शोध आलेख : भारतीय अध्यात्मवाद का विश्लेषण / माहिमाइ माण्डि

भारतीय अध्यात्मवाद का विश्लेषण 
- माहिमाइ माण्डि

शोध सार : अध्यात्मवाद आत्मा को जगत् का मूल मानने वाला एक प्रत्ययवादी विचार है। इसके अनुसार समस्त भौतिक पदार्थों का मूल मनस् या आत्मा। जिस सत्ता को स्वीकार किए बिना हम जड़ जगत् के बटना-क्रम को समझने में असमर्थ हो जाता है। अध्यात्मवाद के एक मत के अनुसार भौतिक जगत् परमात्मा तथा उसके गुणों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। जबकि अन्य अध्यात्मवादियों के लिए वह मानव चेतना का मायाजाल है। अध्यात्मवाद के प्रतिपादक यह मानते हैं कि आत्मा का शरीर से स्वतंत्र अस्तित्व होता है। अध्यात्मवाद को हम जडवाद का विपरीत सिद्धांत कह सकते हैं क्योंकि जडवाद पुद्गल या भौतिक तत्त्व को जगत् का मूल कारण मानता है, ठीक उसके विपरीत अध्यात्मवाद यह मानता है कि इस जगत् का आधारभूत कारण आत्मा या मनस् है और वह ही एकमात्र स्वाश्रित एवं स्वतंत्र सत्ता है पुद्गल या जड नहीं। 

जर्मन दार्शनिक हेगेल अध्यात्मवाद की पुष्टि करते हुए कहते है कि ये जगत् बोधगम्य है। जगत् बोधगम्य तभी होगा जब बुद्धि और जगत् मे किसी प्रकार की समानता हो। साधारण बोलचाल की भाषा में भक्ति या ईश्वर विषयक चर्चा को अध्यात्म कहा जाता है और पूजा पाठ करने वाले कोआध्यात्मिक अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – ‘स्वयं का अध्ययन -अध्ययन-आत्म। इस प्रकार अध्यात्म पारलौकिक विश्लेषण या दर्शन नहीं है अपितु स्वयं का ही विस्तृत अध्ययन है। अर्थात स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है। वहीं अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है-आत्मा से संबंध, आत्मा-परमात्मा संबंधी विचार, आत्मबोध आदि। सुसंगत अध्यात्मवादी आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों का मिथ्याकरण करते हैं और विज्ञान के स्थान पर प्रेतात्माओं तथा दैवी विधान में अंधविश्वास की प्रतिष्ठापना करने का प्रयास करते हैं। अध्यात्म वह हकीकत है जो चर्मदृष्टि से दिखाई नहीं देती, इसे समझने के लिये आत्मज्ञान की आवश्यकता होती है। बूर्जुआ दर्शन में अध्यात्मवाद का अर्थ बहुधा प्रत्ययवाद होता है।

बीज शब्द : अध्यात्म का अर्थ, अध्यात्मवाद के भेद, गीता में अध्यात्मवाद, प्रकृति, उद्देश्य, आत्मा का मुक्ति, व्यक्ति आत्मा, परमात्मा, जीवन्मुक्त, बिदेहमुक्त, आत्महत्या, आत्मशुद्धि, आत्मानुसंधान, आत्मानुभूति। 

मूल आलेख : अध्यात्म का मूल सिद्धांत यह है कि हममें से प्रत्येक वास्तव में एक आत्मा है जो कि थोड़े समय के लिए इस भौतिक शरीर में आई है। यह समय बीस, पचास, साठ, अस्सी या सौ वर्ष का हो सकता है, लेकिन मृत्यु के बाद हर एक को इस दुनिया से जाना है। इस संसार का और इस जीवन का उद्देश्य क्या है। अध्यात्मवाद उस विचारधारा का नाम है जिसमें आत्मा को ही सबका मूल माना जाता है। उपनिषदों तथा महाभारत में अध्यात्म शब्द का प्रयोगशरीरके अर्थ में हुआ है, किंतु कालांतर में चैतन्य आत्मतत्त्व के अर्थ में यह शब्द रूढ़ हो गया। पश्चिम में ग्रीक दार्शनिक अफलातून ने सर्वप्रथम इस विषय पर विचार किया। उसने संसार के मूल में अभौतिकतत्त्व की स्थिति मानी और उसेइंडिया’ (आइडिया) नाम दिया। उसके बाद उन सभी दर्शनों के लिएआइडियलिज़्मशब्द का व्यवहार होने लगा जिनके अनुसार भौतिक जगत्का मूल अभौतिक तत्त्व है। अध्यात्मवाद औरआइडियलिज़्मसमानार्थक शब्द हैं।

ज्ञान जीव को जड़ से पृथक करता है। ज्ञान के लिए ज्ञान का विषय, ज्ञाता और विषय तथा ज्ञाता का संबंध (ज्ञान) होना आवश्यक है। इनमें से एक के भी अभाव में ज्ञान संभव नहीं है। फिर भी तीनों में से ज्ञाता का स्थान महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ज्ञाता के अभाव में विषय और संबंध का कोई अर्थ नहीं। यथार्थवादी दार्शनिक ज्ञान को विषय और संबंध से उत्पन्न गुण मानते हैं। किंतु जब विषय जड़ है और ज्ञाता (आत्मा) चेतन है तब इन दोनों में स्वभावभेद होने के कारण कार्य-कारण-भाव संबंध कैसे हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में कुछ दार्शनिक आत्मा को भी पृथ्वी, जल आदि की तरह द्रव्य मान लेते हैं और कुछ आत्मा की चेतनता की रक्षा करने के लिए विषय को आत्मा से अभिन्न मानते हैं। किंतु ज्ञाता यदि पृथ्वी आदि की तरह एक पदार्थ है तथा ज्ञान उसका गुण मात्र है तो वह ज्ञाता अपने आपमें पत्थर की तरह चेतनाशून्य तत्त्व होगा। साथ ही यह भी प्रश्न उठता है कि ज्ञाता स्वयं ज्ञान का विषय नहीं होता है या नहीं। ज्ञाता को भी ज्ञान का विषय मान लेने पर ज्ञाता को जीतनेवाले एक अलग ज्ञाता की स्थिति माननी पड़ेगी। इस तरह अलग ज्ञाता मानने का कोई अंत होगा। यदि ज्ञाता स्वयं भी नहीं जानता तोमैं जानता हूँ’, इस अनुभव का क्या होगा? इसलिए ज्ञाता को चेतनस्वरूप मानना चाहिए, चेतना और ज्ञाता में गुण-गुणी-संबंध तर्क की दृष्टि से असंगत है।

चेतन आत्मा सभी ज्ञान का मूलाधार है। पर इस आत्मा का जड़ विषय के साथ संबंध कैसे संभव है? अध्यात्मवाद में इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए विषय को ज्ञाता से अपृथक माना गया है। ज्ञान में प्रतिभासित विषय सर्वदा बौद्धिक होता है, पदार्थ अपने भौतिक रूप में ज्ञान के विषय नहीं होते। मानो एक ही आत्मा ज्ञाता और ज्ञेय के रूप में द्विधा विभक्त होकर ज्ञान की उत्पत्ति करती है। गीता के अनुसार आत्मा का मुक्ति पाने के लिए निष्काम कर्म करना पड़ेगा। गीता का यह कर्मयोग क्या है, यह जानने के लिए सबसे पहले योग क्या है, यह जानना चाहिए। योग शब्द युज् धातु से बना है जिसका अर्थ है मिलना अथवा संयोग होना।  गीता में यह सम्बन्ध आत्मा और परमात्मा में जीव और शिव में सम्बन्ध है। गीता कर्म को महत्व देती है, किन्तु इसके साथ निष्काम शब्द जोड़ने का अर्थ है कि हमारे कर्म बिना किसी द्वन्द्व के, बिना किसी राग, द्वेष, लोभ, मत्सर के होने चाहिए। 

विषय और ज्ञाता को एक तत्त्व के ही दो रूप मान लेने पर स्वभावत: बाह्म जगत्का अस्तित्व स्वप्नवत्मानना पड़ेगा। किंतु स्वप्न और जाग्रत का अंतर सर्वानुभवसिद्ध है। योगाचर बौद्ध दर्शन तथा गौड़वाद के मत में स्वप्न और जगत्के अनुभव में वास्तविक भेद नहीं है। अतएव अध्यात्मवाद के मूल सिद्धांतों में सत्ता के दो या तीन स्तर स्वीकार किए गए हैं। व्यावहारिक रूप से हम जाग्रत अवस्था के अनुभवों को स्वप्नावस्था से पृथक मानते हैं। इस भेद का मूल कारण है स्वप्न का मिथ्यात्व। वस्तु का जो रूप अनुभूत होता है, कालांतर में उसका अपलाप हो जाता है इसलिए उसका अनुभवगम्य रूप ही मिलता है। स्वप्न में अनुभूत विषय इसी कारण जाग्रत अवस्था में मिथ्या कहे जाते हैं। अतएव स्वप्न के विषयों को पारमार्थिक दृष्टि सेस्वभावशून्यकहा जा सकता है। मिथ्यात्व के इस लक्षण को जाग्रत्अनुभव में आनेवाले विषयों पर भी लागू किया गया है। इसीलिए माध्यमिक दर्शन तथा परवर्ती अद्वैत वेदांत में विशद रूप से जाग्रत अनुभव के विषयों को उनकी नश्वरता के कारण स्वप्न के विषयों की तरह मिथ्या माना गया है।

मिथ्यात्व के इस लक्षण के आधार पर यह भी कहा गया है कि जो तत्त्व अपने आप में पूर्ण होगा, जिसे अपनी स्थिति के लिए दूसरे की आवश्यकता होगी, वही तत्त्व सत्य है। अनुभवगम्य विषय सापेक्ष होते हैं अत: वे पूर्ण सत्य की परिभाषा में नहीं सकते। साथ ही, पूर्णता और असीमता पर्यायवाची शब्द हैं। सापेक्षता या द्वैत भावना पूर्णता का विनाश करती है। अत: चरम तत्त्व नित्य, अनंत और द्वितीयरहित अद्वय तत्त्व ही हो सकता है। यह अद्वय तत्त्व चेतन है, क्योंकि चेतन के बिना जड़ की स्थिति, संसार का निर्माण, असंभव है। अत: अध्यात्मवाद में आत्मा को ही परात्पर एक तत्त्व माना गया है।

यदि आत्मा ही तत्त्व है तो उसका इस जगत्से कैसा संबंध हो सकता है? अध्यात्मवाद में इसी प्रश्न को लेकर कई अवांतर वाद उत्पन्न हुए हैं। अद्वैत वेदांत मेंमायाको आत्मा और जड़ का चेतन के रूप में प्रकट होती है, अत: संसार मायानिर्मित एवं आत्मा की दृष्टि से असत्कहा जाता है। किंतु आत्मा इस संसार के मूल में है इसलिए यह आत्मा से अलग भी नहीं है। इस दृष्टि से यद्यपि संसार की वस्तुएँ पृथक-पृथक आत्मा का वास्तविक रूप प्रकट नहीं कर पातीं, फिर भी वे किसी हद तक आत्मा का अपूर्ण प्रतीक हैं। ब्रैडले और हीगेल जैसे पाश्चात्य दार्शनिक तत्त्व के समग्र रूप में स्तर का भेद मानते हैं।

यदि वस्तु आत्मा का अपूर्ण रूप और सापेक्ष सत्ता है तो वस्तु को अपने आप में नहीं जाना जा सकता। चूँकि असत्से सत्की उत्पत्ति संभव नहीं है, अत: संसार के मूल में किसी सत्ता की स्थिति भी आवश्यक है। इन दोनों दृष्टियों को मिलाने पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि यद्यपि वस्तु अपने आपमें क्या है, यह नहीं कहा जा सकता (अनिर्वचनीयतावाद), तथापि वस्तु का मूल सत्य में निहित है। ज्ञान की सीमाओं (कैटेगरीज) के भीतर पड़ने वाली सापेक्ष, अनित्य, दिक्कालावच्छिन्न वस्तुओं का परिशीलन करने वाली प्रज्ञा विषयनिरपेक्ष, दिक्कालातीत तत्त्व का साक्षात्कार करने में असमर्थ है अत: उस तत्त्व का आभास मात्र होता है। तत्त्व का वास्तविक ज्ञान साक्षात्कार के बिना संभव नहीं। और साक्षात्कार ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान कीत्रिपुटीसे परे होने पर भी संभव है; अत: सत्य के साक्षात्कार का अर्थ है सत्यमय हो जाना

अध्यात्म एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जो पदार्थ के स्थान पर जीवन के नियमों को जानना, समझना, प्रयोग करना और अंत में जीवन जीने का तरीका सिखाता है। अध्यात्म जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली का समन्वय है। यह जीवन को समग्र ढंग से केवल देखता है, बल्कि इसे अपनाता भी है। अध्यात्म का ज्ञान अर्थात निजी अध्ययन संसार में रहने का प्रथम सोपान है। कर्म प्रवीणता के बिना कोई उपलब्धि नही। मूल बात है स्वयं का विवेचन, स्वयं के अंतस् का अध्ययन, भीतर की ऐषणाओं के केन्द्र बिन्दु की खोज, अपने रागद्वेष, काम क्रोध, राग विराग के स्रोत की जानकारी। पूर्वजों ने इसे ही अध्यात्म कहा था। आध्यात्मिक होने का मतलब है, भौतिकता से परे जीवन का अनुभव कर पाना। अगर आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी परम-सत्ता के अंश को देखते हैं, जो आपमें है, तो आप आध्यात्मिक हैं। आध्यात्मिक ज्ञान सिखाया नहीं जा सकता, इसे केवल अपने स्वयं के अनुभव से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह अनुभूति के माध्यम से हृदय में स्वयं अविर्भूत हो जाता है, जब व्यक्ति ब्रह्माण्ड सिद्धान्तों का अनुसरण करता है, मंत्र का अभ्यास करता है, ध्यान लगाता है और गुरू का आशीर्वाद प्राप्त करता है।

एक आध्यात्मिक अभ्यास का अर्थ है अपने भीतर देखने और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव करने के लिए समय निकालना आध्यात्मिक अभ्यासों के उदाहरण हैं ध्यान, योग, जप, प्रकृति में रहना, कुछ ऐसा करना जो आपको पसंद हो, प्राचीन पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करना, मौन में बैठना, या यहाँ तक कि ध्वनि में डूबना। अध्यात्म एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जो पदार्थ के स्थान पर जीवन के नियमों को जानना, समझना, प्रयोग करना और अंत में जीवन जीने का तरीका सिखाता है। अध्यात्म जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली का समन्वय है। यह जीवन को समग्र ढंग से केवल देखता है, बल्कि इसे अपनाता भी है। अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्त्व को जानना। गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात् जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया हैपरमं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते आज के समय में योग, प्राणायाम और ध्यान को ही अध्यात्म समझा जाता है। परन्तु इसे जानने के लिए ये केवल साधन मात्र हैं। सदियों से रहस्यवादियों, सन्तों, ऋषियों और योगीजनों ने हमें एक ही उत्तर दिया है ईश्वर के साथ व्यक्तिगत सम्बंध विकसित करना वह जो हमारे रोजमर्रा जीवन को ब्रह्म के साथ जोड़ता है। आध्यात्मिक जीवन उस सम्बंध को विकसित करने का व्यावहारिक तरीका है।

अध्यात्म ही जीवन का सार है, क्योंकि इसके बगैर इंसान के जीवन और एक पशु के जीवन में कोई अंतर नहीं रह जाता। अध्यात्म के बिना इंसान का जीवन ऐसे है, जैसे बिना आत्मा के शरीर होता है, जैसै बिना लौ का दीपक होता है, जैसे बिना पतवार के कोई नाव होती है। अध्यात्म के बिना इंसान का जीवन अधूरा और महत्वहीन है। निःस्वार्थ सेवापरंपरागत रूप से, हिंदू धर्म आध्यात्मिक अभ्यास के तीन मार्ग (तरीकों) की पहचान करता है, अर्थात् ज्ञान (ज्ञान), ज्ञान का मार्ग; भक्ति, भक्ति का मार्ग; और कर्म योग, निःस्वार्थ कर्म का मार्ग आध्यात्मिक व्यक्ति को निरंतर परमसत्ता से आंतरिक आदेश मिलता रहता है। आध्यामिकता में जो सत्य है उसे ही स्वाभाविक रूप से ग्रहण करना है। आध्यात्मिक व्यक्ति अपने अनुभव से यह जान लेता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है। अध्यात्म का मूल सिद्धांत यह है कि हममें से प्रत्येक वास्तव में एक आत्मा है जो कि थोड़े समय के लिए इस भौतिक शरीर में आई है। यह समय बीस, पचास, साठ, अस्सी या सौ वर्ष का हो सकता है, लेकिन मृत्यु के बाद हर एक को इस दुनिया से जाना है। इस संसार का और इस जीवन का उद्देश्य क्या है।

अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन-धारा है, विद्या है, हमारी संस्कृति की परंपरागत विरासत है, ऋषियों, मनीषियों के चिंतन का निचोड़ है, उपनिषदों का दिव्य प्रसाद है। आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का प्रयत्न है अध्यात्म। अध्यात्म का मूल है स्वयं का विवेचन, स्वयं के अंतस् का अध्ययन, भीतर के ऐषणाओं के केन्द्र बिन्दु की खोज। अपने राग द्वेष, काम क्रोध, राग विराग के स्रोत की पूर्णतः जानकारी होना, इसे ही अध्यात्म कहा गया है और माना गया है। प्रकृति के दो दृष्टिकोण हैं- एक इष्टोन्मुखी प्रवृत्ति दूसरी बहिर्मुखी प्रवृत्ति।

जीवन्मुक्त -

मोक्ष प्राप्त कर आत्मा ब्रह्म के साथ एक जाता है, आनन्दमय रहेगा, जन्म मरण चक्र से मुक्त हो जाता है। शंकराचार्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के बाद भी मानव का शरीर कायम रह सकता है। मोक्ष का अर्थ शरीर का अन्त नहीं है। व्यक्ति शरीर प्रारब्ध कर्म का फल है। इनका कर्मफल समाप्त नहीं हो तक शरीर विद्यमान रहता है। जिस तरह कुम्हार के चाक कुम्हार के घुमाना बन्द कर देने बाद भी कुछ समय तक चलते रहते है, उस तरह मोक्ष प्राप्त व्यक्ति का शरीर पूर्व जन्म के कर्मो के अनुसार कुछ काल जीवित रहता है। इसे जीवन-मुक्ति कहते है। जीवन मुक्त व्यक्ति संसार में रहता है फिर संसार द्वारा आसक्त नहीं हो जाता है। 

विदेहमुक्त -

विदेहमुक्ता एक ऐसा शब्द है जो एक ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है, जिसने मृत्यु में मुक्ति प्राप्त कर ली है, और ब्रह्म, सार्वभौमिक चेतना के साथ अपनी आत्मा या व्यक्तिगत आत्मा के अद्वैत को महसूस करता है। यह एक अवधारणा है जो विशेष रूप से हिंदू धर्म और जैन धर्म में पाई जाती है, जहां यह पुनर्जन्म के चक्र को समाप्त करने से संबंधित है। यह वेदांत और योग दर्शन में भी महत्वपूर्ण है। विदेह मुक्ति ( संस्कृत : विदेहमुक्ति का अर्थ हैमृत्यु के बाद मुक्ति या शाब्दिक रूप से शरीर से मुक्ति”) मृत्यु के बाद मोक्ष (मृत्यु और पुनर्जन्म चक्र से मुक्ति) को संदर्भित करता है। यह संसार (मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र ) को समाप्त करने के संबंध में हिंदू और जैन धर्म में पाई जाने वाली एक अवधारणा है अवधारणा जीवनमुक्ति के विपरीत है , जोजीवित रहते हुए मुक्तिप्राप्त करने को संदर्भित करती है। जीवनमुक्ता और विदेहमुक्ता की अवधारणाओं पर विशेष रूप से वेदांत और योग विद्यालयों में चर्चा की जाती है। 

हिंदू परंपरा में ये विश्वास है कि मनुष्य अनिवार्य रूप से एक आध्यात्मिक आत्मा है जिसने शरीर में जन्म लिया है। जब एक आत्मा ने मुक्ति प्राप्त कर ली है तो यह मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होने के लिए कहा जाता है। अद्वैत वेदांत , एक व्यापक हिंदू दर्शन के अनुसार , एक आत्मा को या तो जीवित रहते हुए या मृत्यु के बाद मुक्त किया जा सकता है। विदेहमुक्ति तुरीय से परे की अवस्था के रूप में जीवित रहते हुए मुक्ति का प्रतीक हो सकता है, जब मन विलीन हो जाता है और इसमें जरा सा भी भेद या द्वैत नहीं होता है। मुक्ति प्रमुख विश्व धर्मों में से प्रत्येक का लक्ष्य है, और इस प्रकार यह महान धर्मों की एक एकीकृत विशेषता के रूप में कार्य करता है, जो सतह पर दिखाई देने वाले मतभेदों को समेटता और एकीकृत करता है। मेहर बाबा, जिन्होंने पारसी धर्म की शुरुआत की, और शुरू में एक मुस्लिम पवित्र महिला से प्रभावित थे, और जिसने सूफी (इस्लामी) और वेदांतिक (हिंदू दार्शनिक) विचारों और शर्तों को एकीकृत किया, अपनी पुस्तक गॉड स्पीक्स , पूरक 24 में मुक्ति का एक बहुत विस्तृत और पूर्ण विवरण देती है। मुक्ति आत्मा की यात्रा का अंत है, और इसलिए यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अंतिम लक्ष्य और गंतव्य है, और स्वयं सृष्टि का लक्ष्य है।

निष्कर्ष : हमें अपनी आध्यात्मिक प्रकृति को समझने की आवश्यकता है कि हम केवल अस्थायी शरीर हैं, मन, बुद्धि बल्कि शाश्वत आत्मा हैं। हर मनुष्य के साथ एक असीम आत्मा है। हमें वह विकसित करने की ज़रूरत है जो स्थायी है सर्वोच्च भगवान के साथ अपने रिश्ते को फिर से स्थापित करने के लिए अक्सर हम मुसीबत के समय ही भगवान को याद करते हैं।अध्यात्म एक ऐसा विज्ञान है, जो हमारे जीवन में प्रेम, शांति, खुशी और विवेक की शक्ति प्रदान करता है। यह हमारे मानसिक जीवन और आंतरिक जीवन को समृद्ध बनाने के साथ-साथ, हमारे आपसी संबंधों को भी बेहतर बनाता है।अध्यात् जीवन यात्रा को बेहतर बनाने का मार्ग। प्रेम, करुणा और सेवाभाव है अध्यात् के मूल तत्त्व। कठोर वचन बोलना अध्यात् की पहचान। 

संदर्भ :
1. हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा : भारतीय दर्शन की रूपरेखा, मोतीलाल बनारसीदास, 2016 पृ॰ 58
2.वही, पृ॰62
3.वही, पृ॰ 255
4.वही, पृ॰ 264
5. शोभा निगम : भारतीय दर्शन, मोतीलाल  बनारसीदास, नई दिल्ली, चतुर्थ संशोधित संस्करण : 2011 पृ॰ 52
6.वही, पृ॰ 52
7.वही, पृ॰ 55
8.वही, पृ॰ 89
9.वही, पृ॰ 217
10. ब्रह्म स्वरूप अग्रवाल : पाश्चात्य दर्शन , ठाकुर प्रसाद सिंह उ॰ प॰ हिन्दी संस्थान लखनऊ, 1978, पृ॰ 137
11.वही, पृ॰ 139
12.वही, पृ॰ 140
13. वही,  पृ॰ 142
14.वही, पृ॰ 146
15. राधाकृष्णन् :  भारतीय दर्शन भाग-1, राजपाल एंड सन्स पब्लिशर्स, 2015, पृ॰ 37
16. वही, पृ॰ 57
17. नित्यानन्द मिश्र : समकालीन पाश्चात्य दर्शन, मोतीलाल बनरसीदास, द्वितीय पुनर्मुद्रण, दिल्ली, 2017, पृ॰ 71
18. केदारनाथ तिवारी : तत्त्वमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा, मोतीलाल बनारसीदास, पंचम पुनर्मुद्रण, दिल्ली, 2017, पृ॰
56

 

माहिमाइ माण्डि
असिस्टेंट प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र, वर्धमान राज कॉलेज, वर्धमान, पश्चिम बंगाल, भारत
8636385790
  
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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