शोध आलेख : श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित मानवता का दिग्दर्शन : एक यौगिक दृष्टि / डॉ. अखिलेश कुमार विश्वकर्मा

श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित मानवता का दिग्दर्शन : एक यौगिक दृष्टि
- डॉ. अखिलेश कुमार विश्वकर्मा

शोध सार :

'महाजनो येन गतः पंथाः।
महाभारत वनपर्व- 3/13/315

श्रीमद्भगवद्गीता समूची मानव जाति के लिए अमूल्य ग्रंथ है। ग्रंथ की उपयोगिता सार्वकालिक एवं सार्वजनीय है। श्रीमद्भगवद्गीता की उपयोगिता, महत्ता अथवा उत्कृष्टता इसके व्यवहारिक ज्ञान के कारण है।गीतोक्त ज्ञान प्रत्येक युग के प्रत्येक मनुष्य के लिए समान रूप से उपयोगी है, क्योंकि अनादि काल से मनुष्य अपनी पाश्विक प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर दैवीय प्रवृत्तियों को धारण करना चाहता है। इसी के निमित्त श्रीमद्भगवद्गीता मनुष्य (आसुरी गुणों से युक्त) को मनुष्य (दैवीय गुणों से युक्त) बनाती है। दैवीय अथवा मावनीय गुणों से युक्त प्रवृत्तियों के संवर्द्धनार्थ श्रीमद्भगवद्गीता में अमूल्य सिद्धान्तों का वर्णन है। काम, क्रोधादि विकारों से आबद्ध मनुष्य स्वयं एवं अन्य प्राणियों सहित वसुधा के कल्याण को विस्मृत कर देता है। परिणामस्वरूप स्वार्थवृत्ति की सिद्धि में मनुष्य स्वयं सहित अन्य प्राणियों के अपार कष्ट, पीड़ा एवं दुःखादि का कारण बनता है, जो व्यक्तिगत, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आदि जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करता है। जिससे मानवीय मूल्यों एवं सिद्धान्तों का पतन होता है इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ग्रंथों को व्यवहारिक जीवन में आत्मसात् करने की नितान्त आवश्यकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ज्ञान, कर्म, श्रद्धा, समर्पण, समतादि की मूल अवधारणाएं मानवता के मूल सिद्धान्तों के रूप में वर्णित हैं जिनके ज्ञान एवं व्यवहार से लोक कल्याण की भावनाएँ पुष्ट होती है, क्योंकि मानवता का प्रमुख आधार लोक कल्याण ही है। अतः श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित मानवीय मूल्यों एवं सिद्धान्तों की यह व्यवहारिकता, प्रमाणिकता एवं वैज्ञानिकता युग-युगों तक अक्षुण्य रहेगी। प्रत्युतः यह शोध पत्र श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित मानवता के निहितार्थ एवं गूढार्थ को निरूपित करता है।

बीज शब्द : मानवता, ज्ञान, कर्म, श्रद्धा, समर्पण, समता, अन्तःकरण, इन्द्रिय संयमन, प्रज्ञा जागरण, पाश्विक एवं दैवीय प्रवृत्तियाँ।

मूल आलेख :

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः
असंशयं समग्र मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।। श्रीमद्भगवद्गीता - 7 / 1.

मनुष्य ईश्वर द्वारा रचित सृष्टि की अनुपम कृति है तत्त्वदर्शियों द्वारा वेद, शास्त्र, पुराण एवं अन्यान्य ग्रंथों का प्रणयन इसी अनुपम कृति की अनुभूति हेतु किया गया था। स्वानुभूति ही परानुभूति का मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिए प्रथमतः स्व का बोध प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। स्व को जानने का मार्ग निवृत्ति का मार्ग, श्रेय का मार्ग अथवा विद्या का मार्ग कहलाता है। इस मार्ग पर आरूढ़ होकर मनुष्य स्व से पराङ्मुख बनता है। दूसरों के हित में रत मानव ही महामानव बनता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इसी सन्दर्भ में 'परहित सरिस धरम नहिं भाई कहा है। आत्म कल्याण से जन कल्याण का भाव ही मनुष्य को मनुष्यत्व से दैवत्व की ओर ले जाता है। समस्त प्राणी समुदाय के प्रति दया, प्रेम, करुणा, सहयोग एवं सहानुभूति आदि के भाव सहज ही प्रस्फुटित होने लगते हैं। ऐसा मनुष्य ही लोक कल्याण, जगत कल्याण अथवा राष्ट्र कल्याण का ध्वजवाहक बन पाता है।

महाभारत की हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्[1] इस उक्ति को सिद्ध करने के निमित्त ही समस्त ग्रंथों का प्रणयन हुआ है। समस्त ग्रंथों एवं साधना पद्धतियों में मानव मूल्यों के अनेक सूत्र समाविष्ट हैं, जिनसे मनुष्यता अथवा मानवता का संवर्धन हो सके।

शोध-पत्र के उद्देश्य -

  1. मानवता के मूल अर्थ को समझना
  2. मानवीय मूल्यों एवं सिद्धान्तों का अवलोकन करना
  3. श्रीमद्भगवद्गीता में निहित मानवता के सूत्रों का विवेचन करना
  4. मानवता के पोषण में श्रीमद्भगवद्गीता की भूमिका को निरूपित करना

मानवता का सामान्य अर्थ - संस्कृत व्याकरणिक दृष्टि से 'मानवता' शब्द स्त्रीलिंगी संज्ञा है, जो मानव में तल्  एवं टाप् प्रत्यय लगाने से बना है। मनु एवं अण् प्रत्यय के योग से मानव शब्द बना है। माना जाता है कि मनु की संतान होने के कारण मनुष्य मानव कहलाता है।[2] मात्र शारीरिक संरचना से मानव होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु मानवीय गुणों को धारण करना मनुष्य के लिए अपरिहार्य है। मानवीय गुणों का वरण ही मानवीयता अथवा मानवता है। मानवता मनुष्य का वैशिष्टय है 'मानवता अर्थात् मानवीय सद्गुणों का वह समूह, जिससे मनुष्य अपनी मनुष्यता को प्रमाणित करता है।[3]

मानवता के विविध आयाम -

आहार निद्रा भय मैथुनं सामान्यमेतत् पशुभिः नराणाम्

धर्मो हि तेषाम् अधिको विशेष धर्मेण हीनाः पशुभि समानाः हितोपदेश- 1.3

मनुष्य का मूल धर्म मानवता है मानवता के अभाव में मनुष्य पशु के समान ही है। मानवता एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है, जिसके विविध आयाम हैं। आत्मवत् सर्वभूतेषु अर्थात् अपने समान सभी प्राणियों को देखना मानवता का प्रमुख आयाम है। उपनिषदों में जिसे अयम् आत्मा ब्रह्म[4] एवं तत्त्वमसि[5] जैसे ब्रह्मवाक्यों से उद्धृत किया गया है। समस्त प्राणियों को आत्मवत् दृष्टि से देखने पर सहज ही उन प्राणियों के प्रति मानवीय संवेदनाओं का वर्धन होता है मानवता व्यक्ति की आचार संहिता है, जिसमें दया, ममता, त्याग, संवेदनशीलता, परोपकार, परदु:खकातरता, करूणा आदि का समावेश होता है।[6] उदारता, सहनशीलता, धैर्य, विवेक, करुणा, त्याग, क्षमा, प्रेम जैसे मानवीय गुण मानवता के आयाम है। मनुस्मृति में आचार्य मनु ने मानवीय स्वभाव अथवा धर्म के दस लक्षण वर्णित किए हैं जिन्हें मानवता के दस आयाम कहा जा सकता है- धृति, क्षमा, इन्द्रिय दमन, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध मनुष्य धर्म के दस लक्षण हैं।[7] इस प्रकार जिन-जिन कारणों से मानवीय संवेदना विकसित और परिपक्व होती है, वे सभी मानवता को विकसित करने वाले आयाम हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता एवं मानवता का संबंध - श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषदों का सार है, जिसमें ब्रह्मविद्या एवं योगविद्या का ज्ञान श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के संवाद रूप में समाविष्ट है। श्रीमद्भगवद्गीता को प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं श्रीमद्भगवद्गीता) में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। श्रीमद्भगवद्गीता एवं मानवता का अत्यन्त घनिष्ट संबंध है। वस्तुतः समस्त साधना परक ग्रंथों का चरम आरचारमूलक सिद्धान्तों की स्थापना ही होता है। साधना स्वयं का परिष्करण एवं चेतना के उर्द्धगमन का मार्ग होती है। विस्तार परक चेतना ही अन्य प्राणियों में स्वयं के अस्तित्व एवं स्वयं में अन्यों के अस्तित्व देख पाती है। परिणामत अन्य प्राणियों के प्रति करुणा का भाव सहज ही जाग जाता है। यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखने पर श्रीमद्भगवद्गीता मानवता के विनाश का ग्रंथ प्रतीत होता है, क्योंकि गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पाण्डव पक्ष के संहार का उपदेश देते हैं परन्तु वास्तविकता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को निमित्त बनाकर समूची मानव जाति को सत्य, धर्म एवं न्याय की स्थापना हेतु अन्तःकरण की निर्मलता, इन्द्रिय संयम, प्रज्ञा की जाग्रति एवं आत्मा की अनुभूति का उपदेश दिया है। बिना आत्मोपलब्धि के जगत कल्याण अथवा मानवता की स्थापना निराधार एवं कल्पना मात्र है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता मानवता की स्थापना का अभूतपूर्व ग्रंथ है।

स्वामी शिवानंद सरस्वती[8] के अनुसार सम्पूर्ण विश्व ही एक युद्धक्षेत्र है। वास्तविक कुरुक्षेत्र तो आपके भीतर है महाभारत का युद्ध अभी भी आपके भीतर पूर्ण उग्रता से चल रहा है अविद्या धृतराष्ट्र है, जीवात्मा अर्जुन है, हृदय गुहा में विराजित भगवान् कृष्ण सारथि हैं, शरीर आपका रथ है, इन्द्रियाँ अश्व हैं। मन, अहंभाव, इन्द्रियाँ, संस्कार, वासनायें, इच्छायें, राग-द्वेष, काम, ईर्ष्या, लोभ, अभिमान और दम्भ (कपट) आपके घोर शत्रु हैं। वस्तुतः ये शत्रु मानव के नहीं मानवीयता के शत्रु हैं। अतः इन शत्रुओं के विनाश एवं मानवता की स्थापना के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया गया है।

श्रीमद्भगवद्गीता में निहित मानवता के सूत्र - मानवीय मूल्यों की स्थापना, संरक्षण एवं संवर्द्धन की एक लम्बी श्रृंखला है। मानवता मानवीय मूल्यों एवं सिद्धान्तों की स्थापना का प्रतिफल है। श्रीमद्भगवद्गीता में ऐसे अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है जिनके आचरण एवं व्यवहार से मानवता फलित होती है। व्यवहार के बिना मात्र बौद्धिक स्तर पर मानवता के सूत्रों का ज्ञान दुर्योधन जैसा होता है दुर्योधन कहता है- मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती।[9] इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए प्रथमतः मानवता की भूमि तैयार की, जिसके अन्तर्गत शरीर, मन, भाव एवं बुद्धि की अपूर्णताओं, क्षुद्रताओं एवं विकारों के शमन का उपदेश दिया तदनन्तर इनमें मानवीय मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा की।

अहंकार का तिरोहण - श्रद्धावान व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त करता है।[10] श्रद्धा अहंकार का त्याग और सम्पूर्ण शरणागति का प्रतिफल है। अहं का भाव स्वयं को अन्य से भिन्न और विशिष्ट होने का भ्रम पैदा करता है, जबकि मानवता की प्रथम सीढ़ी सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति समत्व, ममत्व एवं ऐकत्व के भाव को प्रतिपादित करता है, जो अहं के सम्पूर्ण विसर्जन से उदित हो सकता है। इसलिए भगवान कहते हैं कि मुझ में बुद्धि स्थिर करो।[11] भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सचेत करते हैं कि यदि अहंकार के कारण से मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात् परमात्म मार्ग से भ्रष्ट हो जायगा।[12] इसलिए बार-बार भगवान श्रीकृष्ण मन बुद्धि को परमात्म में समर्पण के लिए उपदेश देते हैं- मुझमें मन, बुद्धि को अर्पण करने वाला भक्त ही मुझे प्रिय है।[13] सम्पूर्ण शरणागति कृतित्व एवं भोक्तृत्व के बंधन से मुक्त कर समत्व की प्राप्ति में सहायक है और इस समता का प्रतिफल ही मानवता है।

अन्तः करण की निर्मलता - व्यक्ति में प्रायः काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, निराशा, चिन्ता, ईर्ष्या, द्वेष आदि मानसिक विकार पाये जाते हैं।[14] श्रीमद्भगवद्गीता[15] में काम, क्रोध, लोभ इन तीन विकारों को नरक का द्वार कहा जाता है। ये आत्मा का नाश करने वाले हैं। इन तीनों का नाश करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- 'कर्मयोगी ममत्व बुद्धि रहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्यागकर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करता है।[16] अन्तःकरण की शुद्धि से शुद्ध बुद्धि की प्राप्ति होती है, जिसमें भ्रम, संशय एवं समस्त शंकाओं का समाधान हो जाता है। फलतः शुद्ध ज्ञान, विवेक एवं प्रज्ञा का जन्म होता है, जिससे मन, बुद्धि, चित्त आदि की समस्त स्वार्थवृत्ति का क्षय हो जाता है और हृदय में समूची सृष्टि के प्रति प्रेम, करूणा एवं सहयोग की भावना का जागरण होता है,  ये ही मानवता के लक्षण हैं।

इन्द्रिय संयमन - इन्द्रियाँ स्वभावतः चंचल होती हैं। विषय वासनाओं में इन्द्रियों की लिप्तता शुभ कर्म अथवा शुभ संकल्पों से च्युत कर देती है। सत्प्रवृत्ति के संवर्द्धन एवं दुष्प्रवृत्ति के उन्मूलन में इन्द्रियों का संयम अत्यन्त आवश्यक है। जिससे आत्म कल्याण एवं लोक कल्याण की भावनाएँ पुष्ट हो सकें। स्व एवं समाज के कल्याण का भाव ही मानवता है। चूंकि मन समस्त इन्द्रियों में प्रमुख है। श्रीमद्भगवद्गीता[17] में मन को छठी इन्द्रिय कहा गया है। मैत्रायण्युपनिषद्[18] एवं अमृतबिन्दु उपनिषद्[19] में मन को बन्धन और मोक्ष का हेतु कहा गया है। बन्धन मनुष्य की क्षुद्र दुर्बलताओं, संकीर्णताओं, स्वार्थ एवं अनन्त अशुभ कामनाओं के हैं, जिनकी उपस्थिति में मानवता का उदय संभव नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता[20] में कहा गया है कि हे अर्जुन! सतत् यत्न करते रहने पर भी चंचल इन्द्रियाँ बुद्धिमान पुरुषों के मन को हठात् हर लेती हैं। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में मन को समस्त बन्धनों से मुक्त करने के सूत्र वर्णित किए गए हैं। श्रीमद्भगवद्गीता[21] में श्रीकृष्ण इन्द्रियों को संयमित करने का निर्देश देते हैं। समस्त इन्द्रियों को संयमित कर मन को हृदय प्रदेश में स्थिर करना अर्थात् जहाँ संकल्प-विकल्प की स्थिति रहे। जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु है।[22] जिसकी मन सहित समस्त इन्द्रियाँ संयमित है उसी मनुष्य के मन में शुद्ध मानवता का जन्म हो सकता है।

प्रज्ञा का जागरण - ज्ञान की प्रकृष्ट अवस्था प्रज्ञा है, जब बुद्धि में भ्रम, संशय आदि का पूर्णतः शमन हो जाए एवं यथार्थ का बोध प्राप्त हो जाए, तब उस बुद्धि में प्रज्ञा का जागरण माना जाता है। संसार में तत्त्वतः भेद की दृष्टि अज्ञान का सूचक है, यह भेद मैं, मेरा अपने-पराए के आधार पर कर्म करवाता है। जहाँ लौकिक भिन्नता का एवं तात्विक एकता का बोध प्राप्त हो तदनुरूप विवेक सम्मत् आचरण हो वहाँ अभेद, अद्वैत एवं ऐक्य का ज्ञान होता है। यही प्रज्ञा का जागरण है। श्रीमद्भगवद्गीता में प्रज्ञा जागरण की प्रक्रिया के सन्दर्भ में कहा गया है कि- 'इन्द्रियों को वश में करके मुझ में ध्यान लगा कर स्थिरता पूर्वक बैठना चाहिए क्योंकि इससे भी बुद्धि स्थिर होती है।[23] जिसने इन्द्रियों को जीत लिया अर्थात् जो विजितेन्द्रिय है। श्रद्धा से युक्त है वो मनुष्य ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है।[24] भगवान ने कहा- जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब यह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।[25] चूंकि मानवता व्यवहार का विषय है, व्यवहार पर बौद्धिक ज्ञान का प्रभाव आंशिक होता है; क्योंकि सामान्यतया बुद्धि मैं मेरेपन से संकीर्ण एवं अनिचयात्मक होती है। इसलिए प्रज्ञा जागरण से पूर्व तथ्यात्मक ज्ञान मात्र बौद्धिक वार्तालाप तक सीमित रह जाता है। अतः ज्ञान के सापेक्ष कर्म को व्यवहार में लाने के लिए बुद्धि की प्रकृष्ट अवस्था अर्थात् प्रज्ञा युक्त बुद्धि की नितांत आवश्यकता होती है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ बनने के अनेक उपाय बतलाते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित दैवीय प्रवृत्तियाँ - श्रीमद्भगवद्गीता में मनुष्य के दैवीय या सात्त्विक गुण, लक्षण अथवा प्रवृत्तियों का वर्णन किया गया है। जो मानवता के प्रतीक रूप में वर्णित हैं। ये प्रवृत्तियाँ मनुष्यगत दोष एवं पाश्विक प्रवृत्तियों के कारण बार-बार विस्मृत हो जाती हैं, जिन्हें पुनः जागृत करने हेतु वेदादि अनुभूति परक ग्रंथों का प्रणयन एवं साधु, सन्त-महंतो, ऋषियों आदि द्वारा उपदेशित दिए जाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता[26] में भी मानवता की प्रतिस्थापना के लिए श्रीकृष्ण उपदेशित करते हैं। इसी प्रकार दैवीय सम्पद् के रूप में मानवता के गुण वर्णित हैं- 'निर्भयता, हृदय की पवित्रता, ज्ञान और योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति, दान, इन्द्रिय दमन, यज्ञ, शास्त्राध्ययन, तपश्चर्या और सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, दोष दृष्टि का अभाव, प्राणियों के प्रति दया का भाव, अलोभ, मृदुलता, लज्जा, स्थिरता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, द्वेषहीनता, अभिमान का अभाव ये सब दैवीय अथवा सात्त्विक सम्पत् (गुण) हैं[27], जो मनुष्यता के गुण हैं एवं मानवता को परिभाषित करते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित आसुरी प्रवृत्तियाँ - दैवीय सम्पद की भांति श्रीमद्भगवद्गीता में आसुरी प्रवृत्तियों का वर्णन किया गया है, जो मनुष्य को मनुष्यता से पशुता की ओर ले जाती हैं। यद्यपि पशु हमेशा सृष्टि के कल्याण में सहायक होता है। हिंसक एवं विक्षिप्त पशु भी जितना समाज के लिए घातक नहीं होता उससे कहीं अधिक आसुरी प्रवृत्तियों से युक्त मनुष्य मानवता के लिए घातक होता है। लोभ, मोह, स्वार्थ, प्रतिशोध, ईर्ष्या, द्वेष, संकीर्णता, जैसी आसुरी प्रवृत्तियाँ मानवता के लिए अत्यंत विनाशक हैं। आसुरी प्रवृत्तियों अथवा आसुरी सम्पदाओं के संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन किया गया है- दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरूषों के लक्षण हैं।[28] ऐसे मनुष्य अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निंदा करने वाले पुरूष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं।[29] ऐसे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ मानवता के लिए अभिषाप की भांति हैं।

निष्कर्ष : पशुभाव, निम्नभाव, स्वार्थभाव, आसुरी स्वभाव से ऊपर उठकर व्यापक हित साधन के लिए परोपकारधर्मी बनना मानवता का आधार है परोपकाराय सतां विभूतयः मानवता का आधार वाक्य है। परन्तु मानवता के गुण, लक्षण, स्वभाव, कर्म अथवा प्रवृत्तियों का बौद्धिक ज्ञान मात्र पर्याप्त नहीं है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज प्रत्येक मनुष्य में दैवत्व का उदय हो चुका होता।

मनुष्यता और पशुता मनुष्य के स्वभाव का द्योतक है। स्वभाव में परिवर्तन साधना का प्रतिफल है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में मनुष्य के मूल स्वभाव को परिवर्तित करने के साधन वर्णित किए गए हैं। ज्ञान, भक्ति, कर्म आदि के माध्यम से इन्द्रिय संयमन, अहंकार तिरोहण, अन्तःकरण परिष्करण एवं प्रज्ञा का जागरण पाश्विक प्रवृत्तियों से दैवीय प्रवृत्तियों में रूपान्तरण है। यह रूपान्तरण ही मानवता की स्थापना का साधन है। श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित भक्ति पूर्वक ज्ञान एवं कर्म का आचरण मनुष्य को आन्तरिक रूप से व्यवहार परिमार्जन में सहायक हो सकता है अतः यह आन्तरिक व्यवहार के परिष्करण का मार्ग ही मानवता की स्थापना का मार्ग बन सकता है।

संदर्भ : 

श्रीराम शर्मा : सामवेद संहिता, युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट गायत्री तपोभूमि मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2018

  1. श्रीराम शर्मा : अथर्ववेद संहिता (भाग- 1), युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट गायत्री तपोभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2021
  2. श्रीराम शर्मा : 108 उपनिषद् ज्ञानखण्ड, युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट गायत्री तपोभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2016
  3. श्रीराम शर्मा : 108 उपनिषद् ब्रह्मविद्याखण्ड, युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट गायत्री तपोभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2015
  4. हरिकृष्णदास गोयन्दका : श्रीमद्भगवद्गीता, शांकरभाष्य हिन्दी अनुवादसहित, गीताप्रेस, गोरखपुर, 2011
  5. रामसुखदास : श्रीमद्भगवद्गीता साधक संजीवनी, गीताप्रेस, गोरखपुर, सत्तानबेवाँ पुनर्मुद्रण, सं 2075
  6. रंगनाथानन्द : श्रीमद्भगवद्गीता का सार्वजनीन सन्देश, प्रथम भाग, द्वितीय और तृतीय भाग, स्वामी ब्रह्मस्थानन्द, रामकृष्ण मठनागपुर, द्वितीय पुनर्मुद्रण, 2018
  7. शिवानन्द सरस्वती : श्रीमद्भगवद्गीता, डिवाइन लाइफ सोसायटी, उत्तराखण्ड, द्वितीय संस्करन, 2016
  8. अपूर्वानन्द : श्रीमद्भगवद्गीता, स्वामी ब्रह्मस्थानन्द, रामकृष्ण मठ, नागपुर, एकादश पुनर्मुद्रण 2016
  9.  निरंजनानंद सरस्वती : गीता दर्शन, योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार, 2012
  10. निरंजनानंद सरस्वती : योग दर्शन, योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार, 2004
  11. ओमानन्द तीर्थ : पातंजलयोगप्रदीप, गीताप्रेस, गोरखपुर, पैंतीसवाँ पुनर्मुद्रण, सं 2072
  12. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना : मनुस्मृति (संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद), मनोज पब्लिकेशन, दिल्ली, 2014
  13. विमला कर्णाटक : योगविद्या-विमर्श, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, 2007
  14. धर्मपाल मैनी : मानवमूल्य-परक शब्दावली का विश्वकोश (चतुर्थ खण्ड), सरूप एण्ड सन्ज़, नई दिल्ली, 2005
[1] महाभारत - शान्तिपर्व- 299/20
[2] मनोर्वशो मानवानां ततोऽयं प्रथितोऽभवत्,
ब्रह्मक्षत्रादयस्तस्मान्मनोर्जातास्तु मानवाः।। मनु स्मृति- 2/9/5/35
[3] धर्मपाल मैनी : मानवमूल्य-परक शब्दावली का विश्वकोश (चतुर्थ खण्ड)सरूप एण्ड सन्ज़, नई दिल्ली, 2005, पृ. 1402
[4] माण्डुक्य उपनिषद् (अथर्ववेद)- 1/2
[5] छान्दोग्य उपनिषद् (सामवेद)- 6/8/7
[6] धर्मपाल मैनी : मानवमूल्य-परक शब्दावली का विश्वकोश (चतुर्थ खण्ड)सरूप एण्ड सन्ज़, नई दिल्ली, 2005, पृ. 1402
[7] धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। मनुस्मृति- 6/92
[8] स्वामी शिवानन्द सरस्वती : श्रीमद्भगवद्गीता, द डिवाइन लाइफ सोसायटी, उत्तराखण्ड, 2016, पृ. 15
[9] जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जनाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः। गर्गसंहिता, अश्वमेध- 50/36
[10] श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं । श्रीमद्भगवद्गीता- 4/39
[11] मयि बुद्धि निवेशय । श्रीमद्भगवद्गीता- 12/8
[12] मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।। श्रीमद्भगवद्गीता- 18/58
[13] मय्यर्पितमनोबुद्धिय मद्भक्तः स मे प्रियः।। श्रीमद्भगवद्गीता- 12/14
[14] श्रीराम शर्मा : 108 उपनिषद्, ज्ञानखण्ड, युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्टः गायत्री तपोभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2016.
परिशिष्ट, पृ. 474
[15] त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत् ।। श्रीमद्भगवद्गीता- 16/21
[16] कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ।। श्रीमद्भगवद्गीता- 5/11
[17] मनः षष्ठानीन्द्रियाणि ।। श्रीमद्भगवद्गीता- 15/7
[18] मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतमिति । मैत्रायण्युपनिषद्- चतुर्थ प्रपाठक- 4/3/
[19] मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ।। अमृतबिन्दूपनिषद्/ ब्रह्मबिन्दूपनिषद्- 2
[20] यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। श्रीमद्भगवद्गीता- 2/60
[21] सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य
मूर्धन्याधायात्मनःप्राणमास्थितो योगधारणाम् ।। श्रीमद्भगवद्गीता - 8/12
[22] बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ श्रीमद्भगवद्गीता- 6/6
[23] तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
 वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ श्रीमद्भगवद्गीता- 2/61
[24] श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ श्रीमद्भगवद्गीता- 4/39
[25] प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ श्रीमद्भगवद्गीता- 2/55
[26] यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् । श्रीमद्भगवद्गीता- 4/7
[27] अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता । श्रीमद्भगवद्गीता- 16/1-3
[28] दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।। श्रीमद्भगवद्गीता- 16/4
[29] अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ।। श्रीमद्भगवद्गीता- 16/18

डॉअखिलेश कुमार विश्वकर्मा (योग विभाग)
साँची बौद्ध भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालयसाँची (मध्यप्रदेश) 404661
akhilhariom123@gmail.com, 7566113544, 8966945583

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

1 टिप्पणियाँ

  1. समूचि मानव जाति कहकर आपने इस शोध आलेख के माध्यम से संकीर्णता का परिचय दिया है. मेरे समझ इस आलेख को जगह नहीं दिया जाना चाहिए. भारत जैसे तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देश को छोड़ कितने देशों में इस ग्रंथ के मूल्यों से काम चलते हैं? हम भारत में रहकर इस ग्रंथ के मूल्यों को नहीं मानते तो आप पाश्चात्य देशों की बात ही छोड़ दो.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने