शोध सार : भारतीय दर्शन में तीन मत अत्यधिक प्रभावशाली रहे हैं। यथा – शैव, वैष्णव और शाक्त। जिनमें शाक्त दर्शन आदि तत्त्व के रूप में हमारे सामने विराजमान है। इस दर्शन को अपने निबंध के माध्यम से आमजन तक पहुँचाने का कार्य हिन्दी के निबंधकारों ने किया है। अपने सरल अंदाज में निबंधकारों ने सूक्ष्म व्याख्याओं के माध्यम से इसे समझाने का प्रयास किया है। हिन्दी निबंध साहित्य में विभिन्न दर्शन-तत्वों की विवेचना दृष्टिगत होती है जो कि हिन्दी निबंध साहित्य की समृद्धि का तो सूचक है ही साथ ही यह भारतीय दर्शन पर सटीक विवेचना बनकर हिन्दी साहित्य की समृद्धि में भी श्री वृद्धि कर रही है। हिन्दी निबंध साहित्य में शाक्त मत के अनेक संदर्भ व्याख्यायित-विवेचित हुए हैं जिसकी पड़ताल इस आलेख में की गई है। इस आलेख में यह यह बताने का प्रयास भी किया गया है कि किन रूपों में शाक्त-मत, शैव और वैष्णव मतों से भिन्न है।
बीज-शब्द : भारतीय दर्शन, त्रिगुणात्मक सत्ता, शक्ति-तत्त्व, निगम-आगम, तंत्र, शैव, शाक्त-परंपरा, निबंध, बीज-स्वरूपा, संस्कृति।
मूल आलेख : भारतीय धर्म व दर्शन का क्षेत्र अपने विविधरूपा व व्यापक चिंतन स्वरूप लेकर विश्व दर्शन-विज्ञान में अपनी विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध है। इस विविधरूपा भारतीय दर्शन की तत्त्व-मीमांसा आपस में इस भाँति परस्पर समाहित व समन्वित है कि इस दर्शन की विभिन्न शाखाओं में सहज भेद किया ही नहीं जा सकता। सृष्टि के निर्माण से लेकर उसके विकास तक की अवधारणाओं का विशद वर्णन भारतीय ज्ञान-प्रणाली में विद्यमान है। जिसे ग्रंथकारों, मत-प्रवर्तकों, संप्रदायों, ने अपनी-अपनी दृष्टि से व्याख्यायित, वर्णित किया है। भारतीय तत्त्व-चिंतना में त्रिगुणात्मक सत्ता का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु व महेश को क्रमशः ज्ञान के क्षेत्र में सत, रज व तम के नाम से उद्भासित किया गया है, इन्हें ही क्रमशः ज्ञान, इच्छा व क्रिया नाम से अभिहित कर उक्त त्रिगुणात्मक मर्म का मुख्य नियंता ‘शक्ति-तत्त्व’ को माना गया। शास्त्रोक्त ग्रंथों (वेदोपनिषद आदि) को ‘निगम व आगम’ नामक दो भागों में विभाजित किया गया। वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों को तो निगम कहा गया वही इन ग्रंथों की व्याख्या करने वाले व अनुगमन-विधि दर्शाने वाले ग्रंथों को ‘आगम ग्रंथ’ कहा जाता है। तीन प्रकार के आगम प्रसिद्ध है। जिनमें वैष्णव आगमों की संख्या दो है – एक पाँचरात्र और दूसरा वैखानस संहिताएं। शैव आगमों के माहेश्वर, लाकुल, भैरव, कश्मीर आदि कई संप्रदाय है। शाक्तों के भी 9 आम्नाय और 4 संप्रदाय है – केरल, कश्मीर, गौड़ और विलास। शाक्त आगमों का प्रचार समूचे भारत में है। इन सभी आगमों में थोड़ी-बहुत समानताएं तो हैं ही साथ ही अंतर भी है। तीनों ही आगम तंत्र अपने उपास्य को परमतत्त्व स्वीकार करते हैं। साथ ही ईश्वर की इच्छा शक्ति के साथ क्रिया-शक्ति में विश्वास करते है। अपने निबंध में आर्थर एवेलन का संदर्भ देते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि – “मंत्र, यंत्र, न्यास, दीक्षा, गुरु आदि तत्त्व जिसमें हों, वही तंत्रशास्त्र है और इस दृष्टि से सभी आगम तंत्रशास्त्र हैं या तांत्रिक प्रभावापन्न है। भेद अनेक पारिभाषिक शब्द भी अनेक है, पर मूल स्वर सबका एक है। उन्होंने लिखा है कि इनका मूल स्वर इतना मिलता-जुलता (एक) है कि पारिभाषिक शब्दों के भिन्न-भिन्न होने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। पाँचरात्रों की भाषा में लक्ष्मी, शक्ति, व्यूह और संकोच कहें या शाकतों की भाषा में त्रिपुरसुंदरी, महाकाली, तत्त्व और कंचुक कहें, इनमें कुछ विशेष भेद नहीं रह जाता।”[1]
भारतीय दर्शन में तीन मत अत्यंत प्रभावशाली रहे हैं यथा – शैव, वैष्णव और शाक्त। भारतीय साहित्य के आदि-मत के रूप में शाक्त-दर्शन प्रसिद्ध है। इसका पूर्व रूप भी यह स्वयं ही है। यह स्त्रोतों की मूलबिंदु है। यह बीज-स्वरुपा है। हिन्दी निबंध साहित्य में विभिन्न दर्शन-तत्वों की विवेचना दृष्टिगत होती है जो कि हिन्दी निबंध साहित्य की समृद्धि का तो सूचक है ही साथ ही यह भारतीय दर्शन पर सटीक विवेचना बनकर हिन्दी साहित्य की समृद्धि में श्री वृद्धि कर रही है। हिन्दी निबंध साहित्य में ऊपर लिखित शाक्त मत के अनेक संदर्भ व्याख्यायित-विवेचित हुए हैं जिसकी पड़ताल इस आलेख में की गई है।
शाक्त दर्शन को त्रिगुणात्मक पद्धति का कारक बतलाकर शक्ति को ‘त्रिपुरसुंदरी’ भी कहा गया। इस संदर्भ में हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि -“ज्ञान, इच्छा और क्रिया से त्रिपुटीकृत जगत्प्रपंच को रूपायित करने करने के कारण ही शिव की आद्या-शक्ति ‘त्रिपुरा’ कही जाती है।”[2] यहाँ से उक्त बात भी स्पष्ट हो जाती है कि शाक्त दर्शन को त्रिगुणात्मक पद्धति का भी नियामक माना गया है। शाक्त-दर्शन अपने आपको वैदिककाल के समकक्ष ही प्राचीन बताता है, वस्तुतः इसके बीज स्वरूप प्राक आर्य सभ्यता में भी दिखाई देते हैं। उदाहरणार्थ – सिंधु घाटी सभ्यता के उत्खनन में प्राप्त मातृ-मूर्तियों से इस बात का सहज प्रमाण मिल जाता है। दिनकर शाक्त मत की सत्ता को सृष्टि निर्माण की व्याख्या के साथ जोड़ कर बतलाते हैं कि – “तंत्रवाद के अनुसार सृष्टि का उद्भव और विकास शिव और शक्ति के संयोग से होता है। किन्तु, शिव शव और शक्ति प्रेरणा है। शक्ति के प्रेरित होने पर ही शिव में गति उत्पन्न होती है।”[3]
शिव को शव मानने का अर्थ पुरुष सत्ता को स्त्री सत्ता पर आश्रित मानने का बोध भी दृष्टिगत होता है। जो कि भारतीय शाक्त दर्शन का स्त्री-सत्ता के संबंध में एक सबल पक्ष है। दिनकर इसी बात को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि – “संसार के रोमांटिक चिंतकों ने जो यह कल्पना की कि नारी प्रेरणा का उद्गम है और पुरुष उसी से प्रेरित होकर बड़े-बड़े कार्य करता है, मूल में, वह कल्पना शाक्त दर्शन से पूरा मेल खाती है।”[4]
शैव और शाक्त अपनी निर्माण प्रक्रिया में एक दूसरे पर आश्रित रहे हैं, परंतु इनके मौलिक स्वरूप में एक अंतर भी रेखांकित होता है। उस अंतर को व्याख्यायित करते हुए दिनकर ने कहा है कि – “योग की साधना शैव धर्म के साथ ही विकसित हुई थी और उसके साथ वह आज भी वर्तमान है। तथा शैवों में उसका लक्ष्य आज भी मुक्ति ही मानी जाती है। किन्तु शाक्त धर्म ने योग को सिद्धियों के प्रमुख साधन के रूप में अपना लिया।”[5]
इस कथन से शाक्त दर्शन की इहलौकिक सत्ता के प्रति सकारात्मक दृष्टि के भी दर्शन होते हैं, जो सिद्धि प्राप्ति जैसे लौकिक उद्देश्य को साधने के उदाहरण के रूप में हमारे सामने है। शाक्त दर्शन की ऐसी ही अन्य विशेषताओं में यह भी शामिल है कि ‘माया’ के स्वरूप को अन्य दर्शनों की भाँति वह खारिज नहीं करके माया के स्वरूप को स्वीकार करने वाला दर्शन है। उदाहरणार्थ – शंकर के अद्वैत दर्शन में माया के विधान को स्वीकार नहीं किया गया। माया अर्थात – यही भौतिक संसार ! परंतु शाक्त-दर्शन में माया के स्वरूप को स्वीकार कर सृष्टि का ही एक गुण माना है। इस तरह से शाक्त दर्शन जीवन-जगत की वास्तविक ( भौतिक ) सत्ता से पलायन का मार्ग न होकर मोक्ष व भौतिक जीवन दोनों अवधारणाओं को स्वीकार करने वाला दर्शन सिद्ध हुआ है। शाक्त दर्शन में मातृ सत्ता के आदि स्वरूप के प्रभाव के फलस्वरूप समाज में स्त्री-सत्ता के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का भी विकास हुआ है, दिनकर इस प्रभाव को वर्णित करते हुए कहते हैं कि –“शाक्त-दर्शन में आदि-तत्त्व को मातृ रूप मानने की सामाजिक व्याप्तियाँ ये हुईं कि इस दर्शन के अनुसार नारी मात्र पूजनीय समझी जाने लगी। विशेषतः माताओं और अविवाहित बालिकाओं का शाक्त-धर्म में अत्यन्त ऊँचा और पवित्र स्थान है। शाक्त-तन्त्र में औरतों पर हाथ उठाने की मनाही है और सती प्रथा को यह तन्त्र निन्दित समझता है। बलि-कर्म में भी मादा पशुओं के बलिदान को यह मार्ग कुत्सित बताता है। महानिर्वाण-तन्त्र का कहना है कि जो पति अपनी पत्नी को कुवाक्य कहता है, उसे प्रायश्चितस्वरूप एक दिन का उपवास करना चाहिए। यह भी कि विवाह के पूर्व बालिकाओं को भी भली-भाँति पढ़ा-लिखाकर उन्हें सुयोग्य बना देना चाहिए।”[6] उक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि शाक्त दर्शन के भीतर स्त्री-सत्ता की महत्ता स्थापित करने का भी पर्याप्त अवकाश था जो कि आधुनिक दृष्टि का भी परिचायक है।
आगमों की तंत्र प्रधान चेतना में शाक्त पद्धति की दार्शनिकता का प्रभाव कालांतर में भारतीय दर्शन की समस्त वाममार्गी चिंतना पर पड़ा। आगमों में वर्णित तंत्र शब्द का अर्थ पाखंड या कर्मकांड से सम्बद्ध न होकर दैनिक चर्या को नियंत्रित करने, योग पद्धति से शरीर में निहित सूक्ष्म शक्तियों के जागरण आदि के अर्थ में लिया जाता रहा है। जिसका अनुसरण बौद्धों के वज्रयान और महायान में भी योग साधना व पंचमकार साधना के रूप में दृष्टिगत होता है। यह आकस्मिक नहीं है कि भारतीय दर्शन के सभी वाममार्गी संप्रदायों में तंत्र-साधना का प्रभाव लक्षित होता है। उक्त तंत्र-साधना के बीज स्वरूप इन्हीं शाक्त-मत के आगमों के माध्यम से परवर्ती इन सभी संप्रदायों में भी वर्णीत हुए हैं जिसमें बौद्ध से लेकर शैव, सिद्ध, नाथ, आदि पर भी इनका प्रभाव पड़ा है। शाक्त मत के इस प्रभाव को शब्दों के अध्ययन से स्पष्टतः समझा जा सकता है। सिद्धों, नाथों, हठयोगियों में इस उपासना का अंतिम उद्देश्य ‘कुंडलिनी जागरण’ माना जाता है। उक्त कुंडलिनी जागरण से लेकर ‘महासुह
वाद’ की अवधारनाएं तथा इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना नामक प्राण-संयम के आयाम भी शाक्त मत के प्रभाव का सबल उदाहरण है। दिनकर इस परंपरा में चले आ रहे शाक्त मत की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि –“हिन्दू-धर्म में तंत्र अथवा आगम पाँच माने जाते हैं; गाणपत्य, सौर, वैष्णव, शैव और शाक्त। गणेश और सूर्य की पूजा के गौण हो जाने के कारण अब गाणपत्य और आगमों का अपेक्षाकृत कम प्रचार है। बड़े संप्रदाय अब वैष्णव और शैव ही रह गए हैं। किन्तु, शाक्त समप्रदाय का भी अभी, विशेषतः, बंगाल में अच्छा जोर है और तांत्रिक पूजा-पद्धति का अतिविकास भी शाक्त-सम्प्रदाय में ही दिखाई देता है। बल्कि, तंत्र को शाक्त धर्म ने इस जोर से अपना लिया कि अब तंत्र मार्ग कहने से ध्यान सीधे शाक्त-धर्म पर चला जाता है।”[7] उक्त कथन से यह सहज ही ज्ञात होता है कि शाक्त-मत व उसकी परंपरा भारत में अन्य संप्रदायों की तुलना में समृद्ध भी है और साथ ही अन्य संप्रदायों की रीति-नीति को भी मार्गदर्शन करने वाली परंपरा है।
शाक्त मत( दर्शन ) की व्यापकता को हिन्दी निबंधकारों ने शब्द, कला, तत्त्व व पदार्थों की कारिका बतलाया है। निबंधकार हजारीप्रसाद द्विवेदी शाक्त मत की इस अणु-अणु में व्याप्त एक ऊर्जा को शाक्त दर्शन की अवधारणा से जोड़ते हैं कि इन सभी सूक्ष्मतर अवस्थाओं की जननी एक वही आद्य-शक्ति है। द्विवेदी लिखते हैं कि –“इन शून्योपम काल-खंडों के भीतर से परिणत होते हुए शून्योपम बिंदुखण्डों के विपुल संघात में जो अपार शोभा है, वह क्या धोखा-मात्र है ? हरे-हरे तृण शाद्वलों से शोभित धरित्री, विशाल वनस्पतियों से भरापूरा वनप्रदेश, कल-कल निनाद से मुखरित स्त्रोतस्विनी में प्रतीयमान सौन्दर्य क्या छलनामात्र है ? इस त्रैलोक्य-सौभग रूप की सूत्रधारिणी धन्य है।”[8]
यह सूत्रधारिणी उपमा उसी आद्य-शक्ति के लिए वर्णित है जो इस भौतिक जगत् की अनेक गतियों की नियंता है। शब्द से लेकर अणु की सर्जना तक में उस आद्य-शक्ति की उपस्थिति को द्विवेदी आधुनिक अणु-विज्ञान से सम्बद्ध करते हुए विज्ञान के अणु-दर्शन को व शाक्त अवधारणा को समानरूपा घोषित करते हुए कहते हैं कि –“ शक्ति का संविद्रूपा होना इन आगमों की विशेष देन है। आश्चर्यजनक ढंग से उनका प्रतिपादन आधुनिक विज्ञान से मिलना है। विज्ञान केवल शक्ति की संविद्रूपता स्वीकार करने में हिचकता है। कब तक ?”[9]
जिस प्रकार हजारीप्रसाद द्विवेदी व रामधारी सिंह दिनकर ने शाक्त दर्शन परम्परा को अपने निबन्धों में दार्शनिक ग्रंथों, आगम पद्धति, तंत्र साधना आदि से संपृक्त कर व्याख्यायित किया ठीक इससे भिन्न पद्धति पर कुबेरनाथ राय ने अपने निबन्धों में शाक्त मत या देवी मत को संस्कृतियों के उद्भवकाल के समय की शाक्त उपस्थिति को व्याख्यायित कर अनार्य उपासना पद्धति का अंग बताया है, इन अनार्यों की उपासना पद्धति में निषादों, कौल, किरातों आदि आदिम समुदायों में प्रचलित शाक्त उपासना के तत्वों को शाक्त उपासना का प्रारम्भिक बिंदु माना है। इस तरह उन्होंने शाक्त परंपरा को शास्त्रों से बाहर निकालकर लोकायत (लोक) धर्म से सम्बद्ध किया है। जो कि भारतीय शाक्त परम्परा की विशद लौकिक परम्परा को दर्शाता है। वे शाक्त परंपरा की आदिम खोज की पड़ताल करते हुए कहते हैं कि – “भारतवर्ष की आदिम देवता देवी (और भारत ही नहीं, सर्वत्र की आदिम देवता देवी ही है, क्योंकि सभ्यता का आदि रूप सर्वत्र मातृसत्ता प्रधान रहा है) हरप्पा-मोहणजोदड़ो से बहुत-बहुत पूर्व हमारी आदिम लोकायत संस्कृति में प्रवेश करती है। जहां से हमारे ‘समूह मन’ (लोकचित्त) का प्रारंभ होता है।”[10]
कुबेरनाथ राय शाक्त मत की इस प्राक् -ऐतिहासिक परंपरा को गंगा किनारे की निषाद संस्कृति से सम्बद्ध कर शाक्त परंपरा का लौकिक स्वरूप रेखांकित करते हुए कहते हैं कि – “जो हो पर इतना तो अवश्य है कि निषादरण्य के विंध्याचल की योगमाया और किरातरण्य के कामख्याथान की महामाया भारतवर्ष की आदिमतम देवताओं में से और इनका मूल साहित्य और दर्शन में नहीं, लोकायत परंपरा में है, लोकधर्म और लोक-संस्कृति में है।”[11]
शाक्त अवधारणा में शक्ति के दो रूपों की विशेष रूप से मान्यता है। जिसमें एक शक्ति का स्वरूप वह है जो मंगलकारी होने के साथ-साथ स्वरूप में दिव्यता व सौम्यता लिए हुए है। वही शक्ति का दूसरा रूप अमंगलकारी व कोप करने वाला है। इस दूसरे स्वरूप की उपासना भी लोक निःसृत है। कुबेरनाथ राय शक्ति के इस स्वरूप को आदिम शाक्त-उपासना में इस तरह उल्लेखित करते हुए कहते हैं कि – “मृगयाजीवी निषाद शीलचारिकी के निर्मम रक्तचक्षु-परिवेश में देवी के तमोगुणी रूप की कल्पना, कालिका-कंकारिनी कालकर्णी रूप की कल्पना, देवी के चंड-प्रचंड-महाचण्ड रूप की चंडी कल्पना आदिम निषादों के मन में आई थी। और उन्होंने देवी को भयपूर्वक शीतला (चेचक), महामारी (हैजा), गौराबा या माता (छोटी चेचक)आदि रूपों में ही देखा था।”[12]
लोक में शक्ति को भगवती नाम से संबोधित किया जाता है। भारत के हरेक गाँव में भगवती का मंदिर स्थापित है। लोग तरह तरह की उम्मीद लिए भगवती के चरणों में जाते हैं। पत्थर की शिलाओं में विराजित भगवती की नित्य पूजा-आरती ग्रामीण जन करते हैं। कुछ इसी ढंग के प्रसंग का वर्णन कुबेरनाथ राय अपने निबंधों में करते हैं। वे लिखते हैं कि – “देवी, परमेश्वरी, परम देवता, यह दर्शन ही दिव्य है, यही परमसुख है, यही महासुख है, यही परमरूपांतर है। मेरा यह मन भी कठिन खुरदुरी शीला है।”[13]
मनुष्य जब सारे प्रयास करके हार जाता है तो वह ईश्वर की शरण में जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में भगवती अपने जनों को इसी ऊहापोह भाव से उबारती है। भगवती का ही एक और रूप लोक-सरस्वती भी है। कुबेरनाथ राय इनके संदर्भ में लिखते हैं कि – “यह उपनिषदों और पुराणों में वर्णित पराविद्या यानि शुद्धज्ञान की देवी सरस्वती नहीं। यह संभवतः हमारे काशिका-क्षेत्र की लोक सरस्वती की प्रतिमा है। यह हमारे अर्द्धमागधी क्षेत्र अर्थात भोजपुरी क्षेत्र की सुजला-सुफला-शस्यश्यामला महीमाता की प्रतीक है... यह हमारे कंठ से निकलने वाले मुक्त अट्टहास और मुक्त गान की प्रतीक है।”[14] गाँव में स्थापित लोक देवियाँ किसी शास्त्र की नहीं, बल्कि निश्छल ग्रामीण जनों के दुख-दर्द को दूर करने वाली देवी रहती है। जिससे आम जन अपना सहज संबंध स्थापित कर पाता है। यह देवी लोक संस्कृति का हिस्सा है। कुबेरनाथ राय लिखते हैं कि – “यह लोक-सरस्वती बिन्दु है जिसका नाद और सुर विस्तार है लोक-संस्कृति।”[15] इन लोकदेवियों से शास्त्ररूपी शाक्त दर्शन उतना प्रभावित तो नहीं होता लेकिन लोक-संस्कृति इससे समृद्ध होती है।
निष्कर्ष : हिन्दी निबंधकारों के निबंधों में वर्णित उक्त शाक्त संदर्भों के आधार पर हम सहज ही कह सकते हैं कि हिन्दी निबंधकारों की दृष्टि भारतीय दर्शन पर न केवल व्याख्यात्मक स्वरूप में है बल्कि वे भारतीय दर्शन के भिन्न-भिन्न तत्वों को सम्बद्ध करके दर्शाने के भी पैरोकार हैं। शाक्त मत भारतीय दर्शन का वह हिस्सा है जो आधी आबादी या कहें कि स्त्री सत्ता का प्रतिनिधि स्वर है। जिसकी गूंज समाज की प्रथम बस्ती के बसाव के काल से लेकर वर्तमान समय तक सुनाई देती है। हिन्दी निबंधकारों ने अपनी सकारात्मक दृष्टि से भारतीय दर्शन के इस सात्विक मार्ग की सूक्ष्म पड़ताल अपने निबंधों में की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी व रामधारी सिंह दिनकर के संदर्भों से यह उजागर हो जाता है कि शाक्त मत न केवल वर्तमान में भारतीय समाज की आस्था का मूल स्वर है अपितु शैव, बौद्ध, नाथ आदि संप्रदायों की प्रेरक तत्त्व भी है। इन दोनों निबंधकारों के निबंधों में शाक्त मत की आदिम उत्पत्ति के शास्त्रजनित संदर्भ तथा जीवन जगत के नाना तत्वों का नियंता, शाक्त तत्त्व को मानने के संदर्भ शास्त्रों का आधार लेकर वर्णित है। इस शोधालेख के माध्यम से यह भी सामने आता है कि कुबेरनाथ राय दिनकर व द्विवेदी से ठीक भिन्न शाक्त-मत की विवेचना प्राक् ऐतिहासिक शक्ति पूजा से जोड़कर शाक्त-मत को आगमादि शास्त्रों से अलग लौकिक समाज में उसकी उपस्थिति को वर्णित करते हैं। कुबेरनाथ राय शाक्त मत को लोकायत धर्म से सम्बद्ध कर सिंधु घाटी सभ्यता से भी पूर्व निषादों, कौल, किरातों आदि आदिम भारतीय समुदायों के जीवन से जोड़ते हैं। हिन्दी निबंधकारों की उक्त दोनों ही दृष्टियाँ शाक्त-दर्शन की उत्पत्ति, विकास, शास्त्रोक्त प्रभाव आदि तथ्यों को उजागर करती है, साथ ही दर्शन की इस शाखा के माध्यम से भौतिक संसार की तत्त्व मीमांसा भी प्रस्तुत करते हैं। शब्द, नाद, कला, योग, तंत्र, अणु-चेतना जैसे तत्वों की विधाता शक्ति तत्त्व को मानना भारतीय दर्शन की स्त्री सत्ता के प्रति सकारात्मक दृष्टि का भी बोध कराता है।
[1]. संपादक - मुकुंद द्विवेदी, हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, राजकमल प्रकाशन, चौथा संस्करण- 2013, पृष्ठ संख्या- 264
[7]. वही, पृष्ठ संख्या – 173
[8]. सं- मुकुंद द्विवेदी , हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली/ खंड – 9 (आलोक पर्व), राजकमल प्रकाशन, चौथा संस्करण- 2013, पृष्ठ संख्या – 281
[14]. वही, पृष्ठ संख्या -152
[15]. वही
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)