साक्षात्कार : 'घने कोहरे को चीरते हुए आगे बढ़ रही है हिंदी ग़ज़ल।' (हिंदी ग़ज़ल के प्रतिनिधि ग़ज़लकार मधुवेश से डॉ. दीपक कुमार की बातचीत)

'घने कोहरे को चीरते हुए आगे बढ़ रही है हिंदी ग़ज़ल।' 
(हिंदी ग़ज़ल के प्रतिनिधि ग़ज़लकार मधुवेश से डॉ. दीपक कुमार की बातचीत)

(मधुवेश हिंदी ग़ज़ल के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिनकी ग़ज़लों में हमारा समय अपनी पूरी सच्चाई के साथ व्यक्त हुआ है मधुवेश ऐसे ग़ज़लकार हैं जो थोक के भाव ग़ज़लें नहीं कहते बल्कि अपने हर संवेदन को पूरी शिद्दत के साथ अपनी ग़ज़लों में ढालते हैं। मधुवेशसमकालीन हिंदी ग़ज़ल में एक ऐसे ग़ज़लकार हैं, जो बहुत कम बात करते हैं और जिन्हें पर्दे के पीछे रहकर बिना कोई साहित्यिक हड़कंपी मचाए, शांत भाव से साहित्य सेवा करते हुए अपने समय को साहित्य में दर्ज करते चले जाना पसंद है। उनकी जनवादी ग़ज़लों ने हमें उनसे बात करने और ग़ज़ल के बारे उनके विचार जानने के लिए प्रेरित किया।)

साहित्य की विभिन्न विधाओं में से आपने ग़ज़ल विधा को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए क्यों चुना? एक ग़ज़लकार के रूप में आपकी यात्रा कैसे शुरू हुई?

कुछ गीत और मुक्तछंद कविताओं को छोड़ दिया जाए तो मेरी काव्ययात्रा का प्रारंभ ग़ज़ल विधा से ही हुआ। ग़ज़ल से जो एक बार नाता जुड़ा, तो फिर आज तक कायम रहा। यह वह समय था, जब मैं उत्तर प्रदेश के शहर आगरा में था और देश में आपातकालीन स्थिति लागू थी। साहित्यिक वातावरण में दुष्यंत की ग़ज़लों की चर्चा जोरों पर थी। उसके बाद जब अदम गोंडवी की ग़ज़लें चर्चा में आईं, तब तक मैं ख़ुद ग़ज़ल पर हाथ आज़माने लगा था और मात्र एक-दो ग़ज़लों के लिए कथा-पत्रिकासारिकाखरीदने लगा था।

            ग़ज़ल के रचना-विधान की बेसिक जानकारी मुझे ग़ज़ल लिखने-पढ़ने के अपने स्वयं के अभ्यास और ग़ज़लकार मित्रों, विशेषकर नार्वी, शलभ भारती और मोजेज माइकेल के संग-साथ और परस्पर संवाद से हासिल हुई। यह जानकारी तब और बढ़ी, जब मैंने हर माह होने वाली एक नशिस्त (ग़ज़ल-गोष्ठी) में श्रोता के रूप में शिरकत शुरू की। इस नशिस्त में शहर के लगभग सभी छोटे-बड़े शायर शामिल होते थे। दूसरा दौर तरही ग़ज़लों का होता था। तरह मिसरे पर ग़ज़ल कहने का अभ्यास मेरे खूब काम आया। कुछेक शायर आम बोलचाल की सरल उर्दू में, या कहें हिंदी के बहुत करीब वालीहिंदुस्तानीभाषा में ग़ज़लें कहते थे, और उनकी विषयवस्तु भी नयापन लिए होती थी। ऐसे ही शायरों से मेरे नज़दीकी संबंध बने, और उन्हीं के आग्रह पर, मैं कभी-कभार इस नशिस्त में ग़ज़ल-पाठ करने लगा। फिर शहर में होने वाली हिंदी कवियों की गोष्ठियों में भी ग़ज़ल-पाठ की शुरुआत हो गई।

            ग़ज़ल से लगाव की सबसे बड़ी वजह कम शब्दों में एक पूरी, बड़ी बात कहने की इस विधा की खूबी ही थी। सबसे पहले सुने गए दुष्यंत के इस एक शेर ने मुझ पर जादू जैसा काम किया- ‘दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो / तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ग़ज़ल लिखने के लिए मुझे घर मेंलिखने की मेजसजाने की जरूरत आज तक महसूस नहीं हुई, यह शायद इसी विधा में संभव था। ग़ज़ल के शेर चलते-फिरते, टहलते, बस में यात्रा करते भी कहे जा सकते थे, कहे भी गए। रोजी-रोटी के संघर्ष के चलते मेरे पाससमयपर्याप्त था, यह भी एक कारण था, अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए ग़ज़ल विधा का चयन करने का।

आपकी अब तक कितनी ग़ज़ल रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं?

प्रकाशित ग़ज़लों की संख्या बताना तो बहुत कठिन है। सन् 2014 में मेरा प्रथम ग़ज़ल-संग्रह कदम-कदम पर चौराहेप्रकाशित हुआ, जिसमें 87 ग़ज़लें थीं। मेरा दूसरा ग़ज़ल-संग्रहबहुत पहलेहाल ही में प्रकाशित हुआ है जिसमें 230 अशआर वाली एक ही लंबी ग़ज़ल है।

            जिन विविध पत्र-पत्रिकाओं में मेरी ग़ज़लें प्रकाशित हो चुकी हैं, उनमेंअलाव, ‘हंस, ‘कथादेश, ‘सार्थक, ‘सापेक्ष, ‘ग़ज़ल के बहाने, ‘आधारशिला, ‘अप्रतिम, ‘नेशनल दुनिया, ‘अमर उजाला, ‘विकासशील भारत, ‘संडे मेल, ‘ककसाड़, ‘संवदिया, ‘प्रेरणा-अंशु, ‘नया ज्ञानोदय, ‘संस्थान संगम, ‘अदबी दहलीज़, अर्बाबे कलमऔरसमकालीन स्पंदनआदि शामिल हैं। इसके अलावासमकालीन हिंदी ग़ज़लकार: एक अध्ययन’ (संपादक:हरेराम समीप), ‘101 प्रतिनिधि ग़ज़लकार’ (संपादक:अशोक अंजुम), ‘हिंदी ग़ज़ल की परंपरा’ (संपादक:हरेराम समीप), ‘2020 की नुमाइंदा ग़ज़लें’ (संपादक  : रमेश कँवल), 'ग़ज़ल त्रयोदश'  : खंड तीन (संपादक  : विनय शुक्ल) और 'ग़ज़ल पंचशतक ' (संपादक  : विनय शुक्ल) में ग़ज़लें शामिल हैं 

एक समर्थ ग़ज़लकार के रूप में आपकी ग़ज़लें अपने समय को किस तरह व्यक्त कर पा रही है?

मेरी ग़ज़लें अपने समय को किस तरह व्यक्त कर पा रही हैं, यह तो आप मेरी ग़ज़लों को पढ़कर जान सकते हैं, या फिर उन समीक्षकों की समीक्षाएँ पढ़कर, जिन्होंने मेरी ग़ज़लें पढ़ी हैं और पढ़कर समीक्षाएँ लिखी हैं।

            मेरे ग़ज़ल-संग्रहकदम-कदम पर चौराहेके व्लर्बराख के नीचे दबी आगमें नचिकेता जी ने लिखा है- “ये ग़ज़लें अपने समय और समाज की लहूलुहान हकीकत, उसकी विसंगतियों, विद्रूपताओं और विडंबनाओं तथा उनके खिलाफ व्यापक जन-मन में उमड़ते असंतोष, आक्रोश और प्रतिरोध के मुखर स्वर का जीवंत दस्तावेज हैं।

            इसी संग्रह की भूमिकाअपनी-सी ग़ज़लेंमें वरिष्ठ ग़ज़लकार रामकुमार कृषक ने लिखा है- “हिंदी ग़ज़ल में आज दो तरह के ग़ज़लकार रचनारत हैं। एक वे जो इसकी विधागत लोकप्रियता में अपना नाम लिखाना चाहते हैं। दूसरे वे जो इसमें अपने समय को दर्ज कर रहे हैं। एक अगर इनमें व्यक्ति है तो दूसरा सामाजिक। व्यक्तिशः इन दोनों में खास दूरी नहीं, लेकिन रचनात्मक सरोकारों में खासी दूरी है। एक अपने अंतःपुर में रहते हुए रचनारत है, दूसरा अपनी बाहरी दुनिया को भी पहचानता है। मधुवेश दूसरी प्रकार के ग़ज़लकारों में शुमार किए जाते हैं।

क्या वंचित समाज, जिसमें निर्धन, दलित, किसान और मजदूर वर्ग को शामिल किया जाता है, की पीड़ा भी आपकी ग़ज़लों में व्यक्त हुई है? यदि हाँ तो किस तरह?

वंचित समाज की पीड़ा को व्यक्त किए बिना ग़ज़ल-लेखन सार्थक हो ही नहीं सकता। समकालीन हिंदी ग़ज़ल दलित वर्ग और ग्रामीण जीवन की दुश्वारियों को बखूबी बयाँ कर रही है। किसान और मजदूर वर्ग की दयनीय हालत पर भी समकालीन हिंदी ग़ज़लें खूब लिखी जा रही हैं। इसकी तस्दीक के लिए मेरे कुछ अशरार देखे जा सकते हैं-

(1)

किस तरह आगे बढ़े घनश्याम पैसे के बिना

सामने हर रास्ता है जाम पैसे के बिना।

लोग कहते हैं वहाँ से पास थी मंजिल बहुत

हार बैठा जिस जगह घनश्याम पैसे के बिना।

(2)

खेतों से कुछ दाने लेकर घर को दीना निकलेगा

लेकिन बेचारे का पहले खून-पसीना निकलेगा।

(3)

दिखाए जा रहे हैं लो उन्हें अब चाँद के सपने

अँधेरों के कुएँ से जो अभी बाहर नहीं निकले।

(4)

फोड़ता अपनी आँखें गर सुई से रात-दिन

छेद अपनी भी कमीजों के रफूगर देखता।

(5)

कभी मक्खी कभी मच्छर कभी बिच्छू कभी विषधर

गरीबों के घरों में मौत के सामान हैं कितने।

(6)

कुआँ अछूतों का है वह तो, कहते हैं वो वहाँ जाना

और प्यास में पीना मुश्किल अपने नल का गँदला पानी।

(7)

तुम्हारी बेद-बानी आज भी सुनने नहीं देता

हमारे कान में डाला गया सीसा बहुत पहले।


समकालीन हिंदी ग़ज़ल के प्रमुख ग़ज़लकारों के रूप में आप किन रचनाकारों को महत्वपूर्ण मानते है? और क्यों?

हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता-परंपरा से जुड़ी हुई विधा है। समकालीन हिंदी ग़ज़ल के उन प्रमुख ग़ज़लकारों की सूची बहुत लंबी है जिन्होंने दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल को आगे बढ़ाया, और जिनकी महत्त्वपूर्ण ग़ज़लें यह सिद्ध करती हैं कि दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल काफी आगे बढ़ी है। मेरा अपना ही शेर है- “अकेला मैं नहीं उस राह के राही हजारों हैं / रखा जिस पर कदम दुष्यंत ने पहला बहुत पहले।प्रमुख ग़ज़लकारों की लंबी सूची में फिलहाल जो नाम मुझे याद रहे हैं, वे इस प्रकार हैं- सर्वश्री सूर्यभानु गुप्त, ज्ञानप्रकाश विवेक, जहीर कुरेशी, डॉ. ब्रह्मजीत गौतम, माधव कौशिक, लोकेश कुमार साहिल, महेश अग्रवाल, किशन तिवारी, अशोक रावत, कमलेश भट्ट कमल, ओमप्रकाश यती, हरेराम समीप, कुलदीप सलिल, वशिष्ठ अनूप, रमेश प्रसून, विपिन सुनेजा, विवेक भटनागर, मनोज अबोध, हरीश दरवेश, इंदु श्रीवास्तव, डॉ. भावना, डॉ. सीमा विजयवर्गीय, के. पी. अनमोल, . एफ. नज़र, सुदेश मेहर, अशोक अंजुम, गौतम राजऋषि, रामचरण राग, अभिषेक कुमार सिंह आदि। इस सूची में कई और नाम हो सकते हैं, जो फिलहाल याद नहीं रहे।

दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को राजनीतिक तेवर प्रदान किया और हिंदी ग़ज़ल को समकालीन समस्याओं से जोड़ा। क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल अब भी राजनीतिक चेतना से संपन्न है?

निस्संदेह, दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को राजनीतिक तेवर प्रदान किया और हिंदी ग़ज़ल को समकालीन समस्याओं से जोड़ा। दुष्यंत कुमार के समकालीन और उनके बाद के ग़ज़लकारों ने हिंदी ग़ज़ल में उस राजनीतिक तेवर को बनाए रखा है और वह आज भी राजनीतिक चेतना से पूर्णतः संपन्न है। हिंदी ग़ज़ल समकालीन समस्याओं को बखूबी अभिव्यक्त कर रही है। इसकी तस्दीक के लिए कुछ शेरों को उद्घृत किया जा सकता है-

(1)  अशोक रावत-

सियासत की दुकानों पर अँधेरा बेचने वाले

उजालों की विरासत के कहीं स्वामी हो जाएँ।


(2) कमलेश भट्ट कमल-

ताजपोशी फिर से कर डाली सियासत ने उसी की

ख़ौफ़ से जिस शख्स के, पूरा इलाका काँपता है।


(3) ओमप्रकाश यती-

उनको तो मंदिर-मस्जिद से वोट की खेती करनी थी

हम आपस में लड़ना सीखे, लेना एक देना दो।


(4) जहीर कुरेशी-

वोट का अधिकार पाकर भी हमें क्या मिल गया

आप राजा बन गए, हम लोग जनता बन गए।


(5) मधुवेश-

अलीगढ़ का नहीं मूरख, वो दिल्ली का करिश्मा था

लगाया जो जुबानों पर गया ताला बहुत पहले।


हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में स्त्री सरोकारों से जुड़ी हुई रचनाएँ लिखी जा रही हैं। क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में स्त्री के जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं को प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त किया जा रहा है?

जी, बिल्कुल। समकालीन हिंदी ग़ज़ल में स्त्री के जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं को प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त किया जा रहा है। उदाहरण के लिए नार्वी की एक ग़ज़लबहनारदीफ से कही गई है जिसके ये शेर देखिए-


अपने घर तो है शनीचर की सवारी बहना

कुछ जो तूने ही पकाया हो तो ला री बहना

जाने क्या गुजरे, महीने के गुजर जाने तक

अब के तनख्वाह गई ब्याज में सारी, बहना

अच्छा खाना तो क्या खाना ही मयस्सर नहीं अब

और ऐसे में मुआ पाँव है भारी बहना


            राजा जीरदीफ से कही गई मेरी एक ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए-


मिल जाए छुट्टी तो अब की जाना घर राजा जी

देखेंगे हम बाट तुम्हारी दीवाली पर राजा जी

दस रुपिया पहले से कम थे लेकिन गजब हुआ तो तब

दस दिन पूरे लेट हो गया जब मनियाडर राजा जी

सोनू-मोनू के कपड़े तो लाने बहुत जरूरी हैं

बच जाएँ पैसे तो लेना मेरा नंबर राजा जी

छुटकी-बिचकी हँसतीं-गातीं पर बड़की कुछ गुमसुम सी

सोच-सोच कर नींद आती रात-रात भर राजा जी


मेरी ही एक दूसरी ग़ज़ल, जिसके प्रत्येक शेर मेंमाँशब्द का इस्तेमाल हुआ है, के दो शेर देखिए-


हो रहा था मैं बड़ा माँ का चिमटना देखता

इक अदद घर के लिए दिन-रात खटना देखता

हाथ मेरे और भी ज़्यादा जला देता तवा

मैं नहीं माँ का अगर रोटी पलटना देखता

मेरी ही एक अन्य ग़ज़ल के ये दो शेर देखिए-

ये रसोई तो बहुत कम है तुम्हारे वास्ते

चाबियाँ घर की सभी तुम ही सँभालो आज ही

हर खुशी के वास्ते त्योहार का क्या देखना

वो नई साड़ी अटैची से निकालो आज ही


और, 16 दिसंबर 2012 को वसंत विहार, दिल्ली में हुएनिर्भया कांडपर कही गई एक ग़ज़ल का यह शेर भी देखिए-


सो गई खुदनिर्भयाझकझोर कर हमको

मौत ये उसकी नहीं, इंसानियत की है

इसी संदर्भ में वरिष्ठ ग़ज़लकार ओमप्रकाश यती के दो शेर स्मरण हो आए-

हँसी खामोश हो जाती, खुशी खतरे में पड़ती है

यहाँ हर रोज़ कोईदामिनीखतरे में पड़ती है

जुआ खेला था तो खुद झेलते दुश्वारियाँ उसकी

भला उसके लिए क्यों द्रोपदी खतरे में पड़ती है।


कुछ ग़ज़लकार मानते हैं कि देवनागरी में लिखी हुई ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?

मैं इस मान्यता से कि देवनागरी में लिखी हुई ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल है, पूर्णतः असहमत हूँ। कई उर्दू शायरों, निदा फाजली, बशीर बद्र, मुनव्वर राना, वसीम बरेलवी ने अपने दीवान देवनागरी में प्रकाशित कराए हैं, तो क्या इनकी ग़ज़लें, हिंदी ग़ज़लें कही जा सकती हैं? कतई नहीं। सच्चाई तो यह है कि उर्दू के इन तथा अन्य शायरों को हिंदी भाषा के मंच से ही लोकप्रियता मिली। सवाल यह भी है कि क्या खुद उर्दू के शायर देवनागरी में प्रकाशित हो जाने मात्र से अपनी ग़ज़लों को हिंदी ग़ज़लस्वीकार कर लेंगे। जवाब है- कतई नहीं। मैंने ऊपर बशीर बद्र के नाम का उल्लेख किया, तो उनका एक कथन याद हो आया जो उनके ग़ज़ल और शायरी संकलनउजाले अपनी यादों के’ (संपादक: विजयवाते) की भूमिका से उद्धृत है- “ग़ज़ल का आने वाले कल का बड़ा शायर अब हिंदी में ही पैदा होगा।

            मुझे इस प्रश्न के संदर्भ में एक वाक़या और याद रहा है। मशहूर शायर मुनव्वर राना ने एक टीवी चैनल पर हुए कार्यक्रम में, किसी शायर का एक शेर सुनाया, और कहा किदेखिए इस शेर में एक भी शब्द उर्दू का नहीं है, सभी हिंदी के हैं, फिर भी यह शेर उर्दू का शेर कहा जाता है क्योंकि इसे उर्दू के शायर ने कहा है।

आपके अनुसार हिंदी ग़ज़ल के लिए आदर्श भाषा क्या होनी चाहिए?

हिंदी ग़ज़ल के लिए आम बोलचाल की सरल-सहज भाषाहिंदुस्तानीही आदर्श भाषा हो सकती है। कठिन शब्द, चाहे वे हिंदी के हों या उर्दू के, मेरी जुबान पर नहीं पाते। तारीफ़ के काबिल की जगहकाबिले-तारीफ़, सुबह और शाम की जगहसुबहो-शाम, कागजों की जगहकाग़ज़ातजैसे प्रयोग भी मेरी ग़ज़लों से दूर रहते हैं। जरूर, खबर, अखबार, वक्त, जैसे रोजमर्रा ज़िन्दगी के शब्दों पर नुक्ता लगाना मुझे जरूरी नहीं लगता। एक तो आम जन-जीवन में इन शब्दों पर नुक्ते का उच्चारण होता ही नहीं, दूसरे, नुक्ता लगाने पर भी इन शब्दों के मूल अर्थ नहीं बदलते, वही रहते हैं।

समकालीन कविता में छंद की उपेक्षा की गई है। इस आधार पर हिंदी ग़ज़ल की छंदोबद्धता को आप आधुनिक जटिल मानसिक संक्रियाओं को व्यक्त करने में समर्थ मानते हैं?

जी, बिल्कुल। मैं हिंदी ग़ज़ल की छंदोबद्धता को आधुनिक जटिल मानसिक संक्रियाओं को व्यक्त करने में पूर्ण रूपेण समर्थ मानता हूँ। ऐसी कोई विषयवस्तु, कोई कथ्य नहीं, जिसे हिंदी ग़ज़ल के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सके। मेरी नजर में, ग़ज़ल के कलापक्ष और भाव या विचार-पक्ष दोनों का महत्त्व बराबर है। मुझे नहीं लगता कि ग़ज़ल का रूपाकार काव्य की अभिव्यक्ति में बाधा उत्पन्न करता है। अपनी बात को जिसढंगसे कहना चाहता हूँ, छंदानुशासन में रहते हुए, उसीढंगसे कहने में कुछ जद्दोजहद तो हो सकती है, लेकिन आखिरकार सफलता मिल ही जाती है। छंदानुशासन का पालन करते हुए, यदि मैं अपनी बात ग़ज़ल में कह पाऊँ, तो यह मेरी अक्षमता होगी, विधा का दोष नहीं। मेरा मानना है कि ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल बनाने के लिए, पहले ग़ज़ल को ग़ज़ल बनाए रखना जरूरी है। बदलाव छंद-विधान में नहीं, अंतर्वस्तु में होना चाहिए। ग़ज़ल में असल चीज़ है- उसका शिल्प।

 

उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में संवेदना और शिल्प के स्तर पर आप क्या अंतर मानते हैं?

हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता-परंपरा और वर्तमान यथार्थ से मजबूती से संबंधित विधा है जहाँ वह जन-सामान्य के दुख-सुख और उसकी जिंदगी की समस्याओं में उसके साथ मजबूती से खड़ी है। जबकि उर्दू में ग़ज़ल की परिभाषा हीमाशूकसे वार्तालाप है। दरअसल ग़ज़ल एक शिल्प है जो अरबी भाषा से पहले फारसी भाषा में आता है, फिर फारसी से उर्दू और हिंदी भाषा में। हिंदी ग़ज़ल में हिंदी विशेषण का मतलब है कि हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता-परंपरा से संबंधित विधा है। हिंदी में दुष्यंत कुमार ने उर्दू कीमाशूकसे वार्तालाप की परिभाषा से हटकर आम आदमी के सुख-दुख की बात की और ग़ज़ल को एक नई पहचान प्रदान की, जिससे ग़ज़ल को एक नया पाठक वर्ग भी मिला। इससे यह भी हुआ कि उर्दू ग़ज़ल में भी जनसाधारण की समस्याओं को स्थान मिलने लगा। हिंदी के बढ़ते पाठक वर्ग के चलते उर्दू के शायरों ने देवनागरी लिपि में अपने दीवान प्रकाशित कराए और लोकप्रियता हासिल की। लेकिन यहाँ यह बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि हिंदी ने ग़ज़ल की शक्ति-सामर्थ्य को उर्दू ग़ज़ल के जरिए ही जाना और पहचाना और यह भी सच है कि उर्दू ग़ज़ल का विकास जहाँ उर्दू कविता-परंपरा की मुख्यधारा के रूप में हुआ, वहीं हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता-परंपरा में मुख्यधारा की स्थिति से अभी काफी दूर है। हिंदी ग़ज़ल में ग़ज़ल के मूल शिल्प को ही अपनाया है, जिस तरह उर्दू ग़ज़ल ने। अंतर इतना ही है कि हिंदी ग़ज़लकार हिंदी भाषा की काव्य-परंपरा, उसकी संस्कृति और संस्कारों से जुड़े रहकर जन-साधारण के सुख-दुख और उनकी समस्याओं को अभिव्यक्त करता है।

मुसल्सल ग़ज़ल और गैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल के बारे में अपने विचारों से अवगत कराएँ।

ग़ज़ल से संबंधित किताबों में बताया गया है कि विषय के अनुसार ग़ज़ल दो प्रकार की होती हैं- मुसल्सल ग़ज़ल और गैर-मुसल्सल ग़ज़ल। जब किसी ग़ज़ल के सभी अशआर एक ही विषय या भाव को केंद्र में रखकर कहे जाते हैं तो उसे मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं जबकि गैर मुसल्सल ग़ज़ल वह होती है जिसका प्रत्येक शेर अलग-अलग विषय या भाव को व्यक्त करता है। मगर मुसल्सल ग़ज़ल की उपर्युक्त परिभाषा स्पष्ट नहीं है, बल्कि भ्रम पैदा करती है। कुछ लोग ग़ज़ल के रदीफ़ के आधार पर ग़ज़ल को मुसल्सल ग़ज़ल कह डालते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ था जब हिंदी ग़ज़ल के प्रतिनिधि कवि जहीर कुरेशी ने मेरे ग़ज़ल-संग्रहकदम-कदम पर चौराहेकी समीक्षा करते हुए लिखा था- “लेकिन मधुवेश की कुछ ग़ज़लें शेरों की शक्ल में वस्तुत: गीत या नज़्म ही प्रतीत होती हैं, जिनमें एक ही कथ्य आदि से अंत तक निरंतर चलता रहता है। उनकी एक ग़ज़ल जिसमेंघनश्याम पैसे के बिनारदीफ़ का प्रयोग हुआ है, में ग़ज़ल के 15 शेर घनश्याम की कथा का विस्तार से वर्णन करते हैं।एक चिड़िया’, ‘राजा जीरदीफ़ की ग़ज़लें इसी कुल की ग़ज़लें हैं। मैं समझता हूँ कि मधुवेश इस मंतव्य को समझेंगे और अपने अगले ग़ज़ल-संग्रह में इस प्रकार के अतिशय प्रयोगों से बचेंगे।” (अक्षर पर्व, जनवरी 2016)

            मेरा मानना है कि एक ही विषय पर केंद्रित होने से कोई ग़ज़ल मुसल्सल नहीं हो जाती। मुसल्सल तब होती है जब अशआर एक-दूसरे से जुड़े हों। अर्थात् एक शेर का आशय पूर्व शेर के बिना स्पष्ट हो। अगर वे स्वतंत्र रूप से उद्धृत किए जा सकते हैं, तब वह ग़ज़ल मुसल्सल नहीं हो सकती। यानी अगर ग़ज़ल के सभी शेरों को स्वतंत्र रूप से क्वॉट किया जा सकता है और उसके किसी एक शेर को समझने के लिए किसी पूर्वापर शेर की जरूरत नहीं है तो उसे मुसल्सल ग़ज़ल नहीं कहा जा सकता। लेकिन गैर-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ वाली) ग़ज़लें मुझे ज़रा भी आकर्षित नहीं करतीं। ऐसी ग़ज़लों काटेस्टकुछ फीका-फीका सा लगता है, कुछ-कुछ अधूरापन-सा। मेरे पास ऐसी कोई ग़ज़ल नहीं, जिसमें रदीफ़ गैर-हाज़िर हो, और ऐसी जिसमें मतला गैर-हाज़िर हो। यह अलग बात है कि ग़ज़ल के रचना-विधान में बिना रदीफ़ वाली ग़ज़लों को भी मान्यता दी गई है, और बिना मतले वाली ग़ज़लों को भी।

समकालीन हिंदी ग़ज़ल हिंदी की आरंभिक ग़ज़लों से किस प्रकार भिन्न हैं?

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में एक विशिष्ट सामाजिक और राजनीतिक चेतना के स्वर सुने और महसूस किए जा सकते हैं, लेकिन इस स्थिति के आने में दुष्यंत के पूर्व के ग़ज़लकारों का महत्त्व भी कम नहीं है। हिंदी ग़ज़ल की परंपरा को खोजने की जरूरत ही तब पड़ी, जब दुष्यंत कुमार ने हिंदी कविता-परंपरा में हिंदी ग़ज़ल की दमदार उपस्थिति दर्ज करा दी। हिंदी ग़ज़ल की परंपरा छोटे रूप में ही सही, बहुत पहले से चली रही थी। दुष्यंत के पूर्व के ग़ज़लकार भी ग़ज़ल की अभिव्यक्ति-क्षमता के कायल थे, इसीलिए तमाम उपेक्षाओं के बावजूद वे हिंदी में ग़ज़ल-लेखन का प्रयास करते रहे। हाँ, यह भी सही है कि उनमें से बहुतों ने ग़ज़ल को प्रयोग के तौर पर अपनाया, लेकिन हिंदी ग़ज़ल की बुनियाद को मजबूती देने में उनके प्रयास सराहनीय हैं। इसलिए जब भी हिंदी ग़ज़ल परंपरा की बात होगी, दुष्यंत के पूर्व के कुछ ग़ज़लकारों और उनके समकालीन ग़ज़लकारों की बात जरूर होगी।

समकालीन कविता और समकालीन हिंदी ग़ज़ल में आप विशेष तौर पर क्या अंतर मानते हैं?

एक अच्छी कविता छंद में भी हो सकती है और बिना छंद के भी। समकालीन कविता हमारे सामने मुक्तछंद के रूप में है, जबकि हिंदी ग़ज़ल छांदस कविता है। दोनों में पहला विशेष अंतर तो छंद में होना और छंद में नहीं होना ही है। ग़ज़ल में जहाँ दो-दो पंक्तियों में शेर होते हैं, वहीं मुक्तछंद कविता दो-चार पंक्तियों से लेकर दो-चार पेजों तक लंबी हो सकती है। ग़ज़ल में कम से कम तीन शेरों से लेकर अधिक से अधिक कितने भी शेर हो सकते हैं। ग़ज़ल का एक शेर अपने आप में एक पूर्ण कविता होता है। इस प्रकार अगर किसी ग़ज़ल में 11 शेर हैं तो वह 11 कविताएँ हैं। कम शब्दों में एक गहरी और असरदार बात कहने की क्षमता ग़ज़ल के शेरों में होती है। ग़ज़ल के शेर की दो पंक्तियों में एक पूर्ण और असरदार बात कही जा सकती है, जबकि मुक्तछंद कविता पूर्ण होने तक कितनी जगह घेरेगी, निश्चित नहीं होता।उद्धरणशीलताग़ज़ल की खास विशेषता है जबकि मुक्तछंद में यह विशेषता नहीं होती। मुक्तछंद कविता की पहुँच आम आदमी तक नहीं है जबकि ग़ज़ल की पहुँच जन-साधारण तक है। यही कारण है कि आज हिंदी ग़ज़ल का पाठक-वर्ग, मुक्तछंद कविता की अपेक्षा निरंतर बढ़ता जा रहा है।

हिंदी ग़ज़ल के प्रति आलोचकों का रवैया सकारात्मक नहीं रहा है। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं और क्या हिंदी ग़ज़ल में आलोचना को विकसित करने की दिशा में हिंदी ग़ज़लकारों के द्वारा भी प्रयत्न किए जा रहे हैं? यदि हाँ तो आप इसे किस तरह देखते हैं?

हिंदी ग़ज़ल की उपेक्षा हुई है, मूल्यांकन नहीं हुआ, हिंदी कविता में स्थान नहीं मिला, यह शिकवा- शिकायतें अपनी जगह और जायज हैं। मगर इसके लिए मुक्तछंद की कविता अथवा मुक्तछंद की कविता के समीक्षकों को कोसने से हिंदी ग़ज़ल का कोई भला होने वाला नहीं है। एक ही रास्ता है कि हमबड़ी लकीरखींचने का गंभीरतापूर्वक प्रयास करें, ‘और कोई भी नुस्खा काम आएगा यहाँ / एक ही है इस अँधेरे की दवाई रोशनी।

            एक कारण और है, वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने मुझसे कहा था- “मैं तुम्हारे ग़ज़ल-संग्रह की समीक्षा चाहते हुए भी लिख नहीं सकता, क्योंकि मुझे ग़ज़ल के कलापक्ष (रदीफ़, काफ़िया, बहर-वज़न, शिल्प, शेरियत, तग़ज़्ज़ुल) की जानकारी नहीं है।मैंने मदन कश्यप से कहा था कि कई मित्र ग़ज़ल के शिल्प से अनभिज्ञ होते हुए भी, ग़ज़ल के भाव-विचार पक्ष को लेकर समीक्षाएँ लिख रहे हैं। उनका जवाब था- “मुझे किसी से शिकायत नहीं, मगर मेरे लिए यहकामकरना बहुत कठिन, बल्कि असंभव है।

            दरअसल, ग़ज़ल एक विशेष प्रकार के जटिल शिल्प वाली विधा है। हिंदी के आलोचक लगभग 50 वर्षों से मुक्तछंद की कविता पर ही काम करते रहे हैं, फिर भी मुक्तछंद आम जनमानस तक उसहदतक नहीं पहुँच पाई, बल्कि मुक्तछंद कविता के हाशिए पर जाने के आसार दिखने लगे हैं। हिंदी के आलोचकों ने गीत-नवगीत तक का नोटिस नहीं लिया, फिर ग़ज़ल विधा पर वे कैसे लिखते, उनमें ग़ज़ल के शिल्प की विशेष योग्यता थी ही नहीं। मुझे लगता है, हिंदी ग़ज़लकारों को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उनका काम सिर्फ ग़ज़ल लिखना है, और ग़ज़ल को पढ़ने और उसकी समीक्षा करने का काम दूसरों का है। ऐसा कोई उदाहरण मुझे याद नहीं रहा, कि किसी विधा को किसी आलोचक ने सामाजिक स्वीकृति दिलाई हो अथवा उस विधा को स्थापित करने में अहम भूमिका अदा की हो। ग़ज़ल को स्थापित करने या हिंदी कविता-परंपरा में स्थान दिलाने का उत्तरदायित्व इस विधा के प्रतिनिधि रचनाकारों का ही है।अच्छा कामयानी बेहतरीन ग़ज़लें एक एक दिन आलोचकों को आकर्षित करेंगे ही, उन्हें ग़ज़ल विधा पर लिखने को बाध्य करेंगी ही। वैसे हिंदी ग़ज़ल पर छाए अँधेरे के छँटने की शुरुआत हो भी चुकी है। मूल्यांकन के लिए लोग आगे रहे हैं, दो-चार ही सही, देर आयद दुरुस्त आयद। हिंदी ग़ज़ल के रचनाकारों के बीच से ही समर्थ आलोचक निकलकर आएँगे, यदि अध्ययन की प्रवृत्ति का विकास किया जाए और आए भी हैं। इनमें शिवशंकर मिश्र, नचिकेता, हरेराम समीप, ज्ञानप्रकाश विवेक, जानकी प्रसाद शर्मा, कमलेश भट्ट कमल, सुल्तान अहमद, अनिरुद्ध सिन्हा के नाम उल्लेखनीय हैं और जो अध्ययन की प्रवृत्ति का विकास करके ग़ज़ल की आलोचना में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं, उनमें श्रीधर मिश्र, ब्रजेश पांडेय, शाएमा बानो, अनिल राय और जियाउर रहमान ज़ाफ़री आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि उपर्युक्त आलोचकों द्वारा किया गया काम अभी नाकाफ़ी है, अभी और भीकामकरने की जरूरत है।

हिंदी कविता-परंपरा के परिदृश्य में समकालीन ग़ज़ल के वर्तमान और भविष्य के बारे में आपके क्या विचार हैं?

मुक्तछंद की कविता अभी तक जनमानस के मध्य गहरे तक अपनी पैठ नहीं बना पाई है और आगे भी मुक्तछंद की कविता ऐसा कर पाएगी, इसके आसार नज़र नहीं रहे। दूसरी तरफ़ हिंदी ग़ज़ल ने अपनी अभिव्यक्ति-सामर्थ्य और संवेदनशीलता को प्रमाणित कर दिया है और एक बहुत बड़े पाठक-वर्ग को आकर्षित कर उसेअपनाबना लिया है। यह स्थिति घने कोहरे को चीरते हुए सूर्य के उदय होने जैसी दिखाई दे रही है। मुक्तछंद कविता में विचारधारा को विशेष महत्त्व दिया गया है, ऐसे में संवेदनशीलता की उपेक्षा तो होगी ही होगी, दूसरी तरफ़ हिंदी ग़ज़लों में अपने समय और समाज के सुख-दुख, जय-पराजय, असंतोष, आक्रोश, प्रतिरोध, ऊब-घुटन, नए सपने, नई ऊर्जा आदि को संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त किया गया है।

            यह सुखद एवं आश्वस्तिपरक है कि वर्तमान में अनेक ग़ज़लकार बहुत अच्छी ग़ज़लें लिख रहे हैं, और कई समीक्षक उनके भाव और कला पक्ष को सामने लाने में सक्रिय हैं। इसे देखते हुए मुझे उम्मीद ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल का भविष्य सुनहरा होगा। उसका समुचित मूल्यांकन होगा और वह हिंदी कविता में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाएगी। हिंदी कविता का अध्याय हिंदी ग़ज़ल के बिना पूरा होना नामुमकिन होगा और यहीं यह शेर- ‘कितने पन्ने पलटे मैंने एक किरण ही दिख जाए / आखिर फिर दो ही सफहों के बाद ग़ज़ल में चाँद दिखा

अंत में नए ग़ज़लकारों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

इस संबंध में मैं कुछ सुझाव देना चाहूँगा जैसे, नए ग़ज़लकार अच्छी ग़ज़लें पढ़ें। ग़ज़ल के रचना-विधान की समुचित जानकारी ग़ज़ल से संबंधित किताबें पढ़कर हासिल करें या वरिष्ठ अनुभवी ग़ज़लकारों से भी यह जानकारी प्राप्त करें। ग़ज़ल के रचना-विधान की बेसिक जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद ही ग़ज़ल कहने का प्रयास करें, साथ-साथ बेसिक जानकारी से आगे की जानकारी भी लेते रहें। उर्दू ग़ज़ल में उस्ताद-शागिर्द की परंपरा रही है, जिसके अपने लाभ होंगे ही किंतु हिंदी में तो यह परंपरा है और इसकी कोई संभावना है। हाँ, हिंदी मेंपरस्पर संवादकी परंपरा कायम की जा सकती है जो थोड़ी-बहुत तो अब भी है। नए ग़ज़लकार किसी एक या दो अनुभवी और वरिष्ठ ग़ज़लकारों से ग़ज़ल संबंधीपरस्पर संवादकायम कर सकते हैं। इसके लिए यह भी जरूरी है कि वरिष्ठ अनुभवी ग़ज़लकार नए ग़ज़लकार को जो सलाह दें, उसे अनिवार्यत: स्वीकार करने को बाध्य करें, बल्कि नए ग़ज़लकारों को सलाह पर गंभीरता पूर्वक विचार करके स्वयं निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्रदान करें। नए ग़ज़लकारों को भी चाहिए कि वे अपने वरिष्ठों की उचित सलाह और संशोधन को खुले मन से स्वीकार करें और उनका आभार व्यक्त करें। नए ग़ज़लकारछपासके मोह से दूर रहें। पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लें छपने के लिए तब तक भेजें, जब तक उनकी ग़ज़लें परिपक्व हो जाएँ। इस तरह नए ग़ज़लकार गंभीरतापूर्वक बेहतरीन ग़ज़लें कहकर हिंदी ग़ज़ल को हिंदी कविता-परंपरा में उचित स्थान दिलाने का प्रयास कर सकते हैं।

मुझे अपना कीमती समय देने और हिंदी ग़ज़ल पर विस्तार से बातचीत करने के लिए आपका कोटिशः आभार।

डॉ. दीपक कुमार
सहायक आचार्य (हिंदी), राजकीय महाविद्यालय खैरथल, अलवर (राज.)
deep.alw82@gmail.com, 9950885242

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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