाएगी ऐसो आमजन में विशवास था। अंग्रेजी हुकूमत के निर्मम कानूनों ने भी जनता को आरपार की लड़ाई के लिए विवश किया। हसरत मोहानी की ये पंक्‍त‍ियाँ उल्‍लेखनीय हैं -
 
गैर की जिद्दो-जहद पर तकिया न कर कि है गुनाह,
कोशिशे-जाते-खास पर नाज कर, ऐतिमाद कर । 

औद्योगिक क्रांति के बाद सारी दुनियाँ में एक नये श्रेष्ठि वर्ग का उदय हुआ। भारत में सामंती जीवन के विलास में योरोप की संस्‍कृति ने अनेक नये रंग घोल दिए थे। कंपनी सरकार में अनेक भारतीयों को नौकरी मिली और नौकरी भी अफसरी की इस अफसरशाही ने भारतीय समाज में एक नये प्रकार के धनाढ्य वर्ग का उदय हुआ। हसरत मोहानी अपनी कविता में प्रकारांतर से इसी वर्ग को संबोध‍ित कर रहे हैं। 

इतिहासकारों ने आजादी के पहली लड़ाई और उसके बाद के स्‍वाधीनता के संघर्ष की आवश्‍यकता को स्‍वर दिए तो साहित्‍यकारों ने उस इतिहास चेतना और युगबोध को लय प्रदान की। शब्‍द और लय की जुगलबंदी ने क्रांति चेतना के प्रसार में अभूतपूर्व योगदान दिया। नवजागरण की अजस्र ऊर्जा के साथ प्रतिक्रयावाद की चेतना भी थी। आधुनिक विश्‍व का कुछ भी छिपा नहीं था। राजनीति के अनेकानेक प्रयोगों के लिए भारतवर्ष एक खुली प्रयोगशाला थी। राज्‍य और प्रशासन के लिए कानून की नित नई व्‍याख्‍याएँ मौजूद थी ऐसे संघर्षमय समय में जिन्‍होंने संगीनों के साये में और तोपों के दहाने पर भी आजादी के गीत रचे उनकलम के सिपाहियों का संघर्ष और बलिदान अविस्‍मरणीय है। 

डॉ. राजकुमार व्‍यास
सहायक प्रोफेसर, हिन्‍दी विभाग, मोहनलाल सुखाडिया विश्‍वविद्यालय, उदयपुर, राजस्‍थान।
सम्पर्क : rajkumarvyas@gmail.com, 9928788995 


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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