शोध आलेख : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों में चित्रित मिथकीय चेतना का अध्ययन / डॉ. सरिता विश्नोई

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों में चित्रित मिथकीय चेतना का अध्ययन
- डॉ. सरिता विश्नोई

शोध सार : मिथक आदिम मनुष्य का यथार्थ है जबकि साहित्य सभ्य मनुष्य का यथार्थ है जिसमें उसका अपना उद्देश्य और दृष्टिकोण भी समाहित है। साहित्य मिथक नहीं है किन्तु साहित्य में उसका साभिप्राय प्रयोग होता है। साहित्यकार मिथकीय बिंबों द्वारा आदिम विश्वासों को नया रूप देता है और सम्प्रेषण की समस्या का समाधान करता है। मिथक की प्रकृति ऐसी है कि उसे विशिष्ट शब्दों या भाषा में बाँधना आवश्यक नहीं है। लोक जीवन के साथ निकटता से संबंध होने के कारण आधुनिक युग में धर्म, लोक-साहित्य, मानव वि ज्ञान, समाज-विज्ञान, मनोविश्लेषण तथा ललित कलाओं के अन्तरानुशासनिक अध्ययन के विकास के साथ मिथकों का महत्त्व बढ़ गया है। प्रस्तुत आलेख में हम मिथक का अर्थ एवं स्वरूप बताते हुए, . हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध साहित्य में प्रयुक्त मिथक प्रयोग पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

बीज शब्द : मिथक, प्रतीक, . हजारी प्रसाद द्विवेदी का लेखन, इतिहास, संस्कृति, मिथकीय प्रयोग, साहित्य दर्शन

मूल आलेख : मिथक परम्पराओं पर आधारित होते हैं, कुछ की उत्पत्ति तथ्यात्मक होती है, जबकि अन्य पूरी तरह से गढ़ी जाती है।  मिथक एक मौखिक परंपरा का हिस्सा हैं, जिसका अर्थ है कि वे अनेक वर्षों से चले रहे हैं, अक्सर बदलते रहते हैं क्योंकि वे एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की यात्रा करते हैं। मिथक पारंपरिक कहानियाँ हैं विशेष रूप से लोगों के प्रारम्भिक इतिहास से सम्बन्धित हैं या कुछ प्राकृतिक या सामाजिक घटना की व्याख्या करते हैं और आमतौर पर अलौकिक प्राणियों या घटनाओं को शामिल करते हैं।  

मिथक : अर्थ एवं स्वरूप -        

            हिन्दी में प्रचलित 'मिथक' शब्द अँग्रेजी के 'मिथ' शब्द का पर्याय है। सामान्य व्यवहार की भाषा में 'मिथ' शब्द का अर्थ है नितांत अविश्वसनीय तथा काल्पनिक कथा।[1] यह भी माना जाता है कि ग्रीक भाषा का मूल शब्द 'माइथस' से यह शब्द उत्पन्न हुआ है। इस शब्द का अर्थ है 'मुख से उच्चरित वाणी' लेकिन कालांतर में इस शब्द में अर्थ संकोच हुआ और विशिष्ट अर्थ में इसका संबंध 'देवताओं की कथा' से हो गया। सामान्य रूप में मिथक का अर्थ है ऐसी परंपरागत कथा, जिसका संबंध अतिप्राकृत घटनाओं तथा भावों से होता है। मिथक मूलत: आदिम मानव के सृष्टि मन की अभिव्यक्ति है, जिसमें चेतन की अपेक्षा अचेतन प्रक्रिया का प्राधान्य रहता है। मिथक की रचना इस समय हुई जब मानव और प्रकृति के बीच की विभाजक रेखाएँ स्पष्ट नहीं थी। वे परस्पर सहयोग एवं संघर्ष के सूत्रों से बंधे हुए थे और चेतन मानव का मन अज्ञात रूप से प्रकृति की घटनाओं को, अपने जीवन की घटनाओं तथा अनुभवों के माध्यम से समझने का प्रयास करता है। समष्टि मन द्वारा प्रकृति के तत्वों और घटनाओं के मानवीकरण की यह अचेतन प्रक्रिया ही मिथक रचना का मूल है। विको के अनुसार "मिथक, एक तरह की काव्यात्मक भाषा है, एकमात्र भाषा, जिसके लिए, आदिम मानव समर्थ था, एक वास्तविक भाषा है, जिसके अपने रूपात्मक सिद्धांत और तर्क है।"[2] मार्कशोर का मत है कि मिथक एक बृहत नियंत्रक बिम्ब है, जो सामान्य जीवन के तथ्यों को दर्शनिकों अर्थ प्रदान करता है।"[3] मिथक की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों के बीच मतभेद है। एक वर्ग ऐसा है जो मिथकों के मूल की खोज में संसार को देखता है, दूसरा वर्ग मिथक को मानव के अंतरजगत की अनुभूतियों तथा भावनाओं का प्रक्षेपण मानता है। विश्व की सभी भाषाओं में लोककथाओं एवं मिथकों की परंपरा रही है। कई बार घटित घटनाओं की व्याख्या भी मिथकों के माध्यम से की जाती है। मिथक एवं लोककथाओं की विशेषताओं के विषय में रमणिका गुप्ता लिखती है कि, “इन कथाओं की सबसे बड़ी खूबी है, कल्पना की ऊँची उड़ान के साथ-साथ धरती के भीतर तक पहुँच, अपनी जड़ों को छू जाना। उनकी कल्पना एक तार्किक रूप ले लेती है और यथार्थ की ठोस जमीन उन्हें चमत्कार से बचाती है।"[4] मिथक, मानव अनुभूति का विषय है किन्तु अनुभूति के लिए प्रत्यक्षीकरण आवश्यक होता है। अत: मिथक की उत्पत्ति के दो पक्ष है-प्रत्यक्षीकरण और अमूर्तिकरण। जब आदिम मानव बाह्य सत्यों का प्रत्यक्षीकरण करता है, तब उसके आधार पर अमूर्तिकरण भी करता है। अमूर्तिकरण की इस मानवीय वृत्ति ने विभिन्न मिथकों को जन्म दिया है। एक ओर बाह्य जगत है जो निरंतर मानवी इंद्रियों के समक्ष अपने को उदघाटित करता रहता है तो दूसरी ओर है मानव मस्तिष्क, जो इन प्रभावों को निश्चित आकार प्रदान करता है। अत: मिथकों की उत्पत्ति के लिए बाह्य जगत तथा आंतरित जगत दोनों ही निर्माणात्मक उपादान का कार्य करता है।

मिथक निर्माण के बाह्य घटक -

            मिथक निर्माण का बाह्य घटकों में प्राकृतिक तत्त्व, अनुष्ठान, ऐतिहासिक घटनाएँ, नैतिक चेतना आदि महत्वपूर्ण है। प्रकृति के मुख्य अंग सूर्य, चंद्र, तारे आदि के साथ साक्षात्कार क्षणों को मानव ने मानव ने अपने ढंग से परिभाषित किया और यही परिभाषा बाद में मिथक का रूप धारण कर चुकी है। विभिन्न प्राकृतिक उपकरणों के अनुसार ही उससे संबंध भिन्न-भिन्न मिथकों का जन्म हुआ है। लेविन्स स्पेन्स ने अनुष्ठान को मिथक की उत्पत्ति का करण माना है। उनके अनुसार अनुष्ठानों से उत्पन्न मिथक ही वास्तविक है क्योंकि वे देवताओं से सम्बन्धित कथाएँ है। मिथक पर विचार करते हुए कुछ विद्वानों ने कहा है कि तत्कालीन मानव समाज में घटित सच्ची घटनाओं का उदात्तीकरण करके, ऐतिहासिक पुरुष को दैविक पुरुष बना देने की क्रिया मिथक की उत्पत्ति का करण है। नैतिकता की चेतना ने भी विभिन्न मिथकों के निर्माण में सहायता दी है।

मिथक निर्माण के आंतरिक घटक -

            मिथक निर्माण के आंतरिक घटकों में जिज्ञासावृत्ति, कल्पनाशीलता, भय तथा आनंद और सादृश्य आते हैं। अज्ञानता के करण आदिम मानव अनेकानेक प्रश्नों का अपने आप परिभाषा दी जाती थी और उनके द्वारा की गई व्याख्या कथाओं के रूप प्रतिफलित होती है। आदिम मानव अपनी अज्ञानता की पूर्ति के लिए कल्पना का सहारा लेता था और इसी कल्पनाशीलता ने बाद में मिथक का रूप धारण किया है। भय तथा आनंद भी मिथक के निर्माण में सहायक सिद्ध होते हैं। मानव की यह मूल प्रकृति है कि यह भयोत्पादक या अनिष्टकारी तत्वों से बचना चाहता है तथा आनंदमयी तत्वों को बार-बार प्राप्त करने की इच्छा एवं कामना करता है। आदिम मानव की ये कामनाएँ ही कल्पना के सन्निवेश के साथ अनेक प्रकार के मिथकों की उत्पत्ति का करण बनती है। विद्वानों के अनुसार सादृश्य की अनुभूति तथा उसके आधार पर किए गए निर्णय भ्रांतिपूर्वक होते हैं, फिर भी आदिम मानव की इस भ्रांति ने अनेक मिथकों को जन्म दिया है। मिथक एक सांस्कृतिक शक्ति है।

 . हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों में मिथक -

            . हजारी प्रसाद द्विवेदी के सभी निबंध चेतन के केंद्र में मनुष्य है। उनकी दृष्टि में मानव समाज को सुंदर बनाने की साधना ही साहित्य है। उनके निबंध इस कसौटी पर खरे भी उतरते है और आदर्श रूप भी स्थापित करते हैं। . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने विविध विषयों, विचारों पर विभिन्न कोणों, शैलियों से लिख कर हिन्दी निबंध-विधा को समृद्ध एवं पुष्ट किया है। . हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों में भारतीय संस्कृति के प्रति अनन्य स्नेह और संपृक्त दिखाई देती है। उनके निबंध भारतीय संस्कृति के पर्याय है। इनमें मानव-प्रेम, देश-प्रेम, अध्यात्मिकता, उदारता, समर्पण-भावना, कर्तव्य-भावना, मानसिक संयम, असीम श्रद्धा और अगाध विश्वास आदि तत्त्व विद्यमान हैं। इनका कदाचित ही ऐसा कोई निबंध हो जिसके केंद्र में भारतीय संस्कृति एवं मानव की बात करते हों "मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह दुख-सुख को सहानुभूति के साथ देखता है। यह आत्मनिर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। अहिंसा, सत्य और अक्रोधमूलक धर्म का मूल उत्स यही है।"[5]

            . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मानवता की प्रतिष्ठा के लिए अपनी रचनाओं का सर्जनकिया है। इन रचनाओं में अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिथकों का समावेश भी उन्होने किया। . हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'कुटज' निबंध मिथकीय चेतना से संपृक्त प्रतीत होता है। कुटज की गरिमा का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी।[6] यहाँ यमराज मिथक पात्र है जो पौराणिक साहित्य में देखा जा सकता है। मिथक कहानी के आधार पर भारतीयों ने अब भी इस विश्वास को अटल कर दिया है कि मृत्यु के बाद यमराज हमें नरक ले जाएगा और हमारे पाप कर्मों के उचित सजा भी मिलेगी। वहीं रामायण का प्रमुख पात्र जनक है जो सीता जी के पिता है, उन्हें मिथक के रूप चित्रित किया है। जो अपने मन को वश में कर लेने में सक्षम है, वह जनक के समान है। कुटज भी ऐसा एक वृक्ष है जो मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। वर्षा-घनपति से घनश्याम तक' निबंध में . हजारी प्रसाद द्विवेदी में पार्जन्य देवता तथा इन्द्र का जिक्र करते हैं ये पात्र भी मिथकीय है। . हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते है कि वैदिक ऋषियों ने मेघों के शक्तिशाली और औढरदानी रूप का यशोगान उल्लसित कंठ से किया है। पार्जन्य देवता के वज्र निनाद, विद्युत्लोक और धरासार वर्षा में शक्तिशाली महारथी का रूप स्पष्ट हो उठता है।....वैदिक ऋषि, मेघों के अधीश्वर इन्द्र और पौरुष और औदार्य का पूर्ण रूप मानता है। दीर्घकाल तक इन्द्र देवता अपने शक्तिशाली वज्र और विद्युत के करण तथा औषधियों का सेवन करने वाले महान गुण के कारण श्रद्धा और भक्ति पाते रहे हैं।[7] उसी प्रकार वर्षा काल का वर्णन आदिकवि ने विरही राम के मुख से कराया है, इसलिए कभी-कभी राम के -व्याकुल चित्त की प्रतिध्वनि के रूप में, मेघ में कमार्त पुरुष और वाष्पवती विरहिणी की चर्चा अवश्य जाती है। वैदिक ऋष्टि की भाँति आदिकवि ने भी बिजली को सुनहले कोड़े के रूप में देखा है। इस सुनहले कोड़े के कशाघात से ताड़ित मेघावृत आकाश, भीतर ही भीतर, मानो घोड़े की भांति गुर्राता हुआ चित्रित किया गया है। प्रस्तुत निबंध में . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कृष्ण-गोपियों के बीच का चित्रण किया है वह वास्तव में पुरुष-प्रकृति आकर्षण का प्रतीक है।

            'घर जोड़ने की माया' निबंध पूर्ण रूप से मिथक है। भारतीय समाज और संस्कृति के निर्माण में धर्म ने मुख्य तत्त्व के रूप में अपनी भूमिका निभाई है। इसलिए विभिन्न आचार्य, चिंतकों अथवा विद्वानों ने इसके स्वरूप का निर्धारण करते हुए समय-समय पर अनेक शास्त्रों का निर्माण किया। उनके द्वारा विद्वानों ने एक ओर तो मनुष्य जीवन के उत्थान में धर्म के महत्व को स्थापित करने का प्रयास किया, दूसरी ओर अनेक प्रकार के विधि-निषेधों द्वारा मनुष्य जीवन को बंधने अथवा व्यवस्थित करने का भी संकल्प किया परंतु इतने महत्व कार्य के साथ-साथ शास्त्रों ने अपने रचयिताओं के श्रेष्ठत्व अभिमान से ग्रस्त होकर समाज को वर्ण और जाति के नाम पर विभाजित करने में भी अपनी भूमिका निभाई। फलत: उनकी इस प्रवृति से आहत होकर समाज का बहुपक्ष शस्त्रवाद की प्रतिबंद्विता में 'लोक' के रूप में खड़ा हुआ और उसने धर्म और अध्यात्म की नवीन व्याख्या के रूप में नए संप्रदायों को खड़ा किया, जिन्होंने धर्म के क्षेत्र में तो अपने उदारवादी विचारधारा को स्थापित किया ही, साथ ही उन समस्त धार्मिक सामाजिक बह्याचारों, मिथ्याडंबरों तथा गली-सड़ी रूढ़ियों का प्रतिरोध किया जिन्हें शास्त्रों ने मान्यता दी थी। इस प्रकार धार्मिक संप्रदायों के इतिहास में क्रिया-प्रतिकृया की विचित्र परंपरा ने जन्म लिया। महात्मा बुद्ध ने वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया में इसी प्रकार का प्रयास किया था। नाथों और संतों में गोरखनाथ, कबीर, रविदास, गुरु नानक आदि ने भी अपने समय में इसी प्रयास को दोहराया। . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रस्तुत निबंध के माध्यम से उन लोगों तथा संप्रदायों पर व्यंग्य किया है, जो आज अपने वास्तविक लक्ष्य से च्युत होकर, अनाचार, व्यभिचारी या आडंबरों के प्रतीक बन गए हैं। लेखक के अनुसार वस्तुत: घर जोड़ने की माया इतनी प्रबल है कि बड़े-बड़े स्वामी और साधू भी इसके चंगुल में फँस जाते हैं। "कबीर ने अपने अनुयायियों से जो 'घर फूँककर' पीछे आने कि अपेक्षा की थी, वह इसलिए कि कबीर को मालूम था कि यह घर 'माया का भंडार' है।"[8] घर फूँकने का अर्थ धन और माल का त्याग देना, भूत और भविष्य की चिंता छोड़ देना और सत्य के सामने सीधे खड़े होने से जो कुछ भी बाधा हो उसे ध्वंस कर देना है। इस दृष्टि से प्रस्तुत निबंध का नाम ही मिथक है। आम फिर बौरा गए' निबंध में मिथकीय प्रयोग दिखाई देता है। कालीदास के 'विक्रमोर्वशीय' नाटक में राजा ने विरहातुर अवस्था में कहा है कि वैसे ही तो दुर्लभ वस्तुओं के लिए मचल पड़नेवाला पञ्चबाण, मेरे चित्त को छलनी किए डालता है, अब मलय-पवन से आंदोलित इन आम्रवृक्षों ने अंकुर दिखा दिये। प्रस्तुत प्रसंग में कामदेव के लिए पञ्चबाण कहा गया है, यह बिलकुल मिथक है। 'भारतीय संस्कृति की देन' में तैत्तरीय उपनिषद की भ्रुगुव्ल्ली में वरुण के पुत्र भूगु की मनोरंजक कथा दी हुई है जो बिलकुल मिथक है। भृगु ने जाकर वरुण से कहा था कि भगवान, मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ। पिता ने तप करने की आज्ञा दी। कठिन तपस्या के बाद पुत्र ने समझा अन्न ही ब्रह्म है। पिता ने फिर तप करने को कहा। इस समय पुत्र कुछ और गहराई में लगा। उसने प्राण को ही ब्रह्म समझा। पिता को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने पुत्र से तप के लिए कहा। पुत्र ने फिर तप किया और समझा की मन ही ब्रह्म है। पर पिता को संतोष नहीं हुआ। फिर से कठिन तपस्या के बाद समझा आनंद ही ब्रह्म है। यही चरम सत्य था। इन पांचों तत्वों को आश्रय करके संसार के भिन्न-भिन्न दार्शनिक मत बने हैं।

            मिथकीय दृष्टि से . हजारी प्रसाद द्विवेदी का 'हिमायल' निबंध सफलतम है। इसमें कहा गया है कि पार्वती, पर्वत की कन्या है। रामायण के बालकांड में बताया गया है कि हिमालय की दो कन्याएँ है - पार्वती और गंगा। ये पवित्र भारत भूमि को भीतर और बाहर से पवित्र कर रही है। तपोनिरता कुमारी पार्वती ने अगस्तमुनि की प्रार्थना पर कैलाश से कुमारी अंतरोप तक पैदल यात्रा की थी, इसलिए पुराणों में भारतवर्ष की इस भूमि का नाम ही कुमारी का द्विप बताया गया है। यह कथा बिलुकल मिथक है। 'भारतीय मेले' नामक निबंध में कई देवताओं की बात कही गयी है। यक्षों और नागों के देवता, सोम, अप्सरस और अधि देवता वरुण थे, यह पुराणों से भी सिद्ध होता है। कुबेर किसी समय वरुण के अधीन थे और वरुण देवता यक्षों के देवाधिदेव थे। यक्ष लोग वृक्षों के और नाग जल के अधिष्ठता माने जाते थे। महभारत में ऐसी अनेक कहानियाँ आती है, जिनमें सन्तानार्थी स्त्रियाँ वृक्षों के अधिदेवता के पूजन के लिए वृक्षों के पास जाती थी। वस्तुत: ये उर्वरता के देवता थे। भरहुत, बौधगया, साँची, मथुरा आदि से इस प्रकार वृक्षों के पास सन्तानार्थीनी स्त्रियों के जाने की अनेक मूर्तियां मिली है। इन वृक्षों के पास अंकित स्त्रियाँ प्राय: नग्न उत्कीर्ण है, केवल कटी देश में एक चौड़ी मेखला धारण किए हुए है। वृक्षों में अधिकतर बरगद, पीपल और गूलर के पेड़ थे। प्राय: पेड़ों में कोटर है। यह विश्वास किया जाता है कि कोटरों में नाग और यक्ष का निवास होता था। भारतवर्ष के विभिन्न देवी पीठों में प्रतिवर्ष मेले लगते हैं। इनमें जो विश्वासों और मान्यताएँ है, उनकी खोज-बीन करने से अनेक रहस्यों का पता चलेगा। "पुराणों के अनुसार तीर्थ की चार श्रेणियाँ है जो चारों पुरुषार्थी के नाम पर है अर्थात धर्म तीर्थ, अर्थ तीर्थ, कामतीर्थ और मोक्षतीर्थ। नदी के तट पर या सरोवर के तीर पर परलोक बनाने के उद्देश्य से लोग स्नान-दान कथा पुराण आदि के लिए आयोजित मेलों के रूप में चले रहे हैं। धर्मशास्त्र में पुण्य के लिए अनेक प्रकार के धार्मिक कृत्यों का, स्नान तीर्थों में विधान है।"[9] 'राष्ट्रीय एकता के प्रतीक -शिव' निबंध में मिथकीय कथाओं का समावेश देखने को मिलते हैं। लेखक के अनुसार आधुनिक पंडितों का कहना है कि आर्य देवता मंडली में शिव का प्रवेश बहुत बाद में हुआ। दक्षयज्ञ में, उन्हें यज्ञ भाग नहीं दिया गया था। उस यज्ञ का विध्वंस हुआ। सती उस समय मरी थी। बताया जाता है कि इस कहानी में शिव के आर्य देवता मंडली में स्थान आरंभिक इतिहास की और इंगित है। "शिव का परिवार भी बहुत महत्वपूर्ण है। कैलास उनकी वासभूमि है, पार्वती और गंगा उनकी प्रिया है, देवताओं के सेनापति स्कन्द और सर्वमंगल के अधिष्ठाता गजानन गणेश उनके पुत्र है, नागाधिराज हिमालय उनके सुर है। इन सबने हमारे देश को प्रभावित किया है।"[10] शिव के परिवार की पूजा हर मंगल अवसर पर होती है। भारतवर्ष के गाँव-गाँव में शिव मंदिर मिलता है। महावीर हनुमान को भी उनका अवतार माना जाता है। निबंध के अंत में . हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि सम्पूर्ण राष्ट्र को एकसूत्र में बाँधनेवाले इस विषपायी नीलकंठ ने कितना कुछ किया है, इसका हिसाब रखना कठिन है। 'विभिन्नता में एकता' को बनाए रखने का कार्य . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मिथकीय  दृष्टि से की है।

            'हिन्दू संस्कृति के अध्ययन के उपादान' में . हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि पुराणों में देवासुर संग्राम का उल्लेख है। "महाभारत से पता चलता है कि भृगुवंशी शुक्र असुरों के आचार्य थे और अंगिरा के वंशज बृहस्पति देवताओं के। यह भयंकर युद्ध था और संभवत: दीर्घकाल तक चलता रहा। उन दिनों भारतवर्ष के मध्यदेश में ययाति राजा का राज्य था। ये पुरुखा के पौत्र, नहुष के पुत्र और मध्य-देशीय आदि आर्यों के नरपति थे। इन्हें महाभारत में और पुराणों में चक्रवर्ती राजा बताए गए है। इनका विवाह शुक्राचार्य की कन्या देवयानी से हुआ था परंतु बाद में असुर राज की पुत्री शर्मिष्टा भी इनकी रानी हुई।"[11] यहाँ वर्तमान समाज की दुरवस्था का वर्णन करने के लिए ही निबंधकार ने देवासुर युद्ध की कहानी का प्रतिपादन किया है। इसमें जो देवासुर युद्ध की बात कहीं गयी है वह वास्तव में बुराई और भलाई के बीच की लड़ाई है। इस प्रकार के मिथकों का समावेश प्रस्तुत निबंध में देखा जा सकता है। 'भारतीय साहित्य का मेरुदंड' निबंध में मिथकीय प्रभाव विद्यमान है। हिन्दू में स्वर्ग और नरक के विचार है और प्रायश्चित द्वारा कर्मफल से छूटने का विधान भी है। पुण्य कर्म के लिए आत्मा का स्वर्ग में रहना और पाप कर्म के लिए नरक में रहना और फिर पृथ्वी पर आने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। यहाँ स्वर्ग और नरक का जो संकल्प है वह मिथक है। 'भारतीय संस्कृति और हिन्दी का प्राचीन साहित्य' मिथकीय दृष्टि से . हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक सफल निबंध है। इसमें . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने काली पूजा कि बात बताई है। गोरखनाथ जी जब गोरखबंसी (आधुनिक कलकत्ता) आए तो वहाँ देवी काली से उनकी मुठभेड़ हो गयी थी। कालीजी को ही हारना पड़ा। फलस्वरूप उनके समस्त शक्त शिष्य गोरखनाथ के संप्रदाय में शामिल हो गए। तभी से गोरख मार्ग में कालीपूजा प्रचलित हुई। आगे वे निरंजन की उत्पत्ति के बारे में लिखते हैं कि जब आरंभ में रूप, रेखा, वर्ण, चिह्न, चंद्र आदि कुछ भी नहीं थे-केवल अंधकार था। उस समय महाप्रभु शून्य में विराज रहे थे। उनके मन में जब सृष्टि करने की इच्छा हुई तो उन्होंने अनिल की सृष्टि की और स्वयं 'बिम्ब' या बुदबुद पर समासीन हुए। प्रभु के भार को सहन करने के कारण बिम्ब या बुदबुद खंड खंड होकर चूर्ण हो गया। प्रभु पुन; शून्य में विराजमान हुए। फिर जब प्रभु के मन में दया उत्पन्न हुई तो उन्होंने स्वयं ही अपनी काया बनाई। यही निरंजन या धर्म हुए। भीष्म को क्षमा नहीं किया गया' नामक निबंध में  . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने समाज की दयनीयता के बारे में और उस दर्दनाक स्थिति को देखकर चुप रहनेवाले साहित्यकारों पर प्रकाश डाला है। इसको व्यक्त करने के लिए वे मिथकों का प्रयोग करते हैं। . हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि "कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धारण किया था वैसे ही मैं और मेरे जैसे अन्य साहित्यकार यहाँ चुप बैठे हैं।"[12] भविष्य इसे उसी तरह क्षमा नहीं करेगा जिस प्रकार भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया। वर्तमान समाज की अनीतियों तथा अत्याचारों को देखकर चुप रहने वाले साहित्यकारों के प्रतीक के रूप में द्विवेदी ने भीष्म पितामह को चित्रित किया है। भीष्म शरशय्या पर सोये, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्हें उचित मुहूर्त में मरना चाहिए। साधारण मनुष्य मुहूर्त का विचार किए बिना ही मर जाते हैं। भीष्म ऐसे नहीं थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। जब तक उत्तम मुहूर्त जाए तब तक वह मृत्यु नहीं चाहते थे। युधिष्ठिर ने इसका फायदा उठाया। भीष्म पितामह अनेक वाणों की नोक पर सोये हुए थे। उनका तकिया भी वाणों की नोक का ही बना था। यह देख कर . हजारी प्रसाद द्विवेदी का मन व्याकुल हो उठता है। वे सोचते हैं कि वह हज़ार ब्रह्मचारी रहे हो, उन्हें वाणों की नोक तो चुभती ही होगी। द्विवेदी का पूछना कि भीष्म को अवतार क्यों माना गया? वे स्वयं ही इस उत्तर पर पहुँच गए कि उन्हें अभी तक क्षमा नहीं किया गया।[13] प्रस्तुत निबंध के द्वारा निबंधकार मिथक पात्रों के माध्यम वर्तमान साहित्यकारों की अनास्था पर तथा समाज के प्रति असहिष्णु दृष्टिकोण पर प्रकाश डालते हैं।

            भारतीय फलित ज्योतिष' निबंध में . हजारी प्रसाद द्विवेदी, लिखते हैं कि भूकंप के लिए कश्यप कहते हैं कि पृथ्वी, पानी के ऊपर तैर रही है। पानी में मच्छ, कच्छप आदि बड़े-बड़े जल-जन्तु है। उन्हीं के क्षुब्ध होने से पृथ्वी काँप उठती है। गर्ग का कहना है कि पृथ्वी, हाथियों की पीठ पर स्थित है। कभी-कभी थककर वे ही शरीर हिला दिया करता है, भूकंप हो जाता है। वशिष्ठ कहते हैं कि पृथ्वी के ऊपर हवाओं के प्रतिघात होने से धरती काँप उठती है। इस प्रकार का मिथकीय विश्वास उस जमाने में मौजूद थे। भारत में द्युतक्रीडा' नामक निबंध में पुराने जमाने के खेलों का वर्णन . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया है। ज़माने से अनेक प्रकार के खेलों के मिश्रण से जुआ खेलने की विधियाँ बराबर परिवर्तन होता रहा है। पाणिनी के समय पाँच पासों का खेल था, जिन्हें कृत, त्रेता, द्वापर, कलि और अक्श्राज कहा गया था। एक बार यदि कृत का दाँव गया तो खिलाड़ी जीतता ही चला जाता था। शकुनी इस कला में प्रवीण थे। अच्छे जुआरी तो मंत्र भी साधते थे। इस मंत्र का नाम 'अक्ष हृदय' था। महाभारत की टीका में नीलकंठ ने ऐसा ही बताया है। प्रस्तुत निबंध में शकुनी का प्रतिपाद्य हुआ है जो महाभारत का प्रमुख पात्र है। वह अपने कूटतंत्र से पांडवों को पराजित करके, बनवास के लिए भेजता है। यहाँ शकुनी वर्तमान समाज के कूटनीतिज्ञों के प्रतीक के रूप में . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने चित्रित किया है। ज़िंदगी और मौत के दस्तावेज़' नामक निबंध में . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक मिथकीय कथा के माध्यम से मृत्यु की अनिवार्यता को स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि मृत्यु बड़ा सत्य है। आदमी यह जानता है कि मरना निश्चित है, लेकिन वह कभी-इस सत्य को मानने के लिए तैयार नहीं होता है। एक बार यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि प्रतिदिन लोग मर रहे हैं, फिर भी जो बचे रह जाते हैं उनमें जीने कि इच्छा बराबर बनी रहती है। यही बहुत बड़ा आश्चर्य है। इस प्रसंग से हमें पता चलता है कि प्रथम सत्य है मृत्यु और दूसरा सत्य है जिजीविषा। यह सत्य है कि मृत्यु अनिवार्य है, व्यष्टि रूप में प्रत्येक व्यक्ति मरने को बाध्य है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु होगी। 

निष्कर्ष : . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी निबंध साहित्य को व्यापक तथा समृद्ध बनाने का महान कार्य किया है। . हजारी प्रसाद द्विवेदी के सभी निबंधो के विश्लेषण करने से कह सकते हैं कि उनके निबंधों में मिथक आधुनिक स्थितियों एवं परिणतियों को दिखने वाले प्रमुख तत्त्व के रूप में चित्रित हुआ है। . हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों के विश्लेषणात्मक अध्ययन से हमें मालूम होता हैं कि उन्होंने मिथकीय तत्वों को अपनी रचना का आधार बनाया है। मिथकों के बाह्य तथा आंतरिक घटकों का समावेश इसमें हुआ है। . हजारी प्रसाद द्विवेदी का इतिहास और संस्कृति को दर्शाने के लिए मिथकों का जो प्रयोग किया है वो निबंधों को सफल और रोचक बनाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानते हैं कि "मिथक तत्त्व वस्तुत: भाषा का पूरक है। सारी भाषा ही इसके बल पर खड़ी है, साहित्य में मिथक अनंत अनुभवों का विश्लेषण है।.... आज अर्थ एवं अभिव्यक्ति प्रधान बौद्धिक भाषा में आदिम मिथक तत्त्व छूट गए हैं लेकिन प्रतिकों के रूप में वे बार-बार नया जन्म लेते हैं। नया अर्थ पाते हैं और नए अनुभवों का रहस्योद्घाटन करते हैं।"[14] उनके निबंधों के बारे में डॉ. बच्चन सिंह का कथन है, “उनके निबंध तो गंभीरता का तेवर छोड़ते हैं और सहजता का बाना।"[15]

संदर्भ :
[1] डॉ. उषापुरी विद्यावाचस्पति, भारतीय मिथकीय कोश, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2004, पृ.
[2] मालती सिंह, मिथक एक अनुशीलन,लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 1998, पृ. 12
[3] जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव, मिथकीय कल्पना और आधुनिक काव्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 26
[4] रमणिका गुप्ता(संपा), आदिवासी लेखन एक उभरती चेतना, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2004, पृ. 35  
[5]  हरिदास व्यास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सृष्टि और दृष्टि, राजस्थानी ग्रंथाकार, 1993,  पृ. 34
[6]  . हजारी प्रसाद द्विवेदी, ग्रंथावली, खंड 09, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ.189
[7] . हजारी प्रसाद द्विवेदी, ग्रंथावली, खंड 09, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ. 256
[8]  . हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, खंड 09, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ. 104
[9] . हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली खंड 9, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ.501 
[10]  . हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली खंड 09, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ. 349
[11]  . हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली खंड 09, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981,पृ. 308-309
[12]  . हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली खंड 09, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ. 247
[13] . हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली खंड 09, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ. 365
[14] बलदेव उपाध्याय, भारतीय साहित्यशास्त्र, नन्दकिशोर एंड संस वाराणसी, संस्करण1963, पृ.30
[15]  डॉ. राजकमल बोरा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजपाल एंड संस, 2003, पृ23 

डॉ. सरिता विश्नोई
मोमासर बास, श्रीडूंगरगढ़, बीकानेर (राजस्थान) 331803
sarita.vishnoi20@gmail.com, 08527600781
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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