शोध आलेख : सामाजिक प्रतिनिधित्व और पहचान में खेलों की भूमिका / डॉ. रजनीश चन्द्र त्रिपाठी

सामाजिक प्रतिनिधित्व और पहचान में खेलों की भूमिका
- डॉ. रजनीश चन्द्र त्रिपाठी

शोध-सार : सामाजिक प्रतिनिधित्व अक्सर समूह की गतिशीलता का उत्पाद होता है, जिसे समूह के हितों की सेवा के लिए विकसित किया जाता है। पहचान प्रक्रियाएँ यह निर्धारित करने में मदद करती हैं कि एक व्यक्ति कौन से समूह का सामाजिक प्रतिनिधित्व करता  है। चूंकि समूह या श्रेणी सदस्यता की पहचान संरचना के हिस्से में निर्धारित होती हैं| वर्तमान शोधपत्र का यही उद्देश्य है कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समूहों के रूप में पहचान की सामाजिक प्रतिनिधित्व की गतिशीलता में खेल की भूमिका के सन्दर्भ को उजागर करना है। हमारे समाजी एवं सांस्कृतिक संदर्भ में इन परिघटनाओं का अनुभवजन्य परीक्षण करने की आवश्यकता है।

बीज शब्द :  खेल, सामाजिक समूह, पहचान, सामाजिक प्रतिनिधित्व, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक।

मूल आलेख : खेल के संबंध में पहचान की अवधारणा का इतिहास मानव इतिहास के साथ चलता रहा है। खेल के माध्यम से पहचान वर्तमान परिवेश में विशिष्ठता के रूप में जानी जाती है जो कि समाज में खेल के बारे में हमारी सोच को प्रतिलक्षित करता है क्योंकि सामाजिक पहचान के लिए समाज में उपलब्ध सभी संसाधनों में खेल हमेशा से निर्विवाद रहा है| खेल की पहचान के साथ साथ कई सामाजिक, राजनैतिक और कूटनीतिक पहचान जुड़ते जाते है और जो राष्ट्रवाद, खेल और धर्म, खेल और जातीयता जैसे विषय खेल और खिलाड़ियों के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ जाते है। 'पहचान' शब्द स्वयं, पर एक सामान्य तौर पर जोर देने की प्रवृत्ति होती है, जिसके सार में विशेष अर्थ जुड़ा हुआ होता है वह अपने आप में मान्यता जैसे शब्दों की तुलना में कमज़ोर होता है पर व्यक्ति के लिए खुद के द्वारा स्थापित पहचान सशक्त होती है जिसके  लिए वो स्थापित धारणाओं, तथ्यों और विचारों से भी संघर्ष करने से गुरेज नहीं करता। खेल के माध्यम से खिलाड़ी का सामाजिक और वैश्विक स्तर पर होने वाली पहचान सिर्फ़ उसी की नहीं होती, वह पहचान के माध्यम से अपने देश, वर्ग, क्षेत्र आदि का प्रतिनिधित्व करता हैं|

सामाजिक समूह और पहचान : सामाजिक समूह प्रतिनिधित्व को प्रदर्शित करने का एक सशक्त माध्यम हैं जो समूह के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। प्रतिनिधित्व का प्रसार और प्रचार विभिन्न रूपों एवं प्रकार के समूहो के हितों की सेवा भी करते हैं (मॉस्कोविसी, 1981; 1984) 'पहचानशब्द के माध्यम सेखेल' अक्सर एक मजबूत राष्ट्रीय पहचान को चित्रित करने का माध्यम बन जाता है और उसके द्वारा एक समूह उत्तेजित किया जाता है लेकिन वास्तव में यह एक विस्तृत शृंखला को अस्पष्ट करता है जो कि ऐतिहासिक, सामाजिक और सामाजिक क्षेत्रों में लंबे समय से एक पहचान की महत्त्वपूर्ण अवधारणा को दर्शाती है| खेल का दर्शन उन अवधारणाओ पर विशेष बल देता है जो व्यक्ति की पहचान उस की राष्ट्रीयता और समूह के साथ उसकी प्रासंगिकता को बढ़ता है| खेल पर शोधलेख निम्नलिखित चिंताओं को इंगित करते है कि (i) उम्र एवं खेल पहचान की राजनीति; (ii) पहचान की राजनीति से खेल के माध्यम से मान्यता और (iii) खेल के माध्यम की मान्यता से पुनर्वितरण और सामाजिक न्याय तक।

          यदि पहचान एक संकेतक के रूप में होता है जो अपने साथ खेल या लोगों या राष्ट्र के इतिहास को समेटे हुए है| यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि रूढ़िवादिता या पहचान जैसे भ्रामक शब्दों के उपयोग से खेल की जटिलता को जिसमे प्रशिक्षण, मनोवैज्ञानिक तथ्य, गामकक्रिया कौशल एवं सह-समूह आदि शामिल है, को दरकिनार नहीं किया जा सकता। यह निश्चित रूप से खेल के माध्यम से चल रहे विभिन्न प्रकार के संघर्ष से भ्रमित नहीं हो सकता बल्कि किसी भी विशिष्ट सामाजिक प्रतिनिधित्व का गठन अंतर-समूह गतिशीलता और अंतर-समूह संबंधों द्वारा निर्देशित किया जाता है जो कि प्रतिनिधित्व की जटिल एवं पारस्परिक जालों में अंतर्निहित हैं और वे एक दूसरे के साथ अपने संबंधों के परिणामस्वरूप, चाहे वह सम्बन्ध सूक्ष्म हो या वैश्विक, परिवर्तन के लिए उत्तरदायी होते हैं (ब्रेकवेल, 1986, 1987, 1988) सामाजिक प्रतिनिधित्व को आकार देने में अंतर-समूह प्रक्रियाओं के महत्त्व पर ज़ोर दिया जाता है, और यह जानना अत्यंत मुश्किल है कि क्या अब सामाजिक पहचान के सिद्धांत (ताजफेल, 1978; बानो एवं मिश्रा, 2005) और सामाजिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को एकीकृत करने की दिशा में काम हो रहा है।

          सामाजिक पहचान और सामाजिक प्रतिनिधित्व के बीच का संबंध निस्संदेह हमेशा से द्वंद्वात्मक रहा है और इनका एक दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव है। जबकि किसी अन्य उदाहरण में वे कारण रूप से जुड़े भी हो सकते हैं, अन्य में संबंध गैर-कारणात्मक हो सकता हैं। सामाजिक पहचान और सामाजिक प्रतिनिधित्व के बीच संभावित संबंधों का विश्लेषण करने के लिए हमें एक कदम पीछे हटकर इस बात को जाँचने की आवश्यकता है कि सामाजिक प्रतिनिधित्व समूहों से कैसे बंधे हैं। बेशक, मोस्कोविसी ने अपने कुछ लेखन में स्वीकार किया है कि सामाजिक प्रतिनिधित्व समूह प्रक्रियाओं से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं (मॉस्कोविसी, 1981; 1984)  जो एक शक्तिशाली समूह कम शक्तिशाली समूह के कुछ सदस्यों पर प्रतिनिधित्व थोपने में सक्षम हो सकते है लेकिन वो अपना प्रतिनिधित्व उन सभी पर नहीं थोप सकते। केवल अधीनस्थ समूह में प्रतिनिधित्व के प्रसार, और स्वीकृति और उसके प्रसार के स्तर के परिष्कृत सूचकांकों को विकसित करके ही शक्ति के प्रभावों के बारे में पूरी तरह से परीक्षण करना संभव हो पाता है (ब्रेकवेल, 1986, 1987, 1988)

पहचान की राजनीति और खेल : खेल में पहचान की राजनीति और पहचान के इतिहास का उदय मानव सभ्यता के उदय के साथ साथ चला रहा है, चाहे पौराणिक इतिहास देखे या फिर प्राचीन से आधुनिक कालखंड को देखे खेल सामाजिक ताने-बने का हमेशा अभिन्न अंग रहा है| व्यक्ति को व्यक्ति समाज को समाज या फिर देश का देश के सामने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का सर्वमान्य अहिंसक माध्यम खेल रहा है यह अपने आप में एक निश्चित प्रकार के तर्क का निर्माण करता है, यह उन लेखकों/शोधार्थियों को आकर्षित करता रहा है जिन्होंने खेल, संस्कृति और उसमे होने वाले बदलाव जैसे विषयों में अपनी अभिरुचि रखते है| 1990 के बाद का समाज वैश्विक स्तर पर अत्यधिक बदलाव हुआ है, जिसमे युद्ध का समाप्त होना, उदारीकरण का दौर प्रारंभ होना विशेष कारक रहे हैं,  जिसमे खेल भी अन्य सभी प्रमुख वैश्विक बदलाव में शामिल रहा है| खेलों के आयोजन द्वारा विश्व के प्रमुख राजनीतिज्ञों द्वारा समय-समय पर पहचान, राष्ट्रीयता, प्रभुत्व और शक्ति का प्रदर्शन किया जाता रहा है| जिसके कारण खेल में राजनीति का दखल बढ़ता गया| वैश्विक खेल की ओर बढ़ने का मतलब है कि वैश्वीकरण से जुड़ी प्रक्रियाएं के महत्त्व को समझाने के लिए खेल के संदर्भ में पहचान के प्रश्नों को केंद्रीय स्तर पर रखना, एवं उसके भविष्यगामी परिणामों को सोच कर वर्तमान को व्यवस्थित रखना है| उदाहरण के लिए, देश  जो पूर्व यूएसएसआर या विखंडन से उभरे हैं, पूर्व यूगोस्लाविया जैसे यूरोपीय देश, कई राष्ट्रवादी आंदोलन द्वारा बीसवीं सदी में अपने पहचान के रूप को विकसित करने और बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे है| खेल उनमें से एक माध्यम बन गया है ऐसे में कल्पित समुदायों की अभिव्यक्ति के लिए दृश्य मंच हैं, चाहे वे राष्ट्रवादी या अभिविन्यास हो, खेल ही एक तरीक़ा है जो पहचान की राजनीति में अपने को स्थापित कर सकता है| पहचान की राजनीति खुद को एक प्रश्न के रूप में प्रस्तुत करती है जो उन  समूहों, देशों, व्यक्तियों में एक व्यक्तिगत, अवैयक्तिक दुनिया में खुद को गुमनामी में खोज रहे हैं कि मैं कौन हूँ? मेरे जैसा कौन है? मैं किस पर भरोसा कर सकता हूं? और मैं कहाँ का हूँ? आदि| व्यवहारिक रूप में, खेल में पहचान की राजनीति आलोचनात्मक स्वीकृति की ओर खिसकती हुई प्रतीत है| यह धारणा कि सामाजिक समूहों की एक अनिवार्य पहचान होती है, जिसे लागू करने पर विभाजन, अलगाव और विखंडन की प्रवृत्ति चलती रहती है फिर भी संक्षेप में, हम सभी पहचान की राजनीति की खोज में शामिल है जो समुदाय, अपनेपन और पहचान की तलाश करती रहती है मैं जोर देना चाहता हूँ  कि खेल के माध्यम से पहचान की राजनीति का बड़ा होना या फिर कहे उसकी राष्ट्रीयता से जोड़ना खेल पहचान एवं सामाजिक प्रतिनिधित्व से उत्पन्न समस्या में प्रमुख है| जो विखंडन से अविभाज्य जैसे तर्कों द्वारा विभिन्न समूहों द्वारा खेल में अपनी पहचान का दावा करते हैं। जिसके कारण बड़े पैमाने पर खेल के लिए काल्पनिक चुनौती बढ़ती जाती है जो कि असंख्य पहचान, व्यक्तिगत राजनीति के साथ-साथ राष्ट्रीय पहचानों पर भी ध्यान केंद्रित करता है

          डीराइडर और त्रिपाठी(1992) के अनुसार, सह-अस्तित्व समूह के मामले में, सत्ता के दो सामान्य वर्ग प्रतिष्ठित होते हैं। एक, जिसे "संसाधन शक्ति" कहा जाता है, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक साधनों या संसाधनों को संदर्भित करता है, जिनके पास प्रत्येक समूह का अधिकार होता है और जिसके द्वारा वे अपना प्रभाव डालने में सक्षम भी होते हैं। एक अन्य जिसे "प्रतिशोध की शक्ति" कहा जाता है, और उन सभी साधनों को दर्शाता है जो उन समूहों को जिम्मेदार ठहराते हैं जो उन्हें विरोध करने हेतु सक्षम बनाते हैं और दूसरे समूह के प्रभाव और प्रयासों का विरोध करने के लिए हिंसक या अहिंसक तरीकों के माध्यम से खुद को संगठित करते हैं (डीरेइडर और त्रिपाठी, 1992) हमारे देश में हिंदू और मुस्लिम सह-अस्तित्व वाले समूह की संरचना में आते हैं। हिंदू बहुसंख्यक हैं, जबकि मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं। नतीजतन, हिंदू आमतौर पर खुद को साधन संपन्न मानते हैं, जबकि मुसलमान खुद को अपेक्षाकृत वंचित समूह के रूप में देखते हैं। इस स्थिति में मुस्लिम लोग अल्पसंख्यक समस्या के रूप में अपने स्वयं के समूह को कोई भी सुविधा प्रदान करने की अपनी पूरी कोशिश करते हैं और यह भी ध्यान रखते हैं कि समूह पर किसी तरह का नकारात्मक परिणाम ना पड़े| (त्रिपाठी और श्रीवास्तव, 1981; बानो और मिश्रा, 2009) अन्य शोध के द्वारा यह बताया गया है कि अल्पसंख्यकों का संख्यात्मक स्थिति का महत्व प्रतिकूल पड़ता है और यह व्यक्तियों को एक अंतर-समूह संदर्भ में अपनी अंत-समूह सदस्यता की वैधता की रक्षा करने के लिए प्रेरित करता रहता है (ब्रेवर, 1991; केनवर्थी और मिलर, 2001) एक अन्य अध्ययन के अनुसार (ऑगस्टीनोस, 1991; हेवस्टोन, जसपर्स और लालजी, 1982) यह भी इंगित किया गया है कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समूह के सदस्य केवल अंत-समूह के पक्ष में है बल्कि व्यापक सामाजिक रूढ़िवादिता के पक्ष में एक अंतर्निहित मकसद को भी दर्शाते हैं। ताजफेल (1981) ने तर्क दिया है कि रूढ़िवादिता तीन प्रकार से कार्य करती है: सामाजिक कारण, सामाजिक औचित्य और सामाजिक भेदभाव के रूप में|

          सामाजिक प्रतिनिधित्व उन कार्यों में सहयोग करती हैं जो व्यक्तियों की ओर से अपने स्वयं के समूह को एक बाहरी समूह के प्रति सकारात्मक रूप से अलग करके अपनी सामाजिक पहचान को बढ़ाने के लिए मजबूत प्रवृत्ति को बल देती है (ताजफेल, 1982; ताजफेल और टर्नर, 1979) हालाँकि, यह मात्र वर्गीकरण की अभिवृत्तियों, आरोपण और व्यवहार में वरीयताओं और जातीय-केंद्रित पूर्वाग्रह से जुड़ा हुआ है (अब्राम और हॉग, 1990; ताजफेल, 1978)  सामाजिक पहचान और समूह का जुड़ाव इस अर्थ में अटूट होता है कि कोई भी अवधारणा काफी हद तक उस सामाजिक समूह को परिभाषित एवं आत्म-विवरण करती है  जो उन विशेषताओं से बनी होती है जिससे वह संबंधित होता है। सामाजिक दुनिया को "हम-वे" श्रेणियों में विभाजित करने की प्रवृत्ति दूसरे समूह के सदस्यों की तुलना में अपने स्वयं के समूह के सदस्यों के बारे में अधिक अनुकूल और स्व-समूह की प्रशंसा करती हुई दिखाती है।

सामाजिक पहचान का सिद्धांत और खेल : सामाजिक पहचान का सिद्धांत (ताजफेल और टर्नर, 1979) को समूह की घटनाओं को समझने के लिए कई प्रमुख सैद्धांतिक ढांचे के रूप में देखा जाता है (ब्राउन, 2010; हसलाम, वैन निप्पेनबर्ग, प्लेटो, और एलेमर्स, 2014) जब कोई व्यक्ति समूह के साथ पहचान बनता है तो वह इसे अपनी आत्म-अवधारणा में भी शामिल करता हैं, जिसे व्यवहारों (ब्राउन, 2000), की अनुभूति (अब्राम्स और हॉग, 1999), विश्वासों (ब्राउन, 2010) और यहां तक कि स्वास्थ्य (हसलाम, जेटन, पोस्टमेस और हसलाम, 2009) पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव में भी देखा जा सकता है। शोधकर्ताओं ने एक समूह के साथ लोगों की पहचान को शामिल करने में सैद्धांतिक और व्यावहारिक क्षेत्रों में सामाजिक पहचान सिद्धांत के प्रभाव को देखते हुए, अंतर्निहित प्रेरणाओं को समझने का प्रयास किया है हालांकि, समूह के पहचान निर्माण में कौन सा पहचान का उद्देश्य सबसे प्रमुख हैं, और वह किस स्तर पर कार्य करता हैं, इस बारे में बहुत कम सहमति हो पाई है। फिर भी हम यह मानते है की सामाजिक पहचान सिद्धांत व्यक्तियों की प्रवृत्ति की व्याख्या करता है जो सकारात्मक आत्म-सम्मान, सम्बन्ध, नियंत्रण और समग्र जीवन के लिए और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक विशिष्ट समूह के साथ अपने पहचान को बनाये रखने के लिए आवश्यक होता है (ये, झू, देंग, और म्यू, 2019,)

          इस सिद्धांत की एक मुख्य बात यह है कि समूह की पहचान व्यक्तियों को अपने बारे में निश्चितता बनाए रखने में मदद करती है (ताजफेल एंड टर्नर, 1979), यह अवधारणा जिसकी जड़ें यूरोपीय सामाजिक मनोविज्ञान से आती हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका ने पश्चिमी यूरोप के पुनर्निर्माण को वित्तपोषित किया, जिसमें सामाजिक मनोविज्ञान अनुसंधान के लिए एक बौद्धिक वातावरण को विकसित करना है, जो फासीवाद और विनाश (हॉग एंड अब्राम्स, 1999) द्वारा नष्ट कर दिया गया था। अमेरिकी विचारों के आधिपत्य के प्रति जागरूक, यूरोपीय विद्वानों ने एक अद्वितीय वैज्ञानिक दृष्टिकोण की तलाश शुरु की गई जिसमे कुछ शोधकर्ताओं ने साहित्य की एक नई धारा विकसित की, जो इस बात पर ध्यान केंद्रित कर रही थी कि समूह की सदस्यता लोगों की आत्म-अवधारणाओं को कैसे प्रभावित करती है। फेस्टिंगर (1954) ने सामाजिक तुलना प्रक्रियाओं का सिद्धांत के अंतर्गत बताया गया है कि एक समान अन्य लोगों की राय और क्षमताओं के खिलाफ किसी की राय और क्षमताओं का मूल्यांकन करने की मानवीय इच्छा का गुण होता है। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समूहों के गुणन के प्रकार केवल अंत-समूह के पक्ष में एक अंतर्निहित मकसद को दर्शाते हैं, बल्कि समूह की व्यापक सामाजिक रूढ़िवादिता और सामाजिक स्थिति को भी दर्शाते हैं (ऑगस्टीनोस, 1991; हेवस्टोन और अन्य, 1982)|  अल्पसंख्यक समूह के सदस्य बहुसंख्यक समूह के सदस्यों के व्यवहार का श्रेय अक्सर उन लाभों और विशेषाधिकारों को देते हैं जो उनके समूह की स्थिति वजह से उन्हें प्राप्त हो रही हैं। इसके विपरीत, बहुसंख्यक समूह के सदस्य अक्सर अल्पसंख्यक समूह के सदस्यों की सफलता का श्रेय उन कार्यक्रमों को देते है जो सकारात्मक रूप से उन्हें प्रदान की गयी है (पेटीग्रेव, 1979) खेल के क्षेत्र में अल्पसंख्यक समूह या बहुसंख्यक समूह के सदस्यों में एक बात की एकरूपता हमेशा देखी जा सकती है| खेल वह माध्यम है जिसके कारण सामाजिक पहचान को एक ससक्त आधार प्रदान करता है, अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समूह के अन्तर्निहित सम्बन्ध को उच्च स्तर पर ले जाने में खेल और खेल प्रतियोगिता निर्विवाद रूप से एक विश्व-स्तरीय मंच प्रदान करती है| खेल के प्रभाओं का प्रयोग राज्यों द्वारा सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और कूटनीतिक रूपों में होता रहा है जो दो देशों या महाद्वीपों के बीच राजनैतिक संबंधों पर सीधा असर डालती है|

          किसी व्यक्ति की सामाजिक पहचान के पीछे उसके व्यवहार, सकारात्मक-नकारात्मक पहलू आदि के कारण निहित है अन्य अध्ययनों से पता चला है कि किसी अभिनेता की सामाजिक पहचान, जो कुछ सकारात्मक या नकारात्मक, सफल या विफल व्यवहार को जिम्मेदार ठहराना केवल एक व्यक्तिगत प्रक्रिया नहीं है (ग्रीनबर्ग और रोसेनफील्ड 1979; मान और टेलर, 1974; स्टीफ़न, 1977) इसके अंतर्गत अनुसंधान एक महत्त्वपूर्ण निकाय यह दर्शाता है कि गुणारोपण करने वाले व्यक्ति का सम्बन्ध समूह सदस्यता और गुणारोपण के लक्ष्य पर निर्भर करता है, चाहे वह समूह नस्ल, जातीयता, लिंग या यहां तक कि सामाजिक वर्ग पर ही आधारित क्यों हो (ऑगस्टीनोस, 1991 ; हेवस्टोन, एट अल।, 1982) हेवस्टोन (1990) का निष्कर्ष यह है कि गुणारोपण अनिवार्य रूप से सामाजिक वर्ग है।

          मोस्कोविसी और हेवस्टोन (1983) ने यह तर्क दिया है कि सामाजिक प्रतिनिधित्व समूह पहचान के निर्माण में इस अर्थ में कार्य करता है कि समूह के सदस्य एक सामान्य पहचान से अपने आप को परिभाषित करते हैं और साथ ही वो एक सामाजिक प्रतिनिधित्व को भी साझा करने से एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है। इस संदर्भ में यह पहचानना महत्त्वपूर्ण है कि सामाजिक प्रतिनिधित्व की इस शक्ति का एक निहितार्थ यह है कि सभी के अन्दर पहचान की एक सामान्य भावना को उत्पन्न करने के लिए एक प्रक्रिया का निर्माण हो सके| इसके द्वारा निर्मित सामाजिक प्रतिनिधित्व बहुत स्थायी होती हैं, लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सामाजिक प्रतिनिधित्व प्रक्रिया स्वयं गायब या कभी फीकी नहीं पड़ती।

          खेल की प्रक्रिया या उसके समाजिक सरोकार का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति का सामाजिक पहचान से जुड़ जाना है| वर्त्तमान युग में खेल समाजशास्त्र अपने आप में एक बड़ा क्षेत्र बन कर उभरा है| मानव सभ्यता के उदय से ही खेलों का मनुष्य के विकास की प्रक्रियाओं में सीधा सम्बन्ध देखा जा सकता है| मानवता जैसे-जैसे विकसित हुई उसकी सामाजिक सरोकार, मेलजोल, सामूहिक चेतना आदि का भी दायरा बढ़ता गया, जिसके कारण मनुष्य के पास खेल ही एक मात्र ऐसा विकल्प था जिसके माध्यम से वह अपनी पहचान दूसरे के सामने बिना भेद भाव या द्वेष के स्थापित कर सकता है| खेल की अपनी एक अलग सामूहिकता है जो समूह सदस्यता के पारस्परिक प्रभावों की जांच करती है परन्तु वह पहचान के अलग अस्तित्व की बात नहीं करती है| जैसे अलग-अलग बर्फ के टुकड़े अपने प्लास्टिक ट्रे में एक दूसरे से अलग होकर भी परस्पर क्रिया करते हैं उसी प्रकार खेल द्वारा निर्मित समूह सदस्यता के सम्बन्ध प्रतिनिधित्व की प्रक्रियाओं और निर्णय दोनों रूपों के भाव को बल देती है (डोइज़, 1978; डेसचैम्प्स और डोइज़, 1978; वानबेसेलेरे, 1987; हेगेंडोर्न और हेन्के, 1991)

निष्कर्ष : सामाजिक पहचान विशेष रूप से दुनिया के सबसे भव्य खेल आयोजनों (ओलिंपिक, विभिन्न खेलों की प्रतियोगिताएं आदि) पर हो रहे शोधों के कारण विशेष रूप में पहले से ज्यादा सशक्त और प्रभावशाली हुई है। सामाजिक पहचान का वर्णन करने के लिए, अब्राम्स और हॉग (1999) उन प्रशंसकों का हवाला देते हैं जो अपनी राष्ट्रीयता की पहचान ओलंपिक में एथलीटों द्वारा देश के जीते गए स्वर्ण पदकों की संख्या के आधार पर करते हैं| जो एक देश से दूसरे देश को उनके प्रदर्शन के आधार पर अलग एवं उन्नत दिखाते है। साथ ही दर्शक यह भी महसूस कर सकते हैं कि ओलंपिक खेलों में होने वाले कवरेज में उनका उपयोग देशभक्ति साबित करने और उनकी सामाजिक पहचान के स्तर में सुधार भी करता है| भारत के बहु-सांस्कृतिक समाज में सामाजिक प्रतिनिधित्व के अध्ययन के लिए अंतर-समूह संबंधों की गतिशीलता का आकलन करने की आवश्यकता है, जो समूहों के पारस्परिक संबंधों को किसी बड़े उद्देश्य का कारण एक दूसरे को आपस में बांधे रखती हैं। इसके लिए वैज्ञानिकता परक शोध करने की आवश्यकता होती है कि कौन सा प्रभाव पदानुक्रम में मौजूद हैं जो कि पहचान के प्रतिनिधित्व के लिए प्रासंगिक हो सकता हैं। इस प्रकार, इस लेख का उद्देश्य खेल के माध्यम से सामाजिक पहचान की प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिनिधित्व और उनके सम्बन्धों  की जांच करना है ताकि पहचान के सामाजिक प्रतिनिधित्व को समझा जा सके जो खेलों द्वारा सीधे तौर पर प्रभावित होती है।

          वर्तमान शोध में विभिन्न प्रकार के शोध और कुछ हद तक खंडित प्रेरक साहित्य को जोड़ा है, जो समूह स्थितियों में पहचान के उद्देश्यों की अधिक एकीकृत समझ की दिशा में एक कदम बढ़ाने जैसा है। एकल प्रेरक स्तर और उद्देश्यों से आगे बढ़कर, हमारे समग्र दृष्टिकोण ने इसके प्रभाव के बारे में एक व्यापक निष्कर्ष निकालने में सक्षम बनाया है ताकि हम स्व-प्रतिनिधित्व के कई स्तरों पर विश्लेषण कर सके और उसपर त्वरित कार्यवाही कर सकें| हमने व्यक्तिगत और सामाजिक पहचान के उद्देश्यों की प्रमुखता के साथ-साथ टीमों के भीतर समूह की पहचान को आकार देने वाले विशिष्टता के सामूहिक प्रयास की भूमिका के तथ्यात्मक श्रोतों पर किये गए अध्ययनों की भी चर्चा की गयी। ऐसा करने से, हमारा शोध खेलों के माध्यम से पड़ने वाले अंतर्निहित पहचान के उद्देश्यों का अध्ययन करने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है। जो सामाजिक पहचान और परस्पर संबंधों के सामाजिक ताने-बाने को मजबूत बनाने का काम करती है| साथ ही राष्ट्रीय एकीकरण की बात हो या फिर अंतरराष्ट्रीय एकीकरण की, खेल ही एक सर्वमान्य, निर्विवाद माध्यम है जो बिना किसी भेद-भाव, राग-द्वेष के दो लोगो, दो समुदायों, दो देशों या फिर दो महाद्वीपों को एक साथ ला सकती है| हम अपने निष्कर्षों की पुष्टि करने और अन्य प्रकार के समूहों में समानांतर संबंधों का परीक्षण करने के लिए शोधकर्ताओं को इस प्रकार के शोधों पर कार्य करने लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि इस विषय क्षेत्र में और कार्य हो सके।

संदर्भ :

  • अब्राम्स, डी; और हॉग, एम.. (1990). सामाजिक पहचान सिद्धांत: रचनात्मक और महत्वपूर्ण प्रगति। लंदन: हार्वेस्टर व्हीटशेफ
  • ऑगौस्टिनोस, एम. (1991a). विभिन्न आयु समूहों में सामाजिक संरचना का सहमतिपूर्ण निरूपण। ब्रिटिश जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी, 30, 193-205
  • ऑगस्टीनोस, एम; और वॉकर, आई. (1995). सामाजिक अनुभूति: एक एकीकृत परिचय, लंदन|
  • बानो, एस; और मिश्रा, आर.सी. (2009). हिंदू और मुस्लिम किशोरों में सामाजिक पहचान और अंतर-समूह धारणा। जर्नल ऑफ साइकोसोशल रिसर्च, 4 (2), 417-425
  • ब्रेकवेल, जी.एम. (1986). कोपिंग विद थ्रेटेड आइडेंटिटीज लंदन एंड न्यूयॉर्क।
  • ब्रेकवेल, जी.एम. (1987). पहचान इन: एच. बेलॉफ़ और . कोलमैन (एड्स.) साइकोलॉजिकल सर्वे नंबर 6, लीसेस्टर बीपीएस, 94-114
  • ब्रेकवेल, जी.एम. (1988). पहचान को खतरा होने पर अपनाई गई रणनीतियाँ। रिव्यू इंटरनेशनेल डी  साइकोलॉजी सोशल, 1 (2), 189-204
  • ब्रेवर, एम. बी. (1991). सामाजिक स्व: एक ही समय में समान और भिन्न होने पर। व्यक्तित्व और सामाजिक मनोविज्ञान बुलेटिन, 17, 475-482
  • बालकृष्णन, जी. (2002). पहचान का युग। न्यू लेफ्ट रिव्यू, 16, 130-142
  • ब्राउन, आर. (2010). प्रेजुडिस : इट्स सोशल साइकोलॉजी जॉन विले एंड संस। DOI:10.2307/591756
  • डेरिडर, आर; और त्रिपाठी, आर.सी. (1992). सामान्य उल्लंघन और अंतर-समूह संबंध। ऑक्सफोर्ड: क्लेरेंडन प्रेस।
  • डेसचैम्प्स, जे.सी; और डोइस, डब्ल्यू. (1978). इंटरग्रुप रिलेशंस में क्रॉस्ड कैटेगरी मेंबरशिप। इन: एच. ताजफेल (एड।डिफरेंशियल बिच सोशल ग्रुप्स, लंदन: एकेडमिक प्रेस, 141- 158
  • डोइस, डब्ल्यू. (1978). समूह और व्यक्ति : सामाजिक मनोविज्ञान में स्पष्टीकरण। कैम्ब्रिज : कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस।
  • घोष, .एस.के. (2005). भारत और बांग्लादेश में सामाजिक पहचान और समूह निर्णय लेने का अंतर-समूह संदर्भ। मनोवैज्ञानिक अध्ययन, 50(2&3), 117-126
  • ग्रीनबर्ग, जे; और रोसेनफील्ड, डी. (1979) व्हाइट्स एथनोसेंट्रिज्म एंड देयर एट्रिब्यूशन फॉर बिहेवियर ऑफ ब्लैक्स  मोटिवेशनल बायस। व्यक्तित्व का जर्नल, 47, 643-657
  • हसलाम, एस.., वैन निप्पेनबर्ग, डी., प्लेटो, एम.जे., और एलेमर्स, एन. (2014). काम पर सामाजिक पहचान संगठनात्मक अभ्यास के लिए सिद्धांत विकसित करना। मनोविज्ञान प्रेस।
  • हसलाम, एस.., जेटन, जे., पोस्टमेस, टी., और हसलाम, सी. (2009). सामाजिक पहचान, स्वास्थ्य और भलाई: लागू मनोविज्ञान के लिए एक उभरता हुआ एजेंडा। अनुप्रयुक्तमनोविज्ञान, 58(1),1-23.DOI:10.1111/जे.1464-0 597.2008.00379.x
  • हेवस्टोन, एम; जसपर्स, जे; और लालजी, एम. (1982). सामाजिक प्रतिनिधित्व, सामाजिक विशेषता और सामाजिक पहचान सार्वजनिक' और 'व्यापक' स्कूली बच्चों की अंतर-समूह छवियां।यू रोपियन जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी, 12, 241 - 269
  • हेवस्टोन, एम. (1990). 'अंतिम एट्रिब्यूशन त्रुटि? इंटर-ग्रुप कारण एट्रिब्यूशन पर साहित्य की समीक्षा। यूरोपियन जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी, 20, 311-335
  • हेगेनडॉर्न, एल; और हेन्के, आर. (1991). एक उत्तर भारतीय संदर्भ में अंतरसमूह मूल्यांकन पर एकाधिक श्रेणी  सदस्यता का प्रभाव : वर्ग, जाति और धर्म। ब्रिटिश जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी, 30 (3), 247-260
  • हॉग, एम.; और अब्राम्स, डी. (1999). सामाजिक पहचान और सामाजिक अनुभूति: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वर्तमान  रुझान। डी. अब्राम्स और एम.. हॉग (सं.) में, सामाजिक पहचान और सामाजिक अनुभूति (पीपी. 1-25)। माल्डेन, एमए: ब्लैकवेल पब्लिशर्स इंक।
  • केनवर्थी, जे.बी; और मिलर, एन. (2001). बहुमत और अल्पसंख्यक सदस्यों के आम सहमति अनुमानों में अवधारणात्मक विषमता। व्यक्तित्व और सामाजिक मनोविज्ञान का जर्नल, 80, 597- 612
  • मान, जे. एफ; और टेलर, डी.एम. (1974). कार्य-कारण के गुण: जातीयता और सामाजिक वर्ग की भूमिका। जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी, 94, 3-13
  • मोस्कोविसी, एस; और हेवस्टोन, एम. (1983). सोशल रिप्रेजेंटेशन एंड सोशल एक्सप्लेशंस: फ्रॉम "नैव" टू   "एमेच्योर" साइंटिस्ट। एम। हेवस्टोन (एड।) एट्रिब्यूशन थ्योरी: सोशल एंड फंक्शनल एक्सटेंशन्स ऑक्सफोर्ड: ब्लैकवेल।
  • पेटीग्रेव, टी. एफ. (1979). अंतिम आरोपण त्रुटि : पूर्वाग्रह के ऑलपोर्ट के संज्ञानात्मक विश्लेषण का विस्तार। व्यक्तित्व और सामाजिक मनोविज्ञान बुलेटिन, 5, 461-476
  • स्टीफ़न, डब्ल्यू. जी. (1977). स्टीरियोटाइपिंग: व्यवहार के लिए कार्य-कारण में अंत:समूह-बाह्यसमूह अंतर की भूमिका। जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी, 101, 255-266
  • ताजफेल, एच। (1978). सामाजिक समूहों के बीच अंतर : अंतरसमूह संबंधों के सामाजिक मनोविज्ञान में अध्ययन। लंदन, अकादमिक प्रेस।
  • ताजफेल, एच. (1982). अंतर-समूह संबंधों का सामाजिक मनोविज्ञान। मनोविज्ञान की वार्षिक समीक्षा, 33, 1-30
  • ताजफेल, एच; और टर्नर, जे.सी. (1979). इंटर-ग्रुप संघर्ष का एक एकीकृत सिद्धांत, डब्ल्यू जी ऑस्टिन और एस वर्चेल (एड्स।) में, अंतर-समूह संबंधों का सामाजिक मनोविज्ञान, मोंटेरे, कैलिफ़ोर्निया: ब्रूक्स-कोल।
  • त्रिपाठी, आर.सी; और श्रीवास्तव, आर. (1981). सापेक्ष अभाव और अंतर-समूह दृष्टिकोण। यूरोपियन जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी, 11, 313-318
  • वानबेसेलेरे, एन. (1987). अंतरसमूह भेदभाव पर द्विबीजपत्री और पार किए गए सामाजिक वर्गीकरण के प्रभाव। यूरोपियन जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी, 17, 143-156.
  • वुडवर्ड, के. (2002). पहचान और अंतर। लंदन, सेज पब्लिकेशन्स.
  • ये, वाई., झू, एच., देंग, एक्स., और म्यू, जेड. (2019). नकारात्मक कार्यस्थल गपशप और सेवा परिणाम: सामाजिक पहचान सिद्धांत से एक स्पष्टीकरण। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट, 82,159-168 doi:10.106/j.ijhm.2019.04.020

 

डॉ. रजनीश चन्द्र त्रिपाठी
वरिष्ठ सहायक आचार्य, शारीरिक शिक्षा, राजकीय महिला महाविद्यालय डी. एल. डब्ल्यू., वाराणसी, उत्तर प्रदेश

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

Post a Comment

और नया पुराने