समीक्षा : प्रवसन की व्यथा-कथा: ‘पुरबियों का लोकवृत्त वाया देस-परदेस’ / मनीष कुमार साव

प्रवसन की व्यथा-कथा: ‘पुरबियों का लोकवृत्त वाया देस-परदेस’
- मनीष कुमार साव 

पूरे विश्व में विस्थापन एक बहुआयामी और सतत गतिशील प्रक्रिया है। लोग अपने आजीविका की तलाश में, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए निरंतर प्रवास करते रहे हैं। इस प्रक्रिया में लोग अपनी व्यक्तिगत-सोच, सामाजिकता, आचार-विचार, घर-परिवार, भाषा- संस्कृति इत्यादि के साथ प्रवास करते रहे हैं। इस प्रवसन चक्र के जरिये वे लोग समुदाय, जाति, धर्म, देश-प्रदेश की संस्कृति और सभ्यता इत्यादि को प्रभावित करते चलते हैं और कई बार उनसे प्रभावित भी होते हैं। यह पारस्परिक आदान-प्रदान की निरंतर प्रक्रिया है। ठीक इसी तरह भारत के प्रमुख रूप से दो राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार अपने प्रवसन-चक्र के कारण अनेक समाज और संस्कृति को प्रभावित किया है। 

    औपनिवेशिक काल में भारत की एक बहुत बड़ी आबादी उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य से अपने आजीविका की तलाश में कलकत्ता जैसे महानगरों की तरफ रवाना होते रही, तो वही दूसरी ओर ब्रिटिश शासन द्वारा गिरमिटिया मजदूरों की भांति किसी अन्य मुल्क में प्रवास करने को मजबूर हुए। फिजी, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण - अफ्रीका इत्यादि देशों से बड़ी संख्या में लोगों का प्रवसन अन्य देशों में होता रहा है और हो रहा है। ये प्रवासी मजदूर अपने साथ अपनी संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाज इत्यादि को साथ लेकर जाते हैं और अपने मेहनत से देश और परदेस दोनों को आबाद करते हैं। 

     आज हम जिस पुस्तक की चर्चा करने जा रहे हैं उसमे भारत के दो प्रमुख राज्यों (उत्तर प्रदेश और बिहार) के प्रवसन-चक्र और भोजपुरी श्रमिकों की संस्कृति में आए बदलाव, उनकी मौखिक परंपरा में श्रम-प्रवसन, श्रमिकों की व्यापारिक गतिशीलता, श्रमिकों की बनिजिया और सिपहिया लोक-संस्कृति के साथ-साथ देस-परदेस की स्त्री का शोधपूर्ण दृष्टि से अध्ययन किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक का नाम "पुरबियों का लोकवृत्त वाया देस-परदेस" है। इसके लेखक धनंजय सिंह है। यह शोध कार्य इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी, शिमला में हुआ है, जो पुस्तक रूप में 2020, में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

    धनंजय सिंह ने "पुरबियों का लोकवृत्त वाया देस-परदेस" विषय पर शोध कार्य के लिए मौखिक परंपरा को, इतिहास लेखन का प्रारंभिक श्रोत मानते हुए इस प्रश्न का समाधान करने का प्रयास करते हैं कि आखिर भोजपुरी प्रदेश के प्रवासी श्रमिकों का इतिहास लेखन कैसे करूँ? तब लेखक यह रास्ता निकलते हैं कि पहले वह एक सैद्धांतिकी तैयार करते हैं और फिर उस सैद्धांतिक ढांचे पर इस शोध अध्ययन को निबद्ध करते हैं। परंतु, लेखक इस शोध अध्ययन को केवल मौखिकता में निहित तथ्यों पर ही विश्वास नहीं करता बल्कि उसकी प्रमाणिकता के लिए विषय से संबंधित लिखित दस्तावेजों का भी मुआयना करते हैं। लेखक का ये अध्ययन लोकसाहित्य  और इतिहास के बीच गमन करता है। अध्ययन, विश्लेषण और लेखन की सुविधा के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबंध को लेखक ने छह अध्यायों में विभाजित किया है-

1.प्रवसन- चक्र में देस-परदेस: लोकसंस्कृति के बदलते आयाम।
2.भोजपुरी की मौखिक परम्परा में श्रम प्रवसन: परिवर्तन और निरन्तरता।
3.श्रमिक- व्यापारियों की गतिशीलता: बनिजिया लोकसंस्कृति।
4.श्रम बाजार में भोजपुरिया जवान: सिपहिया लोकसंस्कृति।
5.प्रवासी मजदूर: बिदेसिया लोकसंस्कृति।
6.देस- परदेस की स्त्री।\

     इन अध्यायों के माध्यम से लेखक ने भोजपुरी लोक, समाज और संस्कृति के जुड़ते-बदलते परिप्रेक्ष को समझने का प्रयास किया है।

     इस शोध अध्ययन का पहला अध्याय 'प्रवसन-चक्र में देस-परदेस : लोकसंस्कृति के बदलते आयाम' है। यहां लेखक इतिहास में प्रवसन-चक्र की प्रक्रिया को देखने का प्रयास करते हैं। साथ ही उसके कारणों पर भी प्रकाश डालते हैं । लेखक प्रवसन का मुख्य कारण आजीविका को मानते है। वे प्रवसन -चक्र को एक जटिल प्रक्रिया मानते हुए कहते है कि- "प्रवसन का यह चक्र वृत्ताकार या होरिजेंटल नहीं, उत्थान-पतन की तरह नहीं बल्कि इसकी दिशा बहुआयामी होती है। जिधर दाना-पानी दिखा या दिखाया गया या फिर भगा दिया गया। इस तरह प्रवसन चक्र एक जटिल पद मगर बहुआयामी व सतत गतिशील प्रक्रिया है।"(पृ.19) 

    लेखक प्रवसन-चक्र के वैचारिक पहलू को उभारते हैं। भूमंडलीकरण के प्रभाव के कारण जिस तीव्रता से प्रवसन की यह प्रक्रिया चल रही है उसमें परदेसी और उनके लोग अपनी भाषा-संस्कृति एवं अचार-विचार के जरिए अन्य समुदाय के समाज, संस्कृति, धर्म इत्यादि को प्रभावित करते चलते है या फिर होते हैं । इसी प्रक्रिया के वैचारिक पहलू पर बात करते हुए लेखक कहते है कि:-"देस से परदेस की ओर और परदेस से देस की ओर ; 'लेबर' से 'वर्क' की ओर एवं 'माइग्रेशन' से ' सर्कुलेशन' की ओर बढ़कर देखना।"(पृ.19)

    लेखक ने इसके उप-अध्याय में पूंजीवाद, सूचना प्रौद्योगिकी तथा कंप्यूटर-रोबोटिक तकनीक के कारण लोक-साहित्य में आए बदलावों की गहन पड़ताल की है। लोक की गतिशील सांस्कृतिक संरचना को देखते हुए लेखक ने लोक-संस्कृति के भविष्य को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की है। वो कहते हैं कि, "विकास और प्रगति की हवस जैसे -जैसे बढ़ रही है, यह चिंता बढ़ती जा रही है कि मनुष्य की कामनाओं का सैलाब उसे जड़ो से उखाड़कर वैश्विक कही जा रही एकरूप संस्कृति के महासागर में ठेल देगा।" लोक-संस्कृति के भविष्य को लेकर तीन तरह की विचार दृष्टि का जिक्र हुआ है- संरक्षणवादी, नियतिवादी और बहुभाषिकतावादी। उपरोक्त दृष्टि पर लेखक अपने मत प्रस्तुत करते हुए इस बात की पुष्टि करने का प्रयास करते हैं कि प्रथम दोनों विचार- दृष्टियाँ लोक के विसर्जन को कभी-न -कभी घटित होने वाली सच्चाई समझते हैं। परंतु तीसरी दृष्टि बहुभाषिकतावादी को रचनात्मक मानते हैं। उनका मानना है कि हिंदुस्तान के जिन क्षेत्रों में वहां की स्थानीय भाषा में शिक्षण का काम हुआ है, उन क्षेत्रों में साक्षरता की बयार से वहां की लोक संस्कृति समृद्ध हुई है। उदाहरण के लिए बंगाल और केरल जैसे प्रदेश उल्लेखनीय हैं। 

     भोजपुरी प्रदेश के किसान और मजदूर वर्ग पहले भारत के मुख्य शहर कलकत्ता, आसाम, बर्मा आदि शहरों में रोजगार के लिए प्रवास करते थे। परंतु 1980 ई. के दौर में वे लोग रोजगार नगरी दिल्ली, पंजाब, सूरत, अहमदाबाद, मुंबई इत्यादि शहरों का रुख करते है। धनंजय जी ने इस बात की पुष्टि के लिए लोकगीतों का सहारा लिया है। भोजपुरी लोकगीतों में आएं बदलावों पर बारीक नजर रखी जाएं तो यह बात साफ पता चलती है कि जिनके 'कलकत्तिया' पिया की पत्नियां अनपढ़ है। इसलिए गीतों में वह स्वयं चिट्टियां लिखकर भेजती हुई नहीं दिखाई पड़ती है बल्कि उसके पड़ोस के कायस्थ या फिर परिवार के सदस्य(देवर इत्यादि) से पत्र लिखवाती है। परंतु 'रजधनिया'(दिल्ली) पिया की पत्नी में काफी बदलाव आ गया है। वह पढ़ी लिखी है और स्वयं पत्र लिखती है। साथ ही 1980 के बीच हुए सूचना क्रांति का प्रभाव भी इन गीतों में देखने को मिलता है कि 'रजधनिया'(दिल्ली) पिया मनोरंजन के लिए गायकों और गायिकाओं की कैसट, टी. वी., डी. वी.डी. प्लेयर पर देखता सुनता है। यह बात निःसंदेह मानी जा सकती है कि लोक में अपार जिजीविषा है। वह उत्तर-उद्योगवाद की प्रौद्योगिकी में भी रूपांतरणशील लोक विकसित करेगा और वर्चस्व की संस्कृति के विरुद्ध सक्रिय रह कर ही अपनी पहचान कायम रखेगा।

     दूसरा अध्याय 'भोजपुरी की मौखिक परंपरा में श्रम प्रवसन:परिवर्तन और निरन्तरता' है। इतिहास की परम्परा को समझने के लिए तथ्यों का होना आवश्यक है। भारत में इतिहास लेखन की दो परंपरा है। एक लिखित परंपरा में, जिसके अंदर शिलालेख, ताड़पत्र, भोजपत्र इत्यादि। दूसरा, सबसे महत्वपूर्ण है, स्मृति। स्मृति के कारण ही मौखिक परंपरा का विकास हुआ है, जिसमें हम गीतों, कहानियों के माध्यम से तथ्यों को संग्रहित करते रहे हैं। लोक साहित्य में मौखिक परम्परा का विशेष महत्व है। लेखक ने इस अध्ययन में प्रारंभिक श्रोत के रूप में मौखिक परम्परा के इतिहास लेखन का चुनाव किया है। श्रम प्रवसन के दौरान भोजपुरी प्रदेश के लोगों के संस्कार, आस्था, विश्वास, रीति-रिवाज, गीत, गाथा, देवी-देवता, कथा-कहानी इत्यादि चीजों पर गंभीर प्रभाव पड़ा है और उसमें अनेकों परिवर्तन भी हुए है। लेखक के अनुसार श्रमिकों के प्रवसन के दौरान विभिन्न लोकसंस्कृति का जन्म हुआ है -जिसमें बनिजिया लोकसंस्कृति, सिपहिया लोकसंस्कृति एवं बिदेसिया लोकसंस्कृति प्रमुख है। इस अध्याय में लेखक ने यह खोजने का प्रयास किया है कि प्रवास -प्रक्रिया के दौरान भोजपुरी समाज के किन संस्कारों, लोकविश्वासों, मान्यताओं, धारणाओं इत्यादि में परिवर्तन आया है? और कौन-सी चीजें अभी बनी हुई हैं? जिन्हें लोक साहित्य ने अपने आँचल में सहेज रखा है। इन्हीं प्रश्नों की पड़ताल इस अध्याय में की गई है। 

     धनंजय जी ने इस अध्याय में लोकगीतों में प्रवसन की परम्परा का बहुत बारीकी से अध्ययन किया है। “भोजपुरी समाज के प्रति धारणा है कि भोजपुरी समाज अपनी मातृभूमि से जकड़ा हुआ था या भोजपुरी प्रदेश से प्रवसन की शुरुवात औपनिवेशिक दौर से ही शुरू हुई है। परंतु ऐसा नहीं है। लोक गाथाओं और लोक गीतों की माने तो सदियों से भोजपुरी समाज मजबूरी ही नहीं, बल्कि बेहतर अवसरों की तलाश में एक जगह से दूसरे जगह जाता रहा है। प्रवसन की यह प्रवृत्ति पूरे भारतीय समाज पर भी लागू होती है।” (मोतीचंद्र, सार्थवाह,पटना: बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्,1953, 52-67)

    एक लाचारी गीत है- "अपने त गइले सइयाँ पूरबी रे बनिजिया" इस गीत के माध्यम से हम देख सकते है कि भोजपुरी प्रदेश से पूरब दिशा में(बंगाल, असम,कलकत्ता,मोरंग जैसे क्षेत्र) व्यापारियों और श्रमिकों  का चलन रहा है। यह प्रवसन भारतीय इतिहास में मध्यकाल से लेकर अंग्रेजी राज होते हुए आजाद भारत में कुछेक दशकों तक रहा है। परंतु कुछ इतिहासकारों का कहना है कि इन भोजपुरिया व्यापारियों की व्यापार की दुनिया में कोई बड़ी हस्तक्षेपी भूमिका नहीं थी।(पृ.41)

    श्रम गीतों में श्रम प्रवसन की मर्मस्पर्शी छवि है। एक गीत आज भी बहुत लोकप्रिय है-" रेलिया बैरी ना जहाजिया बैरी/से पइसवा बैरी ना। सइयाँ के लेके गइल बिदेसवा/से पइसवा बैरी ना।" इसमें औपनिवेशिक श्रम प्रवसन की अभिव्यक्ति है। पति परदेस चला गया है। पत्नी सोच रही है कि रेल या जहाज उसके बैरी नहीं है बल्कि घर में कुछ है ही नहीं, इसलिए पैसे का अभाव ही बैरी है। यह गीत कुली प्रथा के तहत हुए श्रम प्रवास की ओर संकेत कर रहा है। 

    इस अध्याय में भोजपुरी की मौखिक परंपरा में प्रवास यात्रा के लिए किन लोक विश्वासों की अभिव्यक्ति मिलती है? समकालीन दौर में उनमें क्या परिवर्तन आएं है एवं कौन से विश्वास एवं संस्कार अभी बने हुए हैं? इन चंद सवालों का बेहद गम्भीरता से इस शोध कार्य में अध्ययन किया गया है।

    तीसरा अध्याय 'श्रमिक - व्यापारियों की गतिशीलता: बनिजिया लोकसंस्कृति' है। बनिजिया की अवधारणा यह है कि प्रवास करके किसी भी चीज के व्यापार करने वाले को भोजपुरी लोकसंस्कृति में 'बनिजिवा' के नाम से जाना गया है और उसकी व्यापारिक क्रिया को 'बनिजिया' कहा गया है। 'बनिजिया', बंजारा नामक घुमंतू जाति से बिल्कुल अलग है। भोजपुरी के मौखिक आख्यान पिछड़ी दलित-जातियों द्वारा प्रस्तुत किए जाते रहे हैं। इन आख्यानों में सती बिहुला उर्फ बाला लखंदर, लोरिकायन, आल्हा-ऊदल, गोपीचंद, लचिया रानी के गीत, रेशमा चूहड़मल, हिरनी-बिरनी या पोसन सिंह के गीत इत्यादि प्रमुख है। इन गाथाओं को सर्वप्रथम ब्रिटिश अधिकारियों ने संकलन कर प्रकाशित करवाया और बाद में चलकर भारतीय राष्ट्रवादियों ने भी संरक्षण हेतु इसका संकलन और प्रकाशन करवाया। इन आख्यानों की अभिव्यक्ति मौखिक परंपरा के माध्यम से होती रही है। इस अध्ययन में भोजपुरी लोकगीतों एवं आख्यान, उनके गायकों का पेशा एवं उनकी सामाजिक पहचान इत्यादि सब किस प्रकार प्रवासी श्रमिक व्यापारियों के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक इतिहास की कैसी छवि निर्मित करते है? आगे चलकर उनके व्यवसायों में किस तरह के बदलाव हुए? इन सभी बिंदुओं को भोजपुरी की मौखिक परंपरा ने किस रूप में अभिव्यक्त किया है, उसी का अध्ययन इस अध्याय में किया गया है।

    चौथा अध्याय 'श्रम बाज़ार में भोजपुरिया जवान सिपहिया लोकसंस्कृति' है। भोजपुर प्रदेश के लोग सदैव साहसी और उत्साही माने जाते रहे है। भोजपुरी जवानों में वीरता के साथ-साथ धर्मभीरुता और जातिभीरुता भी सदैव विद्यमान रही है। यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि भारतीय इतिहास में भोजपुरी प्रदेश के सैनिकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 17 वीं शताब्दी में मुग़ल काल से लेकर 1857 की स्वाधीनता संग्राम में 'सैनिक विद्रोह' के रूप में भोजपुरी सिपाहियों की उपस्थिति देखी जा सकती है। अकबर के शासन काल में भोजपुरी उज्जैनिया परिवार के लोगों ने मिलिट्री की ठेकेदारी संभाली हुई थी। इस अध्याय में भोजपुरी के श्रमिकों में मुग़ल काल से लेकर 1857 ई. की क्रांति तक में शौर्य मानसिकता की निर्मिति किस प्रकार हुई है? भोजपुरी प्रदेश की प्रत्येक जाति की अपनी अपनी लोक कथाएं है। सब के अपने -अपने वीर है। विभिन्न दौर में इन सिपाहियों को मिले सम्बोधनों में 'पुरबिया', 'बक्सरिया', 'तिलंगवा' जैसे पदों के पीछे क्या कारण रहे है? उनके जातिगत स्वरूपों में किस प्रकार के परिवर्तन हुए है? इन सभी का मौखिक गीत परंपरा के माध्यम से अध्ययन करने का प्रयास किया गया है।

    पांचवा अध्याय' प्रवासी मजदूर: बिदेसिया लोकसंस्कृति' है। दो- ढाई सौ वर्ष पहले भोजपुरी प्रदेश खुशहाल था । लेकिन औपनिवेशिक दौर में औद्योगिकरण के कारण शिल्पकारों की बेरोजगारी का प्रभाव कृषि पर पड़ा। दूसरी तरफ अफीम और नील की खेती और समय पर बारिश न होने के कारण कृषि व्यवस्था चौपट हो गई। साथ ही तत्कालीन सामंती भोजपुरी समाज में श्रमिकों का दोहन होता रहा । इस कारण उन्हें विभिन्न राज्यों में प्रवास करना पड़ा। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भोजपुरी क्षेत्र से प्रवसन की एक लंबी परंपरा रही है। मध्यकालीन संत कवियों के पद में 'बिदेस' शब्द का प्रयोग मिलता है, वह श्रम प्रवसन की ओर ही संकेत करता है। 'बिदेसिया' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कब हुआ ? यह बताना कठिन है। लेकिन मध्यकाल में कबीर के शिष्य धरमदास के एक पद में 'परदेस' शब्द का प्रयोग पहली बार देखने को मिलता है- "मिताऊ मड़ैया सुनि करि गैलो। अपने बलम परदेस निकरि गैलो।"हालांकि यह पद आध्यात्मिक संदर्भ लिए हुए है। 

     इस अध्याय में मुख्य रूप से यह जानने का प्रयास किया गया है कि औपनिवेशिक दौर में भोजपुरी लोकसंस्कृति भोजपुरी मजदूरों की अभिव्यक्ति किस प्रकार हुई है? बिदेसिया का उद्भव और विकास किस रूप में हुआ है? लोकसंस्कृति में कलकत्ता: कलकत्ता में प्रवासी मजदूर की उपस्थिति किस रूप में है, श्रम प्रवसन की ऐतिहासिक परिस्थितियों के दबाव में परंपरागत मिथकों में बदलाव एवं नए सृजन किस ओर हुआ है, भोजपुरिया श्रमिक समुदाय के लिए रेलगाड़ी औपनिवेशिक दौर में किस तरह प्रवसन की प्रतीक बनी, जिसकी झलक लोकगीतों में मिलती है। इन सभी प्रश्नों पर धनंजय जी ने बेहद बारीकी और तर्कसम्मत ढंग से उत्तर देने का प्रयास किया  है।

    अंतिम अध्याय ' देस-परदेस की स्त्री' है। भोजपुरी की मौखिक परंपरा ने स्त्रियों की पीड़ा, आकांक्षा, जिज्ञासा इत्यादि घटनाओं को दर्ज किया है। ये स्त्रियाँ भी अनेक अर्थों में प्रवसन की पीड़ा झेलती रही हैं।भिखारी ठाकुर न अपने 'बिदेसिया' नाटक में स्त्री की पीड़ा को बेहद बारीकी से अंकन किया है। इस अध्याय के प्रथम उप-शीर्षक में मौखिक परंपरा में उद्धरित गीतों के माध्यम से स्त्री वैचारिकी के तहत किस प्रकार पति के प्रवसन के दौरान जीवन में आशा-निराशा की कहानी की नींव तैयार होती है? इस अध्याय में परदेस की स्त्री के पारिवारिक व सामाजिक संबंधों को निर्धारित करने में उसके वर्ग, धर्म व जाति की भूमिका किस रूप में होती है? उन स्त्रियों के स्मृति और इतिहास के बीच कैसा तनाव रहा है? मौखिक परंपरा में उसके नैतिक आग्रह किस रूप में मिलते हैं? इन प्रश्नों पर विचार किया गया है । दूसरे उप-शीर्षक में उन स्त्रियों की सामाजिक संस्कृति जीवन को समझने का प्रयास किया है जो मजबूरीवश भोजपुरी प्रदेश से पलायन करती है। इस तरह की स्त्रियों के लिए भोजपुरी समाज 'उढ़री' जैसे शब्दों का प्रयोग करता है। भोजपुरी में एक बहुत लोकप्रचलित लोकोक्ति है कि 'उढ़री औरत, टेम्परेरी नोकरी आ टटिहर घर के ओर छोर ना ह।' अर्थात उढ़री औरत, टेम्पोरेरी नौकरी और झुग्गी-झोपड़ीनुमा घर का कोई भरोसा नहीं होता है। भोजपुरी बेल्ट के लोक कवि घाघ ने तो उढ़री औरतों से सावधान रहने की शिक्षा देते है। इस संबंध में इतिहासकार शाहिद अमीन का मानना है- " वह औरत जो परपुरुष के साथ भाग जाती है। हालांकि उसके साथ रहने वाली वह औरत उसकी पत्नी नहीं होती है।"(पृ.200)

    धनंजय ने उढ़री औरतों पर काफी विस्तार से गहन अध्ययन किया है। इनका मानना है कि इन स्त्रियों में अधिकांश वे लोग है जो विधवाएं, वंध्या स्त्री, परित्यकताएँ, अत्यंत निर्धन और दलित- शोषित महिलाएं है। इन्होंने स्वेच्छा से कभी भी पलायन नहीं किया बल्कि इन्हें पलायन के लिए मजबूर किया गया है। परंतु लेख ने इस अध्ययन में केवल कलकत्ता में भोजपुरी क्षेत्र की प्रवासी औरतों पर ही केंद्रित किया है। परन्तु भोजपुरी प्रदेश से घर से मजबूर होकर स्त्रियां न केवल कलकत्ता, झरिया, धनबाद, आसाम जैसे तत्कालीन औद्योगिक व बागानी इलाकों में पलायन करती थीं बल्कि अंग्रेजों के अन्य उपनिवेशों में भी लिंगानुपात के संतुलन के लिए सस्ते मजदूर के रूप में भेजी गई है। प्रवासी उढ़री औरतों के जीवन को समझने में भिखारी ठाकुर का साहित्य हमें पर्याप्त मदद करता है। प्रवासी उढ़री स्त्रियों को भिखारी ठाकुर ने पारिवारिक मर्यादा देकर तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के लिए बहुत बड़ा प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी कदम उठाया था। उनके अतिरिक्त सम्पूर्ण भोजपुरी समाज में उन्हें घृणा की दृष्टि से देखता है। इस अध्याय में उनके प्रति लोक समझ की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक बर्तावों की भी पड़ताल की गई है। इन्हीं बिंदुओं पर लेखक ने गंभीर अध्ययन के साथ तथ्यों की पड़ताल की है।

निष्कर्ष : हम कह सकते है कि धनंजय सिंह ने बड़े मनोयोग से इस पुस्तक में भोजपुरी समाज की सामाजिक, संस्कृतिक, आर्थिक पक्षों का वर्णन किया है। इस अध्ययन में प्रवसन चक्र की अवधारणा, उसके प्रभाव के कारण लोक संस्कृति में हो रहे बदलाव से हमें परिचित कराया है। भोजपुरी की मौखिक परम्परा में श्रम प्रवसन के दौरान आएं परिवर्तनों से भी हमें अवगत कराया है। जगह -जगह जाकर बेहद परिश्रम से जुटाएं गए संदर्भ ग्रन्थों के तथ्यों से श्रमिक - व्यापारियों की गतिशीलता, बनिजिया लोकसंस्कृति, सिपहिया लोकसंस्कृति और बिदेसिया लोकसंस्कृति की परंपरा और संस्कृति से परिचित कराया है। साथ ही अंतिम अध्याय में भोजपुरी प्रदेश के स्त्रियों के प्रवसन की स्थिति से भी अवगत कराया है। 

संदर्भ :
पुरबिया का लोकवृत्त वाया देस-परदेस: धनंजय सिंह 
राजकमल प्रकाशन, 2020 
पृ. 247, मूल्य – 250   

मनीष कुमार साव 
शोधार्थी भारतीय भाषा केंद्र, जे.एन.यू, नयी दिल्ली.
manishkumarsao16396@gmail.com, 9091433076

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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