शोध आलेख : जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के उपन्यासों में ग्रामीण जीवन / नीतीश कुमार

जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के उपन्यासों में ग्रामीण जीवन
- नीतीश कुमार

शोध सार : आजादी के पश्चात् सभी क्षेत्रों में बदलाव आया, लेकिन यह बदलाव शहरों तक ही सीमित होकर रह गया। जिसके कारण लोगों को गाँव से शहर की ओर पलायन होने पर मजबूर होना पड़ा। स्वतंत्रता पूर्व ग्रामीण जीवन को साहित्य में प्रस्तुत करने की परंपरा प्रेमचंद से मानी जा सकती है। स्वतंत्रता के पश्चात नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, श्रीलाल शुक्ल, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र, विवेकी राय, भैरव प्रसाद गुप्त, जगदीश चन्द्र आदि महत्त्वपूर्ण नाम रहे हैं, जिसकी अगली कड़ी के रूप में जगदम्बा प्रसाद दीक्षित का नाम आता है। इन्होंने अपने उपन्यासों में ग्रामीण एवं शहरी जीवन का चित्रण किया है। जिसमें शुरुआत के दो उपन्यास शहरी जीवन पर केन्द्रित हैं और बाकी दो उपन्यास ग्रामीण जीवन पर। कटा हुआ आसमान और मुरदाघर उपन्यास में महानगरीय जीवन का चित्रण जिस गहराई के साथ किया गया है, उसी गहराई के साथ अकाल और इतिवृत्त उपन्यास में ग्रामीण जीवन का चित्रण देखने को मिलता है। दीक्षित जी ने अपने ग्रामीण उपन्यासों में मानवीय सम्बन्धों में विखराव, पलायन, अकाल, अंधविश्वास, चोरी, डकैती आदि समस्याओं के साथ-साथ पुरानी परंपरा का खंडन, स्त्री की दयनीय स्थिति, कुर्सी की राजनीति, रोजगार की ज्वलंत जैसे अनेक समस्याओं को शामिल किया है। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने ग्रामीण जीवन के अंतर्गत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन में व्याप्त विसंगतियों को उजागर किया है।

बीज शब्द : ग्रामीण जीवन, अकाल, इतिवृत्त, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक संबंध, विसंगति, पलायन, रोजगार, भूख, अंधविश्वश, ग्रामीण संस्कृति।

मूल आलेख :

ग्राम जीवन का सामाजिक परिवेश -

जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने ग्रामीण जीवन के अंतर्गत सामाजिक जीवन में व्याप्त विसंगतियों को उजागर किया है। भारतीय समाज में परिवार को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। व्यक्ति समाज में रहकर ही अपने पारिवारिक जीवन का निर्वाह करता है। पारिवारिक संबंधों में भी अब अनेक प्रकार की विषमताएँ देखने को मिलती है। इस संदर्भ में हिमकर श्याम अपने लेख में लिखते हैं- “परिवार एक औपचारिक संगठन बन कर रह गया है। पारिवारिक नियंत्रण कमजोर हुआ है। विवाह और व्यक्तिगत मामलों में अब स्वतंत्र निर्णय लिए जाने लगे हैं। सामाजिक मान्यता और मर्यादा से जकड़े संबंधों के दिन अब लदने लगे हैं। उभरते भारत का यह सबसे बड़ा स्याह पक्ष है।1 उपन्यासकार ने अपने उपन्यासों के माध्यम से वर्तमान समय में पारिवारिक संबंधों में रहे बदलाव को दिखाया है। जिसमें रिश्तों की नैतिकता के साथ-साथ पारिवारिक मूल्यों का ह्रास भी शामिल है। जिसका उदाहरण हम इतिवृत्त उपन्यास में इस प्रकार देख सकते हैं- “कौन है यह आदमी? या सिर्फ एक मनीऑडर है। जो कभी आता है। कभी नहीं आता? कभी चिट्ठियाँ आती हैं... कभी नहीं आतीं। नौकरी है। आजकल नौकरी नहीं है। छुट्टी मिलने वाली है। राजी खुशी ईश्वर से नेक चाहते हैं। ...जैसे ही छुट्टी मिली आएंगे। ...और हम दो तीन बच्चे कच्ची जमीन पर लेटे हैं। रात का अंधेरा घिरा हुआ है। हम अपनी माँ से सट जाने की कोशिश कर रहे हैं। और माँ लगातार अँधेरे की तरफ देख रही है। कहानियाँ सुनाने की कोशिश करती हैं। बीच के समय में कभी जाता है यह आदमी...हमारा बाप। साल या डेढ़ साल में...दस या पंद्रह दिन के लिए। बहुत जल्द ये दिन ख़त्म हो जाते हैं। हम इस आदमी को रोकना चाहते हैं। लेकिन इसे जाने से कोई रोक नहीं सकता। क्योंकि मनी-ऑर्डरों का आना जरूरी है।2 स्पष्ट है कि परिवार में रिश्तों से ज्यादा अर्थ महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। इसी प्रकार एक उदाहरण हमअकालउपन्यास में भी हम देख सकते हैं-“नहीं रामदीन, छोड़ो हमको। आज फैसला हो जाएगा..हम जिंदा रहेंगे कि यह साला जिंदा रहेगा। ..नाक में दम कर रखा है। घर की मान-मर्यादा बाज़ार में बेच रहा है।3 साथ ही भैया चिल्ला रहें है-“ये बाप नहीं दुश्मन है। यही है जो हमारी तरक्की देख जलता है। समझता है कि इससे बड़ा कोई नहीं है। मगर हम भी ऐसा पाठ सिखायेंगे कि याद करेगा।4 यहाँ पर स्पष्ट है कि वर्तमान समय में पारिवारिक संबंधों में माता-पिता और पुत्र के बीच जो नये संबंध उभर रहे हैं, उनमें विद्रोह की भावना प्रवल है। जिसके कारण नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को स्वीकार नहीं कर पा रही है। उन दोनों के बीच दूरियाँ लगातार बढ़ती ही जा रही है। वर्तमान समय में इस तरह की लड़ाई माता-पिता और पुत्र के समबंधों के बीच एक गहरी खाई का आकार बढ़ता ही जा रहा है, जिससे उभर पाना कठिन हो जाता है।  

भारतीय समाज में पहले से मौजूद जातिगत भेद-भाव कैसे व्यक्ति के अस्तित्व का अंग बन गई है और लंबे समय से ही जाति की अवधारणा किस प्रकार चली रही है, जो समाज में अभी तक मौजूद है। इस संदर्भ में पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं-“जाति व्यवस्था भारतीय समाज-सत्ता के तंत्र की धुरी है। यह हमारे सामज में व्याप्त वर्ग, वर्ण तथा लिंगपरक विद्वेष का समग्र तथा संगठित ढांचा है।5 समाज में जातिवाद के नाम पर एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों पर अत्याचार कर रहे हैं। जिसका सटीक चित्रण जगदम्बा प्रसाद दीक्षित नेअकालउपन्यास में किया है। उपन्यास में मखना नाऊ को ब्राह्मण कहलाने का भूत सवार हो गया था। वह लोगों से कहता फिरता था कि  नाई भी ब्राह्मण होते हैं। इतने में रामनिरोही सभी ब्राह्मणों को ललकार कर बोले-मारो सारे नऊआ को...जाने पाये ! जान से मार देव ...कि बाद में ऐसी मजाल कोहू का होय।6 यहाँ पर जातिवादी व्यवस्था को दर्शाया है कि किस प्रकार से समाज में उच्च जाति के लोग मखना जैसे निम्न वर्ग का शोषण करते हैं।

समाज में व्याप्त अंधविश्वास पूजा-पाठ, स्वर्ग-नरक जैसी मान्यताएँ कैसे व्यक्ति को पथ विमुख करती जा रही हैं। प्रेम जनमेजय के अनुसार- “अंधविश्वास मनुष्य की चेतना एवं उसके विवेक को अंधकार से ढक लेता है।7 अंधविश्वास में मनुष्य अंधे के समान पथभ्रष्ट हो जाता है। भाग्य, व्रत, मूर्ति-पूजा आदि ने अंधविश्वास को जन्म दिया है। जिसके चलते समाज में अंधविश्वास का विस्तृत रूप फैलने लगा है। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज में व्याप्त ऐसे ही अंधविश्वास की पट्टी को खोलने का प्रयास किया है।अकालउपन्यास में दीक्षित जी के इस कथन द्वारा समझा जा सकता है-“रामनिहोरी की आवाज दूर से ही सुनायी पड़ रही थी।...धरती के पापों का प्राश्चित करना पड़ेगा। चंडी महायज्ञ, रुद्र  महायज्ञ, इक्कीस ब्राह्मण अखंड, वेदपाठ, वरुण कल्प, दिन-रात हवन, जप, भजन, कीर्तन ग्यारह दिनों तक। इसके उपरात ब्रह्मभोज। इन्द्रदेव अवश्य प्रसन्न होगें। वर्षा तुरंत हो जायेगी...इसमे संदेह नहीं। प्राचीन ग्रन्थों का विधान मिथ्या नहीं हो सकता...8 उक्त कथन में हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों पर संदेह व्यक्त किया गया है। यह धर्म ग्रंथ ही सदियों से मानव प्रजाति को अपने कर्म से विमुख कर ईश्वर की आस्था को मानकर अपने कर्म के दयितत्व से विमुख करती चली रही है। उपन्यास में प्रस्तुत संदर्भ भी इसी ओर संकेत करता है। रामनिहोरी द्वारा ईश्वर के प्रकोप का डर लोगों में इसी उद्देश्य से भरा जा रहा है। ताकि गाँव के लोग सूखे के निवारण के लिए ईश्वर की अनुकंपा पर ही आश्रित रहें। जिससे यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि भारतीय समाज मे अंधविश्वास किस कदर व्याप्त है। आज भी वर्षा करने के लिए यज्ञ-हवन जैसी पुरानी मान्यताओं का सहारा लेते लोगों को देखा जा सकता है।

स्त्री जीवन के सामाजिक पक्षों के अंतर्गत जगदम्बा प्रसाद दीक्षित नेअकालउपन्यास में स्त्री के पारिवारिक शोषण से लेकर समाज में मौजूद पुरुषवादी मानसिकता को भी दिखाया है। जिसमें स्त्री को बेसहारा समझकर उस पर अपना अधिकार जमाने वाले घर-बाहर के पुरुषों का वास्तविक रूप उभरकर सामने आया है। अकालउपन्यास में जगदीश की पत्नी (भाभी) के साथ रामप्रसाद काका शारीरिक संबंध स्थापित करते हैं। जिससे भाभी गर्भवती हो जाती हैं। जब यह बात गाँव वालों को पता चलती है तो सभी दोष भाभी को देते हैं और अस्पताल ले जाने के बहाने भाभी को गंगा में डुबोकर मार डालने की योजना बनाते हैं- “दुई चार दिन मा बड़े अस्पताल ले जायेंगे...सबकुछ ठीक करा के लौटा लायेंगे...देवमणि भी जायेंगे।...और भी दुई मनई रहेंगे।...उनकी भी मजबूरी समझो। बहुरिया बना के लाये थे...मेहरिया बना के तो रखेंगे नहीं। यही मारे लौटा के नहीं लायेंगे...9 यहाँ पर विवाह के पाश्चात्य स्त्री की दुर्दशा को देखा जा सकता है। किस प्रकार से ग्रामीण समाज में एक लाचार स्त्री का लाभ उठाकर उसके साथ शारीरिक संबंध बनाते है और जब वह माँ बनने वाली होती है तो उसे गंगा में डुबोकर मार डालने की साजिश रचते हैं।

राजनीतिक परिवेश -

जगदंबा प्रसाद दीक्षित ने आजादी के बाद राजनीति में आए वदलावों का चित्रण किया है, जिसमें सभी का कुर्सी के प्रति मोह ही सर्वोपरी है। यही कारण है कि राजनेता कुर्सी को बचाए रखने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने लगे हैं। इस संदर्भ में गिरिराजशरण अग्रवाल का कथन है- “आज कि राजनीति में एक नई धारा का उद्गम हुआ है। वह धारा है दल-बदल की दल-बदल के मूल में कोई सिद्धांत नहीं, पदलिप्सा की प्रवृति ही मुख्य है। उसके लिए किसी विचार, किसी आदर्श, किसी सिद्धांत या औचित्य की भी आवश्यकता नहीं। दलबदल मात्र स्वार्थ के वंशीभूत होकर कुरसी पाने के लिए किया जा रहा है।10 राजनीति में अनेक प्रकार के हथकंडो को अपनाकर कुरसी को हथियाया जा सकता है। कुरसी प्राप्त हो जाने के बाद उसके प्रति मोह बढ़ता ही जाता है। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने इसी मोह को अपने उपन्यास अकाल में चित्रण किया है। अकाल पड़ने पर जब गाँव के लोग हाल-बेहाल हो जाते हैं। तब नेता लोग अपने भाषणों द्वारा सिर्फ दिलासा ही देते हैं-“किसी को भी भूख से मरने नहीं दिया जायेगा। सरकार हर स्थिति का सामना करने के लिए तैयार है। कारखाना खुलेगा। नहर बनेगी और भी बड़े-बड़े देशों से करार होंगे। हमार देश पीछे नहीं रह सकता। सब सुखी हो जायेंगे। आप लोग केवल इतना करें...सप्ताह में एक दिन व्रत रखें और अन्न की बरबादी को टालें। बनियों, व्यापारियों, कलाबजारियों पर कड़ी कार्यवाई की जाएगी। अनाज की सरकारी दुकाने खुल गयी हैं। बैंक से कर्जा मिलेगा। जेवनारों, भोजो पर पाबंदी है। ...प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत करें।11 यहाँ पर यह दिखाया गया है कि चुनाव के दौरान नेता लोग जनता के बीच झूठे भाषणों द्वारा अपना उल्लू किस प्रकार सीधा करते हैं। उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में उन राजनीतिक दलों को प्रस्तुत किया है, जो समाज के सभी पक्ष से साठगांठ करके राजनीतिक लाभ उठाते हैं। जिससे की रजीनीतिक मूल्यों का ह्रास होने लगा।

गाँव का आर्थिक परिवेश -

उपन्यासकार ने आर्थिक स्थिति के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत किया है। आर्थिक स्थितियाँ किस प्रकार व्यक्ति की पहचान बन रही है, इस प्रश्न को उपन्यासकार ने बहुत ही तार्किक रूप से उठाया है। गाँव में अकाल पड़ने के कारण आम आदमी के लिए पेट की आग को शांत करने की विकल समस्या खड़ी हो गई है। उसे अपने परिवार का पेट भरने के लिए पलायन होने के लिए विवश होना पड़ रहा है। जिसका एक उदाहरण हमें अकाल इस प्रकार देखने को मिलता है- “देखो भाई नन्हें...जइसी स्थिति है...तुम्हारे सामने है। ...अब यही सम्मत भई है कि तुम बंबई जाओ और कुछ काम करो। तो अब बोआई होगी.... फसल कटेगी।...आखिर कुछ तो किया ही जायेगा।12 यहाँ पर एक पिता की लाचारी का चित्रण किया गया है। किस प्रकार अकाल पड़ने के कारण परिवार का मुखिया पिता अपने पुत्र को महानगर भेजने के लिए विवश है। इसी प्रकारइतिवृत्उपन्यास में भी पलायन का चित्रण कुछ इस प्रकार मिलता है। बेटा जब अपने मरते हुएबाप को देखने आता है तो बनवारी से पूछता है, सब लोग कहाँ चले गये- “जिसको जहाँ रास्ता मिला...चला गया। कोई बम्बई चला गया तो कोई कलकत्ता। जो नहीं गए हैं.. भी चले जाएँगे। हियाँ कउन तो रहेगा अउर अपनी मइया... काम धंधा। खेती बारी में कुछ धरा नहीं है। जब देखो, ससुर सूखा पड़ा रहता है...यू साला ठेकेदार...13 गाँव में बार-बार सूखा पड़ने के कारण लोगों को जीविका के लिए गाँव छोड़कर जाना ही पड़ता है। उनके पास कोई दूसरा उपाय ही नहीं है। कारण गाँव में रोजगार के साधन मौजूद नहीं हैं। अगर छोटे-मोटे रोजगार मिलते भी हैं तो दिहाड़ी बहुत कम मिलती है। जिससे गुजारा करना परिवार के पेट भरना बहुत ही मुश्किल होता है। इस कारण लोग को शहरों की तरफ पलायन होने के लिए विवश हो रहे हैं।

जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने जिस जमीन के ऊपर खड़े होकर अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है उनमें ग्रामीण जन जीवन के रूप दिखाई देता है। प्राचीन काल से ही लोग गरीबी और भूख की समस्या का सामना करते रहे हैं। आज के बलते दौर में भी इस समस्या का समाधान नहीं हो पाया है। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने गरीबी और भूख की समस्या कोइतिवृत्तउपन्यास में इस प्रकार वर्णित किया है- “आगे वाले टूट पड़े हैं। पीछे वालों को मालूम पड़ गया है। झपट कर हमला कर दिया है। जिसको जितनी पूरियाँ मिल रही हैं....मैले-मैले थैले में डालता चला जा रहा है। तरकारी और बूंदी तसलों में उलीची जा रही है। सब ने हमला कर दिया है। परत उलट गयी...पूरियाँ कीचड़ में बिखर गईं। तरकारी के डेग को पकड़कर खींचातानी कर रहे हैं। तरकारी गिरती जा रही है, बूंदी के पतीले भी उलट गये हैं। अब धक्का-मुक्की हो रही है, जो कीचड़ में गिर गया है...सब बिनने लगता है ! फिर कोई और धक्का देता है...बटोरने लगता है। बच्चे-बूढ़े अलग खड़े हो गये हैं। मगर औरतें पीछे नहीं हैं। आपस में लूट...खसोट...मारपीट...गली-गलौज कर रहीं हैं। फटी हुई धोतियाँ और फट रहीं हैं। फटे हुए कंबल यहाँ दिए गये हैं...वहाँ फैल गये हैं।14 स्पष्ट है कि गाँव में कंगलों की स्थिति इस प्रकार है कि उन्हे पेट भर खाना नहीं मिलता है। अगर मिलता भी है तो थोड़ा बहुत रूखा-सूखा। इतना ही नहीं पेट भर खाना खाने के लिए उन्हें भोज से भोज तक इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि उनकी गरीबी ही उन्हें पानी और कीचड़ वाला खाना खाने के लिए मजबूर करती है।

धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवेश -

उपन्यासकार ने धार्मिक एवं सांस्कृतिक विषमता के विविध पक्षों पर भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है। जहाँ एक तरफ किसनू के माध्यम से ईश्वर के प्रति आस्था का चित्रण किया है। वहीं दूसरी तरफ जगहर के माध्यम से ईश्वर की सत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगते हुए स्वर्ग-नरक एवं पुनर्जन्म जैसी मान्यताओं का खंडन भी किया गया है। समाज में आस्था एवं अंधविश्वास इस कदर व्याप्त है कि लोग धर्म के नाम पर दूसरे लोगों से कर्म-कांड करवाते हैं और अपनी जेब गरम करते हैं। जिसे जगदम्बा प्रसाद दीक्षितइतिवृत्तउपन्यास में इस प्रकार दिखाया है- “अब बूँदा-बाँदी शुरू हो गयी है। सब लोग परेशान हैं। मरनेवाले की आत्मा ख़ुश नहीं है। कौनों कसर रह गयी है। क्या चूक हो गयी है ? बैद्यराज अनोखे पंडित से उलझ रहे हैं। जरूर कौनों कमी रह गयी है बिचार करो यह बिघन ऐसे ही नहीं पड़ रहा है। ...अनोखे पंडित आँखें मूँद लेते हैं। ध्यान करते हैं। आख़िर समझ में जाता है। मरने वाले की आत्मा धिक्कार रही है। ...बरम बाबा का नेग नहीं किया...और चले हैं तेरहीं का तर्पण करने। ढाई-तीन सौ का खर्चा और है। मगर किये बिना निस्तार नहीं है। बड़े सुकुल से कहना पड़ेगा। ...तब थमेगा यह प्रलय? नहीं तो सब किया-कराया सत्यानाश हो जाएगा। ...बैदराज ध्यान से सुनते हैं। फिर लाठी टेकते सुकुल की हवेली की तरफ निकल जाते हैं।15 उक्त कथन में मरनेवाले की आत्मा खुश नहीं होने के कारण बरम बाबा का नेग नहीं किया माना जाता है। यही बरम बाबा का नेग ही अंधविश्वास को जन्म देता है। बैद्यराज और अनोखे पंडित द्वारा निर्णय लिया जाता है कि ढाई-तीन सौ का खर्चा और है। जिससे भली-भाति पता चलता है कि गाँव के अन्य लोग भी मौके का लाभ उठाकर सब अपना-अपना ज़ेव भरते हैं। अज्ञानता, पाखंड, पूजा-पाठ और मृत्यु के बाद की क्रियाओं पर होने वाला खर्चा जो किसी गरीब व्यक्ति को जीते-जी मारने का संस्कार है। उनके पास खाने-रहने के भी पैसे नहीं होते तो ऐसे में वे किस प्रकार करेंगे तेरही। मृत्यु के बाद होने वाले कर्म-कांड ना मरने वाले के लिए कुछ करते हैं और ना जीवित को ही शांति से रहने दिया जाता है। समाज के अन्य वर्ग धर्म के नाम पर उनसे ये कर्म-कांड करवाते हैं और अपनी ज़ेब गरम करते हैं।

            प्राचीन काल से ही संस्कृति में वृद्धि ग्रामीण जीवन से होती थी। लेकिन अब गाँव के लोगों का रोजगार महानगर में होने के कारण गाँव शहरों का नकल कर रहा है। जिससे की गाँव की संस्कृति लगातार टूटने की प्रक्रिया से गुजर रहा है और यह समस्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। इस संदर्भ में डॉ. दिलीप भस्मे ने लिखा है- “नगरीकरण के प्रभाव से गाँवों की परंपरागत संरचना ध्वस्त होती गई। नये मुल्य भी रेखांकित होने लगे लगे।16 दीक्षित जी ने इसी समस्या को अपने उपन्यासों के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है।अकालउपन्यास में गाँव में बार-बार अकाल और सूखा पड़ने से जगदीश भैया को महानगर जाना पड़ता है। महानगर में रहने के कारण भैया को गाँव का जीवन घटिया लगाने लगता है। गाँव-कस्बे की लड़की से ब्याह की बात करना भी उनका अपमान करने जैसा था। उनके सपनों की दुनिया कहीं और थी। उन्होंने भाभी से शादी भी उनकी सुंदरता का बखान सुनकर ही किया था। शादी के बाद भैया का कहना था कि भाभी नये-नये फैशन के कपड़े पहनकर उनके साथ बाहर घूमने जाए। इस पर भाभी हँसते-हँसते हुए कहती है- “...का हो गया है तुम्हारे भैया को !...कमीज, पतलून पहन के हम कहाँ मुँह दिखायेंगे...17 लेकिन भैया की ज़िद के आगे भाभी हार मान जाती है। वह आधुनिक कपड़े पहनकर चलने को तैयार हो जाती है। इससे स्पष्ट पता चलता है कि शहरीकारण का प्रभाव भारतीय ग्रामीण जीवन पर इस कदर हावी होता जा रहा है। जिससे की वह लगातार टूटने की प्रक्रिया से गुजर रहा है।

निष्कर्ष : जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने अपने उपन्यासों में ग्रामीण जीवन के अंतर्गत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन में व्याप्त विसंगतियों पर प्रकाश डाला है। जिसमें जातिगत भेद-भाव, पारिवारिक सबन्धों में रहा बदलाव और रिश्तों की नैतिकता के साथ-साथ पारिवारिक मूल्यों का ह्रास भी शामिल है। जिससे यह पता चलता है कि परिवार में रिश्तों से ज्यादा अर्थ ही महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। स्त्री जीवन के सामाजिक पहलू के तहत उपन्यासकार ने स्त्री के पारिवारिक शोषण के अलावा समाज में मौजूद पुरुषवादी मानसिकता को भी दिखाया है। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित राजनीतिक परिवेश के अंतर्गत उन राजनीति दलों को प्रस्तुत किया है, जो समाज के सभी पक्षों से साठ-गांठ करके राजनीतिक लाभ उठाते हैं। जिससे राजनीति में मूल्यों का पतन होने लगा और कुर्सी का महत्त्व ही सर्वप्रथम हो गया। आर्थिक स्थितियों के विभिन्न पक्षों के अंतर्गत आर्थिक विषमता किस प्रकार सामाजिक जीवन का अंग बन गई है, इसे उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में चित्रित किया है। जिसमें अकाल, पलायन, रोजगार, भूख की समस्या शामिल है। आधुनिकता का प्रभाव पड़ने के कारण भारतीय ग्रामीण संस्कृति टूटने की प्रक्रिया से गुजर रही है। साथ-साथ धर्म किस प्रकार आस्था के नाम पर लोगों को पथ विमुख कर रहा है, जिसका चित्रण भी जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने अपने उपन्यासों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

संदर्भ :
1.    https://doosariaawaz.worldpress.com
2.    जगद,म्बा प्रसाद दीक्षित,‘इतिवृत्त’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं., 2004, पृ.सं. 19
3.    जगदम्बा प्रसाद दीक्षित,‘अकाल’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं., 2004,पृ.सं.33
4.    वही, पृ.सं.34
5.    पुरुषोत्तम अग्रवाल,‘संस्कृति : वर्चस्व और प्रतिरोध’, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण,2008, पृ.सं. 103
6.    जगदम्बा प्रसाद दीक्षित,‘अकाल’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं., 2004,पृ. सं. 36
7.    प्रेम जनमेजय,‘आजादी के बाद का हिन्दी गद्य-व्यंग्य’, हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर, (.प्र.), प्र. सं.2011, पृ.सं. 110  
8.    जगदम्बा प्रसाद दीक्षित,‘अकाल’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं., 2004,पृ.सं.75
9.    वही, पृ. सं. 28
10. गिरिराजशरण अग्रवाल,‘राजनीति विसंगतियों पर प्रखर प्रहार’, (आलेख),‘व्यंग्य यात्रा (पत्रिका), प्रेमजनमेजय, (सं.), (जुलाई-सितंबर,2017), नई दिल्ली, पृ. सं.-33
11. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित,‘अकाल’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं., 2004,पृ.सं. 72
12. वही, पृ.सं. 65
13. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित,‘इतिवृत्त’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं., 2004, पृ.सं. 45-46
14. वही, पृ.सं. 141
15. वही, पृ.सं. 128
16. दिलीप भस्में,‘विवेकी राय के साहित्य में ग्रामीण जनजीवन’, अनुपमा प्रकाशन, प्र.सं., 2006 पृ. सं. 177
17. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित,‘अकाल’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं., 2004,पृ.सं. 28

नीतीश कुमार
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय
Nitishkumarnh@gmail.com, 9899535723

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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