शोध आलेख : उत्तराखण्ड की लोक सांगीतिक विरासत के संवाहक समुदाय और उनकी व्यावसायिक परम्पराएं / रविन्द्र कुमार स्नेही

उत्तराखण्ड की लोक सांगीतिक विरासत के संवाहक समुदाय और उनकी व्यावसायिक परम्पराएं


- रविन्द्र कुमार स्नेही


शोध सार : अन्य प्राणियों के समान ही अपने अवतरण के पश्चात् जब मनुष्य पृथ्वी के विभिन्न भागों में विसरित हुआ तो प्राकृतिक अनुकूलन के कारण मनुष्यों में अनेक प्रकार की शारीरिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं का जन्म हुआ। लोक संगीत भी उन सांस्कृतिक विविधताओं में से एक है जिसके संवाहको ने प्रकृति एवं समाज के साथ अनुकूलन कर सदियों से गीत, नृत्य एवं वाद्य की अनेक मौखिक परम्पराओं को संजोये रखने का कार्य किया है। प्रस्तुत अध्ययन में उत्तराखण्डी लोक संस्कृति एवं संगीत के संवाहक औजी, बेड़ा, हुड़क्या, भाट, मिरासी, ढाकी और अठपहरीय समुदायों के लोक संगीत और उनकी व्यावसायिक परम्पराओं का अध्ययन किया गया है। इसके साथ ही इन समुदायों के उद्भव और पतन के कारणों का भी उल्लेख किया गया है।

बीज शब्द : लोक संस्कृति, लोक संगीत, पराम्पराएं, औजी, बेड़ा, हुड़क्या, मिरासी, ढाकी, भाट, अठपहरिया, सांस्कृतिक, गीत, नृत्य एवं वाद्य।

मूल आलेख : सृष्टि के प्रारम्भ से ही संगीत को जन्म देने वाले गन्धर्व-किन्नर मूल रूप से हिमालय के आदिवासी ही थे।1 जिन्हें गढ़वाल में औजी, बेड़ा, हुडक्या, ढाकी, मिरासी, भाट, चारण एवं अठपहरिया जैसे नामों से जाना जाता है। यह वही महान कलाकार, संगीतकार एवं साहित्यकार हैं जिन्होंने समाज की अनेक कुरीतियों को सहकर भी लोग संगीत की तीनों परम्पराओं कम्रशः गीत, नृत्य एवं वाद्य को पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझकर हस्तान्तरित करने का कार्य किया है। इन समुदायों के द्वारा सृजित साहित्य विशेष रूप से मौखिक परम्पराओं पर आधारित रहा है। यह साहित्य समाज, धर्म, सत्ता, रण क्षेत्र, राजनीति, आधुनिकता, जन रीतियां, सामाजिक कुरीतियां, प्रणय, हर्ष, विषाद जैसे अनेक विषयों से सम्बन्धित है। इनमें प्रत्येक समुदाय गायन, नृत्य एवं वादन की अपनी कुछ विशिष्ट शैलियों से जन-जन का मनोरंजन करते थे जिनमें से वर्तमान में कुछ ही समुदाय के लोग अपनी संगीत कला का प्रदर्शन करते हैं। कालन्तर में इन समुदायों में से अधिकतर समुदाय वृत्ति में बंटे होते थे और उस क्षेत्र के लोग विशेषकर क्षत्रिय लोग इनके भरण-पोषण हेतु इन्हें आश्रय प्रदान करते थे। अपने इन आश्रयदाताओं को यह लोग गैख कहते थे। अपनी इस वृत्ति फिर्ती क्षेत्र के लोगों के समक्ष ही वह अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। जिसके बदले में इन्हें कुछ अनाज भोजन सम्बन्धी सामग्री प्रदान की जाती थी। इन सभी समुदायों का लोक संगीत जहाँ एक ओर आस्था और विश्वास से ओत-प्रोत देखने को मिलता है वहीं दूसरी ओर इनके संगीत में उत्तराखण्ड की जीवन शैली की छटा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उत्तरखण्डी लोक संगीत संस्कृति के संवाहक के रूप में विद्यमान इन समुदायों का आगमन भिन्न-भिन्न स्थानों से भिन्न-भिन्न समय पर हुआ है जिस कारण यह आपस में कुछ वैवाहिक एवं भोजन सम्बन्धी निषेधों का भी पालन करते थे, मध्यकाल में सामन्तशाही के बदलते स्वरूप ने इनके मध्य का यह भेद बहुत हद तक पाटने का कार्य किया है। परिणामतः वर्तमान समय में अधिकतर समुदाय व्यावसायिक तौर पर ढोल-दमौ का वादन करने लगे हैं और अपनी पहचान औजी समुदाय के रूप में बताते हैं। जिससे स्पष्ट होता है कि आज संगीत के क्षेत्र में पाई जाने वाली व्यवसायिक विविधता धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।

साहित्य का पुनर्वालोकन : रेखा साह (2016) ने अपने शोध पत्र गढ़वाल का लोक संगीत एवं संस्कृतिमें बताया है कि गढ़वाल का लोक संगीत क्रमशः सामाजिक-धार्मिक, औझाई एवं मनोरंजन आदि तीन स्वरूपों में पाया जाता है और इनमें प्रयोग होने वाले वाद्य यंत्र एवं वादक कलाकार निश्चित एवं पृथक होते हैं। पारम्परिक लोक कलाकारों के अतिरिक्त वर्तमान में नये लोक गायक भी समाज में विद्यमान हैं जिनपर शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत तथा फिल्मी संगीत का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जाता है जबकि पारम्परिक लोक संगीत का प्रयोग केवल सांस्कृतिक परिवेश में होता है।2

मनीष कुमार मिश्रा (2018) ने ‘‘लावणी: जाति केन्द्रित लोक कलाओं में स्त्री शोषण एक सामाजिक स्तर विन्यास’’ विषय पर आधारित अपने इस शोध में सर्वप्रथम लावणी के परम्परागत और आधुनिक स्वरूपों का वर्णन किया है। 16वीं शताब्दी में प्रचलित हुए तमाशे की इस शैली में समाज के हाशिये पर पड़ी छोटी जाति की महिलाओं को सामाजिक शोषण की स्वीकृति का एक सत्ताकेन्द्रिकृत षड़्यंत्र बखूबी मान्य सामाजिक प्रथा के रूप में प्रचलित रहा। पेशवाओं द्वारा इस समाज की महिलाओं के लिए तमाशे का पेशा अनिवार्य कर उन्हें पेशेवर और बाजारू बनाया गया। पेशवाई खत्म होने पर यह कलाकार आम लोगों के बीच अपनी कला का प्रदर्शन करने लगे, किन्तु 1932 के पश्चात् भारतीय सिनेमा की बोलती फिल्मों के दौर ने सदियों पुराने लोक संगीत के इस व्यवसाय को अत्यधिक प्रभावित किया है। वहीं सरकार के द्वारा भी तमाशा करने वाले कलाकारों की अशलीलता को कम किया गया और अन्ततः दलित विमर्श के माध्यम से दलित साहित्यकारों ने इन महिलाओं की पीड़ा को उजागर करने का कार्य किया। वर्तमान समय में सिनेमा और इन्टरनेट के सशक्त माध्यमों से लावणी के मूल स्वरूप को बचाना तथा इस व्यवसाय में सम्मिलित महिला कलाकारों को उचित सम्मान देना समाज के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है।3

अमिता कर (2020) ने अपने एक शोध पश्चिम बंगाल का लोक संगीत: भवइया एवं उसकी वर्तमान प्रस्थितिमें पाया कि पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले का राजवंशी परिवार भवइया लोक संगीत के सृष्टिकर्ता और वाहक हैं। यह संगीत इन राजवंशी लोगों का स्वतंत्र इतिहास, आत्म परिचय एवं पारिवारिक जीवन के सुख-दुःख का साथी है। इस संगीत में नारी के विरह, प्रणय-वासना और समाज की गहराई के अर्थ से प्राप्त हुआ एक सामाजिक चित्र दिखाई देता है। इस संगीत को वर्तमान में विभिन्न समाज के लोगों ने ग्रहण किया है, किन्तु प्रराम्भ में इस संगीत को सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था। क्योंकि इस गीत को गाने वाले समाज में निम्न श्रेणी लोग थे जो पशुचारण करते हुए जंगलों में, नाव चलाते हुए नदियों में, खेती करते हुए खेतों में तथा हाथी को हांकते हुए रास्तों में भवइया गीत गाया करते थे। आज विभिन्न संगठनों, संस्थाओं और भवइया गीतकारों के अथक प्रयासों से भवइया संगीत ग्रामीण परिसीमा से बाहर मंचों तक पहुँच गया है।4

सुरेश शर्मा (2021) का इस वर्ष 24 फरवरी को हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध समाचार पत्र दिव्य हिमालय में प्रकाशित लेख कला-संस्कृति, सरकार एवं दरकारमें लिखा है कि लोक कलाओं को ढो रहे परम्परागत और पुश्तैनी कलाकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। विभिन्न कलाओं को आगे बढ़ाने में समाज के सभी धर्मों, वर्गों और जातियों का योगदान रहता है। प्रदेश के अनेक कलाकार आज भी विभिन्न कलाओं के माध्यम से परिवारिक जीवन-यापन तथा भरण पोषण के लिए संघर्षरत हैं, किन्तु कार्य की गौणता, उचित पारिश्रमिक तथा उचित सम्मान मिलने के कारण कई पेशेवर तथा स्थानीय कलाकारों ने अपने परम्परागत व्यवसायों से मुँह मोड़ लिया है। इसलिए इन्हें आर्थिक संरक्षण दिए जाने की नितान्त आवश्यकता है साथ ही प्रदेश में विभिन्न कलाकारों एवं कलाओं के संरक्षण, संवर्धन तथा सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य से प्रदेश में एक मजबूत सांस्कृतिक नीति की आवश्यकता है।5

किंशुक श्रीवास्तव एवं आयुषि खुराना (2022) ने लोक ‘‘संगीत के संरक्षण एवं संवर्धन में कलाकारों का योगदान’’ विषय पर अपने शोध पत्र में हरियाणा के लोक कलाकारों के विशेष योगदान को उजागर किया है। उक्त शोध के अनुसार हरियाणा के लोक कलाकार लोक संगीत के प्रचार-प्रसार हेतु क्षेत्रीय राज्य स्तर के मंचों पर लोक गीतों, नृत्यों एवं वाद्य यंत्रों की प्रस्तुती देते है। यह लोक कलाकार जहाँ एक ओर हरियाणा के विभिन्न स्कूलों- कॉलेजों के माध्यम से बच्चों को लोक संगीत में प्रशिक्षित कर गुणी और आत्मनिर्भर बनाने का कार्य कर रहे हैं वहीं वह दूसरी ओर अपने बच्चों में भी इस कला का हस्तान्तरण कर रहे हैं। इन लोक कलाकारों का मानना है कि भले ही हमारे बच्चे इस कला को अपनी आजीविका में सम्मिलित करें किन्तु उन्हे इस कला का ज्ञान अवश्य देना है। इसके अलावा इस शोध में कुछ विशिष्ट मेलों के आयोजनों एवं उनमें प्रस्तुती देने वाले लोक कलाकारों का वर्णन किया गया है।6

नीतू गुप्ता (2022) ने प्रकाशित अपने शोध संगीत जीवी जातियों का लोक संगीत के क्षेत्र में योगदान विशेषकर बीकानेर के सन्दर्भ में पाया कि बिकानेर राजस्थान की समृद्ध लोक संस्कृति और लोक संगीत के संरक्षण में ढोली, ढाढ़ी, नक्कारची, भाट, राव, माण्ड, मिरासी, नट, कथिक, राणा, दमामी तथा कलावन्त, भोपे, कामड़, हुडकल, भगतण, जोगी, बैरागी आदि संगीत जीवी जातियों का विशेष योगदान है। राजशाही के दौरान राजा-महाराजाओं के पास पर्याप्त धन होने के कारण उन्हें सम्मान देने वाली सभी जातियों को वह पनाह देते थे जिनमें से यह लोक संगीत जीवी जातियाँ भी सम्मिलित थी। राजघरानों पर आश्रित होने के कारण यह जातियाँ उनके मनोरंजन, मंगल कामना, रण क्षत्रों में एवं विजय के अवसर पर प्रसन्न करने का हर सफल प्रयास करती थी जिसके लिए इन्हें उपहार मिलता था, किन्तु समय परिवर्तन के साथ ही ये जातियाँ राजदरबारों एवं रजवाड़ों की चार दीवारी तक सीमित रहकर, पीढ़ी दर पीढ़ी चली रही परम्परा के रूप में आज भी जन-जन को आनंदित करने में सक्षम हैं। इन कलाकारों की वजह से ही बीकानेर की यह विशेष गायकी आज राजस्थान ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत एवं विदेशों  में भी गाई-बजाई जाती है।7

अंजना राजपूत (2022) ने बेड़िया जनजाति: एक झलकनाम से प्रकाशित अपने शोध पत्र में मध्य प्रदेश बुन्देलखण्ड की बेड़िया जनजाति की महिलाओं की स्थिति का अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस शोध के अनुसार जहाँ एक ओर बेड़िन जनजाति परम्परा और रीतिरिवाजों की दृष्टि से समृद्ध है वहीं दूसरी ओर इसका सबसे दुःखद पहलु यह है कि इनमें से बहुत से लोग आज भी वेश्यावृत्ति के चंगुल से बाहर नहीं पा रहे हैं। क्योंकि समाज में इन्हें इज्जत से कोई और कार्य करने की इजाजत नहीं है जिस कारण इस समाज की महिलाएं वेश्यावृत्ति के दलदल में फस जाती है। इस जनजाति में महिलाओं को आय के स्रोत के रूप में जन्म दिया जाता है जिनके रजस्वला होते ही 2000 से 5000 रूपयों में इनकी बोली लगनी शुरू हो जाती है। महिलाओं को इस दलदल से बाहर निकालना सरकार की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है।8

अध्ययन की आवश्यक्ता : उपरोक्त साहित्य के विश्लेषण से पता चलता है, कि लोक संगीत की अनेक विधाओं और परम्पराओं के जन्मदाता भिन्न-भिन्न समुदायों के लोग रहे है जो कि भारतीय समाज के हासिये पर अथवा मुख्य धारा से वंचित, शोषित और पिछड़े समाज के लोगों के रूप में विद्यमान हैं। अनेक प्रकार की कुरीतियों के चलते इन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जिस कारण इन समुदायों के लोग आज भी समरसता पूर्ण जीवन यापन के लिए मौहताज हैं। भारत के अन्य प्रदेशों की भांति ही उत्तराखण्ड में भी लोक संगीत की विभिन्न विधाएं देखने को मिलती हैं। स्वभाविक है कि इन विधाओं को जन्म देकर सदियों से पारम्परिक व्यवसाय के रूप में अपनाने वाले कुछ विशेष समुदायों के लोग उत्तराखण्ड में भी निवास करते होंगे, जिनके सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं के अध्ययन की अत्यन्त आवश्यकता है। इस कारण शोधकर्ता ने ‘‘उत्तराखण्ड की लोक सांगीतिक विरासत के संवाहक समुदाय और उनकी व्यावसायिक परम्पराएं’’ शीर्षक को अपने शोध विषय का आधार बनाया है।

शोध प्रविधि : प्रस्तुत शोध विवरणात्मक शोध प्ररचना पर आधारित है। जिसके समग्र के रूप में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड राज्य का चयन किया गया है। उक्त शोध हेतु प्राथमिक तथ्यों का संकलन साक्षात्कार अनुसूची की सहायता से साक्षात्कारदाताओं के समक्ष स्वयं उपस्थित होकर एवं फोन कॉल के माध्यम से किया गया है। द्वितीयक तथ्यों का संकलन पुस्तकों, शोध ग्रन्थों, शोध पत्रिकाओं, स्थानीय पत्रिकाओं, दूर संचार के इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया के माध्यम से किया गया है। जिनका विवरण सन्दर्भ सूची के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

शोध के उद्देश्य :

1. उत्तराखण्ड के लोक संगीतज्ञ समुदायों की व्यावसायिक परम्पराओं का अध्ययन करना।

2. उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति में लोक संगीत की विभिन्न विधाओं के सृजनकर्ता संवाहक समुदायों के योगदान का अध्ययन करना।

3. लोक संगीत के संवाहक समुदायों के उद्भव और पतन के प्रमुख कारणों का पता लगाना।

उत्तराखण्डी लोक संगीत के संवाहक समुदायों की व्यावसायिक परम्पराएं : साहित्यिक प्रमाणो से पता चलता है कि वैदिक युग तक अवर्णों के बजाय सवर्ण जाति के लोग वाद्य यंत्रों का वादन करते थे। गुप्तकाल में मनुस्मृति के विघटनकारी प्रभावों के चलते लोक संगीत के संवाहकों की सामाजिक प्रस्थिति में अत्यधिक परिवर्तन आने लगे। लोक संगीत की व्यावसायिक परम्पराऐं विकसित होने लगी और यह लोक संगीत पूर्ण रूप से अवर्ण समुदायों की कुछ चुनिन्दा जातियों तक ही सीमित हो गया। उत्तराखण्ड राज्य में भी कुछेक ऐसे समुदाय है जिन्होंने सदियों से लोक सगीत की व्यावसायिक परम्पराओें का निर्वहन कर उत्तराखण्ड के लोक साहित्य एवं इतिहास को संजोये रखने का कार्य किया है। उक्त शोध पत्र के माध्यम से इन समुदायों की व्यावसायिक परम्पराओं का विवरण अगले सोपान से अलग-अलग विधाओं के संवाहकों के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

1. औजी समुदाय : ऐतिहासिक दृष्टि से उत्तराखण्ड में औजी समुदाय का विवरण कत्यूरी काल से देखने को मिलता है। इस काल की गाथाओं से पता चलता है, कि ढोली, अवाजी पद महत्वपूर्ण तो था, किन्तु वर्ण व्यवस्था में यह समुदाय शूद्र वर्ण के अन्तर्गत आता था।9 जिसका एक कारण चर्म वाद्य पर बैल और भैंस के चमड़े का प्रयोग हो सकता है। गढ़वाल के प्रसिद्ध इतिहासकार हरिकृष्ण रतूड़ी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ गढ़वाल का इतिहासमें शिल्पकार (अछूत) जातियों की एक सूची में औजी समुदाय को बाजगी और दर्जी नाम से सूचिबद्ध किया है तथा इनका व्यवसाय वादन एवं कपड़े सिलना बाताया है।10 गढ़वाल क्षेत्र में इस समुदाय को औजी, बाजगी, गुणिजन, कलावन्त, नंगारिया, ढोली, डोंड़िया एवं वांशी आदि कई उपनामों से पुकारा जाता है, किन्तु इस समुदाय के लोग अपने नाम के अन्त में दास शब्द का प्रयोग करते हैं। व्यावसायिक तौर पर संस्कारों, पर्व, त्योहारों, दिन के पहरों, लौकिक-अलौकिक जैसी अनेक गतिविधियों के दौरान ढोल-दमौ की जुगलबन्दी के साथ वादन गायन करना इस समुदाय के लोगों का पारम्परिक व्यवसाय हैं। कालन्तर में इस समुदाय के लोगों को गायन वादन की इस कला के बदले में रवि और खरीफ की दोनों फसलों पर अन्न के रूप में डड्वार मिलता था, किन्तु वर्तमान में मुद्रा विनिमय होने के कारण पारितोषिक के रूप में रूपयों का प्रचलन हो गया है।

ढोल वादन कला प्राचीन काल से श्रद्धा और आस्था से जुड़ी हुई है इसलिए उत्तराखण्ड में ढोल वादन कला का प्रयोग आस्था विश्वास के रूप में देव पूजन कार्यों में निरन्तर किया जाता रहा है। देवी-देवताओं के गड्याळे, मण्डाण, पंण्डवार्त आदि के जागर शैली औजी समुदाय की लोग संगीत की एक महत्वपूर्ण विधा रही है जिसका साहित्य युगों-युगों से मौखिक रूप में ढोली गुणिजन अपनी पीढ़ीयों को हस्तान्तरित करते रहे हैं। इस समुदाय के लोगों की बसागत लगभग हर तीसरे चौथे गाँव में देखने को मिलती है जिस कारण इस समुदाय का कार्य क्षेत्र अन्य लोक कलावन्त समुदायों की अपेक्षा बहुत सीमित है। सीमित क्षेत्र होने के कारण कालन्तर में इस समुदाय के पुरूष ढोल वादन के अलावा अपने आश्रयदाताओं के लिए नए वस्त्र सिलने तथा महिलाएं विस्तरों फटे पुराने कपड़ों को सिलने (टल्ले थेगळे लगाने) का कार्य करती थी। जिसके बदले में इन्हें बरा और डड्वार दिए जाने की परम्पराएं थी। इसके अलावा गाँव के लोगों के बाल बनाना भी इस समुदाय के लोगों का सहायक व्यवसाय हुआ करता था। विशेष रूप से किसी व्यक्ति के मर जाने पर अर्पित किए जाने वाले बालों को कटाने हेतु इन्हें सभी लोग एक सेर आटा और एक सेर चावल दिया करते थे। जिसे गढ़वाल में अग्याळ नाम से जाना जाता था।

इस समुदाय के लोगों के व्यवसाय में चैती पसारा की एक विशेष परम्परा हुआ करती है। जिसमें महिलाएं भी अपने पुरूषों के साथ चैत्र माह में अपने वृत्ति में डड्वार्या गैखों की विवाहित पुत्रियों (ध्याणियों) के ससुराल में जाकर चैत्वाली, लगमान और बढ़ों मांगते हैं। विवाहित पुत्री के गर्भ से पहला पुत्र उत्पन्न होने पर औजियों का लड़की के ससुराल में तीन दिन के अतिथ्य होता था।11 चैती पसारा की इस परम्परा में ढोली ढोल वादन के साथ गायन करता और महिला गायन के साथ नृत्य प्रस्तुत करती थी। जिसके बदले में इन्हें सभी प्रकार का अनाज (बारनाजू) के साथ-साथ भोजन सम्बन्धी आवश्यक सामाग्री भी मिलती थी। इस परम्परा में गाए जाने वाले गीतों में बिरहा, प्रणय, सुख-समृद्धि, जैवृद्धि एवं दान की भावना वाले गीतों की लम्बी श्रृंखला है जिसमें सदेई, सरू, जस्सी, फ्योंली, जीतु बगड्वाळ, कुसमा कोळणी, सजू की सुनारी, चन्द्रावली हरण, गंगू रमोला, ब्रह्मकौळ, सुरजकौळ की गाथा के गीत प्रमुख हैं। उत्तराखण्ड के लोक समाज में विवाह एवं देव यात्राओं की अगुवाई के समय, कार्य के तनाव को दूर करने मनोरंजन की दृष्टि से खेतों में रोपाई एवं निराई-गुडा़ई के समय, दीपावली में भैला खेलते समय, होली खेलते समय ढोल-दमौ के वादन की परम्पराएं हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक माह के संक्रान्त को बढ़ै और नौबत बजाना इस औजी समुदाय की एक अनुठी परम्परा है जो आधुनिकता के इस दौर में धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर है।

2. बेड़ा समुदाय : उत्तराखण्ड हिमालय के परिशुद्ध लोक संगीत के सृजन का श्रेय बेड़ा समुदाय को जाता है। व्यावसायिक तौर पर इस समुदाय के लोग स्थानीय समस्याओं, घटित घटनाओं, धर्म, आस्था-विश्वास, इतिहास, हर्षोंल्लास एवं विषाद जैसे अनेक विषयों पर गीतों की रचना कर उन गीतों का गायन, नृत्य एवं वादन कर आम जन का मनोरंजन करते थे। पं० हरिकृष्ण रतूड़ी इस समुदाय को नाचने-गाने तथा रस्सी (बर्त) पर उतरने का पेशा करने वाला बताते हैं।12 वहीं गोविन्द चातक लिखते है कि वाद्यी/बेड़ा लोग गाँव-गाँव जाकर नाचते-गाते हैं।13 यूँ तो बेडा समुदाय सभी लोक वाद्य यंत्रों के वादन में पारंगत होते थे, किन्तु व्यावसायिक तौर पर इस समुदाय का मुख्य वाद्य यंत्र ढोलकी रहा है।

अंग्रेजी हुकूमत के मध्य काल तक इस समुदाय का सम्बन्ध समाज से इतना गहरा हो गया कि अब इन्हें विवाह समारोहों एवं अन्य उत्सवों पर अवाजी समुदाय की भान्ती ही मनोरंजन हेतु आमंत्रित किया जाने लगा था। बारात अन्य उत्सवों के दौरान चौक खलिहानों एवं पैदल मार्गों पर विश्राम करते समय बेड़ा-बेड़िन का लोक संगीत मनोरंजन का एक मुख्य साधन बन चुका था जिसके बदले में सभी बाराती इन्हें अपनी हैसियत के अनुसार कुछ पैसे दिया करते थे। इसके आलाव इस समुदाय के लोग बेड़बार्त और लांग नृत्य का नट कौशल भी प्रस्तुत करते थे। जिसका आयोजन महामारी का प्रकोप, सूखा, अकाल, खेतों में हल की फाल से सांप मरने तथा दूध देने वाले पशुओं के थन से रक्त निकलने जैसे विलक्षण विकार उत्पन्न होने पर किया जाता था।14 बेड़ा के बर्त पर फिसलने के उत्सव को बेड़बार्त कहा जाता है। बेड़बार्त में वद्दी घास की एक रस्सी तैयार कर उसे दो चोटियों के मध्य बांधता था जिसे बर्त कहते थे। इस बर्त के ऊपर वह लकड़ी की एक चौकी घोड़ी पर बैठकर चोटी से फिसलता हुआ नीचे आता था। बर्त पर फिसलते समय वह अपनी जटाओं को खोल देता था। माथे पर हल्दी लगे चावलों को लगाकर उसके बाहर से माथे पर लाल रंग का एक कपड़ा बांधता था। गले में ढोलक, एक हाथ में कटार, दूसरे हाथ में डमरू तथा सन्तुलन बनाने हेतु दोनों पैरों पर समान भार वाली मिट्टी रेत की पोटलियां बन्धी होती थी। फिसलता हुआ बेड़ा जब आयोजन स्थल तक पहुँचता था तो लोग उसके बालों को प्रसाद स्वरूप प्राप्त करने के लिए टूट पड़ते थे। भीड़ की इस छीना झपट में यदि बेड़बार्त के नायक की पत्नी अपने पति के सिर के ऊपर अपना घागरा फैहराने में सफल रही तो नायक भीड़ से बच जाता था, किन्तु बहुत से लोग बेडबार्त में रस्सी से फिसलते हुए आपनी जान गंवा बेठते थे। सम्भवता यही कारण है कि बेड़र्बात नाम का यह उत्सव बलि के उत्सव के नाम से भी जाना जाता है।

         बेडबार्त की भांति ही बेड़ा समुदाय के पारंगत लोग लांग नृत्य भी करते थे। जिसमें लांग नर्तक आयोजन स्थल पर गढ़े चीड़ बांस के लगभग 25 से 30 फीट ऊँची बल्ली पर लपकता हुआ लांक के ऊपरी शिरे पहुचता है और फिर उस लांक पर अपना पेट टिकाकर गोल गोल चक्कर लगाता था। गोल चक्कर लगाते हुए वह देवतुल्य बोल खण्ड़वाजा बोलता है तथा जनता के साथ हंसी मजाक (भण्ड्याण) करता था। लांग नर्तक की पत्नी और पुत्रियां उस लांग के बाहर गोल घेरे में गीत गाती और नृत्य करती थी। इस प्रकार बेड़बार्त और लांग के आयोजन करने पर ग्राम वासियों द्वारा इस नट कौशल दिखाने वाले व्यक्ति के परिवार के भरण-पोषण हेतु कुछ अन्न-धन्न दिया जाता था जिससे उस परिवार की लगभग छः माह से एक वर्ष के भोजन की उचित व्यवस्था हो जाती थी। बेडबार्त 20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध तक विशेष रूप से आयोजित होने वाला उत्सव रहा है जिसे टिहरी नरेश कीर्तिशाह ने अपने शासनकाल के दौरान 20वीं शती के प्रथम दशक में बन्द करवा कर केवल कठवद्दी खिसकाने का आदेश दिया था।15 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द तक यह वद्दी के बर्त पर फिसलने लांग नृत्य की यह प्रथा पूर्णरूपेण समाप्त हो गई थी, किन्तु आज भी उत्तराखण्ड राज्य के पौड़ी जनपद विकाखण्ड खिर्सू अन्तर्गत ग्वाड़ और कोठी गाँव में प्रतिवर्ष बैसाख माह के तीसरे सोमवार को कठवद्दी मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें लकड़ी और पुवाल का बना पुतला वद्दी के रूप में खिसकाया जाता है।

3. हुड़क्या समुदाय : गायन एवं वादन के व्यवसाय पर आधारित हुड़क्या कुमाऊँनी बजंत्रियों की एक जाती है जो कि गढ़वाल में भी कई स्थानों पर पाई जाती है। हुड़क्या विशेष रूप से आशु कवि हैं जो वीर-भड़ौं की सौर्य गाथाओं पर आधारित एक विशेष शैली के गीतों का गायन करते थे। उत्तराखण्ड के लोक समाज में गयान की यह शैली में पवाड़ानाम से प्रचलित है। वहीं दन्त कथाओं में इन सौर्य गाथाओं को भड़वाळी नाम से जाना जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भड़ों की भड़वाळी के लिए प्रयुक्त इस पवाड़ा शब्द की उत्पत्ति पंवार वंशी राजाओं के शासनकाल में हुई है। सम्भवतः पंवार वंशी राजाओं की वीर सौर्य गाथाओं के वृत्तांत को पंवारा कहा जाता था और कालन्तर में यह पंवारा शब्द अपभ्रंशित होकर पवाड़ा नाम से प्रचलन में आया है, किन्तु कुछ उच्चारणिक भेद के साथ पवाड़ा शब्द ब्रज, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बुंदेली, भोजपुरी आदि कई जनपदों में भी प्रायः वीरगाथाओं के लिए प्रयुक्त होता आया है’’16 इसलिए पवाड़ा शब्द एवं पवाड़ों के प्रणेता समुदाय के उद्भव को पूर्णतः पंवार वंशी राजाओं से जोड़ना एकदम न्यायौचित नहीं लगता है।

एक हुड़क्या अतिशयोक्तिपूर्ण गाथा को वंश परम्परा के आधार पर गाता है जिसके साथ वह स्वंय नृत्य भी करता है, किन्तु कुमाऊँ के अल्मोड़ा जनपद और गढ़वाल के सल्ट क्षेत्र में हुड़क्या हुड़की बजाता है और हुड़क्याणी नृत्य करती है।17 गढ़वाल में हुड़क्या एक विशिष्ट वेश-भूषा के साथ गायन और नृत्य करते थे। सिर पर बन्धी पगड़ी, घुटनों के नीचे तक लम्बी मिरजई, चूड़ीदार पयजामा, गले में छोटी-छोटी घंटियाँ और पैरों में बन्धे घुंघरू के साथ जब हुड़क्या नाचता था तो सारा माहौल उत्साह और उमंग से सराबोर हो जाता था।18 एक समय था जब यह हुड़क्या और चन्दया लोग व्यवासायिक चारणों की भांति ही गाँव-गाँव में विचरण कर अपने पवाड़े सुनाते थे, किन्तु मध्यकालीन व्यवस्था के परिणामतः वह भड़ रहे, ही उन भड़ों की भड़वाली सुनाने वाले और ही इस शैली के गायन को सुनने वाले लोग। हुड़क्यों के द्वारा गाई जाने वाली यह वीर गाथाएं गद्य एवं पद्य दोनों स्वरूपों में पाई जाती हैं। पद्य गेय रूप में विकसित वीरगाथाओं का विकास ही पवाड़ों के रूप में हुआ है।

मध्य युग में यह हुड़क्या चारण हुड़का बजाकर वीर गाथाएं गाते थे।19 इस समय उत्तराखण्ड अनेक छोटे-छोटे गढ़ों में बंटा हुआ था। जिसके राजा सरदार गढ़पति कहलाते थे। यह गढ़पति युद्ध के लिए भड़र भड़ नियुक्त करते थे। इसी कालंतर में 800ई० से 1 अगस्त 1949 ई० तक पंवार वंशी राजाओं की 60 पीढ़ियों ने गढ़वाल पर राज किया। इन पंवार वंशी राजाओं में अजयपाल नाम का एक 37वाँ राजा हुआ जिसने सम्पूर्ण गढ़वाल के इन छोटे-छोटे गढ़ों में से प्रमुख 52 गढ़ों को जीत कर सन् 1517 में सम्पूर्ण गढ़वाल की द्वीतीय राजधानी श्रीनगर में स्थापित की थी।20 इस काल में अजयपाल के 52 गढ़ों को हासिल करने वाले युद्धों के अलावा कुमाऊँ, तिब्बत, दिल्ली, रूहेलों एवं गोरखों से सेकड़ों युद्ध लड़े गए और इसी अनुपात में भड़ों की गाथाएं भी रची गई। जिनमें अनेक अनेक वीरों ने अपने पराक्रम का लोहा मनवाया। विशेष रूप से हुड़क्या समुदाय के द्वारा इस मध्यकाल में ही वीरगाथाओं पर आधारित अनेक पवाडों की रचना की गई जिस कारण मध्यकाल को पवाड़ों का रचना काल कहा जा सकता है। क्योंकि हुड़क्या इन ठाकुरी राजाओं के प्रोत्साहक कवि हुआ करते थे जो रण में वीर-भड़ों को प्रोत्साहित करने हेतु सौर्य गाथा की रचना कर उन्हें हुड़के की थाप पर गाया करते थे। कत्यूरी सेना में भी ढोल और हुड़की युद्ध में सेना के आगे-आगे बजती थी जिससे सेना में जोश उत्पन्न होता था।21 अनेक वीरों के साथ चन्द्र बरदाई की भूमिका निभाने वाले चम्फू हुड़क्या और तीलू रौतेली के साथ रण में अपनी हुड़की से सेना को प्रोत्साहन करने वाले घिमड़ू हुड़क्या आदि अनेक हुक्यों के नाम उत्तराखण्ड के लोक गीतों और गाथाओं में सुनने को मिलते हैं।

4. भाट चारण समुदाय : शोध क्षेत्र में भाट समुदाय के प्रमाण लगभग ढाई हजार वर्ष पहले तक के मिलते हैं जो मांगलिक गान, स्वागत गान तथा स्वस्तिवाचन करने वाले पण्डित होते थे और लगभग 1500 वर्ष पूर्व से उन्हें प्रशंसा गान करने वाले चारण नाम से जाना जाने लगा।22 भाटों में राजस्थानी और गुजराती भाट सर्वधिक प्रसिद्ध हैं जो सूती धोती, गात पर मिरजई, सिर पर कई फेरों वाली पगड़ी, कमर में कमरबन्द, कमरकबन्द में म्यान सहित तलवार, कन्धे पर दुशाला और सलीमशाही जूती पहनते थे। सम्भवतः उस समय एक आम आदमी नंगे पैर ही चलता था। यह भाट सम्भवतः 12वीं-13वीं सदी के आस-पास अपने आश्रयदाता राजपूतों के साथ मैदानों में बढ़ती अराजकता, अकाल भुखमरी एवं सूखे की स्थितियों में सम्पूर्ण कबीलों के साथ उत्तराखण्ड प्रवास पर आए और यहीं बस गए23 इसके अलावा इस समुदाय के कुछ लोग किसी सैन्य दल के विशेष आग्रह पर गढ़वाल में आकर बसे हैं। इस समुदाय के लोगों ने जहाँ-जहाँ अपना निवास स्थान बनाया वह गाँव भाटगाँव, भल्लगाँव नाम से जाने जाने लगे। अब पहाड़ी परिवेश होने के कारण जहाँ एक ओर भाट समुदाय का कार्य क्षेत्र सीमित हो गया था वहीं दूसरी ओर इन्हें राजपूतों के खसिया और कोल किरात वंश के लोगों का आश्रय मिल पाया जो खेती और शिल्पकार्य कर अपना जीवन यापन करते थे। कृषि प्रदान अर्थव्यवस्था के कारण मुद्रा का अभाव और वस्तु विनिमय प्रथा का प्रचलन था। इसलिए उत्तराखण्ड के इस भाट समुदाय के कार्य का स्वरूप ही बदल गया। गढ़वाल में सामन्ति युग के समय भाट सुदाय भी हुड़क्या समुदाय की भांति ही ठाकुरी राजाओं के चारण कवि हुआ करते थे24, किन्तु हुड़क्यों की भांति इनकी महिलाएं नृत्य नहीं किया करती थी। इनके पास भी हुड़क्यों की भांति ही असंख्य जातियों की वंशावली होती थी। जिसे वह गेय रूप में अपने गैखों ठाकुरों के घर जाकर सुनाते थे और बदले में इन्हें गैखों से उपहार स्वरूप अनाज प्राप्त होता था। उत्तराखण्ड के मौखिक लिखित साहित्य और इतिहास के सृजन में भाट समुदाय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनके सामाजिक इतिहास लेखन में विरूदावलियों (विरूद्वाळीयों) का महत्वपूर्ण स्थान है। व्यावसायिक तौर पर इस समुदाय के लोग राजशाही के दौर में मन्दिरों में शिव गाथाएँ भी गाया करते थे, किन्तु यह परम्परा भी लगभग 1930 के आस-पास समाप्त हो गई थी।

5. मिरासी समुदाय : इस समुदाय का मूल व्यवसाय लोक संगीत रहा है। अर्ध घुमन्त प्रवृत्ति का यह समुदाय राम का उपासक है। इसलिए मिरासियों के संगीत में दान लीला, मान लीला, राम लीला एवं मनावन की भावनाएं देखने को मिलती है।25 मिरासी लोग ढोलक, सारंगी, हारमोनियम बजाकर गीत गाते हैं तथा बदीणों की भांति ही इनकी बहुएं और पुत्रियाँ नृत्य करती हैं।26 मिरासी महिलाओं के नृत्य में चुलबुलाहट के साथ ही यौवन की लालसा और प्रेम की गहराई बरबस टपकती है।27 अपने लोक संगीत एवं नृत्य की बदौलत यह समुदाय लोक समाज में मनोरंजन के लिए जाना जाता था। जिसके बदले में लोग इन्हें दान दक्षिणा स्वरूप अनाज दिया करते थे। कुमाँऊ अंचल के ऋतुरैण गीतों मे आज से लगभग 50-60 वर्ष पूर्व तक ढोलकी, हुड़की के साथ सारंगी की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उस दौर में बिना सारंगी के ऋतुरैण अधूरा माना जाता था। मिरासी महिलाओं चैत्र मास में घर-घर जाकर ऋतुरैण गाया करती थी और उनके पुरूष सारंगी के साथ संगत करते थे।28

         उत्तराखण्ड में सारंगी एवं हारमोनियम का पदार्पण इन्हीं व्यावसायिक लोक कलाकारों के माध्यम से हुआ है। आज से लगभग 50-60 वर्ष पूर्व तक गढ़वाल क्षेत्र में इन व्यवसायिक लोक कलाकारों को छुट-पुट अंशों में अपने पारम्परिक व्यवसाय के साथ देखा गया है, किन्तु पिछले कुछ दशकों में इस समुदाय की अपनी वर्षों पुरानी पहचान उत्तराखण्ड में कहीं धुमिल सी हो चुकी है। सारंगी का जिक्र करते हुए शिव प्रसाद डबराल ने 1996 में प्रकाशित पुस्तक ढोल सागर संग्रह में लिखा है कि सारंगी अभी तक गढ़वाल में मिरासी जाति के व्यवसायी लोक कलाकारों द्वारा निरन्तर प्रयोग में लाई जा रही है जिस कारण इसे लोक वाद्य की श्रेणी में रखा गया है।29

 6. ढाकी समुदाय : ढाकी या झुर्या व्यावसायिक तौर पर नाचने-गाने (नर्तक) का कार्य करते हैं।30 कालन्तर में इस समुदाय के लोग ढक्का नाम के एक विशेष प्रकार के ढोल का बादन करते थे। सम्भतः लोक वाद्य ढक्का के वादन करने के कारण ही इस समुदाय को ढाकी कहा जाता होगा, किन्तु विजय बहुगुणा और चन्द्रमोहन रावत अपने लेख शिल्पकार-मौखिक लोक परमपराओं के संवाहकमें टर्नर का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि औजियों द्वारा ढोल का परित्याग कर ढोलक को धारण करने वाले लोग ही ढाकी कहलाते हैं।31 उत्तराखण्ड के कतिपय स्थानों पर इस समुदाय के लोग अपने आप को डौंडिया डौंडियाल बताते हैं। जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह उस समुदाय के लोग भी हैं जो कभी गाँव-गाँव में ढक्का पीटकर राज सूचना का प्रसारण भी किया करते थे। जिसे स्थानीय भाषा में ढोंड़ी पीटना कहा जाता है सम्भवतः इसी कार्य के कारण इस समुदाय के लोग अपने आप को डोंडिया बताते हैं, किन्तु इस समुदाय के लोग भी अपने नाम के अन्त में दास शब्द का प्रयोग करते हैं।

ढक्का नामक वाद्य का वर्णन संगीत-रत्नाकर और संगीत-मकरन्द में जैसे ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। ढक्का मूल रूप से आम, नीम एवं शीशम की लकड़ी से निर्मित लगभग 13-14 किग्रा भार वाला एक ढोल है। जिसके दोनों मुख 13-13 अंगुल चौड़े रखे जाते है।32 ढक्का को कन्दोठी के सहारे बांए कंधे पर लटकाकर बांयी बगल में दबाते हुए बांये हाथ में 3-5 मिमी० व्यास एवं दाहिने हाथ में 1 सेमी० व्यास की शंकू से वादन किया जाता है। इस समुदाय के लोग आज भी पश्चिम वंगाल में ढाक परम्परा के लिए प्रसिद्ध हैं। यूँ तो यह व्यवसाय पूर्व से ही पुरूष प्रधान रहा है, किन्तु पिछले कुछ वर्षों से पुरूलिया की महिलाओं ने ढाक बजाना शुरू कर दिया है जिससे इनके समुदाय में एक बड़ा सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव आया है।33

उत्तराखण्ड में ढाकी समुदाय के लोग भले ही जौनसार-भावर, जौनपुर, गढ़वाल एवं कुमाऊँ आदि सभी क्षेत्रों में विद्यामान है, किन्तु इनकी संख्या बहुत कम देखने को मिलती है। पारम्परिक रूप से यह समुदाय अपने मूल व्यवसाय का त्याग कर औजी समुदाय के द्वारा प्रयोग किए जाने वाले ढोल का ही प्रयोग करते है। कुछ विद्वानों का मानना है कि ढक्की भी मिरासिंयों जैसे ही होते हैं, परन्तु इनमें कला उतनी निखार वाली नहीं होती है।34

7. अठपहरिया समुदाय : ये नक्कारची हैं जो आठों पहर दरबार के नौबतखाने में नौबत बजाते थे।35 इस समुदाय के लोग गढ़वाल मण्डल में विशेष रूप से पाए जाते थे जिनका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में अवश्य मिलता है, किन्तु वर्तमान में इनकी पहचान करना सम्भव नहीं है। व्यावसायिक तौर पर इनका कार्य राज दरवारों, मन्दिरों एवं सैन्य छावनियों में प्रत्येक पहर की नौबत बजाना था।36 जिससे स्पष्ट होता है कि यह उद्यौगिक क्षेत्र में लगी अलारम घड़ियों की भांति ही राज दरवार के अलावा आम जनमानस के लिए एक समय मापक यंत्र की भूमिका में कार्यरत होते थे।

निष्कर्ष : गढ़वाल में महाभारत काल के उपरान्त शिल्प तथा कृषि कार्य करने वाले खस, कोल, किरातों का आधिपत्य रहा। जिसके पश्चात् मैदानी क्षेत्रों में बढ़ती अराजकता और अकाल जैसी स्थिति के कारण ठाकुरी राजाओं ने पहाड़ों की ओर रूख किया और यही पर आकर बस गए। इन ठाकुरी राजाओं ने यहाँ पर पूर्व से निवास करने वाले और अपने साथ आये हुए सभी समुदायों के पेशेवर कलाकारों को आश्रय प्रदान किया। उस समय तक लोक संगीत के संवाह औजी, बेड़ा/वाद्दी, हुड़क्या, भाट/चारण, मिरासी, अठपहरिया/नांगाड़ची, ढाकी/झुमर्या आदि समुदायों के रूप में उत्तराखण्ड के विभिन्न स्थानों पर फैल चुके थे। इनमें से प्रत्येक समुदाय के लोग संगीत की कुछ विशिष्ट शैलियों में पारंगत होते थे जिनके प्रदर्शन एवं प्रस्तुतीकरण से यह अपना जीवन यापन करते थे। ठाकुरों (गैखों) का आश्रय प्राप्त होने के कारण इन समुदायों के लोग अपने लोक संगीत में ही मग्न रहते थे। जिस कारण इन समुदयों ने कृषि कार्यों को आत्मसात नहीं किया और परिणामतः भूमिहीन ही रह गए। गोरखा आक्रमण और अंग्रेजी हुकूमत ने उत्तराखण्ड के राज तंत्र को बुरी तरह से प्रभावित किया। जिसका प्रभाव आम जनमानस के साथ-साथ लोक संगीत के इन सजग प्रहरियों पर भी पड़ा। अब लोक संगीत के यह सभी पेशेवर कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन आम जनमानस के बीच प्रस्तुत करने लगे और उसके बदले में मिलने वाले धन से अपनी आजीविका चलाने लगे। समय के साथ समाज में अनेक प्रकार की कुरीतियाँ बढ़ने लगी थी साथ ही मनोरंजन के नवीन संसाधनों का विकास होने लगा और उन संसाधनों की पहुँच आम आदमी तक बहुत आसान भी होने लगी थी। यहाँ तक की मनोरंजन हेतु व्यक्ति की पसन्द और नापसन्द को भी स्थान मिलने लगा और मनोरंजन के लोक संसाधनों की उपेक्षा होने लगी। मूल रूप से संगीत पर निर्भर इन समुदायों के समक्ष आर्थिक संकट पैदा होने लगा जिस कारण यह अन्य व्यवसायों को अपनाने लगे और अपनी मूल पहचान खोते चले गए। ढोल-दमौ वादन को लोक समाज के द्वारा वर्तमान समय तक आत्मसात करने के कारण ढोल-दमौ के संवाह अवाजी समुदाय के लोगों के साथ अनेक व्यवसायिक संगीतज्ञ समुदायों का भी मिश्रण होता चला गया। जिस कारण इन समुदायों की अलग से पहचान करना वर्तमान समय में सम्भव नहीं है।

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  19. गोविन्द चातक, गढ़वाल भाषा, साहित्य और संस्कृति, तक्षशिला प्रकाशन 98-, हिन्दी पार्क, दरियागंज, नई दिल्ली, 2008, पृ. 134
  20. यशवन्त सिंह कठोच, पं० हरिकृष्ण रतूड़ी द्वारा रचित गढ़वाल का इतिहास भागीरथी प्रकाशन गृह बस अड्डा बौराड़़ी, नई टिहरी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण, 2007, पृ. 202
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  23. वही पृ. 207
  24. शिवानन्द नौटियाल, गढ़वाल के लोक नृत्य, अमित प्रकाशन गाजियाबाद उत्तर प्रदेश, 1974, पृ. 167
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  30. यशवन्त सिंह कठोच, पं० हरिकृष्ण रतूड़ी द्वारा रचित गढ़वाल का इतिहास भागीरथी प्रकाशन गृह बस अड्डा बौराड़़ी, नई टिहरी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण, 2007, पृ. 97
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  34. शिवानन्द नौटियाल, गढ़वाल के लोक नृत्य, अमित प्रकाशन गाजियाबाद उत्तर प्रदेश, 1974, पृ. 167
  35. यशवन्त सिंह कठोच, पं० हरिकृष्ण रतूड़ी द्वारा रचित गढ़वाल का इतिहास भागीरथी प्रकाशन गृह बस अड्डा बौराड़़ी, नई टिहरी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण, 2007, पृ. 96
  36. विजय बहुगुणा और चन्द्रमोहन रावत, शिल्पकार-मौखिक लोक परमपराओं के संवाहक, उत्तराखण्ड के शिल्पकार, विनसर पब्लिशिंग कम्पनी, डिस्पेन्सरी रोड, देहरादून, 2012, पृ. 116

 

रविन्द्र कुमार स्नेही
शोधार्थी, समाजशास्त्र विभाग, हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय (केन्द्रीय विश्वविद्यालय)
स्वामी रामतीर्थ परिसर बादशाहीथौल, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
ravindarsnehi@gmail.com, 9410106630

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी
आलेख चित्र : लेखक साभार

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