शोध आलेख : शाक्तमत का उद्भव व विकास तथा चारण शक्ति-उपासना / सुमन कविया

शाक्तमत का उद्भव विकास तथा चारण शक्ति-उपासना
- सुमन कविया

शोध सार : भारत ही दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जिसमें शाक्तमत जैसे मत का उदय हुआ जो ईश्वर की स्त्री रूप में कल्पना करता है। नारी के प्रति ऐसा पूज्य भाव उसे विश्व के अन्य मतों से पृथक स्थान का अधिकारी बनाता है और गौरवपूर्ण स्थान दिलाता है। आर्य और आर्येतर सांस्कृतिक धाराओं में समन्वय के परिणामस्वरूप वैदिक धर्म में शक्तिपूजा की धारा सबलतर हुई। एक और आर्येतर संस्कृति से शक्तिवाद को पूजा, कल्पना, संस्कार और विश्वास जैसे तत्त्व मिले तो दूसरी ओर आर्य संस्कृति से अध्यात्म की अनुभूति मिली, दार्शनिक आधार मिला। वैदिक युग मैं जिस शाक्त परंपरा का उद्भव हुआ, उसका सूत्र काल, महाकाव्य काल, पुराण काल और पुराणोत्तर युग में क्रमिक विकास हुआ। चारण लोक देवियों की उपासना तथा शाक्त परंपरा को सुदृढ़ आधार प्रदान करने में चारण जाति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। चारणों की उपासना पद्धति बहुत ही सरल और सहज होने के साथ ही बाह्य आडंबर से रहित और भावपूर्ण होती है। शक्ति रूपा देवी की उपासना बालसुलभ भावना से भावित है। विशुद्ध प्रेम से परिपूर्ण शक्ति उपासना धर्मांचरण का आधार है,विवेक की वाहक है और वाणी के लिए वर्णनातीत है।

बीज शब्द : शाक्त मत, चारण, लोक देवियां, शक्ति-उपासना, अध्यात्म, शक्तिवाद, शक्तिपीठ, भक्तिवाद, आद्या शक्ति, अवतार, पूर्ण कलायुक्त, खंड कलायुक्त, उपासना।

समीक्षा पद्धति :
आलोचनात्मक अध्ययन पद्धति।

मूल आलेख : शाक्त मत में शक्ति को ही विश्व का प्रधान ईश्वर माना जाता है। इनकी ईश्वर संबंधी धारणा स्त्रैण है। विश्व के किसी भी अन्य धर्म में ईश्वर को स्त्री रूप में नहीं पूजित किया गया है। हां ,उसे ईश्वर की सहायक शक्ति अवश्य कहा गया है किंतु शाक्त मत ही एकमात्र ऐसा मत है जिसमें दुनिया की सर्वोपरि सत्ता एक नारी है। इस अवधारणा ने शैव, वैष्णव, जैन और बौद्ध धर्म सभी मतों को प्रभावित किया। भारत ही दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है जिसमें शाक्तमत जैसे मत का उदय हुआ जो ईश्वर की स्त्री रूप में कल्पना करता है। नारी के प्रति ऐसा पूज्य भाव उसे विश्व के अन्य मतों से पृथक स्थान का अधिकारी बनाता है और गौरवपूर्ण स्थान दिलाता है।

(क) आर्य संस्कृति में शाक्त मत का उदय

आर्य और आर्येतर सांस्कृतिक धाराओं में समन्वय के परिणामस्वरूप वैदिक धर्म में शक्ति-पूजा की धारा सबलतर हुई। सैंन्धव सभ्यता और वैदिक सभ्यता के अध्ययन से  शक्ति-पूजा की प्राचीनता और विश्वसजनीनता का पता चलता है। देवी-पूजा संबंधी अनेक बातें सैंन्धव सभ्यता में विद्यमान थी। उन लोगों का समाज मातृसत्तात्मक था। सिंधु घाटी सभ्यता के पुरास्थलों की खुदाई में मातृदेवी की अनेक मृण्मूर्तियां मिली है। सैंन्धव संस्कृति के पुरास्थलों से मातृदेवी की मृण्मूर्तियां तो प्रचुर मात्रा में मिली है साथ ही 'लिंग' और 'योनि' के भी अनेक प्रतीक मिले हैं जो शक्तिवाद के सैंन्धव संस्कृति से प्रारंभ होने के संकेत सूचक है। वर्तमान समय में हिंदू धर्म में यह लिंग और योनि क्रमशः 'शिव' और 'देवी' का प्रतीक है।

            यद्यपि आर्यों का धार्मिक ज्ञान श्रेष्ठ था परंतु कुछ ऐसी भी बातें हैं जिनमें द्रविड़ और पूर्व वैदिक लोग वैदिक लोगों से श्रेष्ठतर है।हिस्ट्री ऑफ फिलॉसफी ईस्टर्न एंड वेस्टर्नके पृष्ठ 39 पर सैंन्धव संस्कृति की कुछ विशेषताएं बताई गई हैं जो आर्यों में नहीं पाई जाती। जैसे मंदिर में ईश्वर की पूजा, शिव तथा देवी का धार्मिक और दार्शनिक स्वरूप, लिंग-योनि पूजा, पवित्र तीर्थ स्थान, यौगिक क्रियाएं, कर्म पुनर्जन्म का सिद्धांत, पूजा की धार्मिक विधि तथा मूर्ति-पूजा आदि बातें पूर्व वैदिक लोगों में द्रविड़ों की देन मानी जाती है।

            शक्तिपूजा का मूल या प्रारंभ यद्यपि आर्येतर था किंतु शक्ति वाद का जो वास्तविक और व्यापक स्वरूप हम कालांतर में देखते हैं, उसके निर्माण में आर्यों की महती भूमिका है। एक और जहां आर्येतर विचारधारा से शक्तिवाद को संस्कार, विश्वास, पूजा और कल्पना जैसे तत्त्व मिले वहीं दूसरी ओर आर्य विचारधारा से शाक्त मत को दार्शनिक आधार मिला, अध्यात्म की अनुभूति मिली। जब हम आर्यों के योगदान को समझ जाएंगे तभी हम शक्ति वाद की प्रमुख देवियों दुर्गा और काली को भी समझ जाएंगे।

            ऋग्वैदिक आर्यों ने देव पत्नी के रूप में देवियों की परिकल्पना की। यह देवियां यद्यपि गौण स्थान रखती है किंतु परवर्ती शक्तिवाद के उदय के बीज तत्व इन देवियों की कल्पना में विद्यमान है। गौसरस्वती, उषा, अदिति, रात्रि, वाक्, दिति, श्री, पृथ्वी, श्रद्धा, सरण्यू, पुरंधि, मही, धीषणा, सिनीवाली, अरण्यानी, रुद्राणी, सूर्या, शचि, सीता, भारती और उर्वरा आदि देवियों को ऋग्वैदिक आर्यों के देव मंडल में स्थान मिला।

1 उषा - उषा का ऋग्वेद में बहुत बार वर्णन किया गया है। ऋग्वैदिक ऋषियों ने किसी भी अन्य देवी का इतना मनोहारी वर्णन नहीं किया जितना की उषा का ऋग्वेद में हुआ है।

2 अदिति - अदिति ऋग्वेद में एक महत्त्वपूर्ण देवी है। अदिति शब्द संज्ञा है जिसका अर्थ है बंधन रहितता या बंधन से मुक्ति। अदिति का माता के रूप में वर्णन किया गया है।

3 रात्रि - रात्रि का वर्णन रात्रि सूक्त में है जो दशम मंडल में है। उषा का देवी के रूप में बहुत मनोहारी चित्रण है किंतु रात्रि का ऐसा कोई सुंदर अंकन नहीं मिलता है।"रात्रि सूक्त में रात्रि को माता एवं प्राणी मात्र को आश्रय प्रदान करने वाली कहा गया है।"[1]

4 श्रद्धा - ऋग्वेद के दशम मंडल में श्रद्धा की 103 बार स्तुति की गई है। श्रद्धा से अभिप्राय किसी कार्य विशेष में अतिशय आदर की भावना है। इसी भावना का उक्त सूक्त में एक देवी के रूप में मानवीकरण किया गया है।

 5 श्री - ऋग्वेद का श्री सूक्त देवी लक्ष्मी की अवधारणा का मूल है। ऋग्वेद के पांचवें मंडल में श्री सूक्त नामक प्रसिद्ध सूक्त है। इस सूक्त में 15 मंत्रों में देवी श्री की प्रशंसा की गई है।" इसमें लक्ष्मी को 'आर्द्रा' भी कहा गया है जो परवर्ती काल में लक्ष्मी के 'समुद्र संभवा' बताने वाले कथा का मूल कारण है।"[2]

6 गौ - गौ का भारतीय संस्कृति में सदा से ही सम्मानजनक स्थान रहा है। ऋग्वैदिक काल में भी वह पवित्र और अघन्या मानी जाती है।

7 सरस्वती - यह ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी थी। इसी के तट पर विराजित हो वैदिक ऋषियों ने वेदों की रचना की।

8 वाणी (वाक्) - वाक् ऋग्वेद की बहुत महत्वपूर्ण देवी है। इसका वर्णन वाक् सूक्त में मिलता है। इसका देवी सूक्त (10.125) वस्तुतः अम्भृण ऋषि की वाक् नामक विदुषी कन्या की उक्ति है जिसने परमात्मा से साक्षात्कार किया था।

            वाक् सूक्त में ब्रह्मस्वरूपा सर्वव्यापिनी शक्ति को ही समस्त विश्व और क्रियाओं का मूल माना गया है, ब्रह्म और उसकी शक्ति में भेद नहीं किया जा सकता तथापि इसमें शक्तिमान और शक्ति में भेद की कल्पना करके शक्ति को प्रधान बतलाया गया है। यह अवधारणा भारतीय शक्तिवाद का मूल आधार है इसलिए उपर्युक्त देवी को परवर्ती शक्तिवाद में इतना महत्त्व मिला।[3]

9 सीता - पशुपालन के साथ-साथ  ऋग्वैदिक युग में कृषि का भी जीविकोपार्जन में महत्त्वपूर्ण स्थान था। उन्होंने कृषि की अधिष्ठात्री एक देवी की कल्पना की और हल के फल के अग्रभाग कुसिया=सिया=सीता के आधार पर सीता नाम दिया। हल के अग्रभाग से खेत में बीज बोते समय जो नालियां बनती है,उन्हें सीता कहा जाता है। ऋग्वेद  में चतुर्थ मंडल के 57 वें सूक्त के छठे और सातवें मंत्र में सीता को कृषि की अधिष्ठात्री देवी माना गया है।

            वैदिक धर्म में पुरुष देवताओं की अपेक्षा देवियों को संख्या और महत्त्व की दृष्टि से गौण स्थान प्राप्त हुआ। इसके तीन कारण हैं। "आर्यों का समाज पितृसत्तात्मक था। परिवार में पति की सर्वोच्च स्थिति थी, इसलिए स्वाभाविक ही था कि आर्यों ने अपने देव परिवार में भी पुरुष देवताओं को प्रधानता दी। दूसरा कारण हैं कि आर्यों का दस्युओं से संघर्ष चलता रहता था, ऐसे संघर्षमय जीवन में स्त्रियों की अपेक्षा पुरूष देवता अधिक अच्छे रक्षक और त्राता सिद्ध हो सकते थे। अतः उनके देववाद में देवियों को देवों से गौण स्थान मिला। तीसरा कारण हैं कि आर्यों का कृषि कार्य जटिल था तथा पशुपालन हेतु भी दूरस्थ स्थानों पर भ्रमण करना आवश्यक था। अनेक संकट आते थे जो स्त्री प्रधान समाज का उद्यम नहीं था। अतः वैदिक समाज में कृषि और पशुपालन का महत्त्व पुरुषों की प्रधानता का द्योतक था एवं पुरुषों की समाज में प्रधानता उनके धर्म के पुरुष देवताओं के महत्त्व के रूप में प्रतिभासित हुई।"[4]

() शाक्त परंपरा का क्रमिक विकास -

            ऋग्वेद का काल पूर्व वैदिक काल कहलाता है। अन्य तीनों वेदों की रचना ऋग्वेद के बहुत बाद हुई थी। सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों का युग भारतीय समाज में उत्तर वैदिक युग के नाम से अभिहित किया जाता है। ब्राह्मणों की रचना के बाद आरण्यक ग्रंथों की रचना हुई। इनकी रचना अरण्य में गूढ़ रहस्यात्मक विषयों के विवेचन को लेकर हुई। आरण्यकों के पश्चात उपनिषद आते हैं। ये दार्शनिक ग्रंथ है

            "उत्तर वैदिक काल के पश्चात भारतीय इतिहास में वह युग आता है जिसे साहित्यिक दृष्टि से सूत्रों और महाकाव्यों का युग कहा जाता है। उत्तर वैदिक काल में यज्ञ या यज्ञादि का विधान इतना अधिक जटिल और विस्तृत हो गया था कि उसे विस्तार से स्मरण रखना कठिन था इसलिए अब उसका वर्गीकरण और संक्षेपण आवश्यक हो गया। जिस शैली में यह कार्य संपन्न हुआ उसे सूत्र शैली कहते हैं।"[5]

            "सूत्र काल के उपरांत महाकाव्यकाल आता है। रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों की रचना इस काल में हुई। साहित्यिक दृष्टि से भारत में महाकाव्यों के उपरांत उन पुराणों का युग आता है जिनकी रचना स्थूलत: गुप्त काल और गुप्त शासन के तत्काल बाद की शताब्दी में हुई। गुप्तोत्तर काल इतिहास में राजपूत काल के नाम से जाना जाता है, जो लोक भाषाओं के विकास की दृष्टि से उल्लेखनीय है। तत्संबंधी एवं परवर्ती विवरण लोक भाषाओं में रचित साहित्य में उपलब्ध होते हैं। शाक्त परंपरा की अविच्छिन्न धारा का प्रवाह तत्संबंधी साहित्य में सर्वत्र विद्यमान है।"[6]

() उत्तर वैदिक साहित्य में शक्ति-उपासना -

            उत्तर वैदिक साहित्य में देवी उपासना का क्रमिक विकास देवियों के महात्म्य में वृद्धि एवं अनेक नवीन देवियों के वर्णन के रूप में उपलब्ध होता है। अथर्ववेद में रात्रि का एक देवी के रूप में वर्णन है ।उसे 'रात्रि माता' के नाम से सम्बोधित किया गया है,ऋग्वेद में निर्ऋति मृत्यु की देवी है लेकिन अथर्ववेद  में उसे रोग, दुर्भाग्य,विनाश और पतन की देवी कहा गया है।अथर्ववेद में सिनीवाली को विष्णु की पत्नी बताया गया है। उससे संतान प्राप्ति के लिए प्रार्थना की गई है। ऋग्वेद में कुहूं का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन परवर्ती संहिताओं तथा ब्राह्मणों में चंद्रमा से संबंधित देवी कूहूं का उल्लेख मिलता है।

            ऋग्वेद में श्री को समृद्धि की देवी माना जाता है। उसका लक्ष्मी के दो रूप शुभ और अशुभ (पाप लक्ष्मी)का उल्लेख मिलता है। इन्हीं का पुराणों के समय तक लक्ष्मी और लक्ष्मी नाम हो गया। अथर्ववेद में श्री किसी देवी विशेष का द्योतक नहीं वरन यह संपत्ति, तेज,धन, सुंदरता तथा भाग्यश्री के अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। 'गौ' की महिमा में वृद्धि करते हुए उसकी तुलना पृथ्वी, वायु, स्वर्ग तथा चारों लोकों से की गई है।

उपनिषदों में शक्ति तत्त्व के दार्शनिक पक्ष का विकास मिलता है। इनमें सर्वप्रथम उल्लेखनीय वृहदारण्यक उपनिषद् है। इसमें एक स्थान पर कहा गया है कि प्रारंभ में आत्मा एकाकी था ।अत: रमण नहीं कर सकता था इसलिए उसने किसी दूसरे की इच्छा की। तब उसने अपने आप को द्विधा में विभक्त किया।

मुंडकोपनिषद में कुछ देवियों के नाम मिलते हैं जिनमें काली, कराली, मनोजवा, सुलोहित, स्फुलिंगीनी, धूम्रवर्णा और विश्वरूपा उल्लेखनीय है। यह सातों ही नाम अग्नि की  सप्त जिह्वाओं के हैं। केनोपनिषद में उमा हेमवती का साक्षात् ब्रह्म विद्या के रूप में उल्लेख है। देवताओं को तत्त्वज्ञान कराने के लिए साक्षात् ब्रह्मविद्या बहुशोभना उमा हेमवती के रूप में आकाश में अवतरित हुई। इसी उमा हेमवती को बाद में हिमवत अथवा हिमालय की पुत्री कहा जाने लगा

1. सूत्रों में शक्ति-उपासना -

            शाक्तमत के बारे में सूत्र ग्रंथों से बहुत सी महत्त्वपूर्ण जानकारियां मिलती है। इसका कारण यह है कि शाक्त मत का स्वतंत्र मत के रूप में उदय सूत्र ग्रंथों के युग में ही हुआ था। इन सूत्र ग्रंथों में पुरानी और नवीन देवियों की उपासना का उल्लेख मिलता है। इस समय ऋग्वैदिक देवी उषा का महत्त्व कम हो गया।

            ऋग्वेद में सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी थी परंतु सूत्र साहित्य में सीता को अपेक्षाकृत अधिक जीवंत रूप में चित्रित किया गया है।हलाभियोग उत्सव में सीता आशा,आरधा-अनघा इत्यादि देवियों का वर्णन मिलता है।

श्री, लक्ष्मी, पुष्टि, काली, षष्ठी, भद्रकाली तथा महिषिका आदि देवियों का गृह्यसूत्रों में उल्लेख हुआ है।

"सूत्र साहित्य में देवी मूर्तियों, उपासना विधियों तथा देवालयों के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। दुर्गा की महत्ता का उल्लेख करते हुए उसे महाकाली, महायोगिनी, शंख धारिणी, आर्या, देव संकीर्ति और भगवती आदि कहा गया है।मुंडकोपनिषद में वर्णित अग्नि की सप्त जिह्वाओं के वर्णन को दृष्टिगत रखते हुए सूत्र ग्रंथों में सप्तमातृकाओं का उल्लेख किया गया है।"[7]

2. महाकाव्यों में शक्ति उपासना -

वैदिक काल के अवसान और पुराणों के प्रारंभ के बीच का काल सूत्रों, स्मृतियों और रामायण-महाभारत महाकाव्यों की रचना का काल होने से महाकाव्य काल कहलाता है। रामायण के समय तक मंदिरों में मूर्तियों का निर्माण और पूजा प्रारंभ हो चुकी थी।

(अ) रामायण में शक्ति-उपासना-

रामायण काल में देवी पूजा का रूप बदलने लगा था। देवी की स्वतंत्र उपासना का उल्लेख तो रामायण में नहीं मिलता पर रुद्र की सहचरी के रूप में उसका अनेक स्थलों पर अंकन मिलता है। उसकी स्थिति बहुत सम्मानपूर्ण थी। शिव का बहुत सम्मान था परंतु शिव का दार्शनिक स्वरूप नहीं मिलता था।

रामायण के रूद्र शिव की एक प्रमुख विशेषता है उनकी पत्नी का निरंतर उल्लेख। उसके नाम उमा, गिरिजा, भवानी और पार्वती आदि है। एक स्थान पर इस देवी को रुद्राणी के नाम से भी संबोधित किया गया है। यह देवी केवल अपने पति की छाया मात्र नहीं थी अपितु उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व था। शिव के ही समान देवी का भी आदि भयावह रूप  भक्तिवाद के प्रभाव के परिणामस्वरुप धीरे-धीरे लुप्त होता गया और यह देवी सौम्या, कल्याणकारी और दयावती बन गई। (रामायण, 1.41 .1-3) रामायण में एक स्थल पर स्वयं सीता का चित्रण कालरात्रि के रूप में किया गया है।

उपर्युक्त साक्ष्यों से प्रमाणित है कि रामायण काल में देवी उपासना का प्रचलन था। यद्यपि संभवत कहीं भी स्वतंत्र उपासना और संप्रदाय का उल्लेख नहीं मिलता है। युद्ध कांड के 106वें कांड में राम 'आदित्य हृदय' स्तवन का तीन बार पाठ करके सूर्यदेव को प्रसन्न करते हैं और तब रावण को मारने में सफल होते हैं जबकि बंगला रामायण में सूर्य पूजा का स्थान 'दुर्गा पूजा' ने ले लिया।[8]

() महाभारत में शक्ति-पूजा -

रामायण के समान ही महाभारत में भी शक्ति-पूजा शिव-पूजा से जुड़ी हुई है। शिव को ईश्वर, महेश्वर और महादेव कहा है। शिव की इस अवधारणा के साथ महाभारत में भी देवी की अवधारणा जुड़ी हुई है। उन्हें शिव की पत्नी माना जाता था। 

            महाभारत में दक्ष-यज्ञ-विध्वंस,मदन-दहन और त्रिपुर-दहन की कथाएं भी उल्लिखित है। महाभारत काल में शक्ति उपासना शैव धर्म का अंग बन गई थी। इस समय तक पार्वती को शिव की शक्ति या माया माना जाने लगा था।

            विभिन्न स्थानों पर पार्वती के उल्लेख के अतिरिक्त दो स्थानों पर दुर्गा की स्तुति में भी पूरे दो स्तोत्र दिए गए हैं जिनमें उनके व्यक्तित्व का भक्तों की रक्षिका और शत्रुओं की संहारिका वाला पक्ष अधिक उभरा है| महाभारत के भीष्म पर्व के प्रारंभ में कृष्ण की मंत्रणा  पर अर्जुन ने भावी युद्ध में विजय-प्राप्ति के निमित्त दुर्गा की आराधना की।

            उपर्युक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट है कि महाभारत की रचना तक दुर्गा एक स्वतंत्र देवी के रूप में पूजित थी। सामान्य जन उन्हें शिव और विष्णु के समान परम शक्तिशाली सत्ता मानकर भजते थे। अर्जुन ने अपनी स्तुति में जिन-जिन नामों से देवी को पुकारा है,कालांतर में इन-इन नामों की विभिन्न देवियों का विकास पुराण काल में हुआ।

3. पुराणों में शक्ति-उपासना -

            भारतीय इतिहास में महाकाव्यों के बाद पुराणों का युग आता है जिसे पौराणिक युग की संज्ञा दी जाती है। पुराणों का सृजन गुप्त काल और गुप्त शासन के तत्काल बाद की शताब्दियों में हुआ।

            शाक्तमत के विकास में देवी भागवत और मार्कंडेय पुराण के देवी महात्म्य,(जो दुर्गा सप्तशती के नाम से जाना जाता हैं) कालिका पुराण और ब्रह्मांड पुराण के 'ललिता सहस्त्र' का विशेष महत्त्व है।

उपनिषदों में भारतीय ध्यान और भक्ति का बीजवपन होता है, महाकाव्य काल में ध्यान भक्ति का यह बीज पादप का रूप धारण करता है और पुराण काल में विशाल वृक्ष के रूप में पुष्पित-पल्लवित होता है। महाकाव्यों में जो बातें संकेत के रूप में ही थी वहीं इन ग्रंथों में पूर्ण विस्तृत रूप में मिलती है

            शक्ति वाद की विभिन्न प्रवृत्तियों का पुराणों में अधिक विकसित रूप मिलता है। सर्वप्रथम देवी के व्यक्तित्व के दार्शनिक पक्ष को ले। उपनिषदों में शिव और शक्ति की सहोपासना को दार्शनिक आधार मिला। देवी को लगभग सभी पुराणों में शिव की शक्ति मानागया है। शाक्त धर्म का लोक प्रचलित रूप पुराण काल में भी पूर्ववत ही था। अंतर मात्र इतना था कि अब उसका स्वरूप अधिक विस्तृत और स्पष्ट हो गया था। महाभारत और रामायण के आयामों की व्याख्या और विस्तृत विवरण इस युग में दिखाई देते हैं। शिव और पार्वती की सहोपासना शैव शाक्त धर्म के लोक प्रचलित रूप का सबसे प्रमुख अंग था। देवी महात्म्य में देवी द्वारा मधु-कैटभ के वध की कथा वर्णित है।

कथा के अनुसार सुरथ नामक राजा के राज्य को शत्रु हस्तगत कर लेते हैं। सुरथ जंगल में जाकर मेधा ऋषि के आश्रम में रहने लगता है किंतु वह मोहवश अपने नगर, प्रजा और कोष को याद करता रहता था। उसी आश्रम में समाधि नामक वैश्य भी रहता था। उसके समस्त धन को छीन कर उसके पुत्र और स्त्री ने उसे घर से निकाल दिया था। परंतु वे  दोनों उन्हीं की चिंता में लगे रहते थे। इस प्रकार राजा सुरथ और समाधि वैश्य दोनों मोह ग्रस्त थे। राजा सुरथ सत्ता तंत्र और समाधि वैश्य अर्थतंत्र में फंसे होने के कारण मोह ग्रस्त हुए थे। मनुष्य के मन में यही प्रवृतियां प्रधान है जिन पर शक्ति की उपासना से विजय पाई जा सकती है[9]

4. पुराणोंत्तर शक्ति-पूजा -

पुराणोंत्तर युग में बौद्ध धर्म के वज्रयान संप्रदाय ने शाक्त मत में अतिक्रमण कर उसके एक पक्ष को मुख्यधारा से अलग कर दिया।

() शाक्त भक्ति परंपरा -

            शाक्त मत में भक्ति-परंपरा की शुरुआत महाकाव्य काल से प्रारंभ होती है। रामायण में विभिन्न देवी मंदिरों की स्थापना और देवी की मूर्तियों की उपासना का उल्लेख मिलता है। महाभारत में स्तोत्र पाठ के द्वारा देवी को प्रसन्न करने के कई प्रसंग आए हैं यथा अर्जुन और युधिष्ठिर द्वारा की गई देवी की स्तुति।

(ड़) शक्तिपीठ -

            दक्ष-यज्ञ-विध्वंस के पश्चात शिव मोह ग्रस्त हो गए। सामान्य मानव की भांति विलाप करते हुए सती के शव को गोद में लिए इधर-उधर भटकने लगे। भगवान श्रीहरि ने सती के शव की यह अवस्था देखकर जगत के कल्याणार्थ शिव के मोह को दूर करने हेतु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 हिस्सों में काट दिया और सती के ये अंग जहां-जहां भी गिरे,वहां शक्तिपीठ के रूप में प्रचंड ऊर्जा केंद्र निर्मित हो गए। पश्चिम में हिंगलाज, पूर्व में कामरूप, उत्तर में ज्वाला और दक्षिण में मीनाक्षी ये चार शक्तिपीठ प्रधान है। ये शक्तिपीठ हमारी एकता के प्रतीक बन गए हैं।

            राजस्थान में प्राचीन काल से यह परंपरा रही है कि रण क्षेत्र में लोहा लेने जाने से पूर्व शक्ति की आराधना अवश्य की जाती है। राजस्थान के जितने भी राजवंश हैं वहां कोई कोई कुलदेवी अवश्य होती है। यह शक्ति ही वह प्रेरणा स्रोत है जो उन्हें शीश हथेली पर रखकर लड़ने और मातृभूमि के लिए प्राण उत्सर्ग करने के लिए प्रेरित करती है।

            वीर भावना के प्राधान्य को दृष्टिगत रखते हुए ही राजस्थान में देवी उपासना की परंपरा है। साहित्यकारों ने युद्ध क्षेत्र में वीर भावना के स्फुरण के निमित्त अनेक शक्ति काव्य रचे। राजस्थान में ऐसे काव्य का सभी जातियों में प्रणयन हुआ किंतु चारण जाति इनमें अति विशिष्ट स्थान की अधिकारिणी है ।अधिकांश शक्ति काव्य की रचना करने वाले कवि चारण जाति में ही उत्पन्न हुए हैं। चारणों के समान ही राजपूत काल के अधिकांश राजवंश भी शाक्तमतावलंबी ही थे। यही कारण है कि शासकों ने शाक्तमत को और उनके रचनाकारों को प्रश्रय दिया। राजाश्रय का परिणाम यह निकला कि शाक्तमत का बहुमुखी विकास हुआ।

            "सती के ब्रह्मरंध्र के गिरने से पाकिस्तान के सिंध प्रांत में अघोरी नदी के तट पर हिंगलाज(हिंगलू - कुमकुम युक्त मांग प्रदेश) शक्तिपीठ निर्मित हुआ। सती द्वारा दक्ष-यज्ञ में स्वयं को योग की अग्नि से भस्म कर देने पर सती के सहायक के तौर पर आए वीरभद्र चारण को शिवजी ने मृत्युलोक में चले जाने का शाप दे दिया तब वीरभद्र को दुखी देखकर माता सती ने उसे वरदान दिया कि मैं जब भी धरा पर अवतार लूंगी तो तेरे ही चारण कुल में जन्म लूंगी।"[10]

जब-जब धर्म और संस्कृति पर संकट आता है तो माता सती पृथ्वी पर अवतार धारण करती हैं। स्त्री का रूप धारण कर जन कल्याण के कार्य कर पूजनीय बन जाती हैं। यही लोक देवी परंपरा है। शक्ति का यह अवतार पूर्णकलायुक्त महाशक्ति या खंड कलायुक्त  अवतार होता है। देवी शक्ति संसार में अवतरित होती है तो उसके सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवतार पूर्ण कलायुक्त हो या अंश कला युक्त हो। इसके लिए वह सबसे पहले किसी देश को और कार्य की इयत्ता को अपना लक्ष्य बनाती है। यदि उसको अपने कार्य का परिणाम समस्त पृथ्वी मंडल या अधिकांश जन समाज पर डालने की आवश्यकता प्रतीत होती है तो माता पार्वती को अपनी पूर्ण कला में अवतरित होना पड़ता है, यही महाशक्ति अवतार की अवधारणा है।    

चारण जाति में 84 महाशक्तियों के अवतार लेने की मान्यता है जिनमें आदिशक्ति हिंगलाज, आवड़, खोडियार, अंबाजी, बिरवड़, देवल, करणी, राजल और इंद्र बाईसा आदि शक्तियां महाशक्ति के अवतार के रूप में मानी जाती हैं। "समुद्र से भी बड़े संकट के सामने यह जूझी हैं। अनेक कष्ट और यातनाएं झेली है। इन देवियों ने बड़े से बड़े राज्यों के साथ, बलवान से बलवान समूहों के साथ, सामाजिक रूढ़ियों के साथ तथा अन्याय की हर प्रसंग के साथ निर्भय होकर संघर्ष किया, जूझी पर कभी पीछे हटने का नाम नहीं लिया।"[11] जब देवी इस निष्कर्ष पर पहुंचती है किसी समाज विशेष की सात्त्विक प्रवृतियां लुप्त हो गई है तो उसको अपने कर्मयोग का बोध कराने के निमित्त देवी अंशावतार लेती है।

            ऐसे तो शक्ति ने कई जातियों में अवतार लिए हैं यथा जीण माता ने चौहान राजपूत वंश में जन्म लिया किंतु भारतीय इतिहास भी अगर एक ही ऐसी जाति को पहचाने जिनमें सर्वाधिक शक्ति अवतार हुए तो निसंदेह वह चारण जाति ही है, इसीलिए प्रत्येक चारण कन्या माता जी की सुआसणी (माता की सहोदरा बहन)कहलाती है। उसे देवी के रूप में देखा जाता है।

            चारण कन्याओं को यही सीख दी जाती है कि तू साक्षात् देवी है। भगवती ने तुझे अपनी निज अंश से उत्पन्न किया है। चारण जाति में 900000 शक्तियों ने अवतार लिया है। अतः इस जाति में चौरासी चारणी नौ लाख लोवड़ियाल की मान्यता है चारण जाति में देवी के 84 विशिष्ट और 900000 साधारण अवतार हुए हैं।

रेशमी वस्त्र आभूषणों से इन्होंने कोई वास्ता रखकर भेलिया, लोवड़ी और धाबल जैसे ऊन के साधारण वस्त्रों को धारण कर उन्हें असाधारण देवत्व का प्रतीक बना दिया। सात्त्विक जीवन शैली का मूल मंत्र देकर पूरे चारण समाज को ही इन्होंने देवी पुत्र और पुत्रियों का समाज बना दिया। समाज में दृढ़ आस्था और ऐसा विश्वास भर दिया कि यदि समाज में कवि और देवियों (शक्तियों) की निरंतरता जारी रखना चाहते हो तो त्याग मूलक सात्त्विक जीवन व्यवहार अपनाना सीखो। पांच पीढ़ियों तक निरंतर दोनों पक्षों (निज परिवार और संबंधियों) के सात्त्विक जीवन का परिणाम परिवार में कवि के अवतरण के रूप में प्राप्त होता है। सात पीढ़ियों तक निरंतर दोनों पक्षों (निज परिवार और संबंधियों) के सात्त्विक जीवन का प्रतिफल परिवार में शक्ति (सगत) अवतार के रूप में प्राप्त होता है।[12]

तीन परम्पराएं शक्ति काव्य परंपरा में निरंतर चली रही है -

1. कवि भक्त परंपरा

2.शक्ति अवतार परंपरा

3.सत्याग्रह धरने की परंपरा

            कवि भक्त परंपरा चारण शक्ति काव्य परंपरा के रूप में विश्व साहित्य में बेजोड़ हैं जिसका गूढ़ार्थ यह है कि चारण शक्ति काव्य केवल कवि होने से ही नहीं लिखा जा सकता। चारण काव्य लिखने के लिए कवि भक्त एक साथ होना जरूरी है। भक्ति भक्तों के हृदय को इंद्रियों के जहर से मुक्त करती है तथा कविता उन भावों को स्वतंत्रता के मार्ग पर दौड़ने की सामर्थ्य देती है तभी इस चारण जाति की शक्ति काव्य परंपरा में 'ईसरा  सो परमेश्वरा' स्वरूप बारहठ ईश्वरदास जैसे भक्त कवियों की प्रारंभ से लेकर अब तक एक अटूट लंबी परंपरा मिलती है।

            इसी प्रकार शक्ति अवतारों की भी लंबी अटूट परंपरा है। आवड़ मां हिंगलाज का स्वरूप मानी गई है। देवी इन देवियों के अवतार की आवड़ से लेकर इंदिरा बाईसा तक एक सुदीर्घ परंपरा रही है जिसमें परवर्ती देवियां पूर्ववर्ती की उपासिका एवं उसका स्वरूप मानी गई। जिस प्रकार आवड़ को हिंगलाज का स्वरूप निरूपित किया गया। इसी प्रकार करणी को आवड़ और करणी  की उपासिका इंदिरा बाई को करणी का अवतार माना गया।

ये चारण देवियां  निमित्त अवतार और नित्य अवतार के रूप में प्रसिद्ध है। आवड़ देवी और भगवती श्री करणी माता पार्वती का निमित्त अवतार थी तथा सोनल बाई आदि के अवतार नित्य अवतार कहलाते हैं। इनके लोकहित के कार्य ही लीलाएं कहलाते हैं। सामान्य मनुष्य और इन  देवियों में यही अंतर है कि साधारण जन जहां फल की प्राप्ति की इच्छा से कार्य की ओर उन्मुख होता है वही ये सभी कृत्य निष्काम भाव से करती है। इन्होंने तद्युगीन नैतिक और न्यायपूर्ण मान्यताओं की रक्षा हेतु साधारण लोगों के असाधारण संघर्ष को मान्यता दी। इसीलिए यह देवियां पूज्या बनी और आमजन भी इन से प्रेरित हुआ।

समस्त शक्ति साहित्य इन देवियों के उदात्त कथानक को उपजीव्य बनाकर ही लिखा गया है।

"सत्यागग्रह की परंपरा भी धरने, सत्याग्रह, झंवर(जौहर)के रूप में चारण जाति में मिलती है जिसका अनुकरण आधुनिक काल में गांधी जी ने किया था।धरना पुरुष करते थे और झंवर या जौहर स्त्रियां करती थी। व्यैक्तिक प्रश्नों की सामूहिक महत्ता के आधार पर  ही धरने का आयोजन होता था। पुरुष तागा, धागा या तेलिया करते थे। स्त्रियां अपने स्तन काटकर खून छिड़ककर आत्मदाह कर लेती थी। आत्मदाह या तेलिया अंतिम विकल्प के रूप में होते थे अन्यथा तागा (बगल में कटारी खाना) या धागा (गले में कटारी खाना) ही होता था।"[13]

राजस्थान के इतिहास में युगांतकारी घटना के रूप में आठवीं-नवीं शताब्दी में देवी आवड़ का आविर्भाव हुआ जिसने तत्कालीन शासन व्यवस्था को आंत्यतिक रूप से प्रभावित करते हुए जनमानस पर ऐसी अमिट छाप रेखांकित की जिससे ऐतिहृय की धारा ही परिवर्तित हो गई। देवी के अलौकिक अवतारों की धारणा पल्लवित हुई जिससे पौराणिक देवियों का स्थान लोक देवियों ने ले लिया था। आद्याशक्ति हिंगलाज के अवतार के रूप में देवी आवड़ प्रतिष्ठित हुई। राजपूत और चारण जाति के पारस्परिक अभिन्न संबंध की आधारशिला स्थापित हुई जिसके मणिकांचन संयोग से राजस्थान के स्वर्णिम इतिहास का निर्माण हुआ।[14]      

आवड़, बिरवड़ करणी और गीगाय आदि देवियों ने जैसलमेर, मेवाड़, जोधपुर, बीकानेर और गौड़  प्रदेश में अदम्य साहस, शौर्य, आत्म-बल, दूरदर्शिता, कुशल निर्देशन और नेतृत्व क्षमता से भाटी वंश, राठौड़ वंश और सिसोदिया वंश की स्थापना कर राजस्थान की जनता को शासकों के अत्याचारों से मुक्ति दिला कर शांति की स्थापना की। इन राज्यों को विदेशी आक्रांताओं के सम्मुख सुदृढ़ प्राचीर के रूप में खड़ा कर दिया।

() चारण शक्ति उपासना -

चारण लोक देवियों की उपासना तथा शाक्त परंपरा को सुदृढ़ आधार प्रदान करने में चारण जाति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। चारणों की उपासना पद्धति बहुत ही सरल और सहज होने के साथ ही बाह्य आडंबर से रहित और भावपूर्ण होती है। इसमें किसी पुरोहित, श्री-यंत्र या तंत्र-मंत्र की आवश्यकता नहीं है। यह सच्चे भक्तों के निश्चल मन की वैसी ही अभिव्यक्ति है जैसे अबोध बालक की अपनी जननी के प्रति होती है।

"चारणों की शक्ति उपासना में दक्षिणाचार के कर्मकांड एवं तंत्राचार के सिद्धि-प्रदर्शन का कोई स्थान नहीं है। दक्षिणाचार की घट स्थापना, बिल्वाभिमंत्रण, मृण्मूर्तियों की स्थापना आदि क्रियाओं से सर्वथा रहित है। वाममार्गी साधना का इसमें कोई अस्तित्व नहीं है तथा वामाचारियों और तांत्रिकों के उपासना स्थलों के निकट जाना भी वर्जित है।"[15] वार्तालाप में वाममार्गी संप्रदायों का नाम तक लेना यहां वर्जित है। वस्तुत: चारणों की शक्ति उपासना मंत्र-तंत्र, कर्मकांड और विधि-विधान से रहित देवी की उपासना है जिसमें भाव पक्ष की प्रधानता है। शक्ति रूपा देवी की उपासना बालसुलभ भावना से भावित है। विशुद्ध प्रेम से परिपूर्ण शक्ति उपासना धर्मांचरण का आधार है। विवेक की वाहक है और वाणी के लिए वर्णनातीत है।[16]

उपासना के लिए गौ के अरण्योपलों (छाणे) को जलाकर जागते (धूपे)तैयार किए जाते हैं जिसमें गौ घृत से जोत ली जाती है। जोत के आगमन और तिरोहित होने पर नमन करते हैं तथा भक्ति भाव से इसे निहारते हैं। नैवेद्य चढ़ाना हो तो इसी पर अर्पित किया जाता है। जोत को ही आचमन कराते हैं तथा जोत की विभूति ललाट पर धारण करते हैं। यह ज्योति साक्षात् शक्ति स्वरूपा है।[17]जगदंबा की उपासना में वैदिक यज्ञों की अनवरत परंपरा दृष्टिगोचर होती है।

            चारण समाज की महिलाएं इस उज्जवल परंपरा की प्रबल पोषक है,वस्तुतः सवाणियां (कुलवधू) तथा सवासणी बालाएं ही चारण परिवारों में जगत जननी की उपासना का कार्य संपादित करती है।[18] चारण स्मार्त मत के भी अनुयायी हैं। स्मार्त मत कि पंचदेव उपासना हेतु उनके मन में बहुत श्रद्धा है। यह विष्णु के प्रति भी अत्यंत पूज्य भाव रखते हैं। वे जितनी उल्लास से नवरात्र का पर्व मनाते हैं उतनी ही श्रद्धा से रामनवमी और कृष्ण जन्माष्टमी भी मनाते हैं।

शाक्त मत के अनुयायी होते हुए भी चारण समाज विष्णु के साथ-साथ शिवजी की आराधना करता है। कई चारण कवि बहुत बड़े शिव भक्त भी हुए हैं। शुभ अवसरों पर चारणों में सर्वप्रथम विनायक पूजन का प्रचलन है। विवाह आदि मांगलिक कार्यों की शुरुआत गणपति पूजन से ही की जाती है। सूर्य को अर्घ्य देना भी उनके नित्य कर्म का अभिन्न अंग है। इस प्रकार सौर संप्रदाय के प्रति भी उनके मन में श्रद्धा का भाव झलकता है। स्पष्ट है कि चारण समाज में भाव प्रधान आडंबरहीन पंचदेवोपासना का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है।

निष्कर्ष : हम यह कह सकते हैं कि शक्ति काव्य आज भी प्रासंगिक है और भविष्य में भी रहेगा क्योंकि जब तक समाज में अन्याय, अत्याचार, असमानता और अशांति रहेगी तब तक चारण लोक देवियों का व्यक्तित्व और कृतित्व समाज का मार्गदर्शन करता रहेगा और उनका जीवन-दर्शन जनसाधारण को प्रेरणा देता रहेगा।

संदर्भ :
[1] नील कमल शर्मा: प्राचीन भारत में शक्ति पूजा, साइंटिफिक पब्लिशर्स, जोधपुर 1990 पृष्ठ 77
2 शशि भूषण दास गुप्त: श्री राधा का क्रमिक विकास, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय वाराणसी, 1992 पृष्ठ 18
3 वासुदेव शरण अग्रवाल: मार्कंडेय पुराण :एक सांस्कृतिक अध्ययन, हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद, 2010 पृष्ठ171
4 नील कमल शर्मा: प्राचीन भारत में शक्ति पूजा, साइंटिफिक पब्लिशर्स, जोधपुर 1990 पृष्ठ 97
5 नील कमल शर्मा: प्राचीन भारत में शक्ति पूजा,साइंटिफिक पब्लिशर्स, जोधपुर 1990 पृष्ठ 139
6 सीमंतिनी पालावत: राजस्थानी शक्ति काव्य का स्वरूप, राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर,2015 पृष्ठ 57
7 सीमंतिनी पालावत: राजस्थानी शक्ति काव्य  का स्वरूप,राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर,2015 पृष्ठ 59
8 जे.एन. बनर्जी: डेवलपमेंट ऑफ हिंदू आइकोनोग्राफी, पृष्ठ 492
9 वासुदेव शरण अग्रवाल: मार्कंडेय पुराण: एक सांस्कृतिक अध्ययन, हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद, 2010 पृष्ठ 175
10 नरेंद्र सिंह चारण: करणी माता का इतिहास, राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर,2009 पृष्ठ 59
11 भंवर सिंह सामौर :राजस्थानी शक्ति काव्य,साहित्य अकादमी नई दिल्ली,1999 पृष्ठ 16
12 भंवर सिंह सामौर :राजस्थानी शक्ति काव्य, साहित्य अकादमी नई दिल्ली,1999 पृष्ठ 18
13 भंवर सिंह सामौर :राजस्थानी शक्ति काव्य, साहित्य अकादमी  नई दिल्ली,1999,पृष्ठ 31
14 सीमंतिनी पालावत: राजस्थानी शक्ति काव्य का स्वरूप,राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर,2015, पृष्ठ 156
15 किशोर सिंह: करणी चरित्र, प्रस्तावना पृष्ठ 7
16 शार्दूल सिंह कविया: शक्ति सुयश, पृष्ठ 8
17 शार्दूल सिंह कविया: श्री करणी कथामृत, पृष्ठ 13
18 शार्दूल सिंह कविया: शक्ति सुयश पृष्ठ
9

 

सुमन कविया
सहायक आचार्य ( हिंदी), मांगीलाल बागड़ी राजकीय महाविद्यालय नोखा, बीकानेर (राजस्थान)
sumankaviya011986@gmail.com, 98281489 91
शोध निर्देशक - डॉ. राजेंद्र कुमार सिंघवी 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

1 टिप्पणियाँ

  1. 1. शोध सार पढ़कर लगा कि शोध आलेख के उद्देश्य स्पष्टता से प्रकट नहीं हो रहे हैं।
    2. निष्कर्ष थोड़ा और अधिक अपेक्षित है। निष्कर्ष से भविष्य में शोधकर्ताओं को दिशा मिलनी चाहिए ।
    3. समीक्षा अच्छी लिखी गई है। किन्तु
    भाषा और शिल्प पर थोड़ी और अधिक स्पष्टता अपेक्षित है। सादर,
    प्रशांत कुमार शर्मा, चूरू
    pkumar26r@gmail.com

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