शोध आलेख : ‘अनुसंधान’ का अकादमिक और व्यावहारिक पक्ष / धर्मेंद्र प्रताप सिंह

अनुसंधान का अकादमिक और व्यावहारिक पक्ष
- धर्मेंद्र प्रताप सिंह

शोध सार : अनुसंधान की गुणवत्ता को लेकर निरंतर चर्चा-परिचर्चा होने के साथ-साथ नये नियम भी बनते जा रहे हैं। लंबे समय से इसे सही दिशा में लाने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन ये सभी प्रयास असफल सिद्ध हो रहे हैं। वर्ष 2018 में हिन्दी अनुसंधान के सौ वर्ष पूर्ण हुए। अब वह समय चुका है कि उन मूल कारणों की पड़ताल होनी चाहिए जो शोध के स्तर को गिरा रहे हैं। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से शोध शब्द के मूल उत्स को व्याख्यायित कर उससे अनुसंधित्सु को परिचित कराना है, जिससे अनुसंधान को समाज और देश के हित में लाया जा सके। शोध शब्द स्वमेव अपने ध्येय को उद्घाटित कर देता है बस उसे समझकर ईमानदारी से अपने साध्य की ओर बढ़ने की जरूरत है। प्रस्तुत आलेख में शोध शब्द की व्याख्या के साथ शोधार्थी-निर्देशक की भूमिका, शोध में तकनीक का उपयोग आदि का उल्लेख करते हुए शोध के व्यावहारिक पक्षों पर विचार किया गया है।

बीज शब्द : शोध, अन्वेषण, अनुसंधान, आलोचना, समालोचना, अनुशीलन, परिशीलन, गवेषणा, पर्यवलोकन, परिकल्पना, रूपरेखा, आंकलन, यू. जी. सी. केयर, वेब ऑफ साइंस, पियर रिव्यूड जनरल, मानविकी, वरिष्ठता क्रम, शोध सोपान।  

मूल आलेख : शोध एक ऐसा पद है, जो जीवन के सभी क्षेत्रों में नवीनता और सार्थकता का पोषण करता है। शुध् धातु से निर्मित शोध1 का अर्थ- शुद्धि, सफाई, शुद्ध करने की क्रिया, संस्कार खोज, अनुसंधान, रिसर्च आदि लिया जाता है। शोध को स्पष्ट करते हुए बेस्ट जॉन कहते हैं कि- "हमारी सांस्कृतिक उन्नति का रहस्य शोध में निहित है। शोध नये सत्यों के अन्वेषण द्वारा अज्ञान के क्षेत्रों को लुप्त कर देता है और वे सत्य हमें कार्य करने की उत्कृष्टतर विधियाँ और श्रेष्ठ परिणाम प्रदान करते हैं।"2  शुद्ध वस्तु और विचार प्रामाणिक, मानक और सर्वग्राह्य होते हैं। हिन्दी साहित्य में शोध के पर्याय के रूप में अनुसंधान3 (अन्वेषण, खोज, जाँच-पड़ताल, प्रयत्न, योजना, आयोजन, व्यवस्थित करना), ‘गवेषणा4 (खोई हुई गाय को खोजना, छानबीन, किसी विषय का विशेष परिश्रम और सावधानी के साथ अध्ययन तथा छान-बीन, अन्वेषण), परिशीलन5 (स्पर्श, लगाव, किसी विषय पर पूरी तरह विचार करते हुए उसे पढ़ना, सम्यक् अध्ययन), अनुशीलन6 (सतत् तथा गंभीर अभ्यास, नियमित अध्ययन), समालोचना7 (अच्छी तरह देखना, निरीक्षण करना, किसी वस्तु, कृति, व्यक्ति आदि के गुण-दोष का सम्यक् विचार करना, गुण-दोष का विचार प्रस्तुत करने वाला निबंध), आलोचना8 (देखना, गुण-दोष का विवेचन), सर्वेक्षण9 (पर्यवलोकन, किसी काम को या किसी क्षेत्रादि को आदि से अंत तक, एक छोर से दूसरे छोर तक स्थूल रूप से देखना, जाँचना, समझना), समीक्षा10 (सम्यक् परीक्षा, समालोचना, देखने की इच्छा, दृष्टिपात, राय, सम्मति, प्रज्ञा, अन्वेषण, अनुसंधान, प्रयत्न), ‘मूल्यांकन11 (मूल्य निर्धारित करने की क्रिया, पुस्तक की रचना की समीक्षा, सामान्य साहित्य परीक्षण), रिसर्च (Re+Search- पुनः+खोज), डिस्कवरी (dis+cover बिना+ढँका हुआ) आदि शब्दों को किसी किसी रूप में शोध के पर्याय के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है, जो क्षेत्र विशेष में नवीन-नूतन चिंतन और विचार के परिचायक हैं। इसे परिभाषित करते हुए एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी ऑफ करेंट इंग्लिश में कहा गया है कि- “किसी भी ज्ञान की शाखा में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानीपूर्वक किए गए अन्वेषण या जाँच-पड़ताल को शोध कहते हैं।12 शोध जीवन को समृद्ध, सुंदर और सहज बनाने की दिशा में किया जाने वाला सतत् प्रयास है, जो मानव की उत्पत्ति और सभ्यता के विकास से जुड़ा हुआ है। अमेरिकन कॉलेज डिक्शनरी में अनुसंधान के संदर्भ में कहा गया है कि- “अनुसंधान से अभिप्राय तथ्यों एवं प्रनियमों की खोज हेतु किसी विषय विशेष में की जाने वाली परिश्रमपूर्ण एवं सुव्यवस्थित पूँछताछ या जाँच-पड़ताल से है।13 यहाँ सुव्यवस्थित का तात्पर्य ऐसी व्यवस्था से है जो वृहद जन समुदाय को सही दिशा देने के साथ व्यापक रूप से अनुपालन के योगय हो। सी. आर. कोठारी अनुसंधान को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि- “अनुसंधान पद से तात्पर्य एक ऐसी व्यवस्थित विधि से है, जिसमें सोपानों के रूप में समस्या की पहचान, परिकल्पना का निर्माण, तथ्य तथा प्रदत्तों का संकलन, संकलित तथ्यों का विश्लेषण तथा कुछ ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचाना निहित रहता है जिसकी अभिव्यक्ति समस्या विशेष के हल अथवा सैद्धांतिक आधार के रूप में सामान्यीकृत धारणाओं के रूप में दिखाई देता है।14 यहाँ कोठारी जी शोध के सभी चरों का उद्घाटन करते हैं जो विषय चयन से प्रारम्भ होकर निष्कर्ष तक पहुँचता है। शोध की प्रक्रिया मानव जीवन के विकास के साथ निरंतर प्रवहमान है जो जीवन को बेहतर बनाने में मदद करता है।

            ‘शोध सरल सा दिखने वाला पद जीवन के सभी अंगों से सम्बद्ध है और इसके माध्यम से किसी व्यक्ति, पदार्थ या विचार के संबंध में सतत् चिंतन को आधार बनाकर सामाजिक उपादेयता सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। नैतिक ईमानदारी इसकी पहली शर्त है। जीवन में शोध के महत्व को देश का किसान, मजदूर, व्यापारी, कामगार आदि सभी समझते हैं लेकिन वह शिक्षा-संसाधन के अभाव में प्रस्तुतीकरण और प्रचार-प्रसार नहीं पाता। आज कृषि और तकनीकी के क्षेत्र में शोध ने नई क्रांति पैदा की है। खाद्यान्नों की नई प्रजातियाँ इसका जीवंत उदाहरण हैं। गेहूँ, चावल, गन्ना, आम, नारियल, जानवरों की नई नस्लें आदि सभी निरंतर हो रहे शोधों का ही परिणाम है जो युवाओं को रोजगारोन्मुख शिक्षा के लिए प्रेरित कर रहे हैं। व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा, उद्योग, कृषि, जनसंचार आदि सभी अनुसंधान के महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। शोध कार्य में समस्या (विषय) का चुनाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चयनित समस्या के समाधान के लिए निरंतर किए गए प्रयास शोध प्रक्रिया के महत्वपूर्ण सोपान हैं। शोध के लिए पूर्व में किए गए आंकलन, परिकल्पना, शोध की आवश्यकता और उसके लिए समय और धन के खर्च से संबंधित आंकलन अत्यंत आवश्यक है। समस्या के संदर्भ में शोधकर्ता की समझ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और सम्यक् परिणाम की अपेक्षा करते हुए शोध कार्य में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है। किसी भी शोध को सही दिशा में ले जाने के लिए पूर्वाग्रह और नकारात्मकता का त्याग आवश्यक है। विषय चयन और रूपरेखा (सिनॉप्सिस) के आधार पर शोध संस्थाओं को समय और उसमें आने वाले खर्च की जानकारी शोधार्थियों से लेने की जरूरत है, जिसकी कमी आज के समय में दिखाई दे रही है। विषय क्षेत्र के अनुरूप कहीं कहीं शोधकर्ताओं की जवाबदेही तय करने की जरूरत है जिससे समाज और देश में वह विश्वसनीय हो सकें।

            आज का समय तकनीक क्रांति का है जिसके उपयोग से शोध विषय की पुनरावृत्ति को रोकने के साथ की नित्य नवीन विषयों पर हो रहे शोध की जानकारी तत्काल लाभार्थियों तक पहुँच जाती है। आंकड़ों के संकलन और विश्लेषण में तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कंप्यूटर द्वारा विश्लेषित आंकड़ों में त्रुटि की संभावना नगण्य होती है। शोध विषय के चयन, शोध सामग्री की उपलब्धता का पता लगाने और परिकल्पना निर्मिति से लेकर रिपोर्ट लेखन में कंप्यूटर का उपयोग हो रहा है। आज यह शोध का अभिन्न अंग बन चुका है। शोध प्रबंध को अंतिम रूप देने में कंप्यूटर ने सबसे बड़ी भूमिका निभायी है। इसने शोधार्थियों के श्रम के साथ-साथ समय की भी बचत की है। शोध रिपोर्ट को सुंदर और आकर्षक बनाने में भी कंप्यूटर बड़ा सहायक सिद्ध हुआ है। तकनीक जहाँ शोध में सहायक हो रही है वहीं इसके खतरे भी हैं। इस ख़तरे से सचेत करते हुए डॉ. नगेंद्र  लिखते हैं- “पश्चिम के देशो में, विशेषकर उन देशो मे जिनके पास अपार भौतिक साधन है, इन साधनों का उपयोग करने का लोभ इतना बढता जा रहा है कि उससे गंभीर चिंतन को खतरा पैदा होने लगा है प्रत्येक क्षेत्र में अनुसंधान का विधि-विज्ञान अधिकाधिक यांत्रिक होता जा रहा है और ऐसा लगता है जैसे सभी प्रकार का ज्ञान-विज्ञान मानव चेतना की क्रिया होकर भौतिक क्रियाओ का संघात मात्र हैं। इसलिए साहित्य के अनु-संधाता को सतर्क होकर इस यंत्र-व्यूह मे प्रवेश करना चाहिएऔर कुछ ऐसे सिद्ध मंत्र हैं जिनका ध्यान बराबर रखना चाहिए।15

            ‘शोध की प्रक्रिया को सरल या कठिन बनाना शोधकर्ता पर निर्भर होता है। विवेच्य प्रक्रिया से गुजरते हुए शोधार्थी द्वारा अनुसंधान के लिए चुना गया मार्ग स्वयं का होना चाहिए कि किसी अन्य के द्वारा सुझाया गया। शोधकर्ता यदि स्वयं ही समस्या का चुनाव कर उसके समाधान के उपायों की पड़ताल करेगा तो अपेक्षाकृत आसानी से अपने लक्ष्य तक पहुँचता है लेकिन यहाँ अनुभवी निर्देशकों की जरूरत है। सही मार्गदर्शन के अभाव में शोधकर्ता की परिकल्पना किसी अन्य के द्वारा सुझाए गए रास्ते से लक्ष्य से भटकने की संभावना होती है। अध्ययन और गंभीर चिंतन-मनन के बाद तैयार की गयी परिकल्पना ही शोधार्थी को भटकाव से बचाती है। एस. एन. गनेशन ने परिकल्पना के संदर्भ में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि- “विषय का थोड़ा बहुत अध्ययन करने के बाद उससे कुछ तथ्य और उनको अनुचालित करने वाले कुछ नियम दृष्टिगत होने लगते हैं। इस दशा में सम्पूर्ण प्रासंगिक सामग्री का संकलन- अध्ययन हुआ होता है, बनाये जाने वाले सिद्धान्तों के पूर्ण और अकाट्य प्रमाण मिले होते हैं, किन्तु इनके मिलने की आशा रहती है। ऐसे तात्कालिक समाधान या सिद्धान्त को संकल्पना या प्रसिद्धान्त या प्रकल्पना (Hypothesis) कहा जाता है।16 परिकल्पना ही किसी शोध की रूपरेखा तय करती है। यह सच है कि शोधकर्ता को सही दिशा देने के लिए अनुभवी परामर्शदाता की जरूरत सदैव रहती है और संबन्धित समस्या के क्षेत्र में निपुण निर्देशक शोधार्थी को सही दिशा में सहजता से ले जा सकता है। बैजनाथ सिंहल शोध निर्देशक के उत्तरदायित्व के संबंध में कहते हैं कि- “शोध के प्रत्येक स्तर और स्थल पर निर्देशक ही विषय प्रसारण, तथ्यों की न्यायसंगतता, उनके विश्लेषण और निष्कर्षो के खरेपन की जाँच-पड़ताल में प्रेरणा और दिशा प्रदान कर सकता है। इस प्रकार निर्देशक का कार्य मार्ग बतलाना है। इसके साथ ही निर्देशक शोधार्थी को मानसिक दुर्बलताओं और धैर्यहीनता पर विजय पाने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस प्रकार शोध और शोधार्थी से सीधे और परोक्ष रूप में संपृक्त सभी समस्याओं का समाधान निर्देशक को ही करना होता है।17

            उच्च शिक्षण संस्थानों को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह शोध को सही दिशा प्रदान कर समाज तक ले जाए जिससे इस क्षेत्र में किये जा रहे खर्च का समाज और देश के हित में उपयोग हो सके। शिक्षण संस्थाओं में गिरते शोध के स्तर को लेकर सभी चिंतित हैं और लंबे समय से इसमें सुधार का प्रयास कर रहे हैं। सतत् प्रयत्न के बावजूद इसकी दशा में सुधार नहीं हुआ। यू.जी.सी. लिस्ट, यू. जी. सी. केयर, पियर रिव्यू जनरल, स्कोपस, वेब ऑफ साइंस आदि सभी के बावजूद शोध नैतिकता से कोसों दूर है और स्तर में सुधार होता नहीं दिख रहा। शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और विकास के साथ समस्या थी कि अनुसंधान कैसे शुरू किया जाए? इल रामचरितमानस इल रामायण विषय पर 1911 में लुइजि पिओ तेसीतरी द्वारा इटैलियन में लिखा गया लेख हिन्दी अनुसंधान में मील का पत्थर साबित होता है। इसके बाद लंदन में 1918 में जे. एन. कार्पेंटर ने थियोलोजी ऑफ तुलसीदास हिन्दी शोध के लिए दूसरा महत्वपूर्ण प्रयास रहा। समय व्यतीत होने के साथ अनुसंधान की संख्या बढ़ी है और अब गुणात्मक और समाजोपयोगी शोध पर विचार करने की जरूरत है। उच्च शिक्षण संस्थानों में वरिष्ठता के आधार पर शोध समिति का गठन शोध की गुणवत्ता में गिरावट का प्रमुख कारण है। ऐसे सदस्यों का चुनाव उनके कार्य और उपलब्धियों के आधार पर किया जाना चाहिए जो कि नहीं हो रहा है। समिति में अपने जानने वाले शिक्षक मित्रों को रखकर रद्दी-से-रद्दी विषय पर गलत ढंग से शोध करवाया जा रहा है। यह किसी भी तरह देश और समाज के हित में नहीं है। इसके लिए यूजीसी के कुछ नए नियम जरूर बनाए, लेकिन उसे सही तरह लागू करने में समय लगेगा।

            अनुसंधान में केवल नियम जरूरी नहीं। इसके लिए नैतिकता आवश्यक है, जिसका अनुपालन शोधार्थी स्वयं करे। नैतिकता का पाठ हमें प्रारंभिक कक्षाओं में पढ़ाया जाता है और उसी के साथ हमें जीवन में सफलता के गुर भी सिखाए जाते हैं जिसमें यह बताया जाता है कि हम सामने वाले को किस तरीके से पीछे छोड़ सफलता प्राप्त करें, चाहे उसकी कीमत हमें कुछ भी चुकानी पड़े। शोध में नैतिकता एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिसके बिना सम्पूर्ण अध्ययन और विश्लेषण का सही उपयोग नहीं हो पाता है। नैतिकता के बिना शोध के मापदंड लागू नहीं किये जा सकते। नैतिकता ही आपको उन कार्यों से रोक सकती है जो शोध के स्तर को गिरा रहें हैं। इसकी शुरुआत उन शिक्षकों से होनी चाहिए जिनको यह जिम्मेदारी दी गई है। इसके साथ माँ-बाप और अभिभावकों को भी बच्चों में इस दृष्टि को लेकर प्रारंभ से ही सचेत होने की जरूरत है। शिक्षक कोई कार्य को देता है तो अभिभावक प्रारम्भिक कक्षाओं से ही सहायक सामग्री के रूप में पुस्तक/कंप्यूटर/इंटरनेट से उसको बिना संदर्भ दिये सामग्री उपलब्ध करा देते हैं और यही आदत बच्चों के कोमल मन पर अंकित होता जाता है जो जीवनपर्यंत जारी रहता है। ऐसी दशा में कम-से-कम संदर्भित स्थान का उल्लेख करते हुए आभार ज्ञापन की प्रवृत्ति बच्चों में अवश्य विकसित करनी चाहिए। यही वह पायदान है जहाँ अनजाने में सही हम छात्रों के भीतर सामाग्री चोरी का भाव पैदा होता है और उसे समझ नहीं पाते।

            आज की बड़ी समस्या है कि नैतिकता को किस रूप में परिभाषित किया जाए और उसका निर्धारण कहाँ से हो? उसका प्रारंभ कहाँ से किया जाए? क्योंकि जब हमारे देश और समाज में सब-कुछ बाजार के हवाले किया जा चुका है तो ऐसे में नैतिकता कितना मायने रखती है? यह भी विचार करने की जरूरत है। बाजार के माध्यम से जो भी चीजें हमारे बीच रही हैं वह नैतिक तो कदापि नहीं हो सकती है। बाजार मुनाफे के लिए होता है और मुनाफे में नैतिकता कहाँ तक जायज हो सकती है, यह बात पुरानी हो चुकी है कि दुकानदार को कम से कम इतना फायदा होना चाहिए कि वह अपनी आजीविका चला सकें। आज जो भी विक्रेता है वह अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहता है और यह भारतीय समाज के प्रत्येक क्षेत्र के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।

निष्कर्ष : हमारे भीतर नैतिकता और आदर्शों की क्रिया-प्रतिक्रिया शामिल रही तो निश्चय ही हम समाज को कुछ लाभदायक दे पाएँगे। शोधार्थियों के लिए ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे धन उनके शोध कार्यों में बाधा पहुँचाये और उन्हें किसी भी प्रकार के संसाधनों की कमी महसूस हो। यह जिम्मेदारी हमारे शैक्षिक संस्थानों और सरकार को निभाने की जरूरत है। आज भारत में अनुसंधान के क्षेत्र में जो भी खर्च हो रहा है वह जरूरत से काफी कम है। शोध में बंदरों की चंचलता जैसा व्यवहार कदापि उचित नहीं है जो रातों-रात आम की गुठली से फल खाने की इच्छा करते हैं। ऐसे लोगों को इस क्षेत्र में प्रवेश करने की जरूरत नहीं है क्योंकि शोध की प्रक्रिया लंबी और रास्ता चुनौतियों से भरा होता है। शोधार्थी और शिक्षक के लिए यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक रिसर्च में सकारात्मक परिणाम ही मिले जिसके लिए तो आज का शिक्षक तैयार है ही शोधार्थी। शोध संस्थाओं द्वारा तय किए जा रहे नित-नए नियम निर्देशक और शोधार्थी दोनों के भीतर से वह इच्छा शक्ति खत्म कर रहे हैं जिससे नया करने की संभावना होती है। समाज में अपने ज्ञान को फैलाने की प्रक्रिया इसका उद्देश्य होना चाहिए। दूसरी बार किया गया प्रयास हमेशा पहले प्रयास  से बेहतर होता है यदि वह ईमानदारी से किया गया हो। इसके लिए शोधकर्ता को पूरी छूट मिलनी चाहिए। ज्ञान का प्रसार, रोजगारोन्मुख अनुसंधान, समय और खर्च का सही अनुमान, कुशल निर्देशन, प्रचुर सामाग्री के बीच नीर-क्षीर-विवेक की योग्यता ही अनुसंधान को सही दिशा में ले जा सकती है। आज के समय में छात्रवृत्ति बचाने के उद्देश्य से पीएच. डी. में प्रवेश लेना, पारिवारिक और सामाजिक दबाव आदि सभी शोध के क्षेत्र में बड़ी चुनौती है। उच्च शिक्षण संस्थानों में बैठे बुद्धिजीवी और नीति-नियंताओं ने जो स्तर पिछले 100 वर्षों में बिगाड़ा है उसे मजबूत इच्छाशक्ति के द्वारा ही सुधारा जा सकता है।       

संदर्भ :  

  1. बृहद हिन्दी कोश, संपा- कालिका प्रसाद एवं अन्य, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, संस्करण-2016, पृष्ठ-1144
  2. अनुसंधान प्रविधि : सिद्धान्त और प्रक्रिया- एस. एन. गणेशन, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण-2015, पृष्ठ-15)
  3. बृहद हिन्दी कोश, संपा- कालिका प्रसाद एवं अन्य, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, संस्करण-2016, पृष्ठ-56
  4. वही, पृष्ठ- 317
  5. वही, पृष्ठ-657
  6. वही, पृष्ठ-55
  7. वही, पृष्ठ- 1205
  8. वही, पृष्ठ-136
  9. वही, पृष्ठ-136
  10. वही, पृष्ठ-1206
  11. वही, पृष्ठ-912
  12. शोध : सिद्धान्त और प्रक्रिया, डॉ. एस. के. श्रीवास्तव और डॉ. रोहित कुमार बारगाह, एक्सेलर बुक्स, कोलकाता, 2021, पृष्ठ- 09
  13. व्यावहारिक विज्ञानों में अनुसंधान विधियाँ, एस. के. मंगल और शुभ्रा मंगल, पीएचआई प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ- 03
  14. वही, पृष्ठ- 04)
  15. आस्था के चरण, डॉ. नगेंद्र, नेशनल पब्लिसिंग हाउस, नई दिल्ली,  1980, पृष्ठ-86
  16. अनुसंधान प्रविधि : सिद्धान्त और प्रक्रिया-एस. एन. गणेशन, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण-2015, पृष्ठ-47
  17. शोध : स्वरूप एवं मानक व्यावहारिक कार्यविधि, बैजनाथ सिंहल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2016, पृष्ठ-63
धर्मेंद्र प्रताप सिंह
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कासरगोड, केरल
dpsingh777@gmail.com, 9453476741

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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