बीज
शब्द :
जाति, देश, पितृसत्ता, स्त्रीवाद, असमानता, दलित
विमर्श, स्त्री
चेतना।
मूल
आलेख :
“दलित हमारे घरों
और
बस्तियों
से
बाहर
होता
है, स्त्री
हमारे
भीतर
है, इसलिए
उसका
संघर्ष
ज़्यादा
जटिल
है।”1-
राजेंद्र
यादव
(‘आदमी की निगाह
में
औरत’
की
भूमिका
से)
जातिगत
भेदभाव
आज
भी
ख़त्म
नहीं
हुआ
है
अलग-अलग
स्तरों
पर
अलग-अलग
तरह
से
यह
भेदभाव
आज
भी
जारी
है।
जातिवादी
शोषण
और
भेदभाव
की
यह
समस्या
अभी
से
नहीं
बल्कि
सैंकड़ों
वर्षों
से
चली
आ
रही
है।
जिस
प्रकार
जातिगत
भेदभाव
की
समस्या कई वर्षों
से
चली
आ
रही
है
उसी
प्रकार
स्त्री
और
पुरुष
के
बीच
की
असमानता
बदस्तूर
जारी
है।
इसके
सामाजिक
और
आर्थिक
कई
कारण
ऐसे
हैं।
एक
तरफ़
हम
स्त्री
और
पुरुष
के
बीच
की
असमानता
की
बात
करते
हैं
तो
दूसरी
तरफ़
हम
देखते
हैं
कि
एक
दलित
स्त्री
और
एक
ग़ैर-दलित
स्त्री
के
बीच
भी
असमानता
है।
एक
दलित
स्त्री
इस
समाज
में
सिर्फ़
हाशिये
पर
ही
नहीं
है
बल्कि
वह
असमानता, शोषण
और
भेदभाव
कि
दुहरी
मार
झेल
रही
है।
एक
ग़ैर-दलित
स्त्री
जहाँ
सिर्फ़
लैंगिक
असमानता
और
भेदभाव
झेलती
है; एक
दलित
स्त्री
लैंगिक
और
जातिगत
दुहरे
भेदभाव
और
शोषण
की
शिकार
होती
है।
मुद्राराक्षस
अपनी
पुस्तक
स्त्री, दलित, जातीय
दंश
में
लिखते
हैं
कि “सवर्ण समाज
में
स्त्रियों
को
अपनी
हैसियत
बनाने
के
लिए
धन, शिक्षा, ऊँचे
संबंध
और
जानकारियाँ
सवर्ण
पुरुषों
की
तुलना
में
कम
उपलब्ध
होती
हैं।
पर
दलित
एवं
पिछड़े
समाज
में
पुरुषों
के
पास
हैसियत
बनाने
के
अवसर
सवर्ण
पुरुषों
की
तुलना
में
बहुत
कम
होते
हैं
और
ऐसे
दलित-पिछड़े
समाज
की
स्त्रियों
के
पास
हैसियत
के
कारक
लगभग
शून्य
होते
हैं।”2
मुद्राराक्षस
का
कहना
है
कि
एक
दलित
स्त्री
तो
एक
दलित
पुरुष
से
भी
निम्न
दर्जे
पर
है।
आज
हम
स्त्री
विमर्श
की
बात
करते
हैं
लेकिन
यह
स्त्री
विमर्श
स्त्री
चेतना
का
रूप
तभी
ले
पाएगा
जब
यह
स्त्री
विमर्श
केवल
किताबों
और
सम्मेलनों
या
सेमिनार
तक
ही
सीमित
न
रहकर
गाँव-कस्बों
की
उन
स्त्रियों
की
स्थिति
को
भी
बयां
करे
जिन्हें
हाशिये
पर
छोड़
कुछ
ख़ास
तबके
की
महिलाएँ
ही
इनका
नेतृत्व
करें।
हाशिये
की
स्त्री
को
भी
अधिकार
मिले
जो
शहरी
हवा
में
जीती
हुई
औरत
को
मिल
रहे
हैं।
हाशिये
की
स्त्री
का
नेतृत्व
कुछ
चुनिंदा
और
संभ्रांत
महिलाओं
के
हाथ
में
चले
जाने
की
शंका
और
नियति
व्यक्त
करते
हुए
निर्मला
पुतुल
अपनी
कविता
‘एक बार फिर’
में
कहती
हैं
कि
‘एक बार फिर
ऊँची
नाकवाली/
अधे
कटे
ब्लॉउज
पहनी
महिलाएँ/
करेंगी
हमारे
जुलूस
का
नेतृत्व/
और
प्रतिनिधित्व
के
नाम
पर/
मंचासीन
होंगी
हमारे
सामने।’3(एक
बार
फिर)
शहरों, किताबों
और
सम्मेलनों
के
स्त्री
विमर्श
की
चर्चा
से
इतर
असल
स्त्री
चेतना
हमें
गाँव, कस्बों
या
छोटे
शहरों
आदि
में
अपने
अधिकारों
के
लिए
आवाज़
उठाने
वाली
स्त्री
की
आवाज़
में
सुनाई
देती
है।
असल
मे
स्त्री
विमर्शों
पर
हमें
लिखित
रूप
में
जब
से
किताबें
दिखाई
देने
लगीं
या
लेख
मिलने
लगे
हमने
तभी
से
स्त्री
विमर्श
के
बारे
में
चर्चा
करनी
शुरू
की
लेकिन
स्त्री
विमर्श
इससे
बहुत
पहले
हमारे
समाज
और
हमारे
विमर्शों
में
स्त्री
चेतना
के
रूप
में
मौजूद
था
वह
पितृसत्ता
से
लगातार
टकरा
रहा
था
और
ठोकरें
भी
खा
रहा
था।
बहस
के
केंद्र
में
चाहे
वह
न
रहा
हो
पर
स्त्री
के
जहन
में
हमेशा
रहा।
स्त्री
विमर्श
ने
इसे
बहस
का
केंद्र
बना
राजनीतिक
स्वरूप
प्रदान
किया।
संपूर्ण
हिंदी
साहित्य
को
देख
लीजिए
हमारा
साहित्य
जिस
पितृसत्ता
का
विरोध
करता
है।
उसके
भीतर
ही
आपको
पितृसत्ता
दिखाई
देगी। मैरी वॉल्सटनक्राफ्ट
का
कहना
है
कि
‘राजा सदैव राजा
रहता
है
और
स्त्री
सदा
एक
स्त्री।’4
यानि
स्त्री
चाहे
किसी
पद, ज्ञान
और
जाति
के
किसी
भी
स्तर
पर
हो
उसकी
एक
ही
जाति
है।
वह
स्त्री
है
इसलिए
स्त्री
होने
की
तमाम
असमानता
को
तो
वो
झेलती
ही
है
अगर
वर
दलित
जाति
में
हो
तब
यह
असमानता
और
लैंगिक
भेदभाव
जातिवादी
शोषण
और
पीड़ा
में
तब्दील
हो
जाता
है।
साहित्य
में
हाशिये
पर
स्त्री
- आज़ादी से पहले
तक
के
साहित्य
में
अगर
आपको
उंगलियों
पर
गिनने
लायक
स्त्री
साहित्यकार
दिखाई
देती
हैं
तो
इन
कारणों
में
स्त्री
चेतना
को
हाशिये
पर
धकेलने
के
प्रयासों
की
मार्फ़त
भी
समझना
चाहिए।
या
किस
तरह
से
स्त्री
शिक्षा
और
विद्वता
में
पिछड़ी
इसका
कारण
अवसरों
की
समानता
का
न
होना
है।
यदि
अवसरों
की
समानता
होती
तो
हिंदी
साहित्य
आज
कुछ
और
होता।
महान
साहित्येतिहासकार
आचार्य
रामचंद्र
शुक्ल
पर
हमने
जितनी
दृष्टि
डाली
उसकी
छटांक
भर
भी
उनकी
पत्नी(सावित्री
देवी)
के
संघर्ष
और
उनके
साहित्य
के
प्रति
लगाव
पर
नहीं।
जिनकी
मेहनत
और
संघर्ष
ने
शुक्ल
जी
को
ये
ऐतबार
दिया
कि
आप
साहित्य
जगत
में
नए
प्रतिमानों
और
इतिहास
और
साहित्य
की
कसौटियाँ
निर्मित
कीजिए, मैं
घर
देख
लूँगी, मैं
अपनी
इच्छाओं
और
शौक
को
छोड़
सकती
हूँ, आप
नाम
कमाइये।5
ऐसे
ही
सैंकड़ों
साहित्यकारों
को
बनाने
और
गढ़ने
में
एक
स्त्री
मौजूद
रही
है
जो
एक
पुरुष
की
उपलब्धियों
की
अक्सर
लागत
वहन
करती
है।
इसे
पितृसत्ता
स्त्री
जीवन
का
कर्तव्य
या
दायित्व
कहकर
पल्ला
झाड़ती
रही
है।
इसलिए
रोज़ा
लक्जमबर्ग
ने
कहा
था
कि
'जिस
दिन
औरतों
के
श्रम
का
हिसाब
होगा, मानव
इतिहास
की
सबसे
बड़ी
चोरी
पकड़ी
जाएगी।’
मीराबाई
या
महादेवी
वर्मा
जैसी
लेखिकाएँ
नाममात्र
की
हैं
जो
मुख्यधारा
में
अपना
मक़ाम
बना
सकीं।
स्वतंत्रता
के
बाद
ज़रूर
स्त्री
लेखिकाओं
की
एक
पूरी
पीढ़ी
पितृसत्ता
को
चुनौती
देती
है
यह
पीढ़ी
अपनी
बात
स्वयं
कहना
पसंद
करती
है।
साहित्य
में
उभरे
इन
विमर्शों
में
दलित, स्त्री, आदिवासी
आदि
हाशिये
के
समाज
के
बारे
में
नब्बे
के
दशक
के
बाद
में
जिस
तेज़ी
से
चर्चा
होती
है, उसके
राजनीतिक
निहितार्थ
हो
सकते
हैं
लेकिन
हमें
यह
नहीं
भूलना
चाहिए
कि
‘पर्सनल इज़ पॉलीटिकल’
स्त्री
आंदोलन
का
नारा है। उपर्युक्त
तीनों
विमर्शों
में
स्त्री
पर
अलग
से
चर्चा
होनी
चाहिए
जो
कि
अक्सर
नहीं
की
जाती।
एक
दलित
या
आदिवासी
स्त्री
की
दशा
एक
दलित
या
आदिवासी
पुरुष
से
भिन्न
होती
है।
वह
एक
ही
स्तर
पर
दुहरे
निर्वासन
और
दुहरी
अंदेखी
का
शिकार
होती
है।
वह
सिर्फ़
समाज
का
दंश
ही
नहीं
सहती
वह
एक
स्त्री
होने
की
पीड़ा
भी
झेलती
है
जो
उसे
पुरुष
से
प्रताड़ित
हो
झेलनी
पड़ती
है।
पितृसत्ता
जाति, धर्म
या
लिंग
नहीं
देखती।
एक
दलित
पुरुष
सामाजिक
दंश
झेलता
है, पर
एक
दलित
स्त्री
सामाजिक
दंश
के
साथ
स्त्री
होने
की
पीड़ा
भी
सहती
है।
जो
उसे
उसी
की
जाति
के
पुरुष
से
मिलती
है।
इस
तरह
से
देखें
तो
दलित
जाति
के
भीतर
की
पितृसत्ता
का
प्रतिकार
इस
दलित
स्त्री
की
चुनौती
है।
अतः
वह
दुहरी
चुनौती
से
जूझ
रही
है।
दलित
स्त्री
आत्मकथा
की
दस्तक
और
स्त्री
चेतना
- ध्यातव्य
हो
कि
दलित
स्त्री
आत्मकथा
उस
तरह
से
हमारे
सामने
नहीं
आती
जैसे
दलित
लेखकों
ने
अपनी
आत्मकथा
लिखी।
दलित
स्त्री
द्वारा
लिखित
पहली
आत्मकथा
को
आने
में
इतना
वक़्त
लगा।
सन
1999 में जब कौशल्या
बैसंत्री
की
आत्मकथा
‘दोहरा अभिशाप’ प्रकाशित
हुई
तो
इसके
ख़तरे
को
भाँप
यथास्थितिवादियों, पुरुषों
और
पितृसत्ता
के
ठेकेदारों
ने
ऐसा
माहौल
बनाया
कि
एक
दशक
तक
किसी
दलित
स्त्री
की
आत्मकथा
प्रकाश
में
नहीं
आ
सकी।
फिर
2011 में सुशीला टाकभौरे
जी
ने
अपनी
आत्मकथा
‘शिकंजे का दर्द’
द्वारा
एक
दलित
स्त्री
की
व्यथा
कथा
कही।
जिसके
बाद
दलित
स्त्री
का
हौसला
जागा
और
वह
लगातार
अपने
अनुभव
को
कहने
का
अधिकार
अपने
साथी
पुरुष
को
देने
के
बजाए
स्वयं
उस
अनुभव
को
लिखने
लगी।
यही
कारण
है
कि
सुमित्रा
मेहरोल, कौशल
पँवार
ने
क्रमशः
‘टूटे पंखों से
परवाज
तक’
और
‘बवंडरों के बीच’
नामक
आत्मकथाएँ
लिख
दलित
स्त्री
चेतना
को
उस
दलित
विमर्श
से
विशिष्ट
साबित
किया
जिसका
नेतृत्व
सवर्ण
स्त्री
के
हाथ
में
है।
और
फिर
सिमोन
कहती
ही
हैं
कि
'स्त्री
पुरुष
प्रधान
समाज
की
कृति
है
वह
अपनी
सत्ता
को
बनाए
रखने
के
लिए
स्त्री
को
जन्म
से
ही
अनेक
नियमों
के
ढांचे
में
ढालता
चला
गया।'6 पर आज
की
स्त्री
और
दलित
स्त्री
ऐसे
किसी
ढाँचे
को
मानने
या
उसका
पालन
करने
का
प्रतिकार
करती
है।
दरअसल
भारतीय
संदर्भों
में
स्त्री
विमर्श
सवर्ण
स्त्री
के
कंधे
पर
चढ़कर
अपनी
बात
कहता
है
वहाँ
दलित
स्त्री
भागीदारी
तो
कर
सकती
है।
पर
नेतृत्व
सवर्ण
स्त्री
के
हाथ
में
ही
रहता
है।
ऐसे
में
दलित
स्त्री
को
अपने
शोषण
के
ख़िलाफ़
अपनी
लड़ाई
स्वयं
लड़नी
होगी।
गोपा
जोशी
का
कथन
है
कि
‘भारत में भी
स्त्री
विमर्श
अधिकतर
आम
मध्यवर्गीय
सवर्ण
स्त्री
के
सवालों
से
ही
जूझता
रहा
है।
यह
दलित
स्त्री
के
दमन
शोषण
के
प्रश्नों
के
सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक
और
राजनीतिक
आधार
का
समर्थन
तो
नहीं
करता, परंतु
इस
आधार
की
वजह
से
अनवरत
चल
रहे
दलित
स्त्री
की
प्रताड़ना
का
उतना
मुखर
विरोध
भी
नहीं
करता
जितना
दलित
स्त्री
के
दमन
के
आधार
को
ध्वस्त
करने
के
लिए
आवश्यक
है।’7
इसलिए
तमाम
नारीवादी
स्त्री
को
एक
जाति
का
मानते
हुए
भी
यह
स्वीकारते
हैं
स्त्री
विमर्श
ने
स्त्री
को
केंद्र
में
लाने
का
काम
ज़रूर
किया
पर
अभी
भी
दलित
स्त्री
हाशिये
पर
है
उसका
मुख्यधारा
में
आना
ही
स्त्री
विमर्श
और
स्त्री
चेतना
की
सफलता
और
सार्थकता
को
सिद्ध
करेगा।
दलित
आत्मकथा : शोषण और
भेदभाव की
मुसलसल दास्तां
का बयान
- श्यौराज सिंह
बेचैन
अपनी
आत्मकथा
'मेरा
बचपन
मेरे
कंधों
पर' में
सिर्फ़
दलितों
के
साथ
हो
रहे
भेदभाव, शोषण
और
पीड़ा
को
ही
नहीं
दिखाते
बल्कि
अपनी
माँ
सूरजमुखी
के
माध्यम
से
एक
दलित
स्त्री
के
भीतर
इस
दुहरी
पीड़ा
और
दुहरी
चुनौती
को
भी
दर्शाते
हैं।
इन
मायनों
में
यह
आत्मकथा
और
विशिष्ट
हो
जाती
है।
सूरजमुखी
उन
दलित
स्त्रियों
में
से
एक
है
जो
शिक्षित
तो
नहीं
है
और
ना
ही
उसे
अपने
अधिकार
पूरी
तरह
से
पता
हैं
लेकिन
फिर
भी
वह
सही
और
ग़लत
का
फैसला
ले
सकती
है।
कहीं
ना
कहीं
उसके
भीतर
हमें
एक
स्त्री
चेतना
की
समझ
दिखाई
देती
है
यह
चेतना
अपने
अधिकारों
की
रक्षा
के
लिए
एक
पुरुष
समाज
से
निरंतर
संघर्ष
करती
है
और
इस
संघर्ष
के
लिए
उसे
ना
जाने
शोषण
और
पीड़ाओं
के
कितने
अनुभव
झेलने
पड़ते
हैं।
बहरहाल
दलित
विमर्श
को
लेकर
अब
तक
जितनी
बहसें
हुई
हैं
उनका
आधार
दलित
आत्मकथाएँ
रही
हैं।
अपने
आरंभिक
रूप
में
दलित
लेखकों
द्वारा
लिखी
आत्मकथाओं
ने
इन
बहसों
को
विमर्श
में
बदलकर
हिंदी
साहित्य
के
समानांतर
एक
नए
लेखन
को
खड़ा
किया।
यह
लेखन
स्वानुभूतिपरक
और
अपने
भोगे
हुए
अनुभव
का
बिना
किसी
तामझाम
और
लागलपेट
के
किया
गया
यथार्थ
चित्रण
है।
जहाँ
शिल्प
की
नहीं
कथ्य
की
महत्ता
स्थापित
हुई।
अगर
हम
आज
दलित
विमर्श
को
स्वानुभूति
या
भोगे
हुए
अनुभव
के
यथार्थ
चित्रण
का
साहित्य
मानते
हैं
तो
उसमें
बहुत
बड़ी
भूमिका
आत्मकथाओं
की
रही
है
यह
आत्मकथाएँ
दलित
विमर्श
की
बुनियाद
में
रही
हैं
आज
हम
दलित
विमर्श
का
जो
रूप
देखते
आ
रहे
हैं
या
आज
दलित
विमर्श
यदि
स्थापित
हो
सका
है
तो
इसमें
‘जूठन’ और ‘मेरा
बचपन
मेरे
कंधों
पर’
जैसी
आत्मकथाएँ
रही
हैं।
इन
बहसों
की
शुरूआत
बेशक़
आत्मकथाओं
से
रही
हो
लेकिन
आज
दलित
विमर्श
की
बहस
सिर्फ़
आत्मकथा
को
लेकर
नहीं
है
बल्कि
दलित
साहित्य
में
आत्मकथा
के
अलावा
कहानियाँ, उपन्यास
और
कविताएँ
आदि
साहित्यिक
विधाओं
में
लेखन
हो
रहा
है।
इन
आत्मकथाओं
के
द्वारा
दलित
चेतना
और
दलित
संदर्भों
के
हवाले
से
जो
यथार्थ
हमें
दिखाई
देता
है
वह
संभवत
साहित्य
की
किसी
और
विधा
में
हमें
नहीं
मिलता
ऐसी
ही
यथार्थ
को
दिखाने
वाली
प्रोफेसर
श्यौराज
सिंह
बेचैन
की
आत्मकथा
‘मेरा बचपन मेरे
कंधों
पर’
है
यह
आत्मकथा
इन
मायनों
में
अन्य
आत्मकथाओं
से
अलग
है
क्योंकि
यह
सिर्फ़
दलित
विमर्श
की
आत्मकथा
नहीं
है
बल्कि
एक
अन्य
अर्थ
में
यह
दलित
विमर्श
के
भीतर
स्त्री
चेतना
और
स्त्री
के
संघर्ष
की
गाथा
कहती
आत्मकथा
भी
है।
लेखक
अपने
अनुभव
के
साथ-
साथ
अपने
समय, अपने
समाज
और
इसमें
अपनी
माँ
के
संघर्ष
को
दिखाते
हुए
अपनी
आत्मकथा
लिख
रहा
है
इस
तरह
इस
आत्मकथा
में
दलित
विमर्श
स्त्री
चेतना
के
साथ
उपस्थित
है।
यह
आत्मकथा
इन
मायनों
में
अब
तक
लिखी
गई
दलित
आत्मकथाओं
से
अलग
और
विशिष्ट
है।
क्योंकि
यह
सिर्फ़
भोगे
हुए
यथार्थ
की
कथा
ही
नहीं
कहती
बल्कि
यह
आत्मकथा
अपने
समय
और
संघर्ष
को
दिखाने
वाली
यथार्थ
कथा
भी
कहती
है
और
साथ
ही
इस
आत्मकथा
के
द्वारा
लेखक
अपने
संघर्ष
के
साथ
अपनी
माँ
का
संघर्ष
दिखाते
हुए
अपने
लेखन
में
दलितों
की
ख़ासकर
दलित
स्त्री
के
भीतर
की
राजनैतिक-
सामाजिक
चेतना
को
व्यक्त
करता
है।
उसके
इस
संघर्ष
में
पीड़ा, दर्द
और
एक
ऐसी
चुभन
है
जो
विशिष्ट
है
इसलिए
हमारी
कोशिश
‘मेरा बचपन मेरे
कंधों’
पर
नामक
आत्मकथा
में
केवल
दलित
विमर्श
या
दलित
चेतना
को
दिखाने
की
नहीं
है
बल्कि
हम
पूरे
विश्वास
के
साथ
यह
कहना
चाहते
हैं
कि
‘मेरा बचपन मेरे
कंधों
पर’
में
दलित
चेतना
स्त्री
चेतना
के
साथ
जन्मी
है।
वह
स्त्री
चेतना
जिसे
हम
लेखक
श्यौराज
सिंह
बेचैन
की
माँ
के
रूप
में
देखते
हैं
वह
माँ
जो
अपने
बेटे
श्यौराज
से
कहती
है
कि
‘बेटा इंदिरा के
राज
में
कहते
हैं
सब
सुखी
हो
गयै
है
पर
ये
कैसा
स्वराज
है
जिसमें
एक
असहाय
चमारिन
का
दुख
किसी
को
नहीं
दिखता।’8
यह
सवाल
सिर्फ़
भारत
के
मुखिया
या
भारत
के
प्रधानमंत्री
से
नहीं
है
यह
सवाल
हम
सब
से
हैं
बल्कि
इस
सवाल
के
द्वारा
लेखक
अपने
समाज
से
और
इस
देश
यह
जवाब
माँगता
है
कि
आज़ादी
के
इतने
सालों
बाद
भी
एक
स्त्री
उसमें
भी
दलित
स्त्री
क्यों
हाशिये
पर
रही? क्यों
हम
आज
तक
हाशिए
के
समाज
को
मुख्यधारा
का
हिस्सा
नहीं
बना
सके? वह
मुख्यधारा
जिस
पर
पितृसत्ता
का
कब्जा
है।
यह
पितृसत्ता
दलित
संदर्भों
में
और
ज़्यादा
पीड़ादायक
हो
जाती
है।
इस
पीड़ा
को
समझने
के
लिए
ज़रूरी
है
कि
हम
आज
के
समकालीन
संदर्भ
में
‘मेरा बचपन मेरे
कंधों
पर’
का
पाठ
करें
और
सिर्फ़
पाठ
ना
करें
इस
पाठ
के
साथ-साथ
यह
भी
देखें
कि
यह
आत्मकथा
अब
तक
लिखी
गयी
आत्मकथाओं
में
कैसे
विशिष्ट
है
इसकी
भाषा
की
देशजता
ने
इसके
कथ्य
को
और
धारदार
और
संवेदनशील
कैसे
बनाया
है।
मुझे
यह
आत्मकथा
लेखक
के
जीवन
के
परिपेक्ष्य
को
दिखाती
प्रतीत
होती
है।
और
कहना
न
होगा
कि
सूरजमुखी
लेखक
का
परिप्रेक्ष्य
और
संदर्भ
है
जिसके
बिना
किया
गया
कोई
भी
पाठ
पूर्ण
नहीं
होगा।
इस
आत्मकथा
के
निहितार्थ
सूरजमुखी
की
पीड़ा
के
बंध
खोले
बिना
निरर्थक
हो
सकते
हैं
इसलिए
ज़रूरी
है
कि
दलित
विमर्श
के
नज़रिये
के
साथ-
साथ
इस
आत्मकथा
का
विश्लेषण
हम
स्त्री
दृष्टि
से
भी
करें।
यदि
हम
इस
आत्मकथा
को
दलित
दृष्टि
के
साथ-
साथ
स्त्रीवादी
नजरिये
से
देखेंगे
तो
संभवत
उन
निहितार्थों
को
समझ
पाएंगे
जिनकी
बुनियाद
में
लेखक
की
आत्मकथा
का
जन्म
हुआ।
लेखक
के
जीवन
और
भारतीय
समाज
और
राजनीति
के
प्रभाव
का
सीधा
संबंध
लेखक
की
माँ
सूरजमुखी
के
जीवन
से
जुड़ता
है।
सूरजमुखी
के
जीवन
का
अंधेरा
इस
आत्मकथा
का
केंद्र
बिंदु
है।
इसलिए
मैंने
इसी
आत्मकथा
पर
की
गई
पूर्व
समीक्षा
का
शीर्षक
ही
‘सूरजमुखी अंधेरे
में’
रखा
था
क्योंकि
इस
आत्मकथा
का
केंद्र
उस
अंधेरे
से
जन्मा
है
जिसके
दायरे
में
अनुभव
का
यथार्थ
दलित
विमर्श
में
परिवर्तित
हुआ।
सूरजमुखी
संघर्षों
और
पीड़ा
का
सामना
करते
हुए
अपना
जीवन
होम
कर
रही
है।
इस
पीड़ा
के
अनुभव
से
उसके
भीतर
स्त्री
चेतना, दलित
चेतना
से
होती
हुई
राष्ट्रीय
चेतना
में
बदल
रही
है
यह
राष्ट्र
जिसके
इतिहास, राजनीति
और
समाज
में
स्त्री
है, वह
सिर्फ़
स्त्री
नहीं
है
बल्कि
दलित
स्त्री
है।
सूरजमुखी
को
यह
समाज
और
राष्ट्र दो जून
की
रोटी और कपड़ा
और
उसके
बच्चों
को
अच्छी
शिक्षा
नहीं
दे
पा
रहा
इसलिए
यह
आत्मकथा
सिर्फ़
लेखक
की
ही
आत्मकथा
नहीं
है
बल्कि
यह
आत्मकथा
पूरे
दलित
समाज
की
सभी
स्त्रियों
की
आत्मकथा
भी
है
इसलिए
ज़रूरी
है
कि
हम
इस
आत्मकथा
को
इस
विशिष्ट
दृष्टि
से
देखें।
‘मेरा
बचपन
मेरे
कंधों
पर’
नामक
आत्मकथा
में
श्यौराज
सिंह
बेचैन
दलित
चेतना
के
भीतर
एक
नए
स्त्री
विमर्श
और
स्त्री
दृष्टि
को
उद्घाटित
करते
हैं।
जैसा
कि
हमने
ऊपर
कहा
कि
दलित
विमर्श
और
स्त्री
विमर्श
को
हमने
हिंदी
साहित्य
में
अलग-
अलग
मानकर
विश्लेषित
करने
का
प्रयास
किया
है
जिसकी
वजह
से
हिंदी
साहित्य
में
यह
विमर्श
उस
रूप
में
नहीं
आ
पाया।
दरअसल
हिंदी
साहित्य
में
दलित
चेतना
यदि
उस
रूप
में
नहीं
आ
पाई
जिस
रूप
में
दलित
लेखकों
द्वारा
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
लाई
गई
तो
इसके
भीतर
दलित
चेतना
को
लेकर
चली
एक
लंबी
बहस
है
जिसकी
बुनियाद
में
स्वानुभूति
और
सहानुभूति
का
आधार
था, बहुत
सारे
लोग
या
लेखक
यह
मानकर
चल
रहे
थे
कि
साहित्य
में
इस
तरह
का
आरक्षण
नहीं
किया
जाना
चाहिए।
वहीं
दलित
लेखकों
का
मानना
था
कि
जिसने
यह
पीड़ा
और
दंश
और
शोषण
की
एक
लंबी
यात्राएँ
ना
झेली
हों
वह
उस
अनुभव
को
यथार्थ
रूप
में
उसके
सच्चे
अर्थों
में
बयां
नहीं
कर
सकता, क्योंकि
सहानुभूतिवश
लिखा
गया
कोई
भी
लेखन
भोगे
हुए
अनुभव
से, भोगे
हुए
यथार्थ
से
जुदा
होता
है।
दलित
आत्मकथाएँ
इस
रूप
में
स्वानुभूति
के
साथ
खड़ी
होती
हैं।
इसलिए
हिंदी
साहित्य
में
यदि
दलित
चेतना
अपनी
विशिष्टता
के
साथ
स्थापित
हो
सकी
तो
उसमें दलित आत्मकथाओं
की
अग्रणी
भूमिका
रही
है।
इन
आत्मकथाओं
ने
हिंदी
साहित्य
के
पाठकों
को
दलित
जीवन
की
पीड़ा
और
शोषण
की
एक
लंबी
दास्तान
से
अवगत
कराया
जिससे
अब
तक
हिंदी
साहित्य
लगभग
अछूता
था, अछूता
इस
संदर्भ
में
कि
हिंदी
साहित्य
में
जिन
कविताओं
या
कहानियों
में
दलित
संदर्भ
आ
सका
तो
उसमें
बहुत
हद
तक
सहानुभूति
या
यथार्थ
को
बाहर
से
देखने
का
नज़रिया
प्रदर्शित
होता
था
जैसे
प्रेमचंद
की
रचनाएँ
या
उससे
पहले
लिखी
गई
कुछ
कहानियों
में
या
कविताओं
में
दलित
विमर्श
की
जो
चेतना
दिखाई
देती
है
वह
ग़ैर
दलित
लेखकों
द्वारा
कही
या
लिखी
गई
थी, यह
एक
तरह
का
सहानुभूतिपरक
लेखन
था।
हम
इन
लेखकों
को
नकार
नहीं
रहे
हैं
हमारा
कहना
सिर्फ़
इतना
भर
है
कि
दलित
लेखन
दलित
चेतना
और
विमर्श
में
स्वानुभूति
का
यथार्थांकन
करता
है
और
बिना
किसी
लागलपेट
के
एक
नए
तरह
के
साहित्य
से
हिंदी
साहित्य
का
सिर्फ़
परिचय
ही
नहीं
करवाता
बल्कि
अपनी
जगह
भी
बनाता
है।
जिससे
अब
तक
हिंदी
साहित्य
का
परिचय
नहीं
था
और
स्वानुभूति
को
लेकर
लगभग
यही
बात
सिर्फ़
दलितों
को
लेकर
नहीं
बल्कि
दलित
स्त्री
को
लेकर
भी
है।
जैसा
एक
स्त्री
अपने
बारे
में
लिख
सकती
है
वैसा
संभवत
एक
पुरुष
स्त्री
के
संबंध
में
नहीं
लिख
सकता।
अपने
भोगे
अनुभव
को
जितने
बेहतर
तरीक़े
से
एक
स्त्री
बता
सकती
है, वह
संभवत
एक
पुरुष
नहीं।
शायद
इसीलिए
अनुभव
को
बताने
के
लिए
साठ
सत्तर
के
दशक
के
बाद ज़्यादातर स्त्री
लेखन
को
सामने
लाने
का
दायित्व
स्वयं
स्त्रियों
ने
संभाला।
और
हमें
हरी
बिंदी, अल्मा
कबूतरी, अन्या
से
अनन्या, आवां, डार
से
बिछूड़ी, ए
लड़की
जैसी
रचनाएँ
दिखाई
दीं।
हम
फिर
कहना
चाहेंगे
कि
हम
यह
बिल्कुल
नहीं
कह
रहे
कि
पुरुषों
को
स्त्रियों
पर
नहीं
लिखना
चाहिए
या
स्त्री
संबंधी
मुद्दों
को
उद्घाटित
नहीं
करना
चाहिए
हमारा
कहना
सिर्फ़
इतना
भर
है
कि
स्त्री
जितने
बेहतर
तरीके
से
अपने
अनुभव
को
लिख
सकती
है
वैसा
पुरुष
नहीं
लिख
सकता।
यही
कारण
है
कि
एक
दो
अपवादों
को
छोड़कर
जब
जब
दलितों
के
मुद्दे
ग़ैर-दलितों
द्वारा
उठाए
गए
उनमें
शोषण
की
पीड़ा
उस
रूप
में
नहीं
दिखाई
दे
सकी।
वहाँ
शिल्प
और
भाषा
अच्छी
दिख
सकती
है
कथ्य
का
जुगाड़
भी
ग़ैर-दलित
लेखक
कर
लेता
है।
पर
दलित
लेखन
में
जो
अनुभव
की
यथार्थ
पीड़ा
और
भोगा
हुआ
सच
चाहिए
वह
सिर्फ़
और
सिर्फ़
दलित
लेखन
में
ही
मिलता
है।
दलित
आत्मकथाएँ
यदि
हिंदी
साहित्य
में
अपनी
विशिष्टता
स्थापित
कर
सकीं
तो
उसका
आधार
यही
भोगा
हुआ
यथार्थ
रहा।
इसी
भोगे
हुए
यथार्थ
के
माध्यम
से
दलित
लेखक
अपनी
आपबीती
स्वयं
बयां
करने
लगे
और
एक
पूरा
विमर्श
दलित
चेतना
की
बुनियाद
पर
खड़ा
हुआ
इस
चेतना
ने
राजनीतिक
चेतना
भी
अर्जित
की
और
राजनीतिक
शक्ति
प्राप्त
की।
आज
अगर
कोई
भी
संदर्भ
हो
चाहे
राजनीतिक
संदर्भ
हो, चाहे
सामाजिक
या
साहित्यिक
संदर्भ
कोई
भी
संदर्भ
हो
उसमें
यदि
दलित
चेतना
को
छोड़ा
नहीं
जा
रहा
तो
उसका
बहुत
बड़ा
आधार
दलित
आत्मकथाओं
में
निहित
दलित
चेतना
रही
है।
यदि
दलित
लेखन
हमारे
सामने
ना
आता
तो
हम
इस
पीड़ा
को
बाहर
से
ही
देखते
या
अनुभव
करते, या
हम
उस
पर
सहानुभूति
दिखाते।
स्वानुभूतिपरक
लेखन
दलित
चेतना
की
जान
है
और
यह
स्वानुभूति
दलित
साहित्य
में
यदि
सर्वाधिक
किसी
विधा
में
दिखी
है
तो
वह
दलित
आत्मकथाएँ
ही
हैं।
इन
आत्मकथाओं
ने
दलित
चेतना
की
पीड़ा, शोषण
और
दलितों
के
जीवन
की
सामाजिक
विसंगतियाँ, कमजोरियां, ताक़त
सब
उजागर
कर
दी
हैं
और
वह
भी
किसी
तरह
की
भाषा
और
शिल्प
के
तामझाम
के
बिना।
मुझे
लगता
है
यह
दलित
साहित्य
की
बहुत
बड़ी
ताक़त
है
जैसा
कि
हमने
कहा
दलित
चेतना
के
बग़ैर
स्त्री
चेतना
संभव
नहीं
यानी
स्त्री
विमर्श
दलित
विमर्श
का
आधार
है
दलितों
की
चेतना
स्त्री
चेतना
से
जुदा
नहीं
है
इसलिए
दलित
आत्मकथाओं
को
देखते
हुए
हमारा
दायित्व
है
कि
हम
इनके
भीतर
मौजूद
ऐसे
स्त्री
प्रश्नों
की
भी
पड़ताल
करें
जो
अक्सर
अनछुए, अनदेखे
रह
जाते
हैं।
ऐसा
करना
इसलिए
भी
ज़रूरी
है
ताकि
यह
जाना
जा
सके
कि
जिस
चेतना
को
हम
स्वानुभूति
की
चेतना
कह
रहे
हैं
वह
अपनी
नींव
के
रूप
में
किस
तरह
अपना
आधार
तलाशती
है।
श्यौराज
सिंह
बेचैन
की
आत्मकथा
मेरा
बचपन
मेरे
कंधों
पर
केवल
लेखक
का
जीवन
संघर्ष
और
पीड़ा
ही
नहीं
दिखाती
बल्कि
लेखक
के
संघर्ष
के
साथ-साथ
औरत
के
समानांतर
उसकी
माँ
सूरजमुखी
का
संघर्ष
भी
दिखाती
है
सूरजमुखी
के
संघर्ष
को
नज़रअंदाज़
करके
आप
लेखक
की
पीड़ा
और
एक
दलित
स्त्री
के
संघर्ष
को
नहीं
समझ
सकते
यदि
यह
संघर्ष
चेतना
के
रूप
में
तब्दील
हो
सका
तो
इसमें
जितनी
भूमिका
लेखक
की
और
उसकी
पीड़ा
की
थी
उतनी
ही
उसकी
माँ
की
पीड़ा
की
भी, इसलिए
हम
चाहेंगे
कि
इस
पूरी
आत्मकथा
को
लेखक
के
दृष्टिकोण
के
अलावा
लेखक
की
माँ
के
दृष्टिकोण
से
भी
पढ़ा
जाए
क्योंकि
यही
हमें
वे
बिंदु
मिलेंगे
जिसकी
चर्चा
और
विश्लेषण
हम
करना
चाहते
हैं।
दलित
पुरुषों
के
भीतर
की
पितृसत्ता
का
चित्रांकन
- ‘मेरा बचपन मेरे
कंधों
पर’
मे
लेखक
श्यौराज
सिंह
बेचैन
की
माँ
सूरजमुखी
भी
उन्हीं
औरतों
में
से
एक
है
जिन्हें
अपनी
स्त्री
और
दलित
जाति
का
होने
के
कारण
अनेक
बार
समय
की
मार
झेलनी
पड़ी
लेकिन
इस
आत्मकथा
का
गहन
अध्ययन
करने
पर
हम
देखते
हैं
कि
सूरजमुखी
के
भीतर
एक
विद्रोही
स्त्री
का
स्वर
भी
है
जो
अपने
स्त्री
और
दलित
होने
के
बावजूद
भी
विभिन्न
परिस्थितियों
में
न
केवल
निर्णय
लेने
की
ताक़त
रखती
है
बल्कि
उन
पर
अमल
करना
भी
जानती
है
वह
सही
और
ग़लत
का
फैसला
लेते
हुए
ग़लत
का
पुरज़ोर
विरोध
करती
है
जबकि
इसके
लिए
उसे
अनेक
परेशानी
भी
भुगतनी पड़ती है।
पति
राधेश्याम
की
मृत्यु
के
बाद
पहले
रामलाल
और
फिर
भिकारी
से
उसका
विवाह
किया
गया
भिकारी
स्वभाव
से
ग़ुस्से
वाला
व्यक्ति
था।
वह
अपने
बच्चों
और
सूरजमुखी
के
बच्चों
में
सौतेलेपन
का
व्यवहार
करता
था।
सूरजमुखी
कई
बार
अपने
बच्चों
को
रोटी
मिलने
के
कारण
उसके
साथ
रहने
के
लिए
विवश
हुई
पर
इतना
होने
के
बावजूद
भी
उसे
अपना
स्वाभिमान
प्यारा
था, भिकारी
और
उसके
देवर
डालचंद
के
खूब
मारने
पीटने
के
बाद
भी
उसने
पिटने
के
डर
से
झूठ
का
सहारा
नहीं
लिया।
भिकारी
एक
तरफ़
हर
रविवार
को
गंगा
स्नान
करने
जाता
तो
दूसरी
तरफ़
सूरजमुखी
को
मारता
पीटता
तथा
उसके
और
अपने
बच्चों
के
बीच
भेदभाव
करता
उसके
व्यवहार
और
कर्मकांड
में
विरोधाभास
देखते
हुए
सूरजमुखी
कहती
है
कि “भिकरिया बन्दे तू
सुरग
चाहतु
है
तो
अपने
करम
संभारि।
हर
इतवार
गंगा
में
डुबकी
मारन
तें तेरी बगुला
भगति
ते
तेरे
मन
के
पाप
नॉय
धुल
जागें।”9
(पृष्ठ 50) यहां
एक
स्त्री
का
विरोधी
स्वर
दिखाई
देता
है
भिकारी
की
पितृसत्ता
और
स्त्री
विरोधी
प्रवृत्ति
भी
दिखती
है।
जो
भिकारी
जैसे
पाश्विक
प्रवृत्ति
रखने
वाले
व्यक्ति
से
भी
ग़लत
और
सही
कहने
में
घबराती
नहीं
है
बल्कि
दो
टूक
बातें
सीधे
और
साफ़
लफ्जो
में
कह
देती
है।
समाज
में
अपने
को
श्रेष्ठ
समझने
दिखलाने
की
होड़
ने
एक
गहरी
खाई
खड़ी
कर
दी
है।
अमीर
ग़रीब
से
अपने
को
श्रेष्ठ
मानता
है
और
शिक्षित
व्यक्ति, अशिक्षित
व्यक्ति
से
अपने
को
ऊपर
मानता
है।
सवर्ण
दलितों
से
,
और
एक दलित मर्द
एक
दलित
स्त्री
से
अपने
को
श्रेष्ठ
और
योग्य
मानता
है।
इसके
अलावा
यह
परंपराएं
और
अंधविश्वास
भी
व्यक्ति
को
आगे
बढ़ने
से
रोकते
हैं।
आदर्श
पत्नी, कुशल
ग्रहणी
आदि
पदों
से
समाज, स्त्री
को
सम्मानित
कर
उसे
जंजीरों
में
जकड़े
रखना
चाहता
है
'रुक्मणी
और
उसका
पति
मुन्नी
चमार
रात
-दिन लड़ते- झगड़ते
रहते
थे...
स्त्री, पुरुष
पर
हाथ
नहीं
उठा
सकती
थी
पति
से
पिटना
मर्यादा
थी
(पृष्ठ 56) इसी
तरह
भिकारी
सूरजमुखी
का
भरण-पोषण
करने
वाला
होने
के
कारण
उसको
कभी
भी
पीटने का अधिकार
रखता
था' लेखक
ने
अपनी
पीड़ा
कुछ
यूँ
बयां
की
है
कि
‘भिकारीलाल और
अम्मा
में
अक्सर
झगड़ा
होता
था...
भरणपोषण
कर्ता
होने, घर
का
मालिक
और
पुरुष
होने
के
नाते
भिकारी
माँ
को
तिहरे
अधिकार
से
मारता
था'(पृष्ठ
56) इन कथनों से
साबित
होता
है
कि
पितृसत्ता
जाति, धर्म
या
संप्रदाय
नहीं
देखती।
दलित
पुरुष
भी
अंततः
पुरुष
ही
है
और
दलित
स्त्री
भी
अंततः
स्त्री
है।
भिकारी
का
सूरजमुखी
को
तिहरे
अधिकार
से
मारना
इसी
पितृसत्ता
का
दंभ
है
जो
भिकारी
जैसे
पुरुष
(चाहे किसी भी
जाति
या
धर्म
में
हों)
में
होता
है।
आत्मकथा
के
एक
अन्य
प्रसंग
को
देखें,
डालचंद
को
गुस्सा
केवल
इस
बात
का
नहीं
है
कि
उसका
एक
रूपया
चोरी
हुआ
है
'यह
चोरी
की
सजा
नहीं
थी, बल्कि
डल्ला
के
कारनामों
से
माँ
के
निरंतर
विरोध, पुरुष
के
अहं
का
शारीरिक
बल
प्रदर्शक
प्रतिवाद
था(पृष्ठ
63) एक पुरुष यह
कैसे
बर्दाश्त
कर
सकता
है
कि
एक
स्त्री
उसके
कामों
का
विरोध
करे
और
वह
भी
तब
जब
वह
अपने
बच्चों
सहित
खुद
उस
पर
आश्रित
है।
असल
में
पुरुषों
की
मानसिकता
स्त्रियों
के
विरोध
को
सहन
नहीं
कर
पाती।
कर
भी
कैसे
सकती
है? जब
पुरुष
का
बचपन
से
लेकर
जवानी
तक
सारा
पोषण
इसी
मानसिकता
के
साथ
हुआ
हो
कि
वह
औरत
से
श्रेष्ठ
है, उन्हें
उनकी
पौरुषता
की
श्रेष्ठता
का
ज्ञान
बचपन
से
ही
दिया
जाता
है
फिर
चाहे
वह
एक
दलित
परिवार
में
जन्मा
पुरुष
हो
या
सामान्य
वर्ग
का
पुरुष।
जैसा
कुमकुम
राय
मनुस्मृति
का
हवाला
देते
हुए
लिखती
हैं
कि
‘पत्नीत्व की
विशेषताओं
को
मनुस्मृति
में
बड़े
व्यवस्थित
ढंग
से
रखा
गया
है।
पत्नी
से
आशा
की
जाती
थी
कि
वह
किफायत
से
काम
ले, घर
का
काम
खुशी-खुशी
करती
रहे।..
जीवन
और
मृत्यु
दोनों
स्थितियों
में
अपने
पति
की
आज्ञा
का
पालन
करें
भले
ही
उसके
पति
में
संबंधित
गुणों
का
अभाव
ही
हो
और
उसकी
मृत्यु
के
बाद
किसी
भी
पुरुष
से
यौन
संबंध
ना
बनाएं
ब्रह्मचर्य
का
पालन
करे।’10
जबकि
इन्हीं
संदर्भों
में
एक
पुरुष
के
लिए
बड़ी
सुविधाजनक
स्थिति
रख
दी
गई
है।
सूरजमुखी
पहले
अपने
पति
राधेश्याम पर निर्भर
थी
उसके
बाद
रामलाल
और
अंत
में
भिकारी
पर।
सूरजमुखी
के
पिता
उसे
अपने
पास
ना
रख
कर
किसी
अन्य
पुरुष
पर
उसकी
और
उसके
बच्चों
की
जिम्मेदारी
डाल
देना
चाहते
थे।
हमारे
समाज
में
यह
मानसिकता
आज
तक
बनी
हुई
है
कि
एक
औरत
का
जीवन
पुरुष
के
सहारे
के
बिना
नहीं
चल
सकता।
प्रभा
तिरमरे
इसी
वजह
से
दलित
स्त्रियों
की
स्थिति
को
ग़ैर
दलित
स्त्रियों
की
स्थिति
से
ज़्यादा
भयावह
मानती
हैं।11
‘मेरा
बचपन
मेरे
कंधों
पर’
नामक
आत्मकथा
का
आरंभ
लेखक
की
पाँच
छः
वर्ष
की
उम्र
से
होता
है
यानी
लेखक
अभी
बच्चा
है
इस
समय
सारा
दारोमदार
सारे
संघर्ष
और
शोषण
को
अकेले
उसकी
माँ
सूरजमुखी
झेल
रही
है
लेखक
ने
अपनी
आत्मकथा
में
बीच-बीच
में
काव्य
पंक्तियों
और
अपनी
माँ
के
अनुभव
के
हवाले
से
इस
शोषण
की
दास्तान
को
बयां
करने
की
कोशिश
की
है।
सूरजमुखी
के
जीवन
के
अंधेरों
को
दिखाती
कुछ
पंक्तियाँ
लेखक
ने
अपनी
आत्मकथा
‘मेरा बचपन मेरे
कंधों
पर’
में
उद्घाटित
की
हैं
‘टूटी डाल झरीं
सब
पत्तियाँ
...’ यह पंक्तियाँ
यह
बताने
के
लिए
काफी
हैं
कि
लेखक
का
लक्ष्य
इस
आत्मकथा
के
माध्यम
से
केवल
अपना
अनुभव
साझा
करना
नहीं
है
अपितु
लेखक
एक
साझी
पीड़ा
और
इस
पीड़ा
की
दास्तान
को
भी
साझा
करना
चाहता
है।
इस
आत्मकथा
को
यदि
दलित
आत्मकथाओं
में
मील
का
पत्थर
माना
जा
रहा
है
तो
इसमें
उस
विमर्श
की
भी
महत्त्वपूर्ण
भूमिका
है।
जो
दलित
और
स्त्री
चेतना
के
समन्वय
और
अनुभव
की
विद्रूपता
से
उपजा
है
निश्चित
ही
इस
आत्मकथा
ने
दलित
साहित्यकारों
को
अपनी
बाहें
फैलाने
का
अपनी
लेखनी
में
एक
नई
धार
को
विकसित
करने
का
अवसर
प्रदान
किया
है
इसके
लिए
लेखक
साधुवाद
के
हक़दार
हैं
पर
उनका
साधुवाद
मात्र
इसलिए
नहीं
किया
जाना
चाहिए
कि
उन्होंने
दलित
आत्मकथा
व
दलित
साहित्यकारों
में
स्वाभिमान
का
एक
नया
जज़्बा
पैदा
किया
बल्कि
उन्होंने
अपनी
इस
आत्मकथा
के
माध्यम
से
दलित
पुरुषों
के
भीतर
की
पितृसत्ता
को
भी
उजागर
किया।
दलित
स्त्री
जब
अपने
पुरुष
से
पिटती
है
और
उसका
प्रतिकार
नहीं
करती, क्योंकि
पितृसत्ता
का
झाँसा
है
कि
पिटना
दलित
स्त्री
के
लिए
मर्यादा
है, पीटना
दलित
पुरुष
के
लिए
अधिकार।
रुकमणि
की
पिटाई
को
लेखक
ने
अपनी
माँ
के
पिटने
की
पीड़ादायक
स्मृति
के
रूप
में
याद
किया
है
और
इस
प्रसंग
को अपनी आत्मकथा
में
वर्णन
किया
कि
“रुकमणि और उसका
पति
मुन्नी
चमार
रात
दिन
लड़ते
झगड़ते
रहते
थे
वे
अपने
झगड़े
गाँव
बस्ती
को
ज़्यादा
सुनाते
थे
स्त्री
पुरुष
पर
हाथ
नहीं
उठा
सकती
थी
पति
से
पिटना
मर्यादा
थी।
रुकमणि
पिटने
के
बाद
बुदबुदाती
हुई
गली
से
गुज़र
जाती
तो
मुझे
वह
अम्मा
का
ही
प्रतिरूप
लगती।”12
(पृष्ठ 54) साथ
ही
इस
आत्मकथा
का
महत्त्व
इसलिए
भी
है
कि
लेखक
अपनी
अपनी
माँ
सूरजमुखी
के
अंधेरे
में
परिणत
होते
जाने
की
मुसलसल
दास्तां
भी
अपनी
इस
आत्मकथा
में
बयां
करता
है।
ध्यातव्य
हो
कि
उनकी
आत्मकथा
पर
अब
तक
जितने
भी
समीक्षात्मक
लेख
लिखे
गए
हैं
उन
लेखों
में
लेखक
के
संघर्ष
और
पीड़ा
का
तो
विश्लेषण
किया
गया
है
लेकिन
एक
पक्ष
को
छोड़
दिया
गया
है
जिसे
संभवत
पुस्तक
के
लेखक
दिखाना
चाहते
थे।
न
जाने
कैसे
वह
पक्ष
उपेक्षित
रह
गया
हम
कैसे
भूल
गए
कि
एक
लेखक
का
संघर्ष
उसकी
माँ
के
संघर्ष
से
जुदा
या
बड़ा
नहीं
होता।
मुझे
लगता
है
कि
इस
आत्मकथा
का
स्त्री
पक्ष
सबसे
मज़बूत
और
जानदार
है
और
जैसा
मैंने
अपने
सम्यक
भारत
के
श्यौराज
सिंह
बेचैन
विशेषांक13
वाले
अपने
लेख
‘सूरजमुखी अंधेरे
में’
में
लिखा
है
कि
‘मेरा बचपन मेरे
कंधों
पर’
में
सिर्फ़
दलित
चेतना
का
विश्लेषण
कर
स्त्री
चेतना
को
हटा
देना
या
बिसरा
देना, बिल्कुल
ऐसा
है
जैसे
हम
महाभारत
या
रामायण
में
से
द्रौपदी
या
सीता
आदि
स्त्री
चरित्रों
की
उपेक्षा
कर
केवल
मात्र
एक
पक्ष
नायकों
के
माध्यम
से
इन
दोनों
महाकाव्यों
का
विश्लेषण
करें।
यह
आत्मकथा
दलित
बालक
के
कठोर
श्रम
से
शुरू
ज़रूर
होती
है
लेकिन
जैसे-जैसे
यह
बालक
अपनी
कठोर
श्रम
और
कर्मठता
के
साथ
मुसीबतों
से
लोहा
लेता
है
और
अपने
बाल
अनुभव
की
हत्या
स्वयं
करता
हुआ
आगे
बढ़ता
है।
यह
आत्मकथा
उसका
बिना
किसी
लागलपेट
के
सीधा
बयान
दर्ज
करती
है
बयान
इन
अर्थों
में
कि
यह
आत्मकथा
होने
के
बावजूद
अपने
अनुभव
को
साझा
करते
हुए
अपने
अनुभव
की
ख़बर
लेते
हुए
उसकी
रिपोर्ट
दर्ज
करती
है
और
साथ
ही
एक
बालक
की
मुसीबतों
के
साथ
उसकी
माँ
सूरजमुखी
के
लगातार
भयावह
अंधेरे
में
फँसते
चले
जाने
का
यथार्थ
अंकन
भी
करती
है।
इस
आत्मकथा
को
पढ़ते
हुए
आपको
दो
तरह
के
अनुभव
मिलते
हैं
जिसमें