शोध आलेख : न होने में होने की तलाश का कवि आत्मा रंजन / वीरेंद्र सिंह

होने में होने की तलाश का कवि आत्मा रंजन
- वीरेंद्र सिंह

शोध सार : भूमंडलीकरण के दौर में बहुत कुछ विपथित हो रहा है, टूट-बिखर रहा है और उसके स्थान पर नयाआकार ग्रहण कर रहा है। ऐसा भी नहीं है कि नया सब त्याज्य है लेकिन जो मनुष्य के चरित्र को अधोगति प्रदान करता है, उस पर चर्चा अनिवार्य हो जाती है। भारतीय समाज के बदलते स्वरूप पर तार्किक चिंतन प्रस्तुत करते हुए समकालीन कविता एक महत्त्वपूर्ण बहस को जन्म देती है। मानव चरित्र में आये अवांछित परिवर्तनों को संकेतित करते हुए यह कविता हमें उन पर गहन विचार-विमर्श कर दुरुस्त करने का परामर्श देती है। मनुष्य के व्यक्तित्व में आडंबर की प्रवृत्ति को केंद्र में रखते हुए हिमाचल प्रदेश के कवि आत्मा रंजन हमारा दिशा-निर्देशन करते हैं। उनके अब तक प्रकाशित दो कविता संग्रहों में समाज के उपेक्षित वर्ग के लिए प्रतिबद्धता का भाव स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी कविता हमें समाज के उस तबके तक ले जाती है, जहाँ रोशनी की कोई किरण नहीं पहुँचती अथवा धुंधली ही पहुँच पाती है।

बीज शब्द : समकालीन कविता, हाशिये का समाज, श्रमिक संवेदना, देहाती चिंताएँ, लोकजीवन, झूम्ब, कुटुवा, स्मार्ट लोग, सांस्कृतिक विपथन, आशावाद।

मूल आलेख : किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना का होना एक बात है; होकर कुछ और ही दिखना दूसरी बात और होकर भी अनचीन्हा रह जाना तीसरी बात। हमारे आसपास बहुत कुछ है जो घटित होता है और गुणधर्म के आधार पर उसका नोटिस भी लिया जाता है। उससे अधिक मात्रा में वह है, जिसका घटित होना उसके विज्ञापन पर निर्भर करता है। एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है, जो होता तो है मगर या तो दिखाई नहीं देता, दिखाई देना पसंद नहीं करता या फिर ग़ैर ज़रूरी अथवा दुर्बल मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है जबकि हम जानते हैं कि उसके होने पर ही सब कुछ का होना है। मसलन जड़ें, पोर-पोर रिसता भूमिगत जल, आलीशान बंगले की नींव, हांडी का जलने के लिए रोज़ प्रस्तुत होता काला हिस्सा, दिन और रात का होना आदि। कुछ ऐसा भी है जो हमारी आँखों के ठीक सामने, हमारे ठीक बगल में घटित हो रहा होता है और हम उसे अनदेखा कर आगे बढ़ जाते हैं, मसलन परिवार में वृद्धों का जीवन; बच्चों के लिए माँ की सहज चिंताएँ; स्त्री का होना; हमारे लिए घर चिनता कारीगर; अन्न उगाता किसान; हमारा बोझा उठाए मज़दूर; किसी कातर की गुहार। कितने आश्चर्य की बात है कि जीवन की ऊँचाइयाँ चढ़ते मनुष्य की इन सभी के प्रति नज़र निरंतर कमज़ोर होती जाती है और कान बहरे। इतिहास केवल उसे ही अपने कलेवर में स्थान देता है, जो प्रकाश में हो या कोलाहल करे। ऐसे में साहित्य ही है, जो अनसुनी आवाज़ को रवानगी देता है और धूमिल पड़ती नज़रों को अंतर्दृष्टि। एक कवि ही है, जो यह जानता है कि सबसे जोर से सुनाई देती आवाज़ें/ अक्सर होती हैं सबसे अश्लील और बेहूदा/ जिनके होने से हम नहीं जान पाते/ कि सबसे ज़रूरी आवाज़ें उनके नीचे दब कर/ बेआवाज़ मर जाती हैं।1 इसलिए साहित्य इंसानियत को ज़िंदा रखने का नायाब बंकर है।

            समकालीन कविता आधुनिक हिंदी कविता के विकास में नयी चेतना, नयी भावभूमि, नयी संवेदना, नये शिल्प के बदलाव की सूचक काव्यधारा है जिसका लक्ष्य आम आदमी और समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करना है।1 यह वास्तविकताही कविता को समकालीन बनाती है जिसे परिभाषित करते हुए विश्वंभरनाथ उपाध्याय लिखते हैं- समकालीन एक काल में साथ-साथ जीना नहीं है। समकालीनता अपने काल की समस्याओं और चुनौतियों कामुकाबलाकरना है। समस्याओं और चुनौतियों में भी केंद्रीय महत्त्व रखने वाली समस्याओं की समझ से समकालीनता उत्पन्न होती है।2 अपनी इसी विशेषता के कारण समकालीन हिंदी कविता हमें वह अंतर्दृष्टि देती है, जिससे हम अनदेखे को देख सकें और अनचीन्हे को चिन्हित कर पायें। सत्तर के दशक में ऐसी कविता को जनपक्षधर, जनवादी अथवा प्रगतिशील कहा गया। धूमिल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मानबहादुर सिंह जैसे कवियों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश सरीखे कवियों ने इस स्वर को पुष्ट किया। इस कड़ी में हिमाचल प्रदेश से भी कुछ स्वर अपनी दखल देते हैं, जिनका प्रतिनिधित्व कुमार कृष्ण करते हैं। अगली पीढ़ी के रचनाकारों में आत्मा रंजन एक ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता हमें समाज के उन कोनों-कगोरों तक ले जाती है, जो प्राय: सीले रहते हैं; जहाँ प्रकाश की कोई किरण शायद ही पहुँचती है।

            हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले से ताल्लुक रखने वाले आत्मा रंजन के पहले कविता-संग्रह 'पगडंडियाँ गवाह हैं' (2011) ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित कवियों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। ग्यारह वर्षों के लंबे अंतराल के बाद प्रकाशित दूसरा कविता-संग्रह जीने के लिए ज़मीन’ (2022) यह साबित करता है कि आलोच्य कवि बेशुमार लिक्खाड़ों में नहीं है। वे संवेदनाओं में गहरे डूबकर, रचा-पचाकर, ठहरकर लिखते हैं। उनकी संवेदनाएँ ठेठ देहाती चिंताओं में से आकार ग्रहण कर सहृदय को गहरे प्रभावित करती हैं। कारण, कि उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति परस्पर सापेक्ष है। श्रीनिवास श्रीकांत उनकी कविताओं पर सटीक टिप्पणी करते हुए कहते हैं- इनमें उनके कवि-अनुभोक्ता की जीवंत छवियाँ हैं।3 इसलिए उनकी कविता हमसे बिल्कुल किसी पड़ोस के ही भाई-बांधव की तरह संवाद करती हुई, हमारे ज़ख्मों पर मरहम की तरह रूह में उतर जाती है।

साहित्य समाज के कमजोर वर्ग की आवाज़ है, उसी वर्ग की, जो साहित्य की एक अवधारणा के तौर पर इतालवी मार्क्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी द्वारा प्रयुक्त सबॉल्टर्नसे आया है और जिसे हाशिये का समाज कहते हैं। ग्राम्शी के अनुसार सबॉल्टर्न में दुनिया के सभी वंचित, शोषित, दलित शामिल हो सकते हैं जो किसी किसी तरह के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, नस्लीय भेदभाव या वंचना के शिकार रहे हैं।4 कवि आत्मा रंजन की कविता इन्हीं उपेक्षितों, वंचितों की आवाज़ है। दिन-दिहाड़े जो हो रहा है; जिसकी रिपोर्टिंग करने को दुनिया बेताब है; जो अन्य सबकुछ को अपने नीचे दबाए है, आत्मा रंजन उस पर अपनी कलम चलाकर व्यर्थ की कवायद नहीं करते बल्कि जो सब घटनाओं का मूल होकर भी गुमनामी में है; प्रकाश की एक किरण के इंतज़ार में है; जो अपना विज्ञापन स्वयं नहीं करता, शेखी नहीं बघारता; जो ईमान के साथ मानवता की सेवा में तत्पर होकर भी बदले में कुछ पाने की चाह नहीं रखता, उसे अपनी कलम का अर्घ्य अर्पित कर स्वयं को धन्य समझते हैं। कवि समाज के उस वर्ग को कविता के केंद्र में नहीं रखता, जो कमज़ोर वर्ग के खून-पसीने पर जीवन के गगनचुम्बी सपने देखते हैं बल्कि हाशिये पर खड़े उस वर्ग के पक्ष में जीने के लिए ज़मीनकी वक़ालत करता है, जो मुट्ठीभर धनकुबेरों की समृद्धि का पहला पायदान है; जो हर जगह होकर भी कहीं नहीं है।

कवि पहाड़ का रहवासी है इसलिए गहरी चिंता व्यक्त करता है कि पहाड़ों की कुछ आवाज़ें तो रास्तों सड़कों से होते हुए राजमार्गों पर उतर आती हैं और ऊँचे बुर्जों से प्रसारित होती हुईं सुनी जाती हैं लेकिन कुछ बेलौस आवाज़ें रास्तों से पगडंडियों, जंगलों में उतरती हुईं कहीं गुम हो जाती हैं, मसलन हँसती-खिखियाती बेलौस गपौड़ियाँ, गूँजती खिलखिलाहट, डूबती सिसकियाँ, दरातियों की हिस-हिस, कुल्हाड़ी की खड़िच्च, घसियारिनों की गंगियाँ-झूरियाँ, दराट की ठाक-ठाक तथा बहुत सी ऐसी आवाज़ें, जिन्होंने सभी आवाजों को जन्म दिया मगर आज अपनी ही पहचान की मोहताज़ हैं। ऐसी आवाज़ों की गूँज-अनुगूँज हमें आलोच्य कवि की कविताओं में सुनाई देती हैं इसलिए राजेश जोशी इनकी कविताओं का ठीक आंकलन करते हुए कहते हैं- ये कविताएँ, होने में होने की संभावनाओं को देखने की कविताएँ हैं।5 हम बनकर तैयार हुई इमारत के शिल्प पर मंत्रमुग्ध हुए जाते हैं, कवि उसके कारीगर की पीराती पीठ को सहलाता है; हम अपनी थाली में परोसी गयी रोटी के स्वाद में खोये होते हैं, कवि किसान के पसीने से तर-बतर चेहरे से बतियाता है; हम अपनी यात्रा के सफ़र के आनंद में खोये होते हैं, कवि हमारा सामान उठाए मज़दूर के बदन से बहते पसीने पर संवाद करता है। हम जो नहीं सोचते, नहीं सोच पाते या जिस पर विचार करना फ़िज़ूल समझते हैं, आत्मा रंजन का कवि उसी पर एक सार्थक संवाद को जन्म देता है।

आत्मा रंजन मूलतः श्रमिक संवेदना के कवि हैं और वे उस श्रमिक के साथ बड़े अदब से खड़े नज़र आते हैं, जो प्रतिदिन हाड़तोड़ मेहनत कर दो वक़्त की रोटी अर्जित कर पाता है और अपने कर्म में निष्ठापूर्वक लीन होकर उसका क्रेडिट मिलने अथवा किसी अख़बार द्वारा प्रचारित किये जाने की परवाह नहीं करता। यह स्पष्ट अभिव्यक्ति हमें उनके पहले कविता-संग्रह के शीर्षक 'पगडंडियाँ गवाह हैं' तथा संकलित कविताएँ पृथ्वी पर लेटना’, ‘पत्थर चिनाई करने वाले’, ‘रंग पुताई करने वाले’, ‘रास्तेमें मिलती है। वे उस श्रमिक, मज़दूर, किसान, कारीगर का रेखाचित्र उकेरते हैं, जो हमारे जीवन में घर की नींव की तरह हर जगह अपनी मौन मौज़ूदगी दर्ज़ करते हैं और बदले में सम्मान की एक नज़र के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहते। कवि ने अपने जीवन अनुभवों से सीखा है कि गैंतियों, कुदालियों, खुदाई मशीनों ने नहीं, क़दमों ने ही रास्तों का निर्माण किया है।उनकी कविताएँ धरती के लाडले बेटे का अपनी धरती माँ से सीधा संवाद है जहाँ दिनभर की हाड़तोड़ मजूरी के बाद बेटे की पीराती पीठ को सहलाती हुई वह बिना किसी दुभाषिये के दुलरा-बतिया रही है।सद्य प्रकाशित संग्रह की कविताओं ये हाथ’, ‘जो उठाए हुए है आपका बोझ तथा महाविपद में उनका लौटनामें उनकी यही संवेदना एक्सटेंड हुई है। इन कविताओं से गुज़रते हुए बरबस याद आती है निराला की तोड़ती पत्थरऔर उदय प्रकाश का वह कारीगर, जो झिलंगी खटिया पर पड़ा खँखार रहा है और उसकी बनाई इमारत जोर-जोर से हिल रही है। वह इस अवस्था तक कैसे पहुँचा? इसके खुरदरे अनुभवों से हमें आत्मा रंजन की कविता रू--रू करवाती है। जो उठाए हुए है आपका बोझकी ये पंक्तियाँ किसी भी संवेदनशील पाठक को अंदर तक झकझोर देती हैं -

गौर से देखो उसे/ भिंची हुई है उसकी देह
झुकी हुई रीढ़ की हड्डी/ धौंकनी की तरह चल रही हैं साँसें
आपके हिस्से का पसीना/ बह रहा है उसकी देह से
एक बेचारगी एक रिरियाहट
स्थाई रूप से बस गई है उसके चेहरे पर6

 

लेखन के लिए अनुभूति की विश्वसनीयता क्या चटख रंग लेकर आती है, यह देखना हो तो आत्मा रंजन की कविताओं से गुजरना होगा। यहाँ हमें स्वानुभूत और ओढ़ी हुई संवेदनाओं के साहित्य में अंतर भी स्पष्ट होगा। ख़ालिसआत्मा रंजन का बेहद प्रिय शब्द है। सच कहा जाये तो उनकी कविता कपोल-कल्पनाएँ या संजय उवाच की शैली में होकर उनके जीवन के खालिस अनुभव हैं इसलिए उनकी अभिव्यक्ति पर नि:संदेह विश्वास किया जा सकता है। वे पेशे से बेशक शिक्षक हैं, लेकिन उनके प्राण किसानी जीवन में बसते हैं। उन्हीं के शब्दों में- मेरे लिए गाँव छुट्टियाँ बिताने, पिकनिक मनाने की जगह नहीं, रहने-बसने की जगह है। गाँव देहात का रहवासी हूँ और गाँव मेरे भीतर बसता है, अपनी तमाम ख़ूबियों और ख़ामियों के साथ। आज भी उसका ख़ालिस या ठेठ देहातीपन आह्लादित करता है तो अंतर्विरोध उद्वेलित भी। भीतर से ठेठ देहाती हूँ।7 हल, हेंगा, मवेशी, खेत-खलिहान, फसल, घास, गोबर ढुलाई आदि उनके दैनिक जीवनानुभवों का हिस्सा हैं। जिनके स्वयं के संस्कार किसानी नहीं हैं, जो दूर से तो मजदूर-कारीगर को काम करते देखते हैं लेकिन जिनके स्वयं के हाथ कभी मिट्टी से नहीं सने, वे इन कविताओं में प्रयुक्त खाँटी शब्दावली- सूत, साहल, गुणिया, सूखी चिनाई, डंगा, उल्टान, मदनू, मजनू, बुआरे, झूम्ब, हूल, कुटुवा, गाडका, कुंबर, पूले, बियूल, शेल, गलावें, गौंच आदि से जूझते नज़र आएँगे। वे नहीं समझ पाएँगे कि किसी डंगे की चिनाई में साहल-सूत, गुणिया, सीमेंट-मसाले का क्या अर्थ है? कच्ची चिनाई पक्की चिनाई का अर्थ भी वे नहीं समझेंगे। घास के धौलू, शिलगाई, ढंगरेवश और मूंज जैसे प्रकारों को समझने के लिए दराती लेकर घासनियों में उतरने, हमारे हाथ मिट्टी से सने होने की दरकार है। हमें हथौड़े से पत्थर के कोने-कगोरे तोड़कर उसे निश्चित आकार में ढालना होगा, तभी समझ पाएँगे कि पत्थर 'बैठता' भी है। किसी रचना की रूह तक उतरने के लिए हमें स्वयं उन अनुभूतियों का शेयरहोल्डर होना होता है। किसी बावड़ी, कुएँ या चश्मे के पानी की मिठास और उसके बगल में लहराते बेस मजनूं के पेड़ों की छाँव का सुकून किसी वातानुकूलित आलीशान बंगले में मिनरल वॉटर पीता कोई व्यक्ति नहीं समझ पाएगा। इसके लिए हमें कड़कती धूप में मीलों लंबा सफर पैदल तय करना होगा; हल और हेंगे, कुदाल और गैंती-झब्बल से संवाद स्थापित करना होगा; चट्टान के सख्त सीने पर उग आने, बार-बार कुचले जाने के ख़िलाफ़ फिर उठ खड़े होने की कला घास से सीखनी होगी। जीतना और रौंदना ही जिनका संस्कार है, उन्हें नसीहत देते हुए कवि लिखता है -

जीतने के लिए/ गर्भ में उतरना पड़ता है पृथ्वी के
गैंती की नोक, हल की फाल/ या जल की बूँद की मानिंद
छेड़ना पड़ता है/ पृथ्वी की रगों में जीवन राग
कि यहाँ जीतना और जोतना पर्यायवाची हैं
कि जीतने की शर्त/ रौंदना नहीं रोपना है8

 

लोकजीवन मानव चरित्र का शुद्धतम रूप है जिससे कवि आत्मा रंजन को बेइंतहा लगाव है। सत्येंद्र कहते हैं, “ ‘लोकमनुष्य समाज का वह वर्ग है जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना से शून्य है और एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।9 बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद के इस दौर में जब बहुत कुछ क्षरित हो रहा है, लोकजीवन के लिए असंख्य चुनौतियाँ उपस्थित हो गयी हैं। शहर और गाँव आज एक-दूसरे के विरोधी की तरह हो गये हैं- दो अलग-अलग संस्कृतियों को पोषित करते हुए। ऐसे में आत्मा रंजन की बहुत सी कविताओं में लोकजीवन के प्रति उनकी गहरी रुचि और उसे बचाए रखने की चिंता सुखद है। कवि के विचार में- लोकजीवन के बहुत से अनुभव, अनेक आयाम यहाँ आए हैं। लोकजीवन की विसंगतियों और अंतर्विरोधों को भी भली-भाँति जानता-समझता हूँ और उनका विरोधी भी हूँ, लेकिन त्याज्य को छोड़ने के साथ मनुष्य और मनुष्यता के हितकर पोषक तत्वों की शिनाख्त और ग्राह्यता का पक्षधर रहा हूँ। उनमें दुर्लभ जीवन सत्व है।10 इस जीवन सत्व का संरक्षण कवि की दृष्टि में अनिवार्य है। लोक के इर्द-गिर्द घूमती उनकी कविता की बनावट और बुनावट ख़ालिस आत्मा रंजनीय है। उनका अपना ही शब्दकोश है जिसमें से निकली ठेठ शब्दावली का अर्थ कोई शब्दकोश नहीं बता पाएगा क्योंकि किसान-मज़दूर की अर्ज़ी पर कोई शब्दावली किसी शब्दकोश में शामिल नहीं की जाती। ऐसे शब्दों को शामिल कर कवि ने पहाड़ी संस्कृति और यहाँ की बोलियों का बड़ा उपकार किया है। उनकी कविता में प्रयुक्त कुछ बिंब एकदम तरोताज़ा और नवीन हैं। दरातियों की हिस-हिस, कुल्हाड़ी की खड़िच्च, दराट की ठाक-ठाक कुछ ऐसे ही बिंब हैं जो लोकजीवन से सीधे आये हैं। एक लोकवृक्ष के बारे में’, ‘बोलो जुल्फिया रे’, ‘खेलते हैं बच्चे’, ‘जो नहीं हैं खेल’, ‘घास नहीं छीली’, ‘झूम्ब’, ‘कुटुवा’, ‘गाँव से शहर लौटकर’, ‘संग मिट्टी केआदि कविताएँ लोक के प्रति कवि की प्रतिबद्धता दर्शाती हैं। इन कविताओं की बुनावट ऐसी है कि इनमें प्रयुक्त ठेठ शब्दावली अपने अर्थ स्वयं ही खोलती है जो आत्मा रंजन के सफल कविकर्म की पुष्टि है। कवि बख़ूबी समझता है कि भरी बरसात में काम करते किसी किसान के लिए रंग-बिरंगे छाते जब बेमानी हो जाते हैं, तब -

लगी बरसात में झूम्ब ही दे पाती है
दराती पर चलते हाथों का साथ
या झूम्ब ने चुना हमेशा/ कर्मशील हाथों का ही साथ11

 

            आज की शहराती पीढ़ी को नहीं मालूम कि किसी बोरी के आयताकार बराबर दो हिस्सों में से एक को दूसरे के अंदर धँसाकर बरसाती की शक्ल में तैयार झूम्ब किस सुविधा का नाम है। वे यह भी नहीं जान पाते कि सात-आठ फुट लम्बी सीधी मजबूत छड़ीनुमा लकड़ी हूल का घास ढुलाई में क्या और कैसे उपयोग होता है, लेकिन कवि जानता है कि -

सावधान सीधी तनी है हूल/ शान और सलीक़े से
पीठ पर धरने को/ तीस चालीस पूले घास
एक उपयोग एक सुविधा/ एक हुनर का नाम है हूल12

 

किसानी जीवन में रस्सियों का बड़ा उपयोग है और प्राय: रस्सियाँ पहाड़ी वृक्ष बियूल की टहनियों की छाल से तैयार की जाती हैं। इन टहनियों को दो-तीन महीने पोखर के पानी में दबाकर रखने के बाद इसकी सड़ी-गली रेशेदार छाल अलग की जाती है और फिर इसी छाल को इस वृक्ष की लकड़ी की छड़ से बने कुटुवा नामक क्रॉसनुमा यंत्र से कातकार रस्सी तैयार होती है। यह कातने-बुनने का हुनर आज की पीढ़ी में नदारद है लेकिन कवि इस कला से बाख़बर हो लिखता है -

बुनता रहा है हुनरमंद हाथों का हुनरमंद कुटुवा
खेत खलिहान मवेशी घासनियों तक पसरे
किसान जीवन के तमाम रिश्तों की मज़बूत डोरियाँ13

 

आत्मा रंजन की कविता की ख़ासियत यह है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावज़ूद ये अद्भुत आशावाद से लबरेज़ हैं। निराशमना कोई पाठक इन कविताओं से गुज़रते हुए एक अज़ब आशा से भर उठता है। कवि वहाँ भी कोई संभावना तलाश लेता है, जहाँ निराशा का घना अंधकार व्याप्त है। यहाँ संभावना ठीक उसी तरह मौजूद रहती है, जैसे अंडे के भीतर छुपी आकाशव्यापी उड़ान; जैसे बीज के भीतर छतनार वटवृक्ष; जैसे धूसरित खुरदरी जगह में नमी और अंकुर का पनपना। कवि केदारनाथ सिंह के आदमी का एक बेहतर दुनिया की उम्मीद में सड़क पार करनासे कहीं ज्यादा संभावनाशील है आटे की लोई को रोटी में तब्दील करती आत्मा रंजन की थपकी। यहाँ कवि को उस प्रक्रिया से गुज़रना आनंद देता है, जो बेहतर कल की नींव बनती है। वह मंजिल का चुंबकीय आकर्षण छोड़ राहगीर होना पसंद करता है। ऐसी नायाब और ज़रूरी चीज़ों की तलाश उनकी संभावनाएँ’, ‘घर ही है’, ‘थपकी’, ‘जड़ें’, ‘जड़ों का ही कमाया’, ‘मिले सबको’, ‘संग मिट्टी केकविताओं में देखी जा सकती है। इन ज़रूरी लेकिन उपेक्षित चीज़ों की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं -

बहुत सारी ज़रूरी और नायाब चीज़ें
पड़ी हुई हैं अनदेखी और उपेक्षित
मसलन अपने स्वभाव में ही गुपचुप गुमसुम
हमारे आसपास ही दुबकी कहीं कोई थपकी
वही थपकी जो सुबह शाम
आटे की लोई को दे रही रोटी का आकार14

 

जड़ेंकवि के लिए प्रतीकस्वरूप हर उस उपस्थिति का नाम है जो समाज की हर क्रिया का उद्गम है और जिसके होने पर कोई क्रिया, कोई गतिविधि, कोई घटना, कोई परिणाम, कोई होना संभव नहीं है फिर भी आश्चर्य कि कोई उसका होना चिह्नित नहीं करता। जड़ों का यह समर्पण और निष्ठा कवि को निढाल कर देता है क्योंकि अपने नाज़ुक पोरों की नेह भरी छुअन के साथ इस धरती के सख्त़ सीने में चुपचाप पसरने-उतरने का हुनर इन जड़ों को ही प्राप्त है। आज के मनुष्य का चारित्रिक पतन इस कदर हुआ है कि उसकी रगों में ज़हर और मंसूबों में खून उतर आया है। वह पाना चाहता है, देना नहीं; लहलहाना चाहता है, जड़ होना नहीं लेकिन कवि जानता है कि इस धरती पर जो कुछ भी हरियाता है; लहलहाता है; मुस्कुराता है; खिलखिलाता है; पकता है; सजता है, सब जड़ों का ही कमायाहै, इसलिए आत्ममुग्धता में खोये इस समाज को व्यंग्यात्मक स्वर में सन्देश देते हुए कवि लिखता है -

इससे बड़ी क्या होगी लेकिन प्रेम की मिसाल ×××
दिखाई तक देने की शर्त पर भी
चुना उन्होंने अपना प्रेम अपना होना15

 

            इन जड़ों के नि:स्वार्थ और निश्छल प्रेम की तरह ही हर माता-पिता अपने बच्चों को; वृद्धजन अपने नौनिहालों को दुलार बाँटते हैं और हम हैं कि उनकी भावनाओं को गँवारपन समझते हैं। इसलिए कवि ऐसे समाज को अपनी कविताओं से निर्मित एक ऐसा घर सौंपता है जहाँ जलने की नहीं, पकने की गंध आती है।

            स्त्री पर बात किये बिना कोई भी चर्चा अधूरी रहती है और कोई रचनाकार इस ओर से मुँह मोड़ ले, यह संभव नहीं। भारतीय समाज में स्त्री को ममता, त्याग, स्नेह, करुणा की मूरत; पतिव्रता; सती-सावित्री; आज्ञाकारिणी जैसे परम्परागत मूल्यों में कीलित कर दिया गया है। शिक्षा के प्रसार के साथ स्त्री ने इस जड़ता को तोड़ने का प्रयास किया है किंतु स्थिति में सुधार की संभावनाएँ अब भी हैं। आत्मा रंजन की कंकड़ छाँटती’, ‘हाँडी’, औरत की आँच’, ‘हँसी वह’, ‘नहाते बच्चे’, ‘बनावट से भी अधिक’, ‘औरत’, ‘जैसे शौर्य गाथाओं में स्त्री’, ‘सुनने का शऊर’, ‘सहेजने की कलाजैसी कविताओं में स्त्री की जड़ स्थिति को तोड़ने की छटपटाहट महसूस की जा सकती है। कवि जानता है कि स्त्री यहाँ परिवार और समाज के लिए सुविधा और उपभोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं है। तमाम व्यस्तताओं को खूँटी पर टाँगकर हमारे जीवन से बाधाओं के कंकड़ छाँटती, परिवार का बीजगणित सुलझाती, संस्कार की तालीम देती स्त्री का वज़ूद सिर्फ़ इतना है कि -

कंकड़ की रड़क के साथ/ चुभती रड़कती है उसकी अनुपस्थिति
खाद्य और खाने की/ तहज़ीब और तमीज़ बताती हुई
एक स्त्री का हाथ है यह
जीवन के समूचे स्वाद में से कंकड़ बीनता हुआ16

 

            कवि बख़ूबी जानता है किऔरत वह आँच है जो बर्फ़ की तरह ठंडी इस धरती को अंडे की तरह से रहीहै लेकिन दुःख है कि मनुष्य ने अपने उपभोग के लिए उसे बाज़ार की वस्तु बना दिया है। इस समाज ने उसे अपने साँचे में ढालकर तय कर लिया है कि उसे कब, कहाँ और कैसे हँसना है। उसका सतीत्व, देवीत्व, अभिसार, प्यार, स्नेह, ममत्व, तिलक करना मनुष्य को सब पसंद है लेकिन आँखों में आँखें डालता हुआ उसका रूप कत्तई नापसंद है। मनुष्य चाहता है कि हाँडी के एक हिस्से की तरह स्त्री स्वयं को परिवार की सुख-शान्ति के लिए जलने को प्रस्तुत रखे और उफ़्फ़ भी करे। इस जड़ स्थिति को तोड़ने की जद्दोजहद में कवि स्त्री के अंतस को कुरेदने की कोशिश करते हुए कहता है -

सच-सच बताना/ क्या रिश्ता है तुम्हारा इस हाँडी से
माँजती हो इसे रोज़/ चमकाती हो गुनगुनाते हुए
और छोड़ देती हो/ उसका एक हिस्सा
जलने की जागीर सा/ ख़ामोशी से17

 

            स्त्री जिस भी रूप में हो, उसकी अनिवार्य उपस्थिति समय में विविध रंग भरती है। उसके होने पर यह संसार बेरंग लगता है और उसे तो यह समाज नकार सकता है और कवि क्योंकि चीज़ों को सहेज़ने और अनुशासित करने का सलीक़ा वही जानती है। इसलिए उसके होने को दर्ज़ करते हुए कवि लिखता है -

कुछ चीज़ें/ अपनी बनावट से भी अधिक
अपने होने में सुंदर होती हैं/ जैसे एक घर में खिडकी ×××
ठीक वैसे ही/ बल्कि उससे भी अधिक
जैसे एक घर में औरत!18

 

            यह विज्ञान और तकनीक का युग है। औद्योगीकरण ने मानव जीवन को जहाँ सुविधापूर्ण सरल बनाया; वहीं उसे निरा स्वार्थी, लोभी, दंभी और संवेदनशून्य भी बनाया है। मनुष्य बेशुमार धन की अंधी दौड़ में मानवीय मूल्यों को पीछे छोड़ रहा है। युवा पीढ़ी संस्कारों से भटककर बूढ़े-बुज़ुर्गों का सम्मान करना भूल गयी है। इस परिदृश्य से आहत कवि आत्मा रंजन की संवेदनाएँ और मानवीय मूल्यों को बचाने की चिंताएँ उनकी आधुनिक घर’, ‘बोलो जुल्फिया रे’, ‘हिमपात’, ‘मालरोड पर टहलते हुए’, ‘माल : एक अज़गर’, ‘माल पर बच्चे’, नई सदी में टहलते हुए’, ‘स्मार्ट लोग’, ‘गमला’, ‘पुराना डिब्बा’, ‘खिलौनों में’, स्कूल बस्ते में’, ‘बहुत सुंदर’, ‘थाली’, ‘औरत’, आदि कविताओं में देखी जा सकती हैं। कवि स्पष्ट रेखांकित करता है कि आज समाज में दो वर्ग हैं- एक वह जो दूसरे के चेहरे के सभी रंग चुराकर शान से इठलाता है और दूसरा सभी रंग लुटाकर बेरंग दिखने में भी संतुष्ट। एक कूड़ा फैलाता, मालरोड पर बेवज़ह टहलते हुए पैसों की गर्मीं उड़ाता, बर्फ़ के मौसम में अपनी अल्कोहल भरी साँसों से पहाड़ की शुद्ध हवाओं को चुनौती देता, डांस बार और रेव पार्टियों में गुलछर्रे उड़ाता और सब कुछ को डिस्पोज़ेबल में बदलता हुआ जबकि दूसरा कूड़ा साफ़ करता, घर पहुँचने की उधेड़बुन में तेज़ कदम चलते हुए मालरोड का व्याकरण खंडित करता, अपने भीगते सर को छुपाने के लिए किसी छज्जे की ओट तलाशता, गमलों की कतार में किसी पुराने डिब्बे की तरह पुन: जी उठता, दूसरों का पसीना अपनी देह से बहाता, गढ़े-मढ़े जाने के लिए मजबूर तथा किसी लोकधुन की टेर में खोया श्रम में लीन उपेक्षित वर्ग है। कितने ताज्ज़ुब की बात है कि आज के तथाकथित अमीर वर्ग के लोगों ने अपने घरों में किसी भीगते राहगीर के आसरे हेतु छज्जा तक नहीं छोड़ा है -

आधुनिक घरों के पास नहीं हैं छज्जे
कि लावारिस कोई फुटपाथी बच्चा/ बचा सके अपना भीगता सर
नहीं बची है इतनी भी जगह/ कि कोई गौरेया जोड़ सके तिनके
सहेज परों की आँच/ बसा सके अपना घर-संसार।19

 

आत्मा रंजन की कविता आज के उन सभी युवाओं के लिए एक क्लेरियन कॉल है, जो तकनीक की उडारी भरकर एक दूसरे को पटखनी देने की स्मार्ट तरकीबें ढूँढ़ते हैं और बार-संस्कृति तथा रेव-पार्टियों के शौकीन होकर देहाती संस्कार पीछे छोड़ रहे हैं। उनके लिए घर के वृद्धजन किसी खाली और बेकार पड़े टिन या डिब्बे की तरह गमले की कतार की शोभा ही हो सकते हैं। ऐसे युवाओं से निर्मित होते समाज में एक स्त्री के अपनी ही बेटी के प्रति बदले नज़रिए से कवि हतप्रभ है -

बहुत सुंदर एक औरत ने/ बहुत सुंदर दूसरी बच्ची को
दिया है जन्म/ और हो गयी है बहुत उदास
गहन उदासी में डूबी/ बहुत सुंदर इस पृथ्वी को अब
कैसे कहूँ मैं बहुत सुंदर20

 

            कवि की चिंता यहाँ दोहरी है। एक ओर स्त्री का स्त्री के प्रति बदला दृष्टिकोण और दूसरा स्त्री का बेटी के जन्म पर उसके भविष्य के प्रति असुरक्षा के भाव से भर उठना। कवि प्रश्न करता है कि ऐसे समाज में, जहाँ स्त्री को अपने मनमाफ़िक गढ़ा जाता है; मढ़ा जाता है, उसे उसके होने में क्यों नहीं देखा जाता?

समाज के इस सांस्कृतिक विपथन के कारणों पर भी कवि गहन तार्किक चिंतन करता है। वह समझता है कि इसकी जड़ें हमारी शिक्षा व्यवस्था में कहीं गहरी धँसी हैं। जो बच्चे अपने बैग में कोई चिड़िया, म्याऊँ, तितली और तमाम तरह के खिलौने भरना चाहते हैं, उन पर किताबों के भारी-भरकम बस्ते लाद उनका बचपन छीन लिया गया है; किताबें भी ऐसी जिनमें अम्मा, अनाज़, आटा, आलू का व्यावहारिक व्याकरण परोसकर तीर, तलवार, बंदूक और स्टेनगन के संस्कार सिखाये जा रहे हैं। आज की यंत्रवत अति व्यस्त पीढ़ी द्वारा उन्हें अपनी उंगली पकड़ाकर चलना सिखाने की बजाय इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की दुनिया में धकेलकर उन्हें संवेदनहीन बनाया जा रहा है। ऐसे में किसी जरूरतमंद के लिए सहारे का हाथ बढ़ाने की बजाय यदि वह बहेलिये की भाषा सीखे, तो इसमें आश्चर्य कैसा! उसके लिए तो हर कोई उपभोग और उपयोग की वस्तु ही हो सकती है। ऐसी व्यवस्था की निर्मिती यह पीढ़ी मानो समाज को चिढ़ाती हुई कह रही हो- बेशरम रंग कहाँ देखा दुनिया वालों नेऔर हद तो यह है कि ऐसे ही गानों पर शैक्षणिक संस्थानों में विद्यार्थियों को नृत्य सिखाया जाएगा और फिर वही संस्कार गाँव-देहात के घर-घर पहुँचेंगे। यह बेहद चिंता का विषय है जिस पर गहन चिंतन करने के लिए ये कविताएँ मज़बूर करती हैं।

            प्रशासन के साथ मिलकर राजनीतिक गलियारों में उसी आमजन के ख़िलाफ़ तमाम प्रकार के छल-छद्म और षड्यंत्र रचे जाते हैं, जो उन्हें आरामकुर्सी तक पहुँचाता है। आमजन की भूख की पीठ पर सवार हो निर्लज्ज मसखरेपन के साथ जनहितैषी का चेहरा ओढ़े इस राजनीति के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर और श्रमजीवी नफ़ीस जनों के प्रति आत्यंतिक सम्मान का भाव आत्मा रंजन की कविता सूर्य नमस्कार’, ‘दृश्य’, ‘असहमति’, ‘बहुत कुछ कर रहे हैं स्मार्ट लोग’, ‘स्मार्ट लोगों के पास है स्मार्ट भाषा’, ‘ज़िद’, ‘डरआदि कविताओं में देखने को मिलता है। यह स्वर उनके पहले कविता-संग्रह में कम जबकि दूसरे में ख़ास मुखरित हुआ है। इस संदर्भ में पूछे जाने पर उनका कहना है- हाँ आप कह सकते हैं, उन कविताओं में प्रतिरोध का स्वर परोक्ष था और इन कविताओं में वह प्रत्यक्ष और तीक्ष्ण भी। आप देखेंगे कि इधर के कुछ वर्षों में मनुष्य और मनुष्यता विरोधी ताकतें अधिक मजबूत हुई हैं। राजनीति, अर्थ, धर्म सत्ताओं के निर्लज्ज गठजोड़ हुए हैं। फासीवादी और तानाशाही प्रवृत्तियाँ और मजबूत तथा क्रूर हुई हैं। ऐसे में कविता का दायित्व और भी बढ़ जाता है; मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में दृढ़ता से, मुखरता से खड़े होने का। आप देखेंगे इन कविताओं में यह प्रतिरोधी स्वर व्यंजना, लक्षणा के साथ अभिधा में भी आया है। जनपक्षधर स्वरों की मुखरता, मुखर प्रतिरोध का साहस हमारे समय की ज़रूरत है।21 दीगर है कि प्रतिरोध का यह स्वर यहाँ व्यंग्यात्मक और अभिधात्मक, दोनों रूपों में देखा जा सकता है।

        आज नेताओं में आत्मप्रकाशन की प्रवृत्ति इतनी हावी होती जा रही है कि किये गए हर कार्य को ट्विटर, इन्स्टाग्राम, फेसबुक, प्रिंट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रचारित प्रसारित करने के लिए विशेष टीम को दायित्व सौंपा जाता है। जनहित की किसी भी योजना की सामग्री माननीय की तस्वीर छपे बिना वितरित नहीं होती और सरकार के बदलते ही पिछली सरकार के समय की ऐसी लाखों-करोड़ों रुपयों की लागत वाली सामग्री को नष्ट किया जाता है। आर्थिक तंगहाली का रोना रोने वाले राज्यों को पैसों की इस प्रकार होली जलाने में कुछ गलत नहीं लगता। ऐसे प्रपंच और आडंबर पर व्यंग्य करते हुए कवि लिखता है -

स्मार्ट पोशाकों/ महँगे धूप चश्मों के साथ
उतर आये हैं झाड़ू लेकर सड़कों पर
चला रहे स्वच्छ भारत अभियान/ पूरे मेकअप के साथ
हेलिकॉप्टर से सीधे उतर रहे खेतों में
किसानों संग काट रहे गेहूँ22

 

            धूमिल ने भाषा की रातमें माननीयों की मीनाकारी की जिस अदा की ओर संकेत किया है, वही आत्मा रंजन की कविता में स्मार्ट भाषाके रूप में संकेतित है। इन अदाकारों की शहद की तरह घुलती नफ़ीस भाषा के पीछे के बहेलिये को कवि बख़ूबी समझता है, इसलिए उनके चरित्र के बरक्स वह अन्नदाता के समक्ष आदर में शीश नवाते हुए लिखता है -

सूर्य नमस्कार के अभ्यासी/ किसी निठल्ले की देह मुद्रा से
ज्यादा सुंदर लग रही है/ धान रोपती औरत की देह मुद्रा23

 

            आज जबकि विपक्ष नदारद है; लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ राग दरबारी में व्यस्त है; प्रचंड सहमति के दौर में सहज जिज्ञासा को संशय और प्रश्न को द्रोह की तरह देखा जा रहा है, कवि जानता है कि कुछ असहमतियों का बचा रहना कितना ज़रूरी है क्योंकि -

बहुत ज़रूरी हैं ध्रुव
हों तो निष्क्रिय हो जाएँगे तमाम दिशा सूचक यंत्र
दिग्भ्रमित हो जाएँगी यात्राएँ
बीच समंदर कहीं डूब भटक जाएँगे बेड़े
कि ध्रुवों ने ही तो दिया संसार को दिशा बोध24

 

            यद्यपि यह भी दीगर है कि लगभग एकतंत्र में बदलते देश की इस स्थिति के लिए विवेकशून्य और दिशाहीन विपक्ष भी बराबर जिम्मेवार है जिस ओर कवि को मुखर होने की दरकार है। कवि जानता है कि किताबों से फूटती विवेक और साहस की लौ से कोई भी राजा डरता है लेकिन उसी लौ की कुछ तपिश ऊर्जा के रूप में यदि विपक्ष को भी मिल जाए, तो वह कालजयी हो जाती है।

            कवि आत्मा रंजन की कविताओं से गुजरने के बाद यह सहज ही कहना होगा कि यह कविता उन पाठकों को सर्वाधिक आकर्षित करती है, जिन्हें प्रकृति और जीवन के मूल और अनगढ़ रूप से निहायत प्रेम है। इस कविता के केंद्र में मजदूर, किसान और श्रमिक है; हमारे जीवन से बाधाओं के कंकड़ छाँटती वह गृहस्थ औरत है, जो हांडी की तरह अपने जीवन का एक हिस्सा जलने की जागीर समझ खामोशी से छोड़ देती है। यहाँ हिमाचल के पहाड़ी जनजीवन की कुछ मधुर लोकधुनें, देहाती तौर-तरीके, प्रकृति का अनगढ़-नैसर्गिक स्वरूप भी देखा जा सकता है और इन सबके बीच हिमपात का आनंद लेते अपनी जेब की गर्मी लुटाते सैलानी भी। यहाँ माल रोड पर टहलने की तमीज़ और तहज़ीब से बेखबर अपनी ही रौ में घर पहुँचने की उधेड़बुन में चलते लोग हैं। छुपम-छुपाई, चोर-सिपाही और एक टाँग पर उछलकर गोल चित्ती से खेले जाने वाले ऐसे खेल हैं, जिनका उल्लेख किसी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धा में नहीं मिलता। यहाँ चट्टान के सख्त सीने में भी अपने लिये मुकम्मल जगह बनाती और बार-बार कुचले जाने पर भी उठ खड़े होने का हुनर रखती घास है; अपने नाज़ुक पोरों की कोमल छुअन से धरती के सख्त सीने में उतरने-पसरने की कला की पारखी जड़ें हैं, जो केवल प्रेम लुटाना जानती हैं, कुल मिलाकर हाशिये का वह समाज है जो सभी का बोझ अपने ऊपर उठाए आत्मप्रकाशन के किसी प्रपंच के बिना इत्मीनान से अपने कर्म में लीन हैं। कहना होगा कि ये कविताएँ जल की बूँद की मानिंद पृथ्वी की रगों में उतरता ऐसा राग है, जो सिर्फ़ लुटाना जानता है और जिसे आत्मसात करने की शर्त यह है कि हम -

कितने ही अच्छे हों कितने ही बड़े/ साबित हों कितने ही श्रेष्ठ
बहुत जरूरी होता है हमारा/ मानवीय होना25

 

संदर्भ :

1. https://www.hindigurujee.com/2021/03/samkalin-kavitasamkalin-kavita-ki.html#
2. विश्वंभरनाथ उपाध्याय, समकालीन सिद्धांत और साहित्य, दि मैकमिलन कंपनी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड, नयी दिल्ली, 1976, पृष्ठ 16
3. आत्मा रंजन : पगडंडियाँ गवाह हैं, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2011, फ्लैप से उद्धृत
4. दयाशंकर शरण, मुख्यधारा बनाम हाशिये की कविता, https://samalochan.com/siwan-ki-kavita/
5. आत्मा रंजन, जीने के लिए ज़मीन, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2022, फ्लैप से उद्धृत
6. वही, पृष्ठ 23
7. रचनाकार से साक्षात्कार, 12 मार्च 2023
8. आत्मा रंजन, पगडंडियाँ गवाह हैं, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2011, पृष्ठ 22
9. सत्येंद्र, लोकसाहित्य विज्ञान, शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा, 1971, पृष्ठ 3
10. रचनाकार से साक्षात्कार, 12 मार्च 2023
11. आत्मा रंजन, जीने के लिए ज़मीन, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2022, पृष्ठ 68
12. वही, पृष्ठ 69
13. वही, पृष्ठ 74-75
14. वही, पृष्ठ 12
15. वही, पृष्ठ 17
16. आत्मा रंजन, पगडंडियाँ गवाह हैं, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2011, पृष्ठ 10
17. वही, पृष्ठ 11-12
18. आत्मा रंजन, जीने के लिए ज़मीन, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2022, पृष्ठ 36
19. आत्मा रंजन, पगडंडियाँ गवाह हैं, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2011, पृष्ठ 34
20. आत्मा रंजन, जीने के लिए ज़मीन, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2022, पृष्ठ 35
21. रचनाकार से साक्षात्कार, 12 मार्च 2023
22. आत्मा रंजन, जीने के लिए ज़मीन, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2022, पृष्ठ 49-50
23. वही, पृष्ठ 25
24. वही, पृष्ठ 60
25. आत्मा रंजन, पगडंडियाँ गवाह हैं, अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2011, पृष्ठ 90


वीरेंद्र सिंह
सहायक आचार्य, सांध्यकालीन अध्ययन विभाग, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला-171005
virender1singh0123@gmail.com, 8580758307

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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