शोध आलेख : हिंदी दलित कहानी और ओमप्रकाश वाल्मीकि / राहुल एवं डॉ. विजय कुमार रंजन

हिंदी दलित  कहानी और ओमप्रकाश वाल्मीकि
– राहुल  एवं डॉ. विजय कुमार रंजन

शोध सार : ‘चाँद’ पत्रिका का 1927 में अछूत अंक अछूतोद्धार के गांधीवादी माडल पर निकला। इस अंक को अधिक महत्त्व नहीं मिला क्योंकि ‘इस माडल में अस्पृश्यता का विरोध था,वर्णाश्रम-धर्म का खंडन नहीं था,हिन्दुओं के ह्रदय-परिवर्तन का आग्रह था,पर हिंदुत्व का विरोध नहीं था। उसमे अछूतों की पढाई-लिखाई से इनकार तो नहीं था,पर उनके स्वाभिमान को कुचलने वाले गंदे पेशों को छोड़ने का समर्थन नहीं था।’ इस लेखन की धार यहीं पर कुंद हो गयी। प्रेमचंद के लेखन में दलित कथा का प्रवेश,साहित्य में दलित कथा का आरंभ माना जाता है। महीप सिंह द्वारा संपादित पत्रिका ‘सारिका’ के 1982 के अंक से दलित लेखकों के द्वारा विधिवत दलित लेखन का  प्रारंभ होता है। सारिका पत्रिका के सन्1982 अंक में दलित लेखन ने साहित्य और समाज में  एक नई हलचल उत्पन्न कर दी। लोगों की धारणा और सोच को  बदल कर रख दिया। यहीं से प्रारंभ होता है दलित कहानियों का सिलसिला।आज के समकालीन दौर में मनुष्य अपनी चाह और रुचि के अनुसार व्यवस्था (वस्तु) को नकारता और अपनाता है। दलित साहित्य इसी नकार और प्रतिरोध का साहित्य है।  हिन्दी दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि सशक्त हस्ताक्षर हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने कहानी संग्रहों में दलित जीवन की विभिन्न समस्याओं, यातनाओं एवं शोषण को अभिव्यक्ति किया है, जिसमें दलित समाज के जीवन और जिजीविषा की यथार्थ झलक दिखाई पड़ती है। उनकी कहानियों के पात्र तथा घटनाएं समय से संवाद करती हैं। इसी संवाद में दलित चिन्तन पुरानी जड़ता को खत्म करने की कवायद करता हैं। वर्ण और जाति समाज की सबसे बड़ी जड़ता रही है। वर्ण और जाति आधारित व्यवस्था को नकारकर समता आधारित व्यवस्था की निर्मिति दलित साहित्य का मुखर स्वर है।

बीज शब्द : दलित, कहानी, विमर्श, अस्मिता, अछूत, छुआछूत, सवर्ण, ब्राह्मणवाद, दलितसाहित्य, जीवनमूल्य, वर्णव्यवस्था, शोषण, समतामूलकसमाज, चेतना, संघर्ष, अमानवीयता, संताप, स्वतंत्रता।

मूल आलेख : आधुनिक    काल    में    ‘कहानी’    गद्य    कि    एक    नवीन    विधा    है,    लेकिन    देखा    जाए      तो      कहानी    का    आरंभ    वास्तव    में    आधुनिक  काल    में    नहीं     हुआ।    इसका    आरंभ    तब    से    मानना    चाहिए    जब    से    मानव    जीवन    का    आरंभ    हुआ    है।  अतः  हम  यह  कह  सकते  हैं    कि  हिन्दी  साहित्य  के  आधुनिक  काल  में  गद्य  की  कुछ  नवीन  विधाएं  हमारे  समक्ष  प्रस्तुत  होती  हैं  जिसमें  एक  है  ‘कहानी’।  कहानी  पहले  मौखिक  रूप  से  सुनी  अथवा  कही  जाती  थी-  राजा  –  रानी,  परी,  तिलस्म,  चमत्कार  आदि  की    कहानियां  किन्तु  कालांतर  में  चलकर  इनमें  परिवर्तन  हुआ  कहानी  लिखी    जाने  लगी,  उसमे  संवेदना  और  सन्देश  का  पुट  समाहित  हुआ  और  कहानी  अपने    विकास  की  ओर  उन्मुख  हुई।  अब  प्रश्न  यह  उठता  है  कि  -  दलित  कहानी  का  आरंभ  क्यों  ?  यद्यपि  कहानी  तो  कहानी  होती  है।

इस  प्रश्न  का  उत्तर  देते  समय  यह  अवश्य  कहा  जायेगा  कि    हाँ    कहानी  तो  कहानी  होती  है  चाहे  वह  किसी  दलित  की  हो  या  गैर  दलित  की  फर्क  सिर्फ  उसके  विषय-वस्तु  और  शिल्प  में  होता    है।  दलित  कहानी  स्वानुभूति  पर  आधारित  होती  है,  वह  पूर्ण  रूप  से  यथार्थ  के  धरातल  पर  होती  है  जबकि  पारंपरिक  कहानी  में  यथार्थ  तो  होता  है  किन्तु  उसमे  कल्पना  का  सम्मिश्रण  भी  होता  है  दूसरे  शब्दों  में  कहें  तो  दलित  कहानी  में  यथार्थ  स्वानुभूति  का  होता  है।

हमारे  जेहन  में  पुनः  प्रश्न  उठता  है  कि  ‘फिर  दलित  कहानी  लेखन  क्यों?’  अतः  हमें  यहाँ  यह  समझ  लेना  आवश्यक  है  कि  समाज  में  जो  उंच–नीच,  भेद-भाव  और  छुआछूत  चल  रहा  है  उसके  ख़िलाफ़  दलित  चिंतकों  ने  आवश्यक  प्रयास  किया।  ओम  प्रकाश  वाल्मीकि  स्वयं  इस  जातिगत  भेदभाव  को  भुगतते  रहे  और  अपने  अनुभवों  को  लेखनी  के  माध्यम  से  सामने  लाकर  दलित  साहित्य  को  अग्रसर  करने  में  महत्वपूर्ण  योगदान  देते  रहे।दलितों  के  प्रति  अमानवीय  व्यवहार  और  दोहरे  मापदंड’  में  वह  लिखते  हैं  कि  एक  दलित  लेखक  के  अपने  निजी  अनुभव, उसके  सामाजिक  अनुभव  कितने  भयावह  और  कमजोर  करने  वाले  होते  हैं,इसका  अंदाज  दूर  खड़ा  कोई  लेखक, आलोचक, संपादक  नहीं  लगा  पाता  है।  अनुभवों  का  अंत:करण  में  रूपान्तरण  उन  भावनाओं  में  होता  हैजो  उसे  संघर्ष, आक्रोश  की  ओर  ले  जाती  है  और  अंततः  करुणा, प्रेम  के  रास्ते  कविता, कहानी और  आत्मकथा  के  रूप  में  सामने  आती  है। इन्हीं  अनुभवों  ने  अनेक  दलित  लेखक  पैदा  किए  हैंजिनके  अन्तर्द्वंद  उन्हें  दूसरों  से  अलग  करते  हैं।[1] 

छुआछूत  हमारे  समाज  में  इस  कदर  व्याप्त  है  कि  जिसकी  कोई  सीमा  नहीं  है  आज  के  समय  में  जानवर  की  इज्जत  एक  दलित  से  ज्यादा  की  जाती  है।  लोग  कुत्ता  लेकर  गोद  में  चलते  हैं,  गाय  का  पेशाब  तक  पीते  हैं  लेकिन  एक  दलित  व्यक्ति  के  साथ  रहने  मात्र  से  वे  अपवित्र  हो  जाते  हैं,  दलित  के  स्पर्श  तक  को  त्याज्य  मानते  हैं।  ठीक  इसी  प्रकार  ‘ओमप्रकाश  वाल्मीकि’  ने  अपने  कहानी  संग्रह  ‘सलाम’  में  एक  कहानी  ‘कहाँ  जाये  सतीश’  के  माध्यम  से  बताने  का  प्रयास  किया  है।  इस  कहानी  में  सतीश    एक  दलित  होता  है  जो  एक  सवर्ण  के  घर  में  रहता  है  किन्तु  जब  सवर्ण  दम्पति  को  ‘सतीश’  के  दलित  होने  की  खबर  होती  है  तो  तुरंत  वे  लोग  ‘सतीश  ’  को  घर  से  बाहर  निकल  देते  हैं  और  ‘सतीश’  उनकी  बेटी  के  विषय  में  सोचता  है  कि  उनकी  बेटी  ने  ‘सतीश’  को  राखी  बांधी    थी।  वह  अपने  मालिक  से  कहता  है  कि  “उसने  मुझे  राखी  बाँधी  थी  साहबपर  आजउन्हें  पता  चल  गया  कि  मेरी  जाति  क्या  है।  साहब, भंगी होने  से  रिश्ते  टूट  जाते  हैं  ?  मैं  इस  भंगीपन  से  छुटकारा  पाना  चाहता  हूँ  साहब।[2] 

ठीक  इसी  प्रकार  की  शर्मनाक  घटना  ‘ओमप्रकाश  वाल्मीकि’  के  दुसरे  कहानी  संग्रह  ‘घुसपैठिए’  के  मुख्य  कहानी ‘घुसपैठिए’  में  भी  ‘राकेश’  की  पत्नी  ‘इन्दु’  नहीं  चाहती  कि  पड़ोस  में  किसी  को  उनकी  जाति  के  बारे  में  पता  चले  वह  समाज  के  उपेक्षित  व्यवहार  से  अपने  परिवार  को  बचाना  चाहती  है।उसे  अपने  पति  का  दलितों  के  प्रति  सोहार्दपूर्ण  व्यवहार  पसंद  नहीं।वह  कई  बार  अपने  पति  को  इनसे  दूर  रहने  को  कहती  है–तुम  चाहे  जितने  बड़े  अफसर  बन  जाओमेलजोल  इन  लोगों  से  ही  रखोगेजिन्हें  यह  तमीज  भी  नहीं  है  कि  सोफ़े  पर  बैठा  कैसे  जाता  हैतुम्हें  इनसे  यारीदोस्ती  करना  है  तो  घर  से  बाहर  हीआसपड़ोस  में  जो  थोड़ी  बहुत  इज्जत  हैउसे  भी  क्यों  खत्म  करने  पर  तुले  होगले  में  ढोल  बाँधकर  मत  घूमोयह  जो  सरनेम  लगा  रखा  हैयही  क्या  कम  हैकितनी  बार  कहा  है  कि  इसे  बदलकर  कुछ  अच्छासा  सरनेम  लगाओ….बच्चे  बड़े  हो  रहे  हैं….इन्हें  कितना  सहना  पड़ता  है।कल  ‘पिंकी’  की  सहेली  कह  रही  थी…’रैदास’  तो  जूते  बनाता  था….तुम  लोग  भी  जूते  बनाते  होपिंकी  रोते  हुए  घर  आई  थीमेरा  तो  जी  करता  है  बच्चों  को  लेकर  कहीं  चली  जाऊँ[3] 

सामाजिक  भेदभाव  इतना  अधिक  है  हमारे  समाज  में  कि  स्वयं  ‘ओमप्रकाश  वाल्मीकि’  को  भी  माकन  खोजने  में  दिक्कत  हो  रही  थी  जैसा  कि  उन्होंने  अपनी  आत्मकथा  में  बताया  है।  आज  के  समय  में  ऐसे  ताने  हजार  बार  दलितों  को  सहने  पड़ते  हैं  जबकि  संविधान  में  इसके  लिए  कानून  भी  बनाया  गया  है  किन्तु  कुछ  दुष्ट  उसका  भी  मजाक  बनाते  हैं।  हमारे  समाज  की  व्यवस्था  इतनी  ख़राब  है  कि  यदि  एक  दलित  की  मौत  भी  होती  रहे  तो  सवर्ण  उसे  हाथ  लगाने  से  डरता  है  आम  आदमी  तो  दूर  डाक्टर  तक  छुआछूत  को  मानते  है  और  बढ़ावा  भी  देते  हैं।  पुलिसवाले  तो  ऐसे  दलितों  की  तलाश   में  रहते  हैं  जिसपर  कोई  गुनाह  साबित  हो  सके  क्योंकि  उनके  पीछे  कोई  पूछताछ  करने  वाला  नहीं  होता।‘सलाम’ कहानी में दलित ‘हरीश’ के सवर्ण दोस्त ‘कमल’ को गाँव का चायवाला इसलिए चाय नहीं पिलाता क्योंकि वह दलित की शादी में बाराती बनकर आया है। ‘चूहड़ों’  की बारात में  ‘बामन’  आए  यह  उसके  लिए  अकल्पनीय  है।  इसलिए  वह  चिल्लाकर  अपनी  खीझ  को  भीड़  में  शामिल  लोगों  के  सामने  प्रकट  करता  है-चूहड़ा  है।  खुदकू  बामन  बतारा  है।  ‘जुम्मन ’ चूहड़े  का  बाराती  है। इब  तुम  लोग  ही  फ़ैसला  करो।  जो  यो  बामन  है  तो  चूहड़ों  की  बारात  में  क्या  मूत  पीणे  आया  है।  जात  छिपा  के  चाय  मांगरा  है  मैन्ने  तो  साफ  कह  दी।  बुद्धू  की  दुकान  पे  तो  मिलेगी  ना  चाय  चूहड़ोचमारों  कू, कहीं  और  ढूढ़  ले  जाके।[4] 

‘सलाम’  कहानी  असल  में  एक  परम्परा  ‘सलाम’  को  ध्यान  में  रखकर  लिखी  गई  कहानी  है।  इस  परंपरा  के  अनुसार  जब  भी  दलितों  की  शादी  होती  तब  दलित  अपने  परिवार  के  साथ  गाँव  में  जाता  और  प्रयेक  सवर्ण  के  घर  ‘सलाम’  करता  जिसके  बदले  में  उसे  कुछ  अनाज  ,  पुराने  कपडे  अथवा  कुछ  पैसे  इत्यादि  मिल  जाया  करते  थे।  ‘हरीश’  की  जब  शादी  होती  है  तब  वह  इस  परंपरा  आडम्बर  के  निर्वहन  से  पीछे  हटने  लगता  है  और  इसका  विरोध  करता  है।  जिससे  गाँव  वालों  को  लगता  है  कि  उनके  आत्मसम्मान  पर  आघात  हो  रहा  है  और  तो  और  एक  दलित  में  विरोध  का  स्वर  भी  झलक  रहा  है  तो  गाँव के सवर्ण  ‘बल्लू’का  ‘हरीश’  के  ससुर  को  परंपरा  का  विरोध  कर  अपने  सम्मान  के  विषय  में  सोचने  के  लिए  धमकाना  यह  साबित  करता  है  कि  दलित  समाज  का  चेतनाशील  होना  इन्हें  समाज  के  लिए  घातक  लगने  लगता  है–  तभी  तो  कहूँ–  जातकों(बच्चोंकू  स्कूल  ना  भेजा  करो।  स्कूल  जा  के  कोणसा  इन्हें  बालिस्टर  बणना  है।  ऊपर  से  इनके  दिमाग  चढ़  जांगे।  योन  घर  के  रहेंगे  न  घाट  के।  गाँव  की  नाक  तो  तूने  पहले  की  कटवादी  जो  लौंडिया  कू  दसवीं  पास  कर  वादी।क्या  जरूरत  थी  लड़की  कू  पढ़ाने  कीगाँव  की  हवा  बिगाड़  रहा  है  तू।इब  तेरा  जंवाई  सलाम’  पर  जाने  से  मना  कर  रहा  है…  उसे  समझादे  ‘सलाम’के  लिए  जल्दी  आवे[5] 

दलितों  के  परेशानी  का  कारण  उनका  गरीब  होना  और  अशिक्षित  होना  भी  है  इसको  आज  के  परिप्रेक्ष  में  जोड़कर  भी  देखा  जा  सकता  है  शोषक  वर्ग  कभी  भी  यह  नही  चाहता  कि  शोषित  वर्ग  शिक्षित  हो।  उनका  मानना  होता  है  कि  किसी  दलित  को  यदि  शिक्षा  दे  दिया  जाय  तो  उसे  गुलाम  बनाना  आसान  नही  होगा।  ऐसी  धोखाधड़ी  की  पड़ताल  करती  ‘ओमप्रकाश  वाल्मीकि’  की  एक  कहानी  ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’  है। कहानी  का  मुख्य  पात्र  ‘सुदीप’ के  पिता  की  तरह  समाज  में  ऐसे  कई  दलित  हैं  जिन्हें  जीवन  भर  ‘चौधरी’  जैसे  धोखेबाज  लोगों  ने  अच्छे  सहायक  का  मुखौटा  पहनकर  लूटा  है। ‘सुदीप’ को  समझ  नहीं  आता  कि  किताब  में  भी  और  स्कूल  में  मास्टर  भी  तो  ‘पच्चीस  चौका  डेढ़  सौ’ बताते  हैं  फिर  उसके  पिता  को  चौधरी  ‘सौ’  क्यों  बताता  है।  जिस  पर  उसके  पिता  को  इतना  अंधविश्वास  है  कि  वह  सभी  की  बातों  को  गलत  लेकिन  चौधरी  को  सर्वज्ञाता  मानता  है  ‘सुदीप’  के  पिता  कहते  है  कि  –तेरी  किताब  में  गलत  भी  हो  सके…  नहीं  तो  क्या  चौधरी  झूठ  बोल्लेंगे।  तेरी  किताब  से  कहीं  ठाड्डे(बड़ेहैं  चौधरी  जी।उनके  धोरे(पासतो  ये  मोट्टीमोट्टी  किताबें  हैं…  वह  जो  तेरा  हेडमास्टर  है  वो  भी  पाँव  छुए  हैं  चौधरी  जी  के।  फेरभला  वो  गलत  बतावेंगेमास्टर  से  कहणा  सहीपढ़ाया  करे[6] 

जिस  तरह  से  ‘सुदीप’  और  ‘हरीश’  जागरूक  है  और  सतर्क  तथा  अपने  अधिकारों  को  जानने  वाले  है  ठीक  उसी  प्रकार  दलित  समाज  के  अन्य  लोगों  को  भी  होना  पड़ेगा  तभी  दलित  तबका  आगे  आ  सकता  है  क्योंकि  जानकारी  के  आभाव  के  कारण  ही  सवर्ण  दलितों  को  आसानी  से  मुर्ख  बना  लेता  है  और  अपनी  षनयन्त्रो  का  शिकार  बना  लेता  है  और  उससे  बेगारी  मजदूरी  करवाता  है।  जागरूकता  न  होने  के  कारण  ही  दलितों  से  समाज  के  सबसे  घृणित  कार्य  करवाए  जाते  हैं  और  उनकी  आमदनी  भी  कम  होती    है  कहीं  –  कहीं  तो  दलितों  से  बिना  पैसे  के  भी  काम  करवाया  जाता  है।  ‘सलाम’  कहानी  संग्रह  में  संकलित  एक  और  ऐसी  ही  कहानी  है  ‘बैल  की  खाल’  इस  कहानी  में  ‘काले’  और ‘भूरे’ दोनों  अपने  गांवों  में  जानवरों  के  डॉक्टर  के आने  से  दुखी  है  क्योंकि  जानवर  मरेंगे  नहीं  तो  वह  खाएँगे  क्या।  उन्हें  कोई  दूसरा  काम  भी  नहीं देता  गाँवभर  की  नजर  में  ये  सबसे  निकक्मे  जीव  थेमरे  जानवर  की  खाल  खींचनेवाले।[7] 

‘काले’  और  ‘भूरे’  दोनों  दलितों  की  जरुरत  गाँव  वालों  को  वैसे  भी  तब  होती  थी  जब  गाँव  में  कोई  जानवर  मर  जाये  इसलिए  वो  दोनों  नही  चाहते  थे  कि  गाँव  में  डाक्टर  जल्दी  से  आ  जाये।  इतने  परिश्रम  के  बाद  भी  यदि  उपयुक्त  पारिश्रमिक  न  मिले  तो  आदमी  हताश  हो  जाता  है।  फिर  भी  हर  व्यक्ति  के  मन  में  कुछ  इच्छा  होती  है  जिसे  वो  पूरा  करने  की  कोशिश  करता  रहता  है  लेकिन  इतने  कम  पैसे  में  कोई  काम  कर  लेना  आसान  बात  नही  है  इसलिए  दलित  व्यक्ति  लगातार  मेहनत  करता  रहता  है।  ठीक  ऐसी  ही  परिस्थिति  ‘ओमप्रकाश  वाल्मीकि’  के  कहानी  संग्रह  ‘सलाम’  के  ‘खानाबदोश’  कहानी  में  देखने  को  मिलती  है  जहाँ  ‘ख़ानाबदोश’  कहानी की  एक  पात्र  ‘मानो’  और  दूसरी  पात्र  ‘सुकिया’  अपने  लिए  भी  पक्की  ईटों  का  मकान  बनाना  चाहते  हैं,    लेकिन  उनका  यह  ख्याल  धराशायी  कर  दिया  जाता  है।  सूबेदार  सिंह  दलित  स्त्री  ‘मानो’  को  अपने  जाल  में  तमाम  प्रलोभन  के  बाद  भी  ‘किसनी’  की  तरह  नहीं  फंसा  पाया  तो उसे  काम  से  निकाल  देने  की  साजिश रचता  गया  तो  वहीं  ‘गोहत्या’  कहानी में  ’सुक्का’  को मुखिया  के  आदेश  का  पालन  न  करने  की  सजा  ‘गोहत्या’  की  साजिश  में  फसांकर  दी  जाती  है। ‘सुक्का’  का  अपनी  बीवी  को  हवेली  लाने  से  मना  करना  मुखिया  के  वर्चस्व  को  आघात पहुंचाता  है  और  मुखिया  ‘सुक्का’  से  कहता  है  कि  –औकात  में  रह  ‘सुक्का’।  उड़ने  की कोशिश  ना  करबापदादों  से  चली आई  रीत  है। लेकिन  ‘सुक्का’  का  अप्रत्याक्षित  जवाब मुखिया  को  तिलमिला  देता  है  मुखियाजी  काम  करता  हूँ  तो  दो  मुट्ठी  चावल  देते  हो….  वह हवेली  नहीं  आएगी।[8] 

इसकी  सजा  तो  ‘सुक्का’  को  अवस्य  मिलती  है  किन्तु  विरोध  की  एक  ज्वाला  तो  कहीं  न  कहीं  दलितों  में  आ  ही  जाती  है।  यह  जरुरी  भी  है  क्योंकि  सवर्ण  दलितों  पर  अत्याचार  करना  अपना  अधिकार  समझता  है  ,  उसे  लगता  है  कि  दलितों  को  मानसिक  और  शारीरिक  रूप  से  प्रताड़ित  करके  उन्हें  अपना  गुलाम  बनाया  जा  सकता  है  जिसके  कारण  दलित  समाज  हमेशा  से  इस  प्रकार  का  दंश  झेलता  आया  है।  इस  प्रकार  के  मानसिक  प्रतारणा  के  कारण  ही  एक  दलित  छात्र  ‘रोहित  बेमुला’  को  आत्महत्या  करना  पड़ा।  दलित  बच्चों को परेशान करना उनकी कई  बार  की  गई  शिकायतों  के  बावजूद  कोई  कार्यवाही  नहीं  करना  उन्हें  ही  चुप  रहने,   सहने  की  सलाह  देना,   मेहनती  होने  के  बावजूद  उन्हें  परीक्षाओं  में  कम  नंबर  देना,  इस  तरह  के उपेक्षापूर्ण  कार्य    से  उन्हें  कितनी  तकलीफ  होती  है  इसका  अंश  मात्र  भी  अंदाजा  नहीं  होता  इन  सवर्णों  को  ‘ओमप्रकाश  वाल्मीकि’  की  कहानियों  में  तो  ऐसे  कृत्यों  की  भरमार  है।  इसी  तरह आरक्षण  की  वजह  से  काबिलयत  पर  शक  करने,  आपसी  मनमुटाव,  द्वेष की स्थिति  ‘सलाम’  कहानी  संग्रह  के  एक  कहानी    ‘कुचक्र’  में  भी  दिखाई  देती  है।  अकसर उनकी सफलता  की तुलना  आरक्षण  के  साथ की  जाती  है।  काम  के  प्रति  कर्तव्यनिष्ठ,  ईमानदार,  जानकार  होने  के बावजूद  उन्हें  हेय  समझा जाता है।  दलित युवक ‘आर.  बी. ’ का  प्रमोशन  गैर  दलितों  को  उचित नहीं  लगता  है।  उनकी  बौखलाहट  उसके  प्रति  ‘कुचक्र’  की  तरफ  बढ़ने  लगती  है।  उसके लिए अपशब्दों  का  इस्तेमाल  करना  उसकी  बाकी अधिकारियों  से  बढ़ा-चढ़ा  कर  झूठी  शिकायत  करना,  चोरी  के  इल्जाम  में  फंसाना।  इस  तरह  के  कई  स्तरहीन  योजनाओं  द्वारा  अपने  मन  को तसल्ली  दी  जाती  है–  रीढ़वीढ़  कुछ  नहीं  शर्माजीमरमर कर  काम  करें  हम  और  प्रमोशन मिले  इन भंगी–  चमारों  कोबसजी  अब  तो  सेंटर  में  बदलाव आना  ही  चाहिए…नही   तो  ये  लोग  देश  को  तबाह  कर  देंगे[9] 

शर्माजी  के  उकसाने  पर  ‘निशिकांत’  का  यह  मनोभाव  दलितों  के  प्रति  समाज  में  प्रचलित धारणाओं  को उजागर  करता  है।   ऐसा  यथार्थ  आज  के  समय  में  धड़ल्ले  से  चलता  आ  रहा  है  आज  भी  स्थितियां  इस  कदर  हैं  कि  एक  व्यक्ति  का  शोध  छात्र  के  रूप  में  इसलिए  नामांकन  होता  है  क्योंकि  वह  प्रोफ़ेसर  साहब  के  साथ  काम  करता  है  और  उसी  शोध  छात्र  के  मित्र  एक  दलित  छात्र  के  साथ  किसी  सभ्य  छात्रा  के  खाना  खाने  पर  ऐतराज  करते  हैं  उनका  मानना  है  कि  एक  दलित  छात्र  के  साथ  नहीं  रहना  चाहिए  क्योंकि  उसमे  योग्यता  की  कमी  नहीं  है  बल्कि  इसलिए  कि  वह  दलित  है।  एक  वाकया  और  याद  आ  रहा  है  कि  एक  बार  ‘महात्मा  गाँधी  काशी  विद्यापीठ  विश्वविद्यालय’  के  ‘हिंदी’  विभाग  की  ओर  से  एक  व्याख्यान  चल  रहा  था  जिसमें  प्रसिध्द  लेखिका  ‘सुशीला  टाकभौरे’  जी  अपना   वक्तव्य  दे  रहीं  थीं  तभी  एक  सवर्ण  व्यक्ति  ने  उनसे  पूछा  की  दलित  साहित्य  की  आवश्यकता  क्यों  है?  शायद  उसके  मन  में  था  की  ‘दलित’  भी  कोई  बात  करने  की  विषयवस्तु   है  वो  तो  केवल  सवर्णों  की   सेवा  के  लिए  है  खैर.....। साहित्य  का  काम  समाज  के  हर  उस  रूप  को  सामने  लाना  है  जो  समाज  में  विद्यमान  है  जिससे  समाज  में  फ़ैली  विसंगतियों  को  समझा  जा  सके  जिससे  निराकरण  के  उपायों  को  विस्तार  मिल  सके। इसी  संदर्भ  में  ‘डॉ.  जयप्रकाश  कर्दम’  का  मानना  है  कि  यथार्थ  पर  आधारित  होने  के  कारण दलित  साहित्य  वाह’  का  नहीं आह’  का  साहित्य  है।  इसमें  दलित  जीवन  का  दंशदर्द  और आह  सर्वोपरी  है  क्योंकि  यह  समाज  का  सबसे  बड़ा  कटु  और  भयावह   यथार्थ   है। उत्पीड़न और  संवेदना  के  जितने  भी  पक्ष  हो  सकते  हैं  हिन्दी  की   दलित  कहानियों  में  लगभग  उन  सभी को  प्रतिपाद्य  बनाया  गया  है।[10] 

निष्कर्ष : दलित  जीवन  से  जुडी  और  भी  कई  बाते  है  जो  ‘ओमप्रकाश  वाल्मीकि’  के  साहित्य  से  हमारे  समक्ष  प्रस्तुत  होती  है,  उनका  भोगा  हुआ  यथार्थ  आज  के  समय  में  हमारे  समाज  को  आइना  दिखता  है  और  दलितों  को  चुपचाप  सहने  के  ख़िलाफ़  एक  प्रतिरोध  करने  के  लिए  उद्वेलित  करता  है।इनकी कहानियां समाज के यथास्थिवादी ढांचे को उजागर भी करती हैं,और परिवर्तन एवं मुक्ति कि नई राह भी तलाश करती हैं।

संदर्भ 

[1]  ओमप्रकाश  वाल्मीकि,  ‘मुख्यधारा  और  दलित  साहित्य’, नई  दिल्ली:सामयिक  प्रकाशन, पृ.  सं.  68

[2] ओमप्रकाश  वाल्मीकि,  सलाम  कहानी  संग्रह,  ‘कहाँ जाए सतीश’, नई  दिल्ली:  राधाकृष्ण प्रकाशन.  पृ.  सं.  55

[3]  ओमप्रकाश  वाल्मीकि,  ‘घुसपैठिये’,  नई  दिल्ली:  राधाकृष्ण  प्रकाशन.  पृ.सं.  15

[4]  ओमप्रकाश  वाल्मीकि,  ‘सलाम’,  नई  दिल्ली:  राधाकृष्ण  प्रकाशन.  पृ.सं.  13

[5]  वही,  पृ.सं.18

[6]  वहीं,  ‘पच्चीस  चौका  डेढ़  सौ’,  पृ.  सं.  80

[7]  वही,  ‘बैल  की  खाल’, पृ.  सं.  35

[8]  वही,  ‘गोहत्या’,पृ.  सं.  59

[9]  वही, ’कुचक्र’, पृ.  सं.  105

[10]  डॉ.  जयप्रकाश  कर्दम,  ‘दलित  विमर्श:साहित्य  के आईने  में’, गाजियाबाद:  साहित्य संस्थान.  पृ.  सं.  111

राहुल
शोध  छात्र, हिन्दी विभाग, महात्मा गांधी काशी  विद्यापीठ, वाराणसी
डॉ. विजय कुमार रंजन

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, महात्मा  गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी
vijayranjan@mgkvp.ac.in


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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