शोध आलेख : वैदिक साहित्य में स्त्री-स्वर : एक अवलोकन / ममता दीपक वेर्लेकर

वैदिक साहित्य में स्त्री-स्वर : एक अवलोकन
- ममता दीपक वेर्लेकर

शोध सार : स्त्री- विमर्शकारों ने सीमित सामग्री के आधार पर भारतीय स्त्री-लेखन के शुरूआती दौर पर अध्ययन करके पाया कि लोकसाहित्य के बाद ऋग्वेद, भारत में स्त्री-लेखन का सबसे पहला उपलब्ध दस्तावेज़ है। ऋग्वेद मूलत: मंत्रों का संग्रह है। इन मंत्रों की रचनाशीलता का श्रेय ऋषियों और तत्कालीन विदुषी ऋषिकाओं को दिया जाता है। इन ऋचाओं में देवताओं की स्तुति के साथ-साथ तत्कालीन स्त्रियों की स्थिति एवं उनकी अस्मिता से जुड़े सवालों के छुटपुट संकेत मिलते हैं। स्त्री लेखन के इस दस्तावेज़ को स्त्रीवादी दृष्टिकोण से समझना और उनके रचनात्मक सामर्थ्य को प्रकाश में लाना आवश्यक है। इस शोध आलेख का उद्देश्य वैदिक समाज में स्त्रियों की स्थिति को प्रकाश में लाना, वैदिक ऋषिकाओं की उक्तियों का अध्ययन करना और उनकी उक्तियों के माध्यम से अभिव्यक्त स्त्री-संवेदनाओं को तत्कालीन समाज के संदर्भ में विश्लेषित करना है। इस अध्ययन के लिए पाठ विश्लेषण और अंतरजाल पर पुस्तक आलेख, विडियो रूप में उपलब्ध आलोचनात्मक सामग्री का आधार लिया गया है।

बीज शब्द : स्त्री-कविता, स्त्री-स्वर, स्त्री-विमर्श, ऋग्वेद, वैदिक साहित्य, धार्मिक  साहित्य, ऋषिकाएँ, ऋचाएँ, स्तुति-गीत, इतिहास।

मूल आलेख : भारतीय साहित्य में स्त्री लेखन का सबसे पहला दस्तावेज़ वैदिक साहित्य में मिलता है। वेदों का अर्थ है ज्ञान। [1] वैदिक साहित्य मूलतः धार्मिक साहित्य है। यह एक अलग-अलग और व्यक्तिगत रूप से परिपूर्ण स्वतंत्र ऋचाओं का संकलन है। ये ऋचाएँ स्वतंत्र होते हुए भी मूल पाठ की निरंतरता को नष्ट नहीं करतीं।[2] देवताओं के लिए यज्ञ-याग करने के विधान और उनकी स्तुतियाँ करना इस साहित्य की विशेषताएँ हैं।[3] वैदिक साहित्य की सभी रचनाओं में ऋग्वेद संहिता सबसे पुरानी एवं महत्वपूर्ण रचना है।[4]

ऋग्वेद में हिंदआर्य बोलने वाले समाज का संकेत प्राप्त होता है। ऋग्वेद हिंद-आर्य भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ है जिसमें मुंडा और द्रविड़ भाषा भाषाओं के भी शब्द मिलते हैं। इतिहासकार रामशरण शर्मा[5] ने यह अनुमान लगाया है कि ये शब्द हड़प्पा लोगों से ऋग्वेद में आए होंगे। ऋग्वेद की अनेक बातें ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रंथ अवेस्ता के व्याकरण, शब्दावली[6] से मिलती जुलती है साथ ही ऋग्वेद के देवताओं और सामाजिक वर्गों के नाम भी दोनों ग्रंथों में समान हैं। वेदों की ऋग्वेद संहिता में दुनिया की सबसे प्राचीन कवयित्रियों, वैदिक ऋषिकाओं की ऋचाएँ मिलती हैं।

ऋग्वेद के कालखंड को लेकर विद्वानों में मतभेद है। सभी वरिष्ठ विद्वान ऋग्वेद सभ्यता को ईसा से 2000 वर्ष पहले का मानते हैं।[7] इतिहासकार रोमिला थापर ने वेदों की रचना और संकलन का समय ईसा पूर्व 1500-500 के बीच का माना है।[8] ऋग्वेद की सबसे पुरानी जीवित पांडुलिपि .की 11वीं सदी की है। कई इतिहासकार ऋग्वेद के प्रारंभिक भाग की रचना का कालक्रम मोटे रूप से .पू. 1200-1000 अथवा 1500-1000 के बीच मानते हैं। यह हो सकता है कि ऋग्वेद के कुछ हिस्सों की रचना शायद .पू. 2000 से भी पहले की गई हो पर इसका कालक्रम अनिश्चित है, इसीलिए  इतिहास के स्रोत के रूप में इस पाठ का उपयोग करने में ऋग्वेद की रचना अवधि की अनिश्चितता एक बड़ी समस्या है।[9] बुरजोर अवारी के अनुसार, आर्य समुदाय की सबसे पहली लहर भारत में करीबन .पू. 1700 में पहुँची और उसके तीन सौ वर्ष बाद .पू. 1400 में ऋग्वैदिक लोग भारत पहुँचे। यह ऋग्वैदिक समुदाय अपने साथ अपने ईरानी और अफ़गानी प्रवास के दौरान रचे मंत्रों और सूक्तों के संग्रह (स्तुति गीत) लेकर आए जो ऋग्वेद का शुरुआती हिस्सा हो सकता हैं। वे मानते है कि, आगे इस रचना की जटिल भाषा भारत की मौजूदा मूल भाषा के अनुसार बदल गई होगी ऋग्वैदिक समुदाय, सांस्कृतिक रूप से सभी वैदिक समुदायों में  सबसे प्रभावशाली समुदाय था। ऋग्वेद उसी समुदाय द्वारा रचित साहित्यिक और आध्यात्मिक कृति है जो भारतीय वैदिक संस्कृति पर गहरी अंतर्दृष्टि डालती है। तभी से इस कृति को भारतीय जलवायु में रचित कृति माना जाता है। [10]

ऋग्वेद का अर्थऋचाओं वाला पदहै। ऋचा का पर्याय हैमंत्र मंत्र किसी देवता की स्तुति में गाए जाते हैं। ऋग्वेद एक छंदोबद्ध रचना है। छंदोबद्ध मंत्र कोऋकयाऋचाकहते हैं। संहिता  का अर्थ है संग्रह। इस प्रकार ऋग्वेद ऋचाओं का विशाल संग्रह है।[11]

इसमें कुल 10600 ऋचाएँ हैं जो 1028 सूक्तों में विभक्त हैं। इन ऋचाओं की रचना ऋषियों और ऋषिकाओं ने की है। यास्क ने निरुक्त में लिखा है कि औपमन्यव के मत मेंऋषिशब्ददृशधातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ स्तोत्र को देखने वाला है (ऋषि दर्शनात, स्तोत्रान ददर्शे इति औपमन्यवः-निरुक्त, द्वितीय अध्याय, तृतीय पाद) कात्यायन के अनुसार जिसका वाक्य है वह ऋषि है (यस्य वाक्यं सः ऋषिः) इन ऋषियों ने समाधि की अवस्था में अपने परिवेश का अतिक्रमण करके मंत्रों के दर्शन किए इसलिए उन्हें मंत्रों के स्रष्टा नहीं वरन् द्रष्टा कहा जाता है। ऋग्वेद में वेदमंत्रों के 300 द्रष्टा हैं।[12] प्रो. गौरी महुलिकर के अनुसार द्रष्टा का अर्थ है ‘farsighted’ याजिसके पास दूरदृष्टि हो [13]

ऋग्वेद में जिन स्त्रियों की उक्तियाँ मिलती हैं उन्हेंऋषिकाकहा जाता है।ऋषिका शब्द का प्रयोग परवर्ती है। ऋग्वेद में स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ऋषि शब्द का प्रयोग किया गया है-कृतियों के आधार पर ऋषियों के भी दो वर्ग हैं, एक तो एकाकी और दूसरा पारिवारिक। एकाकी ऋषि वे हैं जिन्होंने स्वयं मंत्रों की रचना की और पारिवारिक वे हैं जिनके परिवार में अन्य मंत्रद्रष्टा भी हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो अदिति, अदिति दाक्षायणी, उर्वशी, गोधा, जुहूब्रह्मजाया, रोमशा, वागाभृणी, श्रद्धा कामायनी, सरमा देवशुनी एवं सूर्या सावित्री एकाकी ऋषिकाएँ हैं। पारिवारिक ऋषिकाओं में आत्रेय कुल की अपाला, विश्ववारा, इंद्रकुल की इंद्राणी, इंद्रस्य स्नुषा, इंद्रमातरौ एवं शची पौलोमी, अगस्त्य की अगस्त्य शिष्या, अगस्त्य पत्नी लोपमुद्रा, अगस्त्य स्वसा लोपायन माता, वैवस्वत कुल की यमी एवं कश्यप कुल की शिखंडिनी के नाम आते हैं।[14]

ऋग्वेद के पहले मंडल में 147 वें सूक्त के तीसरे छंद की द्रष्टा ममता हैं। इस सूक्त में ममता ने अग्नि की स्तुति की है। पहले मंडल के 126 वें सूक्त के सातवें मंत्र की द्रष्टा रोमशा हैं। बृहद्देवता में कहा गया है कि जिन बातों से स्त्रियों की बुद्धि  विकसित होती है वे उन्ही बातों का प्रचार करती थीं। इसी सूक्त के छठे मंत्र के ऋषि  भावभव्य से उनका संवाद डॉ. सुमन राजे के अनुसार स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर है जिसमें पहली बार एक स्त्री ने अपने लिए समान अधिकार के लिए आवाज उठाई है। यह संवाद इस प्रकार है -

भावाभव्य कहते हैं- ‘जो जन सभा सेना और शाला के अधिकारी कुशल चतुर आठ सभासदों (युक्त), शत्रुओं का विनाश करनेवाले वीरों, गौ, बैल आदि पशुओं, धनी वणिक जनों और खेती करनेवालों की अच्छे प्रकार रक्षा करके अन्न आदि ऐश्वर्य की उन्नी करते हैं, वे मनुष्यों के शिरोमणि होते हैं। रोमशा इसका उत्तर देते हुए कहती है-‘हे पति राजन्! जैसे पृथ्वी राज्यधारण एवं रक्षा करनेवाली होती है, वैसे ही मैं प्रशंसिर रोमवाली हूँ। मेरे सभी गुणों को विचारो। मेरे कामों को अपने सामने छोटा मानो। ’’[15]

पहले मंडल की तीसरी द्रष्टा लोपामुद्रा हैं। उन्होंने इस सूक्त में विदुषी स्त्रियों और विवाह की चर्चा की है। तीसरे मंडल का 33वाँ सूक्त एक संवाद सूक्त है जिसके द्रष्टा विश्वामित्र गाथिन एवं ऋषिका नद्य (नदियाँ)हैं। चौथे मंडल में अदिति और अदिति दाक्षायणी के मंत्र मिलते हैं। पाँचवे मंडल के 28वें सूक्त की द्रष्टा विश्ववरा आत्रेयी है जिसने अग्नि की स्तुति की है। आठवें मंडल में शाश्वती आंगिरसी और अपाला आत्रेयी के मंत्र मिलते हैं 9वें मंडल में शिखंडिनी के नाम से दो अप्सरा पुत्रियों को ऋषित्व मिला है।

ऋग्वेद के 10वें मंडल में सबसे ज़्यादा ऋषिकाएँ मिलती हैं। ब्रह्मवादिनी घोषा इन्हीं में से एक है जो कोढ होने के कारण बहुत समय तक अविवाहित रहीं। आगे अश्विनीकुमारों की कृपा  से इनका विवाह हुआ। उनके मंत्र का विषय भी यही है। 10वें मंडल के 159 वें सूक्त की ऋषिका शची पौलौमी है जो इस मंत्र की देवता भी है। इसी मंडल के 86वें सूक्त की ऋषिका इंद्राणी हैं। पारिवारिक सूक्त 10.28 में इंद्रस्नुषा, इंद्र एवं वसुक्, ऋषि रूप में हैं। इसी मंडल के 153वें सूक्त की द्रष्टा इंद्रमातरो देवजामयः है। सूक्त 102 में मुद्गलपत्नि को ऋषित्व मिला है। 189 वें सूक्त की ऋषिका और देवता सर्पराज्ञी है। इसी मंडल के 60वें सूक्त की छठी ऋचा में अगस्त्या स्वसा को ऋषित्व प्राप्त हुआ है। गोधा 134 वें सूक्त की द्रष्टा हैं। 107 वें सूक्त की ऋषिका दक्षिणा प्राजापत्या है। 109वें मंत्र की ऋषिका जुहू ब्रह्मजाया है। 127वें सूक्त की ऋषिका रात्रिभारद्वजी है। 108वें सूक्त की सहऋषिका सरमादेवशुनी है। 125वें सूक्त की ऋषिका और देवता वागाभृणी है। 85 वें सूक्त में ऋषिका सूर्या सावित्री ने अपने विवाह की प्रशंसा की है जो आज भी शादी-ब्याह के समय गाए जाते हैं। 191वें सूक्त की ऋषिका और देवता श्रध्दा कामायनी है। 10वें मंडल में ही उर्वशी-पुरूरवा और यम-यमी के संवाद सूक्त मिलते हैं जिनका मूल विषय प्रेम है। [16]

वैदिक युग में स्त्री की अभिव्यक्ति के दस्तावेज़ मिलना दुर्लभ हैं। कई विद्वानों ने इस युग को स्त्री की शिक्षा के संदर्भ में प्रगतिशील युग माना है। देवर्षि कलानाथ शास्त्री कहते हैं, “ऋग्वेद काल में नारियों को समाज में वही प्रतिष्ठा दी जाती थी जो पुरुषों की थी। नारियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना करके ऋषि पद प्राप्त करनेवाली घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, रोमशा, सूर्या आदि अनेक विदुषियों का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ पढ़तीं थीं, पढ़ातीं थीं, गुरुकुल चलाती थीं और शासन करती थीं। स्त्रियों का यह स्थान उपनिषद काल के बाद कट्टरता के कारण बदल गया और मध्यकाल तक आते-आते यह कहा जाने लगा कि स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। ऋग्वेद में जहाँ पर्दा प्रथा का नाम तक नहीं है वहाँ मध्यकाल आते-आते नारी सुरोप्य और संपत्ति की तरह छिपाने लायक बना दी गई।[17]

            भास्वती पाल ने अपने विशद अध्ययन में अनेक विद्वानों के हवाले से स्पष्ट किया है कि वैदिक काल में स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने की स्वतंत्रता थी, साथ ही व्यायाम विद्या, तीरंदाजी, घुड़सवारी, सार्वजनिक गतिविधियाँ, शिक्षा, खुद के निर्णय लेना, और अपने वर को चुनने की भी उन्हें स्वतंत्रता थी। उसे अर्धांगिनी तथा सहधर्मिणी के रूप में देखा जाता था। विधवा पुनर्विवाह भी समाज द्वारा स्वीकृत था पर वैदिक विवाह पद्धति में तलाक के लिए अनुमति नहीं थी। कामसूत्र जैसे ग्रंथों में स्त्री के शारीरिक सुख तथा संतोष को वरीयता दी गई है। [18]

            ऋग्वेद संहिता में दुर्गा, अदिति, सरस्वती की स्तुति की गई है जिससे समाज में उनके स्थान का पता चलता है। लड़कियों की शिक्षा उपनयन के चरणों से होकर गुजरती थी और ब्रह्मचर्य वैवाहिक स्थिति की ओर ले जाता था। वैदिक ग्रंथों में दो प्रकार की महिला विद्वानों का भी पता चला है। पहली थी ब्रह्मवादिनियाँ, जो जीवन भर वेदों का अध्ययन करती थी और विवाह नहीं करती थीं और दूसरी थीं सद्योद्वाहा जो विवाह होने तक वेदों का अध्ययन करती थीं। [19]

            वैदिक कालीन स्त्रियाँ आर्थिक रूप से भी स्वतंत्र थी। शिक्षा के क्षेत्र में वे आचार्या के रूप में काम करती थीं, कताई तथा बुनाई कर पैसे कमाती थी और खेती करने में अपने पति की मदद करती थीं। कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में वैश्याओं के वैधिक स्थान की चर्चा करते हैं। इन स्त्रियों को सुंदर,प्रतिभावान तथा संपन्न समझा जाता था। भास्वती पाल यह भी कहती है कि हालाँकि शादीशुदा स्त्रियों को अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं था परंतु अविवाहित स्त्रियों को अपने भाई के लिए आबंटित संपत्ति में से एक चौथाई हिस्सा दिया जाता था। [20]

लेकिन केवल कुछ ही स्त्रियों के उदाहरण के आधार पर सामान्य स्त्री के जीवन के संदर्भ में निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। ऋग्वेद की ऋषिकाएँ  संपन्न परिवार की थीं। कुछ स्त्रियाँ ऋषियों के परिवार से थीं तो कुछ राज-परिवार से थीं। इन ऋचाओं से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि तत्कालीन सामान्य समाज की स्त्रियाँ स्वतंत्र और शिक्षित थीं और वे अपने जीवन के निर्णय ले सकती थीं।

मौजूदा आलोचनात्मक साहित्य से यह स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद में स्त्रियाँ हाशिए पर हैं। उनका उल्लेख मुख्य रूप से रूपकों में और उपमाओं में किया गया है। वेंडी डोनिंजर स्पष्ट रूप से कहती हैं कि, “ऋग्वेद पुरुषों द्वारा, पुरुषों के बारे में, पुरुषों के वर्चस्व वाली दुनिया में, पुरुषों की चिंताओं के बारे में लिखी गई पुस्तक है। इन चिंताओं में से एक स्त्रियाँ हैं, जो सभी सूक्तों में वस्तुओं के रूप में दिखाई देती हैं, विषयों के रूप में नहीं।[21] वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। वरिष्ठ पुरूष घर के मुखिया होते थे। पुत्र आर्थिक और धार्मिक कारणों से अपने माता-पिता के साथ रहते थे। लड़की का जन्म पाप माना जाता था। स्त्रियों को अधिकारों के बारे में सोचने के बजाय, अपनी शादी, अपने पतियों के प्रति वफादारी, बच्चों का पालन-पोषण और परिवारों की भलाई पर ध्यान देना था। वैदिक साहित्य में स्त्री के बारे में की गई घोषणाएं और दावे कभी-कभी प्रशंसात्मक लग सकते हैं, लेकिन उस समाज में प्रचलित लिंगभेद को नकारा नहीं जा सकता है। ऐतरेय ब्राह्मण (3.33.3) में कहा गया है-“भोजन जीवन है, वस्त्र सुरक्षा है, सोना सुंदरता है, विवाह पुरुषों के लिए है। पत्नी एक दोस्त है, एक बेटी  दुख है और एक पुत्र सर्वोच्च स्वर्ग में प्रकाश है।[22]

प्राचीन साहित्य में, वैदिक युग की महिलाओं के बारे में चर्चा का एक बड़ा हिस्सा कुलीन महिलाओं पर केंद्रित था। हालांकि ऋग्वेद में देवी का उल्लेख है, उनमें से कोई भी प्रमुख देवी के रूप में महत्वपूर्ण नहीं है।  महिला देवताओं की पूजा के सामाजिक निहितार्थ जटिल हैं। हालांकि इस तरह की पूजा कम से कम एक समुदाय की स्त्री रूप में देवी की कल्पना करने की क्षमता को चिह्नित करती है, इसका यह मतलब नहीं है कि उस समय की महिलाओं को शक्ति या विशेषाधिकार प्राप्त हैं।  ऋग्वेद में ऋषिकाओं की संख्या कम है (1000 से अधिक में से सिर्फ 12-15) इससे पता चलता है कि महिलाओं की शिक्षा तक सीमित पहुंच थी। ऋग्वेद में कोई भी स्त्री पुजारी नहीं हैं। स्त्रियों ने यज्ञों में  पत्नियों के रूप में भाग लिया। वे ही यज्ञ करती थीं ही वे दान या दक्षिणा की दाता या प्राप्तकर्ता थीं। वैदिक परिवार स्पष्ट रूप से पितृसत्तात्मक था। उनकी  प्रजनन शक्ति को संसाधन के रूप में नियंत्रित किया जाता था। ऋग्वेद विवाह की संस्था को महत्व देता है और विभिन्न प्रकार के विवाहों की बात करता है- एक विवाह, बहुविवाह, और बहुपतित्व। कुछ अनुष्ठान युवावस्था के बाद के विवाह को इंगित करते हैं। ऋग्वेद में स्त्रियों के अपने पति को चुनने के संदर्भ भी मिलते हैं। एक महिला शादी कर सकती है अगर किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो गई  तो वह दूसरा विवाह कर सकती थी। ऋग्वेद में अविवाहित महिलाओं के संदर्भ भी मिलते हैं, जैसे कि द्रष्टा घोषा (7.55.5-8)इसमें एक पुरूष अपनी प्रेमिका के साथ पलायन की बात करता है, वह प्रार्थना करता है कि उसकी प्रेमिका के पूरे घर-उसके भाइयों और अन्य रिश्तेदारों के साथ-साथ कुत्ते को भीएक गहरी नींद में सुला देना चाहिए, ताकि प्रेमी चुपके से बाहर निकल सकें। पुरुष प्रभुत्व और स्त्रियों की अधीनता सभी ज्ञात ऐतिहासिक समाजों की एक विशेषता है। मुद्दा प्रभुत्व और अधीनता की मात्रा का है जिस संरचना में ये अंतर्निहित थे। बाद के वैदिक साहित्य की तुलना में, ऋग्वेद संहिता की पारिवारिक पुस्तकें एक ऐसी स्थिति को दर्शाती हैं जिसमें सामाजिक स्थिति उतनी कठोर रूप से परिभाषित या ध्रुवीकृत नहीं थी जितनी बाद के समय में थी। इस समाज में पद, प्रतिष्ठा और लिंग असमानता के दो मुख्य आधार थे।[23]

वैदिक ऋचाओं में देवताओं की स्तुतियाँ है जिससे उस रचना का धार्मिक एवं आध्यात्मिक रूप सामने आता है। साथ ही वैदिक ऋषिकाओं के मंत्रों में स्त्री होने की पहचान भी सामने आए बिना नहीं रहती। इन ऋषिकाओं की एक चिंता है उनका घर-परिवार और उससे जुड़ीं सभी सामाजिक रीतियाँ। वे अपने मंत्रों में अपने घर, परिवार, पति, बच्चे के सुख और समाधान की कामना करती हैं। वे प्रचुर वर्षा की कामना करती हैं, पति की रक्षा की कामना करती हैं, सपत्नियों एवं परिवार पर विजय एवं अधिकार की कामना करती हैं। इंद्रस्नुषा जैसी ऋषिका अपने ससुर के यज्ञ में आने की तथा उनकी सेवा कर पाने की चिंता व्यक्त करती है। प्रकृति के कई सुंदर दृष्य कुछ सूक्तों में सामने आते हैं। इससे एक ओर यह लगता है कि यह लोक चेतना का स्त्री मन है। [24]दूसरी ओर यह भी आभास होता है कि तत्कालीन स्त्री की दुनिया घर की चार दीवारों के बीच सीमित थी और परिवार के पालन, मेहमानों के आदर सत्कार की जिम्मेदारी का भार उसी पर था, जो आज तक चला रहा है। द्रष्टा के रूप में स्वतंत्र पहचान और विद्वत्ता  होने के बावजूद ऋषिकाओं के नाम जैसे इंद्रस्नुषा, अगस्त्य स्वसा, अगस्त्य शिष्या आदि पुरुषों के नाम से जुड़े हुए हैं। यह पुरुषप्रधान समाज के ऐसे लक्षण हैं जो आज भी कायम हैं। इन ऋषिकाओं के मंत्रों मेंविवाहभी एक समस्या है खासकर एक घोषा और अपाला जैसी स्त्रियों के लिए जिनमें कोई शारीरिक व्यंग्य है। अपाला और घोषा कुष्ठ रोगी थीं इसलिए घोषा का विवाह नहीं हुआ और अपाला को अपने पिता के घर रहना पड़ा। रोमशा के शरीर पर रोम होने के कारण उसके पति ने उसे त्याग दिया लेकिन रोमशा ने शास्त्रों का अध्ययन कर अपनी विद्वत्ता को इतना विकसित किया कि उसके नाम का अर्थ ही बदल गया-‘वेद और शास्त्रों की कई शाखाएँ ही उसके रोम हैं। साथ ही ऋग्वेद में मुद्गलपत्नि जैसी स्त्री भी है जिसकी वीरता रोचक लगती है जिसने सिर्फ एक बैलगाडी से चोरों का पीछा किया और अपनी चोरी की गई गायें वापिस लीं। रोमशा, मुद्गलपत्नि के ये व्यक्तित्व काफ़ी प्रभावशाली हैं।[25] ये भारतीय स्त्री लेखन के महत्वपूर्ण स्वर हैं लेकिन उस समय के संपूर्ण भारतीय स्त्री-समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं।

निष्कर्ष : वैदिक साहित्य भारतीय साहित्य की प्रथम लिखित सामग्रियों में से एक है। यह ग्रंथ मिथकों रूपकों, पहेलियों का आधार लेकर पर दुनिया को देखने, समझने की चेष्टा है। वैदिक साहित्य स्त्री-स्वर के लिखित रूप का प्रथम दस्तावेज़ सिद्ध हुआ है। इसमें ऋषिकाओं की उक्तियाँ देवी-देवताओं की स्तुति के साथ ही उनकी सामाजिक स्थिति की ओर संकेत करती है। कहा जा सकता है कि इन ऋषिकाओं की अभिव्यक्ति के लिए अवकाश प्राप्त होने का एक कारण उनकी अदम्य विद्वत्ता के साथ सामाजिक अधिक्रम की उच्च श्रेणी में उनकी उपस्थिति है। इसलिए वे सामान्य स्त्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं कर पातीं। लेकिन इस अवकाश में उन्होंने मंत्र द्रष्टा होने के कार्य को निभाने के साथ ही बड़े चातुर्य के साथ अपनी अस्मिता तथा स्वाभिमान को भी साकार किया है। इसके माध्यम से उनकी विद्वत्ता, उनके सरोकार और साथ ही तत्कालीन समाज में मौजूद स्त्री की विद्वत्ता से असुरक्षित होने, शारीरिक सौंदर्य के पैमाने तय करने, आदि जैसी पुरूषसत्तात्मक मानसिकता के आग्रहों के भी दर्शन होते हैं। इसलिए वैदिक काल को स्त्री के लिए स्वर्णिम काल घोषित कर गौरवान्वित होने के क्रम में इस तथ्य पर भी विचार करना ज़रूरी है जिससे, स्त्री प्रश्नों के वैश्विक संघर्ष को सही संदर्भों में समझा जा सके और मनुष्य समझे जाने की उसकी लड़ाई सफ़ल हो सके।

संदर्भ :

  1. पुष्पा गुप्ता : संस्कृत साहित्य का विशद् इतिहास, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1994, पृ.3
  2. Wendy Doniger : The RigVeda:an Anthology:One Hundred and Eight Hymns, Selected, Translated and Annotated, Harmondsworth, Middlesex, England, New York, Penguin Books,1981.
  3. बलदेव उपाध्याय : संस्कृतसाहित्य का इतिहास, शारदा मंदिर बनारस, पाँचवाँ संस्करण, 1958, पृ.18
  4. राजकिशोर सिंह : वैदिक साहित्य का इतिहास, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, 1968, पृ.37
  5. रामशरण शर्मा : प्राचीन भारत का परिचय, ओरियंट ब्लैकस्वान, प्रायवेट लिमिटेड, हैदराबाद, 2017, पृ.109
  6. Irfan,Habib, A People’s History of India 2, The Indus Civilization including other Copper Age Cultures and History of Language Change till c 1500 BC, Tulika Books, New Delhi,2002, pg.73
  7. देवर्षी कलानाथ शास्त्री : संस्कृत साहित्य का इतिहास, साहित्यागार, जयपुर, 2009, पृ.24
  8. Romila, Thapar, The Penguin History of Early India, from the origins to AD 1300, Penguin Group, 2002,Pg.13
  9. Upendra,Singh, A History of Ancient and Early Medieval India from the stone age to the 12th Century, Pearson Longman, Delhi, 2008, Pg.184
  10. Burjor,Avari, India: The Ancient Past A History of the Indian Subcontinent from c 7000 BCE to CE 1200,Second edition, Routledge, Oxon, 2016, Pg.70
  11. राजकिशोर सिंह :  वैदिक साहित्य का इतिहास, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, 1968, पृ.38
  12. पुष्पा गुप्ता : संस्कृत साहित्य का विशद् इतिहास, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1994
  13. https://www.youtube.com/c/ChinmayaUniversity/videos
  14. सुमन राजे : हिंदी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, छठा संस्करण, 2017, पृ.84
  15. वही, पृ.68-69
  16. वही, पृ.67-68
  17. देवर्षी कलानाथ शास्त्री : संस्कृत साहित्य का इतिहास, साहित्यागार, जयपुर, 2009, पृ.24
  18. Bhaswati,Pal,The saga of women’s status in ancient Indian civilization, Miscellanea Geographica-Regional Studies On Development, Vol.23, 2019, pg.181
  19. वही
  20. वही
  21. Janet, Chawla, Mythical Origins of Menstrual Taboo in Rig Veda,Economic and Political Weekly,1994, pp.2818
  22. Burjor,Avari, India: The Ancient Past A History of the Indian Subcontinent from c 7000 BCE to CE 1200,Second edition, Routledge, Oxon, 2016, Pg.83-87
  23. Upendra,Singh, A History of Ancient and Early Medieval India from the stone age to the 12th Century, Pearson Longman, Delhi, 2008, Pg.193-195
  24. सुमनराजे : हिंदी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, छठा संस्करण, 2017, पृ.85
  25. वही, पृ. 84-85


ममता दीपक वेर्लेकर
शोधार्थी / सहायक प्राध्यापक
शणै गोंयबाब भाषा एवं साहित्य महाशाला, हिंदी अध्ययन शाखा, गोवा विश्वविद्यालय, तालिगांव पठार, गोवा, 403206
mamata@unigoa.ac.in, 7499129281

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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