शोध आलेख : रंगमंच और सिनेमा के प्रदर्शन माध्यमों के बदलते स्वरूप में दर्शक / मुरली मनोहर

रंगमंच और सिनेमा के प्रदर्शन माध्यमों के बदलते स्वरूप में दर्शक
- मुरली मनोहर

शोध सार : प्राचीन काल से ही समाज में मनोरंजन एवं संचार का सशक्त माध्यम रंगमंच ही था बाद में रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन या मोबाइल आदि ने क्रमशः इसका विस्तार किया। इन सब माध्यमों के केंद्र में हमेशा से दर्शक वर्ग ही रहा है और इन माध्यमों ने सामाजिक संस्कृति को काफी प्रभावित किया है, जिस तरह से मनोरंजन एवं संचार के माध्यमों में निरंतर परिवर्तन आया है उसी तरह से दर्शक वर्ग में भी अलग-अलग माध्यमों के हिसाब से काफी परिवर्तन आए हैं। किस तरह से इन माध्यमों ने दर्शकों को सामूहिकता से व्यक्तिगत की तरफ अग्रसर करना शुरू किया, इसके बहुत से कारण हैं। रंगमंच, सिनेमा, टेलीविजन, रेडियो या मोबाइल आदि माध्यमों के अपने फायदे नुकसान हैं लेकिन यह साफ है कि रेडियो की अपेक्षा दृश्य एवं श्रव्य के माध्यम जैसे रंगमंच, सिनेमा, टीवी मोबाइल आदि ज्यादा दर्शकों के साथ जुड़े हुए हैं हालाँकि कोरोना काल से तो मोबाइल बाकी सब माध्यमों को पछाड़ते हुए आधुनिक युग में सबसे ज्यादा दर्शकों को अपने साथ जोड़कर लोगों की जीवन शैली में मजबूती से शामिल हो गया है। इससे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक शैक्षिक स्तर पर काफी बड़े बदलाव हुए हैं।

बीज शब्द : रंगमंच, सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल, इन्टरनेट, संगीत, नृत्य, प्रदर्शन और दर्शक आदि।

           प्राचीन समय से ही मनुष्य जाति के मनोरंजन के लिए नृत्य, संगीत और नाट्य विधाएं केंद्र में रही हैं। इन तीनो में नाट्य ऐसी विधा है जो नृत्य, संगीत और नाटक तीनों  को समेटी हुई है। नाट्य विधा या रंगमंच में दृश्य काव्य एवं श्रव्य काव्य दोनों का समायोजन है इसलिए यह लोकरंजीत और मनोरंजन का प्रमुख भंडार होने के साथ-साथ संचार, ज्ञान, योग, विद्या, मनोविज्ञान, कला, खेल, धर्म, युद्ध, यश और प्रगति की तरफ बढ़ाने वाला आदि का भी माध्यम है साथ ही इसमें कई विधाओं का आपसी समावेश भी है।

नाटक के प्रणेता भरतमुनि नाट्यशास्त्र में प्रथम रूप में यही रेखांकित करते हुए कहते हैं-

तज्ज्ञानं तच्छिल्पं सा विद्या सा कला

नासौ योगो तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृश्यते ।।

वहीं नाटक को परिभाषित करते हुए कहते हैं -

योग्यं स्वभावो लोकस्य सुखदुःखसमन्वितः

सोऽङ्गाद्यभिनयोपेतो नाट्यमित्यभिधीयते

लोक का  सुख-दुख से समन्वित यह जो स्वभाव है वही आंगिक, वाचिक, सात्विक, और आहार्य अभिनय से युक्त होकर नाटक कहलाता है। नाट्यशास्त्र में किसी नाटक की सफलता दर्शकों द्वारा रसानुभूति या सिद्धि के रूप में बताई गई है।

यह बात निश्चित है कि बिना दर्शक के नाट्य का सफल होना संभव नहीं है। नाटक मंच पर ही शुरू होता है और वहीं उसका पटाक्षेप भी होता है। यह एक सामूहिक प्रदर्शन कला है जिसमें दर्शक वर्ग समूह के रूप में अपनी भूमिका अदा करता है। असल में यही एक ऐसी विधा है जिसमें अभिनेता और दर्शक जीवन्त रूप में आमने सामने होते हैं और नाट्य प्रस्तुति के बाद तुरंत दर्शकों से अभिनेताओं का परिचय भी होता है, साथ ही साथ प्रस्तुति से जुड़े सवाल जवाब भी किये जाते हैं। दृश्य और श्रव्य काव्य के रूप में दर्शकों के लिए मनोरंजन एवं संचार का प्राचीन, महत्वपूर्ण जीवंत रूप नाट्य विधा ही है।

नाट्यशास्त्र जैसे लिखित ग्रंथ के बाद प्रमाणिक रूप से अगर हम रंगमंच के व्यावहारिक पक्ष पर गौर करें तो ग्रीक रंगमंच हमारे सामने उभरकर आता है जिसकी शुरुआत लगभग 700-650 ईसा पूर्व से मानी जाती है। जहां खुले आसमान में सुबह से शाम तक प्रदर्शन होते थे। ग्रीक में नाट्यशालाएं बनने से पहले किसी खास उत्सव( डायोनोसिस देवता के उत्सव) पर प्रदर्शन होते थे जिसमें चारों ओर काफी दर्शक होते थे। उसके बाद ग्रीक की पहाड़ियों को काटकर ऐसी व्यवस्था बनाई गई जहां लगभग 12 से 15 हज़ार लोग सीढ़ीनुमा पहाड़ी पर बैठकर नाटक देखते थे। यहां गौर करने वाली बात यह है कि 12 से 15 हजार की संख्या में दर्शक होने की वजह से दर्शक अभिनेता के बीच में काफी ज्यादा दुरी होती थी इसलिए अभिनेता आंगिक अभिनय की बजाय वाचिक अभिनय पर ज्यादा ध्यान देता था। यहाँ तक की जिन अभिनेताओं की आवाज मंद या ख़राब होने लगती थी तो या तो वे अभिनेता खुद ही अभिनय करना छोड़ देते थे या फिर उन्हें चरित्र की भूमिका करने से मना कर दिया जाता था। चरित्रों की दर्शक वर्ग अच्छे से पहचान कर पाए और उनके मनोभावों को दर्शकों तक पहुँचाने के लिए चरित्र मुख्य रूप से भाव प्रधान मुखौटे का उपयोग करते थे और साथ ही ऊँची आवाज में संवाद बोलते थे ताकि सभी दर्शक उन्हें सुनकर नाटक का आनंद सामूहिकता में प्राप्त कर सकें। अतः यह कहा जा सकता है कि नाट्य मंचन के लिए शुरुआती दौर में दर्शकों के समक्ष श्रव्य की प्रधानता या उच्चता ज्यादा जरूरी थी और उसके बाद दृश्य के रूप में आंगिक की। नाट्य प्रस्तुतियों को समाज का हर एक वर्ग का व्यक्ति देखता था। एक मजदूर से लेकर राजनेता तक सभी एक साथ बैठते थे। लगभग सभी दर्शक हास्य, भय, करुणा, क्रोध, प्रतिशोध और पीड़ा के जीवन्त अनुभव से गुजरते थे।

एक दुसरे के मुख शरीर के भाव उन्हें आपस में साथ जोड़ने और सशक्त बनाने में सहायक रहा होंगे। अतः सभी दर्शक सामूहिक रूप से शब्दों को ध्यानपूर्वक सुनते थे जिससे उन्हें सामूहिक आनंद की प्राप्ति होती थी। उसी समय से टिकट लेकर नाटक देखने की व्यवस्था भी शुरू हई। हजारों की जनसँख्या में दर्शकों का एक साथ बैठकर नाट्य प्रस्तुति का आनंद लेना एक सुव्यवस्थित और समृद्ध संस्कृति को प्रदर्शित करता है जहाँ बच्चों से लेकर बुजर्ग तक सभी आपस में एक दुसरे के मनोभावों को भी देखते थे और समझते भी थे जिससे लगभग सभी एक सकारात्मक आनंद की अनुभूति प्राप्त करते थे।

            लेकिन ग्रीक रंगमंच के बाद से लगातार रंगमंच के प्रदर्शन स्थल छोटे होते चले गये। रोमन रंगमंच के प्रदर्शन स्थल ग्रीक रंगमंच से भी छोटे कर दिए गये जिसमें एक बड़ा कारण ये भी सामने निकल कर आता है कि यह सब दर्शकों की सुविधाओं को ध्यान में रखकर किये गये होंगे और कुछ उस समय की व्यावहारिक परिस्थितयों के अनुकूल भी रहे होंगे। शेक्सपीयर या एलिज़ाबेथ कालीन रंगमंच तक आते-आते नाटकों का प्रदर्शन प्रोसेनियम सभागारों में होने लगा जहाँ लगभग 2 से 3 हजार दर्शक एक साथ नाटक देख सकते थे। उसके बाद सुविधाओं के हिसाब से विशेष तौर पर शहरों में छोटे-छोटे प्रेक्षाग्रह बनने लगे जहाँ दर्शक भी सीमित होते गये।

            भारत में भी रंगमंच की स्थिति लगभग यहीं रही। भारत में संस्कृत रंगमंच को प्राचीन भारतीय रंगमंच की संज्ञा दी जाती है हालांकि जिस प्रकार भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र के रूप में एक महत्तवपूर्ण व्यावहारिक, सैद्धांतिक और लोकवृत को अनुकरण करने वाला ग्रन्थ हमें प्राप्त होता हैं जिसमें बहुत विस्तारपूर्वक व्यावहारिक पक्ष को रेखांकित किया गया है। अतः यह कहा जा सकता हैं कि नाट्यशास्त्र या संस्कृत रंगमंच के पहले भी व्यावहारिक रूप से नाट्यों का प्रदर्शन होता रहा होगा। भरतमुनि जी नाट्यशास्त्र के 36वें अध्याय में कहते हैं किये मेरे सौ पुत्र नाट्य वेद सीखकर नाना प्रकार के भाव रसों से आश्रित प्रहसनों का प्रयोग के रूप में इसका लोक में प्रचार प्रसार करते हैं।संस्कृत नाटकों का एक समय पुरे भारत में बोलबाला रहा और भारत के अलग-अलग क्षेत्रों विषयों में नाटककारों ने महत्तवपूर्ण नाट्य रचनाएँ लिखी, जैसे साकेत (अयोध्याके अश्वघोष का सारिपुत्र प्रकरण, भास के स्वपनवासवदत्तम, उरुभंगम एवं मध्यमव्यायोग आदि, उज्जैन से कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल, मालविका अग्निमित्रं, विक्रमोर्वशीयम, विदर्भ से भवभूति के उत्तर राम चरितं, महावीर चरितं, मालतीमाधव दक्षिण भारत से शूद्रक के मृच्छकटीकम एवं वासवदत्ता आदि परन्तु संस्कृत रंगमंच का ग्राफ़ भी ऊपर से शुरू होकर नीचे की तरफ आता है क्योंकि संस्कृत रंगमंच ने भी अपने आपको राजदरबारों या प्रेक्षा गृह तक सीमित कर लिया था और उसका संपर्क आम जनमानस जो ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता था, उससे लगभग ख़त्म हो चुका था। अतः संस्कृत रंगमंच भाषा के सीमित दर्शक होने की वजह से धीरे-धीरे संस्कृत रंगमंच का पतन होता चला गया। हालाँकि वर्तमान में केरल के कुछ मंदिरों में कुडियाटम नाट्यरूप में कुछ सरकारी संस्थानों में संस्कृत नाटकों का प्रदर्शन होता है। 

            इसके बाद लोक रंगमंच का बोलबाला होता है जिसका स्वर्णिम काल लगभग 17वीं- 18वीं सदी में रहा। लोक नाट्यों के प्रदर्शन खुले मैदानों में रात-रात भर चला करते थे जहाँ आसपास के गांवों से हजारों की संख्या में दर्शक पंहुचा करते थे। वे अपने परिवार, पड़ोसियों और पुरे समाज के साथ बैठकर रंगमंचीय प्रस्तुतियों का आनंद लेते थे जिससे आपस में एक खुशनुमा माहौल समाज में बना रहता था। परन्तु पारसी रंगमंच तक आते-आते प्रदर्शन स्थल फिर से प्रेक्षा गृह के स्थायी अस्थायी रूप में बनने लगे। पारसी रंगमंच में व्यावसायिक द्रष्टि से नाटक खेले जाते थे, पारसी रंगमंच के कलाकार सवाक सिनेमा के शुरू होते ही फिल्मों की तरफ रुख कर चुके थे जिसके बाद पारसी रंगमंच लगभग गिनी चुनी जगहों पर सिमट गया। आखिर में शहरों में प्रेक्षाग्रह बनने लगे जिससे रंगमंच गांवों से निकलकर शहरों तक सिमटने लगा। आज तो रंगमंच के लिए शहरों में गिने-चुने सभागार हैं पर हालत यह है कि उनमें 200 से 400 दर्शक भी मुश्किल से नाटक देखने आते हैं और ज्यादातर दर्शक तो कलाकारों के रिश्तेदार या फिर उस क्षेत्र में रूचि रखने वाले लोग ही होते हैं। इसके पीछे का कारण रंगमंचीय कलाकारों की जीविका एवं समय की कमी, नये विषयों का होना, प्रस्तुतियों का गुणवत्तापूर्ण होना, रंगमंच से ही सम्बंधित नई आधुनिक तकनीकों से निर्मित विधाओं का जन्म लेना, कलाकारों दर्शकों को ज्यादा सहूलियत देना और कला को व्यावसायिकता में बदलना आदि हो सकते हैं। दर्शकों को सहूलियत देने से तात्पर्य यह है की जब दर्शक को ज्यादा सुविधाएं दी जाती हैं तो वे बहुत आराम की स्थिति में पहुँच जाते हैं और फिर वे उन सब सुविधाओं के आदी होने लगते हैं। यही नहीं उनकी अपेक्षाएं स्वाभाविक रूप से बढ़ने लगती हैं और फिर वे और आराम की तरफ बढ़ने लगते हैं जिन्हें रंगमंच पूर्ण करने में सक्षम नही हो पाता है। अतः फिर या तो दर्शकों का आना कम हो जाता है या फिर वे उसी विधा से जुड़े दुसरे माध्यमों की ओर उन्मुख होते जाते हैं। गांवों से रंगमंच का नाता टूटने का सबसे बड़ा कारण प्रेक्षाग्रहों तक नाटकों के प्रदर्शन का सिमटना है।  

            रंगमंच के बाद रेडियो नाटकों का भी एक समय काफी बोलबाला रहा परन्तु भारत की अपेक्षा यूरोप में इसका ज्यादा असर रहा। सबसे पहला रेडियो का अंग्रेजी नाटक कॉमेडी ऑफ डेंजरबीबीसी पर 5 जनवरी 1924 को प्रसारित हुआ था। रेडियो एक श्रव्य माध्यम था जिसके बहुत संख्या में दर्शक होते थे इसके दर्शक नाटक को शब्द--शब्द ध्यान पूर्वक सुनकर उसका कल्पना शक्ति द्वारा रसास्वादन करते थे।

            इसके विपरीत जब सिनेमा की शुरुआत में फ्रांस में लुमियर बंधुओं द्वारा कुछ छोटी-छोटी मिनट या सेकंड की बनी फिल्में तैयार की तो वह श्रव्य ना होकर दृश्य ही थी, उन्होंने 1895 . में फ्रांस के ब्रांड कैफ़े हॉल में अपनी फिल्मों का पहला प्रदर्शन किया था। यह उस समय एक चमत्कार से कम नहीं था जो की वैज्ञानिकता और कलात्मकता दोनों का एक बेजोड़ उदहारण था और एक साल बाद उन्होंने भारत में भी 7 जुलाई, 1996 को मुंबई के वाटसन होटल में अपनी फिल्मों का प्रदर्शन किया। सिनेमा की शुरूआत व्यावसायिकता से जुडी हुयी थी। 1913 में आई पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र एक मूक (दृश्यात्मक) फिल्म थी। ध्यान देने वाली बात यह है कि सिनेमा का उदय रंगमंच और रेडियो रंगमंच के विपरीत मूक सिनेमा के रूप में हुआ तथा दर्शक वर्ग ने भी रंगमंच की अपेक्षा सिनेमा हाल में अपना बढ़-चढ़कर योगदान दिया था। 3 मई, 1913 से फिल्म का नियमित शो कोरनेशन हॉल में 23 दिन तक चला जो एक रिकॉर्ड था। व्यावसायिक रूप से भारत की पहली बोलती फिल्मआलम आराआर्देशिर ईरानी द्वारा निर्देशित 14 मार्च, 1931 को प्रदर्शित की गई तथा विश्व की पहली बोलती हुई फिल्म 1927 मेंजैज सिंगरके रूप में प्रदर्शित हुई।

            सिनेमा श्रव्य और दृश्य दोनों काव्य का एक सशक्त माध्यम बनकर सामने आया हालांकि शुरुआत में यह सिर्फ श्रव्य में ही था। सिनेमा का इतिहास ज्यादा लंबा नहीं है परंतु फिर भी इसके दर्शकों में काफी परिवर्तन हुआ। दर्शक वर्ग जहाँ मनोरंजन के लिए रंगमंच का सहारा लेता था पर अब वह रंगमंच से ही सम्बंधित एक नयी आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक कलात्मक रूप में उपजी नई विधा सिनेमा में रूचि लेने लगा। विशेषकर सवाक सिनेमा के बाद तो दर्शक सिनेमा के दीवाने होने लगे। जब गांव में शुरआती दौर में गिने चुने टीवी होते थे तो एक ही टीवी से पूरा गांव फिल्म या रामायण-महाभारत पर आधारित धारावाहिक नाटकों को देखता था, बाद में जब टीवी ज्यादा होने लगे तो क्रमश: पुरे गांव से आसपड़ोसी, फिर परिवार, फिर पति पत्नी और फिर एक व्यक्ति तक सिमट कर रह गया। जब सिनेमा प्रदर्शन के माध्यमों में भी नये नये बदलाव आये तो स्थितियां और भी बदलती चली गयी।

            मोबाइल का आविष्कार शुरुआती तौर पर मनोरंजन की बजाय संचार के लिए जाना जाता था परन्तु आज की अगर बात करें तो मोबाइल एक स्मार्ट फ़ोन के तौर पर हमारी निजी जिन्दगी से जुड़ा हुआ एक ऐसा यंत्र है जिसके बिना आज जिन्दगी अधूरी सी लगती है।डेटा रेपोर्टलवेब साईट के अनुसार विश्व में लगभग दो-तिहाई लोग आज इन्टरनेट और मोबाइल फ़ोन का उपयोग करते हैं। डिजिटलाइजेशन दौर के आरंभ होने के बाद लोगों ने टीवी को देखना बहुत कम कर दिया है। यह हाल तब और भी बुरा हो जाता है जब भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म आता है, जहाँ शुरूआती तौर पर अमेज़न प्राइम वीडियो, नेट्फ्लिक्स और होटस्टार आदि पर कुछ ही दर्शक थे परन्तु इन्टरनेट के व्यापक प्रसार के बाद ऑनलाइन यु ट्यूब, एप्लीकेशन, वेब साईट एवं वेब सीरीज का दौर प्रारंभ होने के बाद इनके दर्शकों की संख्या में काफी उछल आया है, विशेषकर कोरोना काल से दर्शकों की एक बड़ी जनसँख्या इन माध्यमों से जुड़ गयी है जहाँ कम पैसों में या फ्री में बहुत सी फिल्मों वेब सीरीज का आनंद आप कहीं भी किसी भी समय उठा सकते हैं। यहाँ तक की आप अपने मन पसंदीदा विषयों पर बनी वेब सीरीज अकेले में देख सकते हैं। यह सब तभी संभव हो पाया जब स्मार्ट फ़ोन इन्टरनेट जैसी तकनीकें आम जनजीवन तक आसानी से पहुँच पाई। कोरोना के बाद से विश्व में बच्चों से लेकर बुजर्गों तक फ़ोन इन्टरनेट की पहुँच बिना किसी रोक टोक के स्थापित हो गयी। जहाँ पहले स्कूली बच्चे इससे वंचित थे आज परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सभी बच्चों को उनके माता-पिता द्वारा या सरकारी सहायता से स्मार्ट फ़ोन रखना लगभग अनिवार्य कर दिया है ताकि बच्चे ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर सकें। लेकिन वे पढ़ाई की अपेक्षा सोशल मीडिया से ज्यादा जुड़े हुए हैं और रील्स जैसी दुनिया से जुड़कर एक नये दर्शक वर्ग के रूप में उभर रहे हैं। यह कहना गलत नही होगा कि आज बच्चों से लेकर बुजर्ग तक सोशल साइट्स नये नये एप्प्स का इस्तेमाल कर रील्स के दर्शक के रूप में दीवाने भी बने हुए हैं और साथ ही अपना हुनर प्रदर्शित कर अपनी प्रसिद्धि भी जाहिर करते हैं। आज सोशल मीडिया का इतना बोलबाला हो गया है कि दर्शक जो देखता है सुनता है उसे ही सत्य भी मानने लगता है।

            इसके अलावा भी बहुत सारे एप्स ऐसे हैं जिनमें संगीत, नृत्य तथा अभिनय इन तीन प्रमुख विधाओं से जुड़ी गतिविधियां उनमें शामिल होती हैं इनमें कोई भी आसानी से अपनी भागीदारी निभा सकता है जिसके लिए उसे किसी स्थान पर जाने की जरूरत नहीं है। कोई भी कहीं पर भी रह कर अपने हुनर को प्रदर्शित कर उसे ऑडियो या विडिओ के रूप में रिकॉर्ड करके या फिर उसमें दिए गये उपकरणों की मदद से एप्लीकेशन पर प्रसारित कर सकता है जिन्हें विश्व का कोई भी नागरिक किसी भी देश में रहकर इंटरनेट का उपयोग करते हुए आसानी से देख सकता है अर्थात ऐसे माध्यमों के दर्शक वर्ग में काफी इजाफा हुआ है और इससे उन लोगों को भी आर्थिक रूप से मदद मिलती है जो लोग इस पर अपनी कलात्मक गतिविधियों द्वारा ज्ञान, खेल, जागरूकता, राजनितिक ,आर्थिक धार्मिक विषयों से सम्बंधित वीडियो बना कर उस पर प्रसारित करते हैं। सोशल मीडिया एक ऐसा मंच है जिसके दर्शक पूरे विश्व में मौजूद होते हैं और आसानी से आपस में इसके जरिए जुड़ भी सकते हैं एक तरीके से यह संगीत प्रेमियों, नृत्य  प्रेमियों और अभिनय से जुड़े दर्शक वर्ग के लिए काफी सुविधाजनक और प्रसिद्धि के लिए महत्वपूर्ण एवं आनंददायक है। फिल्में बनाना आर्थिक रूप से सभी के लिए आसान नहीं होता है और ना ही उसमें सभी कलाकारों को काम मिलता है अगर इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह उन सभी कलाकारों को अवसर प्रदान करता है जिनमें अलग-अलग विधाओं का हुनर होने के बावजूद भी अवसर ना मिल पाने की वजह से वे अपने हुनर को अंदर ही अंदर मार देते हैं। यह वाकई लोगों के हुनर को ना सिर्फ माध्यम देता है बल्कि उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत करने में योगदान भी देता है जिससे इस क्षेत्र के लोगों को और बाकी क्षेत्रों के लोगों को भी रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं।

            यह कहना गलत नहीं होगा कि पहले के मुकाबले नए-नए आधुनिक माध्यमों के जरिए बहुत बड़ी संख्या में दर्शक वर्ग उभर कर आया है जिसकी कल्पना लगभग 200 साल पहले तक शायद ही किसी ने की हो। इसमें विज्ञान का बहुत बड़ा हाथ है जिसके जरिए नई-नई आधुनिक तकनीकें विकसित की गई और उनको इंटरनेट जैसी तकनीक से जोड़कर गति देने का काम किया है। इसमें इंटरनेट का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिसने जीवन की बड़ी-बड़ी बाधाओं को दूर करके आधुनिक माध्यमों के विकास को गति प्रदान की है

            सिनेमा हॉल और थिएटर आज दर्शकों की कमी से जूझ रहे हैं जहां पहले पूरे समाज के अलग-अलग वर्ग के लोग एक साथ बैठकर सिनेमा हॉल या घर पर परिवार के साथ मिलकर फिल्में देखते थे आज स्थिति वैसी नहीं है। सिनेमा हॉल में एक साथ बैठकर दृश्य के अनुसार ठहाका लगाना, प्रतिक्रिया देना, यहां तक की सीटियाँ बजाना आदि का आनंद लिया जाता है। आज बहुत से लोग सिनेमा हाल में जाकर सामूहिकता में फिल्म देखने की बजाय अकेले में ओटीटी जैसे माध्यमों पर देखना ज्यादा पसंद करते हैं। सिनेमा हॉल की हालत अभी काफी दयनीय हो गयी है। इसके पीछे अनेक कारण हैं जैसे सिनेमा हॉल में टिकट का महंगा होना, नए विचारों विषयों की कमी होना, समय की कमी होना, अपने मन पसंदीदा विषय की फिल्में ओटीटी प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध होना, अश्लीलता पूर्ण संबंधी विषयों पर फिल्मी वेब सीरीज बनना आदि।

            माध्यम बदलने से दर्शकों पर पड़ने वाला प्रभाव भी एक सा नही रहता। रंगमंच जितना जीवन्त माध्यम है उतना सिनेमा भी नहीं है परन्तु यह भी उतना ही सच है कि सिनेमा की अपेक्षा रंगमंच की अपनी कुछ तकनीकी सीमायें भी हैं जिन्हें वह ठीक से प्रदर्शित करने की बजाय सांकेतिक रूप में ही प्रदर्शित कर सकता है। रंगमंच और सिनेमा हॉल में फिल्मों की प्रस्तुति में दर्शक को प्रभावित करने की क्षमता ज्यादा होती है क्योंकि सिनेमा हॉल या रंगमंच में दर्शक वर्ग मानसिक शारीरिक रूप से तैयार होकर आता है, साथ ही साथ दर्शक गहन रूप से फिल्म में डूबने लगे, इसके लिए 3 डी प्रभाव, बड़ी स्क्रीन ,ध्वनि यंत्रों का गुणवत्तापूर्वक प्रयोग, बंद रोशनी आरामदायक कुर्सी आदि का प्रयोग किया जाता है जो दर्शक वर्ग को मानसिक शारीरिक स्तर पर काफी प्रभावित करते हैं। इसी सन्दर्भ में स्पेन के फिल्म निर्देशक लुई बुनुएल अपनी राय प्रकट करते हुए कहते हैं किफिल्मों में सम्मोहन की शक्ति होती है, सिनेमा हॉल के अँधेरे में बदलते दृश्यों, रोशनी, कैमरा गतिविधि आदि से यह सम्मोहन पैदा होता है।

            आज भले ही हम यह कहें कि वेब सीरीज का आना सिनेमा का विकास है, यह ठीक है परंतु सामाजिक तौर पर यह सामूहिकता की ताकत या माहौल से व्यक्तिगत दर्शक के रूप में तब्दील होने लगा है। हालाँकि की ओटीटी प्लेटफॉर्म के अपने फायदे भी हैं परंतु इससे एक ऐसा दर्शक वर्ग उभर रहा है जो भारतीय संस्कृति में तेजी से बदलाव ला रहा है। कम उम्र के बच्चे भी पढ़ाई से हटकर इस दिशा में तेजी से रुचि ले रहे हैं जो कि भविष्य के लिए खतरा पैदा कर सकता है क्योंकि सिनेमा दर्शक वर्ग का सामूहिकता से व्यक्तिगत की तरफ बढ़ना सिनेमा के व्यवसाय हेतु थोड़ा चुनौतीपूर्ण है। हालांकि भविष्य में इसके क्या असर दिखाई देंगे इस पर अभी ज्यादा कुछ कहना जल्दबाजी हो सकती है।

निष्कर्ष : रंगमंच एवं सिनेमा के उपरोक्त सभी माध्यमों में दर्शकों की भूमिका के रूप में रंगमंच, रेडियो नाटक एवं सिनेमा के इतिहास पर चर्चा करने के उपरांत यह कहा जा सकता है कि तीनो ही विधाओं का दर्शक वर्ग सामूहिकता और भारी तादाद से आरम्भ होता है और व्यक्तिगत रूप में जाकर सिमट जाता है। हालाँकि जहाँ तक सिनेमा के नये आधुनिक माध्यमों में दर्शक वर्ग की संख्या की बात है तो सामूहिक दर्शक वर्ग की अपेक्षा व्यक्तिगत दर्शकों की संख्या कई गुना ज्यादा है क्योंकि इन्टरनेट स्मार्ट फ़ोन की पहुँच आज लगभग हर घर तक पहुँच गयी है। आज इन्टरनेट की मदद से ओटीटी, सोशल मीडिया, यूट्यूब, वेबसाइट और एप्लीकेशन आदि के माध्यम से नई-नई विधाओं का जन्म हुआ है जिनकी वजह से भारतीय संस्कृति में वैश्विक बदलाव देखने को मिले हैं क्योंकि आज किसी भी देश की गतिविधियों से हम आसानी से रूबरू हो सकते हैं। एक तरफ जहाँ व्यक्तिगत दर्शक वर्ग के बढ़ने से देश आर्थिक स्तर पर मजबूत होता है तो वहीं इसके कुछ नकारात्मक पहलु भी हैं जो बहुत प्रभावशाली हैं। सामाजिक स्तर पर लोगों में जुड़ाव काफी कम हो गया है। अतः वे घर या ऑफिस से ही किसी फ़िल्म या वेब सीरीज आदि का आनंद अकेले में ही लेना पसंद करते हैं। रंगमंच और सिनेमा हॉल जैसे प्रदर्शनी स्थल मानवीय भावनाओं या चेतना के लिए जितने प्रभावशाली माध्यम हैं उतने प्रभावशाली माध्यम स्मार्टफ़ोन, कंप्यूटर, लैपटॉप या टैबलेट जैसे यन्त्र नहीं हो सकते। ये सभी यन्त्र नये हैं और इनके कारण ही आज व्यक्तिगत दर्शक वर्ग का जन्म हुआ है। अभी तक इन यंत्रों पर मौजूद रंगमंच सिनेमा से सम्बंधित माध्यमों में व्यक्तिगत रूप में दर्शकों की संख्या बहुत ज्यादा है या यूँ कहें की अभी यह इनका शुरूआती दौर है भविष्य में इनकी स्थिति व्यक्तिगत दर्शक वर्ग तक ही रहेगी या कुछ और होगी अभी इस पर कुछ साफ़-साफ़ नहीं कहा जा सकता। क्या व्यक्तिगत दर्शक के आगे भी यह विकास क्रम यूँ ही बढ़ता रहेगा या घटेगा यह प्रश्न आने वाले समय पर निर्धारित करेगा।

संदर्भ :
1. राधावल्लभ त्रिपाठी, संक्षिप्तनाट्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-14-16
2. वही, पृष्ठ-286
3. वही, पृष्ठ-239
4. डॉ कमल नसीम, ग्रीक नाट्य कला कोश, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, 2004,पृष्ठ- 5
5. वही, पृष्ठ-92
6. वही, पृष्ठ-105
7. वही, पृष्ठ-127-128
8. डॉ रमा ,हिंदी रंगमंच, शिवालिक प्रकाशन, 2018, पृष्ठ- 64-85
9. सिद्धनाथ कुमार, रेडियो नाटक की कला, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2004, पृष्ठ 13
10 . डॉ जयदेव तनेजा, रंगकर्म और मीडिया, तक्षशिला प्रकाशन, 2002, पृष्ठ 1-37,
11. वही, पृष्ठ 42-64
12. रयाज़ हसन, सिनेमा: उद्भव एवं विकास, खंडेलवाल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स,जयपुर, 2013, पृष्ठ 15
13. वही, पृष्ठ 51
14. प्रदीप तिवारी, सिनेमा के शिखर, संवाद प्रकाशन, 2006, पृष्ठ 36-55
15. दिनेश श्रीनेत, पश्चिम और सिनेमा, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 11-27

 

मुरली मनोहर
शोधार्थी, प्रदर्शनकारी कला विभाग, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र
murlimanohar2804@gmail.com, 9958179226
मार्गदर्शकडॉ. प्रियंका मिश्र

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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