शोध आलेख : भारत के प्रमुख प्रादेशिक लोकनाट्य में परम्पराओं का अनुशीलन / प्रियंका राजेद्र प्रसाद चौहान

भारत के प्रमुख प्रादेशिक लोकनाट्य में परम्पराओं का अनुशीलन
- प्रियंका राजेद्र प्रसाद चौहान

शोध सार : प्रौद्योगिकी काल में विज्ञान ने विकास के क्षेत्र में शिखर चूम लिया है; लेकिन लोक-साहित्य आज भी पिछड़ा हुआ है। लोक-साहित्य के संदर्भ में लोगों की मानसिकताअशिष्ट, असभ्य और गवार लोगों के साहित्यके रूप में दिखाई पड़ती है। लेकिन साहित्य के विकास में लोकसाहित्य ही साहित्य की नींव है; उसे बिना पढ़े हमसाहित्य की कल्पना नहीं कर सकते। नाट्य जगत में रंगमंच शास्त्रीय रूप से विकसित है, वही लोक-नाट्य उस विकास परम्परा में दब हुआ हैं। आज भी कई ऐसे जनजातियाँ  हैं जो अपनी सभ्यता और संस्कृति को लोक-नाट्य के माध्यम से सजोये हुए है। संस्कृति और सभ्यता के कारण ही विश्वभर में भारत को अलग पहजान मिली है। उसी परम्पराओं को सजोने का काम लोक-नाट्य करते रहे हैं।

लोक-नाट्य को एक प्रकार से मनोरंजन का साधन माना जाता है। इसकी विशिष्टता हमें त्योहारों में देखने को मिलती है। लोक-नाट्य को विशेष त्योहारों और पर्वों के दिन हमारी संस्कृति और रीति,रिवाज परम्पराओं को प्रदर्शित कर जनजागृति का कार्य किया जाता था। विभिन्न जातियों के लोग जैसे भांड, तरगना, भतरा, मांग, गारुडी, कंजारभाट आदि अपने अभिनय कला से विभिन्न स्थानों पर लोक-नाट्य  प्रदर्शित किया करते हैं। आज की युवा पीढ़ी बाजारवाद, भूमण्डलीकरण, मशीनीकरण के कारण अपनी संस्कृति और कलाओं से विमुख होती जा रही है। इसलिए हमें लोकनाट्य पर अध्ययन करने की आवश्यकता है।

बीज शब्द : लोक, लोक-साहित्य, भारत, संस्कृति, परम्परा, लोक-नाट्य, कला, जनजीवन, समाज, पुराण, जाति, धर्म।

मूल आलेख : भारत विभिन्न प्रान्तों का देश हैं; जहाँ विभिन्न भाषा समुदाय और विभिन्न परम्परा के लोग निवास करते हैं। सभी समुदायों की अपनी एक संस्कृति और अपनी एक पहचान होती हैं। पुरातन काल में व्यक्ति के पास साधन नहीं हुआ करते थे, इसलिए उन्होंने अपने मनोरंजन के लिए लोक, कलाओं का निर्माण किया। व्यक्ति द्वारा निर्मित लोक, कलाओं में उनकी संस्कृति तथा उनके परम्पराओं की झाकियाँ मिलती हैं। भारत में विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न समुदाय होने के कारण उनकी परम्परा भिन्न-भिन्न दिखाई देती हैं। समुदाय के परम्पराओं की झलक हमें लोकसाहित्य में देखने मिलती हैं। परम्पराएँ ही भारत की धरोहर है जिसे आत्मा कहना असंगत होगा।  

लोक-साहित्य के उद्भव का आकलन ठीक-ठीक कहना असंगत है, किन्तु लोशब्द की उत्पत्ति के तथ्य बहुत्तर मिलते हैं। लोक शब्द की उत्पत्ति के संदर्भ में पंडित विद्यानिवास मिश्र कहते है,लोक का उत्त्पतिजन्य अर्थ है, दिखाई पड़ना अथवा गोचर होना अर्थात सारा संसार जो इन्द्रिय गोचर है, वह सभी लोक है।1 अर्थात लोक शब्द संसार के समस्त रूप जो हमें प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे वहीलोककी संज्ञा है।  धीरेन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादितहिंदी साहित्य को, भाग एक’ (पारिभाषिक शब्दावली) के अनुसारलोक शब्द का अर्थजनसामान्य हैं। इसका हिंदी रूपलोगहैं। इसी अर्थ का वाचनलोकशब्द साहित्य का विशेषण हैं।2 अतः साहित्य- संस्कृति को, समाज को और उनकी परम्परा को प्रदर्शित करता हैं, इसलिए हमारे समाज में साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जिस प्रकार समाज के विकास में साहित्य का योगदान है, उसी प्रकार समाज में लोकसाहित्य की अपनी एक भूमिका रही हैं। डॉ. धीरेन्द्र वर्माके मतानुसार,लोक-साहित्य वह युग-युगीन साहित्य हैं, जो मौखिक परम्परा से प्राप्त होता है; जिसके रचयिता का पता नहीं, जिसके समस्त लोक अपनी कृति मानता हैं। लोक, साहित्य वह साहित्य है, जो मनोरंजन के लिए लिखा जाता हैं।3 जन समुदाय अपने मनोविनोद के लिये गीत, कथा, नृत्य, नाट्य, गाथा, संगीत आदि का उपयोग करते है। अंततः इन सभी कलाओं को लोक, साहित्य की विधाएँ भी कह सकते हैं। इन विधाओं के माध्यम से हमारी लोक परम्पराएँ दृष्टव्य होती हैं। रहन-सहन, तीज-त्योहार, खान-पान, वेश-भूषा भी हमारी परम्पराओं का एक अंग है। सभी प्रान्तों की संस्कृति अधिकतर हाँ की ऋतुओं पर निर्भर करती हैं। जैसे, भारत में रंगपंचमी और बसंत पंचमी, ऋतुपरिवर्तन की सूचना देता हैं; जिसे लोग हर्षो,उल्लास में मनाते है। यह त्योहा पुरानी पीढ़ियों से चली आने के कारण यह पारम्परिक त्योहार बन गए जिसमें संस्कृति के अनेक रंग दिखाई देते हैं। कई लोक-कथाएँ इन त्योहारों से जुड़ जाती तथा पर्व में एक साथ परम्पराओं का समावेश हो जाता और यही परम्परा हमारे भारत को विश्व में अलग पहचान दिलाती हैं। इन सभी परम्पराओं का लेखा-जोखा लोक-साहित्य रखता हैं, जो लोकनाट्य, लोककथा, लोकगीत, लोकगाथा तथा लोकनृत्य लोकसाहित्य के अंग है।  

लोक-साहित्य में लोक-नाट्य सबसे सशक्त विधा है। क्योंकि लोक-नाट्य में लोक-साहित्य के सभी रंग प्रदर्शित होते हैं। जिसमें गायन, नृत्य, कथा, अभिनय, वाद्य आदि से नाट्य की प्रस्तुति की जाती है। इसमें श्रवण और दृश्य दोनों तत्त्व विद्यमान होते हैं। भरत मुनिनाट्यशास्त्रमें नाट्य उत्त्पति के संदर्भ में कहते है,               

 “जग्राह पाठ्यं ऋग्वेदात्‌, सामभ्यो गीतमेवच।
यजुर्वेदादभिनयान्‌, रसमाथर्वणादपि।।4 नाट्यशास्त्र 1/17,18'

भरत मुनि नाट्य की उत्त्पति का श्रोत वेदों से मानते है जिसमें ऋग्वेद से पाठ, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अर्थववेद से रस द्वारा ही नाट्य की उत्त्पत्ति हुई है इसलिए भरत मुनि ने इसे पंचमवेद की उपाधि दी है। नाट्य में रंगसज्जा से लेकर रस, अभिनय से सभी नियमों को नाट्यशास्त्र में दर्शाया है। लेकिन लोक-नाट्य के अभिनय के लिए विशेष प्रकार की कोई रंगसज्जा की अनिवार्यता नहीं होती। यह गावों में जन-पथ, मंदिरों में, चौपालों में आदि विशेष त्योहारों, पूजा में प्रदर्शित किया जाता और प्रदर्शित करने वाले गाँव के ही आम लोगों में से रहते हैं। यह पूरी तरह शास्त्रीय बंधन से मुक्त है। डॉ. अमरनाथ द्वारा रचित  पुस्तक हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावलीमें लोकनाट्य की उद्भावना के संदर्भ में मत है,लोकनाट्य की उत्त्पति लोकविश्वास, धार्मिक रूढ़ियों, परम्पराओं, वीर पूजा, मनोरंजन, उत्सव, मांगलिक पर्व तथा शोध आदि के अवसरों पर सहज अभिव्यक्त उल्लास, शोक आदि मानों भाव के बीच हुई होगी5 अतः वे लोकनाट्य की उत्त्पति सहज परम्पराओं के बीच मानते है, जिसका कोई निर्धारित समय नहीं है। भरत मुनि ने अपनेनाट्यशास्त्रमें लोकधर्मी नाट्य का उल्लेख किया है,


वेदाध्यात्मोपवान्नं तू शब्दच्छन्द: समन्वितम।
लोकसिद्ध नाट्य लोकस्वभावनम।
तस्मात् नाट्य प्रयोगे तू प्रमाण लोक इष्यते।

अर्थात वेद से उत्त्पन्न नाटक हो अथवा आध्यात्म से उत्पन्न नाट्य हो उसकी सार्थकता तभी है जब लोक उसे स्वीकृति प्रदान करे।6 इस प्रकार जिसमें वे नाट्य को शास्त्रीय प्रदान तो किया, परन्तु वे इसे लोक से भिन्न नहीं कर सके। वे लोक की महत्त्वता को दर्शाते हुए नाट्य से उसे जोड़ते हैं। लोक-नाट्य को विषय में नगेन्द्र कहते है,जीवन की सामूहिक आवश्यकताओं एवं प्रेरणाओं के बीच इसका जन्म हुआ होगा। संस्कृत के अनेक उपरूपक तथा रूपकों में प्रसहन, हल्लीसक, रासक, लास्य, लास्यनाटक, वीथी आदि लोकनाटकों के ही परिष्कृत रूप है।7 अतः लोकनाट्य की उत्पत्ति जीवन के आवश्यकताओं और प्रेरणाओं को मानते है। श्याम परमार अपनी पुस्तक लोकधर्मी नाट्य परम्परामें लोकनाट्य को परिभाषित करते हैं, लोकनाट्य से तात्पर्य नाटक के उस रूप से है, जिसका संबंध विशिष्ट शिक्षित समाज से भिन्न सर्वसाधारण के जीवन से हो और जो परंपरा से अपने-अपने क्षेत्र के जनसमुदाय के मनोरंजन का साधन रहा हो8 इस प्रकार लोकनाट्य की उत्त्पत्ति मूल मनोरंजन का साधन मानते है, जिसमें विशिष्ट समुदाय विशेष पर्व और त्योहारों में अपने मनोरंजन के लिए नाट्य का माध्यम चुना। लोकनाट्य को प्रदर्शित करने का मूल आधार लोक-कथा पौराणिक कथाएँ, ऐतिहासिक कथाएँ तथा प्रहसन के माध्यम से सामाजिक परिस्थितियों को केन्द्रित करते हुए अभिनय किया करते थे। भारत में विभिन्न प्रान्तों में पारम्परिक रूप से यह लोक-नाट्य खेले जाते हैं जो इस प्रकार है, जम्मू-कश्मीर-भांड-पाथेर, हिमांचल प्रदेशकरियार, धंज्जा, पंजाबस्वांग, उत्तराखंडभड़ा (भडौली), उत्तर प्रदेश नौटंकी, रामलीला, रासलीला, खोईयाराजस्थान - ख्याल, मध्यप्रदेशमाच, गमंत, निमाणी, छत्तीसगढ़नाचा, भतरा, पंडवानी, माओपाटा, उड़ीसाजतरा, बिहारबिदेसिया, जाटजाटीन, सामा,चकेवा, भाकुली,भंका, डोक,कच किर्तनिया,गुजरातभवाई, महाराष्ट्रतमाशा, गोंधल, गोवा, दशावतार,कर्नाटक, यक्षगान, केरलकुट्टीयट्टम, आन्ध्र प्रदेशभाम कालापन है।

वैदिक काल में लिखे उपनिषदों, पुराणों और कथाओं से लेकर नृत्य, गायन और नाट्य विभिन्न कलारूपों में यह हमारे लोक-जीवन की पूरी परम्परा विभिन्न तरह से रची-बसी है। हमारे धार्मिक-ग्रंथों को मानव तक सहजता से पहुँचाने का कार्य लोक-नाट्य ने किया हैं पौराणिक, ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित खासकर रामलीला’, ‘रासलीला’, जात्रा, ‘दशावतार’, ‘कुट्टीयट्टम’, ‘यक्षगान,धज्जाआदि  है।

रामलीलापूरे भारत के विभिन्न प्रान्तों में अपने प्रादेशिक भाषाओं में प्रचलित हैं। इसका मूल श्रोत वाल्मीकि कृत रामायणकथा है। यह दशहरा के दिनों में अक्सर मंदिर के प्रांगणों, चबूतरों, मैदानों में खेला जाता है। रामायण की कथा पर आधारित अनेक पुस्तकें है, जो नाट्य प्रदर्शन के लिए लिखी गई थी। रामलीला नाट्य खेलने के प्रमाण हमें हरिवंश पुराण में मिलाते हैं। जिसके संदर्भ में श्याम परमार कहते है,भक्ति आन्दोलन के पूर्व रामलीला प्रदर्शन के प्रमाण मिलते है।हरिवंश पुराण’ (500 .पू.) में रामलीला पर आधारित एक नाटक अभिनीत किये जाने का उल्लेख है।9 अतः रामलीला, भक्तिकाल के पूर्व से ही अभिनय किये जाते थे। नाटकों पर आधारित अनेक राज्यों में रामलीला प्रदर्शित किये जाते है। जैसे-उत्तरभारत मेंरामलीलागोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचितरामचरितमानसके आधार पर खेली जाती हैं। रामलीला लोकनाट्य की परम्परा अयोध्या में देखने मिलता है। जिसके संदर्भ में श्याम परमार कहते है,अयोध्या में अनोखा दृश देखने को मिलता है। वहाँ कृष्ण नवमी से आरम्भ होकर रामलीला के विविध प्रसंग 19 दिन में पूरे होते हैं।....आगरा में आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से रामलीला शुरू होती है। जब राम को बनवास दिया जाता है, तो नगरवासी मंच को छोड़कर राम को यमुना के पार पहुंचाते हैं। यहाँ उपर्युक्त स्थानों पर घटनाओं का क्रम से आयोजन किया जाता है।10 अतः अयोध्या, आगरा, मथुरा, लखनऊ, नेपाल, तिब्बत आदि स्थानों पर विशेष रूप से उत्सवों में खेले जाये है। साथ ही विदेशों में भी नाट्य को खेला जाता है। दक्षिण-पूर्वी एशिया, केन्द्रीय एशिया, मंगोलिया, ईरान, चीन, जापान और श्रीलंका के विविध भागों में खेला  जाता है।

कृष्ण कीरासलीला, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, मथुरा, वृन्दावन और आगरा में प्रसिद्ध हैं। श्रीकृष्ण जी की लीलाओं में रासलीला का आध्यात्मिक महत्त्व है।भागवत पुराणमें रासलीला का विस्तार से वर्णन मिलता है। इसके अलावाविष्णु पर्व के अध्याय बीस में कृष्ण के साथ गोपियों के नृत्य का विशद वर्णन किया गया है। यह नृत्य शरद पूर्णिमा के रात्रि में किया जाता है। गोपिया मुग्ध होकर प्रकट होती है और भगवान् कृष्ण के साथ नृत्य करती है।11 यह नृत्य गोलादायरा बनाकर किया जाता है। इस वृत्ताकार नृत्त कोहल्लिशक12 कहा जाता है। इस नृत्य के बारे में ऋग्वेद (१०७२.)13 के सूक्त में मिलता है। अतः कृष्ण चरित्र का वर्णनविष्णु पुराणतथाब्रह्म पुराणके अध्यायों में मिलते हैं। अतःरामलीलाप्राचीनकाल से चली रही लोकनाट्य है, जिसमें कृष्ण की 64 लीलाओं को विविध क्षेत्रों में प्रदर्शित किया जाता है।रामलीलासंबधित चर्चा अनेक पौराणिक रचनाओं में उल्लेखित है। जिसके आधार पर क्षेत्रीय लोग विशिष्ट त्योहारों में अभिनय करते हैं।

तमाशायह अरबी भाषा का शब्द है।तमाशा हां शब्द अरबी असून, यांचा अर्थ प्रेक्षणीय दृश्य असा आहे।14   महाराष्ट्र में लोक-नाट्य पारम्परिक रूप से खेली जाती है। महाराष्ट्र में इसे प्रदर्शित करने वाले समुदाय कोफड15 कहा जाता है। यह विशेष कर जात्राओं एवं होली के त्योहारों में खेली जाती है। इसकी शुरुआत पेशवाकाल में हुआ था,उत्तर पेशवाईत सवाई माधवराव व् दूसरा बाजीराव यांचा कारकिर्दीत तमासगीर शाहिराना राजाश्रय लाभल्यामुळे तमाशाचा विशेष उत्कर्ष झाला. रामजोशी, आनंद फंदी, होनाजी बाळा, सनक भाऊ, प्रभाकर व् परशुराम हे प्रमुख शाहिर या काळात गाजले।16 अतः पेशवा काल में प्रमुख रूप से तमाशा खेला जाता था। और उसे खेलने के पांच अंग होते है,गण, गौलन, लावण्या, भेदिक कवने आणि मुजरा ही पेशवा कालीन तमाशाची पांच अंग होती।17  यह परम्परा मुख्य रूप सेमांग, गारुडी, कंजारभाट18 जाति के लोग खेला करते है। इसे खेलने के लिए कृष्ण लीलाओं के कथाओं को आधारित बनाया जाता है। अतः इस लोकनाट्य का उत्कर्ष काल पेशवाकाल से माना जाता है। जिसमें स्त्रियाँ शृंगार कर गीत शैली में नाट्य प्रदर्शित करती है। विशेष कर यह महाराष्ट्र में विविध जिलों में प्रदर्शित किया जाता है। विशेषकर इनकी मंडलियाँ होती हैं। सभी लोक नाट्यों में तमाशा ही ऐसा नाट्य हैं जिसमें विशेषकर स्त्रियाँ ही नाट्य प्रदर्शित करती है।

दशावतार भी गोवा तथा महाराष्ट्र में अधितम खेले जाते हैं। यह  लोकनाट्य  रामायण, महाभारत तथा पुराणों पर आधारित दशावतार विष्णु के दस अवतारों को नाट्य के रूप में प्रदर्शित किया जाता। यह कोकण पंत तथा गोवा के क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है।कोंकण में तुलसी के विवाह के समय यानि कार्तिक शुद्ध द्वादशी से दशावतार प्रारंभ होता है। यह सीधे पौष पूर्णिमा तक दहिकाला के रूप में जारी रहता है। पौष पूर्णिमा के बाद बरसात का मौसम भोर तक रहता है।19  अतः दशावतार का आरम्भ मंच पर सर्वप्रथम अभंग गया जाता है, तत्पश्चात कथाकार गणपति की स्तुति करने लगता है और जैसे ही चादर का काल्पनिक पर्दा हटाया जाता है, गणपति, रिद्धि-सिद्धि, सरस्वती मंच पर जाते हैं। विविध पुरणों को आधार बनाया जाता है। इस नाट्य में आध्यात्मिक रंग चढ़ाकर, लोगों के मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा और विश्वास प्रकट किया जाता है।

यक्षगान, कर्नाटक का पारम्परिक नृत् नाट्य रूप है, जो एक प्रशंसनीय शास्त्रीय पृष्ठभूमि के साथ किया जानेवाला एक अनोखा नृत् रूप है। लगभग पांच शताब्दियों की सशक् नींव के साथ यक्षगान लोक-कला के एक रूप के तौर पर मज़बूत स्थिति रखता है, जो केरल के कथकली के समान है। नृत् नाटिका के इस रूप का मुख् सार धर्म के साथ इसका जुड़ाव है, जो इसके नाटकों के लिए सर्वाधिक सामान् विषय वस्तु प्रदान करता है।20 जन समूह के लिए एक नाट्य मंच होने के नाते यक्षगान संस्कृत नाटकों के कलात्मक तत्त्वों के मिले जुले परिवेश में मंदिरों और गाँवों के चौराहों पर बजाए जाने वाले पारम्परिक संगीत तथा रामायण और महाभारत जैसे महान् ग्रंथों से ली गई युद्ध संबंधी विषय वस्तुओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है, जिसे आम तौर पर रात के समय धान के खेत में निभाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में धार्मिक भावना की सशक् पकड़ होने से इसकी लोकप्रियता में अपार वृद्धि हुई है, जिसे इन स्थानों पर इनमें शामिल होने वाले कलाकारों को मिलने वाला उच् सम्मान पूरकता प्रदान करता है।
अतः नाट्य की प्रस्तुति भी कथा पुराणों पर आधारित है। वर्तमान मेंयक्षगान का विशेष प्रचलित रूपबायलाटाकहलाता है। यह नाम एक संगीत रचना से ग्रहण किया गया है, इसका अर्थ होता है खुले मंच का नाटक।21  इस प्रकार धार्मिक ग्रंथों पर आधारित रामलीला, रासलीला, दशावतार, यक्षगान, जात्रा, तमाशा आदि लोकनाट्य है, जो विशेष धार्मिक पर्वों पर खेले जाते हैं। इसके माध्यम से अपनी संस्कृति को लोगों तक पहुँचाने का कार्य किया जाता है। ताकि युवा वर्ग अपनी सभ्यता और परम्पराओं को पोषित करते रहे।

सामाजिक परिस्थितियों पर आधारित लोकनाट्य राजस्थान काख्याल’,  कश्मीर काभांड-पाथेर’,  पंजाब कास्वांग’, उत्तर प्रदेश की प्रचलितनौटंकी’, बिहार कीबिदेसिया’, ‘समा-चेकवा’,  छत्तीसगढ़ की, ‘भतराआदि। प्रांतों में विभिन्न प्रकार के पारंपरिक लोकनाट्य प्रचलित हैं।

ख्यालराजस्थान में खेले जानेवाला लोकप्रिय लोकनाट्य हैं।ख्यालके निम्न प्रकार होते हैं, ‘कुचामानी ख्याल’, ‘शेखावाटी ख्याल’, ‘जयपुरी ख्याल’, ‘तुर्रा-कलंगी ख्याल’, ‘मांची ख्याल’, ‘हाथरसी ख्याल इन नाटकों की विषय-वस्तु पौराणिक- ऐतिहासिक पुरषों के वीर काव्य तथा गाथाओं पर आधारित होते हैं।ख्याल की विषय सामग्री पौराणिक कथाओं, दन्त कथाओं या ऐतिहासिक कथाओं से ली जाती है। साथ ही, समसमायिक घटनाओं से भी विषय सामग्री ग्रहण की जाती है। रुक्मणि मंगल, हरिश्चद्र तथा नल दमयंती जैसे ख्यालों के साथ पृथ्वीराज चौहान, अमरसिंह राठौर जैसे ऐतिहासिक नाटकों का भी बहुत अधिक प्रचलन है। लैला मजनू, ढोला मारू, पठान शहआदि आदि प्रेमकथाएँ भी बहुत लोकप्रिय है। नरसी भगत तथा अन्य संतों के जीवन पर आधारित ख्याल भी है।22 अतः इस प्रकार अनेक विषयों पर ख्याल खेलने की परम्परा रही हैं।     

लोकनाट्य सांग हरियाणा और पंजाब के नाट्य परम्परा खेले जाते हैस्वांग शब्द ओड़िसा के छद्म या छऊ का ही प्रतिरूप है......उत्तर भारत के अनेक भागों में रंग बिरंगे पोशाकें पहने स्वांग दल आज भी होली के अवसर पर घूमते दिखाई देते हैं। साथ ही, विवाह के अवसरों पर कन्या पक्ष की महिलाएँ एक मनोरंजक हास्य प्रसंग की प्रस्तुति करती है जो स्वांग कहा जाता है।23. अतः विवाहों में अक्सर महिलाएँ रात में पुरुषों का वेश धारण कर स्वांग रचा करती है। हरियाणा में यह नाट्य अधिक प्रचलित है,हरियाणा में इसका रूप संवाद का है, जो दो पात्रों के बीच होता है और जिसमें पहले एक लम्बा प्रश्न किया जाता है और फिर उसका उत्तर दिया जाता है।24  अतः हरियाणा दमन प्रश्नोत्तरी संवाद के रूप में स्वांग खेलने की परम्परा है। यह उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि भागों में विशेष रूप से खेले जाते है।

जम्मू-कश्मीर काभांड-पाथेरपारंपरिक लोकनाट्य हैं; जिसमे स्थानीय लोग व्यंगात्मक शैली में  नाट्य द्वारा समाज के ज्वलंत मुद्दे को अनोखे अदाज में प्रदर्शित करते हैं। कश्मीर  में सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक सन्देश प्रसारित करने का अपना अनोखा तरिका होता हैं, इसमें भांड कृषक वर्ग का घोतक  होता हैं; जिसके कारण नाट्य में कृषि,संवेदना का गहरा प्रभाव पड़ता हैं। यह नाट्य कुरीतियों, विसंगतियों, पाखण्ड, भ्रष्टाचार, साहूकारों के द्वारा किये जाने वाले शोषण, दहेज प्रथा जैसे विषयों पर प्रहसन प्रस्तुत किये जाते हैं। इस नाट्य का वर्णन भी कल्हड द्वारा रचितराजतरंगनीमें दिखाई देता हैं। बलवंत मार्गी के मतानुसार,भांड जश्न तीन सौ से चार सौ वर्ष पुराना है। मुस्लिम शासकों ने अपनी धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक मूर्तिकला और नाटकों को हतोत्साहित किया, परंतु उनके दरबार में संगीत की काफी तरक्की हुई। पन्द्रहवीं सदी के मुस्लिम शासक जैनुल अबेदीन दूर-दूर से संगीतज्ञों, गायकों को अपने दरबार में आमंत्रित किया करते थे। उनके पश्चात अलीशाह और हसनशाह ने इस परंपरा को कायम रखा और कलाओं को संरक्षण प्रदान किया। उनके संरक्षण में भांडजश्न काफी फला फूला। भांड जश्न में खेले जाने वाले मनोरंजन प्रधान खेलों को पथर या पथ्र कहते हैं।25 अतः भांड पाथर में समाज में व्याप्त समस्याओं पर कटाक्ष हेतु कलाकार व्यंग्य नकल तथा हास्य जैसे भावों का सहारा लेते हैं। इन सभी तत्त्वों के साथ नृत्य एवं संगीत का सुंदर समावेश होता है। नाटकों में समाज के सभी वर्गों का प्रस्तुतिकरण देखने को मिलता है जैसे सिपाही, थानेदार, पटवारी, वन विभाग के अधिकारी, किसान, राजा, जमींदार, नाई, साधु आदि इन सभी पर प्रहसन तैयार किये जाते हैं। 

बिहार प्रान्त एक समृद्ध प्रान्त है। यहाँ की संस्कृति वहां की मिट्टी में रची बसी है। विशेष अवसरों तीज, त्योहारों पर महिलाओं द्वारा विशेष रूप से नाट्य खेला जाता है। जो इस प्रकार है, बिदेसिया’, ‘जाट-जाटिन, ‘सामा-चकेवा’, डोमक, झिझिया  आदि नाट्य प्रमुख हैं। जाट-जाटिन नाट्य के सम्बन्ध में कहा जाता हैयह जेठ आषाढ़ महीने में खेला जाता है ….. इसमें महिलाएँ रात्रि को अपने गाँव के किसी ऊँचे स्थान पर एकत्रित होती है। उसमें से एक महिला जट(पुरूष वेश ) बनाया जाता है दूसरी जाटिन बनती है।.......बड़ी बुजुर्ग महिला सूत्रधार होती है।26 इस नाट्य को गीत गाकर खेला जाता है। संवाद में पद्यात्मक शैली  प्रयोग किया जाता  है। पति-पत्नी में नोक-झोक, पारिवारिक मुद्दे, पति के विदेश जाने पर पत्नी का वियोग, सामजिक मुद्दे आदि जैसे मुद्दों पर वह नाट्य खेलती है। यह पूरे मिथलांचल में प्रसिद्द है।

बिहार में विवाह  के अवसर  पर भी स्वांग रचकर महिलाएँ नाट्य खेलती है, जिसेडोमकछकहा जाता है। “'डोमकछ' वस्तुतः एक सामाजिक स्वाँग है, जो पहले ग्रामीण समाज में प्रचलित था और लड़के की बारात जाने के बाद डोम-डोमिनों द्वारा खेला जाता था। इसी कारण इसका नाम डोमकछ पड़ा।27 अतः इस नाट्य में महिलाए पुरुषों का वेश बदल कर उनके जैसा स्वाँग रचती है। जिसके संदर्भ में मृदुला सिन्हा का मंतव्य है, “  "डोमकछ' एक नाट्य रूपक है, जिसमें विवाह के समय केवल वर पक्ष की स्त्रियाँ ही सम्मिलित होती हैं। परिवार के सभी पुरुष बारात में सम्मिलित होने के लिए चले जाते हैं। विवाह के घर में रात में चोरों का भय रह सकता है, इसलिए स्त्रियाँ रतजगा करती हैं और जागने के लिए ही डोमकछ का आयोजन करती हैं।28  इस नाट्य के माध्यम से स्त्रियाँ अपना मनोरंजन करती है। और पारिवारिक मुद्दों को आधार बनाते हुए  नाट्य खेलती है।  अतः लोकनाट्य के सम्बन्ध में  बिहार प्रदेश का लोकरंग इन्द्रधनुषीय है। वहाँ के हर नाट्य की अपनी एक अपनी विशेषता हैं। जैसेसामा-चकेवारक्षा-बंधन के अवसरों पर कुंवारी कन्याओं द्वारा प्रस्तुत की जाती हैंबिदेसियाभिखारी ठाकुर की रचना पर आधारित लोकनाट्य हैं।  जिसमें पति के विदेश चले जाने पर पत्नी अपना नाट्य के माध्यम से विरह वेदना प्रकट करती है। इस प्रकार बिहार की परम्परा इनके लोकनाट्य में विशेष रूप से मिलाती है।

इन तथ्यों के अनुसार भारत की प्रादेशिक लोक नाट्य के परम्परा के विषय में निष्कर्षतः कह सकते हैं कि  समाज को सुसभ्य बनाने में हमारे लोकनाट्य एक अहम् भूमिका अदा करता है। पुराणिक कथाएँ सभी लोग पढ़ने में असमर्थ होते है, इसलिए नाट्य के माध्यम से धार्मिक ग्रंथों को पहुँचाने का कार्य किया जाता है। लोकनाट्य के माध्यम से जनजागृति का कार्य किया जाता है। समाज में घटित हो रहे, असमाजिक तत्त्वों को, लोगों के सामने लाने का कार्य किया जाता है। युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति तथा सभ्यता से जोड़ने के लिए लोकनाट्यों को संस्था और विशेष जाति के लोगों ने कई वर्षों से इसे जीवित रखा हैं। लोकनाट्य एकता स्थापित करने का कार्य भी किया जाता है। आधुनिक युग के भारतीय नाट्य विकास के क्रम को देखते हुए कह सकते हैं कि हमारे लोक नाट्य ही भारतीय नाटक का बीज रूप हैं। प्रौद्योगिकी ने भारतीय संस्कृति को विश्व स्तर पर पहुँचाया हैं; परन्तु आधुनिकीकरण के कारण धीरे-धीरे हमारी परम्पराओं का ढांचा बदलता जा रहा हैं। बाजारीकारण के कारण लोक-परम्पराएँ आर्थिक उत्पार्जन का रूप लेते जा रहीं हैं; जिससे हमारी परम्पराओं का नुकसान होते जा रहा हैं, जिसे जीवित रखना हमारा उत्तरदायित्व है।

संदर्भ :

  1. हेमंत कुकरेत(सं.), भारत की लोकसंस्कृति, प्रभात प्रकाशन, पृ. 1,
  2. धीरेन्द्र  वर्मा(सं.), हिंदी साहित्य को, भाग 1,   ज्ञानमंडल प्रकाशन, पृ. 748
  3. वहीं, पृ. 748
  4. बाबूलाल शुक्ल शास्त्री, हिंदी नाट्यशास्त्र  सचित्र श्लोक 1/17,18, चौखम्भा संस्कृत संसथान, वाराणसी, पृ. 6  
  5. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशनपृ.317
  6. लखन लाल खरे, लोकनाट्य परम्परा में नौटंकी, आराधना प्रकाशन, पृ. 43
  7. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, पृ.317
  8. श्याम परमार, लोकधर्मी नाट्य परम्परा, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय,पृ. 30,31  
  9. वहीं, पृ. 24
  10. वहीं, पृ. 27
  11. कपिला वात्स्यायन, अनुवाद, बद्दिउज्जामा, पारंपरिक भारतीय रंगमंच अनंत धराये, पृ.100.
  12. वहीं, पृ.101
  13. वहीं, पृ. 100.
  14. सम्पादक. महादेवशास्त्री जोशी, भारतीय संस्कृति कोश, खंड 4, भारतीय संस्कृति कोष मंडल, पृ. 41
  15. वहीं, पृ. 39
  16. वहीं, पृ. 39
  17. वहीं, पृ. 39
  18. वहीं, पृ. 41
  19. https://maharashtratimes.com/editorial/samwad/dashavatar,in,konkan/articleshow/66779390.cms
  20.  कपिला, वात्स्यायन, बद्दिउज्जामा (अनु,), पारंपरिक भारतीय रंगमंच, पृ. 35
  21. वहीं, पृ. 35
  22. वहीं, पृ. 133.
  23. वहीं, पृ.130
  24. वहीं, पृ. 130.
  25. जगदीशचंद्र माथुर, परंपरागत नाट्य, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, पृ. .78,
  26. मृदुला सिन्हा, बिहार इन्द्रधनुषीय लोक रंग, राष्ट्रिय पुस्तक न्यास, पृ. 91
  27. वहीं, पृ. 91
  28. वहीं, पृ. 91

 

प्रियंका राजेद्र प्रसाद चौहान

(एम.फिल., सेट, नेट,) पी.एच.डी शोधार्थी. सहायक प्राध्यापक : सोफिया महाविद्यालय (मुंबई )

priya199c@gmail.com 9594464143


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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