शोध आलेख : समाज पर हावी अंधविश्वास और भारत का संविधान / डॉ. भरत लाल मीणा

समाज पर हावी अंधविश्वास और भारत का संविधान
- डॉ. भरत लाल मीणा

शोध सार : आजादी के बाद भारत ने आर्थिक, भौतिक और तकनीकी विकास के क्षेत्र महत्त्वपूर्ण मुकाम प्राप्त किया है। किंतु इस विकास के बाबजूद हमारा समाज वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में अनेक ऐसी अंधविश्वासपूर्ण धारणाओं और मान्यताओं से ग्रसित है जो समाज में केवल मनुष्य जीवन, बल्कि पर्यावरण को भी संकट में डाल देती हैं। कोरोना काल में हमने नागरिकों के अनेक ऐसे दावे सुनें जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था और जो किसी भी तरह प्रमाणित नहीं थे। नागरिकों की अंधविश्वासपूर्ण सोच हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी कमजोर करती है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए तर्कशील और विवेकशील नागरिकों का होना जरूरी है, क्योंकि तर्कशील और विवेकशील नागरिक ही देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था में सकारात्मक भूमका निभा सकते हैं। अत: नागरिकों के अंधविश्वासपूर्ण व्यवहार और मान्यताओं को खत्म करना बेहद ज़रूरी है। यद्यपि अंधविश्वास और जादू टोना (काला जादू) आधारित मान्यताओं की रोकथाम के लिए कुछ प्रांतों में कानून बनाए गए हैं। लेकिन समाज पर इसका ज्यादा असर दिखाई नहीं दे रहा। इसके लिए ऐसी शिक्षा की जरूरत है जो नागरिकों की जीवन शैली में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित कर दे। हमारे संविधान की भी नागरिकों से ऐसी अपेक्षा है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें।

बीज शब्द : वैज्ञानिक दृष्टिकोण, कर्मकांड, अन्धविश्वास, जादू टोना, पर्यावरण,संविधान, लोकतंत्र,विवेकशील नागरिक।

मूल आलेख : 21वीं शताब्दी में भारत चाँद से लेकर मंगल तक अनुसंधान कार्य कर रहा है, विश्व की मल्टी नेशनल कंपनियों और आईटी सेक्टर में भारतीय विशेषज्ञों का लोहा दुनिया मान रही है तथा भारत विश्व की प्रमुख अर्थ व्यवस्था के तौर पर स्थापित हो गया है। लेकिन इस तकनीकी, आर्थिक और भौतिक विकास के बावजूद हमारा समाज आज भी अंधविश्वासपूर्ण मान्यताओं और धारणाओं में जकड़ा हुआ है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में अंधविश्वास से ग्रसित लोगों द्वारा केवल मनुष्यों को, बल्कि पेड़-पौधों, जलवायु और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाया जाता है। कोरोना महामारी के दौरान नागरिकों की अवैज्ञानिक सोच के कारण इस महामारी का मुकाबला करने में भारत को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। अनेक लोगों द्वारा झाड़ फूंक, ताबीज, कर्मकांड इत्यादि के आधार पर कोरोना का इलाज करने का दावा किया गया। भारतीय समाज में प्राचीन समय से जादू-टोना (काला जादू) आधारित इलाज़ के नाम पर लोगों को ठगने, प्रताड़ित करने, विशेषकर महिलाओं को प्रताड़ित (डायन, चुडैल बताकर) किए जाने और इच्छा पूर्ति के लिए "बलि" के नाम पर छोटे बच्चों की हत्याएं करने की मानसिकता (कुप्रथा) प्रचलित रही है जिसका आजादी के 75 साल बाद भी हम पूरी तरह खात्मा नहीं कर सकें हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2021 में 06 मौतें "मानव बलि" और 68 हत्यायें जादू टोना के लिए की गई। इसी प्रकार  वर्ष 2020 में जादू टोने के कारण 88 लोगों की मौत हुई, जबकि 11 लोगों की "मानव बलि" के कारण मौत हुई। जादू टोने आधारित अपराधों से होने वाली मौतों के मामलों में सर्वाधिक प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ (20), मध्य प्रदेश (18) और तेलंगाना (11) रहे। केरल में मानव बलि के 02 मामले देखे गए।[1] इस घिनौनी मानसिकता को धार्मिक रूप देने के कारण इसके खिलाफ़ कोई केंद्रीय कानून नहीं बन सका, किंतु ऐसी घटनाओं के लिए भारतीय दण्ड संहिता में विशिष्ट प्रावधान हैं। भारत के आठ प्रांतों ने भी जादू टोना के विरूद्ध कानून बनाए हैं। प्रांतीय स्तर पर सबसे पहले 1999 में बिहार में "डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम" लागू किया गया। इसके बाद नवगठित झारखंड प्रांत में भी 2001 में ऐसा ही कानून लागू किया गया। 2005 में छत्तीसगढ़ में "टोनही प्रताड़ना निवारण अधिनियम" लागू किया गया। टोनही का अर्थ ऐसे व्यक्ति से है जो कि काला जादू और अपनी बुरी नज़र इत्यादि से किसी को नुकसान पहुंचा सकता है। इस कानून में झाड़ -फूंक, टोटका और तंत्र-मंत्र को प्रतिबंधित किया गया। महाराष्ट्र में 2013 में काला जादू और अंधविश्वास के खिलाफ विशेष कानून "महाराष्ट्र नरबली और अन्य अमानुष, अनिष्ट एवं अघोरी प्रथा तथा जादू टोना प्रतिबंध एवं उन्मूलन अधीनियम" लागू किया गया। इसी प्रकार 2013 में उड़ीसा तथा 2015 में राजस्थान में "डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम" लागू किया गया। वर्ष 2017 में कर्नाटक और 2018 में असम में भी अमानवीय प्रथाओं एवं जादू-टोना के खिलाफ़ कानून लागू किए गए हैं।[2]

            दुर्भाग्य से भारतीय समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण नागरिकों में अंधविश्वास उन्मूलन की गति बहुत धीमी रही है, कानूनों से लोगों की सोच में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं आए। कई बार वैज्ञानिक दृष्टिकोण और धार्मिक दृष्टिकोण में टकराहट उत्पन्न होने पर पूरा विमर्श भावना आहत होने का विषय बनकर भटक जाता है। ऐसे भी उदाहरण मिल जाते हैं, जब अंधविश्वास और कर्मकांडों के विरुद्ध कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं तर्कशील लोगों को इसलिए जान की कीमत चुकानी पड़ी, क्योंकि वे समाज को वैज्ञानिक चिंतन के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित कर रहे थे। ऐसा ही एक नाम है डॉ नरेंद्र दाभोलकर का, जिनकी 20 अगस्त 2013 को निर्मम तरीके से हत्या कर दी गई थी। हत्यारों का लक्ष्य डॉ दाभोलकर के संगठन और विचार को कुचलना था। अंधविश्वास और काला जादू के खिलाफ अलख जगाने के लिए डॉ नरेंद्र दाभोलकर ने "महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति" समाज में प्रगतिमूलक आचार, विचार और सिद्धांतो का प्रसार किया था। उन्होंने विज्ञाननिष्ठ जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए जीवनपर्यंत काम किया।[3] उनकी हत्या की देशभर में निंदा हुई। इसके बाद 2016 में लोकसभा में " प्रिवेंशन ऑफ डायन हंटिंग बिल" पेश किया गया, किंतु यह बिल पारित नहीं हो सका। इसलिए केंद्रीय स्तर पर अंधविश्वास, जादू-टोना (काला जादू) जैसी सामाजिक बुराइयों के ख़िलाफ़ कठोर कानून अस्तित्व में नहीं सका। जबकि अंधविश्वास और जादू टोना के नाम पर किया गया कृत्य भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 14, 15 और 21) तथा कई अंतर्राष्ट्रीय विधानों का  का उल्लंघन भी है जैसे, मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (1948), नागरिक राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धता (1966), महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अधिनियम (1979) इत्यादि। इन सभी अंतर्राष्ट्रीय कानूनों पर भारत ने हस्ताक्षर करके अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

            उक्त पृष्ठभूमि में भारतीय समाज पर अंधविश्वासों की जकड़न को प्रकट करने वाले कुछ उदाहरणों पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि अंधविश्वास के कारण केवल मनुष्य, बल्कि पर्यावरण को भी भारी नुकसान पहुंचाया जा रहा है। अभी हाल ही (अक्तूबर 2022) में अंधविश्वास के कारण केरल में दो महिलाओं की "बलि" करने का सनसनीखेज मामला प्रकाश में आया है। इन महिलाओं को बलि क्रिया के लिए कुछ माह पूर्व अगवा किया गया था।[4] इससे पूर्व अगस्त 2022 में महाराष्ट्र के नागपुर में एक लड़की के शरीर में बुरी आत्मा के प्रवेश कर जाने के शक में किसी तांत्रिक के कहने पर लड़की के माता पिता ने अपनी बच्ची के हाथ पांव बांधकर ऐसी पिटाई की कि उससे उसकी मौत हो गई।[5] एक दूसरी घटना में राजस्थान के डूंगरपुर में अंधविश्वास के चलते 16 साल की लड़की ने अपनी 07 वर्षीय भतीजी की तलवार से गर्दन काटकर हत्या कर दी। पुलिस की प्राथमिक जांच के बाद पता चला कि किशोरी के घर पर काफी दिनों से माताजी का पर्चा चल रहा था। इसी दौरान यह घटना हो गई।[6]

            वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव और अंधविश्वास के कारण इंसानों को ही नुकसान नहीं पहुंचाया जा रहा है, इसकी चपेट में पेड़ पौधे भी रहे हैं। समाज में पेड़ों को लेकर भी कई भ्रांतियां व्याप्त हैं। ऐसी ही भ्रांति के कारण बिहार के मुज़फ्फपुर जिले के साहेबगंज प्रखंड के अंतर्गत हुस्सेपुर पंचरूखिया गांव के देवेन्द्र सिंह ने एक ओझा के चक्कर में पड़कर अपने घर के नारियल के पेड़ इसलिए कटवा दिये, क्योंकि ओझा के अनुसार इन नारियल के पेड़ों से उनके वंश पर बुरा प्रभाव पड़ रहा था। इस ओझा ने पूरे गांव में सिर्फ अशिक्षित बल्कि शिक्षित लोगों की मानसिकता में भी पेड़ों के प्रति कई भ्रांतियां भर दी। स्थानीय ओझा ने गांव वालों के बीच यह भ्रांतियां फैला दी कि घर के दरवाज़े पर नारियल, नीम, कटहल, गुलर, बरगद, अशोक, पीपल का पेड़ नहीं लगाना चाहिए। इससे घर पर बुरे साये का डेरा जम जाता है तथा परिवार को हमेशा मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन उसके पास इसे साबित करने का कोई सबूत नहीं है। जबकि पर्यावरणविदों के अनुसार पेड़-पौधे मनुष्य के लिए कहीं से भी नुक़सानदेह नहीं हैं, वे पर्यावरण मानवजाति के लिए सदैव वरदान साबित हुए हैं।[7]

            समाज में अंधविश्वास की मानसिकता भेड़ चाल की तरह आगे बढ़ती है और तेज़ी से प्रसारित होती है। इस क्रम में अक्टूबर 2019 में सोशियल मीडिया पर जादुई पेड़ के बारे में वायरल मैसेज का यहां उल्लेख करना आवश्यक है। मैसेज में यह लिखा था कि "सतपुड़ा के जंगल में एक बुजुर्ग आदिवासी अपनी गाय-भैंस चराने जंगल गया था। कड़ी धूप के कारण वह बुजुर्ग आदिवासी महुआ पेड़ के नीचे सो गया। उस आदिवासी बुजुर्ग को गठिया रोग की समस्या थी। लेकिन जब वह उठा तो उसका सारा दर्द गायब हो गया।" यह मैसेज वायरल होने के बाद वहां श्रद्धालुओं और मरीजों का तांता लग गया। कुछ लोग इस पेड़ की छाल को भी घर ले जाकर पूजने लगे। इस अंधविश्वास के कारण यह संवेदनशील वन क्षेत्र मेला ग्राउंड में परिवर्तित हो गया, जो कि पारिस्थितिकी और जलवायु के लिए किसी खतरे से कम नहीं है, क्योंकि यह क्षेत्र टाईगर रिजर्व क्षेत्र भी है। रविवार और बुधवार को यहां लाखों की संख्या में लोग एकत्रित होते हैं। फलत: लाखों अगरबत्तियों का धुआं जंगल में प्रवेश कर रहा है, जो यहां पेड़ों, वनस्पतियों और वन्य जीवों को नुकसान  पहुंचा रहा है। वन विभाग के अधिकारी/ कर्मचारी आस्थावान लोगों को यह समझाने में नाकाम रहे हैं कि इस पेड़ में कोई जादुई शक्ति नहीं है, यह मिथक है।[8]

            वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में हम अप्रमाणित ज्ञान को भी आस्थावश प्रमाणित सत्य मान लेते हैं। इस प्रकार का उदाहरण दिल्ली और मेरठ के राष्ट्र रक्षा यज्ञ में देखने को मिला। यह कोई धार्मिक आयोजन नहीं था, राष्ट्र की रक्षा के उद्देश्य से किया गया कार्यक्रम था। कई दिनों तक चले इस यज्ञ में 500 क्लिंटल आम की लकड़ियों और असंख्य घी के पीपे इस्तेमाल किए गए। यज्ञ के बारे में आयोजकों की तरफ़ से बाकायदा यह दावा किया गया कि इसका उद्देश्य प्रदूषण कम करना है। जबकि हमारे पाठ्यक्रम और पर्यावरण अध्ययन की पुस्तकों में बताया गया है कि लकड़ी जलाना प्रदूषण को बढ़ावा देना होता है। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की गाइड लाईन में भी यह रेखांकित किया गया है। आयोजको के एक प्रतिनिधि का तो यह दावा था कि भारत की ओजोन परत को विश्व में सबसे कम नुकसान इसलिए हुआ है क्योंकि यहां अक्सर यज्ञों का आयोजन होता है। यद्यपि इस विश्वास को वैज्ञानिक अनुसंधान करके प्रमाणित नहीं किया गया है। आयोजक भी ऐसे ठोस प्रमाण नहीं देते हैं जिससे प्रमाणित होता हो कि आम की लकड़ी और घी जलाने से प्रदूषण कम होता है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी भी मानते हैं कि ऐसे आयोजनों से हवा अधिक प्रदूषित होती है। यहां सबसे अहम सवाल यह है कि किसी पारंपरिक आस्था के चलते यह दावा कि आम की लकड़ी जलाने से प्रदूषण कम होता है, दरअसल किसी प्रयोगशाला ने प्रमाणित नहीं किया है, इसे धर्मग्रंथों के हवाले से ही कहा गया है और प्रमाणिक माना जा रहा है। जाहिर है कि यह तरीका सन्देह और सवाल खड़ा करने की संभावना को ही समाप्त कर देता है, जो एक तरह से ज्ञान की पहली सीढ़ी मानी जाती है। इससे कार्य कारण सम्बन्ध की बात भी बेकार हो जाती है। ऐसी अंधविश्वासपूर्ण बातों से लोगों के मन मस्तिष्क पर कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, खासकर बच्चों पर, हम इसका अन्दाज़ा नहीं लगा सकतेछात्रों को पर्यावरण अध्ययन की किताब में बताया जाता है कि लकड़ी जलाने से प्रदूषण होता है, उन्हें इस बात का सामंजस्य बिठाने में मुश्किल आएगी कि किस तरह परंपरागत अंधविश्वास पाठयपुस्तकों की बात को "खारिज" कर रहे हैं। कुछ छात्रों को यह भी लग सकता है कि उनकी पाठयपुस्तकों ने उन्हें इस "पवित्र सत्य" के बारे में क्यों नहीं बताया? [9]

            वैसे तो हमारे देश में आज़ादी से पूर्व अंधविश्वास और कुप्रथाओं के विरुद्ध पुनर्जागरण आंदोलन चलाया गया था। किंतु देश की आजादी के बाद लोगों को जागरूक करने के लिए इस तरह के कोई ठोस प्रयास नहीं हुए। परिणामस्वरूप भारत में एक तर्कहीन समाज का निर्माण हो गया है। पिछ्ले कुछ वर्षों में यह संस्कृति और ज्यादा मजबूत हुई है। चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनल और टेलीविजन धारावाहिक समाज में अंधविश्वास आधारित वातावरण निर्मित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। कोरोना काल में देशवासियों का अंधविश्वास प्रमाणिकता के साथ प्रकट होते देखा गया। कोरोना वायरस के खिलाफ जंग लड़ रहे लोगों का जज़्बा बढ़ाने के उद्देश्य से भारत के प्रधानमंत्री द्वारा ताली, थाली और शंख बजाने की अपील को भी हमारे देशवासियों ने वैज्ञानिक सोच के अभाव में कोरोना भगाने की युक्ति मान लिया, जबकि प्रधानमंत्री की अपील का उद्देश्य नागरिकों को तनाव, हताशा और निराशा से मुक्त करने और उन्हें प्रोत्साहित करने का था। इसके बाद सोशियल मीडिया पर वायरल एक मैसेज में किसी ने यह दावा कर दिया कि बर्तन बजाने से कोरोना वायरस खत्म हो जाता है। दैनिक भास्कर की फैक्ट चैक डेस्क की पड़ताल में इस वायरल दावे को झूठा पाया गया। भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (PIB) ने भी इस दावे को झूठा बताया।[10]  लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। देशभर में लोगों ने थाली बजाकर जुलूस निकाले और कोरोना लॉक डाउन की आचार संहिता का उल्लंघन कर दिया। इस दौरान ढोंगी बाबाओं और तांत्रिकों ने भी अपना धंधा चलाने के लिए अंधविश्वासों का खूब प्रचार किया। मुरादाबाद के मझौला थाना क्षेत्र के गांव मूंगपुर में कोरोना से 20 से ज्यादा मौतें हो जाने के बाद किसी तांत्रिक ने बकरे और कटरे को सजाकर बारात निकाले का उपाय सुझा दिया। इस सुझाव पर अमल करते हुए ग्रामीणों ने ढोल बजाकर बकरा और कटरा सजाकर बारात निकाली। इस बारात में एक ग्रामीण सिर पर आग जलता मटका लेकर बारात के आगे चल रहा था और दूसरा ग्रामीण मटके में शराब दूध मिलाकर पूरे गांव में छिड़काव करता हुआ चल रहा था।[11] एक अन्य वाकया में पता चला कि लखनऊ के लालीगंज के पास एक दिन अचानक अहमद बाबा ने बैनर लगाकर दावा कर दिया कि उनके ग्यारह रुपए के ताबीज से कोरोना वायरस खत्म हो जायेगा। इसी तरह मडियांव इलाके में एक दूसरे बाबा ने दस रुपए लेकर  झाड़-फूंक के जरिए कोरोना वायरस खत्म करने का दावा किया।[12] इसी प्रकार राजस्थान के दौसा जिले के बामनवास क्षेत्र के एक गांव में पंच पटेलों ने निर्णय लिया कि कुलदेवी के मंदिर में जाकर कोरोना से बचाव का उपाय पूंछा जाय। देवी के घोड़ला ने भाव आने के बाद ग्रामीणों को बताया कि माता की जोत जला दो, कोरोना नहीं आएगा। इसके बाद ग्रामीण मशाल लेकर पहाड़ी पर चढ़ गए और "कोरोना हुर्या, कोरोना हुर्या" चिल्लाने लगे। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र के आदिवासी लोग "हुर्याउदघोष का प्रयोग किसी जानवर या बुरी बला को भगाने के लिए करते हैं।

कोरोना काल में ही हिमाचल प्रदेश के एक समाचार पत्र में प्रकाशित एक खबर का शीर्षक था "भूतों की मदद से कोरोना रोकेगा हिमाचल प्रदेश।" इस खबर को आयुर्वेद विभाग के अधिकारी के हवाले से प्रकाशित किया गया था। लेकिन बिना प्रमाण के इस खबर को प्रकाशित करने में अख़बार को कोई संकोच नहीं हुआ। इस दौरान गौमूत्र और गोबर से कोरोना का इलाज करने के भी दावे किए गए। उपरोक्त घटनाओं को यदि वैज्ञानिक शोध से प्रमाणित किया जा सकता तो किसी भी तार्किक सोच वाले इंसान को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होती, परंतु अंधभक्तों की तरह इस तर्कहीन बातों का पालन करना केवल अवैज्ञानिक समझ का ही एक परिणाम है।[13]

            पूरे देश में ऐसी असंख्य घटनाएं खोजी जा सकती हैं। यह कोई अलग अलग घटनाएं नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज की मनोदशा का परिणाम है, जहां लोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से बचते हैं। जनता बहुत से कार्य तो इसलिए करती है कि किसी बाबा या तांत्रिक ने कहा था या बताया था। हम अपने रोजमर्रा की जिंदगी से ऐसे सैकड़ों उदाहरण गिना सकते हैं जो इस बात को रेखांकित करते हैं कि भारत में वैज्ञानिक चिन्तन को जड़मूल करने में अंधविश्वास और जादू- टोना का कितना योगदान है? इससे हमारे समाज, पर्यावरण और जलवायु पर गंभीर दुष्प्रभाव हो रहा है।

हालांकि देश की आज़ादी के बाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर हमारे नीति निर्धारक सैद्धांतिक तौर पर स्पष्ट थे, इसलिए भारत का संविधान नागरिकों को वैज्ञानिक चेतना विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करता है। संविधान का अनुच्छेद 51 नागरिकों से अपेक्षा करता है कि वे प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसमें वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, की रक्षा करें और उसका संवर्धन करें तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें। यह नागरिकों का मूल कर्तव्य है।[14] इसी प्रकार नीति निदेशक तत्वों में राज्य से भी अपेक्षा की गई है कि वह नगरिकों के जीवन स्तर ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ का सुधार करने का कार्य करेगा। लोक स्वास्थ में अंधविश्वासों से मुक्ति भी शामिल है, क्योंकि इसके बिना मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं रह सकता।  लेकिन यह चिंता का विषय है कि संविधान के लागू होने के सात दशक बाद भी भारतीय समाज पर अंधविश्वास हावी है तथा नागरिकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का बेहद अभाव है, जिसकी भारत का संविधान अपेक्षा करता है। यह स्थिति भारत के लोकतंत्र के हित में भी नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्कशील समाज की रचना करना प्राथमिक शर्त होती है।

निष्कर्ष : निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि विवेकशील नागरिक ही देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं मुद्दों की विश्लेषणात्मक समीक्षा करके अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करते हुए अपने अधिकारों का तार्किक प्रयोग कर सकते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे भीतर हर घटना का कारण जानने की जिज्ञासा पैदा करता है। इसलिए समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का  प्रचार-प्रसार करना बेहद आवश्यक है। नागरिकों में वैज्ञानिक समझ विकसित करने के लिए विज्ञान का कोई बड़ा विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है, यह जीने का तरीका और विश्व दृष्टिकोण है। इसके लिए समाज में तर्क-वितर्क और प्रश्न पूछने की संस्कृति को प्रोत्साहित करना होगा। ऐसी रूढ़ियों, पूर्वाग्रहों, अंधविश्वासों और कुप्रथाओं के खिलाफ़ सचेत तार्किक अभियान चलाना होगा, जो मनुष्य और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं। इस कार्य में शिक्षा की विशेष भूमिका हो सकती है, यदि शिक्षा को केवल रोजगार प्राप्त करने के साधन के तौर पर नहीं, बल्कि जीवन के समग्र विकास के साध्य के तौर पर विकसित किया जाय। इसके लिए समाज और सरकार दोनों को मिलकर कार्य करना होगा।

संदर्भ :

1. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो रिपोर्ट, https://www.drishtiias.com/hindi/daily-updates/daily-news-analysis/anti-superstition-laws-in-india
2.  इंडियन एक्सप्रेस, 13 अक्टूबर, 2020. https://indianexpress.com/article/explained/what-are-the-laws-on-witchcraft-in-india-8206958/
3.    डॉ नरेंद्र दाभोलकर; अंधविश्वास उन्मूलन: सिद्धांत, (सम्पादन, सुनील कुमार लवटे), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020, पृष्ठ 13-15.
4.    बीबीसी न्यूज़,16 अक्टूबर, 2022.https://www.google.com/url?sa=t&source=web&rct=j&url=https://www.bbc.com/hindi/india-63271058&ved=2ahUKEwie2pT3kJn8AhXSleYKHTs2DVEQFnoECBIQAQ&usg=AOvVaw0LFpekyGAPoPHLYkI_C5AR
5.    नवभारत टाइम्स. कॉम, 08 अगस्त, 2022. https://www.google.com/url?sa=t&source=web&rct=j&url=https://navbharattimes.indiatimes.com/state/maharashtra/nagpur/black-magic-murder-in-maharashtra-nagpur-5-year-girl-killed-by-parents/amp_articleshow/93419825.cms&ved=2ahUKEwjE3_S9kpn8AhXRTmwGHTlqAyYQFnoECAgQAQ&usg=AOvVaw21gMXlgbyzVMSU1JKL5HBV
6.    भास्कर.कॉम, 02 अगस्त, 2022. https://www.google.com/url?sa=t&source=web&rct=j&url=https://www.bhaskar.com/amp/local/rajasthan/dungarpur/news/7-year-old-girl-murdered-while-sleeping-due-to-tantra-mantra-father-tau-also-attacked-130133262.html&ved=2ahUKEwiFqJL4npn8AhUDTWwGHVf1BEMQFnoECAwQAQ&usg=AOvVaw2XM0vJEjzRDeeMtOZerxKJ
7.    खुशबू कुमारी का लेख "पेड़-पौधों पर भारी पड़ता अंधविश्वास", 1 अगस्त, 2013. https://hindi.indiawaterportal.org/articles/paeda-paaudhaon-para-bhaarai-padataa-andhavaisavaasa
8.    प्रेमा नेगी का लेख; अंधविश्वास: मध्य प्रदेश के टाइगर रिजर्व में 'चमत्कारी' महुआ पेड़ की पूजा करने पहुंच रहे लाखों लोग, जनज्वार.कॉम, 07 नवंबर, 2019. https://janjwar.com/post/superstition-thousands-throng-mp-satpura-tiger-reserve-to-touch-magic-tree
9.    सुभाष गाताडे का लेख "अंधविश्वास के हवन में किसकी आहुति दे रहे द्विज?",  फारवर्ड प्रेस, 21 मार्च, 2018. https://www.forwardpress.in/2018/03/lalkila-parisar-me-havan-rashtra-raksha-mahayagya/
10. दैनिक भास्कर फैक्ट चैक पड़ताल, 23 मार्च, 2020.https://www.bhaskar.com/no-fake-news/news/no-fake-news-on-vibrations-made-by-clapping-sound-kill-coronavirus-127035117.html
11. यूपीसीटी न्यूज, 18 मई, 2021.https://www.upcitynews.com/news/moradabad/procession-with-drums-drowned-to-drive-away-the-corona/95546
12. लाइव हिन्दुस्तान.कॉम,15 मार्च, 2020.https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/story-police-arrested-corona-baba-who-claimed-treatment-of-coronavirus-with-amulets-of-11-rupees-3086336.html
13. विक्रम सिंह का लेख, "कोरोना के खिलाफ़ लड़ाई वैज्ञानिक चेतना के बिना नहीं जीती जा सकती", न्यूज क्लिक, 18 अप्रैल, 2020. https://hindi.newsclick.in/The-fight-against-Corona-cannot-be-won-without-scientific-consciousness
14. दुर्गा दास बसु, भारत का संविधान, प्रिंटिंस हाल ऑफ इंडिया प्रा. लि. नई दिल्ली, 1997, पृष्ठ 133-134.

डॉ. भरत लाल मीणा
असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, बाबू शोभा राम राज.कला महाविद्यालय अलवर
सम्पर्क : bharatjorwal76@gmail.com, 9252721190

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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