शोध आलेख : हिन्दी का आरम्भिक यात्रा-वृत्तान्त और भारतेन्दु हरिश्चंद्र: एक विवेचन / बृजेश कुमार यादव

हिन्दी का आरम्भिक यात्रा-वृत्तान्त और भारतेन्दु हरिश्चंद्र: एक विवेचन 
- बृजेश कुमार यादव  

शोध सार : हिन्दी साहित्य में आधुनिक युग की शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चंद्र से मानी जाती है। उनका सृजनात्मक व्यक्तित्त्व बहुआयामी था। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने साहित्य की विभिन्न नयी-पुरानी विधाओं में विपुल साहित्य-सृजन किया। साहित्य चर्चा में अक्सर उनके कुछ नाटकों और निबंधों की बात होती है लेकिन उनका यात्री व्यक्तित्त्व छूट जाता है! वह एक घुमक्कड़ मिजाज़ के व्यक्ति थे। उनके यात्रा-वृत्तान्त इस बात के परिचायक हैं। उनकी हार्दिक इच्छाओं में ‘दुनिया घूमना’ भी था। यहाँ हम उनके द्वारा की गयी यात्राओं तथा इन यात्राओं पर आधारित उनके वृत्तान्त के अध्ययन का प्रयास करेंगे और उनके सामाजिक तथा साहित्यिक महत्त्व को भी रेखांकित करने का प्रयास करेंगे। 

बीज शब्द : आधुनिक युग, भारतेन्दु, साहित्य, नाटक, निबंध, यात्रा, यात्रा-वृत्तान्त, समाज, संस्कृति, औपनिवेशिकता, 1857 की क्रांति..इत्यादि।   

मूल आलेख : हिन्दी साहित्य में आधुनिक युग की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र से मानी जाती है, इसलिए इसे भारतेंदु युग भी कहा जाता है। भारतेंदु युग को संक्रमण युग के रूप में भी जाना जाता है। यही वह समय है जब साहित्य, समाज, भाषा, संस्कृति और राजनीति एक बड़े परिवर्तन से गुजर रही थी। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो एक तरफ़ जहाँ लम्बे समय से चली आ रही मुग़ल व्यवस्था का अवसान हुआ, क्षेत्रीय रियासतों पर ‘ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी’ और बाद में ब्रिटिश सरकार का आधिपत्य होता चला गया –  1857 का विद्रोह विफल होने के बाद। अब भारत ब्रिटेन का पूरी तरह से उपनिवेश बन चुका था। आर्थिक दृष्टि से देखा जाय तो अंग्रेज कच्चा माल देश से ले जाते थे और बना हुआ सामान यहाँ लाकर बेचते थे, जिससे वे बहुत मुनाफ़ा कमाते थे।  

         भारतीय समाज पर औपनिवेशिक व्यवस्था का प्रभाव अब परिलक्षित होने लगा था। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में औपनिवेशिक संस्कृति मुखरित होने लगी थी। साहित्य की  भाषा एवं उसमें सृजित परम्परागत विधाओं का अवसान होने लगा था। पद्य की जगह गद्य ले रहा था। बदलते जन-जीवन को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत कर पाने में नयी गद्य विधाओं को सफलता मिली। हिन्दी साहित्य की अनेक गद्य विधाओं का विकास आधुनिक युग में हुआ; कहानी, निबंध, उपन्यास, नाटक, यात्रा-साहित्य, रिपोर्ताज़, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा इत्यादि विधाओं ने इसी समय अस्तित्त्व में आईं। हिन्दी यात्रा-साहित्य आधुनिक युग में विकसित एक ऐसी ही महत्त्वपूर्ण विधा है। यात्रा-साहित्य को यात्रा-वृत्तान्त, यात्रा-संस्मरण, ‘यात्रा-आख्यान’ आदि कई नामों से भी जाना जाता है। हिन्दी में इसका प्रणयन भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया। यही कारण है कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र को इसका प्रणेता माना जाता है। 

        भारतेन्दु हरिश्चंद्र बहुमुखी प्रतिभा के धनि थे। साहित्य की कई विधाओं में उनकी गति समान रूप से थी। वह एक कुशल कवि, निबंधकार, नाटककार, ग़ज़लकार, आलोचक, विचारक एवं यात्रा-वृत्तांत लेखक थे। इन सब के अलावा वह एक निपुण पत्रकार की भूमिका में भी थे। उन्होंने ‘कविवचन सुधा’, ‘बाला बोधिनी’ और ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ जैसी हिन्दी भाषा की कई महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन और संपादन किया। 

         भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अपने समय के मुताबिक साहित्य और समाज के उन सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला, जो तत्कालीन साहित्य और समाज में बहस तलब थे। भारतेन्दु ने अपनी पत्रिका ‘कविवचन सुधा’ में कुछ यात्रा-वृत्तान्तों को प्रकाशित किया था, जिसके लेखक वह स्वयं थे। वह ‘कविवचन सुधा’ में ‘यात्री’ नाम से लिखते थे। उनका एक साहित्यिक उपनाम ‘यात्री’ भी है। 

        भारतेन्दु के यात्रा-वृत्तान्त ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टि से फाहियान या अलबरूनी अथवा बतूता के जितने महत्त्व के तो नहीं जान पड़ते लेकिन तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तन को रेखांकित अवश्य रेखांकित करते हैं। तत्कालीन यातायात व्यवस्था, उसमें भारतीय यात्रियों को होने वाली कठिनाई, गोरों द्वारा किये जाने वाले भेदभाव की झलक मिलती है! तत्कालीन युग में विकसित हो रही औद्योगिक तकनीक, उसके सामाजिक प्रभाव का बख़ूबी वर्णन देखने को मिलता है। उनके यात्रा-वृत्तान्त पत्रिका के संपादक को संबोधित पत्रात्मक शैली में लिखे गए हैं। भारतेन्दुयुगीन हिन्दी-गद्य और भाषा को समझने की दृष्टि से भारतेंदु हरिश्चंद्र के यात्रा-वृत्तान्त महत्त्वपूर्ण हैं। इस लेख में इन्हीं पहलुओं पर केन्द्रित किया गया है। 

        कहते हैं यात्री अपने समय का इतिहासकार होता है। इतिहास का अर्थ सिर्फ़ तिथिवार घटनाओं का वर्णन करना नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक बदलाओं और उसकी पृष्ठभूमि को रेखांकित करना भी होता है। यात्रियों के यात्रा-साहित्य पर नज़र डालें तो ये कहा जा सकता है कि उन्होंने तत्कालीन सामाजिक परिप्रेक्ष्य को अपने यात्रा-साहित्य में ठीक से रखा है। फाहियान, ह्वेनसांग, अलबरूनी या इब्नबतूता अथवा मार्कोपोलो या फ्रांसुआ बर्नियर, सभी ने अपने समय के ऐतिहासिक बदलाओं को दर्ज किया है। सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन को रेखांकित किया है। इसीलिए ‘घुमक्कड़ों’ को राहुल सांकृत्यायन ने ‘दुनिया की महान विभूति’ कहा है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी के न सिर्फ़ महत्त्वपूर्ण लेखक हैं बल्कि एक महत्त्वपूर्ण पत्रकार और यात्री तथा यात्रा-वृत्तान्तकार भी हैं। उन्होंने अपने यात्रा-साहित्य में यात्रा-स्थलों के विवरण के साथ-साथ यात्रा-स्थलों पर हो रहे बदलाव, समाज में घटित हो रहे आधुनिक परिवर्तन, चाहे वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या फिर तकनीक से जुड़े हों, वे सभी पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं। भारतेंदु ने 1870-71 के आसपास हरिद्वार की यात्रा की थी और अपने यात्रा अनुभवों को उन्होंने ‘कविवचन सुधा’ के 30 अप्रैल, सन् 1871 ई. के अंक में प्रकाशित भी किया था। वे हरिद्वार रुड़की के रास्ते से होकर पहुंचे थे, जिसको (रुड़की को) अंग्रेजों ने बसाया था। यहाँ अंग्रेजों ने बहुत से तकनीकी प्रयोग भी किये थे। रुड़की में तकनीकी विकास और उसकी कार्यप्रणाली को देखकर भारतेन्दु आश्चर्यचकित रह जाते हैं। अपने यात्रा-वृत्तान्त में वे लिखते हैं, “रुड़की शहर अंगरेजों का बसाया हुआ है। इसमें दो-तीन वस्तु देखने योग्य है एक तो (कारीगरी) शिल्प विद्या का बड़ा कारखाना है जिस जल चक्की, पवन चक्की, और भी कई बड़े बड़े चक्र अनवर्त खचक्र में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, मंगल आदि ग्रहों की भांति फिरा करते हैं और बड़ी-बड़ी धरन ऐसी सहज में चिर जाती हैं कि देखकर आश्चर्य होता है। बड़े बड़े लोहे के खम्भे एक क्षण में ढल जाते हैं और सैकड़ों मन आटा घड़ी भर में पिस जाता है। जो बात है आश्चर्य की है।”1 इतना ही नहीं बल्कि तत्कालीन तकनीकी विकास के माध्यम से गंगा पर बनाये गए पुल, उससे निकाली गयी नहरों को देखकर वे एकदम हतप्रभ रह जाते हैं। वे आगे लिखते हैं, “यहाँ सबसे आश्चर्य श्री गंगाजी की नहर है, पुल के ऊपर से तो नहर बहती है और नीचे से नदी बहती है। यह एक बड़े आश्चर्य का स्थान है। इस के देखने से शिल्प विद्या का बल और अंगरेजों का चातुर्य और द्रव्य का व्यय प्रगट होता है। न जानैं वह पुल कितना दृढ़ बना है कि उस पर से अनवर्त कई लाख मन वरन करोड़ मन जल बहा करता है और वह तनिक नहीं हिलता। स्थल में जल कर रक्खा है और स्थानों में पुल के नीचे से नाव चलती है यहाँ पुल के ऊपर से नाव चलती है और उसके दोनों ओर गाड़ी जाने का मार्ग है और उस के परले सिरे पर चूने के सिंह बहुत ही बड़े बड़े बने हैं।”2 नदी को ऊपर से नीचे उतारने के लिए जिस तरह की तकनीक का उपयोग हुआ है वह आश्चर्य में डालने वाला है। कुछ-कुछ दूरी पर बाँधों का बनाया जाना, सीढ़ीनुमा आकार में वह धीरे-धीरे नदी को नीचे उतारते हैं। बीच में नहर बनाकर उसका पानी दूसरी तरफ़ ले जाते हैं। इस पूरी स्थिति का वर्णन भारतेन्दु ने कुछ इस प्रकार किया है, “विदित हो कि श्री गंगाजी की नहर हरिद्वार से आई है। और इसके लाने में यह चातुर्य्य किया है कि इसके जल का वेग रोकने के हेतु इस को सीढ़ी की भांति लाये हैं। कोस-कोस डेढ़ कोस पर बड़े-बड़े पुल बनाये हैं वही मानो सीढियाँ हैं और प्रत्येक पुल के ताखों से जल को नीचे उतारा है। जहाँ-जहाँ जल को नीचे उतारा है वहां वहां बड़े बड़े सीकड़ों में कसे हुए दृढ़ तखते पुल के ताखों के मुँह पर लगा दिए हैं। और उनके खींचने के हेतु ऊपर चक्कर रखें हैं। उन तख्तों से ठोकर खाकर पानी नीचे गिरता है वह शोभा देखने योग्य है। एक तो उसका महान शब्द दूसरे उसमें से फुहारे की भांति जल का उबलना और छींटों का उड़ना मन को बहुत लुभाता है और जब कभी जल विशेष लेना होता है तो तखतों को उठा लेते हैं फिर तो इस वेग से जल गिरता है जिस का वर्णन नहीं हो सकता और ये मल्लाह दुष्ट वहां भी आश्चर्य करते हैं कि जल पर से नाव को उतारते हैं या चढ़ाते हैं। जो नाव उतरती है तो यह ज्ञात होता है कि नाव पाताल को गयी पर वे बड़ी सावधानी से उसे बचा लेते हैं और क्षण मात्र में बहुत दूर निकल जाती है पर चढ़ाने में बड़ा परिश्रम होता है। यह नाव का उतरना चढ़ना भी एक कौतुक ही समझना चाहिए।”3

        भारतेन्दु अपनी ‘हरिद्वार’ यात्रा के दूसरे खंड में हरिद्वार की भौगोलिक, प्राकृतिक संरचना के साथ-ही-साथ उसके आस पास के तीर्थ स्थानों की ऐतिहासिकता और धार्मिक महत्ता को रेखांकित करते हैं। उनकी दृष्टि से हरिद्वार हिन्दू मान्यताओं के अनुसार एक पुण्य तीर्थ-स्थल है, जिसके दर्शन-मात्र से जीवन धन्य हो जाता है। ये सब विवरण वह बहुत आनंद मन से लिखते हैं। वे आगे लिखते हैं “मुझे हरिद्वार का शेष समाचार लिखने में बड़ा आनंद होता है कि मैं उस पुण्य भूमि का वर्णन करता हूँ जहाँ प्रवेश करने ही से मन शुद्ध हो जाता है। यह भूमि तीन ओर सुन्दर हरे पर्वतों से घिरी है जिन पर्वतों पर अनेक प्रकार की वल्ली हरी भरी सज्जनों के शुभ मनोरथों की भांति फैलकर लहलहा रही है और बड़े बड़े वृक्ष भी ऐसे खड़े हैं मनो एक पैर से खड़े तपस्या करते हैं और साधुओं की भांति घाम, ओस और वर्षा अपने ऊपर सहते हैं।”4 भारतेंदु का यह वर्णन कालिदास के कुमार संभव में वर्णित देवदार के घने जंगल के रमणीय वर्णन की याद दिलाता है! 

        भारतेंदु ने गंगाजी का भी वर्णन अपने यात्रा-वृत्तान्त में किया है। वह बताते हैं कि उसका पानी बहुत शीतल और निर्मल है। गंगा नदी तब साफ़-सुथरी थी। गंगा का पानी तब तक आज की तरह प्रदूषित नहीं हुआ था। अब तो गंगा में गंदगी हरिद्वार से ही दिखने लगती है। तब गंगा नदी का पानी न सिर्फ पीने योग्य था बल्कि साफ़ और मीठा भी था, “जल यहाँ का अत्यंत शीतल है और मिष्ट भी वैसा ही है मनो चीनी के पने को बरफ में जमाया है, रंग जल का स्वच्छ और श्वेत है और अनेक प्रकार के जल जन्तु कल्लोल करते हुए।”5 

        आगे अपने यात्रा-वृत्तान्त में भारतेन्दु हरिद्वार की बसावट का वर्णन करते हैं। तब का हरिद्वार आज के हरिद्वार से बिलकुल भिन्न था। आज हरिद्वार बहुत बदल गया है। आबादी और रहवास इतना अधिक हो गया है कि उसका सीधा प्रभाव नदी पर दिखाई देता है। पहले हरिद्वार की ‘हरि की पैरी’ में सिर्फ़ एक देवी की पूजा होती थी, वह थी गंगा नदी! हालाँकि, तब भी वहाँ कुछ अन्य देवी-देवताओं के मंदिरों का निर्माण हो गया था लेकिन पूजा-अर्चना-आराधना केवल गंगा की ही होती थी। भारतेन्दु अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखते हैं, “यहाँ हरि की पैरी नामक एक पक्का घाट है और यही स्नान भी होता है। विशेष आश्चर्य का विषय ये है कि यहाँ केवल गंगाजी ही देवता हैं दूसरा देवता नहीं यों तो वैरागियों ने मठ मंदिर कई बना लिए हैं।”6 आज वहां इतने पूजा स्थल और बड़े-बड़े देवी-देवताओं के मन्दिर बन गये हैं। बड़ी संख्या में लोग निवास करते हैं। गन्दगी का आलम तो इधर से ही शुरू होता है जो धीरे-धीरे आगे बढ़ता जाता है। 

        भारतेन्दु के यात्रा-वृत्तान्त से पता चलता है कि तत्कालीन हरिद्वार और ‘हरि की पैरी’ में कुछ दुकानें खुल चुकी थीं और यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाओं की भी व्यवस्था थी लेकिन आज की तरह वहां होटलों की भरमार नहीं थी। लोग रात में वहां रुकते भी नहीं थे। इस सम्बन्ध में वे आगे अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखते हैं, “श्री गंगाजी का पाट भी बहुत छोटा है पर वेग बड़ा है, तट पर राजाओं की धर्मशाला यात्रियों के उतरने हेतु बनी हैं और दूकाने भी बनी हैं पर रात को बन्द रहती हैं। यह ऐसा निर्मल तीर्थ है कि काम, क्रोध की खानि जो मनुष्य हैं सो वहां रहते ही नहीं। पंडे, दूकानदार इत्यादि कनखल वा ज्वालापुर से आते हैं।”7 

        सामान्यतया देखा जाता है कि तीर्थ स्थलों पर पंडों की बरजोरी चलती है लेकिन हरिद्वार के पंडे भारतेंदु को अपवाद स्वरुप दीखते हैं। वह तीर्थ यात्रियों से दान-दक्षिणा, जो भी मिल जाता है उससे संतोष करते हैं, अधिक की माँग नहीं करते और न ही यजमानों को दिक् करते हैं। वे बनारस और गया के पंडों से बिलकुल अलग स्वभाव के हैं। ये देखकर भारतेन्दु को आश्चर्य हुआ, “पंडे भी यहाँ बड़े विलक्षण संतोषी हैं। ब्राह्मण होकर लोभ नहीं यह बात इन्हीं में देखने में आई। एक पैसे को लाख़ करके मान लेते हैं। ...हरिद्वार में यह बखेड़ा कुछ नहीं है और शुद्ध निर्मल साधुओं के सेवन योग्य तीर्थ है। मेरा तो चित्त वहाँ जाते ही ऐसा प्रसन्न और निर्मल हुआ कि वर्णन के बाहर है।”8 

         अपने हरिद्वार प्रवास में एक दिन भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने गंगा किनारे पत्थर के चूल्हे पर भोजन बना कर खाया था और जिसका स्वाद तथा आनंद किसी राजसी भोज से अधिक लगा। उस सुख का जो वर्णन उन्होंने किया वह उन्हीं के शब्दों में देखें, “एक दिन मैंने श्री गंगाजी के तट पर रसोई करके पत्थर ही पर जल के अत्यंत निकट परोसकर भोजन किया। जल के छलके पास ही ठंढे ठंढे आते थे। उस समय के पत्थर पर का भोजन का सुख सोने की थाल के भोजन से कहीं बढ़ के था।”9 

        भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने हरिद्वार के अलावा लखनऊ, जबलपुर, अयोध्या आदि की भी यात्राएँ की थी और उससे जुड़े अपने अनुभवों को अपने यात्रा-वृत्तान्त में दर्ज़ किया है। लखनऊ की यात्रा बड़ी रोचक है। ये यात्रा न सिर्फ़ हमें तत्कालीन लखनऊ की भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था से हमारा परिचय कराती है, बल्कि ये भी ज्ञात होता है कि भ्रष्टाचार कोई वर्तमान व्यवस्था की बीमारी नहीं, वह कई वर्षों से चलता चला आ रहा है। 

        भारतेन्दु की लखनऊ यात्रा से ही पता चलता है कि तत्कालीन कानपुर का रेलवे स्टेशन उतना अच्छा नहीं है, जितना की लखनऊ का! भारतेंदु की यात्रा से ये जान पड़ता है कि लखनऊ तत्कालीन व्यापारिक केंद्र था, जहाँ सामान बेचने वालों को कर (टैक्स) देना पड़ता था। भारतेन्दु रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर जैसे ही शहर की तरफ आगे बढ़ते हैं कि चुंगी वाले उनको रोक लेते हैं और महसूल की माँग रखते हैं। वे आगे अपनी यात्रा का वृत्तान्त लिखते हैं, “लखनऊ के पास पहुँचते ही मस्जिदों के ऊंचे-ऊंचे कंगूर दूर ही से दिखते हैं, परन्तु नगर में प्रवेश करते ही एक बड़ी बिपत आ पड़ती है। वह यह कि चुंगी के राक्षसों का मुख देना होता है। हम लोग ज्यों ही नगर में प्रवेश करने लगे जमदूतों ने रोका। सब गठरियों को खोल खोल के देखा जब कोई वस्तु न निकसी तब अंगूठियों पर (जो हम लोगों के पास थीं) आ झुके बोले इसका महसूल दे जाओ। हम लोग उतर के चौकी पर गए। वहां एक ठिगना सा काला रूखा मनुष्य बैठा था। नटखटपन उसके मुखड़े से बरसता था। मैंने पूछा क्यौं साहब बिना बिकरी की वस्तुओं पर भी महसूल लगता है। बोले हाँ, कागज़ देख लीजिये छपा हुआ है। मैंने कागज़ देखा उसमें भी यही छपा था। मुझे पढ़ के यहाँ की गवर्नमेंट के इस अन्याय पर बड़ा दुःख हुआ।”10 ध्यान देने वाली बात यहाँ ये है कि भारतेन्दु ने चुंगी वालों के लिए ‘जमदूत’ जैसे कठोर शब्द का प्रयोग किया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चुंगी वालों का तत्कालीन समाज में आम नागरिकों पर कितना खौफ़ रहा होगा। और ये पुलिसियाराज धीरे-धीरे और अधिक बढ़ता ही गया। इसी प्रसंग में आगे वह बताते हैं कि इन अधिकारीयों और कर्मचारियों के साथ महसूल को लेकर इनका विवाद हुआ। अंततः तीन रुपये नगद रिश्वत देकर इन्होंने अपनी जान छुड़ायी। 

        भारतेन्दु ने अपने यात्रा-वृत्तान्त में लखनऊ शहर के बारे में जो लिखा है वह तत्कालीन लखनऊ को जानने-समझने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। वह बताते हैं कि पुराना लखनऊ अब वैसा नहीं रहा, जिसके लिए वह जाना जाता था। जौहरी बाज़ार और मीनाबज़ार की रौनक जा चुकी है। इमामबाड़ों में डाकघर, अस्पताल और छापाखाना खुल गये हैं। तत्कालीन लखनऊ के बारे में जो उन्होंने लिखा है, उससे पता चल रहा है कि चीजें कितनी तेज़ी से बदल रही हैं, “नगर पुराना तो नष्ट हो गया है जो बचा है वह नयी सड़क से इतना नीचा है कि पाताल लोक का नमूना सा जान पड़ता है। मस्जिद बहुत सी हैं, गलियाँ संकरी और कीचड़ से भरी हुई बुरी गन्दी दुर्गंधमय। सड़क के घर सुथरे बने हुए हैं। नयी सड़क बहुत चौड़ी और अच्छी है। जहाँ पहिले जौहरी बाज़ार और मीना बाज़ार था वहां गदहे चरते हैं और सब इमामबाड़ों में किसी में डाकघर कहीं अस्पताल कहीं छापाखाना हो रहा है। रूमी दरवाज़ा नवाब आसिफुद्दौला की मस्जिद और सब मच्छीभवन का सरकारी किला बना है। बेद्मुश्क के हौजों में गोरे मूतते हैं।”11 भारतेन्दु के इस वर्णन से ज्ञात होता है कि राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के साथ ही अंग्रेजों ने अपने अनुसार इमारतों का उपयोग शुरू कर दिया था। ऐसी इमारतें, जगहें जो रियासतों और भारतीय जन-मानस के मान-सम्मान की प्रतीक थीं, उसे अपमानित करने, बदलने में अंग्रेजों ने देरी नहीं की। ऐसा करके वह भारतीयों का मनोबल तोड़ना चाहते थे। भारतेन्दु बताते हैं कि जिन बाज़ारों – जौहरीबाज़ार और मीनाबज़ार – से लखनऊ लखनऊ था, शहर में रौनक थी, अब ‘वहां गदहे चरते हैं’। वैसे ही उन्होंने बेदमुश्क हौजों के बारे में लिखा कि अब ‘बेदमुश्क के हौजों में गोरे मूतते हैं।’
    
        भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने यात्रा-वृत्तान्त में लखनऊ के हिन्दुओं के बारे में जो टिप्पणी की है उससे ये जान पड़ता है कि हिन्दू समाज अपने समय से बहुत पीछे चल रहा था। वह बताते हैं कि उनमें अधिकतर विचार की दृष्टि से दकियानूस थे। उन्होंने नयी बातों और परिवर्तनों को अभी स्वीकार नहीं किया है। वह लिखते हैं, “यहां के हिन्दू रईस धनिक लोग असभ्य हैं और पुरानी बातें उन के सिर में भरी हैं। मुझ से जो मिला उस ने मेरी आमदनी गांव रुपया पहिले पूछा और नाम पीछे। वरन् बहुत से आदमी संग में न लाने की निन्दा सब ने किया पर जो लोग शिक्षित हैं वे सभ्य है, परन्तु रंडियां प्रायः सब के पास नौकर हैं।”12 

         लखनऊ के मुसलमानों के बारे में उनका ख़याल है, “मुसलमान सब बाह्य सभ्य हैं, बोलने में बड़े चतुर हैं। यदि कोई भीख मांगता है या फल बेंचता है तो वह भी एक अच्छी चाल से थोड़ी अवस्था के पुरुषों में भी स्त्रीपन झलकता है। बातें यहां की बड़ी लम्बी चौड़ी बाहर से स्वच्छ पर भीतर से मलीन।”13  

        भारतेंदु हरिश्चंद्र का ‘जब्बलपुर’ यात्रा-वृत्तान्त ‘कविवचन सुधा’ के जुलाई, 1872 ई. के अंक में प्रकाशित हुआ था। जबलपुर की यात्रा भारतेंदु ने बम्बई जाने के क्रम में की थी। जबलपुर शहर का वैसा वर्णन उनके वृत्तान्त में देखने को नहीं मिलता जैसा हरिद्वार, लखनऊ या फिर अयोध्या का वर्णन है। बम्बई जाने के रास्ते में जबलपुर एक पड़ाव भर है। उस थोड़े से समय में उन्होंने जबलपुर में जो देखा उसी का वर्णन किया है। जबलपुर शहर, जो भी थोड़ा वह घूम पाए, उसके आधार पर उसकी विशेषता को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं, “अभी तक जब्बलपुर मैंने भलीभांति देखा नहीं पर दो तीन बात यहाँ नयी देखने में आई। एक प्रत्येक चौराहे पर यहाँ लालटेन एक एक झाड़ टंगे हैं। जे सड़क उस स्थान पर मिलती हैं उतनी ही लालटेन एक कम्भे में लगी हैं। दूसरे यह कि सड़क बहुत परिष्कृत और प्रशस्त हैं।”14  

        ‘सरयू पार की यात्रा’ भारतेंदु हरिश्चंद्र का सबसे चर्चित यात्रा-वृत्तान्त है । यह फरवरी 1879 ई. में ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ में प्रकाशित हुआ था। यह यात्रा बनारस से अयोध्या तक ‘रामनवमी’ के अवसर पर की गयी थी। इस वृत्तान्त में बनारस से अयोध्या के बीच में पड़ने वाले महत्त्वपूर्ण पड़ाव, जैसे कैम्प हरैया बाज़ार, बस्ती, मेंहदावल के वृत्तान्त भी पढ़ने को मिलते हैं। भारतेन्दु की अयोध्या यात्रा सुखद न थी। न सिर्फ़ रेल यात्रा में कष्ट मिला बल्कि जहाँ – जहाँ ठहरे, वहाँ खाने-पीने का भी बहुत अभाव था। संतोष इस बात का है कि जैसे-तैसे अयोध्या पहुँच गये और श्रीरामनवमी की रात अयोध्या में बीती। अयोध्या के मेले के बारे में वह लिखते हैं, “भीड़ बहुत ही है, मेला दरिद्र और मैले लोगों का। यहाँ के लोग बड़े ही कंगालटिरें हैं।”15
    
         भारतेंदु की यात्रा तो कष्टप्रद थी ही, खाद्य-सामग्री भी अच्छी नहीं मिली थी। कैम्प हरैया बाज़ार के मिठाई की तारीफ़ व्यंग्यात्मक लहजे में करते हुए लिखते हैं, “बालूसाही बिलकुल बालू साही, भीतर काठ के टुकड़े भरे हुए। लड्डू ‘भूरके’। बरफ़ी अहा हा हा! गुड़ से भी बुरी। खैर, लाचार होकर चने पर गुज़र की।”16  
बस्ती देखकर उनको आश्चर्य हुआ और चुटकी लेते हुए वह लिखते हैं, “वाह रे बस्ती, झख मारने को बस्ती है अगर बस्ती इसी को कहते हैं तो उजाड़ किस को कहेंगे।”17

        भारतेंदु बस्ती मेले में घूमते हुए अवध के लोगों से मिलते हैं। अवध प्रान्त के लोगों के बारे में उन्होंने लिखा है, “रामलीला के मेले में अवध प्रान्त के लोगों का स्वभाव रेल अयोध्या और इधर राह में मिलने से खूब मालूम हुआ। बैसवारे के पुरुष अभिमानी रूखे और रसिकमन्य होते हैं, रसिकमन्य ही नहीं वीरमन्य भी। पुरुष सब पुरुष और सभी भीम, सभी अर्जुन, सभी सूत पौराणिक और सभी वाजिदअली शाह। मोटी मोटी बातों को बड़े आग्रह से कहते सुनते हैं। नयी सभ्यता अब तक इधर नहीं आई है।”18 भारतेंदु की इस व्यंग्यात्मक टिप्पणी से जान पड़ता है कि अवध प्रान्त में लोग अतीतोन्मुखी तथा आधुनिक शिक्षा और रहन-सहन की पहुँच नहीं हो पाई थी । 
 
        बस्ती से होते हुए मेंहदावल पहुँचे। मेंहदावल के बारे में भारतेंदु की टिप्पणी बहुत कटु है। उनको मेंहदावल और वहां के लोग पसन्द नहीं आये। वे अपना अनुभव कुछ इस प्रकार बयान करते हैं, “गाँव गन्दा बड़ा है और लोग परले सिर के बेवकूफ़। यहाँ से चार मील पर एक मोती झील वा बखरा ताल नामक झील है। दर हकीकत देखने के लायक है। कई कोस लम्बी झील है और जानवर तरह तरह के देखने में आते हैं पहाड़ से चिड़ियाँ हजारों ही तरह की आती हैं और मछली भी इफरात। पेड़ो पर बन्दर भी। मेंहदावल में कोई चीज़ भी देखने लायक नहीं। जहाँ देखो वहां गंदगी। लोग बज्र मूर्ख, क्षत्री ब्राम्हण जियादा। एक यहाँ प्राणनाथ का मज़हब है और दस बीस लोग उस के मानने वाले हैं।”19

        मेंहदावल में चैत सुदी के दिन मेला लगता है। स्त्रियां यहाँ भर रात जागरण करती हैं और माता का गीत गाती हैं। पुरुषों को ‘उल्टा-सीधा’ भी बोलती रहती हैं। भारतेंदु ने बताया है कि यहाँ ‘व्यभिचार भी बेतकल्लुफ’ होता है। भारतेन्दु को मेंहदावल के ब्राह्मण विचित्र जान पड़ते हैं! मांस-मछली का भक्षण तो करते हैं लेकिन छुआछूत भी बरतते हैं! ब्राह्मणों द्वारा किये जा रहे इस दोहरे व्यवहार का वर्णन उन्होंने कुछ इस प्रकार किया है, “सरयू पार के ब्राह्मण बड़े विचित्र हैं। मांस-मछली सब खाते हैं। कुएँ के जगत पर एक आदमी जो पानी भरता हो दूसरा आदमी चला आवे तो अपना घड़ा फोड़ डालें और उस से घड़े का दाम ले। घड़ा कोई कहै तो घड़ा छू जाय क्योंकि घड़ा मुसलमानी लफ्ज़ है, दाल कहैं तो छू जाय क्योंकि दाल मुसलमानी है।”20

        भारतेंदु अपने यात्रा-वृत्तान्त में ‘व्यंग्य–विनोद’ का कोई अवसर नहीं चूकते। उनके पूरे साहित्य में व्यंग्यात्मक शैली परिलक्षित होती है । यह व्यंग्य उनके साहित्य का प्राण तत्त्व है । चाहे उनके नाटक हों या निबंध या फिर यात्रा-वृत्तान्त, यथावसर वह व्यंग्य करने से नहीं चूकते । कुछ ऐसे ही व्यंग्य-विनोद हमें उनके यात्रा-वृत्तान्त में भी देखने को मिलता है । ऐसा ही एक प्रसंग हमें मेंहदावल यात्रा वर्णन में देखने को मिलता है। वह मेंहदावल के ‘क्षत्रियों’ पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं, “सूरज वंशी छत्री राजा बाबू को छाता नहीं लगाता। क्योंकि वे तो सूरज वंशी हैं, सूरज से क्या छाता लगावैं। नेम बड़ा धर्म बिलकुल नहीं। एक ब्राह्मण ने कोहार से नयी सनकही मोल लेकर उसमें पूरी बनाकर खाया, इससे वह जात से निकाल दिया गया क्योंक जैसे बर्तन में मुसलमान खाना बनावैं उस आकार के बर्तन में इस ने हिन्दू होकर खाना बनाया। हा हा हा! और मज़ा यह कि ताजिये को सब मनाते हैं।”21 यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि वह ये रेखांकित करना नहीं भूलते कि समाज में भेदभाव, छुआछूत सिर्फ़ जाति नहीं बल्कि धर्म के स्तर पर भी मौजूद है ।  
   
        बस्ती, मेंहदावल के रास्ते भारतेन्दु गोरखपुर पहुंचे थे। गोरखपुर पहुंचकर उन्होंने अपने यात्रानुभव को कविता (दोहों) में अभिव्यक्त किया है। इससे ज्ञात होता है कि उन्हें रास्ते में  कठिनाइयों और बेहिसाब गर्मी का सामना करना पड़ा था। वे लिखते हैं, “अहो बरनि नहिं जात है आज लैह्यों जो खेद। आतप उष्मा वायु सों चल्यो नखन स्वेद।’’22 यात्रा-वृत्तान्त के ‘फॉर्म’ की दृष्टि से ये एक प्रयोग के रूप में भी देखा जा सकता है ।  

        भारतेंदु ने ‘वैद्यनाथ की यात्रा’ काशी नरेश के साथ की थी, जिसका वृत्तान्त सन् 1880 ई. में ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका’ में छपा था। इस यात्रा-वृत्तान्त को पढ़कर लगता है वैद्यनाथ की यात्रा बहुत सुखद नहीं थी। गोरों द्वारा गैर-अंग्रेजों के प्रति किया जाने वाला भेदभाव भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने भी इस यात्रा में महसूस किया। मोटी रकम देने पर भी अच्छी सीट का न मिलना तथा खाली होते हुए भी दूसरे डिब्बे में न बैठने देना, वह रेलवे कम्पनी को न सिर्फ़ फटकार लगाते हैं बल्कि फूँक डालने तक की भी नसीहत दे देते हैं! वह लिखते हैं, “एक तो सेकेण्ड क्लास की एक ही गाड़ी, उसमें भी लेडीज कम्पार्टमेंट निकल गया, बाकी जो कुछ बचा उसमें बारह आदमी। गाड़ी भी ऐसी टूटी फूटी, जैसी हिन्दुओं की किस्मत। इस कम्बख्त गाड़ी से और तीसरे दर्ज़े की गाड़ी से कोई फर्क नहीं, सिर्फ एक एक धोके की टट्टी का शीशा खिड़कियों में लगा था। न चौड़े बेंच न गद्दा, न बाथरूम। जो लोग मामूली से तिगुना रुपया दें उन को ऐसी मनहूस गाड़ी पर बिठलाना, जिसमें कोई बात भी आराम की न हो, रेलवे कम्पनी की सिर्फ बेइंसाफी ही नहीं वरन धोखा देना है। क्यौं नहीं, ऐसी गाड़ियों को आग लगा कर जला देती या कलकत्ते में नीलाम कर देती। अगर मारे मोह के न छोड़ी जाय तो उस से तीसरे दर्ज़े का काम ले। नाहक अपने गाहकों को बेवकूफ़ बनाने से क्या हासिल।”23 ध्यान देने वाली बात है कि भारतेन्दु रेलवे कम्पनी द्वारा जनता को कैसे ठगा जा रहा है, इसकी शिनाख्त कर रहे थे तथा कम्पनियों द्वारा जनता से किये जा रहे झूठे वादे को भी समझ रहे थे । 

        इस यात्रा में भारतेन्दु को बहुत कष्ट हुआ था। रेल डिब्बे में कोई ठीकठाक जगह नहीं मिलने के कारण वह रातभर सो नहीं पाए थे। इस गाड़ी का लेडिज कम्पार्टमेंट खाली था। वह उसमें  जाकर सोना चाहते थे लेकिन गार्ड ने उन्हें डब्बे में घुसने न दिया। वहीं दानापुर स्टेशन पर जब कुछ अंग्रेज डब्बे में घुसे तो उन्हें लेडिज कम्पार्टमेंट में बैठने से उसने नहीं रोका। यह सब देखकर भारतेन्दु को बहुत दुःख हुआ। इस वाकया पर उनकी क्षोभ पूर्ण टिप्पणी देखने योग्य है, “सचमुच अब तो तपस्या कर के गोरी गोरी कोख में जन्म लें तब संसार में सुख मिलै।”24 भारतेन्दु को अग्रेजों द्वारा किये जाने वाले भेदभाव का एहसास होने लगा था । 

        वैद्यनाथ के बारे में बताते हैं कि ये एक गाँव ही है, जो सुख-सुविधाओं से भरापूरा है – “मजिस्ट्रेट, मुंसिफ़ वगैरह हाकिम और ज़रूरी सब ऑफिस हैं। नीचा और तर होने से देश बातुल गन्दा और ‘गन्धद्वारा’ है। लोग काले काले और हतोत्साह मूर्ख और ग़रीब हैं। यहाँ सौंथाल एक जंगली जाति होती है। ये लोग अब तक निरे बहसी हैं। खाने पीने की ज़रूरी चीजें यहाँ मिल जाती हैं।”25 

        भारतेन्दु जनकपुर की भी यात्रा पर भी गये थे। इस यात्रा का वृत्तान्त तो मिलता है लेकिन जनकपुर तक का नहीं, सिर्फ़ दरभंगा तक का। जनकपुर यात्रा का वृत्तान्त ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका के सन् 1880 ई. के अंक में प्रकाशित हुआ था। यात्रा-वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि यात्रा बहुत सुखद नहीं थी। अंग्रेजों के बीच वह अकेले हिन्दुस्तानी थे। उनकी स्थिति ‘जिमि दसनन महं जीभ बिचारी’! उनके यात्रा-वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि रेल में एक साथ भारतीय और अंग्रेज यात्रियों का सफ़र करना, एक दूसरे का आपस में तालमेल बैठाना कठिन काम है। इसलिए उनका मानना है कि “हर ट्रेन में एक गाड़ी फर्स्ट और सेकंड दोनों ही हिन्दुस्तानियों ही के वास्ते रहै। इस विषय में मैंने रेलवे कम्पनी की कॉन्फरेंस के सेक्रेटरी को लिखा तो है पर ‘तूती की आवाज’ अगर सुनी जाय। जैसी ही उनको पान सुरती की पचापच से नफ़रत है वैसी इधर चुरुट के धूम्र से। ऐसी ही अनेक प्रकृति विरुद्ध बातै हैं, जो केवल कष्टदायक हैं।”26       

        भारतेन्दु को भारतेन्दु बनाने में यात्राओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। भारतेन्दु ने ऐसे समय में यात्राएँ की थी जब यात्रा आज की तरह सुखी, साधन सम्पन्न नहीं हुआ करती थी। आम नागरिकों का तो आज भी वैसा ही बुरा हाल है। तब तो यात्रा संसाधनों का बड़ा अभाव था, ऊपर से सामाजिक विषमता, धार्मिक रूढ़ीवाद, अन्धविश्वास, छुआछूत का दंश विद्यमान था। हमारे यहाँ यात्रा सम्बन्धी बहुत-सी वर्जनाएं रही हैं। बावजूद समय–समय पर कुछ लोग ऐसे हुए, जिन्होंने इन वर्जनाओं की उपेक्षा की या उन्हें चुनौती पेश की। भारतेन्दु का व्यक्तित्त्व भी कुछ ऐसा ही था। यात्राओं का बीजारोपण उनके मन में बचपन में ही हो गया था। मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में उन्होंने जगन्नाथपुरी की यात्रा की थी। उनके यात्री व्यक्तित्त्व पर प्रकाश डालते हुए हिन्दी आलोचक कमला प्रसाद लिखते हैं “भारतेन्दु की यात्रा में रूचि थी। ये यात्रायें बहुउद्देश्यी होती थीं। परिवार के लोगों के कहने से उन्होंने पन्द्रह वर्ष की आयु में जगन्नाथपुरी की यात्रा की।”27 

        भारतेन्दु का मन यात्राओं में रमता था, “उन्होंने कानपुर, सहारनपुर, मसूरी, लाहौर, अमृतसर, दिल्ली, आगरा की क्रमबद्ध यात्रा की। हिन्दी भाषी क्षेत्र के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों का भ्रमण किया। अजमेर, अयोध्या बस्ती, गोरखपुर, उदयपुर और वैद्यनाथ हो आये। बलिया गए तथा कलकत्ता की भी यात्रा की। ये यात्राएँ उन्हें जनता के संपर्क में लाईं। चना-चबैना और गुड़ खाते-खाते कभी पैदल और कभी बैलगाड़ी में चलकर अकाल में कराहते और मरते लोगों को देखा। वन, प्रकृति, इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व का अध्ययन करने में यात्राओं से उन्हें मदद मिली। उन्हें कष्ट सहने का अभ्यास हुआ। पत्थरों-पत्तलों में परोसकर भोजन की आदत बनी। यात्राएँ न होती तो राजाओं-अंग्रेजों के कुकर्म भारतेन्दु के अनुभव में इस तरह शामिल न होते।”28  

        भारतेन्दु के यात्रा-वृत्तान्तों के महत्त्व को रेखांकित करते हुए आलोचक कमला प्रसाद लिखते हैं “भारतेन्दु के यात्रा-वृत्तान्त हिन्दी साहित्य की निधि है। सरयूपार की यात्रा, कैंप हरैया बाज़ार, बस्ती और मेंहदावल बहुत अच्छे यात्रा-वृत्तान्त हैं। इनमें उनकी व्यंग्य शैली और जिंदादिली दिखाई पड़ती है। ज़िन्दादिली की भाषा में उर्दू शब्दों का हिन्दी शब्दावली में घुलामिला रूप मिलता है।”29  
    
         भारतेन्दु का व्यक्तित्त्व बहुत प्रभावशाली था। वे जो कुछ भी करते थे तत्कालीन पढ़े-लिखे (हिन्दी) समाज पर उसका तत्काल प्रभाव पड़ता था। उनकी यात्राओं का प्रभाव उनके मित्रों पर परिलक्षित होता है! आगे चलकर भारतेन्दु मंडली के कई लेखकों ने यात्रायें की और  उसका वृत्तान्त भी लिखा! भारतेन्दुयुगीन हिन्दी यात्रा-वृत्तान्त भाषा, शैली, आरम्भिक हिन्दी गद्य, देश में हो रहे तकनीकी और यातायात संसाधनों के विकास आदि के आरम्भिक रूप को समझने की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं  
 
 
सन्दर्भ : 
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ग्रंथावली, भाग-6, सं. ओम प्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, संस्करण : 2008,  पृ. 3 
वही, पृ. 3 
वही, पृ. 3-4 
वही, पृ. 5  
वही, पृ. 5 
वही, पृ. 5 
वही, पृ. 5-6 
वही, पृ. 6 
वही, पृ. 6 
वही, पृ. 7 
वही, पृ. 8 
वही, पृ. 8 
वही, पृ. 8 
वही, पृ.10 
वही, पृ.12
वही, पृ.12
वही, पृ.13 
वही, पृ.13 
वही, पृ.15 
वही, पृ.15 
वही, पृ.16 
वही, पृ. 20
वही, पृ. 18-19 
वही, पृ. 19 
वही, पृ. 20 
वही, पृ. 24 
भारतेन्दु हरिश्चंद्र प्रतिनिधि संकलन, सं. कमला प्रसाद, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, दिल्ली, पहला संस्करण : 1996, पृष.16
वही, पृ. 16-17
वही, पृ. 23     



 बृजेश कुमार यादव
bkyjnu@gmail.com 9968396448

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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