समीक्षा : दलित जीवन का महाआख्यान है श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ / अनिल

 दलित जीवन का महाआख्यान है श्यौराज सिंहबेचैनकीमेरी प्रिय कहानियाँ
- अनिल

भारतीय सामाजिक व्यवस्था विविधताओं से भरा हुआ समाज है। इस विविधता में हिन्दू संस्कृति अपने वर्चस्व के रूप में मौजूद है। जिसके कारण इनका लेखन भी अपने व्यक्ति और समाज की कुरीतियों को ढाँपने हेतु हुए हैं। इस वर्चस्ववादी लेखन के पीछे दलित लेखक सवर्ण वर्ग की कूटनीति का शिकार हुआ। लेकिन हिन्दी दलित लेखकों की लेखन की बानगी ने दलित लेखन को आज भारतीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा बना दिया है। वर्तमान दलित लेखन की धारा में प्रो. श्यौराज सिंहबेचैनकी रचनाओं की विशेष भूमिका है। इनकी रचनाधर्मिता ने आत्मकथा, कविता एवंमेरी प्रिय कहानियाँ, मूकनायक के सौ सालमें दलित जीवन की सच्चाई, उसकी वेदना को आज़ाद भारत के समक्ष प्रस्तुत किया है। साथ ही यह भी उल्लेखित किया कि दलित को लेकर, उसके आरक्षण को लेकर तथाकथित सवर्ण वर्ग किस तरह दलित समाज के लोगों के साथ कूटनीतिक व्यवहार करते हुए, एक ख़ास समुदाय वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संविधान की धज्जियाँ उड़ा रहा है। उसको लेखक ने बारीकी से अध्ययन-अध्यापन के दौरान लिपिबद्ध किया है। दुर्व्यवहार का शिकार खुद रचनाकार भी हुआ है अपने अध्यापन कार्यकाल में। यह सभी घटनाएँ जस-की-तस उच्च संस्थाओं में समाहित है। जिसको लेखक ने अपनी रचनामेरी प्रिय कहानियाँमें अभिव्यक्त कर सवर्ण वर्ग की कूटनीति का पर्दाफ़ाश किया है।

इस संदर्भ में लेखक ने कहानी क्रीमी लेयरमें सवर्ण की सांविधानिक कूटनीति के दूषित षड्यन्त्र के साथ-साथ कहानी के पात्र सुधांशु और प्राणीता के आपसी संवाद के माध्यम से सुधांशु के सवर्ण वर्ग की मानसिक कुटिलता को दर्शाया है। इस प्रकरण में कहानी की पात्रप्राणीताने बड़ी ही सूझबूझ से प्रतिक्रिया करते हुए अपने पतिसुधांशुसे कहती है, “मैं कब कहती हूँ कि ऊँची जाति के हक किसी को खाने दो और कौन नीची जात, ऊँची जात के हक खा सकती है? वे तो अपने ही हक हासिल नहीं कर पा रहीं। किसी का क्या खाएगी, कितनी पंचवर्षीय योजनाएँ गुजर गईं, एससी/ एसटी में भूमि वितरण का संकल्प आज भी पूरा नहीं हुआ। देश में सबसे ज्यादा आवासहीन हैं तो यही हैं। मैं तो तुम्हारी उस अनीति की बात करना चाहती हूँ जिसके तहत तुमने कहा था कि एससी/ एसटी में जिन्हें एकबार नौकरी मिल गई है, उन्हें दूसरी बार नहीं मिलने दूँगा।1  सवर्ण वर्ग किस तरह दलित समाज का शोषण करते हुए उनका हितैषी है। साथ ही हितैषी स्वरूप के पीछे-पीछे शिक्षित दलित समाज की जड़ काटता रहता है। जिसका विरोध प्राणीता करती हुई दिखाई देती है।प्राणीतासुधांशु की पत्नी है जो सुधांशु के दलित आरक्षण संबंधी कोटा खत्म करने की साजिश का विरोध करते हुए सवर्ण कूटनीति को बे-पर्दा करती है। सरकार के साथ एवं दलित वर्ग के साथविनोबा भावेके द्वारा किए भूमि वितरण की खोखली राजनीति को भी अभिव्यक्त करते हुए आज़ाद भारत की राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न करते हुए कहती है कि जिन एससी/ एसटी की तुम बात करते हो उस वर्ग ने हज़ारों सालों से हमारे वर्ग द्वारा किए गए अत्याचार अपने पर बर्दाश्त किए हैं और तुम हो कि कुछ साल से मिले आरक्षण को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हो। इन सबकी समानता तुम्हें अच्छी नहीं लग रही जो तुम इनके हक को सीधे ना छीनकर पीछे की कुर्सी का सहारा लेकर अहित कर उनके हितैषी बनते हो। आज के समय में कितने ऐसे दलित परिवार हैं जो बेहाली और मुफ्फलिसी में गुजर-बसर कर जीवन व्यतीत रहे हैं। वर्ण-व्यवस्था की आड़ में सवर्ण वर्ग आए दिन कोई कोई खेल खेलता है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाणसुधांशुजैसे लोग हैं। इस कथन को ऐसे समझ सकते हैं, “मतलब तो तुम बाज नहीं आओगी, तरफ़दारी एससी/ एसटी की ही करोगी। तुम यह भी नहीं देखतीं कि तुम सवर्ण हो, तुम्हारा वर्ण इंटरेस्ट हमारे साथ ही होना चाहिए। ये लोग जनरल में कम्पीटीशन करें, मैरिट में आगे आएँ। मुझे कोई एतराज नहीं होगा।2 दलित वर्ग को लेकर सरकार द्वारा जो भी रणनीति बनाई जाती हैं, उसमें दलित की मौजूदगी कागज़ों में ही होती है। धरातलीय स्तर पर तो सवर्ण वर्ग का अपना वर्ग हित सार्वभौम होता है। फिर चाहे दलित को दलित से क्यों ना भिड़ाना पड़े। तमाम ऐसे दलित वर्ग के लोग हैं जो सवर्णों के हाथों की कठपुतली बनकर सुधांशु जैसे लोगों का हितैषी बनकर अपने दलित भाइयों के हितों का हनन कर बैठते हैं। सरकार भी वही कर रही है जो सुधांशु जैसा पात्र लेखक की रचना में कर रहा है। तथाकथित सवर्णों के कई ऐसे किस्से हैं जो प्रशासनिक के साथ-साथ सामाजिक जीवन में दलित वर्ग के लोगों की खुशहाल जीवन शैली को तबाह करने की योजनाएँ गढ़ते रहते हैं। साथ ही स्त्री-पुरुष के बीच व्यक्त असमानता को भी लेखक ने अभिव्यक्त किया है। बस्स इत्ती-सी बात कहानी में रचनाकार ने दो सहेली के माध्यम से स्त्री-पुरुष संबंधों पर बात करते हुए उद्धृत करते हैं, “कीर्ति और बीना दो सच्ची सहेलियाँ थीं। स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर वे आपस में बातें कर रही थीं, बीना कह रही थी, रिश्ते तो ऊपर से बनकर आते हैं। जो किस्मत में लिखा होता है मिल जाता है। ऊपरवाला सब के साथ न्याय करता है..... सारी गालियां स्त्री के अंगों को लेकर हैं। अपहरण और बलात्कार जैसे अपराध स्त्री के हिस्से ही आते हैं और तुम समझती हो कि बनाने वाले ने स्त्री को कुछ विशेष बना दिया है।3 व्यवस्था में स्त्री जाति को लेकर एक सामान्य धारणा रही है कि युग कोई भी हो लेकिन स्त्री को पुरुष के समतुल्य नहीं रहने दिया। कोई भी वर्ण हो दोनों में ही मान-प्रतिष्ठा के चलते स्त्री समुदाय के ऊपर हिंसा एवं अत्याचार होते हैं। आज भी स्त्रीसूचक शब्दों का परिवेश तथाकथित पुरुष सत्ता ने बरकरार रखा है। स्त्री की अस्मिता उसकी पहचान उसकी इज़्ज़त से जोड़कर देखते हैं। उसकी यौनिकता भंग होते ही उसको कुत्ते-बिल्ली की तरह ट्रीट करता है समाज। समाज की रूढ़ परंपराओं का ठीकरा स्त्री के सिर मढ़ दिया जाता है ताकि वह उसको अपनी सारी उम्र पोषित करती रहे। इन सभी बे-बुनियाद रूढ़ियों को यदि कोई स्त्री मानने से इनकार कर दे, तथा अपनी मर्जी से शिक्षा-दीक्षा के अनुकूल जीवन व्यतीत करने लगती है तो उस स्त्री के साथ तथाकथित हीनग्रंथि हीन मानसिकता के लोग उस पर जत्तियाँ करने पर उतारू हो जाते हैं। आधुनिक युग में भी बहुतेरे ऐसे किस्से हैं। जिनको मिथक पात्र के साथ जोड़कर स्त्री को प्रताड़ित करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में रचनाकार बड़े ही साधे हुए अक्षरों में कहते हैं, “आखिर एक धोबी की प्रतिक्रिया सुनकर श्री राम ने सीता माता को घर से निकाला था कि नहीं, मान मर्यादा-लोकलाज के लिए? पर राम ने सीता के प्राण तो नहीं निकाले थे। तुम राम से अपनी तुलना कैसे कर सकते हो? सभ्य समाज में तो तलाक के बाद भी एक-दूसरे का सम्मान करते हैं स्त्री-पुरुष।.....ऐसा यूरोप में होता होगा, हमारे लिए तो अपनी शान ही, पहचान है। जिस जूती को हमने पाँव से उतारकर फेंक दिया, उसी जूती में अपना पाँव घुसेड़ने की कोई भंगी, चमार, पासी, कुम्हार, जुलाहा, धोबी, धानुक, खटीक, जुर्रत करेगा क्या? हमारी जात की परित्यक्ता को भी हाथ लगाएगा?”4 उक्त प्रसंगों से स्पष्ट है कि सवर्ण वर्ण की स्त्रियाँ यदि किसी नीच जात से सम्बन्ध जोड़ती है तो मारना होगा। जैसे कीर्ति के पूर्वपति कुँवर सिंह ने कीर्ति को प्रतिष्ठा के नाम पर अथवा अपने से निम्न जात में विवाह करने के कारण, अपनी ना-मर्दानगी को छुपाने सवर्ण अहं के चलते एक स्त्री को सज़ा--मौत दे दी है जो कहीं ना कहीं वर्तमान समय की क़ानून व्यवस्था पर चमाट है। कुँवर जैसे लोग आए दिन दलित वर्ण की स्त्रियों के साथ कुकृत्य कर उनको ज़िन्दा जला देते हैं और क़ानून व्यवस्था उनके चंद पैसों पर उनकी हाजिरी बजाता है। उदाहरण के तौर पर यूपी का हाथरस कांड, ऊना कांड, मेरठ कांड, आदि कई ऐसे कृत्य हैं जिनकी संख्या गिनाई नहीं जा सकती। दलित जीवन स्त्री जीवन के प्रति सवर्ण वर्ण की कूटनीति अभी चल रही है। दलित जीवन की समस्याओं को लेकर बहुत-से छोटे नेता राजनेता बने लेकिन समस्या का समाधान नहीं हुआ।

गरीबी, भूमिहीनता, अशिक्षा, बेरोज़गारिता, भूखमरी, अस्पृश्यता इत्यादि समस्याएँ ज्यों की त्यों हैं। दलित समाज सदियों से दरिद्रता में जीवन जीता रहा है। दरिद्रता के कारण पारिवारिक पृष्ठभूमि शिक्षा से कोसों दूर रहकर मूलभूत चीज़ों को प्राप्त नहीं कर पाई हैं। इसलिए दलित समुदाय की जीवन शैली दयनीयता की सीढ़ियाँ पर चढ़ने को विवश है। विवशता के वशीभूत होकर दलित परिवार अपने जीवन को बिखरता हुआ देखता है। एक पिता बच्चों की परवरिश में कितनी समस्याओं का सामना करता है और अंततः बेमेल विवाह की गिरफ़्त में जकड़कर रह जाता है। लेखक नेकलावतीकहानी में दलित जीवन की दयनीय परिस्थिति एवं पिता की बेटियों के विवाह की चिंता को लिपिबद्ध किया है। दलित जीवन की व्यथा को कुछ इस तरह लिखते हैं, “बेटियाँ निरक्षर थीं और पिता की इच्छा थी कि लड़का कुछ रोज़गार करने वाला मिले तो उनका जीवन सुखपूर्वक कट जाए। पर कहीं घर ठीक-ठाक मिलता तो वर नहीं मिलता। वर मिलता तो घर नहीं मिलता। दोनों मिलते तो उनकी दहेज की माँग इतनी बड़ी होती कि उन्हें लगता कि वे पूरी नहीं कर पाएँगे। कलावती की कहानी का उत्तरार्द्ध ही एक तरह से उसका सब कुछ था। देखते-देखते उसके घर की हर दीवार दरकने लगी थी- घर जो चारदीवारी नहीं उसके बेटे, उसकी बेटियाँ और उसके पति रघुवीर।5 दलित समाज का जो स्वरूप लेखक नेकलावतीकहानी के संदर्भ से हमारे समकक्ष प्रस्तुत किया है वह भारतीय मूल निवासी के हृदय की टीस है। जिसका दंश अभी भी बहुजन समुदाय भोग रहा है। राजनेताओं ने भारत के मूलनिवासियों के ऊपर आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के पश्चात सिर्फ अपना स्वार्थ भुनाया है। इसको लेखक ने कलावती कहानी के पात्रअशोकके कथनों से उसके मर्म को उल्लेखित करते हैं, कलावती की तरह अशोक को भी लगता था कि देश के नेताओं को शायद हमारी गरीबी-मज़दूरी का पता नहीं है। उन्हें शायद यह भी पता नहीं है कि हमें मुफ़्त की खैरात किसी की नहीं चाहिए। हमें काम चाहिए, हमें जीविका के साधन चाहिए।...... देश को आज़ाद कराया, कुर्बानी दी। पर तुम्हारे देश के गुलाम बच्चे तो गुलाम ही रह गए। उनके लिए तालीम, धंधा, व्यवसाय, मुनाफ़े का सौदा बनाकर स्कूलों को देश से छीन लिया। निजी बपौती बना लिया जो खरीदे।6 लेखक ने वर्तमान राजनीति और भविष्य की राजनीति का दृश्य दिखाया है। साथ में यह संकेत किया कि जिस राजनीति के बल पर हमारे बुजुर्गों ने अधिकार दिलाए थे। अब वह अधिकार छिनते हुए दिखाई दे रहे हैं। शासन व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण दलितों के हक पर चोर द्वार से डकैती कर उनकी भू-संपदा को निजी घरानों को सौंप रहे हैं। ये सब करतूत सवर्ण वर्ग की राजनीतिक कूटनीति को दर्शाती हैं। लेखक ने तथाकथित सवर्ण वर्ग की कुटिलता को उद्धृत करते हुए अपनी कहानी शिष्या बहू में हिन्दू धर्म के पोषक आरक्षण का हित साधने के पक्ष पर पंडित वर्णानन्द के कूटनीतिक विचार को अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं, “अगर ब्राह्मण बच्चे एससी/ एसटी प्रतिभाओं को अपने घरों में नहीं लाएँगे तो वे कहीं और जाएँगी। मैं तो कहता हूँ आरक्षण का विरोध करना बंद करो। अंतरजातीय विवाहों का समर्थन करो। चुन-चुनकर लाओ एससी/ एसटी को। आरक्षण तो खुद ही बहुओं के साथ-साथ हमारे घरों में चला आएगा।...... छोटे होने, नीची जात होने का एहसास तो हम कराते ही रहेंगे ना उन्हें तो वे शादी करके ऊँची जात क्यों नहीं बनना चाहेगी, आखिर जातिसूचक सरनेम की भी तो भूमिका होनी चाहिए।7 प्रस्तुत कथनों से स्पष्ट है कि सवर्ण वर्ग की आरक्षण पर पैनी दृष्टि है। यह लोग एससी/ एसटी की होनहार लड़कियों को साधना चाहते हैं। साथ ही यह भी जताना नहीं भूलते की तुम दलित आदिवासी लड़कियाँ हो। कई ऐसी सवर्ण जातियाँ हैं जो जाति को बहलाने दलित समुदाय की प्रतिभाशाली युवतियों को अपनाकर उनका अपमान करते हैं। उनको जाति विषयक कथनों से प्रताड़ित करते रहते हैं। हिन्दू धर्म के नाम पर हिन्दुत्व का पाठ रटवाते हुए मुस्लिमों के ख़िलाफ़ भड़काते हैं। जो कहीं कहीं धार्मिक सांप्रदायिकता के उन्माद को पैदा करता है। जिसको लेखक ने बड़ी बारीकी से लेखनी में उतारा है। वहीं रावण कहानी में लेखक ने ग्रामीण इलाकों में हो रहे सवर्ण वर्ग की शह पर तथाकथित यादवों के द्वारा दलित पर हुए अत्याचार को उनकी कूटनीति को परिभाषित किया है। जाति व्यवस्था के चलते ग्रामीण समाज में किस तरह दलित समुदाय के प्रति दोहरा चरित्र सवर्ण अपनाते हैं। उसको लेखक ने नाटकीय ढंग से अभिहित किया है।, “लोग धीरे-धीरे मनोरंजन के आनंद में डूबने लगे। अब रावण के सैनिकों को मंच पर आना था। राम ने हनुमान की ओर देखा और हनुमान ने कुंभकरण की ओर। राक्षस और देव दोनों संस्कृतियाँ अस्पृश्यता के सवाल पर एक साथ उपस्थित थीं। .....तब तक हनुमान, सुग्रीव और लक्ष्मण ने ताल ठोंक मंच पर उछलकर कहा, ‘उतरि तू स्टेज ते नीचे उतरि मूलसिंह बोला, क्यों नीचे क्यों उतरूँ? तू रावण को पाठ नाय करंगो? तब तक उसकी एक-एक बाँह को चार-चार हाथों की गिरफ़्त ने जकड़ लिया। उतरि सारे चमटटा के नीचे उतरि।8 वर्ण-व्यवस्था के कारण ग्रामीण समाज आज भी जातियों के साँचे से बाहर नहीं निकला है। एक तरफ़ दुनिया चाँद पर जीवन के तत्त्व खोज रही है तो दूसरी तरफ़ सवर्ण वर्ग जातियों के झगड़े में अपने आप को श्रेष्ठ साबित कर रहा है। बहुजन वर्ग के विशाल जनमानस को सवर्ण अपनी कूटनीति से उनको टुकड़ों में विभक्त कर आपस में ऊँच-नीच पैदा कर लड़वा रहा है। जातिगत शब्दों का इस्तेमाल कर आधुनिक समय में सीधा दलित पर आघात कर रहा है। कहानी के पात्रमूलसिंहका रावण का अभिनय करना सवर्णों को पच नहीं रहा था। इसलिए उस पर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग हुआ। इसके बाद जो घटित हुआ वह लेखक की कलम से इस प्रकार फूटा। कहने को तो देश गाँधीवादी विचारधारा का वाहक है, लेकिन कार्य उसके विपरीत किया है। यह सब हिंसक प्रवृत्ति हिन्दू मानसिकता की अभिव्यक्ति देता है। लेखक ने जातिगत हिंसा को सजगता से पकड़ते हुए कहते हैं, “मूलसिंह की रग-रग तोड़ दी गई थी। वह बेहोशी की हालत से बाहर रहा था। उसे अँधेरे में से उठाकर जीतराम और उनके साथी बाहर निकाल लाए थे। यूँ दलित विरोधी और दलित समर्थक यादवों में दो गुट स्पष्ट हो गए थे। .....एक कलाकार को हरिजन होने के कारण यह सज़ा, धिक्कार है हमारी सोच और समझदारी पर।9 लेखक नेरावणकहानी में सवर्ण समाजशास्त्र के विकृत पहलुओं को शब्दों में पिरोकर बुद्धिजीवियों के समक्ष रख दिया है। साथ में यह भी बता दिया कि जिस देश को डॉक्टर अंबेडकर ने क़ानून व्यवस्था, बैंक व्यवस्था, कार्यपालिका, न्याय-पालिका एवं विधायिका जैसी व्यवस्था दी। वहीं दूसरी तरफ़ समस्त मानव जाति को उसके अधिकारों की कुंजी दी। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का रास्ता दिखाया। ऐसे अंबेडकर और गाँधी के देश में हरिजन के साथ यदि कोई भी घटना घटित होती है तो वह पूरी तरह सवर्ण वर्ग की कूटनीति को बयाँ करती है।

इससे यह साबित होता है कि दलित वर्ग का जीवन 100% में 20% संविधान के पन्नों पर शोषण से मुक्त हुआ है। अस्सी प्रतिशत अभी भी दलित जीवन सवर्णों के मानसिक शोषण का शिकार है। शहरी ग्रामीण वातावरण में अभी भी शोषण प्रक्रिया व्याप्त है। शोषण की इस प्रक्रिया में सवर्ण के साथ बहुजन वर्ग के यादव संलिप्त हैं। बहुत से गाँव ऐसे हैं जो यादव बहुल होने के कारण वह अपने से निम्न वर्ण का शोषण कर उन पर अत्याचार करते हैं। मूलसिंह के साथ हुई द्विजों द्वारा कूटनीति को रचनाकार सजगता से उकेरते हुए लिखते हैं, “पूरे गाँव में सन्नाटा था। अगले दिन चमरियाने और वाल्मीकि बस्तियों में ब्राह्मणों और बनियों द्वारा उकसाये गए यादवों की बेहूदगी को लेकर एक आतंक-सा छाया हुआ था। बाहुबल प्रदर्शन की अगुवाई यादवों ने ही की थी। सवर्णों के इशारे पर उनके मुफ़्त के सैनिकों की तरह। अतः उन्हें दबे स्वर में मन मसोसकर गालियाँ दी जा रही थीं।10 घटना के घटित होने के बाद दलित स्त्रियों के मन में सवर्ण कारिंदों के लिए बद्-दुआ निकल रही थी। लेखक के शब्दों से साफ है कि जब भी दलित समाज के व्यक्तियों के साथ हिंसा होती है तो उसका शिकार सबसे ज़्यादा दलित स्त्रियाँ होती हैं जो किसी भी वर्ग की दृष्टि से ओछाल नहीं है। भारतीय समाज में जाति इतने गहरे बैठ गई है कि यदि किसी दम्पति को खोया हुआ बच्चा मिलता है तो उस दम्पति को बच्चे का नाम जानने से ज्यादा बच्चे की जाति जानने की जिज्ञासा तीव्र होती है। जाति को निश्चित करने के लिए भारद्वाज दम्पति आधुनिक चिकित्सा पद्धति का ग़लत प्रयोग करते हैं। जाति है कि जाति नहीं है। व्यक्ति की जाति पहले आती है। इसको लेखकआँच की जाँचकहानी के सवर्ण पात्रभारद्वाजके कथनों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, “हमारे यहाँ हर माँ अपने दूध में जाति पिलाती है। हर संस्था जाति पहचान कराती है। पर, इसे तो कुछ भी मालूम नहीं है। इससे मुझे डाउट होता है कि यह बच्चा हाइकास्ट नहीं है, होता तो इसने ज़रूर सुना होता। यह तो मुझे एससी/ एसटी या म्लेच्छ लगता है। भारद्वाज जी ने डॉक्टर से दु:खी मन के साथ कहा।11 एक तरफ़ भारत देश को आज़ाद हुए 75 वर्ष हो गए हैं दूसरी तरफ़ आधुनिकीकरण के दौर ने विकास के नए-नए रास्ते खोले, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत नई दुनिया में दस्तक दे रहा है, साथ ही भूमंडलीकरण बाज़ार को घर-घर भेजकर नए-नए आविष्कार कर रहा है तो वहीं एक ओर ऐसा भी वर्ग है जो मानव की जाति ढूँढने में अपनी सारी ऊर्जा और जनता का धन बर्बाद कर रहा है। पैसे का क्या है जाति महत्त्वपूर्ण है। इससे पता चलता है कि व्यक्ति की जाति जितनी महत्त्वपूर्ण उतना व्यक्ति महत्त्वपूर्ण नहीं है। भारद्वाज जैसे लोगों के लिए एससी या मुस्लिम होना शर्म की बात होना है। वहीं ब्राह्मण होना अहं का विषय हो जाता है। एक ओर जहाँ सवर्ण वर्ग परिवार-वाद की निंदा करता है। लेकिन जब जातिवाद का विरोध करने की बात आती है तो चुप्पी साधकर मूक-दर्शक बन जाते हैं। सवर्ण वर्ग की इस कूटनीति को लेखक कुछ ऐसे उद्धृत करते हैं, “हम राजनेताओं के परिवारवाद का विरोध करते फिरते हैं। अपने बच्चों के परिवार विदेशों में बसाते हैं और देश के भूले-बिसरे बच्चों की हम जात-धर्म खोजते रहते हैं। हम सार्वजनिक का सत्यानाश कर निजी संस्थाओं के परिवारवाद को बढ़ावा देते हैं। ......अविद्या, भूख ग़रीबी, बेरोज़गारी से भरा इंडिया और इंडिपैंडैंट किससे? महज विदेशियों से या स्वदेशी शिक्षा माफ़िया से? भूमि-भवन चारों से, काला बाजारियों से अस्पृश्यतावादियों से या सत्ता के तलवे चाटू मीडिया से।12 हम जिस भारत की संकल्पना किए थे उसमें जातिवादी जड़ को खत्म कर पीढ़ियों को शिक्षा की तरफ़ मोड़ना था। जिसमें सबका भविष्य उज्ज्वल हो, सवर्ण समाज के साथ-साथ दलित समाज को कदम से कदम मिलाकर चलने को मिलेगा। किन्तु ऐसा ना होकर ठीक उलट हुआ। सवर्ण वर्ग की कूटनीति के चलते दलितों और आदिवासियों की अस्मिता का हनन हो रहा है। एससी/ एसटी का भविष्य हाशिए पर खिसकता जा रहा है। सवर्ण जाति खोजो कूटनीति के चलते हर कोई जाति खोजने में समय व्यतीत कर सत्ता के लोभियों को नए आयाम दे रहा है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ इसमें अहं भूमिका अदा कर रहा है। अगली कड़ी में लेखक कहानी के पात्रडॉ. क्रांतिलालके माध्यम से सवर्ण वर्ग की कुटिलता को खारिज करते हुए भारतीय संविधान की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, “भारद्वाज जी संविधान के अनुच्छेद पंद्रह और सत्रह भी ज़रा देख लें और जात छोड़कर समान नागरिकता की ओर बढ़ने की शुरुआत करें। अवश्य, डॉक्टर साहब, संविधान अंबेडकर जी का हो या मनु महाराज जी का हम तो उस की पूजा करने वाले हैं। हर चीज पूजा के लिए नहीं है भारद्वाज जी, कुछ चीजें जिंदगी में उतारने के लिए भी होती हैं और हाँ बदलिए अपने आप को, ....छोड़िए जात-पाँत की चिंता। इंसान का बच्चा है, बच्चे में इंटरेस्ट लीजिए।13 संविधान समाज के प्रत्येक नागरिक को आज़ादी से जीने का अधिकार प्रदान करता है। साथ ही व्यवस्था में अराजक तत्त्वों के प्रति संविधान तीखी दृष्टि अख्तियार कर, निम्न तबकों के लोगों को सवर्ण कूटनीति से सुरक्षा मुहैया कर, भारत के हर व्यक्ति को समानता के सूत्र में गढ़कर उनमें चेतना जागृत करता है। लेखक डॉ. क्रांतिलाल का प्रतिनिधित्व करते हुएभारद्वाजजैसे कुटिल कूटनीतिज्ञ को संविधान का सबक याद करवाते हुए संपूर्ण बौद्धिक वर्ग की चेतना का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

            समग्रता में यह देखा जा सकता है कि लेखक ने अपनी इस रचना में भारतीय विविधता को अभिव्यक्त करते हुए सामाजिक दायित्वबोध का उल्लेख किया है। साथ ही अपने इस कहानी संग्रह में दलित जीवन की कठिनाइयों, विवशता, भूखमरी, शिक्षा के प्रति ललक, सवर्ण वर्ण  की दलित आरक्षण को हथियाने की कूटनीति, सवर्ण वर्ग का दलित स्त्री के प्रति दोहरे चरित्र एवं हो रही सांविधानिक हत्याएँ आदि को रचनाकार ने अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाया है। लेखक ने इस कहानी संग्रहमेरी प्रिय कहानियाँमें उद्धृत एक-एक कहानी वास्तविक जीवन मूल्यों पर सवर्ण वर्ग द्वारा किए जा रहे कूटनीति के हर्फों को परत-दर-परत खोलते हुए उनको बहुत बड़े पाठक वर्ग के सामने लाकर खड़ा कर दिया है। जीवन की वास्तविक तसवीर जो पहले के लेखन में यानी आंदोलनों में लिपिबद्ध नहीं हुई, उस छल को बड़ी ही सजगता से रचनाकार ने कहानियों में अभिव्यक्त कर दिया है। दमन, शोषण, हिंसा, दलित अधिकारों के हनन की एक लंबी फ़ेहरिस्त इन कहानियों में संदर्भित है।

संदर्भ :
1. वरिष्ठ प्रो. श्यौराज सिंहबेचैन’, ‘क्रीमी लेयर’, मेरी प्रिय कहानियाँ, राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2019, दूसरी आवृति संस्करण-2022, पृष्ठ सं. 17
2. वही, पृष्ठ सं. 20
3. बस्स इत्ती-सी बात, पृष्ठ सं. 27
4. वही, पृष्ठ सं. 37
5. कलावती, पृष्ठ सं. 42
6. वही, पृष्ठ सं. 44-45
7. शिष्या-बहू, पृष्ठ सं. 62
8. रावण, पृष्ठ सं. 99
9. वही, पृष्ठ सं. 100
10. वही, पृष्ठ सं. 100
11. आँच की जाँच, पृष्ठ सं. 111
12. वही, पृष्ठ सं. 116
13. वहीं, पृष्ठ सं. 121
 

अनिल
शोधार्थी, सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात, गाँधी नगर, 382030
anilk9445@gmail.com, 9958495780

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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