शोध आलेख : आध्यात्मिक विकास की शिक्षा : डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का दृष्टिकोण एवं प्रासंगिकता / डॉ. प्रशान्त कुमार

आध्यात्मिक विकास की शिक्षा : डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का दृष्टिकोण एवं प्रासंगिकता
- डॉ. प्रशान्त कुमार


शोध सार :


द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्.....परा चैवापरा च।
तत्रापरा ऋग्वेदों युजुर्वेद.....अथ परा यथा तदक्षरमधिगम्यते।।
 
(मुण्डकोपनिषद् 1.1.5)

(भावार्थ - ‘ऐहिक सुख शांति एवं अभ्युदयप्रद समस्त विद्या अपरा है, पर परिपूर्ण अक्षर तत्व परमात्मा की उपलब्धि को कराने वाली सर्वोत्तमा विद्या परा नाम से आधृत है।’)

        भारतीय महर्षियों की विचारधारा में नियंत्रित भौतिक, विज्ञान, कला, कौशल आदि का उन्नतिपूर्वक आध्यात्मिक उन्नयन करते हुए परमात्मतत्व की उपलब्धि जिस शिक्षा के द्वारा हो, वही शिक्षा सर्वांगपूर्ण आदर्श शिक्षा है। प्राचीन शिक्षा पद्धति के अपने उच्चत्तर लक्ष्य थे। प्राचीन शिक्षा पद्धति वस्तुओं व तथ्यों के मूल, उनके स्त्रोतों व आधार तक पहुँचना चाहती थी। उस शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य बिखरे विषयों पर टुकड़ों में सूचनाऐं देना नहीं था अपितु ऐसे मन का निर्माण करना था जो स्वयं सारी सूचनाओं को एकत्र, व्यवस्थित व विश्लेषित करें। दुनिया में समय-समय पर अनेक ऋषियों ने जन्म लिया और अपना पूरा जीवन मानवता को समर्पित कर दिया। भारत भूमि भी ऐसे कई ऋषियों और महान व्यक्तित्वों की गवाह रही हैं। आधुनिक समय में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ऐसे ही एक ऋषि थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन विज्ञान की सेवा में लगाकर भारत को सामरिक शक्ति के शिखर तक पहुंचाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। ये उनकी दूरदर्शिता और अथक प्रयासों का ही परिणाम था की उन्होंने स्पेस रिसर्च प्रोग्राम के माध्यम से ऐसा मजबूत आधार स्तम्भ खडा किया जिसके बलबूते हमने हाल ही में मिशन चंद्रयान-3 की सफलता का राष्ट्रव्यापी उत्सव मनाया है। किन्तु भौतिकी, विज्ञान, तकनीकी  और सामरिक शक्तियों के माध्यम से राष्ट्र की सेवा में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देने वाले और ‘मिसाइल मैन’ के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति के जीवन का एक पहलू और भी था जो परा विद्या (अध्यात्म शिक्षा) से संचालित था, बल्कि ये कहना ज्यादा उचित होगा की उनकी अध्यात्मिक शिक्षा ने ही उन्हें राष्ट्र के सबसे बड़े विज्ञान संस्था के सबसे उच्च पद पर आसीन रहने और राष्ट्रपति कार्यकाल के बावजूद एक सादगी भरा, शान्ति का अग्रदूत, ऋषि के समान अपरिग्रही व्यक्तित्व बनाए रखने में मदद की। विज्ञान और मानवजाति के मिलने पर विवादित मुद्दे उठते हैं, अतः उनका समाधान अध्यात्म में ढूंढने की आवश्यकता है। प्रस्तुत शोध अध्ययन का मुख्य उद्देश्य डॉ. कलाम द्वारा बताए गए शिक्षा एवं आध्यात्मिक विकास के पारस्परिक संबंध एवं उसकी प्रासंगिकता का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना हैं।

बीज शब्द :  डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, शिक्षा, अध्यात्म, विज्ञान, विकास।

मूल आलेख :

प्रस्तावना - रामेश्वरम् से राष्ट्रपति भवन की महागाथा : एक अद्भुत मानवतावादी चिंतक, ऊर्जावान लेखक, संवेदनशील कवि एवं प्रभावी शिक्षक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी असाधारण मानसिक क्षमता, कार्य के प्रति महान समर्पण व ईमानदारी, तीव्र लगन तथा प्रगतिशील चिंतन के बल पर भारत को उन्नत देशों के समूह में अग्रणीय स्थान पर पहुँचाने के लिए प्रक्षेपण यानों तथा मिसाइल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपना सम्पूर्ण जीवन गुजार दिया। अपनी असाधारण प्रतिभा, संकल्प शक्ति, कठोर परिश्रम एवं प्रबन्ध कौशल से जीवन में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल करते हुए डॉ. कलाम ने स्वयं को पूरी तरह देश के विकास हेतु समर्पित कर दिया। वे तकनीकी को भारत के जनसाधारण तक पहुँचाने की हमेशा वकालत करते रहे तथा शैक्षिक विचारों का छात्रों के साथ आदान-प्रदान भी करते रहे। अपने इन्हीं विचारों एवं कार्यों के कारण वे हमेशा बच्चों एवं युवाओं के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय रहे। विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा इन्हें अनेक बार डॉक्टरेट की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। 25 जुलाई 2002 को डॉ. कलाम ने भारत के राष्ट्रपति के रूप मे शपथ ली। डॉ. कलाम का अहम् शून्य सादगीपूर्ण जीवन उनकी माता की देन था। अध्यात्म में आस्था और धर्मनिरपेक्षता का गुण उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला। इस शुरूआती मौलिक प्रशिक्षण ने ही जीवन भर उनका मार्गदर्शन किया। डॉ. कलाम का संपूर्ण जीवन अध्यात्मिक-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भरपूर तथा अथक परिश्रम एवं नैतिक मूल्यों की सार्थकता की मिसाल था।

शोध अध्ययन का उद्देश्य : डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की शिक्षा एवं आध्यात्मिक दर्शन का निम्न संदर्भों में विश्लेषणात्मक अध्ययन करना -

  1. शिक्षा द्वारा आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता।
  2. शिक्षा एवं आध्यात्मिक विकास का पारस्परिक संबंध।
  3. शिक्षा द्वारा आध्यात्मिक विकास की वर्तमान प्रासंगिकता।

शोध विधि : संबंधित शोध कार्य डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के शिक्षा एवं अध्यात्मिक दर्शन के विश्लेषणात्मक अध्ययन से सम्बन्धित हैं। अतः शोधार्थी द्वारा शोध अध्ययन में ‘दार्शनिक एवं  विषयवस्तु विश्लेषण विधि’ का प्रयोग किया गया।

न्यादर्श एवं प्रदत्तों का एकत्रीकरण : न्यादर्श के रूप में शोधार्थी द्वारा डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के द्वारा लिखी गई विभिन्न पुस्तकों, लेखों, उनके व्याख्यानों, साक्षात्कारों आदि में से शिक्षा एवं अध्यात्मिकता से संबंधित विचारों का चयन कर उनका गहन अध्ययन एवं विश्लेषण किया गया।

शोध का परिसीमन : प्रस्तुत शोध अध्ययन में डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के केवल शिक्षा एवं अध्यात्म के विभिन्न पक्षों से संबंधित दृष्टिकोण एवं उनकी वर्तमान प्रासंगिकता का अध्ययन किया गया हैं।

प्रदत्तों का प्रस्तुतिकरण, विश्लेषण एंव व्याख्या : शिक्षा एवं अध्यात्म के विभिन्न पक्षों से संबधित डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का दृष्टिकोण एवं उनकी वर्तमान प्रासंगिकता का विश्लेषण निम्नानुसार है -

1. डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के अनुसार अध्यात्म की वास्तविक अवधारणा - सामान्यतः ईश्वर या भक्ति विषयक चर्चा को ‘अध्यात्म’ कहा जाता हैं। किन्तु अध्यात्म केवल पारलौकिक विश्लेषण या दर्शन नहीं हैं। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ हैं - ‘स्वयं का अध्ययन’ अर्थात ‘आत्म अध्ययन’। अध्यात्म शब्द ‘आत्म’ में ‘अधि’ उपसर्ग लगने से बना है। आत्म को ऊपर उठाना या ‘आत्मोन्नति’ ही इसका अर्थ है। जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से देखता है और यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर न तो आत्मा, न ही परमात्मा कभी भी विनष्ट होता है। वही वास्तव में आत्मोन्नत की चरम अवस्था को प्राप्त होता है। अध्यात्म वह है, जिसमें मनुष्य स्वयं को खोजता है अर्थात् वास्तविक रूप से आत्मा से साक्षात्कार करते हुए परमात्मा प्राप्ति की अग्रसरता होती है। अभौतिक ज्ञान की प्राप्ति अध्यात्म के माध्यम से ही सम्भव है। आध्यात्मिकता के प्रति भारतीयों की पकड़ अति प्राचीन है। यहाँ की तपस्वनी भूमि पर अनेकों ऋषि मुनियों ने भारत को अध्यात्म धरा का दर्जा दिलवाया है। सत्य की खोज में ही आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित होता है। कहते है की ‘जीव-जगत के सबंध का अध्ययन दर्शन कहलाता है और जब ये दर्शन अंतर्मुखी हो जाए तो अध्यात्म कहलाता है’। डॉ. कलाम आध्यात्मिकता को केवल पूजा-प्रार्थना स्थलों तक ही सीमित नहीं मानते थे बल्कि ‘दैनिक जीवन में हम किस तरह आध्यात्मिक दृष्टिकोण शामिल कर सकते हैं?’ इस हेतु कलाम महात्मा गांधी का उदाहरण देते हुए  बताते कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को आम लोगों की आध्यात्मिक खोज बना दिया और किस प्रकार उन्होंने एक शक्तिशाली साम्राज्य के खिलाफ अहिंसक अभियान छेड़ा। कलाम के अनुसार - ‘करूणा से परिपूर्ण और आस्था में अटल होना’ यें दोनो ही बातें उच्च चेतना की पहचान है। उच्च चेतना तक पहुँचना ही मानव विकास का एकमात्र उद्देश्य है और अहिंसा उस उच्च चेतना तक पहुँचने का एकमात्र साधन है।

2. शिक्षा द्वारा आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता - सितंबर 2003 में सूरत (गुजरात) में आचार्य महाप्रज्ञ के आश्रम में, जहाँ हिन्दू, बौद्ध, सिख, ईसाई व इस्लाम आदि धर्मो के पन्द्रह धर्मगुरू भी शामिल थे, के साथ मिलकर डॉ. कलाम ने ‘सूरत आध्यात्मिक घोषणा पत्र’ जारी किया। डॉ. कलाम के अनुसार- धार्मिक गुरू इस बात से चिंतित थे कि अधिकतर विद्यालयों में, विशेषकर जो छोटे शहरों में हैं, बच्चों को पूछने या जानने की स्वतंत्रता देकर सशक्तिकरण करने के बजाए केवल सिद्धान्तों और घिसी-पिटी चीजें पढ़ाकर छात्रों को वश में रखा जाता हैं। आत्मा के अंकुश को पनपाने के बजाय कोशिश यह की जा रही हैं कि विद्यार्थी के जीवन में शिक्षा से पड़ने वाले वांछित प्रभाव को जबरदस्ती थोप दिया जाए।"

        यह घोषणा पत्र भारतीय युवाओं के मन को अध्यात्म द्वारा उनकी जिज्ञासाओं को दबाने से बचाने का एक प्रयास था। डॉ. कलाम का मानना था कि भारत जैसी आध्यात्मिक विविधताओं वाले देश में सबसे पहले विद्यार्थियों को आध्यात्मिक परम्पराओं पर उनके विचार, विश्वास और व्यवहार को आँकना सिखाना चाहिए। यदि हम विद्यार्थी के औपचारिक शिक्षा पूरी करने तक उन्हें एक आध्यात्मिक परम्पराओं के ढ़ांचे में ढाल सके तो यह बहुत पवित्र कार्य होगा। अध्यात्म को ऐसा परिदृश्य जरूर बनाना चाहिए जो वर्तमान में, उससे पहले और आने वाले समय के बारे मे समझ सके। कलाम का मानना था कि इस सोच को सुनिश्चित करने में शिक्षकों व शिक्षा की महत्वपूर्ण भागीदारी होनी चाहिए। शिक्षा के एक अभिन्न अंग के रूप में प्रत्येक सप्ताह स्कूल में एक घंटे की एक कक्षा आयोजित की जाए, जिसमें हम आदर्श व्यक्तित्व, अतीत एवं वर्तमान के बारे में और एक अच्छे व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक गुणों पर चर्चा करें।

3. शिक्षा का आध्यात्मिक स्वरूप - शिक्षा का अर्थ हैं, व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन। अतः डॉ. कलाम शिक्षा के आध्यात्मिक स्वरूप को समझाते हुए तीन तरह की आध्यात्मिक गतिविधियाँ महत्वपूर्ण मानते थे -

  1. पवित्र ग्रन्थों का अध्ययन
  2. प्रार्थना और चिंतन का अभ्यास
  3. समाज के जीवन का इतिहास

      उनके अनुसार सामान्यतः बालक के लिए सीखने की असली अवधि पांच से लेकर सत्रह वर्ष तक होती है। इस अवधि के दौरान छात्र लगभग 25000 घण्टे विद्यालय में रहते हैं। इसी उम्र में बालक के भटकाव का भी डर रहता है। जहाँ एक और घर में स्नेह और ममता का माहौल होता है, वहीं दूसरी ओर दिन के अधिकांश समय बालक विद्यालय में रहता है, जहाँ उसे कई प्रकार का व्यवहार अनुभव करने को मिलता है। इस प्रकार बच्चों के लिए विद्यालय का समय सबसे अधिक निर्माण का समय होता है। अतएव विद्यालय का माहौल सबसे खूबसूरत होना चाहिए। कलाम का मानना था की बच्चों में नैतिकता की भावना का विकास करने हेतु विद्यालय में सभ्यता की धरोहर से जुड़ी नैतिक कहानियाँ भी बतायी जानी चाहिए ताकि बालक उनका अनुसरण करते हुए नैतिक मूल्यों को अपने व्यवहार में  लाये। विद्यालय में दी गई यह नैतिक शिक्षा की कक्षा युवकों के मन को राष्ट्र प्रेम के लिए उदार बनायेगी। इसके साथ ही वे मानव से प्रेम करना सीखेंगे और उनका मन उच्च नैतिक भावों से भरा रहेगा। अतः विद्यालय में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य किया जाना चाहिए। क्योंकि इसके अभाव में विद्यालय जिन युवक-युवतियों को समाज में भेजते हैं, वे सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा नहीं कर सकते। भारतीय संस्कृति में नैतिक शिक्षा संकल्प की शिक्षा है, इससे जीवन का लक्ष्य स्पष्ट होता है। जीवन का लक्ष्य स्पष्ट किये बिना जीवन अर्थपूर्ण नहीं हो सकता। नैतिकता का यह बीज विद्यालय द्वारा प्रत्येक ह्रदय रूपी जमीन पर उगाया जाना चाहिए ताकि नैतिक गुणों व मूल्यों से युक्त राष्ट्र का निर्माण हो, क्योंकि किसी भी देश की महानता उसकी भौतिक सभ्यता से नहीं बल्कि उसकी नैतिक और आध्यात्मिक प्रगति से जानी जाती है, भले ही वहाँ शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने के कितने भी प्रयास किए जा रहे हों।

4. शिक्षा : आध्यात्मिक उत्थान की प्रक्रिया - डॉ. कलाम शिक्षा को एक ऐसी प्रणाली मानते थे, जिसके घटक एक दूसरे की मदद से कार्य को पूरा करते हैं। उनके अनुसार हम चार अलग-अलग घटक चिन्हित कर सकते हैं, जो मिलकर एक अंर्तसबन्धित वस्तु बनाते हैं जो अपने आप में पूर्ण होती है। यह पूर्ण वस्तु घटकों के जोड़ से अधिक होती है। इन चार अंर्तसबन्धित घटकों के बिना किसी भी प्रकार की शिक्षा एक विद्यार्थी का मार्गदर्शन नहीं कर सकती। शिक्षा को संपूर्ण रूप से परिभाषित करने वाले इन घटकों की व्याख्या करते हुए कलाम कहते हैं- पहली अवस्था में व्यावहारिक, ठोस व सुनिश्चित घटक आते हैं। दूसरी अवस्था में हैं- पद्धति व तरीके। अधिकतर लोग इन दो अवस्थाओं को तो समझ ही जाते हैं। तीसरी अवस्था में एक व्यक्ति सामान्य अनुभव के वैचारिक धरातल से होता हुआ एक ऐसी अवचेतन समझ की स्थिति में पहुंचता है, जो एक विकसित आत्मा के प्राकृतिक उत्थान का सूचक हैं। अंतिम और चौथी अवस्था दार्शनिक व निराकार आयाम के अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। हर संस्कृति में इन चार अवस्थाओं को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वास्तव में डॉ. कलाम के अनुसार संपूर्ण जीवन की शिक्षा प्रक्रिया मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान की प्रक्रिया है। कलाम इन चारों घटकों को विभिन्न संस्कृतियो में चार अलग-अलग नामों से जानी जाने वाली किंतु वास्तव में एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में इसका वर्णन करते हैं। कलाम के अनुसार ये चार अवस्थाएँ तैयारी, उत्पादकता, सेवा तथा सेवानिवृत्ति के लिए हैं। इन चार ‘आश्रमों’ या ‘अवस्थाओं’ की समझ से विकास का संस्थानीकरण हो जाता है, जो अधिक सार्थक एवं संतुष्टिदायक मूल्यों की  ओर ले जाता है। ‘हिन्दू समाज’ में इन चार अवस्थाओं को ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास के नाम से जानते हैं। ‘बौद्ध धर्म’ में  जागरण (ज्ञान बौद्ध) की ये चार अवस्थाएँ सोतापना, सकादगामी, अनागामी तथा अराहंत के नाम से जानी जाती हैं। ‘इस्लामिक परंपरा’ में इन्हीं चार अवस्थाओं को शरीअत, तरीकत, मरीफत तथा हकीकत के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार पश्चिमी विचारधारा या ‘ईसाई धर्म’ में भी मानव के आध्यात्मिक विकास के चार चरण होते हैं। पहली अवस्था उपद्रवी, अव्यवस्थित व लापरवाही की अवस्था है तो दूसरी अवस्था में व्यक्ति आंख बंद करके विश्वास करता है। अधिकतर धार्मिक लोग इस दूसरी अवस्था में ही होते हैं, क्योंकि वे ईश्वर पर पूर्ण रूप से विश्वास करते हैं तथा उसके अस्तित्व पर प्रश्न नहीं करते। तीसरी अवस्था वैज्ञानिक संशय जिज्ञासा की अवस्था होती है तथा चौथी अवस्था प्रकृति के सौन्दर्यानुभूति की अवस्था होती है।

5. शिक्षा के आध्यात्मिक उद्देश्य - डॉ. कलाम के अनुसार शिक्षा ज्ञान और बुद्धि के रास्ते से गुजरने वाली एक अनन्त यात्रा है। ऐसी यात्रा से मानवता के विकास के ऐसे नये दरवाजे खुलने लगते हैं जहाँ संकीर्णता, कलह, ईर्ष्या, घृणा ओर शत्रुता का कोई स्थान नहीं है। इससे मानव का व्यक्तित्व सम्पूर्ण, विनम्र और संसार के लिए उपयोगी बनता है। सही शिक्षा से मानवीय गरिमा, स्वाभिमान और विश्वबंधुत्व में बढ़ोतरी होती है। ये गुण शिक्षा के आधार होते हैं। शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि वह विद्यार्थियों में ‘हम ऐसा कर सकते हैं’ का भाव भर दे। डॉ. कलाम शिक्षा को व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास की प्रक्रिया मानते थे। वे शिक्षा को ऐसा साधन मानते थे जो व्यक्ति तथा समाज को प्रगति देता है एवं विकास को गति प्रदान करता है। उनके अनुसार - अध्यात्म का शिक्षा के साथ समन्वय आवश्यक है। हमें स्वानुभूति को केन्द्रित एवं अपने उच्च बौद्धिक धरातल के प्रति जागरूक बनना होगा। हम महान अतीत को उज्जवल भविष्य से जोड़ने वाली कड़ी हैं। हमें अपनी सुप्तावस्था में पड़ी आंतरिक ऊर्जा को प्रज्जवलित करना होगा ताकि वह हमारा मार्गदर्शन कर सके। रचनात्मक प्रयासरत ऐसी मेधाओं का प्रकाश इस देश मे शांति, समृद्धि और सुख लाएगा।

        स्विस दार्शनिक रूसों, शिक्षाविद् पेस्टोलोजी, जर्मनी के शिक्षक फ्रोबेल व इटली की मोंटेसरी सभी के शिक्षा सिद्धान्त इस विचार को बढ़ावा देते हैं कि ‘इन्द्रियों की समझ बुद्धि की समझ से पहले देनी चाहिए’। स्वयं कलाम का भी मानना था कि- “हमारी शिक्षा व्यवस्था में इन्द्रियों की समझ के पनपने पर ध्यान देना कम होता जा रहा है।” भौतिक रूप से मस्तिष्क ही स्नायु तंत्र का केन्द्र है। यही अंग इन्द्रियों को समझता है। इसलिए यही इन्द्रियां, स्मृति, तार्किक शक्ति व बौद्धिक ज्ञान के बीच समन्वय के लिए भी जिम्मेदार होता है। जबकि मन जो भौतिक रूप में नहीं होता. वह अंतर्ज्ञान से संबन्ध रखता है- ऐसा दृष्टिकोण, जो दृश्य को समर्पित नहीं होता। करूणा और गहरी बुद्धिमता- यही सब जीवन के वास्तविक उद्देश्य हैं और इसलिए शिक्षा के भी। यह सही है कि एक व्यक्ति के ठीक ढंग से कार्य करने के लिए एक मस्तिष्क चाहिए, जैसे उसे एक हृदय या जिगर चाहिए होता है, लेकिन ठीक ढंग से कार्य करने तथा अच्छाई एवं नेकी से परिपूर्ण जीवन जीने का वास्तविक स्त्रोत मन ही है। बेमेल जोड़ी में मस्तिष्क मन में कोई सुधार नहीं कर सकता। जो कर सकता है, वह यह कि जिस स्थिती मे मन अटक गया है, उस स्थिति में उसे आजाद कर दे और उन गतिविधियों से आजाद कर दे जो मन को ठीक से कार्य करने मे बाधा डालती है- जैसे घृणा, डर, घमण्ड आदि। मस्तिष्क को यह सब कर पाने मे मदद करना शिक्षा का ही कार्य है, न कि मात्र जानकारियाँ इकट्ठा करना।

6. शिक्षा के आध्यात्मिक घटक - 2000 वर्ष पहले संत तिरूवल्लवुर द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘कुरल’ को डॉ. कलाम अपने जीवन में पथ प्रदर्शक मानते थे। उनके अनुसार ‘कुरल’ की शिक्षा वर्तमान समय में पहले से भी अधिक प्रासंगिक है। आज के प्रतिस्पर्धा के युग में किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें अदम्य उत्साह की अनिवार्य आवश्यकता हैं। डॉ. कलाम ‘कुरल’ की व्याख्या करते हुए इस अदम्य उत्साह के दो घटक बताते हैं- पहला घटक है महान उपलब्धि के लक्ष्य की ओर ले जाने वाली व्यापक दृष्टि। यदि किसी व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य महान एवं गुरूत्तर है तो अनेकानेक विपरित परिस्थितियों, बाधाओं के बावजूद उस लक्ष्य की उज्जवलता से उसके उत्साह, उसकी जीवन शक्ति, उसकी आत्मा को पोषण और संवर्धन मिलता है जो उसे सफलता की ओर आगे ले जाता है। दूसरा घटक हैं, विपत्ति के समय कठिन परिस्थिति का सामना शांत मन से करना। हमें किसी भी समस्या से हार नहीं माननी चाहिए। परिस्थितियों को अनुकूल कर हमें विपत्तियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। महर्षि पतंजली ने लगभग 2500 वर्ष पहले ये गूढ़ विचार व्यक्त किये थे - जब आप किसी महान उद्देश्य, किसी असाधारण कार्य के लिए प्रेरित होते हैं तो आपके सारे विचार अपनी सीमाएँ तोड़ देते हैं। आपका मस्तिष्क सीमाओं से परे निकल जाता है, आपकी चेतना प्रत्येक दिशा में फैल जाती है और आप स्वयं को एक महान और अद्भुत संसार में पाते हैं। सुप्त बल, शक्तियां और गुण जीवंत हो जाते हैं और आप स्वयं को उससे उत्तम व्यक्ति पाते हैं जितना अब तक आपने अपने होने की कल्पना की थी।

        अपनी पुस्तक ‘भारत 2020 और उसके बाद’ के प्राक्कथन में डॉ. कलाम पतंजली के इन शब्दों को प्रतिध्वनित करते हुए कहते हैं कि हमारे वर्तमान और भावी नेता, भले ही वे किसी भी दल के हों, हमारा वैज्ञानिक समुदाय, औद्योगिक नेतृत्व, किसान एवं अधिकारी और सर्वोपरी साठ करोड़ शक्तिशाली युवा प्रतिदिन इस शानदार संदेश को क्यों नहीं  देखते जो एक महान संत भारत और विश्व को देकर गया था। अगर राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक कहें - ‘मैं कर सकता हूँ’ तो इसकी परिणीति हम सबके रूप में होगी - ‘हम कर सकते हैं’ और अंततः इसका परिणाम होगा - ‘राष्ट्र यह करेगा’।

7. शिक्षा के द्वारा आध्यात्मिक विकास की वर्तमान प्रासंगिकता - डॉ. कलाम मानते थे कि आजकल अधिक अंक लाकर प्रतिष्ठित कॉलेजो में प्रवेश पाने पर जोर है और इस दबाव से युवाओं में करूणा और धैर्य के गुण समाप्त होते जा रहे हैं। हमारी शिक्षा प्रणाली में विश्वसनीयता और मिल जुलकर कार्य करने की इच्छा समाप्त होती जा रही है। स्वार्थी प्रवृति आजकल के विद्यार्थियो में स्पष्ट दिखाई देती है। कुछ उद्योगपतियों को शिक्षा व्यवसाय में लाभ दिखाई देता है, इसलिए शिक्षा सेवा क्षेत्र की बजाय एक व्यवसाय बन कर रह गई है। इस सबका समाज पर गंभीर असर पड़ा है। उनके अनुसार आपका व्यक्तित्व यह बताता है कि आप क्या बनना चाहते हैं और अपने आपको, परिवार और समुदाय, उनको दुनिया के सामने किस तरह दिखाना चाहते हैं। जैसे हमारा पहनावा हमें आस पास के लोगों के सामने प्रस्तुत करता है, वैसे ही हमारा व्यक्तित्व एक मानसिक पहनावा है, जो हमारे वास्तविक मन और वातावरण के बीच मध्यस्थता करता है। जो हम अपने बारे में सचेत होकर जानते हैं, वह है स्वाभिमान। अपने मन का वह हिस्सा जो हम देख नहीं पाते या सचेत रहकर भी जान नहीं  पाते, उसे स्विजरलैंड के मनौवैज्ञानिक कार्लजुंग ने ‘परछाई’ कहा है। उन्होंने इसे एक मानसिक क्रिया बताया, जो सचेत मन से स्वतंत्र कार्य करती है और अनछुई ही रह जाती है। यह शायद व्यक्तिगत अनुभव से महसूस की जा सकती है। शिक्षा का उद्देश्य इस परछाई पर प्रकाश डालना है और इसे सचेत मन से जोड़ना है।

          डॉ. कलाम के जीवन का अधिकतर हिस्सा अंतरिक्ष में प्रक्षेपण से संबधित क्रियाशीलता में ही बीता। उनके अनुसार- मिशन में भारतीय व्यक्तियों की भावनाएँ एंव अंतर्दृष्टि का पहलू  अधिक महत्वपूर्ण है। जहाँ लोगों का एक बहुत बड़ा समूह होता है वहाँ हमेशा सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की मानवीय भावनाएँ रहती हैं। इसरो के व्यैक्तिक और इनके सहयोगियों ने केवल भारत को अन्तरिक्ष में  प्रक्षेपित ही नहीं किया है बल्कि एक मानवीय ढांचे का भी निर्माण किया है। अतः राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भी अंतरिक्ष मिशन की भांति व्यक्तियों की भावनायें और अन्तर्दृष्टि ही मुख्य भूमिका निभाएगी तथा एक पूर्ण प्रतिबद्धता और प्रबंधकीय व नेतृत्व वाली क्षमताएँ ही हमें विभिन्न बाधाओं को पार कर शिक्षा प्रणाली को विश्वस्तरीय बनाने में महत्वपूर्ण सिद्ध होगी।

निष्कर्ष एवं शैक्षिक निहितार्थ : डॉ. कलाम के अनुसार शिक्षा के आधार का विस्तार करने के लिए कई शाखाओं में कार्य करने की जरूरत है, क्योंकि विज्ञान और मानवजाति के मिलने पर विवादित मुद्दे उठते हैं, उनके समाधान कला एवं नैतिक मूल्यों मे ढूंढने की आवश्यकता है। इस प्रकार कला व नैतिक मूल्यों की बात कहते हुए कलाम आध्यात्मिकता की और इशारा करते हैं तथा मानते हैं कि भविष्य की शिक्षा के लिए विज्ञान को आध्यात्मिकता का सहचर बनकर विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना होगा। मनुष्य ही केवल एक ऐसा प्राणी है कि जिसके पास बुद्धि है, जिसके प्रयोग से वह अपनी इन्द्रियों को वश में कर सकता है अतः डॉ. कलाम कहते थे कि बुद्धि को मजबूत बनाते हुए हमें उसे सुदृढ़ कर उसे बल प्रदान करना चाहिए। भौतिक विषयों में भी नैतिक और आध्यात्मिक आधार पर समन्वित कार्य होना चाहिए। यह कार्य केवल व्यक्तिगत ही नहीं वरन् सामाजिक स्तर पर भी होना चाहिए। आर्थिक समृद्धि और आध्यात्मिक सन्तुष्टि के मध्य हम मानव मनों की एकता द्वारा मजबूत संबंध व सन्तुलन स्थापित कर सकते हैं। कलाम के इन शैक्षिक विचारों से उनका प्रबल अध्यात्मिक पक्ष दृष्टिगोचर होता है। वे कहते थे कि वह जो दूसरों को समझता है, वह उनसे सीख लेता है। लेकिन बुद्धिमान वह है जो खुद स्वयं को जान लेता है। बुद्धि के बिना सीखा गया ज्ञान किसी काम का नहीं  होता। उनके वक्तव्यों में स्वयं को जान लेना अर्थात आत्मज्ञान, अर्न्तनिहित साहस, मनोबल बढ़ाना, धैर्य धारण करना, आत्मिक संतोष, स्वानुभूति, आंतरिक ऊर्जा आदि शब्दों के प्रयोग से हमें उनका आध्यात्मिक दृष्टिकोण स्पष्ट परिलक्षित होता है। डॉ. कलाम की बताई गई अध्यात्मिक शिक्षा को यदि हम हमारी शिक्षा व्यवस्था और प्रणाली में लागू कर सकें तो भविष्य में हम राष्ट्र के लिए और अधिक बेहतर नागरिकों का निर्माण कर सकते हैं।

सन्दर्भ :
1. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. एवं तिवारी, अरूण. (1999) : अग्नि की उड़ान, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
2. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. (2010) : भारत की आवाज, राजपाल एण्ड सन्स, नई दिल्ली।
3. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. एवं तिवारी, अरूण. (2011) : विजयी भवः, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
4. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. एवं राजन, वाई.एस. (2011) : महाशक्ति भारत, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
5. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. एवं तिवारी, अरूण. (2012) : हमारे पथ प्रदर्शक, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
6. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. एवं पिल्लै, ए.शिवताणु. (2013) : मेरे सपनो का भारत, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
7. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. (2013) : हम होंगें कामयाब, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
8. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. (2013) : तेजस्वी मन: महाशक्ति भारत की नींव, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
9. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. एवं राजन, वाई.एस. (2013) : वैज्ञानिक भारत, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
10. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. (2014) : मेरी जीवन यात्रा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
11. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. एवं राजन, वाई.एस. (2015) : भारत 2020 और उसके बाद, पेंगुइन बुक्स इण्डिया, नई दिल्ली।
12. कलाम, ए.पी.जे. अब्दुल. (2015) : अदम्य साहस, राजपाल एण्ड सन्स, नई दिल्ली।
13. http://www.abdulkalam.com
14. http://www.abdulkalam.nic.in/books.html
  
डॉ. प्रशान्त कुमार
सहायक आचार्य, शिक्षा संकाय, आई. ए. एस. ई. विश्वविद्यालय, सरदार शहर, चुरू, राजस्थान

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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