शोध आलेख : विभिन्न हठयौगिक ग्रंथों में वर्णित नेतिकर्म की उपयोगिता / सेतवान, डॉ.राकेश गिरी एवं डॉ. ऊधम सिंह

विभिन्न हठयौगिक ग्रंथों में वर्णित नेतिकर्म की उपयोगिता

सेतवान, डॉ.राकेश गिरी एवं डॉ.ऊधम सिंह

 

शोध सार : आधुनिक समय में शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्ति हेतु मानव विभिन्न साधनों को अपना रहा है, जिससे वह स्वस्थ रह सके, व्याधि सर्वप्रथम मन में उत्पन्न होती है, क्योंकि इस भाग दौड़ भरे जीवन में मानव अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए दिन-रात मेहनत कर शरीर के साथ साथ मानसिक व्याधियों जैसे- तनाव, चिंता,अवसाद आदि से ग्रस्त होता जा रहा है, जिससे मानसिक,शारीरिक स्वास्थ्य का स्तर गिर रहा है। अत: हमे शारीरिक स्वास्थ्य से पूर्व मानसिक रूप से स्वस्थ्य होना अत्यावश्यक है हठयोग परम्परा में शरीर शोधन हेतु छः षट्कर्मों का वर्णन किया गया है:- जिनमेनेतिकर्म द्वारा शीर्ष प्रदेश (खोपड़ी) की सफाई की जाती है। शरीर, मन और मष्तिष्क को स्वस्थ्य बनाये रखने के लिए  हठयोग में वर्णित षट्कर्मो का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। नेति कर्म द्वारा नासिका मार्ग का शोधन अर्थात् वहां स्थित मलों की सफाई की जाती है इस अभ्यास द्वारा नासिका गुहा में चिपके मल को पतला कर बाहर निकाल दिया जाता है, जिससे मन,मष्तिष्क, के साथ साथ श्वसन क्रिया भी सुचारू रूप से कार्य करने लगती है। नेति एक ई०एन०टी०, डॉ० के रूप में वैज्ञानिक तकनीकि से कार्य करती है इसके अभ्यास से सायानोसायाटिस, रायनायाटिस जैसी व्याधियों का प्रबंधन संभव है। इस शोध पत्र के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया है कि, किस प्रकार नेति कर्म पम्परागत के साथ-साथ वैज्ञानिक आधार पर भी शारीरिक और मानसिक व्याधियों को दूर करने में सहायक है।


बीज शब्द : हठयोग, षटकर्म,नेतिक्रिया, यातायात पुलिस, वायुप्रदूषण, बुनकर,शरीर एवं मन, वाहन, वैज्ञानिक आधार।


मूल आलेख : हठ योग को सबसे महत्वपूर्ण योगांगो में से एक माना जाता है इसके अंग विभिन्न शारीरिकऔर मानसिक समस्याओं को दूर करने में सक्षम हैं। हठयोग मेंधौति,वस्ति,नेति,नौली,त्राटक,और,कपालभाति: षट्कर्मों कावर्णन किया है।


[1]'षट्' का अर्थ है : और 'कर्म' का अर्थ है क्रिया; षटकर्म में : शुद्धि क्रियाएं शामिल हैं।  घेरण्ड संहिता में कहा भी गया हैषट्कर्मणाशोधनं षट्कर्मोंसे शरीर का शोधन अर्थात् सफाई होती है। [2] हठ प्रदीपिका में इनका अभ्यास तब करना बताया है जब शरीर में मेद और कफ धातु अधिक मात्रा में हों।  धौती, बस्ती, नेति, त्राटक, नौली और कपालभाती : शुद्धि कर्म हैं। [3]


धौती:- से अमाशय की भित्तियों को अच्छे प्रकार से पोंछकर साफ कर देता है,अर्थात् अमाशय की सफाई होती हैचर्म रोग, ज्वर, कुष्ठ रोग, कफ,पित्त आदि में लाभकारी है। [4] वस्त्र धौति का पूरक अभ्यास कुंजर क्रिया और जलनेति है,क्योंकि वस्त्र धौति के पश्चात् कुंजर करने से उखड़ा हुआ कफ बाहर आता है और जलनेति से नाक की सफाई होती है।

 

बस्ति:- गुदा मार्ग से पानी खींचकर अमाशय में कुछ समय रोकने  के पश्चात् पानी को उतार दें अर्थात् बाहर निकाल दें यही वस्ति कर्म है। [5]वस्ति क्रिया में गुदा मार्ग से पानी को बड़ी आंत में खींचकर रोका जाता है कुछ समय के पश्चात् इस पानी को बाहर निकाल दिया जाता है।  जिससे बड़ी आंत की सफाई होती है। [6] प्रचलन में इस क्रिया का अनुसंधानित रुप एनिमाहै। एनिमा द्वारा पाइप से पानी बड़ी आंत में चढ़ाकर इस क्रिया का अभ्यास किया जाता है। [7]


नेति:-श्वास के साथ पराग,धूल नमी के कण नासिका भित्ति में चिपक जाते हैं, जिनके सड़ने से कीटाणु पनपने लगते हैं, जिनसे नजला, जुकाम, फंगस, एलर्जी, वायरस, वैक्टीरिया पनपने लगते हैं और सायनस में सूजन जाती है जिसे हम सायानोसायाटिस कहते हैं वर्तमान में इसका उपचार शल्यचिकित्सा द्वारा किया जाता है। नेति क्रिया द्वारा शीर्ष प्रदेश की सफाई की जाती है, साथ ही इससे आन्तरिक नाड़ियों को संवेदन सील बनाया जा सकता है ऐसा माना जाता है कि नेति का सम्बन्ध दृष्टि सम्बंधित नाड़ियों से होता है, जिससे उनका शोधन होता है और दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है नेति के अनेक प्रचलित अभ्यास हैं परन्तु मूल अभ्यास सूत्र नेति है[8]


चरण दास जी कहते हैं :-

डेढ़ वालिस्त के सूत की मोटी डोर को बटकर ,उसके उपरी सिरे पर मोम लगाकर डोर को हाथ में लेकर सीधा करें तथा नासा रन्ध्र में डालकर दो अँगुलियों से मुह से बाहर खींचकर दही की भांति विलोयें सुबह के समय अभ्यास करने की इस विधि को नेति कर्म कहते हैं। [9]


नौली:- इसे लौलिकी भी कहा जाता है। इस शब्द की उत्पत्ति लोल शब्द से हुयी है, जिसका अर्थ है गतिपूर्वक इधर-उधर घुमाना जिससे पेट की मांसपेसियों और उनसे सम्बंधित सभी संस्थानों की आन्तरिकमालिस कर पाचन संस्थान के सभी अवयव और स्नायुओं को उत्तेजित कर सक्रिय बनाया जा सके, इससे सभी रोगों का नाश होता है और पाचक अग्नि तीव्र होती है[10]


त्राटक:-नेत्रों का किसी एक विन्दु पर लक्ष्य साधना और अश्रु पर्यन्त तक दृष्टि स्थिर करना त्राटक कहलाता है। [11]


त्राटक के आध्यात्मिक लाभ:- “शाम्भवीजायतेध्रुवमत्राटक के अभ्यास से साधक शाम्भवी सिद्धि प्राप्त कर समाधिस्थ हो जाता है।  


दैवीय लाभ:-दिव्य दृष्टि प्रजायते अर्थात् साधक दिव्य दृष्टि प्राप्त कर भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल अर्थात् तीनो कालों का परिणाम देखने वाला (त्रिकालदर्सी) हो जाता है।


कपालभाति:-कपालभाति जैसा कि अपने नाम से विदित होता है कपाल अर्थात् सिर का अग्र भाग, भाति अर्थात् चमक अत: कपालभाति क्रिया द्वारा कपाल प्रदेश में स्थित कफ का शोधन कर चेहरे परकान्तिमान स्थापित किया जाता है।  घेरण्डसहिंता में कपालभाति के तीन प्रकार बताये गये हैं:- वातक्रम, व्युत्क्रम, और शीत्क्रम[12]

हठ प्रदीपिका में भी कहा गया है। [13]


नेति कर्म:- नेति नासिका मार्ग को साफ करने की एक तकनीक है।  श्वसन प्रणाली के ऊपरी भाग से संबंधितयह एक सफाई प्रक्रिया हैनेति क्रिया अनेक प्रकार से प्रचलन में हैं जैसे- दुग्धनेती, रबरनेति,जलनेति, आदि यद्यपि जल नेति के लिए प्रामाणिक संदर्भ उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु इसका अभ्यास व्यापक रूप में किया जाता है इसका अभ्यास  हल्के गर्म नमकीन पानी से किया जाता है।  किसी भी पारंपरिक ग्रंथ में जल नेति में नमक की सही मात्रा का उल्लेख नहीं किया गया है कुछ लेखक इसके बजाय क्षीर (दूध) और मधु (शहद) के उपयोग के बारे में उल्लेख करते हैं आदर्श रूप से आसनों से पहले सुबह में इसका अभ्यास किया जाता है नेति का प्रमाणिक अभ्यास सूत्र नेति को माना जाता है।  ग्रामों में दही विलोने की रस्सी जिसके द्वारा मथनी घूमती है उस सम्पूर्ण तकनीकि को नेति कहते हैं।  इसी प्रकार योग में 9 इंच लम्बी सूत की रस्सी जिसे सूत्र नेति कहते हैं को नासिका से डालकर मुंह से निकालकर दही की भांति विलोने की क्रिया को नेति क्रिया या नेतिकर्म कहते हैं।


भक्तिसागर में चरण दास जी कहते हैं :-डेढ़ वालिस्त के सूत की मोटी डोर को बटकर ,उसके उपरी सिरे पर मोम लगाकर डोर को हाथ में लेकर सीधा करें तथा नाशारन्ध्र में डालकर दो अँगुलियों से मुह से बाहर खींचकर दही की भांति विलोते हैं यही नेति कर्म है। नेति कर्म के लाभ बताते हुये कहा गया है नाक, कान, दांत आदि में किसी प्रकार का रोग उत्त्पन्न नहीं होता साथ ही नेति के नित अभ्यास से आँखों की रोशनी बढती है। [14]


घेरण्डसहिंता में कहा गया है :-एक वालिस्त लम्बा धागा लेकर नासारन्ध्र में प्रवेश करायें और मुखद्वार से बाहर निकाल कर दही की तरह विलोयें इसे ही नेति कर्म कहते हैं।


हठप्रदीपिका में कहा गया है:- एक वालिस्त सूत्र को नासिका छिद्र में डालकर मुख से निकाल दें सिध्दों द्वारा इसी को नेतिकर्म बताया गया है। [15]नेति कर्म के अभ्यास से कपाल प्रदेश का शोधन होता है, जिससे आँखों की रोशनी बढती है नासिका स्थित कफ की शुद्धि होती है कन्धों से ऊपर के भाग में होने वाले समस्त व्याधियों को शीग्र समाप्त कर साधक को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। [16]


चिकित्सकीय लाभ:- इसके लाभ बताते हुए कहा गया है:-नेतिकर्म के अभ्यास से खेचरी की सिद्धि, कफादि दोषों की निवृत्ति और दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है। [17]नेति क्रिया का सयानोसायटिस व्याधि और स्कन्ध से ऊपर के रोगों में विशेष लाभ होता है नेति नासिका मार्ग को साफ करने की एक तकनीक है।  श्वसन प्रणाली के ऊपरी भाग से संबंधित यह एक सफाई प्रक्रिया है, नेतिकर्म का परिवर्तित रुप जल नेति है।  जलनेति में कुनकुना पानी नासिका गुहा (नेजलकैविटी) में जाता है, तो पानी के साथ कफ बाहर आता है, जिससे श्लेष्मा झिल्ली में स्थित कीटाणुओं की सफाई होती है और साथ ही फेंफडों में पहले से जमे धूल के कण कफ को साफ़ करता हैऔर श्लेष्मा उत्पन्न करने वाली ग्रन्थियों पर प्रभाव डालता है यह श्लेष्मक ग्रंथियां ऑक्सीजन को शरीर तापमान के अनुकूल, छानकर फेंफड़ो में भेजती हैं, जिससे श्वसन संस्थान सुचारू रूप से कार्य करने लगता है और फेंफड़ो को शुद्ध वायु पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती है, जिससे श्वसन संस्थान से सम्बन्धी रोग उत्पन्न नहीं होते। भ्रूमध्य में स्थित सायनस ग्रंथि के आस-पास कई सूक्ष्म नाड़ियाँ स्थित है, जो आँख  और कान से सम्बंधित हैं। जब नेतिक्रिया द्वारा इनमे पानी पहुँचता है तो संवेदना उत्पन्न होती है और आँखों से आंसू निकलते हैं, नेतिकर्म अश्रु नलिकाओं और ग्रंथियों को उत्तेजित करके आँखों के तनाव को दूर कर सकारात्मक प्रभाव डालता है।  नेतिकर्म से रक्त परिसंचरण में वृद्धि होती हैऔर रक्त प्रवाह सिर की तरफ होने से मष्तिष्क को अधिक रक्त प्राप्त होता है, जिससे चिंता, अवसादादि नष्ट हो स्मृति, एकाग्रता जैसी क्षमताएं विकसित होती हैं। नेति का व्यवस्थित एवं नियमित अभ्यास कान, नाक और गले से सम्बंधितअंगो का शोधन कर उनकी कर्याक्षमता को विकसित करता है। यह सर्दी, खांसी, एलर्जीराइनाइटिस और घ्राण इन्द्रिय की क्षमता का भी विकास करती है,जलनेति का अभ्यास ऋतु परिवर्तन से सम्बंधित तापक्रम तबदीली के प्रति प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित करने हेतु किया जाता है जैसे-ग्रीष्म ऋतु के अन्त में ठण्डे पानी से जल नेति का अभ्यास करने से सर्दियों में नेजलकैविटी में होने वाली एलर्जी, नजला, जुकाम आदि से बचा जा सकता है ठीक इसके विपरीत ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ होने से पूर्व गर्म पानी से इसका अभ्यास करने पर गर्मियों में नेजलकैविटी में शुष्कता नहीं होतीनेति कपाल को साफ करती है और दिव्यदृष्टि प्रदान करती है साथ ही गर्दन से ऊपर भाग में होने वाले रोगों को दूर करती है।  नेतिएलर्जी, धूल कण जैसे विजातीय द्रव्यों को हटाती है अत: नेति का अभ्यास उन व्यक्तियों को अवश्य करना चाहिए जो कोयले, ईंट भट्टे,रुई धुनाई,दालमील,राईस मिल, यातायात पुलिस के कर्मचारी आदि सदैव धूल पदार्थों के कणों को अवशोषित करते रहते हैं। [18]नेति के अभ्यास से मस्तिष्क शांत होता है जिससे तनाव,सुस्ती समाप्त होती है मस्तिष्क में गर्मी,उत्तेजना या मिर्गी आदि की समस्या के निवारण में भी यह उपयोगी हैइससे आज्ञा चक्र भी जाग्रत होता है फलत:मन शांत स्थिर होता है जिससे मानसिक रोगों से बचाव होता है; क्योंकि एकाग्रता में ही विवेक पूर्ण ढंग से वुद्धि कार्य करती है। [19]अत: अवसाद, तनाव,चिंता आदि से बचाव हेतु साधक को जल नेति का अभ्यास करना बताया है नेति के अभ्यास सेमस्तिष्कीय तनाव को दूर किया जा सकता है। [20]


निष्कर्ष : जलनेती क्रिया से नासिका द्वार अथवा नासिका मार्ग में जमा हुआ कफ एवं प्रदूषण से हुई गंदगी को बाहर निकाला जाता है इससे श्वास प्रवाह तेजी से होने लगता है इसके अभ्यास से श्वास नली से संबंधित विकार जैसे- दमा ब्रोंकाइटिसयक्ष्मान्यूमोनिया को नियंत्रित किया जा सकता है यह अभ्यास सर्दी, साइनोसाइटिसएलर्जी, आदि के साथ-साथ आंख, कान, और गले अर्थात कंधों से ऊपर के रोग जैसे- दृष्टि दोष, नाक की सूजन, बहरापन, टॉन्सिल्स, और श्लेष्मा झिल्ली में सूजन आदि में लाभकारी है जल नेति क्रिया के अभ्यास से बच्चों के मुंह द्वारा श्वास लेने की आदत को दूर किया जा सकता है मस्तिष्क पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है साथ ही यह मिर्गी एवं माइग्रेन की चिकित्सा में सहायता प्रदान करती है इसका अभ्यास अवसाद, क्रोध, चिंता आदि में भी सहायक है इससे आलस्य दूर भागता है और साथ ही साथ नासिका में स्थित तंत्रिकाओं के किनारों को उत्तेजित कर मस्तिष्क के कार्यकलापों और व्यक्ति के सामान्य स्वास्थ्य में भी सुधार करती है इसका लाभ आज्ञा चक्रजागृत करने में सहायक होना भी है। [21]


समीक्षा से हमने पाया है कि नेतिकर्म द्वारा साइनोसाइटिस, राइनाइटिस, राइनोसिनससिटिसएलर्जी अवसादचिंताजैसी - कफ दोष सम्बन्धी शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों में प्रयोग कर लाभ प्राप्त किया जा सकता है।


नोट:- योग के किसी भी अभ्यास को योग्य शिक्षक (योग गुरु) के निर्देशन में अवश्यं करें अन्यथा सम्पूर्ण जानकारी के अभाव में लाभ की जगह हानि भी हो सकती है।

 

[1]धौतिर्वस्तिस्त्तथानेति: लौलिकीत्राटकं तथा  
कपालभातिश्चैतानिषट्कर्माणिसमाचरेत्  1/12  घेरण्ड संहिता योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, विहार, भारत
[2]षट्कर्मणाशोधनं च
[3]धौतिर्बस्तिस्त्तथानेतिस्त्राटकंनौलिकं तथा
कपालभातिश्चैतानिषट्कर्माणिप्रचक्षते 2/22 हठप्रदीपिका
[4]गुल्म ज्वरप्लीहकुष्ठकफपित्तंविनश्यति
आरोग्यंबलपुष्टिश्चभवेत्तस्यदिनेदिने 1/41
[5]यह जो वस्ती कर्म है ,गुरु विनपावेनाहिं
  लिंग गुदा के रोग जो ,गर्मी के नाश जाहिं
[6]नीर गुदा सोंखेंचके,थाम्हें उदर मझार
कछू डोल अरु बैठ के ,फिर दे ताहि उतार  चरणदासकृत भक्ति सागर पृष्ठ सं 54 (राजा) राम कुमार – प्रेस , बुक डिपो , लखनऊ , प्रकाशन वर्ष  सन 1951 ई० 
[7]नाभिमग्नजलेपायुन्यस्तनालोत्कटासन:
आकुंच्चनप्रसारं च जल वस्तिंसमाचरेत्  1/4612  घेरण्ड संहिता योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, विहार, भारत
[8]साधनान्नेतिकार्यस्यखेचरीसिद्धिमाप्नुयात  
कफदोषाविनश्यन्ति दिव्य दृष्टि: प्रजायते  1/51घेरण्ड संहिता योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, विहार, भारत
[9]मिहीजु सूत मंगाय के , मोटी बाटै डोर
ऊपर मोम रमायकें , साधे उठकर भोर
साधै उठकर भोर , डेढ़ वीता की कीजे
ताको सीधी करे , हाथ अपने में लीजे
नाशारंधरमेलके , खेंचेअंगुरदोय
फेर विलोवन कीजिये , नेति कहिये सोय चरणदासकृत भक्ति सागर प्रष्ठ सं 53
[10]अमंदवेगेनतुन्दंभ्रामयेदुभपाश्र्वयो:  
सर्वरोगात्रिहन्तीहदेहानलविवर्ध्दनम  
[11]एवमभ्यासयोगेनशाम्भवीजायतेधुरूवम
नेत्ररोगाविनस्यन्ति दिव्यदृष्टि: प्रजायते
[12]वातक्रमेणव्युत्क्रमेणशीत्क्रमेणविशेषत:
भालभातित्रिधाकुर्यात्कफ़दोषंनिवारयेत  1/55
[13]भस्त्रावल्लोहकारस्यरेचपूरोंससंभ्रमौ
कपालभातिंर्विव्यताकफदोषविशोषणी     
[14]कान नाक  अरु दांत को, रोग न व्यापे कोय
उज्जवलहोवें नैन ही, नित नेति कर सोय चरणदासकृत भक्ति सागर प्रष्ठ सं 53  
[15]सूत्रंवितस्तिसुस्निग्धंनासानालेप्रवेशयेत्
मुखात्रिर्गमयेच्चौषानेति:सिध्दैर्निगद्दते2/30 हठप्रदीपिकालोनावलापुणे महाराष्ट्र
[16]कपाल शोधनी चैवदिव्यदृष्टिप्रदायिनी
जत्रूर्ध्वजातरोगौघंनेतिराशुनिहन्ति च 2/31वही
[17]साधनान्नेतिकार्यस्यखेचरीसिद्धिमाप्नुयात
कफदोषाविनश्यन्ति दिव्य दृष्टि:प्रजायते 1/51 घेरण्ड संहिता योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, विहार, भारत
[18]स्वामी सत्यानन्द सरस्वती (घेरण्ड संहिता ) योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, विहार, भारत तृतीय संस्करण (2006) पृष्टसं 90,91,92
[19]स्वामी सत्यानन्द सरस्वती (घेरण्ड संहिता ) योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, विहार, भारत तृतीय संस्करण (2006) पृष्टसं 95,96
[20] डॉ. राकेश गिरी (स्वस्थवृत्त विज्ञान एवं यौगिक चिकित्सा) शिक्षा भारती (उत्तराखण्ड) निकुंज विहार, 249404 आर्यनगर हरिद्वार (2021)संशोधित संस्करण पृष्ठ सं.205   
[21]स्वामी सत्यानन्द सरस्वती (आसन प्राणायाम मुद्रा बन्ध) योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, विहार, भारत तृतीय संस्करण (2006) पृष्ठ सं, 506


सेतवान

शोध छात्र, योग विज्ञान विभाग, गुरुकुल काँगड़ीसम विश्वविद्यालय हरिद्वार

setwaandiwakar1991@gmail.com 06397704659

 

डॉ.राकेश गिरीशोध निर्देशक

डॉ.ऊधम सिंहसहशोध निर्देशक 

सहायक आचार्य,  योग विज्ञान विभागगुरुकुल काँगड़ीसम विश्वविद्यालय हरिद्वार


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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