शोध आलेख : नदियों के प्रवाह में पलते जीवन मूल्य और यथार्थ / प्रवीण कुमार जोशी

नदियों के प्रवाह में पलते जीवन मूल्य और यथार्थ
 (विष्णु प्रभाकर कृत जमना-गंगा के नैहर में के विशेष सन्दर्भ में) 
- प्रवीण कुमार जोशी

शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख में नदियों के परिवेश में की गई यात्रा पर आधारित वृत्तान्त में उल्लिखित अनुभवों को जगह दी गई है। जमना-गंगा के नैहर में लेखक विष्णु प्रभाकर द्वारा गंगोत्री और यमुनोत्री तक की गई पैदल यात्रा का लेखा है। गंगा और यमुना दोनों नदियों के किनारे चलते हुए प्रभाकरजी ने अपने अनुभव रोचक शैली में व्यक्त किए हैं। स्थानीय जनजीवन एवं संस्कृति, मान्यताएँ, गंगा-यमुना से जुड़े मिथक, अंतर्कथाएँ इत्यादि पक्षों पर इनके विवरण को इस शोध आलेख में उजागर करने का प्रयास किया गया है। यात्रा में कई स्थानीय लोगों, चढ़ते-उतराते यात्रियों और साधु-संतों से लेखक की मुलाकातें हुई। इस अल्पकालिक संगत में लेखक को जीवन मूल्यों, आस्था की ऊँचाई और जीवन यथार्थ का भली-भाँति बोध करवाने वाले प्रसंगों को इस आलेख में जगह दी गई है। है। इस आलेख के माध्यम से नदियों के सान्निध्य में पलते मानवीय संबंधों को पात्रों और घटनाओं के माध्यम से उकेरने का प्रयास किया गया है। 

बीज शब्द : यात्रा, गंगा, यमुना, मैया, जीवन, सहारा, संवेदना, साधु, लोक-विश्वास, मान्यता, नदी, प्रकृति, प्रवाह ,तीर्थ, संघर्ष, सेवा, श्रद्धा आदि।

मूल आलेख : गति जीवंत होने की निशानी है। जन्म से मृत्यु पर्यन्त मानव गतिमान रहता है। ‘चरैवेति-चरैवेति’ का सूत्र संभाल कर मनुष्य ने यात्रा को अपनी गतिविधियों में शामिल किया। यात्रा का अनुभवों से गहरा नाता रहा है। मानव अपनी सम्पूर्ण जीवन यात्रा में अनुभव ही तो बटोरता है। एक यात्री के अनुभव सामान्य जन के अनुभवों से अधिक गहराई लिए होते हैं। इनमें जीव, जगत् और जीवन को निकट से जानने और समझने का बोध प्रकट होता है। निश्चित ही सभ्यता के विकास में मनुष्य की चिरकालीन यायावरी वृत्ति का योगदान रहा है। धरती पर अपने जन्म के साथ ही मनुष्य विविध कारणों से पर्वत और जंगलों में भटका है। इसी भटकन ने उसे ठहराव और सृष्टि को समझने की दृष्टि प्रदान की। उत्सुकता और जिज्ञासा प्रवृत्ति ने मनुष्य को अपने जन्म और वास स्थान से इतर सुदूरवर्ती भौगोलिक और सामाजिक क्षेत्रों से घुलने-मिलने के लिए प्रेरित किया। खोजी दृष्टि लेकर कई बार वह अपनी खोळ से बाहर निकला है लौटकर उसने अनुभव साझा किए।

    यात्रा और जीवन समानधर्मी शब्द हैं। दोनों में राहगत अनिश्चितता और परिवर्तनशीलता व्याप्त रहती हैं। अनुभव के संचय ही दोनों की सफलता का प्रतिमान कहा जा सकता है। संसार सागर को पार करने में भी जीवन रुपी यात्रा ही सहायक रही है। मनुष्य का जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत का समग्र अनुभव भी यात्रा का सूचक है। मानव समाज अपने गुणों के विकास की यात्रा में बर्बरता को छोड़ते हुए सभ्य मानव समाज में रूपांतरित हुआ।

    पिछली सदी की शुरुआत में हिंदी की जिन विधाओं का उत्थान हुआ उनमें यात्रा साहित्य लोकप्रिय और रोचक विधा रही है। आज के दौर में इसका बढता हुआ चलन इसे हिंदी की सशक्त विधा के रूप में स्वीकार कर रहा है। यात्राएँ आपसी दूरियाँ पाटकर समस्त मानवीय सभ्यता को सूत्रबद्ध करती हैं। व्यक्ति की अनुकरण करने की प्रवृत्ति, यात्रा वृत्तांत की लेखन शैली एवं प्रस्तुति का प्रभाव पाठक को भी सफर पर निकलने को प्रेरित करते हैं।

    “यात्रा का वास्तविक अर्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया ही अधिक न्यायसंगत और उपयुक्त है।... यात्रा का प्रमुख लक्षण है संचरणशीलता-एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना, निरन्तर स्थान परिवर्तन करना। संसार ही इस यात्रा का क्षेत्र है।”1 संचरणशीलता यात्रा का प्रमुख गुण होता है। यात्रा के माध्यम से ही किसी क्षेत्र या देश की सांस्कृतिक विरासत, सभ्यता के स्पंदन और संवेदनात्मक चेतना को निकट से महसूस किया जा सकता है। “सतह के प्रलोभनों को छोड़कर ऐसे लेखक का संवेदनशील मन, सतह को बेध कर, उसकी आत्मा के भीतर प्रवेश करता हुआ दिखाई देता है। बाह्य जगत् की जो प्रतिक्रिया उस लेखक के हृदय पर होती है, जो भावनाएँ उसके मन में उठती है, वह उनको अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ व्यक्त करता है। यही कारण है कि साहित्यिक यात्रावृत्तान्त में संवेदना और अभिव्यक्ति का एक कलात्मक संतुलन रहता है।”2

    चलते रहने का यही नैरनंतर्य उसे ऊर्जावान बनाए रखता है। “‘ऐतरेय ब्राह्मण‘ का सूत्रवाक्य “चरैवेति चरैवेति मनुष्य की यात्रावृत्ति का ही सूचक है।”3 प्रकृति के सौंदर्य-दर्शन और अनंत की जिज्ञासा मात्र लेकर यात्री अथक राह की ओर निकलता है तथा अनुभवों की अभिव्यक्ति से वह पाठकों को भी अपने साथ लिए फिरता है। “असल में, यात्रा-वृत्तांत एक ऐसी विधा है जिसमें किसी रचनाकार की आँखों से हम दुनिया को देखते और महसूस करते हैं।”4

    आधुनिक काल में हिन्दी यात्रावृत्तांत लिखने वालों की लंबी सूची है। राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, अज्ञेय, यशपाल, मोहन राकेश सरीखे ख्यात लेखकों की पंक्ति में शामिल विष्णु प्रभाकर हिंदी साहित्य जगत् का प्रतिष्ठित नाम है। इन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी, यात्रा वृत्तांत आदि प्रमुख विधाओं में लगभग सौ कृतियाँ हिंदी जगत् को प्रदान की है। इन्होंने देश-विदेश की कई यात्राएँ की और उन्हें कलमबद्ध कर के पाठकों को आह्लादित किया। प्रभाकर जी के उत्तराखंड की यात्रा, ज्योतिपुंज हिमालय, जमना-गंगा के नैहर में, काश्मीर भूतल का स्वर्ग, मेरी दक्षिण यात्रा, दक्षिण की गंगा कावेरी इत्यादि उल्लेखनीय वृत्तांत यात्रा साहित्य को समृद्ध बनाते हैं। 

    जमना-गंगा के नैहर में वृत्तांत असल में इनके द्वारा दोनों नदियों के उद्गम स्थलों, गंगोत्री और यमुनोत्री तक 1958 के वर्ष में की गई पैदल यात्रा का ब्यौरा है। हिमालय की गोद से निसृत भारतवर्ष की इन महान और पवित्र नदियों के किनारे-किनारे चलते हुए प्रभाकरजी ने अपने अनुभव रोचक शैली में व्यक्त किए हैं। स्थानीय जनजीवन एवं संस्कृति, मान्यताएँ, गंगा-यमुना से जुड़े मिथक, अंतर्कथाएँ, नदी और प्रकृति का सौंदर्य इत्यादि पक्षों पर इन्होंने विस्तार से कलम चलाई है। यात्रा के संघर्षों का उल्लेख करके ये पाठकों में रोमांच पैदा कर सके है। अपनी यात्रा में इनकी मुलाकात कई स्थानीय लोगों, चढ़ते-उतराते यात्रियों और साधु-संतों से हुई। इस अल्पकालिक संगत में उन्हें जीवन के विभिन्न फलकों को गहराई से जानने का अवसर मिला। उनकी यह यात्रा जीवन मूल्यों, आस्था की ऊँचाई और जीवन यथार्थ का भली-भाँति बोध कराती है। मानवीय संबंध और संवेदना की गरमाहट को विष्णु जी ने खूब महसूस किया और उसे पात्रों और घटनाओं के माध्यम से बखूबी चित्रित किया है।

    यात्रा की शुरुआत में डुडाल गाँव तक पहुँचने से पूर्व ही संध्या समय मार्ग में बस खराब होने का बड़ा रोचक प्रसंग रहा है। खतरनाक चढ़ाई और बियाबान में यात्रियों की जान साँसत में आ गई। ड्राइवर ने बहुत प्रयास किया परन्तु बस स्टार्ट नहीं हुई। रास्ता तंग था। आगे-पीछे बहुत से वाहन भी आ खड़े हुए। अंधेरा अलग से होने लगा था। सभी के मन पर धीरे-धीरे भय की छाया तैरने लगी। ऐसे विपरीत माहौल में पीछे की एक बस का ड्राइवर दूर चट्टान पर जा बैठा और बाँसुरी बजाने लगा। उस संगीत को सुनकर एकबारगी सभी अपनी चिंताओं से मुक्त हो गए। दल के किसी सदस्य ने कहा कि बस ठीक हो या ना हो परन्तु वह अपनी बाँसुरी बजाना जारी रखें। हालांकि बाद में बस स्टार्ट भी हुई और सभी अपने गंतव्य तक पहुंचे भी। कई बार समाधान नहीं मिल पाने की स्थिति में समस्या से एकदम छिटककर मन को शांत करने की जरूरत होती है। कोई हल ना मिलने पर जीवंतता और आशावादी नजरिया निराशा से बचाए रखने में सहायक होता है। जीवन के ऊभ-चूभ प्रवाह से पार पाने की कोशिश में हम उसके भीतर छिपे संगीत को महसूस नहीं कर पाते हैं।

    यात्रा के दौरान स्थानीय लोगों से उन्होंने संवाद स्थापित किया। इससे उन्हें स्थान विशेष के नामकरण के पीछे छिपी अंतर्कथाओं की जानकारी भी प्राप्त हुई। ऐसे ही किसी स्थान का जिक्र करते हुए प्रभाकरजी लिखते हैं। “शीघ्र ही चंबा पहुँच गये। लेकिन बीच में एक स्थान आता है नागिनी। वहाँ गेट है। रुकना पड़ा। उसी बीच में इस नाम का रहस्य खोज निकाला। पास ही एक गुफा में किसी समय एक भयानक नागिन रहती थी। गडरियों के लिए वह जैसे आतंक थी। उनकी भेड़-बकरियाँ खा जाती थी। तब एक दिन साहस करके एक गडरिये ने उसे मार डाला, लेकिन नाग तो देवता होता है। तब नागिन हुई देवी। उसका अग्नि-संस्कार बडी धूमधाम से किया गया। यही नहीं, उसकी स्मृति में प्रति वर्ष मेला लगता है और इस स्थान का नाम भी नागिनी हो गया है।”5

    लोक मान्यताएँ एवं विश्वास लोक संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान घेरती है। ये लोगों के अंतस् में गहरे तक पैठे रहती है। इनका आँकलन तर्क के आधार पर नहीं किया जा सकता है। नदी के प्रवाह क्षेत्र में आने वाले झरनों और बहावलों के बारे में व्याप्त मान्यताएँ इस यात्रावृत्तान्त में देखे जा सकते हैं। “चंबा से चलकर 5 मील पर रायखेल के सुंदर झरने के पास बस फिर रुकी। ड्राइवर दयालसिंह मजेदार व्यक्ति है। मार्ग में न जाने कितनी कहानियाँ उसने सुनाई होगी। झरने के जल की प्रशंसा करता हुआ बोला, ‘‘बाबूजी, यह झरना 400 बरस पुराना है। किसी ने रातो-रात भूतों को सिद्ध करके इसे निकाला था। ‘‘हम सहसा हँस पड़े, ‘‘सच। भूतों को सिद्ध किया था।‘वह बोला, ‘‘हाँ साहब, इसीलिए तो भूतों का बावला (नहर) कहलाता है, नहीं तो इन चट्टानों में पानी कहाँ।”6 लेखक को अपने यात्रा-मार्ग की प्रकृति सहित विभिन्न परिघटनाएँ आकृष्ट करती है और मन पर गहरी छाप छोड़ जाती है। उन निजी अनुभूतियों को उन्होंने साहित्यिक अभिव्यक्ति देकर स्थायी और सुंदर रूप प्रदान कर दिया है। बिंबात्मक विवरण पाठकों को बाँधने में सफल रहता है। नदी के किनारे का सौंदर्य उन्हें अभिभूत करता-सा जान पड़ता है। गंगा का रूप उन्हें आकृष्ट करता है। “सैकड़ों फुट नीचे घाटी में भागीरथी के नाना रूप मन को मोह लेते हैं। कहीं सँकरी, कहीं विस्तार फैलाती, कहीं सर्पाकार गति, कही अर्थ-वृत्त बनाती। क्षण-क्षण की यह नवीनता मन को जैसे सहला जाती है।”7 नदी एवं प्रकृति का सौंदर्य यात्रियों के हृदय में प्रसादत्व की सृष्टि करता है। कल-कल निनाद से हृदय में आह्लाद और अनुराग उत्पन्न हो जाता है। पथिक ठहरकर उस सौंदर्य को अपनी आँखों में समाहित करने को तैयार दिखाई पड़ते हैं। पहाड़ों से निकलकर घाटियों के बीच आगे बढ़ती ये नदियाँ अपने परिवेश को सुंदर कलाकृति में ढालती सी जान पड़ती है। इस तरह यमुना के परिवर्तित सौंदर्य को वे सीधे-सीधे स्पर्श कर पाते हैं।

    नदी के प्रवाह में जीवन को जानने-समझने की दृष्टि व्याप्त है। प्रवाह की साम्यता के कारण इसका सहज जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है। प्रकृति और मनुष्य के पारस्परिक संबंध को समझने के लिए नदियाँ सबसे अच्छा माध्यम है। सभ्यताओं के विकास और संस्कृतियों के पल्लवित होने में नदियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में नदियों का स्थान हमेशा से पूजनीय रहा है। दैनिक जनजीवन तथा धार्मिक कार्यों में नदियों के मातृरूप के प्रति संस्कारजन्य श्रद्धा परिलक्षित होती है। माता ही संतान का भार उठाने का सामर्थ्य रखती है। नदी भी माँ है। तभी तो निराश और हताश पथिक का “जमना मैया ने हाथ पकड़ लिया।”8
 
    नदी के मातृरूप को उजागर करते हुए लिखा गया है, “नदी को यदि कोई उपमा शोभा देती है, तो वह माता की ही। नदी के किनारे पर रहने से अकाल का डर तो रहता ही नहीं। मेघराजा जब धोखा देते हैं तब नदी माता ही हमारी फसल पकाती है। नदी का किनारा यानी शुद्ध और शीतल हवा। नदी के किनारे-किनारे घूमने जाएँ तो प्रकृति के मातृवात्सल्य के अखंड प्रवाह का दर्शन होता है। नदी बड़ी हो, और उसका प्रवाह धीर- गंभीर हो, तब तो उसके किनारे पर रहने वालों की शान- शौकत उस नदी पर ही निर्भर करती है। सचमुच नदी जनसमाज की माता है... नदी ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर का स्मरण करने वाली देवता है। यदि गुरु को वंदन करना आवश्यक है तो नदी को भी वंदन करना उचित है।”9

नदियों के प्रति भारत के लोगों की श्रद्धा सनातन है। मिथकों और पौराणिक संदर्भों के चलते यह घनीभूत होकर उभरी है। “भगवान् सूर्य की पुत्री यमुना तीनों लोकों में विख्यात हैं। वे भी प्रायः हिमालय के उसी स्थान से उद्भूत हुई हैं, जहाँ से गङ्गाजी निकली हैं। हजारों योजनों से भी यमुना का स्मरण-कीर्तन पापनाशक है। यमुनोत्तरी में स्नान तथा जलकण का भी पान करने वाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है और इसके सात कुल तक पवित्र हो जाते हैं।”10 गंगा मैया के प्रति भी भारतवासियों के मन में अगाध श्रद्धा व्याप्त है। और हो भी क्यों नहीं? ऐसी कौन दूसरी नदी है जो पल भर में स्मरण मात्र से मनुष्य के सारे पाप हर लेती है। यह देह को देव में बदलने का गुणधर्म रखती है। “महादेव की जटाओं में व्याप्त गंगा की धारा मेरु पर्वत पर गिरती है। वह तरल रूप में धर्म है अथवा, अमृत तत्त्व है जो पृथ्वी के समस्त पापों का नाश करने में समर्थ है।”11

    संपूर्ण यात्रा में लेखक विष्णु प्रभाकर ने अनेक लोगों से मेल-मिलाप किया। यात्रियों और स्थानीय लोगों के व्यवहार और उनसे हुई मुलाकातों के प्रसंग पाठकों के भाव जगत् को समृद्ध बनाते हैं। इनसे गुजरते हुए लेखक के साथ पाठक भी स्वयं को मानवीय संवेदना, संबंध और जीवन मूल्यों की छाया से घिरा हुआ पाता है। “एक सज्जन विधवा पुत्रवधू को लेकर आये थे। दो साल पहले उनका जवान बेटा मर गया था। उसी की याद करके उनकी आँखे भर आईं। तभी अचानक क्या देखता हूँ कि संन्यासी वेशधारी वह वृद्ध भी फूट-फूटकर रोने लगे। एकाएक हम सकपका गये। फिर साहस करके कहा, ‘‘आप तो ज्ञानी पुरुष है। आप इस तरह क्यो रोते हैं ?‘‘ रोते-रोते ही वह बोले, ‘‘मेरा भी एक पुत्र था। 26 वर्ष की आयु में जाता रहा। उसी की आत्मा को शान्ति के लिए साधु वेष में चारों धाम की यात्रा कर रहा हूँ। उनके आँसू देखकर मुझे उसकी याद आ गई।”12 परिवार और परिजन मनुष्य जीवन के आधार है। इनके बिना जीवन यात्रा दूभर हो जाती है। एकाकीपन जीवन के लिए अभिशाप है। प्रिय लगने वाले परिजन का असमय साथ छोड़ जाना हर किसी के लिए दुखदायी होता है।

    भाव मनुष्य को परिष्कृत करते हैं। साधन संपन्नता की स्थिति में उत्पन्न उदारता भली होती है, परन्तु विपन्नता और प्रतिकूल परिस्थितियों में दर्शायी गई उदारता मनुष्य को देवत्व प्रदान करती है। तत्त्वतः उदारता का भाव प्रेम का ही विस्तृत और सर्वप्रसारित रूप है। उदारता मानवीय संबंधों में प्रगाढ़ता लाती है। स्त्री में यह सहज ही प्रकट होती है। लेखक को अपनी यात्रा में प्रेम के इसी उदार स्वरूप के दर्शन होते हैं। “यदि लखनऊवाली माताजी न होती तो हम लोगों पर क्या बीतती, इस संबंध में न सोचना ही अच्छा है। कभी किसी के लिए कंबल बिछाती, कभी किसी को कंबल उढाती, कभी खाने के लिए नाश्ता निकालती। उस रात सचमुच नारी को अन्नपूर्णा माँ के रूप में देखा। वह हँस-मुख कुमायुँनी बाला और यह लखनऊ की वृद्धा, दोनों ने जिस स्नेह की वर्षा हम पर की, वह अनुभव करने की ही बात है।”13

    प्रेम मनुष्य की आत्मा की सहज अभिव्यक्ति है। सहृदय में इसकी गुंजाइश अधिक रहती है। “यात्रा-साहित्य में भी यात्राकार यात्रा करते समय भिन्न-भिन्न समाज, भिन्न-भिन्न अपरिचित स्थान और भिन्न-भिन्न देशों में जब उसे अपनापन महसूस होता है कोई व्यक्ति उसके साथ अपनेपन का व्यवहार करता है तो अपने इस अनुभव को वह संवेदना के साथ अपने यात्रा-वृत्त में स्थान देता है, जो कि आत्मीयता का ही परिणाम होता है।”14 समकालीन संसार में स्वार्थ की सघनता और संबंधों में विरलता बढ़ती जा रही है। रिश्तों के भवन में रुपयों की सीलन गंधा रही है। फलतः संयुक्त परिवार में बिखराव देखने को मिल रहा है। इसमें नुकसान सबसे छोटे सदस्य का ही ज्यादा होता है। स्वयं का हौंसला और हिम्मत ही उसका मनोबल बढ़ाते हैं। यात्रा के दौरान एक किशोर से लेखक का अनायास परिचय हुआ। नाम था खेदनसिंह। उसके परिवार में बड़े भाई थे, परतु सभी सौतेले। पिता का स्वर्गवास हो चुका था फलतः किसी-न-किसी बात को लेकर परिवार में रोजाना कलह होती रहती थी। बड़े भाइयों ने सब-कुछ हथियाकर उसे और उसकी माँ को एक दिन घर से निकाल दिया। लेकिन वह साहसी है और उसने जीवन से हार नही मानी। माँ और छोटे भाई-बहनों को लेकर वह अलग रहता है। ग्रीष्मकाल में यात्रा के दिनो में चाय की स्टाल लगाकर स्वयं का और माँ पेट पालता है। खेती और भेड़ें भी है, जिन्हें उसकी माँ देखती है। वह लेखक से बोला, ‘‘सा‘ब, मेहनत करता हूँ। आपकी दया से अब सब ठीक है। वे रक्खें अपनी दौलत।” पारिवारिक मूल्यों के ह्रास से लेखक को दुःख है परंतु नदी की गोद में पलने वाले इस पहाड़ी किशोर की जीवटता से वह प्रभावित भी है। “हिंदू परिवार की यह चिर-परिचित गाथा क्या सदा ही उसे त्रस्त करती रहेगी? क्या यह हमें सोचने को विवश नही करती कि हमारे सामाजिक मूल्यों में ठहराव आ गया है, इसीलिए यह दुर्गंध है, इसीलिए परिवर्तन अनिवार्य है? दूसरी ओर खेदनसिंह के इस अदम्य आशावाद ने हमें एक नई स्फूर्ति से भर दिया।”15 मानवीय संवेदना, सहयोग एवं निस्वार्थ भावना के संबंध निर्वहन की झाँकी हमें इस यात्रा वृत्तान्त में ब्रह्मचारी सुंदरानंद के व्यक्तित्व एवं व्यवहार में नजर आती है। 

    गंगोत्री पहुंचने के पश्चात् लेखक और उनके दल ने अत्यधिक हिम-शीतयुक्त दुर्गम गोमुख पर जाने का विचार किया। हांलांकि दल के अधिकांश सदस्यों ने आगे की यात्रा में असमर्थता जताई थी, परंतु गोमुख से लौट कर आते दूसरे यात्रियों में से किसी ने उन्हें स्वामी सुंदरानंद का नाम सुझाया और कहा कि वे इस मार्ग के जानकार हैं तथा सहयोग प्रवृत्ति भी रखते हैं। जब लेखक के साथियों ने उनसे मुलाकात कर अपना इष्ट बताया तो वे सहर्ष मार्गदर्शक के रूप में साथ चलने को तैयार हो गए। अपनी जान जोखिम में डालकर उन्होंने दल के साथ पदयात्रा की चढ़ाई पूरी की। इतना ही नहीं, जब तक वे यात्रा में साथ रहे तब तक उन्होंने सर्दी की परवाह किए बगैर दल के लिए भोजन भी बनाया और स्नेहपूर्वक खिलाया भी। “कुछ क्षण बाद स्वामीजी किवाड़ खोलकर कहते हैं,‘‘आ जाइये, भोजन तैयार है।” कैसा स्वादिष्ट था यह भोजन। उस नितांत निर्जन हिम और झँझा के प्रदेश में रसेदार गर्म-गर्म साग, गर्म-गर्म रोटियाँ, वह आनंद आया कि शायद अमृत पीने में भी न आता हो। उस पर भी स्वामीजी का निश्छल स्नेह-पूरित आग्रह, माँ का स्नेह भी जैसे फीका पड़ गया हो। सबसे अंत में उन्होंने माधव के साथ बैठकर खाया। ...स्वामीजी नैष्ठिक ब्रह्मचारी और हम नागरिक गृहस्थ। हमने संन्यासी को प्रणाम करना और उसकी सेवा करना ही सीखा था। लेकिन आज उसकी सेवा लेकर जैसे हम लज्जित हो उठे। पर साहचर्य और स्नेह ने उस ग्लानि को जैसे बो दिया। प्रकृति के प्रांगण में न कोई बड़ा है, न छोटा।”16

    जान पड़ता है कि औदार्य का गुण प्रकृति की गोद में सहज ही प्राप्य है। वर्तमान दौर में जहाँ सेवाकार्य भी बिकने-बिकाने को तैयार हैं, वहाँ स्वामी सुंदरानंदजी जैसे व्यक्ति की मानवीय संवेदना और सहयोग भावना अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। मनुष्य अपने जीवनकाल में उपार्जन के लिए नाना प्रकार के हेतुक-अहेतुक उपक्रम करता है। स्थायी सुख की पूर्ति की कामना अस्थाई साधनों के संचय से करना चाहता है। संतानों में अपना सुख तलाशता है और उन्हीं के लिए धन इत्यादि भी संचित करता है। लेकिन अपनों की जीवनयात्रा की अवधि के असमय समाप्त होने से जीवन में दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। उस घड़ी में फटे हुए हृदय पर गंगा नदी का अमृततुल्य जल औषधि का काम करता है। राग-विराग से पूर्णतया विरक्त करती हुई माँ गंगा की स्नेहिल गोद जीवन के अवसानकाल में आकर थके पथिक को संबल प्रदान करती है। यात्रा में किसी दिन जबलपुर के एक 60 वर्षीय बर्तन व्यापारी से लेखक की भेंट हुई, जो जीवन के जंजाल से ऊब कर गंगा मैया की गोद में आ बैठा था। “परंतु जब उसकी कहानी सुनी तो जैसे स्तब्ध रह गए। वह बोला, ‘‘बड़ा अभागा हूँ मैं। पैसा हुआ तो क्या। तेरह पुत्र और सात पुत्रियों में केवल एक पुत्र और दो पुत्रियाँ बची हैं। तीन पोते थे, उनमे से भी एक रह गया है। क्या भरोसा है इस जिंदगानी का। घर से मन ऊब गया है। गंगा मैया ने पुकारा तो दूकान उठाकर चला आया। गाजा, सुलफा न जाने क्या-क्या नशे करता था। अब सब छोड़ दिये। किसके लिए करूँ।”17

    जब चारों ओर निराशा व्याप्त होती है तब गंगा मैया आशा की धारा का अंतस् में प्रवाह करती है। यह विश्वास मनुष्य के जीवन की लौ को बुझने नहीं देता। जीने की नवीन राह का निर्माण आप ही हो जाता है। यानी कि मानव जीवन के अनिश्चितकालीन प्रवाह में नदी का स्थान श्रद्धा के साथ निश्चित होता है। कठिनाइयों में डटे रहना, आशावान, सजग और संघर्षरत रहने का भाव मनुष्य को मजबूत बनाता है। मन की कमजोरी के क्षणों में हौंसला बढ़ाने वाले दो वाक्य बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को भी सरल बना देते हैं। गिरते हुए को उठाना मनुष्यता की निशानी है। यही भाव हमें यात्रियों के आपसी संवाद में दिखाई देते हैं। यात्रा में दुर्गम चढ़ाई के दौरान लेखक दल के सदस्यों को ऊपर से यात्रा पूरी करके लौटकर आते हुए एक बुजुर्ग ने विश्वास बँधाया। परस्पर मिलने वाली प्रेरणा और सहयोग मुश्किल राह को भी आसान बना देती है। 

    मार्ग में आए ऐसे ही एक प्रसंग का भी जिक्र करना जरूरी हो जाता है जहाँ लेखक विष्णु प्रभाकर ने एक निराश बुजुर्ग यात्री में प्राण फूँक दिए। “कुछ ही दूर गये होगे कि एक वृद्ध को देखा। क्षीणकाय, अर्द्धनग्न, डगमगाते कदम, सिर पर गठरी रखे और नयनों मे विषाद भरे वह सामने आ रहा था। सोचा, यात्रा से लौट रहा है। भावावेश में भरकर पुकारा, ‘‘जय गंगा मैया की। जय जमना मैया की।” पर उस वृद्ध ने तो कोई उत्तर ही नहीं दिया। कुछ दूर पर उसके साथी स्तब्ध-से खड़े थे। उनसे पता लगा कि वे लोग यात्रा से लौट नही रहे हैं, जा रहे हैं। एक मील चलने के बाद उस वृद्ध ने अनुभव किया कि वह अपने साथियों के समान तेज गति से नहीं चल सकेगा, इसलिए उन पर भार न बनकर उसने लौट जाना ही उचित समझा। आरम्भ में ही लौटने की बात। अच्छा नही लगा। उससे भी अधिक दुर्बलों को हमने हिमालय से लोहा लेते देखा है। इसलिए माधव ने वृद्ध से कहा, ‘‘बाबा, क्या बात करते हो, लौट आओ।‘‘ उसके एक साथी ने कहा ‘‘हम भी यही कह रहे हैं।‘‘ मैं बोल उठा, ‘‘बाबा, शुरू में ही जूआ डाल दिया। जरा चलकर तो देखो। जमना मैया ने बुलाया है तो सहारा भी देगी।” वृद्ध जैसे किसी का सहारा ही चाहता था। एक क्षण ठिठका, फिर नि:शब्द लौट आया। आगे के दुर्गम-से-दुर्गम मार्गों पर हमनें उसे दृढ़ता से चढ़ते-उतरते देखा। यमुनोत्री से लौटते समय उससे भेंट हुई तो गद्गद् होकर बोला, ‘‘बाबूजी, सचमुच ही जमना मैया ने हाथ पकड़ लिया। आप लोग न रोकते तो...।”18 सहारा व्यक्ति के भीतर ही आत्मबल के रूप में विद्यमान रहता है परन्तु कभी-कभी उसकी याद दिलाना आवश्यक हो जाता है। मानव जीवन की सार्थकता इस बात में मानी जा सकती है कि आपके उत्साहपूर्ण वचनों के प्रभाव से कोई मरता हुआ प्राणी जी उठे। लक्ष्य के प्रति व्यक्त निष्ठा और श्रद्धा का पुनः स्मरण ही मनुष्य को क्रियाशील बनाता है। यमुना नदी के प्रति सुषुप्त श्रद्धा के जागरण ने बूढ़े के दुर्बल कदमों में चेतना भर दी।

    तीर्थ स्थलों पर धर्मपरायण व्यक्ति बहुतायत में आते हैं। लोक-परलोक सुधारने की कामनायुक्त इन लोगों में दान-पुण्य की भावना सहज ही होती है। धर्म ग्रंथों और लोक प्रचलित धारणाओं के अनुसार तीर्थों और पवित्र नदियों के किनारे दिया हुआ दान अत्यधिक फलदाई होता है। यात्रियों की इसी भावना को भुनाने के लिए, जरूरतमंदो को छोड़ दें तो, अनेक भिखारी भी तीर्थ स्थलों पर मंडराते देखे जा सकते हैं। देने, और मांगने पर देने में बहुत फर्क है। स्वेच्छापूर्वक और सुपात्र को दिया गया दान ही श्रेष्ठ होता है। भिक्षावृत्ति को देखकर लेखक विष्णु प्रभाकर का मन भी वितृष्णा से भर आया था। “कुछ ही आगे बढ़े होंगे कि छोटे-छोटे बच्चो ने आ घेरा। हाथ पसारकर गिड़गिड़ाते हुए वे कहते थे, ‘ओ साहब, ओ सेठ, पैसा दो। सुई दो, बटन दो।’ वे एक बार बोलना शुरू कर देते तो रुकने का नाम नही लेते थे। मन को यह सब अच्छा नहीं लगा। लेकिन गरीबी, फिर तीर्थ-स्थान, मांगने को जैसे वे विवश है। जिस देश का मनुष्य मांगने को विवश कर दिया जाता है, उस देश को सभ्य और सुसंस्कृत कहलाये जाने का अधिकार नही रह जाता।”19 यह समय और परिस्थिति का विसंगत यथार्थ है जो लेखक को विचलित कर देता है। 

    सेवाकार्य को जीवन में अपनाकर अपने देश के गौरव को स्थापित करने वाली विदेशी महिला के जीवन मूल्य एवं व्यवहार निश्चित ही अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं- “सुदूर ग्रीक देश की वह युवती उत्तर-काशी के कुष्ठ आश्रम में काम करती थी। उत्साह और उमंग की जैसे प्रतिमूर्ति हो। अचानक वहाँ के छोटे से बाजार में घूमते हुए उससे भेंट हो गई। उसके साथ स्वामी शिवानंद की शिष्या एक फ्रेंच प्रौढ़ा भी थी। पर उन्होंने मौन व्रत लिया था। ग्रीक युवती से ही बातें होती रही। जब हमने उसके साहस और सेवाभाव की प्रशंसा की तो वह तुरंत ही प्रखर स्वर मे बोली, ‘‘मैं ग्रीक देश की नारी हूँ। अब तक तुमने ग्रीक देश की नारी नहीं देखी है। मैं जानती हूँ, अपने देश का प्रतिनिधित्व अच्छी तरह करना चाहिए। ऐसा कुछ न करूँ, जिससे आप मेरे देश के बारे में कोई अनुचित राय बना सकें।”20

    नदी का कार्य अनवरत बहना होता है। अपने प्रवाह मार्ग में आई अनेकानेक बाधाओं से बगैर विचलित हुए अपनी गति को चलायमान रख पाना नदी ही कर सकती है। मानव जीवन में सुख-दुःख की सतत् परिस्थितियाँ सरिता के प्रवाह की प्रतिबिम्ब है। सो मनुष्य को नदी के मंद-तीव्र बहाव से जीवन-यात्रा में आने वाली बाधाओं से पार पाने की सीख लेनी चाहिए। “बहरहाल, नदियों में स्नान की परम्परा शायद इसलिए है कि नदी के प्रवाह से हम सीख लें। ....नदियों का प्रवाह जीवन का पर्याय है। शून्य से आती अनंत में समाती नदी। ....जीवन प्रवाह क्या नदी के सामान नहीं है? कितने उतार-चढ़ाव आते है। आशाएँ-निराशाए उत्पन्न होती रहती है। संकट आते है। पीड़ा, दुःख से उत्पन्न होती है, परन्तु हम कई बार अपने प्रवाह को रोक देते हैं। दुखों से घबरा जाते हैं। नदी नहीं घबराती। उसका प्रवाह कम नहीं होता। उसकी गति नदी की शक्ति है। हम गति को कम कर देते हैं। गति को समाप्त कर देते हैं। ....गति का अर्थ है- चलते रहना। साँस भी तो चलती है। यदि उसका चलना रुक जाए तो !”21 जीवन प्रवाह की निरंतरता की तुलना नदी से अवश्य की जा सकती है। गंगा-यमुना जैसी पावन नदियों ने भारतीयों के जीवन को संस्कारित और मूल्य आग्रही बनाया है। प्रेम, उदारता और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति इन सरिताओं के प्रति यात्रियों का श्रद्धा भाव सहज ही दृष्टव्य है। कठिनाइयों के साथ संघर्ष करते हुए यात्री इनके किनारे पलती संस्कृति को अनुभूत करते निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। जाहिर है, यह यात्रावृत्तांत प्रकृति, नदी और मनुष्य के सहसंबंध को अभिव्यक्त करता है तथा मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं से पाठक का साक्षात्कार करवाता है।

निष्कर्ष : नदियों की संगत में पलते समाज की संवेदनाएँ नदियों की तरह उदार होती हैं। प्रकृति, समाज और संस्कृति के तानों-बानों से बुने हुए रिश्ते मानवीयता की गहराई को अभिव्यक्त करते हैं। जीवन को गहरे में अभिव्यक्त करने वाले भाव व्यक्ति की चेतना को ऊँचा उठाने में सहायक होते है। दया, प्रेम, करुणा, सहयोग, सेवा, श्रद्धा, सत्य आदि के बगैर मनुष्य का जीवन अर्थहीन है। नदी के साथ समाज के सम्बन्ध इन मूल्यों के साथ भी देखे जाते है। नदी किनारे के व्यक्ति का सम्बन्ध समाज, परिवार, धर्म, दर्शन, मिथक, पर्यावरण इत्यादि सांस्कृतिक घटकों के साथ लगातार बना हुआ है। 

संदर्भ :
 1.सुरेन्द्र माथुर: यात्रा साहित्य का उद्भव और विकास, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1962, पृ. 2
2.हरिमोहन: साहित्यिक विधाएँ: पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997, पृ. 273
3.अमरनाथ: हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. 286
4. दुर्गा प्रसाद अग्रवालः ‘हिंदी में यात्रा-वृत्तांत’, कथेतर (सं.माधव हाड़ा), साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 2017, पृ. 9
5. विष्णु प्रभाकर: जमना-गंगा के नैहर में, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1964, पृ. 24
6. वही, पृ. 25
7. वही, पृ. 26
8. वही, पृ. 32
9. काका कालेलकर: ‘गंगा मैया’, लोकवार्ता शोध पत्रिका (अंक-94), अप्रैल-जून, 2018, पृ. 9
10. हनुमान प्रसाद पोद्दार एवं चिम्मनलाल गोस्वामी: कल्याण तीर्थांक, गीता प्रेस गोरखपुर, पृ. 84
11. उषा पुरी विद्यावाचस्पति: भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता, सार्थक प्रकाशन, नई दिल्ली, 
       1997, पृ. 23
12. विष्णु प्रभाकर: जमना-गंगा के नैहर में, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1964, पृ. 35
13. वही, पृ. 40
14. अशोक कुमार सखवारः ‘समकालीन हिंदी यात्रा-साहित्यों में आत्मीयता’, समकालीन 
      हिंदी यात्रा वृत्तांत: विविध आयाम (सं. हेमंत कुमार), कौटिल्य बुक्स, नई दिल्ली, 2022, पृ.141
15. विष्णु प्रभाकर: जमना-गंगा के नैहर में, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1964, पृ. 58
16. वही, पृ. 140
17. वही, पृ. 179
18. वही, पृ. 32
19. वही, पृ. 34
20. वही, पृ. 82
21. राजेश कुमार व्यासः ‘पर्व के बहाने प्रकृति से जुडाव’, साहित्य अमृत पत्रिका (अंक 48), अप्रैल 
       2016, पृ. 31

प्रवीण कुमार जोशी
शोधार्थी, हिंदी विभाग, मोहन लाल सुखाड़िया विश्विद्यालय, उदयपुर (राज.)
संप्रति- सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, माणिक्य लाल वर्मा राजकीय महाविद्यालय, भीलवाड़ा
सम्पर्क : praveenkumarjoshi561@gmail.com, 98292 50561 

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

1 टिप्पणियाँ

  1. जीवन-प्रवाह की निरंतरता की तुलना नदी से की जा सकती है | बेहतरीन | 'नर्मदा की परिक्रमा' (अमृतलाल वेगड़ ) , 'दामोदर धारे-धारे' ( दमयंती बेसरा) और 'जलगीतम' (एन. गोपि ) जैसी रचनाएँ इसी सदानीरा-चेतना से ओत-प्रोत हैं |

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