(भोजपुरी गीतकार ‘महेंद्र मिश्र' के जीवन पर आधारित जीवनीपरक उपन्यास)
- दिव्या गुप्ता
शोध
सार : जनवादी
कथाकार संजीव द्वारा
रचित
जीवनीपरक
उपन्यास
प्रायः
अपनी
प्रचलित
किंवदंती
से
अलग
दृष्टि
रखता
हुआ
पाठकों
के
समक्ष
प्रस्तुत
होता
है।
भोजपुरी
के
लोकप्रचलित
गायक,
लेखक
और
किंवदंती
पुरुष
महेंद्र
मिश्र
पर
आधारित
जीवनीपरक
उपन्यास
‘पुरबी बयार' में
उनका
चरित्र
और
जीवन
अलग
और
नवीन
रूप
में
पाठकों
के
समक्ष
आया
है।
संजीव
के
नायक
महेंदर
मिसिर
जमीन
से
जुड़े, अपने
धुन
के
पक्के
पारंपरिक
सामाजिक
ब्राह्मण
मिथकों
को
तोड़ते
हुए, जाति, धर्म
के
भेद
से
परे
जाते
हुए
न
केवल
अपनी
गायकी
से
जनसाधारण
में
लोकप्रिय
होते
हैं,
बल्कि
अपनी
गरीबी
से
जूझते
हुए, मंदिर
बनाने
के
प्रण
को
पूर्ण
करने
के
लिए
जाली
नोटों
के
कारोबार
भी
चलाते
हैं।
इन
सबके
बावजूद
उनके
निर्गुण
भोजपुरी
गीतों
के
कायल
शासक, आम
जनता, तवायफ, जेल
के
कैदी
और
मंदिरों
के
पुरोहित-श्रद्धालु
सदा
ही
रहे
हैं।
महेंद्र
मिश्र
के
द्वारा
कथाकार
संजीव
ने
भारत
के
समाज
में
व्याप्त
धार्मिक, आर्थिक, जातिगत
भेदभाव
को
उजागर
किया
है।
महेंद्र
मिश्र
जैसा
चरित्र
सामाजिक-सांस्कृतिक
भेदों
से
परे
अपने
जीवन
की
गतिविधियों
से
उदाहरण
प्रस्तुत
करते
हैं।
एक
व्यक्ति
जो
माटी
से
उठता
है
और
गगन
तक
अपनी
छाप
छोड़
कर
देव
पुरुष
बन
जाता
है।
बीज
शब्द : पुरबिया, बयार, शृंगार, विरह, निर्गुणवा, भोजपुरी, मृदंग, पखावज, पिपिहरी, तबला, बाँसुरी, गवनई,
कीर्तन, बड़ाहमण, महेंदर
मिसिर, तवायफ, कवित्त, विद्यापति, सुर, रंगमहल, ललकी
कोठी, उजरकी
कोठी, गोपीचंद, पतुरिया, जाली
नोट, परेवा
कुमारी, कलकत्ता, छपरा, काशी।
मूल आलेख
: संजीव
हिंदी
साहित्य
के
महत्त्वपूर्ण
और
साठोत्तरी
दौर
के
बाद
जनवादी
धारा
के
प्रमुख
कथाकार
हैं।
भोजपुरी
समाज
में
महेंद्र
मिश्र
एक
विवादास्पद
लोक
चरित्र
हैं।
इनका
चरित्र
कई
तरह
से
समाज
को
प्रभावित
किया
है।
यही
वजह
है
कि
कई
लेखकों
ने
महेंद्र
मिश्र
को
अपने
उपन्यासों
और
कहानियों
में
केंद्र
भूमिका
में
रखकर
रचना
की
है।
महेंद्र
मिश्र
को
केंद्र
में
रखकर
पांडेय
कपिल
सन्
1977 में 'फूलसुंघी'
नाम
से
और
प्रसिद्ध
भोजपुरी
लेखक
रामनाथ
पांडेय
ने
सन्
1994 में भोजपुरी
भाषा
में
'महेन्दर मिसीर' नामक
उपन्यास
लिखा।
इसी
क्रम
में
2008 में अनामिका
ने
महेंद्र
मिश्र
को
केंद्र
में
रखकर
‘दस द्वारे का
पिंजरा’
और
संजीव
ने
2021 में ‘पुरबी बयार'
नामक
उपन्यास
लिखा।
महेंद्र
मिश्र
का
एक
व्यक्तित्व
होते
हुए
भी
लेखकों
ने
अलग-अलग
दृष्टि
से
अपनी-अपनी
रचनाएँ
प्रस्तुत
की।
किसी
ने
उनकी
सामाजिक
भूमिका
को
केंद्र
में
रखकर
उपन्यास
लिखा
तो
किसी
अन्य
ने
सांस्कृतिक
भूमिका
को
केंद्र
में
रखकर।
अनामिका
के
उपन्यास
में
स्त्री
पक्षधरता
साफ़-साफ़
नज़र
आती
है
तो
संजीव
के
उपन्यास
में
सांस्कृतिक
पक्षधरता।
संजीव
ने
पुस्तक
के
‘निवेदन’ में स्वीकार
किया
है,
“सच और संभावना
के
अधिक
से
अधिक
निकट
जाने
की
कोशिश
रही
और
मिथ्या
से
दामन
बचाने
की
कोशिश
भी।”
महेंद्र
मिश्र
का
जीवन
एवं
उनसे
जुड़ी
कथाएँ
विवादास्पद
रही
हैं, इसलिए विविध
लेखकों
ने
उनको
अपने-अपने
दृष्टिकोण
से
व्याख्यायित
करने
का
प्रयास
किया
है।
'पुरबी बयार' उपन्यास
के
आरंभ
में
ही
संजीव
ने
पाठकों
से
निवेदन
किया
है
कि
“महेंद्र मिश्र अपने
जीवनकाल
में
ही
किंवदंती
बन
चुके
थे।”
महेंद्र
मिश्र
के
जीवन
एवं
प्रेम
से
जुड़े
प्रसंगों
को
अपनी
रचनात्मकता
के
दायरे
में
लाकर
सार्थक
रूप
से
प्रस्तुत
करने
का
प्रयास
किया
है।
लेखक
संजीव
ने
अपने
उपन्यास
‘पुरबी बयार’ शीर्षक
का
चयन
महेंद्र
मिश्र
की
कला, उनकी
फनकारी
और
भोजपुरी
संगीत
में
उनकी
दक्षता
के
कारण
चयन
किया
है।
पूर्वी
भारत
में
भोजपुरी
लोकगीतों
में
महेंद्र
मिश्र
का
प्रभाव
एक
लोककथा
के
रूप
में
प्रसिद्धि
प्राप्त
कर
जन-जन
के
बीच
छाया
हुआ
है।
एक
व्यक्ति
जो
परिस्थितियों
के
अनुसार
गैरकानूनी
कार्यों
में
फँसता
है,
परंतु
जनता
के
बीच
उसकी
साख
एवं
प्रसिद्धि
लोकनायक
के
रूप
में
है।
वह
विवादात्मक
चरित्र
महेंद्र
मिश्र
के
साथ
जुड़ा
हुआ
है
जिसे
संजीव
ने
अपनी
रचनात्मक
ऊर्जा
से
नवीन
रूप
देकर
लिखने
एवं
पाठकों
के
समक्ष
रखने
का
प्रयास
किया
है।
संजीव
ने
इसके
पहले
'साहू जी महाराज'
के
ऊपर
'प्रत्यंचा', ‘भिखारी
ठाकुर'
पर
'सूत्रधार’ जैसे
जीवनीपरक
उपन्यास
लिखकर
हिंदी
साहित्य
में
अपनी
अलग
दृष्टि
को
स्थापित
की
है।
जीवनी
और
जीवनीपरक
उपन्यास
दोनों
ही
अलग
विधाएँ
हैं।
जीवनी
लिखना
जितना
सहज
होता
है, जीवनीपरक
उपन्यास
लिखना
उतना
ही
जटिल
होता
है।
संजीव
स्वयं
इस
विषय
में
कहते
हैं, “जीवनी
लिखना
इससे
कहीं
सरल
कार्य
होता, कारण, तब
आप
परस्पर
विरोधी
दावों
के
तथ्यों
का
उल्लेख
कर
छुट्टी
पा
सकते
हैं।
जीवनीपरक
उपन्यास
में
आपको
औपन्यासिक
प्रवाह
बनाते
हुए
किसी
मुहाने
तक
पहुँचना
ही
पड़ता
है, यहाँ
द्वंद्व
और
दुविधा
की
कोई
गुंजाइश
नहीं
है।
दूसरी
ओर
उपन्यास
लिखना
भी
जीवनीपरक
उपन्यास
लिखने
की
अपेक्षा
सरल
होता
है, कारण
आप
तथ्यों
से
बँधे
नहीं
रहते।”[i]
'पुरबी बयार' मे
महेंद्र
मिश्र
एक
गरीब
एवं
कान्यकुब्ज
ब्राह्मण
परिवार
के
पुत्र
हैं।
इनके
पिता
शिवशंकर
मिश्र
मुख़्तार
साहब
की
ज़मींदारी
की
रखवाली
करते
हैं।
शिवशंकर
मिश्र
महेंद्र
को
संस्कृत
का
ज्ञानी
प्रकांड
पंडित
बनाना
चाहते
हैं।
उनकी
चाहत
है
कि
उनका
पुत्र
पहलवान
नहीं, शास्त्रार्थ
करता
हुआ
नामचीन
और
सुविख्यात
हो।
‘पुरबी बयार’ में
महेंद्र
मिश्र
के
पिता
कहते
हैं, “संस्कीरत
पाठशाला
में
भेजा, नहीं
पढ़ा।
और
और
जगह
भेजा, नहीं गया।
थोड़ा
पढ़-लिख
जाता
कम
से
कम
‘अस्लोक-वस्लोक’ बाँचने
भर
का, तो
बड़ाहमण
का
पूत
है, खाने
का
फिकर
नहीं
रहता।
छोटी
जात
वाले
तो
किसी
भी
तरह
पेट
भर
लेंगे
लेकिन
ई…! बाभन
का
चंडाल
पूत…!”[ii] संजीव की
इस
कथा
में
महेंद्र
मिश्र
एक
गरीब
ब्राह्मण
परिवार
के
पुत्र
हैं,
परंतु
भोजपुरी
के
कथाकार
रामनाथ
पांडेय
के
'महेंदर मिसिर' में
इनका
परिवार
काफी
समृद्ध
और
जमींदार
के
रूप
में
काफी
प्रसिद्ध
हैं।
रामनाथ
पांडेय
ने
लिखा
है, “सिवसंकर
मिसिर
के
पाले
सब
कुछ
रहे।
रोब
रहे।
रोआब
रहे।
लछमी
उनका
घर
के
कोना
–
कोना
ठुमकत
चलत
रहली-
अपना
जोत
से
उनकर
घर
अंजोर
कइले।”[iii]
लेखिका
अनामिका
ने
भी
इसे
अपने
तरीके
से
पेश
किया
है, “पं. शिवशंकर
मिश्र
काँही-मिसिरवलिया
में
फैली
अपनी
खेती
और
हलुवंत
सहाय
की
जमींदारी
की देखभाल करने
के
अलावा
उनकी
छपरा
कोठी
पर
पूजा
-
पाठ
भी
कराने
जाया
करते
थे।[iv]
महेंद्र
मिश्र
के
चरित्र
के
साथ
कथा
की
बनावट
को
लेखकों
ने
अपनी
वैचारिकी
के
अनुसार
स्वीकार
किया
है।
महेंद्र
मिश्र
को
पहले
ही
दिन
गुरुजी
शब्द
रूप
और
धातु
रूप
रटना
सिखाते
हैं।
गुरु
जी
कथन
है, “नागरी आते-आते
आ
जाएगी।”[v]
महेंद्र
बचपन
से
ही
चंचल, मनमौजी, उद्दंड
और
लीक
से
हटकर
चलने
वाला
बालक
है।
लेखक
दिखाते
हैं
कि
वह
नियम
या
परंपरा
में
बँध
कर
काम
नहीं
करना
चाहता
है।
जिस
संस्कृत
भाषा
की
उसे
शिक्षा
दी
जा
रही
है
उसके
संबंध
में
वह
कहता
है-
“हम जिस बोली
में
घर-परिवार, गाँव, समाज
में
बोलते-बतियाते
हैं, वह
बानी
कहाँ
है
यहाँ?”[vi]
बालक
महेंद्र
शिक्षा
के
क्षेत्र
में
जन
भाषा
का
पक्षधर
है।
वह
चाहता
है
कि
शिक्षा
उस
भाषा
में
हो
जिसे
रफीक
दरजी
उस्ताद
भी
समझ
ले, माई भी
और
गोबर
काढ़िन
मँगरुवा
की
माई
भी।
बालक
महेंद्र
का
मन
लोकभाषा, गणना, कीर्तन, नाच, घोड़ा, गदकी, अखाड़ा, बनैठी
और
दंड
बैठक
में
लगा
रहता
है।
वह
नान्हू
मिसिर
से
ज्यादा
श्रद्धा
कुश्ती
के
गुरु
‘नट' पर रखता
है।
महेंद्र
जलालपुर
गाँव
की
लाज
बचाते
हुए
कुश्ती
में
जीत
प्राप्त
करता
है।
इससे
गाँव
में
उसका
नाम
बहुत
होता
है,
परंतु
परिवार
में
उसे इस काम
के
लिए
उपेक्षा
ही
प्राप्त
होती
है।
सुप्रसिद्ध
भोजपुरी
गीतकार
बचपन
से
ही
विद्रोही
और
लोकमन
से
जुड़ी
क्रियाओं
को
करने
के
लिए
उत्साही
रहे
हैं।
इन्होंने
समाज
को
उसकी
बनी
बनाई
परिपाटी
और
परम्परा
को
चुनौती
दी
है।
कथाकार
संजीव
यह
दिखाते
हैं
कि
उनकी
प्रसिद्धि
का
कारण
उनका
परम्परा
के
प्रति
विद्रोह
करना
ही
है।
महेंद्र
बचपन
से
ही
जाति-पाति
के
भेद
को
भूलकर
हर
वर्ग, समुदाय
और
धर्म
के
साथ
उठते-बैठते
हैं।
समय
के
साथ
जहाँ
महेंद्र
पहलवानी
और
संगीत
में
मन
रमाने
लगते
हैं, वहीं पढ़ाई
से
उनका
संबंध
छूटता
जाता
है
और
वे
उसी
के
साथ
अपने
पिता
की
दृष्टि
से
भी
दूर
होते
जाते
हैं।
महेंद्र
का
विद्रोह
उनके
वैवाहिक
जीवन
में
भी
देखा
जा
सकता
है।
विवाहित
होने
के
पश्चात्
भी
वे
घर
में
बँध
नहीं
पाते
हैं
और
अपनी
संगीत
के
प्रति
प्रेम
के
कारण
घर
से
दूर
चले
जाते
हैं।
लक्ष्मी
देवी
से
विवाह
के
पश्चात्
दो
वर्ष
में
उनकी
मृत्यु
हो
जाती
है।
इसके
पश्चात्
उनका
दूसरा
विवाह
परेवा
देवी
से
होता
है।
इसके
पश्चात्
भी
उनके
प्रेम
संबंध
केसरबाई, ढ़ेलाबाई जैसी
तवायफों
से
बनते
हैं।
वो
अपनी
भोजपुरी
को
छोड़कर
संस्कृत
के
कांकड़-पाथर
को
अपनाना
नहीं
चाहते
थे।
महेंद्र
कहते
हैं,
“मुझे
तो
गीत-गवनई-कीर्तन
की
धुनें
हिलकोरती
रहती
हैं।”[vii]
ब्राह्मण
समुदाय
के
वर्चस्व
और
संस्कृत
की
भयातुर
छत्रछाया
का
त्याग
कर
महेंद्र
मिश्र
आमजन
से
जुड़ती
कला, संगीत एवं
जनता
की
सेवा
करना
चाहते
हैं।
भोजपुरी
को
अपनाकर
अपनी
मातृभाषा
में
गीत, भजन इत्यादि
से
समृद्ध
करना
चाहते
हैं।
समाज
से
उपेक्षित
तवायफों
को
संगीत
में
पारंगत
करना
चाहते
हैं, उन्हें पुरबी
गीतों
को
सिखाकर
उनकी
कला
को
निखारना
चाहते
हैं।
वे
उन्हें
सरस्वती
का
प्रतिरूप
मानते
हैं।
कथाकार
संजीव
सन्
1886 में जन्मे महेंद्र
मिश्र
के
लोकजीवन
से
जुड़े
पहलुओं
को
सहजता
से
प्रस्तुत
करते
हुए
स्पष्ट
करते
हैं
कि
महेंद्र
मिश्र
ने
अपने
समय
की
सामंती
व्यवस्था
को
चुनौती
दी
है।
अपने
पिता
के
विरुद्ध
खड़े
होकर
अपने
समुदाय
में
समानता
और
सहजता
को
स्वीकार
करना
चाहते
हैं।
वह
अपने
जीवन
से
सवर्णों
के
बनाए
सदियों
के
नियम
एवं
पंडिताई
का
त्याग
करते
हैं।उन्हें कोठे में
गाने
वाली
स्त्रियों
का
गीत, ढोल, तबला, पिपिहरी, बाँसुरी
की
ध्वनि
सब
अच्छे
लगते
हैं।
वे
संगीत
को
ब्रह्मानंद
सहोदर
मानते
हैं।
महेंद्र
मिश्र
के
गुरु
पंडित
रामनारायण
मिश्र
थे
जो
केसर
बाई
जैसी
प्रसिद्ध
नाचनेवालियों
को
संगीत
सिखाया
करते
थे।
महेंद्र
मिश्र
इस
सिद्धांत
को
मानने
वाले
थे
कि
“सुर निश्चित
रूप
से
बड़ा
है।
सुर
ही
तो
सजाता
है
शब्द
को।”[viii]
कथाकार
संजीव
ने
महेंद्र
मिश्र
की
कथा
द्वारा
तवायफों
के
जीवन
के
दर्द
एवं
विडंबना
को
भी
दिखाने
का
प्रयास
किया
है।
वे
रामनारायण
मिश्र
से
इनकी
विवशता
को
इस
प्रकार
व्यक्त
करवाते
हैं,
“इन अप्सराओं
के
अंदर
में
कितना
अँधेरा
है!
काजल
से
भी
काला।
इनका
भी
मन
घर
की
औरतों
जैसा
होता
है
या
बनना
चाहती
हैं?
यह
भी
दूसरों
से
हँसना, बोलना, मिलना-जुलना
चाहती
हैं,
मगर
इन
रंडियों
का
मजा
लेने
तक
सीमित
रह
जाते
हैं
लोग।
घर
में
कोई
नहीं
रखना
चाहता।”[ix]
महेंद्र
मिश्र
अपने
पिता
से
अपमानित
होकर
घर
छोड़कर
काशी
चले
जाते
हैं।
उनके
संगीत
प्रेम
एवं
तवायफों
से
संबंध
उनके
पिता
के
साथ
उनके
संबंध
को
लगभग
समाप्त
कर
देता
है।
काशी
में
मणिकार्णिका
घाट
पर
मृत्यु
भोज
से
वे
अपना
पेट
भरते
हैं,
इस
कारण
वे
स्वयं
को
धिक्कारते
हैं।
पंडित
रामनारायण
मिश्र
से
प्राप्त
प्रेम
उन्हें
किसी
सीमा
में
नहीं
बाँधता
है,
बल्कि
समाज
के
वंचित, तिरस्कृत
समुदाय
के
प्रति
सहानुभूति
और
प्रेम
उत्पन्न
करता
है।
महेंद्र
मिश्र
को
ब्राह्मण
होने
का
सामाजिक
लाभ
नहीं
चाहिए।
वह
चाहते
हैं
कि
वे
अपनी
मेहनत
और
कला
से
प्राप्त
सम्मान
से
जीवन
बिताए।
मणिकार्णिका
घाट
पर
प्राप्त
धन
के
लिए
वे
कहते
हैं, “बाहर
आने
पर
पहली
कमाई!
हराम
की
कमाई!
ब्राह्मण
होने
के
नाते!”[x]
लेखक
द्वारा
घाट
के
पास
जलती
चिता
के
पास
ब्राह्मणों
को
भोजन
कराया
जाना
दिखाना
अस्वाभाविक
लगता
है।
प्राय: यह
देखा
जाता
है
कि
ब्राह्मण
भोज
घाट
से
दूर
किसी
दुकान
के
पास
कराया
जाता
है
न
कि
जलती
चिताओं
के
पास।
बनारस
के
गंगा
के
किनारे
अचानक
उनकी
भेंट
केसरबाई
से
हो
जाती
है
जिसके
आश्रय
में
वे
रहते
हैं
और
उसे
पुरबी
धुनों
और
संगीत
की
शिक्षा
देते
हैं।
उपन्यास
में
लेखक
केसर
बाई
और
महेंद्र
मिश्र
के
संबंध
के
विषय
में
कहते
हैं,
“केसर बाई कहने
को
बाई
थी
लेकिन
उनकी
गोद
में
समायी
हुई
प्रेमिका।
इतनी
रसभरी
जिन्दगी
में
कभी-कभी ढेला बाई की
याद
आती
है।
इस
बेखयाली
में
वह
भूल
गए
कि
वे
केसर
बाई
के
पति
नहीं, मेहमान
हैं।”[xi]
महेंद्र
मिश्र
बिना
सम्मान
के
कहीं
नहीं
रहते
थे।
जब
केसर
बाई
के
यहाँ
उन्हें
राजा
के
कारण
अपमानित
होना
पड़ता
है
तब
वे
उस
स्थान
को
छोड़
कर
चले
जाते
हैं।
वहीं
उनकी
भेंट
अचानक
से
फलफलाहट
मिसिर
से
हो
जाती
है
जो
उन्हें
ही
खोजते
हुए
बनारस
आते
हैं।
संजीव
ने
केसरबाई
से
भेंट
और
फलफलाहट
मिसिर
से
भेंट
एकदम
मौके
पर
दिखाया
है।
यह
संयोग
पाठकों
को
अचंभित
कर
सकता
है
कि
जब
महेंद्र
मिश्र
को
मुसीबत
से
निकलना
था
तब
ही
उनकी
सहायता
के
लिए
तुरंत
ये
लोग
प्रकट
हो
जाते
हैं।
प्रेमचंद
के
कथा
साहित्य
और
प्रसाद
के
नाटकों
एवं
कहानियों
में
भी
अचानक
संयोग
घटित
होते
रहते
हैं।
संजीव
के
साहित्य
में
भी
यह
संयोग
अचानक
देखा
जा
सकता
है।
यह
संयोग
कथा
की
घटना
को
अस्वाभाविक
बना
देता
है।
महेंद्र
मिश्र
अपने
स्वाभिमान
और
प्रेम
के
प्रति
कर्तव्य
को
बखूबी
निभाना
जानते
हैं।
अपने
पिता
की
मृत्यु
के
पश्चात्
वे
मुख़्तार
साहब
की
हवेली
में
अपने
पिता
के
स्थान
पर
काम
करने
चले
जाते
हैं।
घर
की
जिम्मेदारी
के
आगे
वे
अपने
सारे
शौक
एवं
रुचि
का
त्याग
कर
देते
हैं।
मुख़्तार
साहब
के
प्रति
वफ़ादार
होने
के
कारण
वे ढेला बाई के
प्रति
अपने
प्रेम
का
त्याग
कर
मुख़्तार
साहब
के
लिए ढेला बाई को
उठा
लाते
हैं। ढेला बाई उन
नगर
वधुओं
का
प्रतिनिधित्व
करतीं
हैं
जिनके
मन
में
पारिवारिक
प्रेम
हिलोरे
लेती
हैं।
जो
परिवार, पत्नी, पुत्री
बनकर
सम्मान
पाना
चाहती
हैं। ढेला बाई मुख़्तार
साहब
की
पत्नी
तो
बनती
है,
परंतु
उसे
वह
सम्मान
और
प्रेम
नहीं
मिलता
जिसकी
वह
अधिकारिणी
होती
है।
महेंद्र
मिश्र
के
प्रति
असफल
प्रेम
और
मुख़्तार
साहब
की
झूठी
शान
के
कारण
उसका
जीवन
दुःख
और
पीड़ा
से
भर
जाता
है।
संजीव
ने ढेला बाई के
द्वारा
समस्त
तवायफों
की
अवस्था
का
चित्रण
किया
है
जिन्हें
यह
समाज
अपनी
जरूरत
के
अनुसार
प्रयोग
करता
है
और
जरूरत
के
अनुसार
उठा
कर
फेंक
देता
है।
ढेला बाई,
मुख़्तार
साहब,
हलवंत
सहाय
और
महेंद्र
मिश्र
के
बीच
के
संबंध
में
भी
हम
लेखकों
की
कल्पना
की
अपनी
अलग
उड़ान
को
देख
सकते
हैं।
संजीव
ने ढेला बाई और
महेंद्र
मिश्र
के
प्रेम
संबंध
को
प्रमुख
रूप
से
दिखाया
है। ढेला बाई कहती
है, “मेरे
लिए
तो
तुम
(महेंद्र मिश्र) से
मिलना
ही
जन्नत
है
और
न
मिलना
जहन्नुम।”[xii]
परंतु
अनामिका
ने
महेंद्र
मिश्र
के
द्वारा ढेला बाई के
प्रति
जो
स्नेह
दिखाया
है,
उसमें
शिष्या
और
समझदार
संगिनी
का
भाव
अधिक
है।
अनामिका
लिखती
हैं, “बतरस
के
नाम
पर
ढेला की
याद
आई!
बतरस
की
खान
है
ढेला!
पता
नहीं
उससे
मेरा
क्या
रिश्ता
है
और
समझदार
संगिनी
भी!
जब
भी
मन
डूबता
है
उसकी
बातें
मुझे
उबार
लेती
हैं!
उसके
प्रति
एक
अपराध
बोध
है
मन
में!
कोठे
से
तो
उसे
उतार
लाया
पर
हलवंत
सहाय
की
कोठी
में
ही
भला
उसे
कौन
सुख
है!”[xiii]
संजीव
और
अनामिका
के
पात्रों
में
अंतर
यह
है
कि
संजीव
के
पात्रों
का
जीवन
उद्देश्य
और
कार्य
कुछ
कमजोर
एवं
व्यक्तिगत
जीवन
से
जुड़े
लगते
हैं
जबकि
अनामिका
के
वही
पात्रों
का
जीवन
और
कार्य
का
उद्देश्य
व्यापक
और
राष्ट्रीय
स्वाधीनता
की
लड़ाई
से
जुड़ता
नज़र
आता
है।
ढेला बाई से
प्रेम
के
कारण
ही
मुख़्तार
साहब
महेंद्र
को
अपमानित
करते
हैं
और
शिवमंदिर
में
पूजा
करने
से
मना
करते
हुए
निकाल
देते
हैं।
महेंद्र
मिश्र
अपने
इसी
अपमान
का
बदला
लेने
के
लिए
एक
मंदिर
बनवाने
का
प्रण
लेते
हैं।
महेंद्र
मिश्र
अपने
स्वाभिमान
के
पक्के
थे,
इस
कारण
उन्होंने
कहीं
भी
समझौता
नहीं
किया।
मुख़्तार
साहब
के
घर
में
काम
छूटने
के
कारण
धनाभाव
के
बाद
भी
वे
अपने
प्रण
से
नहीं
डिगे।
संजीव
ने
महेंद्र
मिश्र
की
फनकारी
को
'दोपहर का सूरज'
और
भिखारी
ठाकुर
को
'उगता हुआ सूरज'
कहकर
संबोधित
किया
है।
महेंद्र
मिश्र
मंदिर
बनाने
के
प्रण
के
कारण
अधिक
से
अधिक
धन
इकट्ठा
करने
के
लिए
कलकत्ता
रवाना
होते
हैं,
तब
अचानक
संयोगवश
फलफलाहट
मिसिर
से
उनकी
भेंट
होती
है
जो
उनके
साथ
ही
चले
जाते
हैं।
यह
संयोग
भी
संजीव
ने
अचानक
से
ही
दिखाया
है।
संजीव
ने
कलकत्ता
में
आए
प्रवासी
मज़दूरों
और
गिरमिटिया
बनकर
मॉरिशस
तथा
अन्य
देशों
में
जाने
वाले
लोगों
की
दशा
का
यथार्थ
चित्रण
किया
है।
यह
तत्कालीन
राजनीतिक
परिदृश्य
की
सच्चाई
है
जहाँ
वर्षों
लोग
अपने
परिवार
से
दूर
मज़दूरी
करने
या
काम
की
तलाश
में
बाहर
चले
जाते
हैं।
उनके
जीवन
की
दशा
दयनीय
और
दुखद
है।
महेंद्र
मिश्र
ऐसे
लोगों
के
समक्ष
बहुत
प्रसिद्ध
होतें
हैं,
क्योंकि
उनकी
गायकी
और
फनकारी
में
उन
आम
जनता
के
दुःख, दर्द
और
पीड़ा
को
उन्होंने
व्यक्त
करने
का
प्रयास
किया
था।
कलकत्ता
में
अपनी
पुरबी
गीतों
की
बयार
से
महेंद्र
मिश्र
श्रमिक
वर्ग
में
काफी
प्रचलित
और
चर्चित
हो
गए
थे।
जूट
मिल
के
मज़दूरों
का
यह
मत
था
कि
वे
काम
अधिक
कर
लेंगे,
परंतु
महेंद्र
मिश्र
के
यह
गीत
रोज
होने
चाहिए।
संजीव
ने
महेंद्र
मिश्र
की
कविता
की
लोकप्रियता
को
इस
प्रकार
व्यक्त
किया
है,
“मज़दूर इन गीतों
को
सुनते
ही
सीधे
पहुँच
जाते
अपने
गाँव-देश, अपनी
छोड़
आयी
पत्नियों
के
पास
और
विरह
के
सागर
में
डूबने-उतरने
लगते।
उनकी
फरमाइश
कालीघाट
और
सोनागाछी
और बहुबाजार की
वेश्याओं
के
कोठों
तक
होने
लगी
थी।”[xiv]
संजीव
ने
कथा
में
दिखाया
है
कि
महेंद्र
मिश्र
कलकत्ते
में
पुरबी
गीतों
से
लोकप्रिय
तो
बहुत
होते
हैं,
परंतु
उनकी
कमाई
इतनी
नहीं
होती
कि
वे
मंदिर
बना
सके।
उन्हें
केवल
पंडित
होने
के
कारण
दान
में
धन
संपत्ति
नहीं
चाहिए।
निमाई
गांगुली
के
संपर्क
में
आने
के
बाद
वे
कलकत्ता
में
जाली
नोट
बनाने
के
काम
में
फँस
जाते
हैं।
निमाई
गांगुली
कहता
है,
“नकली नोट छापने
से
तुम्हारे
पास
इतना
नोट
आ
जाएगा
कि
तुमको
मंदिर
बनाने
के
लिए
और
कहीं
जाने
की
जरूरत
नहीं।”[xv]
इसी
के
साथ
महेंद्र
मिश्र
सीखने
लगते
हैं
‘नोट की छपाई
और
उसकी
बारीकियाँ, फरमा, कागज, स्याही, साइज
और
उसको
खपाने
का
गुर'।
यह
बात
सोचने
वाली
है
कि
अपने
सम्मान
और
स्वाभिमान
के
पक्के
महेंद्र
मिश्र
केवल
मंदिर
बनाने
के
लिए
जाली
नोट
छापना
चाहते
हैं
और
वे
निमाई
गांगुली
की
बात
मान
भी
लेते
हैं।
लोककथाओं
में
यह
चर्चा
रही
है
कि
महेंद्र
मिश्र
ने
अंग्रेजी
सरकार
की
अर्थव्यवस्था
को
ध्वस्त
करने
के
लिए
जाली
नोट
का
काम
शुरू
किया
था
और
स्वतंत्रता
सेनानियों
की
सहायता
करते
थे।
संजीव
ने
इस
उपन्यास
में
इस
तरह
की
घटना
या
उद्देश्य
की
चर्चा
नहीं
की
है।
संजीव
के
'पुरबी बयार' उपन्यास
द्वारा
यह
प्रतीत
होता
है
कि
वो
महेंद्र
मिश्र
के
प्रति
सामाजिक
श्रेष्ठ
छवि
को
धाराशायी
करना
चाहते
हैं।
संजीव
के
नायक
महेंद्र
मिश्र
का
व्यक्तित्व
उन
प्रचलित
कथाओं
से
हल्का
नज़र
आता
है
जिसमें
उनको
क्रांतिकारी
और
अंग्रेज़ी
सरकार
के
विरोधी
के
रूप
में
चित्रित
किया
गया
है।
संजीव
ने
स्वयं
अपने
एक
अन्य
उपन्यास
सूत्रधार
जो
भिखारी
ठाकुर
के
जीवन
पर
आधारित
उपन्यास
है, में
महेंद्र
मिश्र
की
चर्चा
करते
हुए
लिखते
हैं, “आपन-आपन
पसंद!
अब
इनही
की
जाति
के
ब्रजकिशोर
बाबू, राजेन्द्र
बाबू, महेंद्र
बाबू, जयपरकाश
बाबू
उसी
अंग्रेजी
राज
को
उखाड़ने
के
लिए
लड़
रहे
हैं।”[xvi]
अनामिका
महेंद्र
मिश्र
के
लोकगायन
और
कथावाचन
के
पीछे
अंग्रेजी
सरकार
के
विरुद्ध
कार्य
करने
और
स्वतंत्रता
सेनानियों
की
सहायता
करने
की
कथा
को
जान
मुहम्मद
के
द्वारा
निम्न
रूपों
में
कहलवाती
हैं, “पंडितजी, रात
जॉन
वॉकर
के
बँगले
पर
अँगरेज
अधिकारियों
की
बैठक
हुई
जिसमें
सवाल
उठा
कि
ये
कैसा
संयोग
है
कि
महेन्दर
मिसिर
के
गीत
खत्म
होते
न
होते
रोज
रात
अँगरेजों
पर
धावा
बोला
जाता
है।”[xvii]
सूत्रधार
उपन्यास
में
संजीव
स्वयं
और
अनामिका
महेंद्र
मिश्र
को
स्वाधीनता
आंदोलन
का
सेनानी
मानते
हैं
और
उससे
संबंधित
कथा
का
जिक्र
करते
हैं,
परंतु
‘पुरबी बयार’ में
हमें
इस
तरह
की
कथा
प्रसंगों
का
जिक्र
नहीं
मिलता
है।
महेंद्र
मिश्र
नकली
नोट
बनाने
वाले
फारमा,
स्याही
और
कागज
लेकर
अपने
परिवार,
अपने
गाँव
वापस
चले
जाते
हैं।
वहाँ
पर
वे
गिरमिटिया
मज़दूरों
पर
लिखी
अपनी
धुनों
को
सुनाते
हैं
और
समय
आने
पर
अपने
छोटे
भाई
गोरख
के
साथ
मिलकर
नकली
नोट
छापने
का
काम
शुरू
करते
हैं।
संजीव
लिखते
हैं, “चिहुँक
उठे
महेन्दर
मिसिर, “बस
मंदिरवा
के
बन
जाने
तक
बाचा।
फेन
(फिर) उसी मंदिर
में
बैठ
के
भजन-कीर्तन
और
कविताई…बाकि
कुछ
ना।”[xviii]
इसी
के
साथ
धीरे-धीरे
महेंद्र
मिश्र
का
कायाकल्प
रईस
में
बदलते
जा
रहा
था।
संजीव
महेंद्र
मिश्र
की
लोकप्रियता
को
चित्रित
करते
हुए
लिखते
हैं, “महेंदर
मिसिर
के
गीत
ग़ज़ल
और
मुजरे
लाहौर
के
कोठों
से
कलकत्ते
और
ढाका
तक
के
कोठों
तक
लोकप्रियता
की
बुलंदियों
को
छू
रहे
थे।
उधर
गीत
तैर
रहे
थे, इधर नोट।
नोट…? नहीं, महेंदर तैर
रहे
थे।
महेंदर
के
गीत
महेंदर
के
नोट!”[xix]
महेंद्र
मिश्र
छपरा
से
पटना
और
कलकत्ता
तक
अपने
नकली
नोट
के
कारोबार
में
सफल
हो
रहे
थे।
महेंद्र
मिश्र
का
व्यक्तित्व
सरल, देहाती, पर दुखकातर
और
प्रेमी
था।
वे
किसी
के
दुख
को
देखकर
पिघल
जाते
थे।
इसी
कारण
उनकी
प्रसिद्धि
और
उनके
प्रति
श्रद्धा
लोगों
के
मन
में
बहुत
गहराई
के
साथ
जम
रही
थी।
अंग्रेजी
पुलिस
के
साजिशकर्ताओं
के
प्रति
बिलकुल
भी
चौकन्ने
न
थे।
उन्हें
प्रेम
के
द्वारा
ही
छला
जा
सकता
था।
संजीव
लिखते
हैं, “पहली
पतंग
को
सतर्क
हो
जाना
चाहिए
था।
पर
नहीं।
होनी!
चौकन्ने
होते
तो
जाली
नोट
के
लोभ-जाल
में
फँसते
ही
कैसे!
गांगुली
से
बंगला
सीखी।
होशियारी
सीखी।
नोट
छापना
सीखा
लेकिन
यह
नहीं
जाना
कि
कितना
खतरनाक
खेल
खेलने
जा
रहे
हैं
ये।
बस
एक
सरल
विश्वास, भोले बाबा
के
मंदिर
का
काम
है, धरम
का
कारज, वही पार
करेंगे।”[xx]
महेंद्र
मिश्र
के
इन्हीं
स्वभाव
ने
उनको
अंग्रेजी
पुलिस
के
हाथ
पकड़े
जाने
में
सहायता
की।
जासूस
गोपीचंद
उनका
विश्वासपात्र
सेवक
बनकर
उनकी
समस्त
नीतियों
को
जानता
है
और
उन्हें
रंगे
हाथ
पकड़
लेता
है।
महेंद्र
मिश्र
गोपीचंद
के
द्वारा
किए
गए
प्रेम
छल
से
हतोत्साहित
होते
हैं
और
उस
पर
यह
गीत
भी
लिखते
हैं
कि -
गोपीचंद
उर्फ
सी.आई.डी. सब-इंस्पेक्टर
जटाधारी
प्रसाद
से
महेंद्र
मिश्र
की
जेल
की
मुलाकात
का
चित्र
संजीव
ने
बड़ी
ही
सजीवता
से
खींचा
है।
संजीव
की
भाषा
की
पकड़
और
रोचकता
इन
शब्दों
में
देखा
जा
सकता
है, “महेंदर
मिसिर
अंदर
ही
अंदर
हैरान
थे
खुद
की
बेवकूफी
पर, गफलत
पर, भोलेपन
पर
या
तकदीर
के
खेल
पर!
पिंजरे
में
सिंह
गुर्राया।
गुर्राकर
रह
गया, तड़पा, तड़पकर
रह
गया।
इतना
बेगाना
हो
गया
गोपीचंद
कि
बोलता
तक
नहीं।
एक
बार
बोल
तो
देता, देखते
आवाज़
भी
बदल
गयी
है
या
वही
है!”[xxii]
पुरबी
गायक
महेंद्र
मिश्र
की
हालत
एवं
दशा
की
दयनीयता
के
वर्णन
में
संजीव
के
बिम्ब
सफल
हुए
हैं।
वे
लिखते
हैं, “सिल्क
के
पीले
कुर्ते
पर
सोने
की
बटन, मुचड़ा सुनहरी
धारी
वाला
अंगौछा, गले
में
सोने
की
चेन, मुचड़ा
हुआ
कुर्ता, मुचड़ी
हुई
धोती।
जगह-जगह
पान
की
पीक
के
छींटे।
यह
विचित्र
जब
थी
उस
समय
पुरबी
के
सबसे
लोकप्रिय
गायक
महेंदर
मिसिर
की!
अखाड़े
में
पटकाए
हुए
थे।
घुटने
के
बल
उठना
चाह
रहे
थे।
उठ
नहीं
पा
रहे
थे।”[xxiii]
संजीव
यह
प्रमाणित
करना
चाहते
हैं
कि
कपटी
मनुष्य
को
कपट
से
ही
छला
जा
सकता
है
परंतु
प्रेमी
मनुष्य
को
प्रेम
से
ही
छला
जा
सकता
है।
वो
गोपीचंद
के
प्रेम
के
कारण
पकड़े
गए
न
कि
अपनी
गलत
नीतियों
के
कारण।
गोपीचंद
भी
महेंद्र
मिश्र
से
छल
करने
के
बाद
उनसे
नज़रें
नहीं
मिला
पाता
है।
संजीव
ने
कथा
के
प्रारंभ
में
ही
गोपीचंद
के
गुण
एवं
काबिलियत
से
प्रभावित
होने
का
दावा
करते
हुए
लिखा
है
कि
उन
पर
अलग
से
उपन्यास
लिखना
चाहिए।
गोपीचंद
उर्फ
जटाधारी
प्रसाद
ने
ब्रिटिश
सरकार
के
स्काटलैंड
यार्ड
के
जासूसों
के
घमंड
को
चूर-चूर
कर
दिया
था।
संजीव
के
शब्दों
में
कहें
तो,
“उन्होंने कभी
सोचा
भी
न
होगा
कि
जिस
देश
पर
राज
कर
रहे
हैं
वहाँ, एक
से
बढ़कर
एक
जीनियस
और
काबिल
अफसर
भरे
पड़े
हैं।”[xxiv]
महेंद्र
मिश्र
और ढेला बाई का
प्रेम
आज
भी
चर्चा
का
महत्त्वपूर्ण
विषय
है।
उन्होंने
छपरा
के
नामी
बैरिस्टर
खेमचंद
बैनर्जी
को
अपने
समस्त
गहने
देकर
महेंद्र
मिश्र
को
बचाने
का
मुकदमा
उनके
हाथ
दिया
था।
संजीव
कथा
में
आगे दिखाते हैं
कि
महेंद्र
मिश्र
की
जन
लोकप्रियता
और
संगीत
का
जादू
जेल
में
भी
छाया
रहा
और
वे
वहाँ
भी
मंदिर
की
सफाई
और
पुरबी
गीतों
के
लिए
प्रसिद्ध
रहें।
वापस
आने
के
पश्चात्
भी
उनकी
लोकप्रियता
समाप्त
न
हुई।
उनका
धन
समाप्त
हो
गया,
परंतु
उनकी
गीतों
की
चमक
सदा
ही
बरकरार
रही।
महेंद्र
मिश्र, गोपीचंद, ढे़ला
बाई
इत्यादि
पात्र
पुरवइया
में
अमर
हो
गए
हैं।
महेंद्र
मिश्र
पुरबी
बयार
की
तरह
भोजपुरी
प्रदेश
और
उसके
आसपास
के
क्षेत्र
में
रच
बस
गए
हैं।
उनके
गीत, उनके
कथा
प्रसंग
प्रेम
और
विरह
की
मिसाल
देने
के
लिए
उपयुक्त
हैं।
कथाकार
ने
जेल
में
महेंद्र
मिश्र
के
जीवन
में
भक्ति
और
गीत
से
लिप्त
जीवनचर्या
के
कारण
जेल
में
उनकी
प्रसिद्धि
को
बखूबी
दिखाया
है।
जहाँ
समस्त
कैदियों
और
जेल
कर्मचारियों
के
बीच
उन्हें
रमैनी
बाबा
के
रूप
में
पहचान
मिली।
जेल
में
ही
महेंद्र
मिश्र
ने
भोजपुरी
में
‘अपूर्व रामायण’ की
रचना
भी
की।
संजीव
ने
अपने
उपन्यास
के
द्वारा
महेंद्र
मिश्र
के
लोक
में
व्याप्त
प्रेमी
स्वरूप
को
उजागर
करने
का
प्रयास
किया
है।
एक
व्यक्ति
जो
सामान्य
परिवार
से
उठकर
आता
है, वह
समाज
को
बदलने
के
स्थान
पर
स्वंय
के
कार्यों
द्वारा
अपने
मानदंड
स्थापित
करता
है।
संजीव
ने
महेंद्र
मिश्र
की
लोकप्रियता
के
पीछे
प्रेम
और
गीतों
को
अधिक
महत्त्वपूर्ण
माना
है।
उनकी
पहचान
का
दायरा
उनके
गीत
ही
हैं।
संजीव ने
इस
उपन्यास
में
महेंद्र
मिश्र
के
भोजपुरी
के
गीतों
को
बड़ी
ही
सहजता
एवं
कथा
की
प्रासंगिकता
के
साथ
प्रस्तुत
किया
है।
[i] संजीव, सूत्रधार, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2016. पृ.07
[ii] संजीव, पुरबी बयार, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2021, पृ.24
[iii] रामनाथ पांडेय, महेन्दर मिसिर, भोजपुरी विकास भवन, छपरा, 1994, पृ.02
[v] संजीव, पुरबी बयार, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2021, पृ.16
[vi] वही, पृ.18
[vii] वही, पृ.39
[viii] वही, पृ.44
[ix] वही, पृ.45
[x] वही, पृ.51
[xi] वही, पृ.59
[xii] वही, पृ.71
[xiii] अनामिका, दस द्वारे का पींजरा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2021, पृ.205
[xiv] संजीव, पुरबी बयार, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2021, पृ.107
[xvi] संजीव, सूत्रधार, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृ.126
[xviii] संजीव, पुरबी बयार, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2021, पृ.134
[xix] वही, पृ.134
[xx] वही, पृ.136
[xxi] वही, पृ.199
[xxii] वही, पृ.174
[xxiii] वही, पृ.174
[xxiv] वही, पृ.177
शोधार्थी, विवि हिंदी विभाग, तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर
dg18vscw@gmail.com, 7686992568