शोध आलेख : 'पारिजात' में निहित सांस्कृतिक मूल्यों का विश्लेषण / शना परवीन

'पारिजात' में निहित सांस्कृतिक मूल्यों का विश्लेषण
- शना परवीन

शोध सार : साहित्य के माध्यम से हम समाज, सभ्यता और संस्कृति को गहनता से समझ सकते हैं। प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति रही है। इसलिए समाज के चित्रण के साथ-साथ संस्कृति स्वत: ही साहित्य में परिलक्षित हो जाती है। नासिरा शर्मा समकालीन हिंदी साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं। इनका सांस्कृतिक बोध अनुपम है और पारिजात' उपन्यास इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इस आलेख का उद्देश्य 'पारिजात' में निहित सांस्कृतिक मूल्यों का विश्लेषण करना है। पारिजात' नासिरा शर्मा की सृजनात्मकता का निचोड़ माना जा सकता है। इस उपन्यास में इन्होंने उत्कृष्ट भाषा-शैली में भारतीय संस्कृति से लगाव और संवेदनाओं को चित्रित किया है। साथ ही आज की पीढ़ी में रहे बदलाव, स्त्री की भारतीय और पाश्चात्य छवि को भी तर्कों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। उपन्यास के पात्रों को अनेक मनोभावों से गुजारते हुए सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति लेखिका ने अच्छा ध्यान आकर्षित  करने के साथ-साथ समकालीन महिला लेखन को समृद्ध किया है। तीन प्रगाढ़ मित्र परिवारों की जीवन-गाथाओं कहानियों के माध्यम से अनेक संस्कृतिगत परतें खुलती जाती हैं। इन्हीं संस्कृतिगत परतों का अध्ययन इस आलेख में किया गया है।

बीज शब्द : संस्कृति, सांस्कृतिक मूल्य, लोक-संस्कृति, लखनऊ और इलाहाबाद की संस्कृति, परिवार, भारतीय संस्कृति, शिया संस्कृति, मुस्लिम समाज, सांप्रदायिक सौहार्द।

मूल आलेख : जब से मानव जीवन अस्तित्व में आया, तब से वह निरंतर उन मूल्यों की ओर अग्रसर है, जिनको प्राप्त कर लेने पर उसका जीवन व्यवस्थित होने के साथ-साथ आत्मिक सौन्दर्य से भी परिचित हो सका। उसकी यह प्रवृत्ति वास्तव में संस्कृति की ओर इशारा करती है, क्योंकि संस्कृति ही ऐसे मूल्यों की स्रष्टा, पोषिका और परिचालिका है। संस्कृति शब्द की उत्पत्ति संस्कारशब्द से हुई है। प्राचीन काल में संस्कृति के लिए संस्कारशब्द ही प्रयुक्त होता था।1 अतः परिमार्जन, परिष्कार के अतिरिक्त शिष्टता एवं सौजन्य का भाव संस्कृति में निहित है। संस्कृति में निरंतरता का गुण विद्यमान होता है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार एक पीढ़ी आती है। वह अपने आचार-विचार, रूचि-अरूचि, कला-संगीत, भोजन-छाजन और किसी दूसरी आध्यात्मिक धारणा के बारे में कुछ स्नेह की मात्रा अगली पीढ़ी के लिए छोड़ जाती है। एक पीढ़ी के बाद दूसरीदूसरी के बाद तीसरी और आगे बहुत सी पीढ़ियाँ आती जाती रहती हैं और सभी अपना प्रभाव या संस्कार अपनी पीढ़ी पर छोड़ती जाती है। यही प्रभाव संस्कृति है।2 इस तरह संस्कृति मनुष्य को एक विशिष्ट दिशा देती हुई युग-युग में मानव के साथ चलती हुई विकास करती है और मानव के रहन-सहन, खान-पान, विचारों, व्यवस्थाओं, प्रथाओं और कलाओं आदि के माध्यम से अपनी पहचान बनाती है।

अब हमारे समक्ष प्रश्न उठता है उन सांस्कृतिक मूल्यों का जिनसे भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान बनी हुई है। भारतीय संस्कृति सार्वभौम आदर्शों से प्रेरित रही है। सत्य की खोज, शील की प्रधानता, करूणा का आदर्श, सत्यं शिवं सुन्दरम् का संकल्प और इन सबके माध्यम से लोकमंगल की कामना इसका मुख्य ध्येय रहा है। कदाचित् भारतीय संस्कृति के इन्हीं गुणों को देखते हुए मैक्समूलर जैसे इतिहासकार स्पष्ट स्वीकार करते हैं "यदि मुझसे पूछा जाए कि मानवता के उत्कृष्टतम मूल्यों का पूर्ण विकास कहाँ हुआ है...तो मैं केवल भारत की ओर संकेत करूँगा और यदि यह पूछा जाए कि जीवन को समग्रता प्रदान करने के लिए, उसमें उच्च आदर्शों को स्थापित करने के लिए, कौन से साहित्य से विशुद्ध-मार्ग-दर्शन प्राप्त करना चाहिए तो मैं पुनः भारत की ओर इंगित करूँगा।"3 सांस्कृतिक मूल्य मनुष्य के जीवन में सुचारूता ला कर उसे जीने योग्य बनाते हैं। सांस्कृतिक मूल्यों के तालमेल द्वारा संस्कृति अपना वैशिष्टय बनाए रख पाती है।  

नासिरा शर्मा ने अपने उपन्यास 'पारिजात' में सांस्कृतिक पहलुओं को गहराई से छूकर अपनी विशिष्ट शैली के माध्यम से उसके मायनों को पाठकों तक पहुँचाया है। जैसे रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति को जीने का एक ढंग मानते हैं"संस्कृति ज़िन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा हो कर समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं।"4 यही बात 'पारिजात' में चरितार्थ हुई है। इस उपन्यास में हम देखते हैं कि लखनऊ और इलाहाबाद शहर में सदियों से छाई संस्कृति के विभिन्न रंग बिखरे हुए हैं। इलाहाबाद अपनी जीवन्तता से सभी को आकर्षित कर लेता है। यहाँ दीपावली पर सगुन स्वरूप 'दीये' उपहार के रूप में दिए जाते हैं। ये दीये आने वाले हर्ष, उल्लास प्रगति के प्रतीक होते हैं। जब रोहन की महिला मित्र एलेसन पहली बार इलाहाबाद आती है तब रोहन की माँ एलेसन को दीये देते हुए कहती है कि "यह लो दीये। आज दिवाली है और तुम इस घर की होने वाली हू तुम्हारे दम से यह घर हमेशा रोशन रहेगा।"5 इस तरह से नासिरा शर्मा रोहन की माँ के द्वारा भारतीय संस्कृति के प्रसारित होने की प्रक्रिया भी दिखाती हैं। साथ ही नासिरा शर्मा इलाहाबाद की अन्य विशेषताओं का चित्रण भी करती हैं। जैसे 'गंगा की आरती' इलाहाबाद का खास आकर्षण है। पारिजात में रोहन जब गंगा के बहते पानी को देखता है तो उसे अपनी माँ के समान अनुभव करता है। इसी तरह हर भारतीय अपने-अपने जीवन अनुभवों के अनुसार गंगा से लगाव महसूस करता है।

पारिजात  में विभिन्न लोकगीतों की उपस्थिति ने उपन्यास को मोहकता प्रदान की है। कहीं इलाहाबादी अमरू की प्रशंसा में गाये जा रहे गीत तो कहीं मुरली की मधुरता आपको भारत की समृद्ध सांगीतिक विरासत से परिचय कराते ही रहते हैं। लोकगीत प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं | 'पारिजात' में इन्हीं मनोहारी गीतों से लोगों के जीवन में हर्ष-उल्लास और उमंग का संचार दिखाई देता है। रोहन और रूही जब गाँव मलीहाबाद पहुँचते हैं तो देखते हैं कि लू और गर्मी के बीच दोपहर के समय महुवे के घने पेड़ के नीचे अपने साथियों के संग बैठा जवान जोश मलीहाबादी की मुरली गाने में मस्त था

"चहके-चहके नर-नारी

सब मिल-मिल बारी-बारी

छलकी पनघट में गगरी

अर्जुन ने धनुक लचकाई

यह किन ने बजाई मुरलिया

हृदय में बदरी छाई |"6

किसी भी समाज के सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान का एक महत्वपूर्ण पहलू जीवन की कलात्मकता है जैसे कि पाश्चात्य विचारक टी.एस. इलियट संस्कृति को उच्चस्तरीय बौद्धिक तथा कलात्मक उत्कृष्टता मानते हैं, वह चाहे एक व्यक्ति से सम्बंधित हो या पूरे समाज से। वह कलात्मकता को संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग मानते हैं जो बौद्धिक विकास होने पर ही संभव है।7 पारिजात  में नासिरा शर्मा इसी ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने की प्रयास करती हैं कि वास्तुकला के बेहतरीन नमूने हमारे ऐतिहासिक शहर धरोहरें आज क्षीण होते जा रहे हैं। हमें इस ओर ध्यान देना चाहिए और अतीत की स्मृतियों को संजोके रखने का प्रयास करना चाहिए। जबकि विदेशों में सदियों पुरानी इमारतें आज भी जीवंत हैं। दर्शकों के आकर्षण का केंद्र हैं। रोहन जब लखनऊ वापस लौटता है तो कहता है, "यह गलियाँ देख कर रोम की गलियाँ याद गई। फिर पल भर रुक कर वह बोसीदा घरों की वास्तुकला को तारीफी नज़र से देखते हुए कहने लगा, "हम अपनी तारीख को किस तरह मिट्टी में मिला देते हैं। बाहर वाले ऐसी जगहों को विशेष आकर्षण का नाम दे कर डॉलर, पाउंड, यूरो कमाते और उससे मेंटेनेंस का खर्च भी निकाल लेते हैं।"8  ये ऐतिहासिक इमारतें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतीक हैं। नासिरा शर्मा संकेत करती हैं कि सांस्कृतिक प्रतीकों का बचाव ज़रूरी है। यहाँ यह तथ्य उजागर करने का प्रयत्न है कि संस्कृति प्रतीकों के माध्यम से पीढी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती है। संस्कृति में प्रतीकों को महत्व देते हुए लेस्ली.. व्हाइट अपना विचार व्यक्त करते हैं"संस्कृति विकासशील और प्रसरणशील होती है और प्रतीकों के माध्यम से अपना कार्य सम्पादित करती है।"9  इस तरह सांस्कृतिक प्रतीकों की महत्ता समझ में जाती है। यदि आज हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को खो देते हैं तो अब से सौ-दो सौ सालों बाद जब इस दौर का इतिहास लिखा जा रहा होगा तो उसमें इन चीजों का ज़िक्र नहीं होगा। भावी पीढ़ी संस्कृति के इस पहलू से वंचित रह जाएगी। 

पारिजात उपन्यास में हम देखते हैं कि वास्तव में भारतीय संस्कृति की कलात्मकता का उत्कृष्टतम विकास गाँवों में हुआ है। यहाँ नासिरा शर्मा अनेक हुनरबाज़ों की चर्चा करती हैं जैसे कहीं कोई बड़े अच्छे दास्तांगो थे तो कहीं कोई शख्स मसनवी ज़हरे इश्क़ पढ़ने में अपना जवाब नहीं रखता था। कहीं लखनऊ के शोहदों, भाँड़ो और साधु बच्चों के फन की चर्चा है। पारिजात में नासिरा शर्मा दिखाती हैं कि जिस भारतीय साहित्य और संस्कृति पर हम गर्व करते हैं, उसके निर्माण में भारत के छोटे से छोटे वर्ग का बड़ा योगदान है जैसे वह उस दौर का स्मरण करवाती हैं जब फ़कीरों के भी खानदान होते थे और वे कैसे मांगते-खाते भारतीय साहित्य संगीत आदि से जुड़े सांस्कृतिक मूल्यों को समृद्ध करने में योगदान दे रहे थे। "उस पुराने लखनऊ की रौनक जब फ़कीरों का काम सिर्फ हाथ फैलाना नहीं होता था। ये मोहल्लों में भीख मांगते नहीं घूमते थे, बल्कि बड़े-बड़े समारोहों में यह बाहर टहलते फ़ारसी के शेर पढ़ते, फब्तियाँ कसते, कभी-कभी खुद नज़्में कह तरन्नुम से गाते।...सुनने वालों के ठठ लग जाते और चंद घंटों में मुनासिब आमदनी हो जाती थी।10  इनमें से कुछ आगे चलकर बड़े कव्वाल बन बैठे। वर्तमान में लोक-कलाओं और कलाकारों के जीवन में परिवर्तन गया है। तकनीक के विकास ने कुछ कलाओं का रूप बदल दिया है, जैसे खेल-तमाशों और नुक्कड़ नाटकों आदि की जगह सिनेमा ने ले ली है, वहीँ कुछ कलाओं को बिल्कुल ख़त्म ही कर दिया है जिससे कुछ कलाकारों के भूखे मरने की नौबत गई। गुड़ियाँ या कठपुतलियाँ आदि बनाने वाले कलाकार तो अपने घरों से ही उजड़ गए और कहीं और जा कर बस गए। इनकी ऐतिहासिक कलाकृतियाँ लगभग विलुप्त हो गई। इतना ही नहीं स्वयं कलाकार भी अपनी कला के प्रति उदासीन हो कर उसे खो देते हैं। वे लिखती हैं, "इनके घरों के पुराने बड़े बक्स में आज भी मूली-गाजर की तरह पुरानी कठपुतलियाँ पड़ी हैं, जो दास्ताने लैला-मजनू, किस्सा--नल दमन, कहानी शीरीं और फरहाद खेला करती थी। पश्चिम के देशों की तरह हिन्दुस्तान में पुरानी ऐतिहासिक कलाकृतियों की वैसी पूछ नहीं है, वरना ये सारे आशिक़ माशूक लाखों, करोड़ों में बिक कर किसी संग्रहालय या अमीरों के घरों की ज़ीनत बने होते।"11 यहाँ नासिरा शर्मा हस्तशिल्प आदि ललित कलाओं के ज्ञाताओं की तरफ़ पाठकों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रही हैं और साथ ही साथ भारतीय संस्कृति में उनके योगदान को भी रेखांकित करती हैं। 

भारतीय संस्कृति में गुरु को माता-पिता से भी ऊँचा दर्जा दिया गया है। समय के साथ इस परंपरा में तो परिवर्तन गया है किन्तु गुरु को आज भी वही सम्मान प्राप्त है। पारिजात में इसी 'गुरु-शिष्य-परम्परा का अद्भुत निदर्शन दिखाई देता है। पत्नी प्रभा के निधन के बाद प्रो. प्रहलाद दत्त को उनका शिष्य निखिल और उसकी पत्नी शोभा जो प्रभा की शिष्या रही है, संभालते हैं। प्रो. दत्त के हर सुख-दुःख में साथ खड़े रहते हैं। प्रो. दत्त के सपनों का महल (बंगले) के बिक जाने पर उनकी इच्छा के अनुसार कोटरा बहादुरगंज में स्थित उनके पुश्तैनी घर की मरम्मत करवाते हैं। निखिल, रोहन और अपनी बचत के पैसे मिला कर प्रो. दत्त के बंगले को अग्रवाल स्वीट वाले से पुनः खरीदकर अपने शिष्यत्व का और रोहन के बड़े भाई का फ़र्ज़ अदा करता है। यह इतना अनूठा रिश्ता है कि आवश्यकता पड़ने पर यह मित्रता और सरंक्षक का रूप भी धारण कर लेता है। जिसे एक बार दिल से गुरु मान लिया वह आजीवन गुरु रहता है यही बात इस रिश्ते की बुनियाद है। 

भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार व्यवस्था एक महत्वपूर्ण घटक रही है। इन परिवारों में बच्चों को सभी संस्कार देने की पूरी कोशिश की जाती है जिससे सभी सांस्कृतिक मूल्य बच्चे के अंदर रच-बस जाते हैं। महादेवी वर्मा ने इसी परिवेश की ओर संकेत करते हुए लिखा है - संस्कृति शब्द से हमें जिसका बोध होता है, वह वस्तुतः ऐसी जीवन पद्धति है, जो एक विशेष प्राकृतिक परिवेश में मानव निर्मित परिवेश सम्भव कर देती है और फिर दोनों परिवेशों की संगति में निरंतर स्वयं आविष्कृत होती रहती है।12  लेकिन वर्तमान में यह व्यवस्था बदल रही है। नासिरा शर्मा ने अपने इस उपन्यास में अनेक स्थलों पर वर्तमान समाज की इसी दबी हुई नस के दर्द से पाठकों को रूबरू करवाया है जिससे लगभग हर मत का परिवार पीड़ित है। यह दर्द है-नई पीढ़ी का अपनी जड़ों से कट जाना और बाहरी ज़िंदगी में रच-बस जाना। पीछे रह जाते हैं तनहा जीने को विवश नौकरों पर आश्रित बूढ़े माँ-बाप। ऐसी ही अभागी माँ है- विधवा फ़िरदौस जहाँ, जो अपने पुत्र मोनिस के विदेश में बस जाने तथा पति के देहांत के बाद अकेली लखनऊ की एक आलीशान पुश्तैनी हवेली में रहती है और व्हीलचेयर पर ही चल फिर सकती है। जब वह मोनिस को वापस लौट आने का कहती है तो वह उल्टा माँ को यूरोप आने का कहता है। वह कहता है- नो मोर डायलोग मॉम ! उस शहर की ठहरी ज़िंदगी में कर मुझे मरना नहीं है। आप और रूही के अलावा वहाँ मेरा अपना बचा कौन है। किसके लिए यह सब छोड़ूँ? मेरे सारे दोस्त यूरोप भर में फैले हुए हैं। मुझे बेकार के इमोशंस में मत उलझाइएवह घर बोसिदा हो चुका है।हमारी यादें, हमारा दिल, दिमाग़ और ये आँखे हैं। वह घर और शहर नहीं।…     

"अच्छा मॉम ख़्याल रखिएगा। मैंने चेक डाल दिया है। गुडनाइट।

गुडनाइटकहते-कहते फ़िरदौस जहाँ अपने आँसू रोक नहीं पाई। कैसे कहती कि मुझे चेक की नहीं, तुम्हारी चाहत है।13  इस तरह एक तरफ़ संस्कृति से लगाव नज़र आता है दूसरी तरफ़ अलगाव। जहाँ एक ओर मोनिस है जो अपनी जड़ों से कट चुका है और वापस नहीं आना चाहता है। वहीं दूसरी ओर रोहन है जो अपनी जड़ों को खोजने के लिए बेचैन है। नासिरा शर्मा ने अपने इस उपन्यास के माध्यम से इतिहास के अनेक अनछुए पहलुओं को कुरेदा है। ऐसा ही एक अनछुआ वृतांत है रोहन के द्वारा मोहयाल और हुसैनी ब्राहम्ण के इतिहास को जानने की कोशिश, जिसमें अंततोगत्वा उसे सफलता मिलती है। रोहन लखनऊ निवासी सफ़ीर के साथ मिल कर इसका इतिहास जुटाने की कोशिश करता है। काफ़ी खोजबीन के बाद हिस्ट्री ओफ़ मोहायल्सनामक पुस्तक के कुछ अंश मिल जाते हैं जिससे रोहन को अपने इतिहास की कुछ जानकारियाँ मिल जाती हैं। कैसे मोहयाल नाम पड़ा, कैसे ईराक़ पहुँचे और कब, क्या हुआ आदि बातें समझ में जाती हैं। नासिरा शर्मा मानो निष्कर्ष रूप में लिखती हैं, कर्बला की जंग में जिस दत्त ब्राह्मण ने हज़रत हुसैन का साथ देने का वायदा किया था। आज भी ये लोग इसी कारण हुसैनी ब्राह्मण कहलाते हैं।14 रोहन का अपना इतिहास जानने के लिए बेचैन होने से पता चलता है कि इसका संबंध अस्मिता से है, अपनी पहचान से है। पहचान का संबंध संस्कृति से है। यदि हमें हमारे सांस्कृतिक इतिहास और विरासत का पता नहीं होगा तो हम अपनी पहचान खो देंगे।

मोहर्रम का मुस्लिमों के जीवन में विशेष स्थान है और अब ये पूरे भारत की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। नासिरा शर्मा की सांस्कृतिक दृष्टि मोहर्रम या फिर किसी भी त्योहार को पूरे भारत के उत्सव के रूप में देखती है। पारिजात में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं- मोहर्रम का सबसे ख़ुशनुमा रंग लखनऊ का मशहूर है, मगर भारतीय संस्कृति का जो मिला-जुला रंग पूरे हिंदुस्तान में इन दिनों मिलता और दिखता है। उसे जीने और देखने वाले हम सब उसी में डूबे रहते हैं और हमारा तुम्हारा करके नहीं देख पाते हैं।…’महाभारतहो या रामायणया फिर कर्बलाकी घटना आम आदमी के एहसास से कितनी नज़दीक है तभी यह हमारे देश के हर आम ख़ास के ज़रिए बांची जाती है।15पारिजात में सांप्रदायिक सौहार्द के और भी उदाहरण देखने को मिलते हैं। दशहरा के समय सड़कों पर रामलीला देखने वालों की भीड़ लग जाती है। लेखिका के अनुसार लखनऊ में नवाबों द्वारा शुरू की गई यह रामलीला जनमानस में इस तरह बस चुकी है कि चाहे रमज़ान पड़े या मोहर्रम, दशहरे की रामलीला में काम करने वाले दुनिया भूल कर उसी में डूबे रहते हैं। कहने को झाँकियाँ तो शहर की चौड़ी सड़कों से निकलती थी, मगर जो मज़ा रहमत उल्लाह के दादा को रावण बनाने में आता था, वह सुख उन्हें अपनी अम्मा की बनाई बाजरे की रोटी में भी नहीं मिलता था।16 इस तरह पारिजात में हम देखते हैं कि हिंदू-मुस्लिम एक साथ प्रेम से रहते हैं। रोहन और रूही दोनों के परिवार आपसी प्रेम और मित्रता की मिसाल हैं। इतना ही नहीं अंत में रोहन और रूही विवाह का निर्णय ले कर प्रगतिशील दृष्टि का परिचय भी देते हैं। 

पारिजात में ग़ज़लों मर्सिया की उपस्थिति ने इसे विशिष्टता प्रदान की है। उपन्यास में रह-रहकर कहीं शेरों की बहार आती है तो कहीं मर्सिया के माध्यम से कर्बला का दर्द बयाँ हुआ है। मर्सिया हुसैन इब्न अली और कर्बला के उनके साथियों की शहादत और बहादुरी को बताने के लिए लिखा गया महाकाव्य है। इसे एक प्रकार का शोक-काव्य भी कह सकते हैं। मर्सिया की शक्ल में इस पूरे किस्से को बयान करने में जो क्रीएटिविटी थी, उसने खुद मर्सिये के लिए नए दरवाज़े और रोशनदान खोले।कर्बला की अपनी तारीख़ है, मगर मर्सिया खुद भी उसके बयान की कारीगरी में अमर हो गया। उस पर ग़ज़ब की यह घटना घटी रेगिस्तान में और मरसियागों शायरों ने हिंदुस्तानी ज़ुबानों, मुहावरों, एहसासों, रिश्तों और हिंदुस्तानी रस्म रिवाजों से उसको सजाया।

क़ैद में उनकी बहु आई हैं शब्बर हैं कहाँ,

नंगे सर जैनबे दिलगीर है, सरवर है कहाँ।

जिबहा ख़ंजर से हुआ जो वह पिदर किसका है,

इक ज़रा गौर से देखो कि यह सर किसका है।

 “यही है मर्सिया, जो मज़हब से नहीं इंसानी जज़्बे से ताल्लुक़ रखता है।17 मर्सिया भले ही क़िस्सा कर्बला की जंग का हो लेकिन हर भारतीय अपनी भावनाओं के हिसाब से उससे जुड़ाव महसूस करता है, जैसे - रोहन जब मर्सिया सुनता है तो अपने बिछड़े बेटे को याद कर गमगीन हो जाता है। इस तरह नासिरा शर्मा प्रमाणित कर देती हैं कि यह मर्सिया कोई एक धर्म की मजलिस नहीं बल्कि इंसानी भावनाओं का बयान है। जोकि सबके लिए है। पारिजात में नासिरा शर्मा ने संस्कृति में हुए समयगत परिवर्तनों पर भी दृष्टि डाली है। उपन्यास में बहुत से संवादों के द्वारा लेखिका ने समझाया है कि धीरे-धीरे सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है। इतना ही नहीं नासिरा शर्मा ने अपने इस उपन्यास में पीढ़िगत बदलावों से नई पीढ़ी को रूबरू कराने के लिए फ्लैस बैक (पूर्व दीप्ति) के समान ही पत्रलेखन पद्धति का उपयोग किया है। एक माँ के द्वारा अपनी बेटी के नाम पत्र शैली में लिखी जा रही पुस्तक के माध्यम से यहाँ प्राचीन लखनऊ की संस्कृति और वर्तमान लखनऊ की संस्कृति को तुलनात्मक अध्ययन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। नासिरा शर्मा ने एक प्रकार से प्राचीन पीढ़ी के अनुभवों का नई पीढ़ी में सम्प्रेषण करके वर्तमान युग की ज़रूरत को भी पूरा किया है।

अंततः नासिरा शर्मा ने पारिजात में विभिन्न संदर्भों के द्वारा भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को सजीव कर दिया है। उपन्यास के लगभग हर वाक्य से संस्कृति का एक रंग उभर आता है। इसमें देश-विदेश के परिवेश के वर्णन के द्वारा विभिन्न सांस्कृतिक पहलुओं से रूबरू होने का अवसर मिलता है। विशेषकर इलाहाबाद और लखनऊ की संस्कृति तो साकार हो उठी है। उपन्यास में हिंदू-मुसलमान दोनों के खान-पान, रीति-रिवाज, रस्में, रहन-सहन, तीज-त्योहार, आचार-विचार, लोक-कलाएँ, जीवन-पद्धति, परम्पराएँ, साज-सज्जा, आभूषण इत्यादि से जुड़े सांस्कृतिक मूल्यों का कुशल चित्रण किया गया है। इस तरह यह उपन्यास सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल बनने में सक्षम है। इस उपन्यास में काल-प्रभाववश आये बदलावों की जानकारी भी बहुत रोचक शैली में प्राप्त होती है। साथ ही सांस्कृतिक विरासत के प्रति चेतना जगाने का प्रयास भी किया गया है। कह सकते हैं कि पारिजात भारतीय संस्कृति के विभिन्न रूपों का संगम है।

संदर्भ  
1.  सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय: आधुनिक हिंदी साहित्य, राजपाल एंड संस, दिल्ली, 1974, पृष्ठ-34
2.  राहुल सांस्कृत्यायन: बौद्ध संस्कृति, सम्यक् प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृष्ठ-03
3.  Max Muller, India : what can teach us ?Rupa publication, 2002, P.-06
4.  रामधारी सिंह दिनकर: संस्कृति के चार अध्या, लोकभारती प्रकाशन, 2022 पृष्ठ-53
5.  नासिरा शर्मा: पारिजात, किताबघर प्रकाशन, सं-2020, पृष्ठ-09
6.  वही, पृष्ठ-167
7.  थोमस ओटवे: शिक्षा तथा समाज, पृष्ठ-26, अनुवाद : ब्रजभूषण शर्मा 
8.  नासिरा शर्मा: पारिजात, पृष्ठ-260
9.  ( Cultrue is an organization of phenomena - acts, objects, Ideas and Sentiments that is dependent upon the use of symbols) by Franois E. Merri and Worth Eldridge Culture and Society, p.-42
10. नासिरा शर्मा: पारिजात, पृष्ठ-171
11. वही, पृष्ठ-173
12. महादेवी वर्मा: भारतीय संस्कृति के स्व, पृष्ठ-74
13. नासिरा शर्मा: पारिजात, पृष्ठ-136
14. वही, पृष्ठ-114
15. वही, पृष्ठ-425
16. वही, पृष्ठ-226
17. वही, पृष्ठ- 97-104
 
शना परवीन
शोधार्थी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
sanajrf195@gmail.com, 7906843626
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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