शोध आलेख : समकालीन किसान केन्द्रित हिन्दी उपन्यासों में सामाजिक स्वर / डॉ. जितेंद्र यादव

समकालीन किसान केन्द्रित हिन्दी उपन्यासों में सामाजिक स्वर
- डॉ. जितेंद्र यादव

शोध सार : अस्सी के दशक के बाद का किसान आधारित उपन्यास में किसान जीवन की विविध छबियाँ दिखाई पड़ती हैं। आज किसान की समस्याएँ और जीवन की जटिलताएँ भिन्न ढंग की हैं। खेती सिर्फ भरण -पोषण का जरिया ही नहीं है बल्कि उनकी आय का भी स्रोत है। किसान की भी जीवन-शैली में बदलाव आया है। आज किसान के सामने कई तरह की चुनौतियाँ हैं। अच्छी फसल और अच्छी आमदनी की उम्मीद में किसान कर्ज लेकर लागत लगाता है लेकिन आशाजनक परिणाम न मिल पाने के कारण तथा साथ ही कर्ज में डूबते जाने के कारण एक ऐसा भी वक्त आता है जब वह आत्महत्या कर लेता है। समकालीन हिन्दी उपन्यासों में विकास के नाम पर किसानों का भूमि अधिग्रहण, जल स्तर घटने से पानी की समस्या, फसल की लागत बढ़ने और आमदनी घटने की समस्या, कर्ज की समस्या, आत्महत्या की समस्या, सरकारी नीतियों का किसानों के प्रति उदासीनता इत्यादि पहलुओं का सूक्ष्म चित्रण मिलता है। कई समकालीन लेखकों ने समकालीन दौर में लिखते हुए भी आजादी पूर्व का विषय-वस्तु उठाया है। फिर भी हमारा लक्ष्य समकालीन लेखकों के लेखन का किसान संबन्धित विषय-क्षेत्र रहा है। भारत की करीब 69 फीसदी आबादी अभी भी गांवों में रहती है। गांवों का अनुभव संसार बड़ा है। अधिकांश कवि,लेखक का संबंध भी गांवों से ही रहा है। भले ही बाद में नौकरी इत्यादि के कारण पलायन कर शहरों में बस गए हों।

हमारे यहाँ 60 -70 फीसदी कृषि उत्पादन छोटे और सीमांत किसान ही करते हैं, इसके बावजूद कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार घटता जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के मार्गदर्शन को अपनाकर चलने वाली जो भी सरकारें आई हैं, उन्होंने ग्रामीण विकास पर खर्च घटाएँ हैं। बीज,उर्वरक,सिंचाई और बिजली पर सब्सिडी में कटौती से उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है। किन्तु इसके अनुपात में न पैदावार बढ़ रही है और न ही उपज का उचित मूल्य मिल रहा है। सरकार आए दिन न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है परंतु उसका लाभ छोटे और सीमांत खेतिहरों को शायद ही मिल पाता है। आए दिन सूखे -बाढ़ की मार से फसल तबाह हो जाती है। फसल बीमा योजना को लागू करने की बात अक्सर सुनी जाती है मगर व्यवहार में कुछ नहीं हुआ है। पिछले डेढ़ दशकों से गांवों से लोगों का पलायन जारी है जिसके पीछे अनेक कारण हैं। गांवों के नाई ,तेली ,कुम्हार ,बढ़ई ,लुहार ,धोबी आदि बेरोजगार हैं। जुलाहों और धुनियों को काम नहीं मिलता। प्लास्टिक के बर्तनों ने कुम्हारों को बेरोजगार कर दिया है।

बीज शब्द: किसान,संस्कृति,शोषण, कर्ज,आत्महत्या, उपन्यास

मूल आलेख: समकालीन उपन्यासों में किसान के सामाजिक पहलू पर विस्तार से वर्णन मिलता है। किसान अपने सामाजिक सम्बन्धों से बंधा हुआ होता है । समाज में रहते हुए वह सभी तरह के रीति -रिवाजों का निर्वाह करता है। शादी -ब्याह,त्योहार,अनुष्ठान इत्यादि कार्यों को समय -समय पर करता रहता है। एक किसान के लिए अपनी इज्जत और मर्यादा सबसे प्रिय होती है,उसी इज्जत और मर्यादा के लिए वह जीवन भर निरंतर संघर्ष करता है। वह अपनी इज्जत का मरते दम तक रक्षा करता है। प्रेमाश्रम उपन्यास में जमींदार का कारिंदा गौस खाँ जब किसान मनोहर की पत्नी को धक्का देकर गिरा देता है और उसकी पत्नी मनोहर से उलाहना देती है। मनोहर को यह बात बर्दास्त नहीं होती है और गौस खाँ की हत्या की योजना बनाकर उसी रात अपने बेटे के साथ मिलकर हत्या कर देता है। किसान अपने स्वाभिमान और आत्म-सम्मान के लिए हमेशा तत्पर रहता है। आजादी पूर्व इस आत्म-सम्मान की लड़ाई वह जमींदार और उनके कारिंदो से लड़ता था, जबकि आजादी के बाद उसे यह लड़ाई सरकारी अमला से लड़ना पड़ता है। कर्ज के बोझ में दबे होने के कारण बैंक द्वारा बार -बार नोटिस देना, घर की कुर्की के भय से वह आत्म-सम्मान की लड़ाई में जब हार जाता है तो आत्महत्या कर लेता है। इस तरह की आत्महत्या का लंबा सिलसिला महाराष्ट्र,पंजाब,आंध्र प्रदेश,तमिलनाडु राज्य में देखा जा सकता है।

भारतीय किसान का सबसे कमजोर पक्ष यह रहा है कि वह किसान होते हुए भी जाति,वर्ण और धर्म के कई सोपानों में बंटा हुआ है। किसानी पेशा होते हुए भी वह ऊंच-नीच की भावना से ग्रस्त रहता है। उनके इस आंतरिक विघटन की वजह से ही एकजुटता नहीं आ पाती है, जिसके कारण वह शोषण के शिकार होते हैं। शोषणकारी शक्तियाँ उन्हें बांटकर अपने शोषण के हथकंडे को जारी रखती हैं।  बेदखल उपन्यास में बाबा रामचन्द्र इस कमजोरी की पहचान करते हैं इसलिए किसानों की एकता पर बहुत ज्यादा ज़ोर देते हैं। वे जानते हैं कि यदि किसान एकजुट हो जाए तो जमींदार की बड़ी से बड़ी ताकत को उखाड़ देगा। रजील क़ौमें भगवान की बनाई हुई नहीं हैं। यह तो हमने -आपने बनाया है। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो दुनिया के सब नर- नारी एक समान हैं। सुख -दुख,हानि -लाभ सबका एक है। जमीन,आसमान,हवा,पानी और आग में सबका बराबर का हिस्सा है। हिन्दू -मुसलमान में भी क्या फर्क है? सबको एक ही परमात्मा ने बनाया है। .... खेती और मजूरी करने वालों की सब जगह एक ही जाति है।  यह सारा ढ़कोसला पैसे वालों और जुल्म करने वालों का है। जब तक लोग इस बात को नहीं समझेंगे,मिलजुलकर कोई बड़ा काम नहीं कर पाएंगे।”1  

जमींदार के अलावा ऊंची जाति के किसान भी अपने से नीचे की जाति के किसान का हमेशा शोषण करते रहे हैं। अपने खेत में उनसे बेगार लेना, उनका हल और बैल लेना, उनको कर्ज में फंसाकर उनका मानसिक-शारीरिक शोषण करना, यह उनके लिए सामान्य बात थी। इस वास्तविक सच्चाई को बेदखल उपन्यास के चरित्र ब्राह्मण पदारथ के माध्यम से समझा जा सकता है-“पदारथ का दबदबा इतना था कि कुर्मियान के लोग मौके पर अपना काम छोड़कर पहले उनका काम करते थे और मजूरी के नाम पर जो मिल जाता उसी से संतोष कर लेते थे। कातिक-आषाढ़ में हल- बैल भी देना पड़ता था। कुछ महाजनी से कुछ जिलेदार के साथ सांठ-गांठ करके उन्होंने सारे कुर्मियान को नांथ रखा था।”2 गाँव की सामाजिक संरचना में जातिक्रम का सोपान खुले तौर पर दिखाई देता है।  यह जाति व्यवस्था इतनी अंदर तक धँसी हुई है कि किसानों के साथ जातिगत अत्याचार की घटनाएँ भरी पड़ी हैं। जाति के आधार पर ही उन्हें मान-सम्मान मिलता है। ऊंची जाति के किसानों को लगान निम्न जाति के किसानों की अपेक्षा कम देना पड़ता था.......।  खेती के संदर्भ में जमींदार एक प्रभावशाली वर्ग रहा है। कृषि की भूमि पर इसका अधिकार था इसलिए  किसान से जमीन के बदले लगान वसूलता था। यह एक ऐसा वर्ग था जो सरकार और किसान के बीच बिचौलिया का कार्य करता था। यह अपनी सारी सुख -सुविधा और ऐय्याशी का भार किसान के कंधे पर डाल देता था। यानी किसान का खून चूसकर ही यह वर्ग अपने विलास की सामाग्री जुटाता था। इनकी क्रूरता और ऐय्याशी के वर्णन आजादी पूर्व और बाद के उपन्यासों में भरे पड़े हैं।

किसान के लिए कुड़की उसके जीवन की सबसे अपमानजनक स्थिति होती है। कई बार पैदावार न होने के कारण किसान लगान चुकाने में देर कर देता था, तो जमींदार तहसील से मिलकर कुड़की की नोटिस दिखाकर कुर्की करवा देता था। किसानों का शोषण और बेदखल करने का यह सबसे क्रूर तरीका था। वैसे भी किसान के घर टूटे -फूटे बर्तन,पुरानी झिलँगा चारपाइयों और खेती के लोहा -लक्कड़ के अलावा और होता क्या है, और इन सबकी कीमत ही क्या होती है। एकाक जोड़ी बैल और एक- दो गायें -भैंसें निकलती हैं। लेकिन बेइज्ज्त करने के लिए कुड़कीवाले बर्तन -भांडा सब निकालकर बाहर कर देते हैं। गाय -गोरू कुड़क हो जाए तो वह रोता -कलपता कुछ दूर उनके पीछे जाता है। कभी -कभी औरतें -बच्चे भी बिलखते हुए साथ हो लेते हैं। कुड़की का दिन किसान के लिए सबसे विपत्ति वाला दिन होता है। बेदखल उपन्यास में किसान झींगुरी सिंह के घर की कुड़की कुछ इसी प्रकार की होती है। “कुड़की !किसान के लिए सरकार की ओर से आने वाली सबसे बड़ी बेइज्जती। अमरगढ़ की ठकुराइन ने सारी-सारी कार्रवाई बहुत गुप -चुप और होशियारी से की थी। अमरडीहा की जमीन पर जब बाजरे की फसल खड़ी थी, बकाया लगान की नोटिस देकर उसे बेदखली में निकाल लिया था और खड़ी फसल कटवा ली थी। फिर चुपचाप तहसील से कुड़की की नोटिस निकलवाई थी और ऐसा इंतजाम किया था कि बिना जानकारी के तामील दिखा दी जाए। फिर कुड़की का हुक्म। इलाके के जिलेदार और कुछ लट्ठबाज सिपाहियों को कुड़क अमीन के साथ कर दिया था ताकि कार्रवाई में कोई बाधा डाले तो वे वहीं निपट लें।”3  जमींदार के आदमियों का लगान वसूलने का तरीका बहुत ही अमानवीय था। किसानों पर कोड़े बरसाना, धूप में मुर्गा बनाकर खड़ा करना, सुचित की दो किश्त बाकी थी, लेकिन जिलेदार ने सिपाहियों को हुक्म देकर सुचित को धूप में मुर्गा बनाकर खड़ा कर दिया। उपन्यासकार ने सुचित के घर का दृश्य जिस प्रकार से खींचा है, उसे देखकर किसानों की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। “ले-देकर उसके पास एक बैल था, जिसे वह दूसरों के साथ हरसझा करके जोतता था। कुर्मियान के और लोगों की तरह उसके पास भी फूंस की झोपड़ी थी जिसे हर साल गन्ने की पट्टी मांगकर छाना पड़ता था। हांडी में खाना पकता था जिसे रोज धोकर रस्सी के सहारे छप्पर में टांग दिया जाता था। हांडी फूट जाती तो बड़ी मुश्किल से कुम्हार के यहाँ से दूसरी आती थी। पत्तल और कठौती में खाना खाया जाता था। जस्ते का एक लोटा था जिसमें रखने से मट्ठा-दही खराब हो जाता था। कुम्हार के यहाँ से आई मेटियाँ और भुरकों से किसी तरह काम चलता था माँ और बीबी के पास सिर्फ एक-एक मोटिया धोती थी। वे टुकड़े पहनकर नहाती थी और धोती सूखने के लिए डाल देती थी। जब तक सूखती, टुकड़ा पहने झोपड़े में घुसी बैठी रहती थीं। दिन-भर खेत में खटने के बाद अवध के अधिकांश किसानों को यही इतना मयस्सर था। अगर सुचित के घर का एक-एक सामान कुड़क हो जाता तो भी लगान की भरपाई नहीं हो पाती।”4  इसके अलावा अपने रियाया से कई प्रकार के कर वसूलते थे, जिसे सुनकर ही अजीब लगता है। उनके लिए किसान सबसे नरम चारा था। हाथी खरीदने के लिए हथियावन, घोड़ा के लिए घोड़ावन, मोटर के लिए मोटरावन इत्यादि का भार किसानों पर ही पड़ता था। एक जमींदारिन ने तो हद कर दिया था, किसानों के बीच संवाद के माध्यम से उनकी पीड़ा को समझा जा सकता है “ रामगंज की ठकुराइन तो औरों हद कर दी हैं।” 

 “वो का किन्हीं भइया?

“अरे वो धुरियावन लगाए हैं।.... जिस खोरि से गाँव के मवेशी चरने जाते हैं न, वह कोट के बगल से गुजरती है। कहती हैं, धूल उड़ती है तो उन्हें परेशानी होती है। अब वे भी मवेशी सवा रुपया साल धुरियावन लेंगी। नहीं तो जानवर नहीं निकलने देंगी।”5

गांवों में सामाजिक स्तर पर दलित जातियों की स्थिति सबसे खराब थी। सबसे ज्यादा परिश्रम इन्हीं जातियों को करना पड़ता था। सुबह से लेकर शाम तक खेतों में मजदूरी करते थे। फिर भी इनकी स्थिति बहुत दयनीय थी। जमींदार भी इनसे बंधुआ की तरह काम लेते थे। इन्हें दो जुन का भोजन और साफ-सुथरा कपड़ा फिर भी मयस्सर नहीं होता था। इनकी स्त्रियों का भी शारीरिक शोषण करने से नहीं चूकते थे। स्त्रियों के श्रम और शरीर दोनों का शोषण होता था।  इनके पास खुद की जमीन नहीं होने के कारण एक तरह से यह भू-दास थे। जिस जमीन पर छप्पर डालकर रहते थे उस पर भी जमींदार का मालिकाना हक होता था। इसलिए उसकी मर्जी के बिना यह कुछ भी नहीं कर सकते थे। जमींदार वर्ग भी मजदूरी, पैसा नहीं बल्कि वस्तु के रूप में देता था। वह इतना ही अनाज देता था जिससे की वह जिंदा रह सके और सुबह से लेकर शाम तक उनके खेतों और घरों का काम कर सके। जमीन उपन्यास का महकू इसी तरह का खेतिहर मजूदर है। इन्हें मजदूरी के रूप में जो अनाज मिलता था, वह भी पर्याप्त नहीं होता था। इसलिए अपनी भूख को मिटाने के लिए इन्हें तरह-तरह से व्यवस्था करनी पड़ती थी। दँवरी में चलते समय बैल गोबर करने लगते तो भूसे और ढ़ाक के पत्ते पर उसे रोपकर एक ओर फेक दिया जाता जहां पड़ा -पड़ा वह सूखता रहता। बाद में चमाइन आकर उसे बटोरती, पीट-पछोरकर दाना अलग करती और टोकरी में भरकर ले जाती। उसे फरवार देते समय गोबर से कितना दाना निकला इसको लेकर हमेशा चख-चख होती।”6  जानवर के गोबर से निकले अनाज को खाना उनकी बेतहाशा गरीबी को दर्शाता है। पेट भरने के लिए कितना अपमानजनक कृत्य करने पड़ते थे। 

जमीन उपन्यास का गणेशपुर महज एक गाँव न होकर देश के लघु प्रतिरूप सरीखा है,जहां देश की राजनीति की प्रत्येक हलचल और समाज का हर रंग रेशा मौजूद है। आजादी का आना,विभाजन,गांधी की हत्या, प्रथम एवं द्वितीय आम चुनाव, भारत -चीन युद्ध और नेहरू की मृत्यु यह सारा घटनाक्रम उपन्यास के नेपथ्य में उपस्थित है।  एक जमींदार की विलासतापूर्ण ज़िंदगी का वर्णन कुछ इस प्रकार मिलता है-“ठाकुर रौनक सिंह के नौकर-चाकर सुबह ही खेतों पर चले जाते हैं और ठाकुर साहब बादाम के हलुवे और छुहारों के दूध का नाश्ता करके ड्योढ़ी में दीवान पर ऊँघने लगते हैं। कोई दोस्त अहबाब या फिर कोई फरियादी आ जाता है तो थोड़ा वक्त कट जाता है। दोपहर के खाने के बाद वह सोने के लिए आरामगाह में चले जाते हैं। तीसरे पहर आँख खुलती है तो हाथ-मुंह धोकर तरोताजा होते हैं और खस या केवड़े का शरबत लेते हैं। उसके बाद सिकटरी लताफ़त के अली के साथ बहली में बैठकर कस्बे मवाना का रुख करते हैं। कस्बे की सैर उनका खास शौक है। आस-पास के गांवों के सैर के शौकीन दीगर अमीर-उमरा भी आते हैं। उनसे थोड़ी गपशप हो जाती है,ताश या शतरंज की बाजी जमती है और फिर मयखाने में दारू का दौर चलता है। हर शाम उनकी रंगीन ज़िंदगी को और रंगीन बना देती है।”7  जमींदार एक अनावश्यक वर्ग था, वह सिर्फ किसानों के शोषण के लिए बना था। उसके बगैर भी खेती-किसानी होती। किसान लगान भी देता लेकिन अंग्रेजों ने भारत पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने के लिए जमींदारों का एक ऐसा वर्ग तैयार कर दिया था, जो अपने ही देश के किसानों का शोषण करके अंग्रेजों के प्रति वफादार बना रहा। जमींदारों ने अंग्रेजी सत्ता के लिए ढ़ाल बनकर अपनी निष्ठा और वफादारी उनके प्रति हमेशा दिखाते रहे। जब स्वतन्त्रता आंदोलन ज़ोर पकड़ा तो इन्हें लगने लगा कि अब हवा का रुख बदल रहा है इसलिए उसमें से कुछ जमींदार वर्ग कांग्रेस से भी जुड़ गया और देश आजाद होने के बाद सभी जमींदार कांग्रेसी हो गए। इतना ही नहीं बल्कि वे सीधे सत्ता के हिस्सेदार बन गए। जमीन उपन्यास के भजन लाल जो कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता और गांधीवादी थे, आजादी के लिए पुलिस की लाठियाँ खाई, जमींदारों के जुल्म सहे। किन्तु जब देश आजाद हुआ तो वही जमींदार देश के कर्णधार बन गए। भजन लाल जैसे ईमानदार और निष्ठावान कार्यकर्ता हासिए पर चले जाते हैं। अत्याचार करने वाली शक्तियाँ आजादी के बाद भी अपना चोला बदलकर मुख्यधारा में बनी रहीं । जमीन उपन्यास में आजादी के बाद किसान और जमींदार के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। जमींदारों को लगा कि अब जमींदारी जाने वाली है तो उन्होंने एक चाल चली और अपने काश्तकारों को दमामी पट्टे के नाम पर पैसा वसूलकर काश्तकारों को जमीन पट्टा करने लगे। किसान भी जमीन की लालच में यहाँ-वहाँ से किसी तरह कर्ज लेकर जमींदारों से जमीन पट्टा करवाते हैं। चन्दन सिंह और रौनक सिंह जैसे जमींदार किसानों को मूर्ख बनाकर जमींदारी उन्मूलन से पहले ही ठग लेते हैं। जमींदार वर्ग कितना शातिर वर्ग था, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। “गाँव में आते ही रौनक सिंह ने ऐलान कर दिया -वह भी अपने काश्तकारों के दमामी पट्टे करेंगे। या तो पट्टा कराओ, नहीं तो जमीन से इस्तीफा दे दो”8  जमींदारों के इस षडयंत्र को रतनू जैसे सामान्य किसान समझ नहीं पाते हैं और ठग लिए जाते हैं। जब जमींदारी उन्मूलन की खबर मिलती है तो किसान खुश भी होते हैं लेकिन जमींदारों की धूर्तता के बारे में सोचकर मायूस भी हो जाते हैं। “रतनू जमींदारी खात्मे की खबर सुनकर जितना खुश था,उतना ही उदास हो गया। खुश इसलिए कि वह हमेशा -हमेशा के रौनक सिंह के फंदे से निकल जाएगा और उदास इसलिए कि उसे पता होता कि सरकार कानून बना रही है तो वह दमामी पट्टा क्यों कराता। ..... बड़ी कुत्ती जात है जमींदार की। इन्होंने पहले ही सूंघ लिया था कि जमींदारी खत्म होने वाली है। बस,रगड़ दिये बेचारे काश्तकारों को। लूट -लूटकर घर भर लिए।”9

भूमि पर वर्चस्व और अधिकार ऊंची जातियों का ही था इसलिए वे पिछड़ी और दलित जातियों का निरंकुश और मनमाने तरीके से  शोषण करते थे। जमींदार किसानों और खेतिहर मजदूरों का शोषण तो करते ही थे लेकिन उनकी मजबूरी का फायदा उठाते हुए उनकी स्त्रियों का भी शारीरिक शोषण करते थे। वे अपने शोषण के जाल में इस कदर जकड़ लेते थे कि लाचारी और बेबसी में समर्पण के अलावा कोई चारा नहीं बचता था। जमींदार ने रिवाज बना दिया था कि उसके किसी रैयत की शादी होती है तो पहली रात जमींदार के यहाँ गुजारनी पड़ती है। ठाकुर चन्दन सिंह को गाँव के लोग सांड कहते हैं-छुट्टा सांड! चाहे जिसके घर में मुंह मार दिया और कोई सामने आया तो घुसेड़ दिया पेट में। उसके मारे न जाने कितने तड़प रहे हैं। औरत को देखते ही लटपटा जाता है चन्दन। पता नहीं क्या इलम ले रहा है जालिम! कैसी भी पानी वाली औरत हो,चन्दन की निगाह चढ़ी तो गई। लोभ-लालच,खुशामद-दरामद, धमकी -चमकी कुछ भी करना पड़े चुकता नहीं। आधे गाँव को कुरेल कर रख दिया है।”10  चन्दन सिंह का खेतिहर मजदूर जब शादी करके अपनी पत्नी के साथ मालिक चन्दन सिंह का आशीर्वाद लेने हवेली में आता है तो वह कहता है कि आज तुम दोनों मेरे मेहमान हो। महकू से कहता है कि आज रात तुम और तेरी बहू हमारे मेहमान रहेंगे। महकू को दूसरी कोठरी में भेज देता है फिर उसकी पत्नी अनारो से कमरे में ले जाकर ज़ोर-जबर्दस्ती करने लगता है। कोशिश के बावजूद भी जब चन्दन सिंह के हाथ नहीं चढ़ती है तो ठाकुर चन्दन सिंह आग-बबूला हो जाता है और उसके पति महकू को बुलाकर डांटता है। “क्यों बे,तूने अपनी जोरू को समझाया नहीं था?

“गलती हो गई, सरकार!”

“गलती के बच्चे! पता है -इसने हमारी तौहीन की है!”

  महकू चन्दन सिंह के पैरो पर गिर गया, “यह तो बेकूप है, माफ कर दो, सरकार!”

“माफ कर दूँ – इस हरामजादी को?

“हुजूर! जो सजा देना चाहें, मुझे दे लीजिये!”

चन्दन सिंह थोड़ा नरम पड़ा, “जा ले जा इसे हमारी आँखों के सामने से। शाम को अच्छी तरह समझा कर लाना”।

“अच्छा, मालिक!”11

काश्तकारों और खेतिहर मजदूरों की औरतों को जमींदार अपनी निजी संपत्ति समझते थे। उन पर अपना अधिकार जमाते थे। अपनी ताकत के बल एक ऐसी परंपरा की शुरुआत कर दिये थे, जिससे की उनकी यौन इच्छाओं की पूर्ति हो सके। आश्चर्यजनक बात यह है  कि लोग भी इसका विरोध करने के बजाय उसे स्वाभाविक परंपरा मानकर स्वीकार कर लेते हैं। महकू की बातों से स्पष्ट पता चलता है कि जमींदार के यहाँ अपनी पत्नी को भेजने में उसे किसी भी तरह की ग्लानि या अपराधबोध नहीं होता है। 

“ओहो! तू तो एकदम पगली है। किसी रैयत की शादी होती है तो वह अपनी जोरू को लेकर मालिक के पैर छुवाने ले जाता है। वे दोनों एक रात मालिक यहाँ रहते हैं। बहू की वह पहली रात मालिक की होती है।”

अनारो तिलमिला उठी, “इन जमींदारों ने जैसे जमीन आपस में बाँट रखी है, वैसे ही रैयत -रियाया भी। ये रैयत की जोरू को अपनी जियादाद  सिमझै!  तूने पहले क्यूँ नहीं बताया था। बता देता तो मैं वहाँ कभी न जाती।”

           “जाती कैसो नहीं! यह तो गाँव की रीत है।” 12

  जमींदार समाज में हर प्रगतिशील बदलाव के विरोधी थे। ये कोई ऐसा अवसर नहीं देना चाहते थे कि समाज में जागरूकता बढ़े और उनकी पकड़ काश्तकारों पर कमजोर पड़ जाए। लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा के लिए समाज-सेविका हरदेवी जी कन्या पाठशाला खोलने का आह्वान करती हैं तो जमींदार चंदन सिंह को सबसे ज्यादा परेशानी होती है। वह अपने कारिंदों के माध्यम से लोगों के बीच कन्या पाठशाला के खिलाफ भड़काने की कोशिश करने लगता है। वह सोचता है कि हरदेवी जी पाठशाला खोल देंगी तो मेरा कद घट जाएगा। जमींदार वर्ग कितना काइयां होता है वह अपने आगे किसी को सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक रूप से आगे बढ़ने नहीं देता है। वह कहता है कि “किसी भी सूरत में यह पाठशाला नहीं बननी चाहिए।”  मिरची ने कहा, “अब तो गाँव की लड़कियां पढ़ -लिखकर मेम बनेगी और रैट -फैट बोलकर मरदों पर हुकम चलावेंगी।” जमींदार के कारिंदा ने भी कहा कि “अगर लड़कियां को तालीम दी गई तो उन्हें पर लग जाएंगे। वे मर्दों का जीना हराम कर देंगी!”13 वे सब गाँव में घूम-घूमकर कन्या पाठशाला के खिलाफ लोगों को भड़काने लगे। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं है कि हरदेवी जैसी अनपढ़ समाज-सेविका लड़कियों के लिए पाठशाला खोले। यह पितृसत्तात्मक समाज के लिए असहनीय बात है।

       जमींदार वर्ग अपनी रैयत से बेगार लेने के लिए शोषण के कई तरीके निकाल रखे थे। थोड़े से कर्ज देकर फिर ब्याज पर ब्याज जोड़ते जाना। उसकी एवज़ में उससे बेगार लेना। एक तरह से बंधुआ मजदूर बनाकर पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरी कराना जमींदारों का बहुत बड़ा हथकंडा होता था। महकू भी कुछ इसी प्रकार का खेतिहर मजदूर है। ठाकुर चन्दन सिंह हर साल दशहरे पर उससे अंगूठे का निशान ले लेता है। महकू को इसके बारे में कुछ ज्यादा समझ नहीं है। वह बस इतना जानता है कि उसके दादा ने चन्दन सिंह के दादा से दो बिस्सी और दस रुपए लिए थे। महकू कुल जमा बीस तक गिनती जानता है। लंबा -चौड़ा हिसाब उसकी समझ में नहीं आता। सूद दर सूद कर्ज पहाड़ बन चुका है। महकू को मालूम है कि वह अपनी खाल बेचकर भी ठाकुर का कर्ज नहीं चुका सकता। तो फिर इसके अलावा क्या चारा है कि वह और उसका कुनबा ठाकुर की बेगार करता रहे। इस तरह के जुल्म और अत्याचार सामान्य बात हो गई थी। प्रेमचंद ने भी अपनी कहानी सवा सेर गेहूं में बंधुआ मजदूर बनने की घटना का वर्णन किया है। कर्ज देकर हमेशा-हमेशा के लिए अपने शिकंजे में रखने की चालाकी जमींदारों के लिए बहुत मुफीद थी। किसानों और खेतिहर मजदूरों की स्थिति दिन पर दिन बदतर होती चली जाती है। पीढ़ी दर पीढ़ी की गुलामी, जमींदारों के लिए मुफ्त में श्रम मिल जाता है और वे भी शोषण के चक्र से बाहर नहीं निकल पाते हैं।

सामाजिक स्तर पर स्त्रियों को पुरुषों से कमतर आँका जाता है जबकि सच्चाई यह है कि वे पुरुषों से किसी स्तर से कम नहीं हैं। खेती -किसानी में महिलाओं की बराबर की भागीदारी दिखती है। कई बार पुरुष की अनुपस्थिति में पूरी खेती वही संभालती हैं। चम्पा के पति रतनू को जब जमींदारों ने झूठे मामले में फंसाकर जेल भेजवा देते हैं तो उसके सामने सबसे विकट समस्या खेती की आती है। आखिर उसकी खेती कैसे होगी, खेती के बाकी काम तो वह कर लेगी किन्तु हल कैसे चलेगा? हल चलाना ही ऐसा कार्य है, जिसे पुरुष ही करता है। किन्तु अब घर में पुरुष नहीं है तो हल चलाने की बड़ी समस्या चम्पा के सामने खड़ी हो जाती है। जमींदार चन्दन सिंह सोचता है कि अब कैसे इसकी खेती होगी। बिना खेती के चम्पा दाने-दाने को मोहताज हो जाएगी। चम्पा यहाँ बहुत धैर्य से काम लेती है। महकू को बुलाकर मदद की गुहार करती है। महकू भी जमींदार का बंधुआ मजदूर है लेकिन वह मानवता के कारण एक अकेली स्त्री की सहायता के लिए आगे आता है और सुझाव देता है रबी की फसल हैं, एक पहर बाद सारा गाँव सो जाएगा,चाँदनी रात में हल चलाकर बीज बो देंगे। रात में तय समय पर महकू अपनी पत्नी अनारो को लेकर भी आ जाता है ताकि कोई अंगुली न उठाए और चम्पा भी खेत पर आ जाती है। चम्पा साहसी महिला है,कुछ देर बाद वह खुद महकू से हल लेकर जोतने का अनुरोध करती है, महकू मना करता है कि तुमसे नहीं हो पाएगा। बैल को हल का फाल लग जाएगा लेकिन आत्मनिर्भर बनने की ललक चम्पा को देखकर महकू भी रोक नहीं पाता है।  “महकू ने हल चम्पा को दे दिया है चम्पा का हाथ पूरी तरह सध गया है और खूड़ एकदम सीधा आने लगा है... कभी चम्पा हल चलाती तो कभी महकू। एक पहर के तड़के तक उन्होंने पूरा खेत बो दिया।”14 सुबह सब जगह शोर हो जाता है कि चम्पा के खेत की जुताई और बुआई हो गई। यह बात जमींदार तक पहुँचती तो हैरान और अवाक हो जाता है। अपने स्तर से पता लगवाने में लग जाता है कि आखिर उसकी खेती हुई कैसे। अगले दिन चम्पा दूसरे खेत में हल चला रही थी तो इस रहस्य से पर्दा उठ गया कि उसके खेत को बोने कौन से भूत आए थे। गाँव वालों ने आज तक किसी औरत को हल चलाते हुये नहीं देखा था। यह खबर पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई।  लोग हल चलाती हुई चम्पा को देखने के लिए आने लगे। चम्पा किसी तरफ ध्यान नहीं दिया। वह अपने काम में लगी रही जब तक कि पूरा खेत बो नहीं दिया।

जमींदार को भला यह बात कैसे हजम हो सकती है। उसने लोगों के बीच तरह-तरह का अफवाह फैलाकर लोगों को भड़काने लगा और पंचायत बुलाकर सजा देने की चक्कर में पड़ जाता है। उसको चम्पा के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा मिल जाता है। सामाजिक रूप से पुरुष प्रधान समाज भी यह कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि एक स्त्री हल चलाकर खेती कर ले। उन्हें अबला नारी का रूप ही पसंद है जिसमें असहाय और बेचारी का भाव दिखे। सबला नारी उनके पुरुषत्व के लिए चुनौती है। पंचायत में चन्दन सिंह ने कहा, “पंचो, आज हमारे गाँव में एक अधर्म का काम हुआ है। रतनू की बहू चम्पा सरेआम हल चलाते देखी गयी है। सारा गाँव इसका गवाह है। हल चलाना धरती माता के पेट को फाड़ना है। पाप है। यह भले आदमियों का नहीं, चांडालों का काम है। चम्पा हल चलाकर चांडालिनी बन गई है। इसके पाप कर्म की सजा पूरे गाँव को भुगतनी होगी! इंदर देवता नाराज हो जाएंगे। बरखा नहीं होगी। सूखा पड़ेगा और महामारी फैलेगी! इस सबकी जिम्मेदार सिर्फ चम्पा होगी। ऐसी चांडालिनी औरत को सजा जरूर मिलनी चाहिए। क्या सजा दी जाए, यह पंच तय करें।”15 जमींदार सामाजिक अशिक्षा और अंधविश्वास का सहारा लेकर एक ऐसी महिला को सजा देने के लिए प्रयासरत है जिसने अपने हिम्मत और मेहनत के बल पर खुद हल चलाकर खेती की है। उसके इस साहसी कदम के लिए समाज को पुरस्कृत करना चाहिए लेकिन जमींदार समेत पूरा समाज दंड देने पर तुला हुआ है। एक महिला जब खेती का सभी कार्य कर सकती है तो हल चलाने में समाज को क्या समस्या है। दरअसल जमींदार ग्रामीणों की मूर्खता,कायरता और अशिक्षा के कारण ही शोषण और अत्याचार करते रहते हैं। समाज के ठेकेदारों को चम्पा पंचायत में मुंहतोड़ जवाब देती है। पंचायत में जब उसे बोलने का अवसर मिलता है तो लोगों को अपने तर्क से बोलती बंद कर देती है। चम्पा ने खड़े होकर कहना शुरू किया, “धरती हमारी माता है, यह सही है। लेकिन वह माता क्यों है! धरती से अनाज पैदा होता है और उससे हमारा पेट भरता है। धरती हमारी पालना करती है, इसलिए माता है। लेकिन धरती में हल नहीं चलाया जाएगा तो क्या अनाज पैदा हो जाएगा? और अनाज नहीं पैदा होगा तो धरती माता कैसे बनेगी? हल चलाना धरती का पेट फाड़ना नहीं,उसकी सेवा करना है। और यही सेवा मैंने की है। हल चलाना पाप नहीं,पाप तो बिना मेहनत किए दूसरों की कमाई खाना है।”16

जगदीश चंद्र का घास गोदाम उपन्यास 1985 में प्रकाशित हुआ था। दिल्ली महानगर के सटे गाँव और उनके किसानों की दारुण कथा का वर्णन इस उपन्यास में मिलता है। दिल्ली महानगर का विस्तार उसके आस-पास के गांवों की जमीन को अधिग्रहित करके किया गया है। मुख्यतः वहाँ जाट किसान ही रहते हैं। प्रहलाद सिंह इस उपन्यास का नायक है, जिसके इर्द -गिर्द कथा बुनी गई है। किसान के पास उसकी जमीन ही पूंजी होती है। यदि जमीन सरकार द्वारा अधिग्रहित हो जाती है, तो उसे जमीन के बदले कुछ मुआवजा मिलता है। वह राशि कुछ दिन तक भले ही किसान को चकाचौंध की दुनिया में डाल दे लेकिन जमीन जाने की भरपाई संभव नहीं हो पाती है। पैसे आने के बाद किसान किस तरह अपने पैसे को इधर-उधर लगाकर खर्च कर देता है। उसके साथ ही फिजूलखर्ची की आदत पनप जाने के कारण भी उस पैसे को खत्म होते देर नहीं लगती है। किसान प्रहलाद सिंह को उसकी जमीन के बदले जो पैसा मिलता है उस पैसे को अपने घर बनाने में लगा देता है। घर भी पूरा नहीं होता है और पैसा सब खर्च हो जाता है। उसकी पत्नी उसे कोई काम-धंधा के लिए कहती रहती है किन्तु हर बार काम तलाश करने का आश्वासन देकर टाल देता है। “मुझे तो हर समय चिंता घेरे रहती है। खेती खत्म हो गई है। बिना कमाए कब तक खाएँगे ... पानी पाताल से न आए तो कुएं भी सूख जाते हैं। बिना कमाएं खाओ तो कुबेर का भंडार भी खाली हो जाता है। नूं कहूँ कि कुछ न कुछ काम धंधा शुरू कर ही दे”17  जमीन चले जाने के बाद दिन-भर निकम्मा की तरह मारा-मारा फिरता है। शराब और जुआ की लत लग जाती है। एक ऐसी भी स्थिति आती है कि घर में खाने के लिए दाने तक नहीं होते हैं। बनिया से किसी तरह उधार लेकर आता है तब जाकर घर के चूल्हे जलते हैं। किसान के पास जमीन होती है तो वह उसका खुद का रोजगार है। किसान अनाज के लिए कभी मोहताज नहीं होता है। कृषि कार्य में लगे होने के कारण उसे बेरोजगार होने की अनुभूति नहीं होती है।

 किसान की जमीन ही उसकी ताकत होती है। जिस किसान के पास जितनी जमीन होती है उसका उतना सम्मान भी होता है। लोग कर्ज या उधार भी इसी भरोसे दे देते हैं कि अगली फसल होगी तो किसान अपना कर्ज चुका देगा। जमीन ही उसके विश्वास की पूंजी होती है। गाँव का दुकानदार दुनीचन्द भी अब किसानों को उधार देने से डरने लगा है। अपने मन का भाव दुकानदार दुनीचन्द कुछ इस तरह प्रकट करता है-  “आप तो जानते ही हैं कि गाँव की दुकानदारी उधार के बिना नहीं चलती। मुझे और मेरे पुरखों को भी गाँव की दूकानदारी का यह नियम निभाना पड़ा है। गाँव में शायद ही कोई घर होगा जो मेरा कर्जदार नहीं है। जमीन थी तो पता था कि इस बार नहीं तो अगली फसल पर पैसे निकल आएंगे। आसामी के मुकरने का भी डर नहीं था, क्योंकि उधार के बिना उसका भी निर्वाह नहीं था लेकिन अब जमाना बदल गया है....... जमीनें बिक गई हैं...... इनकी नियत भी बदल सकती है।”18

किसानों की जमीनें जा रही हैं, किसान अपनी जमीन को लेकर परेशान है। उन्हें जमीन की रेट को लेकर शिकायत है। जमीने जाने से उनके मन में बेचैनी है किन्तु बहती गंगा में हाथ धोने में दुकानदार से लेकर पटवारी तक सभी लगे हुए हैं। पटवारी मुखिया की कुछ जमीन षडयंत्र करके मंदिर के नाम करवा देता है। पुजारी के साथ मिलकर मंदिर के ट्रस्ट का सदस्य बन जाता है। उसे पता है कि आने वाले समय में यह जगह बहुत कीमती होगी, “अगर यह काम हो जाए तो सड़क की तरफ आठ दुकानें बन सकती हैं। चार तुम्हारी और चार मेरी। वक्त आने पर यही दुकानें पुश्तों की रोटी पक्की कर देंगी। तुम भी इत्मीनान से रहना और मैं भी आराम से दिन काटूँगा।”19  पटवारी गाँव को बदलते हुए बहुत करीब से देख रहा है। किसानों के बारे में उसके पास पूरी जानकारी रहती है। गांवों में आ रहे सामाजिक बदलाव की शिनाख्त करते हुए दुनीचन्द से कहता है कि “दुनीचन्द, गाँव बहुत तेजी से बदलने लगा है। कपड़ा-लत्ता देख कोई कह सकता है कि यह किसानों का गाँव है।” 

“ हाँ पटवारी जी, इनका कपड़ा-लत्ता, खाना-पीना और उठना-बैठना तो बदल ही रहा है, दिल-दिमाग भी बदल रहा है। परसों मैंने रणसिंह को बुलाया कि अपना उधार खाता देखने .... उसने सवेरे ही शराब पी रखी थी ..... मेरी बात सुन वह भड़क उठा और गाली देकर बोला कि वह यहीं खड़ा-खड़ा पूरी दुकान खरीद लेगा।”20  किसानों की जमीनें बिकने के बाद उनकी जीवन-शैली में अचानक बदलाव आ गया है। रहने का तौर-तरीका खर्चीला हो जाता है लेकिन पैसे का सही इस्तेमाल नहीं हो पाने के कारण पैसा धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है, फिर वहीं से उनकी आर्थिक दिक्कतें शुरू हो जाती हैं। कर्ज और शराब की लत में डूबे किसान प्रहलाद के लिए एक ऐसी स्थिति आती है कि रामदयाल के खोखे पर जहां उसका अड्डा जमता था। मनचले और मनबढ़ लड़कों से जुआ में हार-जीत को लेकर लड़ाई कर लेता है। आवेश और क्रोध में आकर लड़ाई मौत में बदल जाती है। गुस्से में प्रहलाद ने लड़के को उठाकर ईंट पर पटक देता है और वहीं उसकी मृत्यु हो जाती है। फिर यहीं से एक किसान परिवार का त्रासद अंत हो जाता है। उसकी पत्नी अंगूरी बेटे को गोद में लेकर कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाने लगती है। प्रहलाद ने मकान को भी गिरवी रखकर कर्ज लिया था। अब अकेली औरत, एक बच्चे का गुजारा कैसे होगा, यह समस्या खड़ी हो जाती है। खेत बिकने का सिलसिला शुरू होकर उसके घर बिकने और उसके जेल जाने तक चला जाता है। अंगूरी जब अदालत से सुनी आँखों से झाकती हुई बाहर आई तो रामदयाल ने अफसोस प्रकट करते हुए कहा, “इस बेचारी को तो दोहरी मार पड़ी है। .....आदमी चौदह साल के लिए जेल में बंद हो गया और ऊपर से घर भी गिरवी रख गया। सिर पर आदमी का हाथ और छत का साया न हो तो जीना बहुत कठिन हो जाता है।” 21

राजू शर्मा का उपन्यास हलफनामे 2007 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास में किसान आत्महत्या के कारणों की पड़ताल करने का प्रयास किया गया है। उपन्यास का मुख्य पात्र मकई राम पेशे से बिजली मिस्त्री है। उसका पिता स्वामीराम एक किसान है। पानी खेती का वजूद है बिना पानी की व्यवस्था के खेती की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पानी का संकट किसान के लिए जीवन का खतरा बन जाता है। स्वामीराम एक के बाद एक कई बोरिंग कराया लेकिन बोरिंग सफल नहीं हो पाती है। इस कारण से उसकी आर्थिक स्थिति खराब हो जाती है। सरकार की तरफ से भी कोई मदद नहीं मिलने के कारण उसकी मनोस्थिति अवसाद में चली जाती है। इसलिए वह आत्महत्या को जीवन का अंतिम विकल्प के रूप में चुन लेता है। जीवन का अंत करके जहां स्वामीराम का जीवन संघर्ष खत्म होता है वहीं से मकई राम का संघर्ष शुरू होता है।  शासनतंत्र की निर्दयता और असंवेदनशीलता का वृतांत इस उपन्यास की धुरी है। “किसान जब आत्महत्या करता है तो वह ज़िंदगी और मौत के बीच अवसाद पूर्ण चुनाव नहीं है, बल्कि ज़िंदगी के लिए संघर्ष की आजादी का लोप है। मौत का चुनाव किसान नहीं करता बल्कि तंत्र उसका जीने का अधिकार छीन लेता है।” 22 पिता के आत्महत्या के बाद मकई राम अपनी ज़िंदगी में अलग-थलग पड़ जाता है। उस कठिन स्थिति में उसका दोस्त सुदर्शन अपनी समझदारी और ज्ञान से मकई राम को किसानों के संघर्ष से परिचित कराता है। पत्रकार पी. साईनाथ समेत अर्थशास्त्रियों के वक्तव्यों को लेकर चर्चा करता है। हताश और मायूस मकई राम के जीवन में सुदर्शन अपने ज्ञान से बाहरी दुनिया से परिचित कराता है।

वीरेंद्र जैन का उपन्यास डूब विकास के नाम पर अपनी जमीन से किसान के उखड़ने का दर्द और पीड़ा समेटे हुए है। राजघाट नदी परियोजना जहां कुछ लोगों के लिए खुशहाली का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर कई गाँव को उजाड़ने के लिए शोक का प्रतीक भी है। लड़ैई गाँव इस उपन्यास का केंद्र बिन्दु है। माते इसका मुख्य पात्र है। ग्रामीण समाज के विस्थापन की चिंता और उससे उपजी त्रासदी का चित्रांकन यथार्थवादी ढंग से हुआ है। डूब उपन्यास क्षेत्र विशेष की जनता का सुख-दुख और विस्थापन की समस्या को जीवंत कर दिया है। एक ऐसे जन-जीवन का चित्रण है जो बेतवा नदी पर बन रही राजघाट बांध परियोजना से डूब क्षेत्र में आए हुए किसान परिवारों की मानसिक स्थिति का चित्रण है। एक समाज जो बहुत दिनों तक एक साथ रह रहा है। एक साथ खेती कर रहा है। उसे अचानक यह पता चले कि अब गाँव, घर,खेती, बाग-बगीचा,स्कूल सब छोड़कर जाना होगा। कहाँ जाना होगा, उसे यह भी नहीं पता है। “जगह के बदले जगह नहीं दे सकी उन्हें सरकार। सरकार ने कह दिया कि फिर से बसने के लिए दो हजार रुपया हमसे लो और जहां जगह मिले जा बसो। हमारे पास जगह नहीं है तुम्हें बसाने की।”23 मुआवजा के नाम पर अधिकारियों की खानापूर्ति और असंवेदनशीलता सीधे-सादे किसानों के लिए कठिनाई को बढ़ाने वाली हैं। आर्थिक रूप से सम्पन्न बनिया वर्ग धीरे -धीरे शहरों में बसने लगता है। हीरा साव, मोती साव,अट्टू साव इसके उदाहरण हैं किन्तु किसान के लिए एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर जाना किसी मुसीबत से कम नहीं होता है। गाय,भैंस,बकरी, खेत -खलिहान, बाग -बगीचा को छोड़कर जाना संभव नहीं है। “जिनका कहीं और ठिकाना नहीं बैठा, वे सब जा बसे ललितपुर में। जितनी जगह में कभी भैंस तक न बांधी थी,उतनी जगह में मय भैंस के रहते हाँ वे।”24  विस्थापन की पीड़ा को महज  कुछ मुआवजा से नहीं चुकाया जा सकता। अपनी जमीन से विस्थापित होने का दर्द उस किसान को ही पता होता है। मुआवजा के नाम पर दफ्तर का चक्कर लगवाना, उन्हें तरह-तरह से मानसिक रूप से परेशान करना। उपन्यासकर ने बड़ी संवेदना और अनुभूति के साथ चित्रित किया है। अब भी हमारा घर बार भले ही देश की खातिर छूटेगा, देश का विकास आवश्यक है इसलिए न हमें अपनी जमीन से उखड़ना होगा।, मगर हमारा मन कहता है कि इसे कुर्बानी कोई नहीं मानेगा। जब सरकार तक मानने को तैयार नहीं!

 वह कहती है कि हम खरीद-फरोख्त कर रहे हैं। पैसा लो और जाओ। जब ऋण ही नहीं तो उऋण होने का प्रश्न ही कहाँ?

नहीं नहीं पैसे से हर वस्तु का मोल नहीं लगाया जा सकता। अगर पैसे से सब संभव है तो दे दें यही पैसा उन शहरातियों को,उन कल -कारखाने वालों को,जिन्हें बिजली की जरूरत है! कह दे उनसे की लो भाई, इतनी रकम खर्च करने पर बांध बनता, उससे बिजली बनती। अब यह पैसा तुम रखो और समझ लो कि यह बिजली है।”25        

किसानों के सीधेपन का फायदा अधिकारी और बनिया वर्ग कैसे उठाता है, उपन्यास में भली-भांति पता चलता है। मुआवजा के नाम पर शहर में ले जाकर धोखे से किसानों का नसबंदी करवा देना ताकि अधिकारी चलाई जा रही नसबंदी योजना के लक्ष्य को पूरा कर सकें। बड़ी चालाकी से गाँव के बनिया के माध्यम से मुआवजा का लालच देकर किसानों के साथ विश्वासघात कर दिया गया। हीरा साव सभी किसानों को एकजुट करते हैं और कहते हैं कि चंदैई में एक कलक्टर है वही मुआवजा तय कर रहा है। जो खेत को जोतता -बोता है वही उसका मालिक है उसकी निगाह में। हीरा साव गाँव वालों समझाते हैं, “उसने कहा है हमसे कि आप अपने गाँव से सोलह बरस से पचास बरस के बीच के जो-जो आदमी-बच्चे खेत में काम करते हैं, उन सबको लेकर चंदैई आना। हम उनके नाम जमीन का पट्टा लिखेंगे। उन्हें मालिकाना हक देंगे। उस जमीन की कीमत का कागज देंगे। उस कागज के मुताबिक सरकार के खजाने से मुआवजा मिलेगा। कहीं अंत रहने को जगह मिलेगी।” 26

    सरकार को किसानों के बच्चों की शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। उनके मदरसे से शिक्षक को हटा दिया गया है। क्योंकि वह जगह डूब क्षेत्र में आ रही है। मास्साब को कह दिया गया है अब आपका ट्रांसफर कहीं और कर दिया जाएगा। वहीं दूसरी तरफ सरकार ने राजघाट बांध पर काम के लिए आए हुये सरकारी कर्मचारियों के बच्चों हेतु एक केंद्रीय विद्यालय खोल रखा है ताकि तबादला होने के बाद भी उनके बच्चों की शिक्षा में किसी तरह का रुकावट न हो। इसके अलावा राजघाट बांध पर काम करने के लिए आए सरकारी कर्मचारियों की गृहणियों के लिए कुटीर-उद्योग तथा उनके लड़कों के लिए जिनका पढ़ाई में मन नहीं लगता है उनके लिए हस्तकला,काष्ठकला, तकनीकी शिक्षा का केंद्र स्थापित कर दिया गया है ताकि वे भी आत्मनिर्भर बन सकें। सरकार अपने कर्मचारियों की चिंता में दुबली हो रही है उनके लिए एक-एक पल की चिंता है। माते ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें अपने गाँव के लोगों की चिंता बराबर रहती है। वह एक-एक घटना पर बारीक नज़र रखते हैं। उम्र के अंतिम पड़ाव में भी जिस तरह का सूझ -बुझ रखते हैं। वाकई यह अद्भुत लगता है। माते जानते हैं कि मुआवजा मिलते ही ये सीधे-सादे किसान कुछ समय के लिए अपना दुख भूल जाएंगे। उन्हें अपने भविष्य की चिंता नहीं दिखेगी।  “ये तो यही सोचकर खुश हो जाते हैं कि अब ये भी रेडुआ खरीद सकेंगे..... बैंक बाबू ! ये मूरख तो इस सोच के चलते खुश हो रहे हैं कि ये भी अब साइकल खरीद सकेंगे। ताकि उस पर बैठकर छिन -छिन पीछे राजघाट जा सकें। ...... पांडे बाबू! ये तो इसी में इतने खुश हैं कि ये भी पंगत दे सकेंगे। उस पंगत में जीमने को बुला सकेंगे उन तमाम लोगों को, जो जा बसे हैं लतपुर कि रेलपटरी के इस तरफ। जो बाखव छोड़कर दड्बे में रहते हैं अब। हल की जगह फावड़ा आ गया है जिनके हाथों में। ..... बामन महराज! ये यही सोच सोचकर खुश हो रहे हैं! ये नहीं सोचना चाहते कि तब ये उस रेडुआ को बजाएँगे कहाँ, साइकल को चलाएँगे कहाँ, पंगत को जिमाएंगे कहाँ? इनके खयाल में तो यह भी नहीं आ रहा इस समय कि मुआवजा पाने के बाद ये जिएंगे क्योंकर, कब तक, और कैसे?” 27

किसानों की मजबूरी का फायदा बनिया वर्ग उठाता है। पहले से ही कर्ज देकर उन्हें अपने चंगुल में फंसा रखा है। बस उन्हें किसानों का मुआवजा मिलने का इंतजार है। कितने तो अधिकारी से मिलकर मुआवजा के समय तुरंत अपना कर्जा वसूल लेते हैं। सावों की साहूकारी चलती रही। हर मौके पर साहूकार हाजिर रहते हैं। रुपया सूद पर ले लो जब आ जाए तो दे देना। यदि सूद पर नहीं लेना है तो जमीन ही बेच दीजिये, साव लोग सरकार से वसूल कर लेंगे। ललितपुर के साहूकारों के मजे ही मजे हैं। हीरा साव को खुद शुरू -शुरू में हैरानी होती थी कि जिस ललितपुर में कोई उद्योग और व्यापार नहीं,कल-कारख़ाना नहीं,मंडी नहीं, सरकारी दफ्तर-बाबू का तामझाम नहीं, वहाँ के लोग इतने सम्पन्न कैसे हैं? हीरा साव जैसे ही इस रहस्य को समझते गए वह भी अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण होते गए। “इसी ललितपुर से सूद पर रुपया उठाकर हीरा साव ने गाँव छोड़कर भागने वालों की जमीनें खरीदी हैं। सूद बढ़ रहा है तो क्या हुआ! कोई साहूकार नहीं कहता कि रकम चुकाओ। सब्र हैं ललितपुर के साहूकारों में। जीतने घर उतने साहूकार,यानी ललितपुर। ललितपुर कि जैसी बैठक वैसा ब्याज”। 28     

डूब उपन्यास में किसानों के सामाजिक सहजीवन की बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। किसी मसले पर पंचायत की बैठक में माते जिस तरह से अपने सुलझे हुए निर्णय देते थे, वह सभी के लिए स्वीकार्य होता था। लड़ेई गाँव के एक-एक पात्र अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक पहचान के साथ उपस्थित हैं।   

फांस – यह उपन्यास 2015 में अपने प्रकाशन के साथ ही चर्चा में आ गया था। लेखक संजीव ने विदर्भ के किसानों का जीवंत दस्तावेज़ लिखा है। किसानों की आत्महत्या देश के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। यह समस्या विकराल बन चुकी है। उपन्यास विदर्भ के किसानों के सामाजिक जीवन का परत-दर-परत पड़ताल करता है। एक किसान को सिर्फ आर्थिक समस्याओं से ही नहीं जूझना पड़ता है बल्कि अपने आसपास की सभी समस्याओं से लड़ना पड़ता है। संजीव ने महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के बनगाँव का चित्रण किया है,जो विदर्भ क्षेत्र का हिस्सा है। लेखक ने उपन्यास में किसी एक को नायक नहीं बनाया है बल्कि अलग-अलग परिस्थितियाँ ही नायकत्व प्रदान करती हैं। उपन्यास की रचनाशीलता उपन्यास के किसी तय मापदण्डों पर नहीं हुई है। लेखक विदर्भ के किसानों के जीवन की त्रासदी लिखना चाहा है,वह त्रासदी ही मिलकर उपन्यास की संरचना को निर्मित करते हैं। कोई भी मनुष्य बिना सामाजिक गतिविधियों के संचालित नहीं होता है। जिस तरह का समाज रहेगा उसी तरह का सामाजिक दबाव भी उसे झेलना पड़ता है। गोदान का होरी अपने समय के सामाजिक दबावों को बड़ी धैर्यता के साथ झेलता है लेकिन वहीं धनिया और गोबर के अंदर आक्रोश है। वे पंचायत और समाज के ठेकेदारों को चुनौती देते रहते हैं लेकिन होरी तथाकथित मरजाद की रक्षा के लिए अपना सब-कुछ गंवाने को तैयार रहता है। पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष ही सामाजिक नैतिकता को तय करता है और उसी मापदंड पर महिलाओं को भी चलने के लिए मजबूर करता है। उस मापदंड पर महिलाओं या समाज का न चलना ही उसके लिए सामाजिक और नैतिक पतन जान पड़ता है। अमूमन लड़कियों को लेकर जिस तरह की सोच उत्तर भारत के प्रान्तों में है, उसी प्रकार की सोच विदर्भ के गांवों में भी दिखाई देती है। स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने के कारण जब शिबू की छोटी लड़की शकुन घर नहीं लौटती है तो पूरे गाँव में आग की तरह बात फैल जाती है। मंदिर का पुजारी भी आग में घी डालने का काम करता है। हर कोई से खुद पूछता है फिर कहता है-“ हमें तो पहले से ही पता था कि एक दिन यह होकर रहेगा। और पढ़ाओ मुलगियों को,जैसे पढ़-लिखकर बैरिस्टर बनेंगी। ”29  शिबू इस वाक़या से एकदम परेशान हो जाता है। गाँव के लोग जिस तरह कानाफूसी करते हैं वह व्यथित और बेचैन हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि घर में लड़की को लेकर पति-पत्नी में महाभारत मच जाता है। बाप इस बात पर अड़ जाता है कि अब दोनों बेटियों का स्कूल जाना बंद होगा। इस तरह की छोटी-छोटी बातों से लड़कियों की पढ़ाई छोड़वाने की घटनाएँ हमेशा घटित होती रही हैं। लेखक ने समाज की दकियानूस सोच को बहुत गहराई से पकड़ा है। भारतीय समाज की यह बहुत बड़ी सच्चाई है।

उपन्यासकार ने उपन्यास की शुरुआत में ही ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था का विवरण दिया है। भारतीय गांवों में सवर्ण जातियाँ अवर्ण जातियों से दूरी बनाकर रहती हैं। उनकी बस्ती अलग रहती है। अधिकांश खेत भी उन्हीं के पास होते हैं,दलित जातियाँ उनके खेतों पर काम करके अपना जीविकोपार्जन करती हैं। “मराठों,महारों,चमारों,कुनबियों,माँग,मछुआरों और आदिवासी की मिश्रित आबादी है। ब्राह्मणों ने गाँव से हटकर एक किलोमीटर उत्तर बांध के नजदीक अलग बनगाँव बसा लिया है-शायद छुआ जाने के भय से। बोले तो,बांध,बाग,उर्वर खेत सब उनके या सम्पन्न मराठों के मगर मजदूर इस बनगाँव के।” 30 दलित जातियों के पास खुद का खेत बहुत कम होता है।  वह ऊंची जाति के किसानों के खेत पर मज़दूरी करते हैं या उनका बटाई पर खेत लेकर खेती करते हैं। बटाई पर खेती करने वाले किसानों को और भी मुश्किल होता है क्योंकि उनके नाम से जमीन न होने के कारण उन्हें बैंक लोन भी नहीं देता है और फ़सल बर्बाद होने के कारण यदि किसान आत्महत्या करता है तो सरकार मुआवज़ा भी नहीं देती है। यही समस्या महिला किसानों के साथ भी आता है और पुरुष के साथ दिन-रात खेतों में काम करती हैं लेकिन सरकार की परिभाषा में महिला किसान की श्रेणी में नहीं आती। उपन्यास का एक पात्र आशा, जिसका कपास पानी में भींग जाने के कारण बर्बाद हो जाता है, जिससे वह अवसाद और हताशा में चली जाती है। “सोचा था, भगवान एक बार सुन लेगा तो ठीक-ठाक घरों में पार-घाट लग जाएंगी मुलगियाँ (लड़कियाँ)। लेकिन यह शेती मेरे जी का जंजाल हो गई और ज़िंदगी भी। धत् तेरी ज़िंदगी की! बोरे से ढ़ककर रखा था कीटनाशक सल्फास-फसल के कीड़े मारने के लिए आया था। जरूरत ही न पड़ी। आज जरूरत है, इसी की जरूरत!” 31 आशा की आत्महत्या के बाद निरीक्षण के लिए आए हुए सरकारी अमला उसके पति सुरेश से तरह-तरह के प्रश्न पूछते हैं मसलन- तुम दोनों के बीच कोई झगड़ा तो नहीं हुआ था?.....तुम दारू पीते हो?....तुम्हारे या तुम्हारी बीवी के किसी गैर से संबंध थे? इस तरह के सवाल पूछकर अधिकारी खानापूर्ति कर लेते हैं और अंतत: महिला किसान आशा वानखेड़े की आत्महत्या को किसान मुआवजा के लिए अपात्र घोषित कर दिया जाता है। महिला किसान की आत्महत्या को घरेलू झगड़े से जोड़कर देखा जाता है। यह एक बहुत बड़ी सामाजिक विडम्बना है।

उपन्यासकार ने समाज में फैली मृत्यु भोज की कुरीति को भी चित्रित किया है। समाज में मृत्यु के बाद भोज खिलाने की परंपरा समाज का अभिन्न हिस्सा बन गयी है। मृतक चाहे जवान हो या वृद्ध श्राद्ध खिलाना अनिवार्य है। सामाजिक दबाव एवं लोक-लाज के भय से गरीब से गरीब व्यक्ति कर्ज लेकर इस क्रिया को पूर्ण करता है। कई बार यह भी देखा गया है कि परिवार का सदस्य गंभीर बीमारी या दुर्घटना में मौत का शिकार होता है और परिवार शोक में डूबा रहता है, कर्ज लेकर इलाज़ कराता है, ऐसी दुखद परिस्थिति में भी समाज के ठेकेदारों को भोज खिलाना पड़ता है। इस सामाजिक बुराई को धर्म से संबद्ध करके चिरस्थायी और अनिवार्य बना दिया गया है। ब्राह्मण को भोज खिलाने और दान देने से मृतक व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी, यह लालच धर्म की आड़ में दिखाया गया है। इसलिए आशा की मृत्यु पर उसका पति सुरेश अपने मित्रों से मृत्यु भोज के बारे में सलाह-मशविरा करता है। उसके दोस्त कहते हैं कि घर का सारा पैसा और संपत्ति उसी का बनाया हुआ है, खेत भी उसी का खरीदा हुआ है, बेच दो दो-तीन एकड़  लेकिन उसका श्राद्ध कायदे से होना चाहिए। वह कहता है- “श्राद्ध तो कायदे से होगा ही, नहीं तो हम बिरादरी और दोस्तों में मूँ कैसे दिखाएगा?”32  साधारण आदमी के लिए बिरादरी का भय बहुत बड़ा होता है। सामाजिक मर्यादा का बोझ उसके ऊपर ही सबसे अधिक होता है। गोदान का होरी भी इसी बिरादरी के भय में जीता है, पंचायत द्वारा लगाया गया डांड़ के रूप में अपनी अनाज को अपने ही हाथ पंचों के घर पहुंचा देता है। सामाजिक कुरीतियाँ मनुष्य के जीवन को इस तरह जकड़ रखी हैं कि सामान्य मनुष्य उसे चुनौती नहीं दे पाता है।

उपन्यासकार संजीव ने विदर्भ क्षेत्र का रिपोर्ताज पेश किया है, वहाँ हो रहे सामाजिक बदलावों को बारीक नजर से पकड़ा है। दलित जातियों में हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने के कारण और उनका कर्मक्षेत्र महाराष्ट्र होने के कारण वहाँ की दलित जातियों में बौद्ध धर्म के प्रति रुचि बढ़ी है। हिन्दू वर्ण व्यवस्था में छुआछूत का भेदभाव अत्यधिक होने की वजह से ये लोग दिन-प्रतिदिन जातिगत शोषण का शिकार होते रहे हैं। किन्तु अब उनके अंदर आंबेडकर के प्रभाव से सामाजिक चेतना पैदा हो रही है। इसलिए वे हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म की तरफ बढ़ रहे हैं। उपन्यास की प्रमुख पात्र शकुन जो दलित महिला है वह पहले हिन्दू थी, गाँव के मंदिर की साफ-सफाई भी करती थी। लेकिन उसने बौद्ध धर्म अपना लिया। अपने पति शिबू को भी बौद्ध धर्म अपनाने के लिए कहती रहती है। “तुम कैसे भूल जाते हो कि हमारे पुरखे कभी पीछे झाड़ू बाँधकर और हाथ में डब्बा लेकर चलते, ताकि पीछे की अपनी छुई जमीन अपवित्र न हो जाए। बाबा साहब के लाख बुलाने पर भी जो न आ पाए, उन्हें तुम आदमी कहते हो? केंचुए हैं केंचुए...... मैंने कितनी बार समझाया दीक्षा ले लो, दीक्षा ले लो मगर तुम.......? आज भी उसी मंदिर में मत्था टेकने जाते हो, जिसका पुजारी पहले बाग के संतरों की लालच दे-देकर मुझे पटाने की कोशिश करता था। और अब बगुला भगत की तरह मंदिर के ऊँचे चबूतरे पर बैठकर नहाती औरतों और स्कूल जाती मुलगियों को घूरता रहता है।”33 अंततः एक दिन वह भी बौद्ध धर्म अपना लेता है। अपनी लड़कियों के लिए रिश्ता हिन्दू धर्म में खोज रहा था किन्तु अब वह बौद्ध लड़का शादी के लिए खोजने लगा। जहाँ दहेज और कर्ज का झंझट नहीं है। एक निम्न वर्ग के किसान के लिए खेती के बल पर लड़की की शादी करना, कठिनाई भरा रहता है। दहेज के रूप में पैसे की माँग तथा अन्य खर्चे का भार उठाना, बहुत मुश्किल होता है। शकुन का पति शिबू दो लड़कियों की शादी के लिए दहेज की माँग सुनकर चिंतित और बेचैन हो जाता है। वह कहता है- “इसलिए तो शादी.......। अगर लाख रुपए की डिमांड न होती। कहाँ से लाऊं? अब इस शेती में और बरक्कत तो होने से रही।”34

उपन्यासकार ने विदर्भ के किसानों के बीच शराब की लत को व्यापक समस्या के रूप में दिखाया है। कर्ज के तले दबे किसान अपने अवसाद और हताशा को कम करने के लिए शराब की लत में डूब जाते हैं किन्तु घर की आर्थिक स्थिति और भी कमजोर होती जाती है। इसके कारण घर में कलह भी बढ़ता जाता है। विदर्भ क्षेत्र के वर्धा में गांधी जी की कर्मभूमि होने के कारण शराब बंद है फिर भी धड़ल्ले से बिकती है। महिलाओं ने शराब बंद कराने के लिए मुहिम छेड़ा हुआ है। शकुन भी उसी भट्ठी भंजक दल का हिस्सा है। जो शराब का धंधा पुलिस -प्रशासन और कारोबारियों के मिलीभगत से फल-फूल रहा हो, उसे भला महिलाओं का एक छोटा-सा दल कैसे रोक पाता। महिलाओं का दल एक जगह शराब बंद कराने के लिए जाता है जहां के लोग गैरकानूनी ढंग से बेचते हैं। वे लोग उलटे महिलाओं से उलझ जाते हैं, बात इतनी बिगड़ जाती है कि लाठी-डंडा लेकर दौड़ा लेते हैं,पुलिस बल भी उनके गिरोह के आगे नहीं टिकता है। “महिला मण्डल के सदस्यों में किसी को कंधे पर चोट लगी,किसी के पीठ पर। शकुन की भौहों पर चोट लगी। खून टपकने लगा। बच गई आँख नहीं तो ....!”35  ये लोग दारू पीने वाले परिवार से भी प्रार्थना करती हैं कि आप लोग दारू पीना बंद कर दीजिए। शकुन कहती है - “आपको मालूम है कि इस दारू ने कितने घर उजाड़े हैं और कितने किसानों की जानें ली हैं। ये महिलाओं शराब बेचने वाले साहूकार नारायण सेठ की दुकान पर हल्ला बोल देती हैं। ये साहूकार किसानों को सूद पर कर्ज भी देता है और वही दारू का कारोबार भी करता है। उसकी दुकान को घेरने के बाद शकुन फोन पर पुलिस को सूचना देती है, कुछ ही देर में पुलिस, आबकारी विभाग और सरपंच पहुँच जाते हैं, नारायण सेठ को पुलिस जीप में बैठाकर थाने ले जाती है। महिला मण्डल विजयी सेना की तरह उत्साह से भर जाती है और पीछे-पीछे महिला मण्डल भी थाने पहुंचता है। थानेदार महिला मण्डल की प्रशंसा करता है। इसे कहते हैं नारी शक्ति! शाबाश! मैं तो कहता हूँ आप लोगों ने एक मिसाल कायम की है देश के एक-चौथाई लोग भी आप जैसे जागरूक हो जाएं तो दारू, हर तरह का नशा और करप्शन छू मंतर हो जाए। गाँधी जी के रास्ते काम हुआ- यह और बड़ी बात है, वरना उस दिन तो.....। आपने अपना काम कर दिया है, अब हमें अपना काम करने दें।”36 उसके कुछ ही देर बाद महिलाएं लौटकर घर की ओर आती हैं तो देखती हैं जिस नारायण सेठ को उन्होंने थाने में बंद करवाया था, वह अपनी दुकान पर खड़ा होकर शराब का कैन अंदर रखवा रहा था। इस वाकया से पुलिस और शराब कारोबारी की मिलीभगत का पर्दाफांस हो जाता है।    

निष्कर्ष : समकालीन हिन्दी उपन्यासों में किसानों के विविध स्वर सुनाई पड़ते हैं। महंगाई, कर्ज, आत्महत्या, लागत इत्यादि सभी समस्याओं की आकृति इन उपन्यास में दिखाई पड़ती है। किसान अन्नदाता के रूप में महिमामंडित किया जाता रहा है। किन्तु उसकी वास्तविक समस्या से सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग अनजान बने रहे। आजादी के बाद उद्योग इत्यादि पर जितना ध्यान दिया गया है,उतना कृषि पर नहीं दिया गया। इस कारण से कृषि का जीडीपी में योगदान घटता गया। किसान का उसके उपज का उचित दाम नहीं मिलने के कारण कर्ज का फंदे में फँसता चला जाता है। कृषि को केंद्रबिन्दु बनाकर नीति बनाने की जरूरत है। सिर्फ आनन -फानन में कर्ज माफी से किसानों का भला होने वाला नहीं है।  

संदर्भ :
1.       कमला कांत त्रिपाठी, बेदखल, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण 2000, पृष्ठ 42
2.      वही, पृष्ठ 123 
3.      वही, पृष्ठ 129
4.      वही, पृष्ठ 22
5.      वही, पृष्ठ 16
6.      वही, पृष्ठ 160
7.      भीमसेन त्यागी, जमीन, प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण 2004, पृष्ठ 176
8.      वही, पृष्ठ 154
9.      वही, पृष्ठ 185
10.  वही, पृष्ठ 53
11.  वही, पृष्ठ 57
12.  वही, पृष्ठ 57
13.  वही, पृष्ठ
14.  वही, पृष्ठ 296
15.  वही, पृष्ठ 297
16.  वही, पृष्ठ 298
17.  जगदीश चंद्र, घास गोदाम, आधार प्रकाशन, पंचकूला हरियाणा, संस्करण 2017, पृष्ठ 22
18.  वही, पृष्ठ 28
19.  वही, पृष्ठ 129
20.  वही, पृष्ठ 30
21.  वही, पृष्ठ 268
22.  राजू शर्मा, हलफनामे, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2007, पृष्ठ 50
23.  वीरेंद्र जैन,डूब, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृष्ठ 218
24.  वही, पृष्ठ 218
25.  वही, पृष्ठ 116
26.  वही, पृष्ठ 209
27.  वही, पृष्ठ 255
28.  वही, पृष्ठ 196
29.  संजीव,फाँस, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2016, पृष्ठ 11
30.  वही, पृष्ठ 10
31.  वही, पृष्ठ 114
32.  वही, पृष्ठ 149
33.  वही, पृष्ठ 90
34.  वही, पृष्ठ 89 
35.  वही, पृष्ठ 153
36.  वही, पृष्ठ 154
 
डॉ. जितेंद्र यादव  
सहायक प्रोफेसर,हिन्दी विभाग, सकलडीहा पी.जी. कालेज,सकलडीहा चंदौली 
jitendrayadav.bhu@gmail.com9001092806   

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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