शोध आलेख : भारतेंदु युग में प्रस्तुति आलेख का स्वरूप (भारतेन्दु हरिश्चंद्र तथा माधव शुक्ल के प्रस्तुति आलेख के संदर्भ में) / डॉ. संजीब कुमार

भारतेंदु युग में प्रस्तुति आलेख का स्वरूप
(भारतेन्दु हरिश्चंद्र तथा माधव शुक्ल के प्रस्तुति आलेख के संदर्भ में)
- डॉ. संजीब कुमार

शोध सार : जिस युग में 'जानकीमंगल' का अभिनय हुआ, वह भारतेंदु युग के नाम से विख्यात है। इस युग में नाटक लिखने की परंपरा नाटक खेलने से अलग नहीं थी। परंतु प्रस्तुति आलेख संबंधी जानकारी बहुत ही कम सूत्रों में उपलब्ध है। प्रस्तुति आलेख का व्यावहारिक सत्य यह है कि रंग परिदृश्य से वह गायब हो जाता है। हमारे रंग संस्थानों और मंडलियों में आलेख रखने की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी स्थिति में किसी युग के रंग परिदृश्य को समझने में बहुत परेशानी होती है। उस समय के अभिनय में अतिनाटकीयता का प्रभाव था। लेकिन वह प्रभाव पारसी शैली की देन थी अथवा लोकनाटकों का प्रभाव था, यह कहना मुश्किल है। रंग परिवेश संबंध में दूसरी जो सूचना मिलती है वह दृश्यबंध और दृश्य-सज्जा के संबंध में है। दृश्यबंध को भारतेंदु ने बिल्कुल सादा रखा। दृश्यबंध को सादा कपड़ा के माध्यम से घेरकर बनाया गया था। इसमें किसी प्रकार का कोई दिखावा नहीं था। भारतेंदु युग के अन्य नाटककारों का दृष्टिकोण नाटक के प्रति बड़ा लचीला होता था। प्रस्तुति के लिए नाटक में परिवर्तन को वे बड़ी उदारता से अपनाते थे। ऐसे अनेक प्रमाण मिले हैं जिसमें प्रस्तुति आलेख का संदर्भ मूल नाटक से बदला हुआ था। नाटककार अपने नाटकों में किए गए परिवर्तनों को इसलिए उदारता से लेते थे क्योंकि उनका व्यावहारिक रंगकर्म से जुड़ाव था। वे उन कठिनाइयों को जानते थे, जिससे रंगकर्म में उलझनें पैदा होती थी। भारतेंदु युग में प्रस्तुति आलेख की सबसे प्रामाणिक सूचना 'अंधेर नगरी' की मिलती है। 'अंधेर नगरी' की रचना 1881 . में हुई थी। यह रचना नेशनल थियेटर में मंचित होने के लिए लिखी गई थी। 'अंधेर नगरी' का मंचन उसी दिन दशाश्वमेघ घाट पर हुआ था। इस नाटक का सबसे बड़ा तथ्य यह है कि यह नाटक एक विशेष मंडली के सदस्यों को सामने रखकर लिखा गया था। पारसी रंगमंच के इस परिवेश में यदि किसी एक व्यक्तित्व ने रंगकर्म के प्रति पूरी निष्ठा दिखाई तो उसमें माधव शुक्ल का नाम अग्रणी है। उन्होंने 'श्री रामलीला मंडली' की स्थापना करके विभिन्न प्रस्तुतियों के माध्यम से रंगकर्म को समय की सच्चाइयों से जोड़ा, प्रस्तुति शैली के अनुकूल सहज और स्वाभाविक बनाया। माधव शुक्ल के अतिरिक्त अधिकांशतः रंगकार्य में पारसी रंगमंच का सस्ता अनुकरण अधिक था। इन मंडलियों में मौलिक हिंदी नाटक को खेलने के प्रति उत्साह नहीं था। मौलिक हिंदी नाटक रचा भी नहीं जा रहा था। पारसी थियेटर समूचे हिंदी रंगमंच का पर्याय बन चुकी थी। आगा हश्र 'काश्मीरी' और द्विजेन्द्रलाल राय के नाटक हिंदी रंगमंच पर छा गए थे।

बीज शब्द : रंगमंचीय आलेख, प्रस्तुति, शास्त्रीय नाट्यपरंपरा, परंपराशील नाट्य, नाट्यशैली, आलेख प्रक्रिया, दृश्यबंध, दृश्य-सज्जा, पारसी थियेटर, निर्देशक।

मूल आलेख : हिंदी में आधुनिक रंगमंच की शुरुआत शीतला प्रसाद त्रिपाठी के नाटक 'जानकी मंगल' (1868) से शुरू होती है। 'जानकी मंगल' को रंगमंचीय आलेख कहा जा सकता है। रंगमंचीय आलेख कहने के पीछे कारण यह है कि शीतला प्रसाद त्रिपाठी ने रामचरित मानस के एक नाटकीय प्रसंग सीता स्वयंवर को आधार बनाकर आलेख की रचना की, जिसमें उन्होंने तुलसी की अन्य रचनाओं के कई पद्यांशों का सीधा उल्लेख किया। यह आलेख किस प्रकार दूसरे आलेखों से भिन्न है और किन परिस्थितियों के बीच उसकी रचना हुई थी। इस पर भी ध्यान देना अनिवार्य होगा।

            काशी के तत्कालीन महाराज ईश्वर नारायण सिंह ने एक ऐसे नाटक के प्रस्तुति की जिज्ञासा प्रकट की, जिसमें पश्चिमी नाटक या अंग्रेजी नाटक से टक्कर लेने का सामर्थ्य के साथ शिष्ट मनोरंजन और चरित्र निर्माण की प्रेरणा भी हो। इस कार्य के लिए महाराज ने शीतला प्रसाद त्रिपाठी को चुना। त्रिपाठी जी संस्कृत के शिक्षक थे। वे चाहते तो मौलिक नाटक रच सकते थे अथवा किसी नाटक का अनुवाद कर उसे मंचित कर सकते थे। परंतु इससे उनके उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो रही थी। नाटक के संबंध में प्रचलित तीन दृष्टियाँ उनके सामने मौजूद थी- संस्कृत रंगमंच की नाट्य दृष्टि परंपराशील नाट्यशैली और दरबार में प्रचलित ऑपेरा शैली। इन प्रचलित नाट्य परंपराओं के बीच आधुनिक ढंग के आलेख को प्रस्तुत करने का प्रयास त्रिपाठी जी ने किया।

इन्हीं अर्थों में यह हिंदी रंग इतिहास का प्रथम प्रस्तुति आलेख कहा जा सकता है। अब देखना यह है कि उसमें कौन से नए आयाम विकसित हुए हैं। संस्कृत की शास्त्रीय नाट्यपरंपरा, परंपराशील नाट्य अथवा दरबार में विकसित नाटकों की अपेक्षा गद्यों में संवादों को रखा। यह दृष्टिकोण उनके मौलिक सूझबूझ का परिचय देता है। इसी बिंदु पर वे पारंपरिक शैली से अपना अलग मार्ग बनाते हुए प्रतीत होते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने पारंपरिक और संस्कृत नाट्य रूढ़ियों से भी अपने नाटक को दूर रखा।

            इस नाट्यलेख की दूसरी विशेषता यह है कि रचनाकार ने प्रस्तुति पक्षों को ध्यान में रखकर आलेख तैयार किया था। एक निर्देशक की तरह उन्होंने दृश्यबंध, दृश्यसज्जा, संगीत और प्रदर्शन स्थल को आलेख प्रक्रिया में ही यथास्थान संयोजित कर लिया था। हिंदी शौकिया मंडली की यह पहली प्रस्तुति है, जिसमें भारतेंदु ने भी लक्ष्मण की भूमिका निभाई थी। इस नाटक के आलेख के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करने की आवश्यकता है। वह यह है कि इस नाट्यालेख का मूलाधार 'रामचरितमानस' है। तुलसीदास की दूसरी कृतियों जैसे 'गीतावली', 'कवितावली' और 'विनय पत्रिका' आदि के पद्यों के द्वारा नाट्यालेख के नाट्यानुभव को सघन बनाया गया था। क्या यही काम बाद के श्रेष्ठ रंग निर्देशकों ने प्रसाद के नाटक के प्रस्तुति आलेख के संदर्भ में नहीं किया है? रामगोपाल बजाज, बी.वी.कारंत आदि निर्देशकों ने 'स्कंदगुप्त' की प्रस्तुति आलेख के गीत प्रसाद की दूसरी कृतियों से भी लिया और नाट्य स्थिति को तीव्र बनाया। हिंदी का प्रथम प्रस्तुति आलेख और श्रेष्ठ प्रस्तुति आलेख के बीच की यह समानता हमें सुखद आश्चर्य में डाल देती है।

भारतेंदु और प्रस्तुति आलेख का स्वरूप -

जिस युग में 'जानकीमंगल' का अभिनय हुआ, वह भारतेंदु युग के नाम से विख्यात है। इस युग में नाटक लिखने की परंपरा नाटक खेलने से अलग नहीं थी। परंतु प्रस्तुति आलेख संबंधी जानकारी बहुत ही कम सूत्रों में उपलब्ध है। भारतेंदु युग का बहुचर्चित और बहुमंचित नाटक है 'सत्य हरिश्चंद्र' नाटक मंच पर इस नाटक के सृजन में कुछ महत्वपूर्ण अवश्य रहा होगा जो एक प्रस्तुति को दूसरी प्रस्तुति से अलग करता था।

        भारतेंदु ग्रंथावली के संपादक शिव प्रसाद रुद्र काशिकेय की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है, “इनमें सबसे महत्वपूर्ण 'सत्य हरिश्चंद्र' का पाठभेद है। इसके पहले संस्करण के चतुर्थ अंक में पिशाचों और डाकनियों की लीला वाला अंश नहीं है, जबकि सभी प्राप्त संस्करणों में यह अंश संभवतः भारतेंदु ने ही रंगमंच पर अभिनय के लिए जोड़ दिया था, जिसे बाद के संस्करणों में समाहित कर लिया गया।"1 वस्तुतः ये पाठभेद होकर नाट्यालेख के स्वाभाविक भेद हैं। मंचन की अनिवार्य प्रक्रिया में नाटक में कुछ नए प्रसंगों की उद्भावना अथवा कुछ प्रसंगों का संक्षिप्तीकरण कोई नई बात नहीं है। चूँकि भारतेंदु नाटक और मंचन के बीच गहरे रूप से जुड़े हुए थे इसलिए इस प्रकार के परिवर्तन किए होंगे और नाटकों के नए नाट्यालेख रचे होंगे। इसलिए 'सत्य हरिश्चंद्र' नाटक के पाठ भेद को नए नाट्यालेख स्वीकार करना अधिक प्रासंगिक होगा।

            गोपालराम गहमरी ने एक संस्मरण में लिखा, "काशी के बाबू ने बलिया में 'सत्य हरिश्चंद्र' नाटक में स्वयं हरिश्चंद्र बनकर खेला था, जिसमें हिंदी के सुलेखक बाबू राधाकृष्ण दास सरीखे हिंदी सेवक और रविदत्त शुक्ल जैसे कवियों ने पार्ट लिया था। उस समय पर्दा और सीनों का जमाव नहीं था, लेकिन जो कुछ स्टेज उस समय बना था बजाज के कपड़े तानकर जो काम भारतेंदु ने दिखाया था, उसकी महिमा यूरोपियन लेडियों तक ने गाई थी। उस समय के कलक्टर साहब की मेम ने आँसुओं से भरा रुमाल निचोड़कर जब साहब की मार्फत भारतेंदु जी से आग्रह किया था कि रानी शैव्या का श्मशान में विलाप अब धीरज छुड़ा रहा है, सीन बदला जाए, तो इस पर सत्य हरिश्चंद्र बने हुए भारतेंदु ने स्वयं ओवर एक्ट किया था और दर्शक मंडली में करुणा के मारे त्राहि-त्राहि मच गई थी।"2

            इस सूचना से प्रस्तुति आलेख के आकार को स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। लेकिन प्रस्तुति का कुछ आकार अवश्य स्पष्ट किया जा सकता है। विवरण से एक बात स्पष्ट होती है कि उस समय के अभिनय में अतिनाटकीयता का प्रभाव था। लेकिन वह प्रभाव पारसी शैली की देन थी अथवा लोकनाटकों का प्रभाव था, यह कहना मुश्किल है। रंग परिवेश संबंध में दूसरी जो सूचना मिलती है वह दृश्यबंध और दृश्य-सज्जा के संबंध में है। दृश्यबंध को भारतेंदु ने बिल्कुल सादा रखा। दृश्यबंध को सादा कपड़ा के माध्यम से घेरकर बनाया गया था। इसमें किसी प्रकार का कोई दिखावा नहीं था। दृश्यबंध में लोकनाटकों की सहजता का आभास मिलता है। प्रस्तुति सूचना से यह बात भी स्पष्ट होती है कि, भारतेंदु अपने व्यावहारिक रंगकर्म में भी किसी प्रकार के दृश्यबंध को स्वीकार नहीं करते थे। प्रस्तुति आलेख में कथ्य की दृष्टि से शैव्या की करुणा को उभारने की कोशिश की गई थी। इस अतिनाटकीयता ने दर्शक की स्मृति पर अमिट प्रभाव डाला। इसी से इस बात की पुष्टि होती है कि शैव्या की करुणा को प्रस्तुति में प्रमुखता दी गई थी। भारतेंदु ने इसी शैली के भीतर से अभिनय की संभावनाएं तलाश की थी। चूँकि नाटक की करुणा को दर्शक में संचारित करना प्रस्तोता का मूल उद्देश्य था और उसमें वह सफल भी हुआ। इस प्रकार यह भी प्रमाणित किया जा सकता है कि वह प्रस्तुति सफल थी।

            भारतेंदु युग के अन्य नाटककारों का दृष्टिकोण नाटक के प्रति बड़ा लचीला होता था। प्रस्तुति के लिए नाटक में परिवर्तन को वे बड़ी उदारता से अपनाते थे। ऐसे अनेक प्रमाण मिले हैं जिसमें प्रस्तुति आलेख का संदर्भ मूल नाटक से बदला हुआ था। नाटककार अपने नाटकों में किए गए परिवर्तनों को इसलिए उदारता से लेते थे क्योंकि उनका व्यावहारिक रंगकर्म से जुड़ाव था। वे उन कठिनाइयों को जानते थे, जिससे रंगकर्म में उलझनें पैदा होती थी। इसका एक उदाहरण लाला श्रीनिवासदास के नाटक के संदर्भ में दिया जा सकता है। "6 दिसम्बर 1868 को इलाहाबाद में आर्य नाट्य सभा द्वारा लाला श्रीनिवासदास के 'रणधीर प्रेममोहिनी' के अभिनय का आयोजन था। भारतेंदु वहाँ सादर आमंत्रित थे। उस नाटक में लाला जी ने प्रस्तावना नहीं रखी थी। भारतेंदु को प्रस्तावना के बिना नाटक खेला जाना रुचा। उन्होंने तुरंत उसकी एक प्रस्तावना अभिनय के लिए तैयार कर दी। उस प्रस्तावना में भी भारतेंदु ने समाज के नवनिर्माण में नाट्य प्रासंगिकता पर बल दिया। सचमुच नाटक प्रचार से इस भूमि का बहुत भला हो सकता है। क्योंकि यहाँ के लोग कौतुकी बड़े हैं। दिल्लगी से इन लोगों को जैसी शिक्षा दी जा सकती है वैसी और तरह से नहीं।"3

इस लंबे उद्धरण को उद्धृत करने का उद्देश्य यह है कि उस युग में नाटक को कोई बनी-बनाई ठोस इकाई नहीं माना जाता था। वह अपने रूप संरचना में तरल इकाई थी जो प्रस्तुति के समय आकार ग्रहण करती थी। इसलिए नाटक की प्रस्तुति में आलेख के परिवर्तन की संभावना बनी रहती थी। नाटक का अर्थ स्थानीय दर्शकों के अनुकूल प्रतिपादित करना होता था। इसलिए स्थानीयता के कारण भी कभी-कभी आलेख में परिवर्तन अनिवार्य हो जाता था। भारतेंदु ने नाटक में प्रस्तावना को जोड़कर नाटकीय उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया। हो सकता है कि उन्होंने निरक्षर जनता को ध्यान में रखकर ऐसा किया हो। कारण कुछ भी रहा हो इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रस्तुति में नाट्यालेख को नए सिरे से रचा जाता था।

प्रस्तुति आलेख के संदर्भ में यह जरूरी नहीं कि हर प्रस्तुति में नाटक के अर्थ का विस्तार ही होता हो। कभी-कभी सहयोग के अभाव में नाटक की दुर्गति भी होती थी। उसका ठीक-ठीक पाठ भी नहीं हो पाता था। भारतेंदु के नाटक भारत दुर्दशा' का कानपुर में बंगाली समाज द्वारा मंचन हुआ था। उस मंचन में प्रसिद्ध साहित्यकार प्रताप नारायण मिश्र भी उपस्थित थे। उन्होंने अपने पत्र 'ब्राह्मण' में एक समीक्षा लिखी थी। उन्होंने लिखा, "टिकट होने के कारण अप्रबंध तो सपेड़ा और बोहना रानी के स्वाँगों का सा था। इसके सिवाय योगी के मुँह से गजल गवाना भारत का कड़क कड़क के बोलना, स्त्री पात्रों के दंडा ऐसे (बिना चुड़ी) हाथ और नित्य की अंगरखी और धोती का खुल-खुल जाना भारतेंदु के गीतों के बदले पूर्ण उर्दू के बेसुरे बेतुके बेमानी गीतों का गाना, कलिराज (यह भारत परदैव का नाम रक्खा गया था) की सभा में मुबारकबाद का गाया जाना केवल एक गीत के लिए सीन बदलना इत्यादि अभिनेताओं की बुद्धिमता का ठीक परिचय देता था। जिनको अद्वितीय नाटककार होने का कुछ कुछ सच्चा अभिमान हैं उन्होंने भारतभाग्य की आरंभवाली लावनी (रोबहु सब मिल के... इत्यादि) का एक-एक चौक गाया और गला फाड़-फाड़ के भारतेंदु की कविता को बलि प्रदान करने लगे. कई दर्शकों ने कहा क्या "भारत दुर्दशा' की दुर्दशा की है।"4

            यह समीक्षा 'ब्राह्मण' में 15 अक्तूबर 1885 को छपी थी। समय का उल्लेख करने का विशेष उद्देश्य इस मायने में है कि हम पहचान सकते हैं कि पारसी शैली का प्रभाव शुरू हो चुका था। उसका पूरा प्रभाव इस नाटक की प्रस्तुति में विद्यमान था। इस समीक्षा को पढ़ने के बाद दो तीन महत्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। नाटक का प्रस्तुति आलेख भारतेंदु की लोकनाटक की शैली से बिल्कुल अलग प्रकार का था। प्रस्तुति आलेख में नई शैली को इतना महत्व दिया गया था कि पूरा का पूरा नाटक का स्वाद ही भिन्न प्रकार का हो गया था। भारतेंदु के नाटक की स्वाभाविकता जाती रही और पारसी शैली की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई। कड़क कड़ककर बोलना, गजल गवाना गीतों के बदले उर्दू के गीतों का प्रयोग, लोकशैली के नाटकों के उदाहरण नहीं हैं। भारतेंदु की कविता का पाठ उसी अंदाज में करना जिस अंदाज में गजल गाई जाती है। दृश्यों का तेजी से परिवर्तन करने जैसी रूढ़ियों का प्रयोग किया गया था, जिसे हम पारसी रंग शैली में भली भाँति देख सकते हैं। इस प्रस्तुति समीक्षा के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि कानपुर 'भारत दुर्दशा' की उस प्रस्तुति का नाट्यालेख पारसी शैली के रंग विधानों के अनुसार बनाया गया था, जिससे भारतेंदु के नाटक का सहज काव्य अर्थ और दृश्य रचनाएं हल्की हो गई।

            भारतेंदु युग में प्रस्तुति आलेख की सबसे प्रामाणिक सूचना 'अंधेर नगरी' की मिलती है। 'अंधेर नगरी' की रचना 1881 . में हुई थी। यह रचना नेशनल थियेटर में मंचित होने के लिए लिखी गई थी। 'अंधेर नगरी' का मंचन उसी दिन दशाश्वमेघ घाट पर हुआ था। इस नाटक का सबसे बड़ा तथ्य यह है कि यह नाटक एक विशेष मंडली के सदस्यों को सामने रखकर लिखा गया था। दूसरी महत्वपूर्ण जानकारी यह है कि उसी दिन इस नाटक का मंचन भी हुआ था। 'अंधेर नगरी' की रचना-प्रक्रिया और प्रस्तुति-प्रक्रिया साथ-साथ हुई थी। नाटककार ने इस नाटक में भारतीय शास्त्रीय, लोक और पाश्चात्य रंग तत्वों को सहजाता से मिलाया है। लेकिन "अंधेर नगरी' के साथ यह सुखद आश्चर्य क्यों जुड़ा हुआ है। इसका सीधा-सा जबाव है कि जब एक समर्थ रचनाकार नाटक की रचना करता है तो रंग परिकल्पना के संबंध में भी उसके पास एक दृष्टि होती है। प्रस्तुति प्रक्रिया को वह अपने सामने घटित होता हुआ देखता है।

            भारतेंदु रचनाकार और प्रस्तोता एक साथ थे, इसलिए लेखन और प्रदर्शन एक ही बिंदु पर विकसित हुआ। उन्होंने समय के अनुकूल एक नई दृष्टि को पाने के लिए कई प्रचलित शैलियों के मिश्रण से प्रस्तुति का रसायन तैयार किया था। पारसी के बाजारुपन का विरोध करते हुए भी दृश्य युक्तियों के लिए उसके रंग-विधान को एक नया अर्थ दिया। इसकी उन्मुक्त शैली के कारण नाटक को मंचित करने के लिए किसी बड़े आयोजन की जरूरत नहीं हुई।

पारसी रंगमंच और प्रस्तुति आलेख -

भारतेंदु युग तक लोक-शैली और पारंपरिक शैली का दबदबा रंगमंच पर अधिक था। इसलिए नाटक के मंचन के लिए निर्देशक की भूमिका उस प्रकार से मान्य नहीं हुई थी। वैसे कुछ छिटपुट प्रयास हो रहे थे। प्रधान अभिनेता नाटककार अथवा मंडली के वरिष्ठ सदस्य आलेख को अपने ढंग से व्यवस्थित कर देता था। प्रस्तुति आलेख को भी वही थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ मंचित करता था। पारसी रंगमंच का निर्देशक रंगमंडल का कोई वरिष्ठ सदस्य होता था और उसके सुझावों को स्वीकार किया जाता था। इन्हीं अर्थो में वह निर्देशक था। वह नाटक की व्याख्या करके व्यावसायिक दबावों के कारण उसमें जोड़-तोड़ करता था, नाटक लिखवाता था। कई बार उनके नाटकों के अलग- अलग अंश इन्ही दबावों के कारण अलग-अलग और कभी नाम बदलकर और कभी थोड़े परिवर्तनों के साथ खेले जाते रहे।

पारसी रंगमंच में कई बार नाटककार भी निर्देशक बने। चाहे वे निर्देशक आधुनिक ढंग के नहीं थे। उनमें जीवन के यथार्थवादी पक्षों की उतनी समझ नहीं थी, लेकिन प्रस्तुति बोध उनमें था। रंगमंच के तकनीक से वह जुड़े हुए थे इसलिए जब प्रस्तुति प्रक्रिया में बदलाव होते थे तो नाटककार और निदेर्शक बड़ी उदारता से स्वीकार करते थे। नाटककार राधेश्याम कथावाचक का मानना है, "किसी नाटक को लिख देने के बाद उसे सफलतापूर्वक अभिनय कर दिखाने के लिए साधारण एक्टर से लेकर स्टेज मास्टर तक को कितना दिमाग लड़ाना पड़ता है, किस प्रकार दृश्यों की योजना, पात्रों का कार्य विभाजन उनकी प्रसंगोदात्त भाषा एवं गद्यपद्यात्मक भाषण शैली में रिहर्सल और स्टेज होने के पूर्व तक सुधार करना पड़ता है उसे आजकल के रेनि साहित्यकार नाटककार नहीं जान सकते।"5

            राधेश्याम कथावाचक के इस उद्धरण से पता चलता है कि नाटक की प्रस्तुति में जटिलताओं को किस तरह से सुलझाया जाता था। दरअसल आधुनिक रंगमंच पर नाटककार का आलेख और निर्देशक के प्रस्तुति आलेख के बीच जो टकराहट या विवाद सामने आता है। उसमें दो कलाकर्मी शक्तियों के विजन की टकराहट का अनुभव होता है। पारसी थियेटर ने ऐसे विवादों से अपने को दूर रखा। उसका एक सृजनात्मक फायदा उस रंगमंच को हुआ। नाटक मंचित होने के योग्य नहीं है ऐसे प्रश्न उस रंगमंच से नहीं उठे। लेकिन पारसी नाटक में कहीं भी चुनौती नहीं मिलती वह जीवन के गंभीर सत्य को चुनौती देता है और रंगविधान की नई शैली के लिए उसमें ललकारने की क्षमता है। परंतु यह भी सही है कि पारसी रंगमंच में नाटक की रचना और प्रस्तुति- प्रक्रिया संपृक्त होती थी। नाटककार निर्देशक और अभिनेता का अनुभव अलग-अलग नहीं होता था। उनकी सामूहिक अनुभूति इतनी घनिष्ठ होती थी कि नाटक का प्रस्तुति आलेख में बदल जाए इसका पता करना बड़ा मुश्किल था। नाटककार और निर्देशक, मिलकर नाटक रचते थे।

            राधेश्याम कथावाचक ने लिखा है किबंगलोर में उन्हें श्री जम्बूनाथन नाम के एक प्रोफेसर मिले, जो बीर अभिमन्यू' नाटक के बड़े थे। इसके कॉमिक भाग को उन्होंने अलग से खेला। उसे उन्होंने 'बहादुर सुंदरी के नाम से भी था।”6 पारसी रंगमंच के संबंध में यहाँ बता देना जरूरी होगा कि इस रंगमंच में नाट्यालेख से अधिक अभिनय शैली को महत्व दिया जाता था। इस अभिनय शैली के अनुकूल प्रस्तुति आलेख के स्वरूप का निर्धारण होता था। कथावाचक, बेताब और हश्र के नाटक इसी के अनुकूल रचे गए।

माधव शुक्ल और प्रस्तुति आलेख -

पारसी रंगमंच के इस परिवेश में यदि किसी एक व्यक्तित्व ने रंगकर्म के प्रति पूरी निष्ठा दिखाई तो उसमें माधव शुक्ल का नाम अग्रणी है। उन्होंने 'श्री रामलीला मंडली' की स्थापना करके विभिन्न प्रस्तुतियों के माध्यम से रंगकर्म को समय की सच्चाइयों से जोड़ा, प्रस्तुति शैली के अनुकूल सहज और स्वाभाविक बनाया। इस मंडली के लिए अपने 'सीता स्वयंवर' के मंचन में अभिनेताओं ने मूल नाटक के संवादों से हटते हुए समकालीन राजनीति की वास्तविकता को व्यंजित किया। उस प्रस्तुति में जनक का अभिनय करने वाले अभिनेता अपने संवाद को अलग अर्थ देते हुए कह बैठा कि ब्रिटिश कूटनीति के समान कठोर इस शिव धनुष को तोड़ना तो दूर रहा वीर भारतीय युवक इसे टस से मस भी नहीं कर सके, यह अत्यंत दुःखद विषय है।7 कहने का अर्थ है कि प्रस्तुति आलेख को निर्देशक ही नहीं अभिनेता भी प्रतिउत्पन्नमतित्व से नया अर्थ देता है।

            श्री रामलीला मंडली (प्रयाग) के भंग होने के बाद माधव शुक्ल ने हिंदी नाट्य समिति (प्रयाग) का गठन करके राधाकृष्णादास का 'महाराणा प्रताप' नाटक अभिनीत किया। इसमें उन्होंने जहाँगीर की भूमिका निभाते हुए अपनी बनाई हुई कविता जोड़ दी। इस कविता ने समूची नाट्य स्थिति को रोचक और प्रभावपूर्ण बना दिया था। नाटककार प्रस्तुति को देखकर यहाँ तक कहने की उदारता दिखलाई कि पुस्तक यदि छप गई होती तो शुक्ल जी के इस नवीन परिवर्धित अंश को मैं अवश्य ही उसमें सधन्यवाद जोड़ देता।8 किसी भी नाट्यालेख की उत्कृष्टता का प्रमाण यह है कि नाटककार को ऐसा अनुभव हो कि निर्देशक ने उसके नाट्य अर्थ का विस्तार किया है।

            माधव शुक्ल के अतिरिक्त अधिकांशतः रंगकार्य में पारसी रंगमंच का सस्ता अनुकरण अधिक था। इन मंडलियों में मौलिक हिंदी नाटक को खेलने के प्रति उत्साह नहीं था। मौलिक हिंदी नाटक रचा भी नहीं जा रहा था। पारसी थियेटर समूचे हिंदी रंगमंच का पर्याय बन चुकी थी। आगा हश्र 'काश्मीरी' और द्विजेन्द्रलाल राय के नाटक हिंदी रंगमंच पर छा गए थे। जब मौलिक नाटक ही नहीं रचे जा रहे थे तो प्रस्तुति आलेख कहाँ से संभव होते। अनूदित नाटकों का मंचन हो रहा था। माधव शुक्ल के अतिरिक्त जिन दो मंडलियों की चर्चा अपेक्षित है उनमें भारतेंदु नाटक मंडली (1907) और श्री नागरी नाटक मंडली (1908) प्रमुख है।

            भारतेंदु नाटक मंडली ने अभिनय के लिए भवभूति के 'उत्तर रामचरित कृष्णचंद्र जी ने इस नाटक को निर्देशित किया था। सर्वप्रथम उन्होंने नाटक को हिंदी में अनुदित किया। इसमें उन्होंने मूल पाठ के प्रारुप और भावों की रक्षा की। इस संबंध में उनका कथन था -

कृत को किसी कृत के घटा या बढ़ाकर भ्रष्ट यों
नहि उचित सत्कवि कीर्ति तोड़ मरोड़ करना नष्ट यों।
इससे भला है आप ही रचकर नया कुछ खेलना,
किस हेतु करना नाट्य विधा की वृथा अवहेलना।”9

            नाट्यालेख की जो प्राथमिक शर्त होनी चाहिए उसकी ओर निर्देशक का संकेत है। नाटक की अंतरात्मा की रक्षा करना किसी भी नाट्यालेख की नैतिक जिम्मेदारी है। नाट्यालेख में चाहे कितना ही परिवर्तन हो लेकिन इस वास्तविकता से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। कृष्णचंद्र जी ने 'उत्तर रामचरित' के प्रस्तुति आलेख में नाटक के शब्दों को बिना बदले ही उसकी शैली को बदल दिया। उन्होंने पाद टिप्पणी के सहारे संस्कृत नाटक के गर्भक रहित अंकों में बदला और स्थानों को चित्रित लिपटवाँ परदों में दिखाकर संस्कृत नाटक के नाट्यालेख को एक सर्वथा नए प्रकार के रंगस्थापत्य में ढाल दिया गया। माधव शुक्ल के बाद प्रायः सभी मंडलियों ने, विशेष रूप से भारतेंदु नाटक मंडली और नागरी नाटक मंडली (काशी) ने पारसी और डी. एल. राय के अशक्त नाटकों को ही काँट-छाँटकर खेला। इनकी शैली पारसी रंगशैली से प्रभावित थी, परंतु आलेख की क्या स्थिति रही, इनकी सूचनाएं नहीं मिलती।

संदर्भ :
1. रुद्र काशिकेय : भारतेंदु ग्रंथावली, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1972, पृ. 30
2. कुंवरजी अग्रवाल : काशी का रंग परिवेश, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1986, पृ. 40
3. वही, पृ, 49
4. वासुदेवनंदन प्रसाद :  भारतेंदु का नाटक साहित्य और रंगमंच, भारती भवन, पटना, 1973, पृ. 269
5. राधेश्याम कथावाचक : मेरा नाटककाल, श्री राधेश्याम पुस्तकालय, बरेली 1957, पृ. 41
6. वही, पृ. 59
7. सावित्री सिन्हा, दशरथ ओझा : हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1972, पृ. 48
8. वही, पृ. 48
9. कुंवरजी अग्रवाल : काशी का रंग परिवेश, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1986, पृ. 40
10. भारतेन्दु हरिश्चंद्र : अंधेर नगरी, वाराणसी प्रेस, बनारस, 1881
11. शीतलाप्रसाद त्रिपाठी : जानकी मंगल, बनारस थियेटर, बनारस, 1868


डॉ. संजीब कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर (हिन्दी), दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स, (दिल्ली विश्वविद्यालय)
sanjeebdcac.du@gmail.com, 9868571559

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

Post a Comment

और नया पुराने