साक्षात्कार : ‘लैंगिकता सिर्फ जैविक सच नहीं है, यह एक सामाजिक और राजनैतिक संरचना भी है’ -कथाकार कविता (शशिभूषण मिश्र की बातचीत)

‘लैंगिकता सिर्फ जैविक सच नहीं है, यह एक सामाजिक और राजनैतिक संरचना भी है’
[ कथाकार कविता से शशिभूषण मिश्र की बातचीत ]

 

प्रश्न- आपकी पहली प्रकाशित कहानी कौन सी थी और वह किस पत्रिका में छपी थी ? अपनी पहली कहानी के लिखने संबंधी ‘अनुभव’ के बारे में कुछ बताइए?

उत्तर- मेरी पहली प्रकाशित कहानी एक और सच थी। इसे मैंने हिंदुस्तान कहानी प्रतियोगिता मेँ भेजा था। इस कहानी को पुरस्कार तो नहीं मिला, पर निर्णायकों ने अपनी टिप्पणियों में जिन 8-10 कहानियों का जिक्र किया था यह उनमें से एक थी। फिर इसका प्रकाशन दैनिक आज मेँ हुआ, उस वक्त मैं एम. ए. प्रीवीयस की पढ़ाई कर रही थी। शायद यह 95-96 की बात है।  मेरा एक सहपाठी उस अखबार की प्रति लेकर मेरे घर आया, तब जाकर मुझे उसके प्रकाशन की सूचना मिली। आज उसकी कोई प्रति मेरे पास नहीं।

लेकिन यह भी मेरी लिखी हुयी पहली कहानी नहीं थी। सबसे पहले जो कहानी लिखी गयी, वो एक सरल और एकरेखीय कहानी थी, जो मैंने बी. ए. फ़र्स्ट इयर में होते हुये के अपने एक टीचर पर लिखी थी, उनकी छवि से हुये अपने मोहभंग को लेकर। फिर मैंने उसे खुद ही विनष्ट कर दिया।

उसके बाद मैंने पहले मुजफ्फरपुर और फिर दिल्ली रहते हुये दो या तीन कहानियाँ लिखी थी, जो हंस में प्रकाशित मेरी पहली कहानी सुख के भले हीं बहुत बाद प्रकाशित हुयी हों, पर लिखी उससे पहले गयी थीं।  उनमें नीमिया तले डोला रख दे मुसाफिर’,‘धूल और फिर आएंगे कबूतर शामिल हैं। नीमिया बाद मेँ आजकल में जस की तस प्रकाशित हुयी, लेकिन धूल और फिर आएंगे कबूतर को थोड़ा बहुत मैंने बाद मेँ संशोधित किया।

वैसे मैं सुख को ही विधिवत अपनी पहली कहानी मानती हूँ क्योंकि यह एक बार ही मेँ ठीक वैसी उतरी थी, जैसा मैं उसे चाहती थी। दूसरे इसे मेरे बहुत प्रिय और चिर-प्रतीक्षित पत्रिका हंस मेँ प्रकाशित होने का अवसर मिला था। तो इससे पहले की कहानियों को आप कहानी लिखने का रियाज भर कह सकते हैं।

कई कहानियाँ लिखकर अपने पास रखे रखने के बावजूद यह मेरी जिद थी कि मेरी पहली कहानी हंस मेँ ही आए। पर वहाँ काम करने के कारण मुझमें यह हिम्मत बिलकुल नहीं थी कि मैं राजेन्द्र जी से कभी कहूँ कि मैं भी कहानियाँ लिखती हूँ और मेरी यह कहानी हंस के लिए है। साल-डेढ़ साल बाद जबतक मैं खुद यह हिम्मत जुटाती राजेन्द्र जी ने खुद ही एक दिन कहा था, तू कहानियां क्यों नहीं लिखती ? फिर मैंने..इन्हें पढ़कर राजेन्द्र जी ने कहा था- ‘कहानियाँ अच्छी हैं तुम्हारी, पर इन कहानियों मेँ तुम कहाँ हो? तुम्हारे वे फर्स्ट हैंड अनुभव, अपने अलग तरह के जीवन-संघर्ष और जीवन-शैली ये सब इसमें कहां है?

सुख वह पहली कहानी थी जिसमें खुद से बहुत लड़कर खुद के जीवन अनुभवों को लिखा था मैंने और...

प्रश्न – इससे पहले कि मैं अपने दूसरे सवाल की तरफ जाऊं, एक प्रश्न आपकी भाषा शैली को लेकर, जिसके उदाहरण अभी आपके जवाब में ही दिखें। कुछ कहते-कहते किसी वाक्य को बीच में ही छोड देना, या कहिये कुछ संवादों को उनके अंजाम तक ले जाने के बजाय उन्हें कुछ हद तक अनकहा छोड देना..ऐसा आपकी कहानियों में अक्सर देखने को मिलता है। इसकी कोई खास वजह? आप इसे किस तरह देखती हैं?

उत्तर: आपका ऑबजर्वेसन सही है और आपने बहुत जरूरी बात रेखांकित  की है, मेरी लेखन शैली की। जो लोग इस बारीकी पर ध्यान नहीं देते उन्हें कई बार मेरे लिखे से असंबद्धता की शिकायत होती है। पर भाषा में अनकहे का सौन्दर्य कहे से रत्ती भर भी कम नहीं होता। बल्कि कई बार कहते-कहते रुक जाना या छोड़ देना अर्थ संदर्भ को और सघन कर देता है। अंतराल और चुप्पी की भाषा को मैं आंतरिक संवाद का जरूरी हिस्सा समझती हूँ। इसे समझने के लिए मुझे पात्रों की मनःस्थितियों के साथ जीना, चलना और बतियाना पड़ता है। यानी भाषा सिर्फ शब्द से नहीं मौन और बोलते-बोलते रुक जाने से भी बनती है।

प्रश्न-कई लेखक पहली बार कविता या कहानी के माध्यम से लेखन में सीधे प्रवेश करते हैं लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, आप कहानियाँ लिखने से पहले साहित्य, कला और सामयिक मुद्दों पर लिखती थीं| इसके बारे में कुछ बताइए?

उत्तर- आपने बिलकुल गलत नहीं कहा। छुटपुट कहानी-कविता के प्रकाशित होने की बात अगर छोड़ दें तो यही  कहूँगी कि मैं साहित्य, कला और सामयिक और उसमें भी खासकर स्त्री-संबंधित मुद्दों पर लिखती-छपती भले ही पहले से रही हूँ, पर मैं मूलतः लेखक ही थी, हूँ और वही रहूँगी।

मैंने कई बरसों तक लगातार दैनिक अखबारों के संपादकीय पृष्ठ के लिए लेख लिखे हैं। सिर्फ कविता-कहानियाँ लिखकर दिल्ली में रहा और जिया नही जा सकता था। तो मैं अखबारों में लिखने लगी। नभाटा को छोडकर लगभग सभी मुख्य अखबारों के लिए मैंने लगातार लिखा है, एक वक्त में।

पर ईमानदारी से कहूँ तो मेरे लिए यह लिखना खुद को और अपने भीतर के रचनाकार को जिलाए रखने का सतत उपक्रम जैसा था। दिल्ली मे जीने लायक आमदनी का कोई सतत स्त्रोत नहीं था मेरे पास, अखबारों में लिखने के सिवा। और मैं रघुबीर सहाय की तरह ये मानती हूँ कि लेखन (लिखना) अंततः लेखन है, उसे विभागों में बांटकर देखने कि कत्तई जरूरत नहीं। मैं अक्सर जो लिख रही होती हूँ, उसके लिए उचित फॉर्म की तलाश करती हूँ। सोचती हूँ यह कहना किस विधा में सबसे सही और सहज होगा। और फिर किस तरीके से, फिर जाकर कहीं लिखना शुरू करती हूँ।

हर विधा की कमोबेश अपनी महत्ता है और आनुपातिक रूप से सीमाएं भी। एक लेख लिखकर जैसे तुरत -फुरत बहुतायत लोगों तक किसी संदेश को पहुंचाया जा सकता है, कहानी लिखकर या उपन्यास लिखकर यह उतना सहज नहीं। उसी तरह एक अच्छी कहानी याकि उपन्यास का असर जितने लंबे वक्त तक हृदय पर अंकित रह जाता है, लेख उतने दिनों तक अपना असर शायद ही छोड़ पाये।

हालांकि यह राह भी कोई आसान नहीं थी। एक बार साहित्य अकादमी में जब मेरी भेंट राष्ट्रीय सहारा के एक पत्रकार(कला समीक्षक और स्तम्भकार) से हुयी तो एक नवागन्तुक की तरह मैंने अखबार में लिखने छपने की प्रक्रिया के बारे में उनसे जानना चाहा था। उनकी कही बातों ने मुझे बिलकुल डरा दिया। उनके मत से अखबारों में लिखने याकि छपने ले लिए मेरा वहाँ के किसी उच्च पद पर प्रतिष्ठित व्यक्ति से परिचय याकि कनेक्शन बहुत जरूरी था।अब ये समझती हूँ कि वे भी पूरी तरह से गलत नहीं थे। और ऐसा वे शायद अपने निजी अनुभव से कह रहे होंगे।

तो पत्रकारिता-जगत में किसी से भी समुचित परिचय न होने के कारण मैंने सबसे पहले नवभारत टाइम्स जाना उचित समझा। वहाँ के एक तत्कालीन संपादक से मुजफ्फरपुर रहते हुये मेरी एक मुलाक़ात किसी कवि गोष्ठी में हुयी थी। उन्होने मुझसे कहा –संपादकीय पृष्ठ पर अमूमन गंभीर और परिपक्व लेख आते हैं।जिसके लिए हमारे वरिष्ठ संपादक हैं और बाहर के भी वरिष्ठ पत्रकार। हाँ कुछ हल्के-फुल्के विषयों पर मैं लिखना चाहूँ तो उनके यहाँ बेशक लिख सकती हूँ।

हालांकि कोई विषय मेरी समझ से छोटा या फिर कमतर नहीं होता, लेकिन अपनी पसंद और समझ को देखते हुये मेरे लिए ऐसा बिलकुल संभव याकि सहज नहीं था।

मैंने एक लेख उस वक्त उस समय के बहुचर्चित फिल्म फायर पर लिखा था।इस निराशाजनक माहौल में और इसे किस तरह अखबारों तक पहुंचाए की दुविधा मेंमैंने उस लेख को छोटा करके सम्पादक के नाम चिट्ठी की तरह राष्ट्रीय सहारा के लिए पोस्ट कर दिया। दूसरे दिन वह लेखांश खास पत्रबतौर उस अखबार में प्रकाशित हुआ, तो इससे मेरी थोड़ी हिम्मत बढ़ी। फिर वहाँ मैंने लेख नियमित भेजने शुरू किए, जो प्रकाशित भी होने लगे। फिर एक एक करके यह कड़ी आगे बढ़ती रही। तब सहारा के साथ दैनिक हिंदुस्तानऔर जनसता के लिये भी खूब लिखा। इन अखबारों के अतिरिक्त पंकज बिष्ट जी ने मुझे समयान्तर में सामयिक मुद्दों और स्त्री विषयक लेखों पर लिखने के लिए पर्याप्त जगह और आज़ादी दी। उतना स्पेस अखबारों में मुझे कभी नहीं मिल सकता था। साथ ही अखबारों की तरह पारिश्रमिक भी...

इस तरह मेरे मन की एक गलतफहमी जोकि बेशक दूसरों के द्वारा मेरे मन में भरी गयी थी का खात्मा हो सका- बिना परिचय और रिशेतेदारी के पत्रकारिता संभव नहीं।धीरे-धीरे छोटी सी ही सही लेकिन अपनी एक पहचान बनने लगी थी मेरी...

प्रश्न: पत्रकारिक और वैचारिक लेखन से साहित्य की ओर आपने कैसे रुख किया ?

यह सही है कि वैचारिक और पत्रकारिक लेखन से एक पहचान मिलनी शुरू हो गई थी। पर अपनी इस नयी पहचान के खिलाफ भी मैं ही खड़ी हो रही थी धीरे-धीरे। मन खुद से कहता-कैसी पहचान? जिन लेखों के लिए तुंमने लगातार भागदौड़, रिसर्च और मेहनत की है, अंतहीन बेचैनियां झेली हैं, कुछ है क्या उनका फाइदा? जिन मुद्दों से मैं आज जूझ रही हूँ, बन और टूट रही हूँ। कल उसे कोई रद्दी वाले को बेच रहा होगा। कोई उस पर चाट -पकौड़ियाँ खा रहा होगा। अपने जीवन की इस त्रासदी पर मैं बेआवाज रो और टूट रही थी। मैं जानती थी मैं एक खानापूर्ति भर हूँ, कल मैं न हुयी तो कोई और नाम होगा उस जगह,आज मेरे लिखे की तारीफ करनेवाले कल को मेरा नाम भी याद नहीं रखेंगे।

नयी पहचान बनाने याकि अपने पहचान में नया कुछ जोड़ने की चुनौती एक बार फिर मेरे सामने थी। और मुझे पता था व यह रास्ता मेरे लिए रचनात्मक लेखन की ओर ही जाता था। यहपूरा प्रसंग 1998 से लेकर 2002 के बीच का है।

प्रश्न - मुझे लगता है एक स्वतंत्र विधा के रूप में आपने कविताएँ भले लिखनी बंद कर दी हों परन्तु आपने कहानी विधा में उस कविता को संभव किया है ! हो सकता है मेरी समझ से आपकी समझ उलट हो, पर मेरा सवाल यह है कि कहानी की पठनीयता में कविताई की संरचना किस हद तक मददगार होती है ?

उत्तर- स्वतंत्र पत्रकारिता के बहुत पहले मैं मूलतः कविताएं ही लिखती थी। कुछ प्रकाशित भी हुईं। तब तक मैं हंस और राजेन्द्र जी के साथ जुड़ चुकी थी। उन दिनों दैनिक अखबारों में जो कुछ भी मेरा लिखा आता, राजेन्द्र जी उसे जरूर पढ़ चुके होते थे। हंस पहुँचते ही मेरे लिखे पर उनकी  टिप्पणी सुनने को मिलती। तब कविताओं को पढ़कर उन्होने कहा था- कविता/कविता देखने में कैसा लगता है? या तो कविता लिखना छोड़ दे, या फिर नाम बदल ले अपना। ठीक उसी वक्त मैं उनके साथ सौ साल की कहानियों वाले प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी। लेखकों से पत्राचार के लिए उन्होने तब मेरे लिए एक लेटर पैड और मुहर बनवा दिया था – कविताश्री के नाम का। मैंने जिसे कभी इस्तेमाल नहीं किया।

कविता लिखना तो क्या ही छूटता, उनकी बातों का असर यह जरूर हुआ कि कविता लिखना कम हो गया। इसके बाद कवितायें फिर कहीं प्रकाशित होने को भी नहीं भेजीं और कहानी लिखने को ही अपनी मुख्य विधा के रूप में चयनित किया। फेसबुक के आने या यूं कहूँ मेरे उस पर होने के बाद यह हुआ कि जब कभी कवितायें लिखीं, वहाँ उसे जरूर डाला। पहले की तरह ही वह डायरी में कैद नहीं रहीं।कहानी के बनिस्बत कविता वहाँ डालना आसान भी है। लोगों की त्वरित प्रतिक्रिया भी मिल जाती है। इस तरह कविता लिखना इतने भर के लिए ही सिमटकर रह गया मेरे लिए। कुछ भी कहूँ, इस चुनाव मेँ एक बड़ी या कहें की महत्वपूर्ण भूमिका राजेन्द्र जी की तो जरूर रही।

मुझे नहीं मालूम कि कहानी विधा में कविता को सम्भव करने से आपका क्या आशय है? पर हाँ, मेरी कुछ कहानियों की भाषा कवितानुमा है। कुछ कहानी-उपन्यास में कविताओं के कई-कई उद्धरण भी।पर यह सायास नहीं है। मैं हमेशा विषयवस्तु के अनुसार शिल्प और भाषा का चयन करने की कोशिश करती हूँ। वह भाषा जो उस कहानी के लिए मुफीद हो। जैसी भाषा उस कहानी की मांग याकि जरूरत हो...हालांकि एक खास तरह की भाषा और सुविचारित शैली चुनकर उसी में लिखते रहने से बतौर कथाकार अपनी पहचान बनाना और भीड़ में अलग से पहचाना जाना, ज्यादा सहज रूप से संभव है। पर मैंने हमेशा अपने लिए लंबा, मुश्किल और दुरूह रास्ता ही चुना है, वह चाहे जीवन हो या फिर लेखन।

यह मानते हुये भी कि कहानी एक कला है, मैं कहानी को भाषा और शिल्प की जुगलबंदी भर नहीं मानती। बिना किसी ठोस या कंक्रीट अंतर्वस्तु के किसी कहानी की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती। भाषा और शिल्प कथ्य या कि अन्तर्वस्तु को संप्रेषित करने का माध्यम होते हैं। और एक अच्छी कहानी इन तीनों के संतुलित संयोजन से ही उत्पन्न होती है। मजबूत से मजबूत अन्तर्वस्तु की कहानी अपने पाठकों के भीतर कोई गहरा प्रभाव नहीं पैदा कर सकती यदि उसे अनुकूल भाषा-शैली में संप्रेषित न किया गया हो।

मैंने निजी तौर पर एक लेखिका के रूप में कई बार यह महसूस किया है कि कुछ कहानियों का लिखा जाना बहुत दिनों तक इस लिये स्थगित रहा कि मुझे उन्हें कागज तक उतार लाने लायक उपयुक्त शिल्प याकि भाषा नहीं सूझरही थी। कई बार कहानियों में कविता की उपस्थिति वस्तु के अनुरूप भाषा-शैली के चुनाव का ही मामला है। भाषा की कविताई हर समय कहानी की संरचना का जरूरी हिस्सा हो जरूरी नहीं।

प्रश्न - अब आपकी कहानियों पर आते हैं | आपकी प्रारंभिक कहानियों में अधिसंख्य उत्तम पुरुष शैली में लिखी गयी हैं या कहें कि ‘मैं’ शैली में लिखी गयी हैं | इसका क्या कारण है ?

उत्तर- यह सवाल मुझसे अक्सर किया जाता है। मैंने पहले भी कहा है, आप से भी वही कहूंगी- ‘मैं’ मेरे लिये एक चुनौती है। अपने को उघाड़ना, अपनी परतें खोलना ज्यादा दु:साध्य है । लिखना मेरे लिये एक यातना है,अपने को पाने की बेचैनी,उसे पकड़ पाने की विकलता । किसी पर-कतरे पंछी की विकलता सी होती है ये विकलता।  इस मैं के बिना मेरे लिए कहानी लिखना बहुत आसान है। कल्पना कि गलियां बहुत रोमांचक होती हैं। सपनों का पूरा आकाश, सारी कि सारी धरती और इससे लगे-अनलगे बहुत सारे अनदेखे-अजाने प्रदेश... पर मुझे चुनौतियाँ ज्यादा पसंद हैं।  मेरामैं मुझे सीमाओं में बांध देता है और मैं के बिना मैं अवरोध रहित होती हूँ। यह चुनौती भी है मेरे लिए और मेरा चुनाव भी।

मुझे यह चुनौती लिखने को विवश करती है और मेरे मैं के भीतर छुपे हजारों मैं को तलाशने की भी। शायद यही कारण हो कि मैं तटस्थता से नहीं लिख पाती,निर्वैयक्तिकता मुझमें नहीं है। जहां मैं नहीं हूँ, उन पात्रों, उन जगहों में मैं खुद को रखकर देखती हूँ। उस स्थिति को जीने की बेचैनी भी कई बार मुझे उस पात्र के मैं तक ले जाती है।

प्रश्न- आपकी कहानियों में ‘स्त्री की निजता का भूगोल’ इतना महत्वपूर्ण क्यों-कर है? क्या इस निजता का कोई वृहद सन्दर्भ है?  दूसरे संग्रह- ‘नदी जो अब भी बहती है’ की अधिसंख्य कहानियाँ स्त्री-जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हैं | इन स्त्रियों की दुनियां में इतना मानसिक तनाव क्यों है?

उत्तर- नदी जो अब भी बहती है संग्रह की कहानियां ही नहीं मेरे अधिकांश संग्रहों कि अधिकतम कहानियाँ स्त्री जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हैं। मैंने अपने जीवन मेँ जिन्हें सबसे ज्यादा और सबसे करीब से देखावे स्त्रियाँ ही थीं। घर-परिवार की, आसपास की, वृहद समाज कि स्त्रियाँ। शायद खुद को भी जानूं-समझूँ उससे भी कुछ पहले से ही। उनके छोटे-छोटे सुख, उनके बड़े दुख, उनकी चाहनाएं, उनकी पीड़ा,उनके सपने और उनका कुचला जाना भी मैंने खूब-खूब देखा है। स्वाभाविक है कि एक स्त्री और बतौर कहानीकार भी मुझे ये कहानियाँ पकड़ती, बेचैन करती और उकसाती रहीं इन्हें लिखने के लिए। लेखक होना मेरा चयन है पर स्त्री होना तो मैंने नहीं चुना न! इस बात को समझा जाना चाहिये की लैंगिक नियति सिर्फ जैविक सच नहीं है,यह एक सामाजिक और राजनैतिक संरचना भी है। इसलिये सच कहूँ तो मेरी कहानियां भी नहीं होतीं यदि मैं स्त्री नहीं होती।

प्रश्न – आपने बहुत सहजता से अपने भीतर की स्त्री और अपने लेखक के अंतर्सम्बंध को रेखांकित किया। हाल ही में ममता कालिया जी का एक बयान अखबार में प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने कहा है कि लेखन का कोई जेंडर नहीं होता। साथ में यह भी कि जब-जब सर्कुलेशन घटा संपादकों ने महिला विशेषांक निकाले। प्रसिद्धि की भूख ने महिलाओं को उस शूडो फेमिनिज़्म की तरफ भटकाया है ! इस बात से आप कितना इत्तेफाक रखती हैं?

उत्तर- मैंने भी अखबार की वह कतरन फ़ेसबुक पर ही देखी है। यह पहली बार नहीं है। हिन्दी साहित्य में तत्कालीन पीढ़ी से लेकर वरिष्ठ पीढ़ी तक की कई लेखिकाएँ  खुद को स्त्री लेखकमानने से इंकार करती हैं और सिर्फ लेखक कहलाया जाना ज्यादा पसंद करती हैं। वे लेखन को स्त्री-पुरुष के खाने में बांटे जाने की प्रबल विरोधी हैं। मैं ऐसा नहीं मानती। जैसा कि मैंने आपके पिछले प्रश्न के जवाब में भी कहा, फिर दुहराऊँगी,  लैंगिकता सिर्फ जैविक सच नहीं है, यह एक सामाजिक और राजनैतिक संरचना भी है, इसलिए मुझे उनके इस स्टैंड पर आश्चर्य होता है । पर ममता कालिया जी ने जो कहा है, वह तथ्यात्मक रूप से भी सही नहीं है और आपत्तिजनक भी है।

महिलाओं की स्थिति आज भी इसीलिए बदतर है क्योंकि शीर्ष पर पहुंची महिलाएं किसी भी लैंगिक विभेद की बात से इंकार करती हैं। उसके लिए आवाज उठाना अपनी लेखकीय शान के खिलाफ समझती हैं । वे तमाम तरह के महिलाओं के संघर्ष और आंदलोनों को न सिर्फ नकारती रहती हैं, वरन इसे आयातित और छद्म जैसे मुहावरों से नवाजती भी रही हैं। ऐसा करके न सिर्फ वे अपने को एक खास श्रेणी में रखने और खुद के किसी खास श्रेणी में होने की सूचना देती हैं वरन वे बताना चाहती हैं कि वे प्रिविलेज्ड स्त्रियाँ और रचनाकार हैं, इसलिए उनका समानता की,  अधिकारों की, लड़ाई से कोई वास्ता नहीं। यही नहीं ऐसा मानने वाली स्त्रियों और रचनाकारों  के लिए उनकी नजर में उपहास का घना भाव भी होता है, जबकि जरूरत आज यह है कि एकजुट होकर इसके लिए अपनी आवाज बुलंद कि जाये।

मैं मानती हूं कि एक लेखक बतौर हमारा पहला सपना मनुष्यता के साथ खड़ा होना और उसके लिए लड़ना है। पर क्या स्त्रियाँ मनुष्य नहीं? स्त्री होने के कारण पहली लड़ाई अपने खिलाफ होने वाली साज़िशों और गैरबराबरी के खिलाफ ही लदनी होती है। जब हम अपने हिस्से की लड़ाई ही उपेक्षित छोड़ देंगे तो हमसे दूसरों के लिए लड़ने की क्या उम्मीद की जा सकती है?

मैं ममता जी से सिर्फ एक बात पूछना चाहती हूँ, अगर स्त्री लेखन सिर्फ शगूफा है तो उन्हें आपकी छोटी बेटीऔर बोलने वाली औरत जैसी तमाम कहानियां लिखने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या कोई पुरुष लेखक इन कहानियों को इसी तरह और इतनी ही सहजता से लिख पाता?

मुझे यह भी सवाल करना है कि अगर स्त्री विमर्श छद्म है और पत्रिकाओं, खासकर किसी पत्रिका विशेष (हंस) के गिरते हुये विक्रय दर को बढ़ाए जाने कि जुगत भर तो फिर आज तक क्यों उन विशेषांको की प्रतियाँ तलाशी और मांगी जाती रही हैं? मैंने हंस में रहते हुये और बाद में पुस्तक मेलाओं में भी ये देखा है कि विद्यार्थी आते हैं और उनकी फोटो कॉपी की हुयी प्रतियाँ या फिर उनकी फोटो कॉपी करा के ले जाते हैं। मुझे खुशी है कि रचना जी और अक्षर प्रकाशन ने अब उन्हें पुस्तकाकार उपलब्ध करा दिया है।  इस बात को खुले मन से स्वीकार किया जाना चाहिए कि हंस के उन विशेषांकों ने हिन्दी में स्त्री- विमर्श के लिए एक मजबूत जमीन तैयार की है। इसे नकारना एक तरह की कृतघ्नता भी होगी। यदि मैं गलत नहीं हूँ तो राजेन्द्र जी के जीवन काल से लेकर अब तक हंस सर्वाधिक बिकने वाली साहित्यिक पत्रिका रही है। उनकी सम्पादन कला और क्षमता को मैं दृष्टि, साहस और प्रयोगधर्मिता का जरूरी समुच्चय मानती हूँ, जिसकी कमी आज साहित्य जगत में खूब खटकती है।

प्रश्न – आप जो बात कह रही हैं उसी से जुड़ा हुआ सवाल पूंछना चाहता हूँ कि आप स्त्री लेखन और पुरुष लेखन में क्या फर्क महसूसती हैं ?

आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया है। मैं रेखांकित करना चाहती हूँ कि हर काल में स्त्री और पुरुषों के लेखन और लेखन शैली में अंतर रहा है। पुरुष लेखकों में स्त्री चरित्रों के प्रति जो सद्भाव प्रेमचंद या कि उनके पूर्ववर्ती और परवर्ती कहानीकारों यथा, जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, मटियानी आदि  में विकासोन्मुख होती दिखती है कालान्तर में उसमें ह्रास ही चिह्नित होता दीखता है। नई कहानी तक कम से कम स्थिति यह तो थी कि स्त्रियां और उनकी ज़िंदगी एक तटस्तताबोध के साथ यथास्थिति की तरह ही सही दर्ज तो थीं पर क्रमश:। बाद के लेखकों या यूं कहूँ कि हमसे ठीक पहली पीढ़ी के लेखों में से अधिकांश की कहानियों में स्त्री पात्र या तो न के बराबर हैं या फिर जो हैं भी वो किसी सशक्त चरित्र के रूप में उभर कर सामने नहीं आ पाती।

दुखद यह भी हुआ कि अपनी कुछेक कहानियों से ही एक मजबूत पहचान बना लेने वाली गीतांजलि श्री, जया जादवानी और एकाध अच्छी कहानियां लिख कर लुप्त हो जाने वाली रेखा और सुरभि पांडे जैसी लेखिकाओं को छोड़ दें तो इस पीढ़ी में जिस तरह से और जितने लेखक सामने आये लेखिकाओं की संख्या उतनी नहीं रही। नतीजतन इस पीढ़ी का दूसरा पक्ष अपेक्षाकृत अछूता ही रहा या कि कम दर्ज हुआ। नई कहानी के बाद कई पुरुष कथाकारों ने स्त्रियों को बहुत हद तक गैर महत्त्वपूर्ण चरित्र या सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह रचा। आज भी कई पुरुष कथाकार अपनी कहानियों में  मौकापरस्त, अति महत्वाकांक्षी और भोगे जाने को आतुर स्त्रियों की रचना कर अपने पूर्ववर्ती पुरुष कथाकारों की उसी ह्रासोन्मुख रचनाधारा को ही आगे बढ़ा रहे हैं। यह सब कहने का मतलब हिन्दी कहानी की सुदीर्घ परंपरा में अपने पूर्ववर्ती या समकालीन कथाकारों के अवदान को छोटा करना नहीं बल्कि उस फांक की तरफ इशारा करना है, जिसके कारण महिला लेखन कि जरूरत बनती है।

हाँ, यह जरूर सुखद और उल्लेखनीय है कि आज स्त्रियाँ बहुतायत में लिख रही हैं। हमारी पीढ़ी मेँ लेखिकाओं की उपस्थिति गुणवत्ता और संख्या दोनों ही दृष्टि महत्त्वपूर्ण है। अभी भी काफी संख्या मेँ लेखिकायेँ आ रही हैं और उनका आना स्त्री जीवन  के नए-नए पन्नों के खुलने के जैसा है, नए अध्यायों के लिखे जाने जैसा भी। बिना मर्ज का नाम लिए या उसकी डायग्नोसिस के समुचित इलाज की बात भला कैसे की जा सकती है? मैं बार-बार अलग से अगर स्त्री लेखन और दृष्टि की बात करती हूं तो मेरी राय में यह सिर्फ स्त्री लेखन की विशिष्टताओं को रेखांकित करने के लिये ही जरूरी नहीं है, वरन एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए भी है, जो समान रूप से स्त्री और पुरुष दोनों का हो,दोनों के लिए हो।

प्रश्न-एक स्त्री होने से कहानी कैसे प्रभावित होती है, अपनी किसी कहानी का उदहारण देकर बताइए?

उत्तर- यहां मैं एक ही विषय पर लिखी गई दो कहानियों का जिक्र करना चाहती हूं। ये कहानियां हैं मेरे मित्र और समकालीन कथाकार अजय नावरिया की लिखी ‘ढाई आखर’ और ‘देहदंश’। संयोगवश दूसरी कहानी मेरी ही है। संयोगवश ये दोनों ही कहानियाँ कोई पंद्रह-सत्रह साल पहले हंस के एक ही अंक में प्रकाशित हुई थीं। ये कहानियां उन बलात्कार पीड़ित युवतियों की हैं जिनका बलात्कारी स्वयं उनका पिता ही है।‘देहदंश’ की नायिका जहां उस विंदु से ज़िंदगी में आगे निकल जाती है वहीं ढाई आखर की ‘समीरा’ निर्णय के ठीक उसी विंदु पर जीवन में प्यार के आगमन को अस्वीकार कर देती है। तब राजेन्द्र जी ने संपादकीय में भी इस बात को रेखांकित किया था।  इसका मतलब यह कतई नहीं कि अजय नावरिया की यह कहानी कमतर है, बल्कि यह उनकी और अपने समय की अच्छी कहानियों में से एक है। यहां इनका जिक्र सिर्फ इसलिये कि इन दोनों कहानियों की पात्रगत परिणतियों का अंतर स्त्री और पुरुष लेखन के अंतर और स्त्री लेखन की जरूरतों दोनों को रेखांकित करता है।

प्रश्न- आपका पहला कहानी-संग्रह – ‘मेरी नाप के कपड़े’ है | पहले संग्रह के प्रकाशन से  पहले आप किन किन हिन्दी पत्रिकाओं में छप चुकी थीं |

उत्तर- ‘मेरी नाप के कपड़े’ संग्रह में कुल दस कहानियाँ हैं, जिनमें से चार- ‘सुख’,‘भय’,‘मेरी नाप के कपड़े’ और ‘देहदंश’ हंस में प्रकाशित हुई थीं। इन में से दो कहानियाँ मेरी नाप के कपड़े और ‘देहदंश प्रतियोगिताओं में प्रतिभागी कहानियां रहीं और चयनित भी। इंडिया टुडे, आजकल, कथाक्रम, इरावती,उत्तरप्रदेश और जनसत्ता में प्रकाशित हुई थीं।

प्रश्न-  मेरी नाप के कपड़े’ एक हस्तक्षेपकारी कहानी है जिसे शायद कोई पुरस्कार भी मिला था | इस कहानी में आपने लिखा है कि ‘अपना पहनने-ओढ़ने की स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए...किसी की पसंद को ढोना भी तो गुलामी है |’ इसे आप किस तरह एक बड़ा सवाल मानती हैं ?

उत्तर- ‘मेरी नाप के कपड़े’ अमृतलाल नागर कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत हुई थी और ‘देहदंश’‘प्रेमचंद कथा सम्मान’की चयनित कहानियों में शामिल थी। मेरी नाप के कपड़े कहानी के जिस अंश को आपने उद्धृत किया है, वह अपने आप में एक बड़ा संदर्भ और अर्थबोध इसलिए रखता है क्योंकि इसमें खुद की ईच्छा, खुद की पसंद कहीं प्रमुखता से शामिल है। खुद की पसंद का मतलब गुलामी से बगावत और उसकी मुखालफत तो है ही, अपने हक और हुकूक के लिए लड़ना, उसके लिए खड़ा होना भी इसमें सहज सन्निहित है।

प्रश्न- ऐसा माना जा सकता है कि आपके रचनात्मक निर्माण में ‘हंस कार्यालय’ और राजेन्द्र जी का बड़ा योगदान रहा । किन्तु मैं आपसे जनना चाहता हूँ कि आपके लिए ‘हंस’ कार्यालय में रहते हुए आपने सबसे अधिक क्या सीखा?

उत्तर- मेरे लिए यह योगदान रचनात्मक से भी कहीं ज्यादा भावनात्मक था।पिता के नहीं होने से उत्पन्न कमी, घर से दूर अकेली होने और रहने सबका खामियाजा मैंने राजेन्द्र जी से ही चाहा। पहली मुलाकात से ही, उनकी ठहाकेदार हंसी, पाईप, किताबाब के प्रति उनके लगाव आदि में मुझे पापा का चेहरा दिखाई पड़ता। मैंने कभी वागर्थ के लिए लिखे अपने आत्मकथ्य में लिखा भी था कि अगर मायके का सम्बन्ध स्त्रियों के अधिकार भाव, बचपने और खुल कर जीने से होता है तो मैं कह सकती हूं ‘हंस’ मेरा दूसरा मायका था। उन दिनों उनके लंचबॉक्स मे आलू की एक सब्जी जरूर होती। ई। हरिहरन की एक कहानी जिसका हिन्दी अनुवाद `लड़की जिसने इन्जन ड्राइवर से प्यार किया’ उनदिनों हंस मे आया था। तब मैं उनसे अक्सर कहा करती थी कि ‘इस कहानी की लड़की मैं हूँ और पादरी वो’।

 

मेरी ज़िंदगी का वह दौर बहुत सारी अनिश्चितताओं और मुश्किलों से भरा था।  निश्चित आय का स्रोत नहीं। हां लिखने और छपने के लिये जगहें थी, और काम भी इतना कि सारे असाइन्मेंट पूरे कर लिये जायें तो रहने-खाने की दिक्कत न हो। पर फ्री-लांसिग के पारिश्रमिक के चेकों के आने का कोई नियत समय तो होता नहीं, जल्दी भी आये तो तीन महीने तो लग ही जाते थे। लेकिन उस पूरे समय राजेन्द्र जी का साथ मेरे लिये इन अर्थों में भी एक बड़ा संबल था कि उस ढाई-तीन वर्षों के कठिन काल-खंड में उन्होंने मुझे किसी न किसी ऐसे प्रोजेक्ट में लगातार शामिल रखा जिससे मुझे नियमित आर्थिक आमदनी भी होती रही। हिन्दी अकादमी के लिए बीसवीं शताब्दी  की हिन्दी कहानियों के संचयन हेतु कहानियों के चुनाव  के अलावा राजेन्द्र जी के साक्षात्कार, पत्रों और लेखों की किताबों का संयोजन-संपादन उसी समयावधि की उपलब्धियां हैं।

 

मेरी शुरुआती कहानियां वे यह कहकर लौटाते रहे कि `इसमें तू कहाँ है’। उनके संकेत शायद मैं नहीं समझ पा रही थी। तब बाद में उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि `तू अपने अनुभव लिखने से क्यों हिचक रही है? परिवार, समाज और आसपास की बातें तथा खुद अपने भीतर के द्वंद्व जैसे विषयों पर हमारे यहां कहानियाँ बहुत कम है।‘उस समय भी मुझे लगा कि जैसे पापा ही मुझसे यह कह रहे हैं। यथार्थ के प्रति पापा का वह आग्रह भी मुझे स्मृत था; जिसके कारण उन्होने हम बच्चों को परियों, जादूगरनिओं की कहानी से दूर रखकर यथार्थवादी कहानियों से जोड़ा था । शायद उन्हें भान था कि हमें अपनी जिंदगी कि लड़ाइयाँ अकेले अपने दम पर लड़नी है। यह उनके कहे का ही नतीजा था कि मैं अपने भीतर के भय से जूझकर ‘मेरी नाप के कपड़े’, ‘भय’ और `आशिया-ना’ लिख सकी। मैं लड़ सकी इस भय से कि मैं पहचान ली जाऊँगी। यदि उन्होंने  वो कहानियाँ लौटाई न होती तो पता नहीं कब मैं अपने इस भय से मुक्त हो पाती।

 

चार वर्षों के सहजीवन के बाद जब मैंने और राकेश ने शादी का निर्णय लिया तो राजेन्द्र जी ने मुझे यह कहा था कि ‘अच्छी तरह सोच विचार कर निर्णय लेना। इसलिए तो बिलकुल भी नहीं कि चार साल तक साथ रहने के बाद अलग हुई तो लोग क्या कहेंगे ?’ शादी के ठीक दो दिन पहले उनकी यह बात जाहिर है मुझे अच्छी नहीं लगी थी। राकेश को भी नहीं लगी होगी। पर अब तटस्थ भाव से सोचूँ तो उसके निहितार्थ समझ में आते है हमारे लिए उनकी चिंता और प्यार भी।

 

मेरे लिए कहीं कोई सिफ़ारिश, नौकरी के लिए कोई खास जुगाड़, पुरस्कार-सम्मान दिलाने की कोशिश उन्होंने नहीं की, जैसा कि अधिकतर लोग करते हैं अपने प्रिय पात्रों के लिए और राजेन्द्र जी भी करते ही थे। पर नए और अपने से उम्र में छोटों के साथ दोस्ताना व्यवहार, अपनी आलोचना चुचाप सुनने का माद्दा, हर तरह की परिस्थिति में लिखने और जीने की सलाहियत... यह सब उनके साथ ही सीख सकी। मैं उस समय को अपने जीवन के स्वर्ण काल के रूप में देखती हूँ। कई  लोग मुझे हंस की लेखिका कहते हैं, ऐसा कहने में उनका तंज भी शामिल होता है। पर हंस परिवार का हिस्सा होने पर मुझे हमेशा गर्व रहा है और आजीवन रहेगा।

 

प्रश्न-राजेन्द्र जी ने आपके बारे में लिखा है कि ‘कविता की अपनी एक अलग दुनिया है और वह बहुत कम उससे बाहर जाती हैं |’ राजेन्द्र यादव जी के इस कथन के सात मैं अपना भी प्रश्न नत्थी कर दूँ कि ‘इसका क्या कारण है कि आपकी कहानियाँ बाहर से अधिक भीतर घटित होती हैं’ ?

उत्तर-आपने सही कहा कि मेरी कहानियाँ बाहर से कहीं अधिक भीतर घटित होती हैं। इन कहानियों की नायिकाएँ अगर अंतर्मुखी हैं या फिर सतत आत्मसंवाद में लीन तो सिर्फ इसलिए कि वे विचारवान हैं, उनके अंदर संवेदना है, बेचैनी है। एक गहरी छटपटाहट है, समाज और वस्तुस्थिति को लेकर। मेरा मानना है कि एक जीवित व्यक्ति के भीतर ये सारी चीजे होती हैं, जरूर होनी चाहिए ।

मेरी कहानियाँ भीतरी द्वन्दों की कहानियाँ हैं, पर इस कारण वे जड़ता, शैथिल्य और निरपेक्ष तटस्थता की कहानियाँ नहीं हैं। ठहराव और अनिश्चितता की कहानियाँ  भी नहीं। व्यक्ति के भीतर जो कुछ घटित होता है वह उसके बहिर्जगत यानी परिवार और समाज को प्रभावित न करे,या फिर बाहर जो घटित हो रहा है उसका असर एक संवेदनशील व्यक्ति के भीतर घटित नहीं हो, यह असंभव है।  मेरी अधिकतर कहानियों से गुजरते हुये भी इस बात को आप सहज ही समझ सकते हैं। मेरी नाप के कपड़े की उसी भूमिका में जिसे आपने अभी उद्धृत किया है राजेन्द्र जी ने यह भी लिखा है -ये बाहर से अधिक अंतर्जगत की कहानियाँ हैं, मगर वे आत्मालाप नहीं हैं...यहाँ अपनी नियति पर रोती-बिसूरती भारतीय स्त्री कहीं नहीं है।’

हर लेखक की एक प्रिय शैली होती है। कहन का एक खास तरीका भी। मेरी वह शैली मैंशैली है। चूंकि मैं खुद अंतर्मुखी हूँ, इसलिए शायद मेरी कहानी की नायिकाएँ भी। मेरी कहानियाँ मेरी विचार–प्रक्रिया का हिस्सा हैं, तनाव और उसके विघटन का भी। अगर परेशानियाँ हैं वहाँ  तो उससे निजात की राहें भी।मैं रघुबीर सहाय के शब्दों में कहना चाहती हूँ-प्रिय पाठक ये मेरे बच्चे  हैं / प्रतीक नहीं ...। और इस कविता मे मैं हूँ मैं / एक पूरा का पूरा आदमी ।’

प्रश्न-  ‘पत्थर माटी दूब’ कहानी को आप किस तरह देखती हैं | हाल ही में आलोचक संजीव कुमार ने अपने वक्तव्य में इस कहानी को रेखांकित किया है | किस मुद्दे को लेकर उन्होंने कहानी पर बात की है ?

उत्तर- ‘पत्थर माटी दूब’ पर केंद्रित संजीव जी का वह व्याख्यान युवा कवयित्री ज्योति स्पर्श द्वारा संचालित फ़ेसबुक पन्ना ‘मन का मुहल्ला’ पर हुआ था। (हँसते हुए) क्या ही अच्छा होता यदि आपने उसे सुन लिया होता, एक प्रश्न तो इससे कम हो जाता। बहरहाल, कहानी के अलग-अलग पहलुओं पर उन्होंने बहुत अच्छी बातें कही थी, मेरे द्वारा उन्हें यहाँ दुहराना शोभा नहीं देगा, पर उस दिन उन्होंने ‘स्त्री-भाषा’ को अलग से रेखांकित करने की जरूरत जैसी बहुत महत्त्वपूर्ण बात भी कही। इसका जिक्र इसलिए भी जरूरी है कि यह स्त्री लेखन से संबंधित आपके पहले के प्रश्नों से भी जुड़ता है। इस क्रम में उन्होंने अपनी भाषा को भी प्रश्नांकित किया था। यह साहस सब में नहीं होता। इस तरह का आत्मालोचन हम सब के लिए जरूरी है।

प्रश्न आपके इस संकोच का सम्मान करता हूँ | अब आपकी लिखी उस कहानी पर आता हूँ जो मुझे पसंद है | यह उलटबांसी’ है | मेरा मानना है कि यह आपकी सबसे चर्चित और बहसतलब कहानियों में शुमार की जाती है | हमारे  तथाकथिक सामाजिक प्रतिष्ठा के झूठ को ठेंगा’ दिखाती इस कहानी में लेखकीय निर्णय की जबरदस्त नोटिस ली गयी | ऐसी कहानी लिखने का विचार आपके मन में कैसे आया ? इस कहानी पर आई पाठकीय-आलोचकीय प्रतिक्रियाओं के बारे में जरूर कुछ बताइए !

उत्तर- इस कहानी पर बातचीत के क्रम में बात सबसे पहले अपने अनुभव की ही करूंगी। मैं परिवार में अपनी पीढ़ी की सबसे छोटी सदस्य हूँ। मैं बहुत छोटी थी तभी मेरे पिता की मृत्यु हो चुकी थी। हैरत और बहुत हद तक दुख की बात थी कि जिस उम्र में मैं अपना जीवन स्वयं चुनने का निर्णय लेने का संकल्प और हिम्मत जुटा रही थी, मेरी माँ ठीक उसी उम्र में अपने नौ (तब छह जीवित और तीन मृत)को जन्म देकर विधवा के बाने में आ चुकी थीं। रंग, स्वाद और गंध जो सब उन्हें बहुत प्रिय थे, सबका उनके लिए निषेध हो चुका था। हम भाई बहन उनसे लड़ते, बहस करते कि यह सब बहुत पुरातन बातें हैं, माँ हमें कभी सुनतीं, कभी अनसुना कर देतीं। हमारी बहुत जिद के बाद वे रंगीन कपड़े तो पहनने लगी थीं, पर मांसाहार फिर उन्होने कभी नहीं किया। जबकि मछली बहुत पसंद से खाती थीं पहले।इसके अलावा  भी उनके दैनंदिन जीवन में ढेरों बदलाव और आ चुके थे । आर्थिक दुश्चिंताएं अलग से। यह त्रासदी कोई छोटी त्रासदी नहीं थी...

माँ के दुख से मन द्रवित होता था। पर बहुत कुछ बदल पाना मेरे लिए तो क्या हम भाई बहनों में से किसी के लिए संभव नहीं था। मेरी लगभग दूसरी कहानी एक स्त्री के एकाकी जीवन और उस की बेबसी पर ही केंद्रित थी। कहानी का शीर्षक था- नीमिया तले डोला रख दे मुसाफिर।माँ का अकेलापन, भरे -पूरे परिवार में रहते हुये भी उनका अकेली होते जाना, जैसे मुझे कोंचते रहते हर-हमेशा। एक जिरह लगातार चलती रहती मेरे  भीतर-माँ ही क्यों थमी रहें आजीवन उसी मोड़ पर जिसकी चाह उन्होने नहीं कि थी... जब धरती-आकाश सब घूमते रहते हैं अपनी धुरी पर, नदियां तक बदल लेती हैं अपने रास्ते फिर माँ से ही अथाह धीरज कि अपेक्षा  क्यों।

निमिया...के ठीक सात बरस बाद मैंने उलटबांसी लिखी। उलटबांसी लिखे जाने का मुख्य स्त्रोत एक सपना था,एक सुकू नदेह ख्वाब, जिसमें मैंने देखा था माँ की शादी हो रही है और उसमें हम सभी भाई-बहन शरीकहैं। निसंदेह यह सपना मेरे भीतर निरंतर चलतेमानसिक युद्ध की देन था जो मेरे भीतर तमाम तरह के प्रश्न और एक काश का भाव छोड़ गया था। इन्हीं अनुभवों और द्वंद ने ‘उलटबांसी’ कि नींव रखी।

छोटे-मोटे बदलावों की बात अगर दरकिनार कर दें तो माँ के जीवन में कोई भारी रद्दोबदल न ला पानेवाली मैंने माँ और उन जैसी महिलाओं के लिए पुनर्विवाह का एक सपना देखा ‘उलटबांसी’ के रूप में। इसे लिखते हुये मुझे लगातार मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ याद आती रही- मैं विचरण करता हूँ फैंटेसी में... कि फैंटेसी एक दिन सच होगी।

जितनी भी प्रतिक्रियाएँ उस वक्त इस कहानी पर मिली या फिर आजतक मिलती हैं, सब बेहद भावुक और सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ हैं। उन्हें यहाँ चिन्हित करने याकि बताने का कोई खास औचित्य नहीं। बाद में इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हुआ। पर ‘उलटबांसी’ से जुड़े एक अनुभव या कहिये प्रकरण को आपसे जरूर साझा करना चाहूंगी क्योंकि मेरे नजर में वह संदर्भ सामाजिक है और बेहद महत्वपूर्ण।

 

हुआ यूं कि पहली दृष्टि में तो राजेन्द्र जी ने ही इसे बकवास करार कर दिया था। बूढ़ी मां अचानक शादी कैसे कर सकती है, कौन मिल जायेगा उसे? फिर उसके बाद तो उस दिन जो भी आता हंस के दफ्तर उसके लिए परिचर्चा का विषय मेरी यह कहानी ही हो गई। सब इसे एकमत होकर खारिज करते गए, ये अलग बात है कि ये सारे पुरुष ही थे।

 

मैं अपने भरसक प्रतिवाद करती रही- वह बूढ़ी नहीं है, प्रौढ़ा है। और गर पुरुषों को मिल सकती है कोई, किसी भी उम्र में, तो फिर औरत को क्यों नहीं?।।

होने को तो कुछ भी हो सकता है...

वह कौन है।। कहां मिला, कैसे मिला कुछ भी नहीं...।

मुझे उसकी जरूरत नहीं लगती।।कहानी मां और बेटी के बदलते संबंधों की है...किसी तीसरे पक्ष की नहीं। सो उसके होने –न –होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

बहस करके मेरी हिम्मत टूट रही थी, सोचा कहीं और दे दूँगी यह कहानी... कि राजेन्द्र जी ने दो–चार दिनों बाद मुझसे पूछा था-तेरी उस कहानी कहानी का क्या हुआ?

टाईप हो रही है ।

फिर?

फिर... दूँगी कहीं ...

पहले मुझे पढ़ने के लिए देना।

लेकिन आप तो पढ़ चुके है...

मैं फिर से पढ़ूँगा, कोई दिक्कत?

नहीं...

 

और इस बार उन्हें यह कहानी पसंद आ गई थी। उनके भीतर बसे पुरुष के लिए भले ही एक माँ का उस उम्र में लिया गया पुनर्विवाह का निर्णय अग्राह्य रहा हो पर उन्होंने अपने भीतर के संस्कारों और अंतर्विरोधों से लड़ते हुए एक स्त्री के पक्ष, तर्क और अनुभूतियों को समझने की चेष्टा की।मैं उनके भीतर के इस बदलाव को समझ और सराह रही थी मन-ही -मन। एक स्त्री और उससे भी ज्यादा एक बेटी होकर जब मुझे इस मोड़ तक आने में सात वर्ष लगे थेतो एक पुरुष केलोए इसे ग्राह्य होने में इतना वक्त लगना वाजिब था।मेरी सालों की अंतर्यात्रा पल-छिन में किसी और की अंतर्यात्रा कैसे हो सकती थी?

 

प्रश्न- आपकी अधिसंख्य कहानियाँ ‘प्रेम की तलाश’ को उपजीव्य बनाती हैं  | ‘लौट आओ ली’ कहानी में आपने लिखा है कि प्रेम का जीवन से चुक जाना बड़ा दुखद होता है |’ प्रेम की तलाश करती आपकी नायिकाएं किस बिंदु पर एक जैसी हैं ? दूसरे शब्दों में पूँछें तो इस प्रेम की टेक क्या है!

उत्तर- प्रेम से भी कहीं बहुत ज्यादा इन्हें मैं स्व या कह लीजिए स्वयं के तलाश की कहानियाँ मानती हूँ। ये अपनी ही तलाश में निकली हुयी स्त्रियाँ हैं। इसीलिए इनके जीवन सत्य अलग-अलग और भिन्न हैं, मेरे हिसाब से। बिलकुल उनके स्वयं के संधान किए हुये। थोपे और लादे गए तो कदापि नहीं। उदाहरण के लिए मैं अपनी दो कहानियों की बात करती हूँ-पत्थर,माटी,दूब और लौट आना लीकी। ‘पत्थर,माटी,दू’ब कि नायिका अपने स्वर्गीय पिता के संस्कारों और जिम्मेदारियों से इस कदर दबी हुयी है कि विवाह उसके लिए असंभव और असंगत जैसा कुछ है। पर प्रेम किसी से इजाजत लेकर उसके जीवन में दस्तक नहीं देता। यहाँ भी वह आता है और अपने आने और होने के चिन्ह छोड़ जाता है। प्रेमी को अपने जीवन से पहले ही विदा कर चुकी नायिका अपनी माँ और सहेलियों के बल परउस व्यक्ति के संतान की कुंवारी माँ बनने का निर्णय लेती है और एक बच्ची को जन्म देती है।

वहीं ‘लौट आना ली’मेँ ली अर्थात लीजा की दुविधा दूसरी है। उसने जिस पुरुष से प्रेम किया, शादी की उसने स्वयं को उसके जीवन से निकाल लिया है। लीजा को जबर्दस्ती के किसी रिश्ते को आजीवन नहीं ढोना। वह अपनी ससुराल का घर छोडकर चली आई है, एक नौकरी की तलाश में। ठीक इसी विषम समय में उसे पता चलता है वह गर्भवती है। बहुत सोच समझकर वह इस बच्चे को नहीं रखने का निर्णय लेती है। कि उसके होने से वह एक अनचाहे और अवांछित रिश्ते से बंधी रहेगी। नौकरी करने और अपने पैरों पर खड़ी होने में भी सक्षम नहीं हो सकेगी।

एक ही समय में लिखी गयी इन दो कहानियों में मातृत्व के प्रश्न और चयन पर दो अलग निर्णय है। दोनों ही अपने तई सही,पर बहुत मुश्किल और चुनौतीपूर्ण।

यही नहीं, बदलाव यहाँ सिर्फ युवा पीढ़ी में ही नहीं। उससे एक पीढ़ी आगे की स्त्रियों में भी स्पष्ट दिखता है। ‘पत्थर, माटी, दूब’ कि वह माँ, जिसके लिए उसकी बेटी हमेशा अनचाही रही, जो ज़िंदगी भर बेटे के लिए बिसूरती रही,वह अपनी बेटी के कुंवारी माँ बनने के निर्णय पर उसके साथ आ खड़ी होती है। वहीं दूसरी तरफ लीजा की वह सास जो उसके विधर्मी होने के कारण उसे  बिलकुल नहीं पसंद करती थी, उसके चले जाने पर उसे वापस ले आने के लिए जमीन-आसमान एक कर देती है। और सिर्फ इतना ही नहीं, इसमें असफल होने पर वह उसके गर्भपात के निर्णय में भी अकेली उसके साथ खड़ी होती है।

और जिसे आप प्रेम की तलाश का नाम दे रहे, उसे मैं प्रेम से कहीं ज्यादा एक सच्चे साथी की तलाश-यात्रा के रूप में देखती हूँ। सच्चा साथी मतलब सच्चे और वास्तविक अर्थों में जो आपका साथीहो,सहयात्री हो।जो सबसे पहले और सबसे ज्यादा मित्र हो आपका।जिसके साथ रहकर आप पूरे होते हों, अधूरे नहीं। हीनताबोध की  ग्रंथि के शिकार नहीं,जिसके सामने आपकी अना टूटे या फिर झुके नहीं, वह मजबूत हो दिन-ब-दिन।

प्रश्न –क्या कारण है कि आपकी सिरजी स्त्रियों के जीवन में सुख की लकीरें इतनी क्षीण और लघुतम हैं जबकि पीड़ा, करुणा, उदासी,खीझ और तनाव की लकीरें बहुत गाढ़ी हैं ?

स्त्री के जीवन में मुश्किलें और कष्ट अधिक हैं |  है अभी के वक्त में भी वह असंभव-सा  दीखता है । यूं पहले के वक्त में तो ऐसा असंभव जैसा ही था। तो इस असंभव को संभव करने की चाहना में मेरी कहानी की नायिकाओं के जीवन में सुख की लकीरें  क्षीण और लघुतम हैं और पीड़ा, करुणा, उदासी,खीझ और तनाव की लकीरें ज्यादा गाढ़ीऔर ज्यादा सुस्पष्ट।

प्रशन - जैसा कि कथा-मर्मी आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने आपके बारे में कहीं लिखा है कि आपकी कहानियाँ रूढ़ छवियों को तोड़ती स्त्री और पुरुष को नयी मानवीय पहचान और आधार देती हैं |’ आपके नज़रिए से यह नयी मानवीय पहचान क्या है और क्या ‘यह नयी मानवीय पहचान’ प्रेम में ही संभव है ?

उत्तर-  जिस तरह मेरी शिकायत पुरुष लेखकों की एकांगी कहानियों से है, उसी तरह की शिकायत एक खास ढांचे में मढ़ी अपने समय या कि अपने से कुछ पहले की उन तथाकथित स्त्रीवादी कहानियों से भी है जिनके पुरुष पात्र अनिवार्यत: और सुनियोजित रूप से खल ही होते हैं।  हम जिस समाज में जी रहे हैं वहां धीरे-धीरे ही सही बदलाव तो आ ही रहा है।  ये बदलाव स्त्री-पुरुष संबंधों में भी देखे जा सकते हैं, फिर उनके चरित्रांकन से परहेज कैसा? जिस तरह स्त्री जीवन में आये सार्थक बदलावों को नजरअंदाज करके सिर्फ नकारात्मक स्त्री चरित्रों को कहानियां में लाना एक तरह का पुरुषवाद ही कहा जायेगा उसी तरह स्त्री कथाकारों की कहानियों में पुरुष को हमेशा खल पात्र की तरह चित्रित किया जाना भी एक तरह का अतिवाद है।  मेरी राय में खल पुरुषों की शिनाख्त के समानान्तर मित्रवत पुरुषों को चीन्हना और उन्हें सामने लाना भी स्त्रीवाद के लिये उतना ही जरूरी है। मेरे पात्र चाहे वे स्त्री हों या पुरुष, अपने समय-समाज का एक महत्वपूर्ण अंग बनकर उसके बदलावों को चिह्नित करत हुये, मनुष्य और मनुष्यता के हक में खड़े हो सकें यही मेरी लेखकीय प्रतिबद्धता रही है।

प्रश्न सीधे आपके अगले संकलन पर आता हूँ | ‘आवाजों वाली गली’ आपका चौथा कहानी संग्रह है | इस संकलन की एक महत्वपूर्ण कहानी ‘बावड़ी’ में आपने दिखाया है कि अपनी बेटी को लेकर जिस तरह का भय एक माँ के भीतर बना रहता है, उसे पिता महसूस नहीं कर पाता ! क्या सभी पिताओं का यही सच है या इस कहानी के पिता का ही ! इस कहानी में ‘अनी’ की सुरक्षा लिए ‘एक माँ को’ जितना बेचैन हम देखते हैं वह बेचैनी हमारे समाज की उन माओं में क्यों नहीं है जिनके बेटे इस दुनियां को असुरक्षित बनाते हैं | एक स्त्री के रूप में आपका क्या कहना है इस बारे में ?

उत्तर- एक स्त्री होने के नाते और बहुत हद तक अपने अनुभवों से गुजरने के बाद कोई भी माँ कभी नहीं यह चाहेगी कि उसकी बच्ची उन्हीं बुरे और विषैले अनुभवों से गुजरे। इस कहानी की माँ भी नहीं चाहती। अपनी बच्ची को खराब अनुभवों से बचाने और बचाए रखने के लिए कृतसंकल्प माँ की कहानी है यह। जिसके लिए वह सोते-जागते हर वक्त चौकन्नी है। डरी और सहमी हुयी है। पूरी कहानी इसी डर, दर्द, खुद के अहसासों को व्यक्त न कर पाने की पीड़ा और खुद को समझे न जाने के दर्द के अहसासों से बुनी हुयी है। उसे लगता है कि उसका पति उसके भीतर के डर और आशंका को ठीक तरह से नही बूझ पा रहा। यहाँ फर्क भोक्ता और भुक्तभोगी का है। जो उसके और उसके पति की सोच में फर्क बनकर साफ समझ में आ रहा।

यहाँ कोई गलत नहीं है पर दोनों अलग है, दोनों की सोच भी भिन्न। वह जिन अनुभवों से गुजर रही है या गुजरी है, पति उनसे गुजर कर नहीं आया। बल्कि परोक्ष रूप से वह भी उसी वर्ग से आता है जो वर्ग उसकी नजर में अपराधी है, संदेहास्पद है। सिर्फ पति या पिता होने से सोच और मानसिक बनावट की यह दूरी बिलकुल भी तय नहीं हो सकती याकि की जा सकती। उसके लिए उस तकलीफ को, उस एहसास को किसी स्त्री की तरह पहले बूझने की, फिर महसूस करने की जरूरत है।

यह बुनियादी फर्क है माँ और पिता होने का जो किसी एक व्यक्ति या एक रिश्ते पर सिर्फ न लागूहोता है, न किया जा सकता है। इस फांक को सिर्फ और सिर्फ संवेदना और सहानुभूति से बूझा और भरा जा सकता है।

प्रश्न-भारतीय ज्ञानपीठ से 2020 में आए अनंतिम संग्रह ‘क से कविता घ से घर’ पढ़ते हुए आपकी कहानियों के बारे में बना मेरा पूर्वानुभव मजबूत हुआ कि ‘अमूर्तन’ आपके कथा-शिल्प का एक ज़रूरी-सा पहलू है | हो सकता है आप मेरी इस बात से इत्तेफाक न रखती हों पर संग्रह की शीर्षक कहानी का ही उदहारण लीजिए कि इसमें मूर्त संसार के बजाए एक आभासी संसार रचा गया है – धुंधला और अदृश्य-सा | यह अमूर्तन आप जानबूझ कर रचती हैं या यह सहज ही हो जाता है !

उत्तर- अमूर्तन मेरी कहानियों का जरूरी अंग बिलकुल नहीं, मैं यथासंभव यह कोशिश करती हूँ कि मेरी कहानियां सहज हों, और उतनी ही सहज रूप से ग्राह्य भी।  शिल्प, भाषा आदि मेरे लिए कभी भी विषय और कहानी से ज्यादा महत्व नहीं रखते।

इस संग्रह की कहानियों के लिखे जाने का निकष दूसरा था। मेरी पहली लड़ाई यहाँ खुद से ही थी, कि ये कहानियाँ वैसी कहानियाँ बिलकुल न हों , जैसी या जिस तरह कि कहानियाँ मैं पहले से लिखती आई हूँ, संवादरहित और एकालापी।

मैने इस संग्रह की कहानियों में यह कोशिश भरपूर की कि इन कहानियों में संवाद बहुतायत में हो,मेरी दूसरी लड़ाई यहाँ अपनी कहानियों की शिल्पहीनता से थी। इसलिए हर कहानी का फॉर्मेट यहाँ अलग या कहिये भिन्न है। शीर्षक कहानी के अतिरिक्त एक दूसरी कहानी कथा-अकथा भी पूरी तरह से संवादों में लिखी गयी है।

प्रश्न - इस संग्रह के बारे में आपका क्या कहना है ! इसमें किस तरह की कहानियाँ हैं !

इस संग्रह की कहानियाँ बहुत लंबे वक्त के दौरान लिखी गयी हैं। इससे पहले और इससे बाद में भी मैंने किसी कहानी को न इतने वक्त तक अपने पास रखा है, न इस तरह बार-बार उनपर काम किया। लगभग ढाई -तीन साल के लंबे वक्फ़े के बीच लिखी गयी हैं ये कहानियाँ। हम सब की ज़िंदगी में एक कोई दौर ऐसा आता है,जब बतौर लेखक हम रुक जाते हैं, अटक जाते हैं, थम जाते हैं या ठहर जाते हैं कहीं पहुँचकर। जब हम एक ही बात, शिल्प और शैली, बार-बार दुहराने लगते हैं।

इस मोड़ पर आकर की बार हमारा लिखना रुक भी जाता है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि हम लिखना भूल जाते हैं तब। दरअसल यह वही मोड़ होता है जब हम अपने लिखने के मकसद, जरूरत और आदत को मन ही मन बार-बार प्रश्नांकित भी करने लगते हैं। यह वक्त ठहरकर सोचने का होता है, गौर करने का भी  कि हम आखिर कर  रहें हैं तो क्या कर रहें? लिखना सिर्फ लिखने के लिए या सिर्फ अभ्यास या आदत भर में तोबदलकर नहीं रह गया?

ये कहानियाँ मेरे भीतर की ऐसी ही जड़ता को तोड़ने और इससे लड़कर लिखी जानेवाली कहानियाँ हैं ।

दूसरी बात जो मेरे मन में  इस प्रश्न से जूझते हुये आई वो यह कि वर्षों तक लेखन और घर गृहस्थी में एकसार चलते और रहते हुये ये वक्त भारी बदलाव का था। मैं सिर्फ अपनी इस दिनचर्या से ही मुक्त नहीं हुयी थी,दुबारे फिर से एक छोटी जगह से निकलकर दिल्ली जैसी जगह में अकेले रहने और सर्वाइव करने की जद्दोजहद फिर से मेरे सामने थी। बरसों से घर की चहारदीवारी में बंधी मेरी दिनचर्या अब नौकरी, व्यावसायिक लेखन और तमाम तरह के भागदौड़ और दुश्चिंताओं से विन्यस्त थी। इस ढाई साल के अंतराल में वरिष्ठ लेखकों और कलाकारों पर अपनी श्रृंखला और तमाम तरह के लेख लिखते हुये यह दबाव भी लगातार रहा कि  सादा और बहुत सहज लिखना है। इतना सहज जो किसी गैर साहत्यिक व्यक्ति के लिए भी ग्राह्य हो।  तो कभी भी किसी शर्त से बंधकर न लिखने वाली कलम ने वहाँ की सहजता के प्रतिलोम में भी ये कहानियाँ लिखी। जिसे लिखकर मेरे भीतर का लेखक खुद को आजाद महसूस कर रहा था। जाहिर है इसमें बड़ा योगदान मेरी व्यस्त और अनभ्यस्त जीवनशैली का भी रहा होगा। बावजूद इन बातों के मैं इन्हें अमूर्त कहना नहीं पसंद करूंगी। यहाँ अमूर्तन से ज्यादा प्रतीकात्मकता है।

प्रश्न- तमाम तरह के दुख-अवसादों और दर्द के चित्रण के बावजूद आपकी अधिकतम कहानियाँ किसी सकरात्मक मोड़ पर आकर ही क्यों समाप्त होती हैं ? क्या आपको यह लगता है –साहित्य  समाज को कोई दिशा देता है या दे सकता है?

उत्तर- मेरी कहानियों का दुखांत न होना मेरी तरफ से अपने समय पर कोई टिप्पणी तो बिलकुल भी नहीं बस एक नजरिया है मेरा । इसे आप मेरे लेखक का सपना भी कह सकते हैं। एक कविता  जोकि शायद अमृता प्रीतम की है इस संदर्भ में आपको सुनाना चाहती हूँ-  ‘दुखांत यह नहीं होता कि हम लहूलुहान हों, और आगे हो एक लंबा रास्ता / दुखांत यह होता है कि हम एक ऐसी जगह आकार रूक जायेँ, जहां से आगे कोई रास्ता न हो

सो मेरा उद्देश्य कहानी को एकसकारात्मक रूख देना होता है, बदलावों को चीन्हना- पहचानना। कहानी चाहे जितने भी कम लोग पढ़ें, अच्छी कहानी लोगों के भीतर चलती बहुत लंबे दौर तक है। एक जिंदगी से न जाने कितनी दूसरी जिंदगियाँ जुड़ी होती हैं और एक अफसाने से कितने और अफसाने।

कई बार सकारात्मक मोड़ पर खत्म हुई कहानियां पाठक के भीतर कोई दुख, उद्विग्नता या कि बेचैनी नहीं छोडती। फिर भी मैं ऐसा कई बार सायास करती हूँ। हो सकता है यह मेरी बेबकूफी हो पर इसे मैं अपने लिखने के उद्देश्यों से जोड़कर देखती हूँ,स्व-हित के बदले उसे बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में साहित्य के स-हित के व्यापक अर्थों से जोड़कर ...।

आपके दो महत्वपूर्ण उपन्यास – ‘मेरा पता कोई और है’ और ‘ये दिये  रात की ज़रूरत थे’ प्रकाशित हो चुके हैं | जब एक कहानीकार जब उपन्यास जैसी विधा में प्रवेश करता है तो उसके सामने मुख्य कठिनाईयां क्या होती हैं ?

उत्तर- जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, लिखना मेरे लिए सिर्फ लिखना है,और कोई विषयवस्तु ही यह तय करने में मेरी मदद करता है कि उसे किस तरह याकि किस विधा में बरता जाये। तो इन विषयों पर सोचते हुये मुझे लगा इन्हें उपन्यास में ही ढलना चाहिए।

उपन्यास लिखना मेरे लिए चुनौती जैसा इसलिए था कि वह समय मांगता था, एक रूटीन भी। जिसके लिए तबके मेरे जीवन में बिलकुल समय न था। तो इसे एक चुनौती की तरह ही लिया और बरता ...। वरना कविताओं से ज्यादा कहानियाँ भी इसीलिए लिखी गयीं  कि वो वक्त मांगती थीं , तनाव मांगती थीं , समर्पण मांगती थीं । कविता लिखने की तरह इसमें तुरत-फुरत मुक्ति नहीं थी। शायद कविता लिखना छूटता या कम होता गया जीवन से तो इसलिए कि इसमें वह चुनौती  नहीं थी मेरे हिसाब से। लिख न पाने की वह अनिश्चितता भी नहीं।

मेरे लिए उपन्यास लिखना उस तरह की कोई चुनौती कभी नहीं रही किमैं उपन्यास नहीं लिख सकती। मैं हमेशा से यह जानती थी, मैं उपन्यास लिख सकती हूँ और बहुत सहजता से लिख सकती हूँ। दिक्कत सिर्फ इतनी थी कि तब बिटिया बहुत छोटी थि, सो वक्त की कमी-सी  रहती थी। मैं जानती थी उपन्यास लिखना बहुत वक्त लेने वाला काम है, इसके लिए एक रूटीनबद्ध जीवनशैली बहुत जरूरी है और लिखने की नियमितता भी।

ऐसा मुझे इसलिए भी लगता था क्योंकि मैं एक उपन्यास शुरू करके उसे समयाभाव के कारण ही बीच में छोड़ चुकी थी। तो इस बार बेहद संजीदा और रूटीनबद्ध होकर लिखने की जरूरत थी और सबसे बड़ी चुनौती भी यही थी मेरे लिए। जिससे लड़ते हुये मैंने अपने दोनों उपन्यास लगभग तीन-तीन महीने के तयशुदा वक्त में पूरे किए। छोटी-छोटी बैठकों में भी ये कोशिश की कि कम-से-कम एक चैप्टर पूरा किए बिना न उठूँ ताकि उपन्यास की संरचना और बहाव में कोई गैप न आने पाये। आपको शायद आश्चर्य हो, शुरुआती कुछ दिन या कोई एक महीना मैं दोनों उपन्यास एक ही साथ लिख रही थी। एक सुबह और दूसरा शाम, पर बाद में एक को छोड़कर दूसरे को पूरा किया।

इन उपन्यासों को लिखते हुए यह भी ख्याल रखा कि अपने पहले अधूरे उपन्यास की तरह इन की नायिका मैं न रहूँ और मेरे जीवनानुभव इसमें कम से कम हों । पहले उपन्यास के अधूरे रह  जाने का एक कारण यह भी रहा शायद कि  इसमें मैं भी एक पात्र थी, यह कहानी मेरी भी कहानी थी, जो जगह-जगह रोक लेती थी, थाम लेती थी मुझे। फिर से सोचने का आग्रह और कई बार जिरह भी करती थी मुझसे।

कहानी और उपन्यास की वस्तु और संरचना दोनों में बड़ा  अंतर होता है। पिछले कुछ वर्षों में लम्बी कहानी को ही उपन्यास कहने का चलन-सा हो गया है। कहानी जहाँ जीवन के किसी खास टुकडे या प्रसंग से जुडे यथार्थ की पुनर्रचना है, वहीं उपन्यास जीवन को समग्रता में देखने वाली विधा है। इसी कारण इसे जीवन का महाकाव्य भी कहा जाता है। यदि सिर्फ लम्बाई के आधार पर ही इन दोनों विधाओं में अंतर किया जाएगा तो दिक्कतें आएंगी।  जब एक लेखक कहानी लेखन से उपन्यास लेखन की तरफ बढ़ता है, उसकी सबसे बड़ी और पहली चुनौती संरचना के स्तर पर औपन्यासिकता को साध पाना ही होती है। निश्चित तौर पर इस संरचना को हासिल करने में जीवन दृष्टि, समय के अनुशासन और नियमितता की भी भूमिका होती है।

प्रश्न- मेरी जिज्ञासा है कि आप मेरा पता कोई और है’ उपन्यास की रचना प्रक्रिया के बारे कुछ बताएं ! इसे आप किस तरह का उपन्यास मानती हैं ? इसके शिल्प में क्या आपने कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जिसे हिन्दी उपन्यास में नया प्रयोग कहा जा सके !

उत्तर- रचना-प्रक्रिया पर तो बात अभी कर ही चुकी हूँ। अब बात नए याकि नए तरह के प्रयोग की। नया प्रयोग एक बहुत बड़ा शब्द है आजकल बाट आसानी से लोग इसका प्रयोग कर जाते हैं। मैं इससे यथासंभव बचना चाहती हूँ।

‘मेरा पता कोई और है’ मूलतः यह एक प्रेम कथा है, पर इतना कह देना इस उपन्यास को सीमित कर के देखना भी होगा। जीवन का उद्देश्य, उस उद्देश्य की तलाश...इतिहास, कला,दोस्ती,  स्त्री-पुरुष संबंध, मुस्लिम-हिंदू परिवेश, बहुत बेमेल दीखते रिश्ते और उसके भीतर की कंपेटिबिलिटी सब इसमें इस तरह गुथे हुए हैं कि रेशे-रेशे करके उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।

प्रश्न-आपका दूसरा उपन्यास (ये दीये रात की ज़रूरत थे) को मैं व्यक्तिगत तौर पर आपके लेखकीय कर्म की उपलब्धि मानता हूँ पर पाठकीय और आलोचकीय जगत में इसको लेकर उत्साह कम रहा | क्या कभी आपको महसूस हुआ कि इस उपन्यास के शिल्प को जिस तरह बरता गया है उसमें सामान्य पाठक को आगे बढ़ते हुए कठिनाई होती है !

उत्तर- बतौर लेखक मुझे अपने दोनों ही उपन्यास प्रिय हैं। पर बतौर पाठक कहूँ तो ‘मेरा पता कोई और है’ज्यादा स्मूद और पठनीय उपन्यास है मेरी नजर में। पठनीय होना मेरे हिसाब से लोकप्रिय होने से जरूर जुड़ा होता है, बेहतर होने से भी इसका वास्ता हो यह कोई जरूरी नहीं।

दूसरे  उपन्यास में लगभग सौ वर्षों का कालखंड समेटा गया है। स्वतन्त्रता संग्राम के बहुत पहले से चलकर यह कथा वर्तमान तक की यात्रा तय करती है। बहुरूपिया कलाकारों से लेकर स्वतन्त्रता संग्राम के जीवित, मृत, काल्पनिक,अर्द्ध काल्पनिक और वास्तविक पात्र सब इसमें शामिल हैं।  इन्हें एक साथ समेटना इतना सहज नहीं था। संभव है इन सब की कथा कहने और समेटने की प्रक्रिया में इस उपन्यास का कथानक थोड़ा जटिल भी हो गया हो। वैसे कथानक की जटिलता हर बार पाठक को अवरुद्ध करे जरूरी नहीं और फिर हर पाठक के ग्रहण करने की क्षमता भी एक सी नहीं होती। मैंने अपनी तरफ से यह कोशिश जरूर की है कि कथानक की जटिलता पाठ के प्रवाह में बाधा न बने। पर इसमें कितना सफल हो सकी यह तो पाठक ही बता सकते हैं।

प्रश्न - मुझे लगता है, बेड़िया समुदाय की संघर्षशीलता को पहली बार हिन्दी की किसी औपन्यासिक कृति में कथ्य बनाया गया है। यह कैसे संभव हुआ या यह कहूँ कि इस उपन्यास को लिखने का ख्याल कैसे आया?

बेड़िया समुदाय की संघर्षशीलता को पहली बार हिन्दी की किसी औपन्यासिक कृति में कथ्य बनाया गया, ऐसा भी नहीं है। बहुत पहले भी रांगेय राघव नटों  के जीवन पर आधारित उपन्यास कब तक पुकारूँ लिख चुके हैं। मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास अल्मा कबूतरी कबूतरा जनजाति की एक महिला के जीवन पर आधारित है, जो बाद में राजनीति में आती हैं। तो यह उपेक्षित जन जातियों के जीवन पर आधारित कोई पहला उपन्यास बिलकुल नहीं। हाँ, इसमें एक नया आसंग जरूर जुड़ जाता है, उनकी स्वतन्त्रता संग्राम में भूमिका को लेकर।

मैं अपने बचपन में जिस तरह से अपने शहर में बहुरूपियों को देखती रही थी, एकाएक से उनका उस शहर से ही नहीं देश के नक्शे के बहुत सारे शहरों से विलुप्त होते जाना मेरे लिए बहुत सोचनीय और चिंताजनक बात थी।  इस विषय की गहराई से छानबीन करते हुए इनके विलुप्त होने का जो सबसे बड़ा कारण समझ आ रहा था,वह है- लोगों के मन में इनके लिए अविश्वास और मनोरंजन के नये और आधुनिक साधनों के विकास की वजह से इनकी उपेक्षा।इस खोजबीन के दौरान लगातार एक प्रश्न मुझे बेचैन करता रहा कि जातियाँ जरायम पेशा होती हैं या इंसान?आज सोचूँ तो लगता है, मन को कुरेदते रहने वाले इस सवाल में ही इस उपन्यास का बीज छुपा हुआ था।

प्रश्न – कविता जी ऐसा लगता है कि दुर्भाग्य से हिन्दी आलोचना में इस उपन्यास को लेकर कोई विशेष चर्चा या बहस नहीं हुई, जबकि यह एक सशक्त उपन्यास है | आज़ादी के अमृत महोत्सव की देश में धूम है ऐसे में इस उपन्यास पर नए सिरे से बहस होनी चाहिए !

मैंने लिखने को हमेशा अपनी वरीयता और प्राथमिकता की सूची में रखा है,प्रचार-प्रसार को उस तरह नहीं। मेरे हिसाब से लेखक का काम सिर्फ और सिर्फ लिखना है, प्रचार-प्रसार उसका काम नहीं, मेरे हिसाब से यह प्रकाशक कि ड्यूटी है, उसका कर्तव्य। अबके माहौल को देखते हुये यह बात उतनी सही नहीं लगती शायद। प्रचार-प्रसार, जैसा कि मैं महसूस कर रही हूँ इन दिनों, प्रकाशक से कहीं ज्यादा लेखक के कर्तव्य में शामिल होता जा रहा है। प्रचार कुछ और करें या नहीं, उससे चर्चा और बहस का माहौल तो बनता ही है। आप इसे मेरे कमी ही कह लीजिए कि मैं यह सब नहीं कर पाती। शायद इसलिए भी ऐसा हुआ हो...

फिर भी मैं अपने विचारों में कोई खास रद्दो-बदलन करते हुए अब भी यह भरोसा करती हूँ कि रचना में अगर शक्ति है तो वह हमेशा जीवित रहेगी और आज न कल अपनी जगह और पहचान बना ही लेगी। हाँ, यह जरूरी नहीं कि यह आज और अभी ही हो जाय। कई बार तो लेखक के  जीवन काल में यह संभव भी नहीं होता। इस संदर्भ में हर तरह के उदाहरण मौजूद हैं। किताबें अपनी वस्तु और बुनावट की सामर्थ्य और गुणवत्ता के कारण अपनी जगह बनाएं  यह ज्यादा जरूरी है, न कि प्रायोजित और आयोजित चर्चा-कुचर्चा के कारण? हाल-फिलहाल गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि को बुकर की शॉर्ट लिस्ट में शामिल देखकर यह धारणा और भी प्रगाढ़ हुयी है।

प्रश्न-पिछले दो दशकों से आप कथा की दुनियां में सतत सक्रिय हैं | इन दो दशकों की यात्रा को आप किस रूप में देखती हैं ? आपने जिस दौर में कहानी लेखन की शुरुआत की उस समय के कहानी परिदृश्य और आज के परिदृश्य में क्या फ़र्क दिखाई देता है?

उत्तर-आपने दो दशक की बात की। मैं इसे कुछेक साल और पीछे तक ले जाना चाहती हूँ, ताकि अपनी पीढ़ी से ठीक पहले की पीढ़ी के साथ जुड़ाव को भी रेखांकित कर सकूँ।  लगातार विकसित होते बाज़ार, क्रूर होते समय,क्षरित होती संवेदनाओं और तेज होते अस्मिता संघर्ष के कालखंड की तरह इस पूरे समय को रेखांकित किया जा सकता है। कमोबेश इन्हीं चिंताओं के इर्दगिर्द इस समयावधि की कहानियाँ लिखी गई हैं। यहाँ मैं अपनी पीढ़ी से पहले के कथाकारों की कुछ कहानियों का जिक्र करना चाहती हूं जो न सिर्फ इस समय की आरंभिक पगध्वनियों को पहचान रही थीं बल्कि अपने समय का सार्थक अक्स या कि विस्तार रचती हुई हमारी पीढ़ी के सामने एक चुनौती के रूप में भी टंगी हुई थीं।अपने समय को मजबूती से प्रतिविंबित करती हमारे लिये मानक जैसी ये कहानियां थीं निर्मल वर्मा की ‘सूखा’, पंकज विष्ट की ‘टुंड्रा प्रदेश’ और ‘बच्चे गवाह नहीं होते’, संजीव की ‘आरोहण’, शिवमूर्ति की तिरिया चरित्तर’, उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’, अखिलेश की ‘शापग्रस्त’, भालचंद्र जोशी की लौटा तो भय’, देवेन्द्र की ‘क्षमा करो हे वत्स’ संजय खाती की ‘पिंटी का साबुन’ सृंजय की ‘कामरेड का कोट’, प्रेमकुमार मणि की ‘१९८४’, जयनंदन की ‘विश्व बाज़ार का ऊंट’, संजय सहाय की ‘टोपी’, योगेंद्र आहूजा की ‘स्त्री विमर्श’, मनोज रूपड़ा की ‘साज-नासाज’, राकेश कुमार सिंह की ‘ग्लेशियर’, गौरीनाथ की ‘महागिद्ध’ आदि।

पिछली सदी के आखिरी कुछ सालों और इस सदी के आरंभिक एक-डेढ़ दशक में उभर कर आये कथाकारों की कहानियों को भी हम लगभग इसी परंपरा से जोड़ कर देख सकते हैं। बेहतर या कमतर एक अलग प्रश्न है और यहां मैं उसकी चर्चा में जाना भी नहीं चाहती लेकिन इन लेखकों की कहानियों में भी वह समय और सघन होकर उभर कर आता है जिसकी धमक हमें अपने पूर्ववर्ती कथाकारों की उपर्युक्त कहानियों में सुनाई पड़ी थी। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह विद्रूप समय अपनी संपूर्ण विसंगतियों, त्रासदियों और अन्तर्विरोधों के साथ हिन्दी कहानी  में लगातार दर्ज हो रहा है। हमारी पीढ़ी में जैसा कि मैंने पहले भी आपसे कहा, स्त्री कथाकारों की मजबूत भागीदारी रही है। मुझे खुशी है कि पिछले पाँच-सात वर्षों में जो कथाकार सामने आये हैं, उसमें भी यह सिलसिला जारी है।

प्रश्न- आपको अपने समकालीन या कहें आपकी पीढ़ी के कौन से कथाकार अधिक प्रभावित करते हैं?

उत्तर- यह एक जोखिम और जिम्मेवारी भरा सवाल है। ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रही कि मैं इस प्रश्न से बचकर निकल जाना चाहती हूँ। बल्कि मैं यह मानती  हूँ कि अपने समकालीनों पर कुछ कहते हुए ज्यादा सावधानी और तैयारी से बात करनी चाहिये। तुरंत फुरन्त की कोई नामावलि कई  बार उचित तस्वीर पेश नहीं करती। क्यों न इस प्रश्न को बाद के लिए रख लिया जाय?

प्रश्न- आपने जोखिम और जिम्मेवारी की जो बात कही है, वह सही है। फिर भी मैं चाहूँगा कि आप अपनी पीढ़ी की कुछ वैसी कहानियों का उल्लेख जरूर करें, जिन्हें आप महत्त्वपूर्ण मानती हैं।

उत्तर- आप मानेंगे नहीं। पर कहानीकारों के बजाय प्रश्न को कहानी तक लाकर आपने मेरा काम कुछ आसान जरूर कर दिया है। बिना किसी खास क्रम के कुछ अनायास याद आने वाली कहानियों की बात करूँ तो उनमें पंकज मित्र की ‘क्वीज मास्टर’ और ‘कफन रीमिक्स’, प्रियदर्शन की ‘खोटा सिक्का’, नीलाक्षी सिंह की ‘टेक बे त टेक न त गो’, रवि बुले की ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’, अल्पना मिश्र की ‘स्याही में सुर्खाब के पंख’, तरुण भटनागर की दादी, मुल्तान और टच एंड गो’, अंजलि काजल की ‘इतिहास’, अरुण कुमार असफल की ‘पांच का सिक्का’, मो। आरिफ की ‘चोर सिपाही’, पंखुरी सिन्हा  की ‘किस्सा-ए-कोहिनूर’ प्रेम रंजन अनिमेष की ‘एक मधुर सपना’ और ‘जानी है जब जान पियारे’, वंदना राग की ‘यूटोपिया’, अजय नावरिया की ‘गंगा सागर’, राकेश बिहारी की ‘और अन्ना सो रही थी...’मनोज कुमार पांडेय की ‘पानी’, चंदन पांडे की ‘भूलना’, कुणाल सिंह की ‘आखेटक’ विमलचंद्र पांडे की ‘डर’, राकेश मिश्र की ‘शह और मात’, सत्यनारायण पटेल की ‘लूगड़ी का सपना’, चरण सिंह पथिक की ‘कैसे उड़े चिड़िया आदि अलग-अलग कारणों से जेहन में अटकी हुई कहानियां हैं, जो अपनी सामर्थ्य और सीमाओं के साथ हिन्दी कहानी की परंपरा का सार्थक विस्तार करती हैं।

प्रश्न -हाल ही में आई अपनी काहानियों के बारे बताइए ? इधर आप क्या लिख रही हैं या किसी आगामी योजना पर काम कर रही हों तो उसे साझा करें |

उत्तर- इस वर्ष एक कहानी हंस के फरवरी अंक में आई है- ‘उस गोलार्द्ध  से। यह कहानी भी मातृत्व के अनुभवों से जुड़ी कहानी है, पर इस बार मातृत्व का दायित्व महज अपने बच्चे के लिए, उसकी चिंता में सन्निहित नहीं है, यहाँ माँ होना मातृत्व के फ़लक को फैलाकर और विस्तृत कर देना है। दूसरी कहानी प्रेम में चले आए मजहबी फ़ासलों और स्त्री के लिए प्रेम से कहीं अधिक अपनी निजी पहचान को वरीयता देने को लेकर है। यह कहानी वरिष्ठ कथाकार भालचंद्र जोशी जी के सम्पादन में आ रही आज की जनधारा की साहित्य वार्षिकी में आ रही है। कहानी का शीर्षक है- ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’। तीसरी कहानी जो अभी कहीं नहीं भेजी गयी वह मित्रता के सहज एहसास के इर्द-गिर्द बुनी हुयी है। इसके साथ कुछ अन्य कहानियाँ भी मन में आकार ले रही हैं। इस साल अपने उस अधूरे उपन्यास को भी पूरा करना चाहती हूँ, जिसका जिक्र आपसे किया।  एकाध उपन्यासिकाओं  का अभी खाका मन में है। लेकिन ये बस योजनाएँ हैं, जो हमेशा ही मन में रहती हैं। इनमें कितना और कब पूरा होगा कैसे कहा जाए !

कविता, मुजफ्फरपुर (बिहार), सम्पर्क : 7461873419


शशिभूषण मिश्र

युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र ने पिछले एक दशक में अपनी लेखकीय उपस्थिति से हिंदी की कथा-आलोचना में एक संभावनाशील पहचान बनाई है  वर्तमान में वह 'लमही' पत्रिका के कविता आधारित अंकों का अतिथि संपादन कर रहे हैं वर्तमान में वह बांदा स्थित राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी के सहायक प्रोफेसर हैं

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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