शोध सार : मानव जीवन के आरम्भ से ही नारी परिवार का केन्द्र बिन्दु रही है। पाषाणयुग की महिलाएँ पुरुषों के साथ मिलकर शिकार तथा आत्मरक्षा के साथ साथ अपने क्षेत्र में बाहरी समूहों की घुसपैठ का सामना भी करती थी जिसके प्रमाण नर्मदा घाटी से मिलते है। नवपाषाण काल में खेती की शुरूआत ने मानव के स्थाई निवास को संभव बनाया जिसके फलस्वरूप परिवार, समाज के साथ अनेक सभ्यताओं का विकास हुआ जिससे मानव समाज में नारियों की अहम भूमिका बनी रही। बाद में सामाजिक परिवर्तनों के कारण से मातृ-सत्तात्मक (हड़प्पा) से पितृसत्तात्मक (वैदिक काल) होती चली गई और नारी समाज के हाशिए पर चली गई। आर्यों की सभ्यता और संस्कृति के प्रारम्भिक काल में महिलाओं की स्थिति बहुत मज़बूत थी। ऋग्वेदकाल में स्त्रियाँ यथा उपाला, घोषा, विशवरा, मुद्गालिनी तथा लोपामुद्रा उस समय की सर्वोच्च शिक्षा अर्थात ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकती थीं। ऋग्वेद में सरस्वती को वाणी/ शिक्षा की देवी कहा गया है जो उस समय की नारी की शास्त्र एवं कला के क्षेत्र में निपुणता का परिचायक है। इसके अलावा कृषि कार्य में भी नारियों की सहभागिता पुरुषों से किसी भी क्षेत्र में कम नहीं थी। महिलाओं द्वारा अपने शारीरिक श्रम से आर्थिक गतिविधियों को पूर्ण किया जाता था। वह पुरुषों के ही समान अपनी फसलों की रखवाली करती थी अर्थात आर्थिक क्षेत्र में उनका योगदान विशेष रहा है. गंगा-घाटी के वनों को लोहे के द्वारा साफ करके उन्हें कृषि योग्य बनाने में नारी के श्रम को नकारा नही जा सकता तथा उसी प्रकार उनके अभाव में कृषक एवं राज्य की आय की कल्पना कर पाना मुमकिन नहीं होगा. फसलों की कटाई में नारियों का योगदान अहम था फसलें पक जाने के पश्चात के उनको काटने तक नारी कदम से कदम मिलाकर पुरुष के साथ खड़ी रहती थी. समकालीन साहित्य में यह बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि महिलाओं ने परिवार के साथ समाज की आर्थिक क्षेत्र की दशा व दिशा को बदलने में अपनी महती भूमिका निभाई।
बीज शब्द : वप्त, उत्पादन, हलधर, गोप-ललना, जूनागढ़, चाऊ जू कुआ।
मूल आलेख : पाषाण काल से वर्तमान तक महिलाएँ हमेशा से पुरुष के साथ आर्थिक एवं उत्पादन सम्बन्धित कार्यों में अग्रणी भूमिका में नज़र आई हैं। पाषाणकाल में नारियाँ शिकार करने से लेकर अपने समूह में रहकर विभिन्न कार्य जैसे अनाज साफ करना व उसे काटना, छानना, पीसना, लकड़ियाँ एकत्र करना आदि को बड़ी कुशलता से करती थी। मानव जीवन को संचालित करने में आर्थिक क्षेत्र की अहम भूमिका रही है। प्राचीन काल से ही जीवन के संघर्ष को अर्थ की दृष्टि से भी देखा गया है जो निरंतर संघर्ष का कारण भी माना गया। प्राचीन काल से ही नारी का कार्यक्षेत्र उसका घर व परिवार रहा है परंतु वह समय अनुसार अपनी पारिवारिक जीवन की सीमा से बाहर आकर समाज एवं देश की उन्नति में भी अपनी सक्रिय भूमिका दर्ज करवाती रही। समय के साथ नारी का कार्य क्षेत्र एवं कर्म क्षेत्र बढ़ता गया परंतु कार्य क्षेत्र केवल घरेलू कार्य तक सीमित नहीं रहा। तभी तो उसने कृषि व्यवसाय के क्षेत्र में भी अहम भूमिका दर्ज कराई परिवार को आर्थिक दृष्टि से मज़बूत बनाने में नारियों ने अपना विशिष्ट योगदान दिया। पूर्व मध्यकाल में अनेक उदाहरण मिलते हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि नारियाँ कृषि तथा गैर कृषि कार्य में संलग्न थी, जो परिवार व समाज के आर्थिक आधार को मज़बूत करने में महत्त्वपूर्ण रही। वहीं दूसरी तरफ़ भारत प्राचीन काल से ही एक कृषि प्रधान देश रहा है क्योंकि भारत गाँवों पर आधारित देश है। कृषि के तौर-तरीक़ों में समयानुसार परिवर्तन होते रहे। कृषि कार्य का उल्लेख सिंधु सभ्यता से आरंभ होता है। इसके पश्चात वैदिक काल, महाजनपद काल, मौर्य काल, गुप्त काल एवं गुप्तोत्तर काल(जो पूर्व मध्यकाल के नाम से भी जाना जाता है) में कृषि में व्यापक बदलाव देखे जा सकते हैं। इसके अलावा धर्मग्रंथों में भी कृषि को एक पुण्य कर्म के रूप में स्पष्ट किया गया है पराशर ने कृषि-कर्म को पवित्र तथा कृषि कार्य करने वाले को धन्य व श्रेष्ठ माना है। उनका विचार था कि कृषक किसी के समक्ष नहीं झुकता बल्कि सोना-चाँदी एवं बहुमूल्य रत्नों से संपन्न व्यक्ति को कृषक के सामने झुकना पड़ता है। क्योंकि कृषि से हमारे जीवन की आधारभूत सुविधाएँ जुड़ी हुई हैं।1 अन्न के अभाव में मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती इसलिए उसको ब्रह्म के समान माना गया है। तैतरिय उपनिषद में बताया भी गया है -
अन्नात्एवखलुइमानिभूतानिजायन्ते
धर्मशास्त्रों के अनुसार ही राजा जनक ने कृषि को बढ़ावा दिया
था। इसके अतिरिक्त बलराम को हलधर बताया गया है जो कृषि की रीढ़ माना गया है। इसके
अलावा कुरु महाजनपद के राजा जिसने कुरुक्षेत्र नामक स्थान पर हल चलाकर धर्म का बीज
बोया था। इन्हीं सब उदाहरणों से कृषि तथा उससे जुड़े लोगों की महत्ता समाज में
देखी जा सकती है। ऐसा भी नहीं है कि पुरुष अकेले कृषि कार्य करने में निपुण
थे, महिलाएँ भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनका साथ देती थी जो परिवार और
समाज के आर्थिक आधार को विकसित करने में महत्ती भूमिका निभाते थे।
मुख्य फसलें -
जैसा कि हम जानते हैं कृषि जीविकोपार्जन का एक मूल आधार थी। जब मानव ने अपना स्थाई निवास बनाकर कृषि करना आरंभ किया, तब उसके जीवन में व्यापक परिवर्तन आरंभ हो गए। वह यायावरी जीवन से आज के आधुनिक समाज तक विकसित हो सका यदि ऐसा माना जाए कि मानव जीवन में कृषि क्रांति जो प्राचीन काल में आई थी, से सभी बदलाव जुड़े हुए हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कृषि कार्य को अच्छे तरीक़े से चलाने के लिए विभिन्न प्रकार के अनाजों की खेती की जाती थी। जिसका वर्णन हमारे धर्मग्रंथों में बखूबी देखा जा सकता है। अभिधान रत्नमाला में तीन प्रकार के चावल, दो प्रकार की सरसों, अरहर, कोदो, मटर, तिल, केसर, आदि की खेती करने का उल्लेख मिलता है।2 हड़प्पाई समाज मातृ-सत्तात्मक था, जिसकी पुष्टि बहुसंख्यक टेराकोटा मूर्तियाँ करती है। यहाँ के लोग सूती व ऊनी वस्त्र पहनते थे जो महिलाओ द्वारा तैयार होते थे। सिन्धु-सभ्यता जो हड़प्पा-सभ्यता के नाम से भी जानी जाती है, ने पूरे विश्व को कपास की खेती से अवगत कराया। यूनानी जिसको सिन्डन कहते थे, जो नाम सिंधु नदी के कारण पड़ा माना जाता है। आदिपुराण से ज्ञात होता है पूर्व मध्यकाल में सुगंधित धान, पतले छिलके वाली गन्ने की फसल उगाई जाती थी, जो भारत के साथ विदेश भेजी जाती थी। जिसमें महिलाओं के श्रम को नकारा नही जा सकता। काव्य-मीमांसा में हम बंगाल में एक विशेष प्रकार के गन्ने की चर्चा देखते हैं जो पूरे भारत में प्रसिद्ध था। जिसकी स्थानीय बाजारों में बड़ी मांग थी।3 इसके अतिरिक्त मेधातिथि जो एक प्रसिद्ध विधि ग्रंथ है, में भी 17 प्रकार के अनाजों का विवरण देखा जा सकता है जिसकी चर्चा तत्कालीन भारत में आए विभिन्न यात्रिओं ने अपने यात्रा-वृतांत में की है। जिनमें अरब यात्री पहली पंक्ति में नज़र आते हैं क्योंकि उन्होंने भारत की भूमि को उपजाऊ बताकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है तथा लिखा है कि भारत में भारी मात्रा में फल-फूल एवं अनाज के साथ-साथ अनेक प्रकार की फसलें पैदा की जा सकती है।4 मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय लोगों का नैतिक जीवन काफी ऊँचा था। इसके अलावा खान-पान सादा था। महिलाओं की दशा बहुत अच्छी थी जो आर्थिक क्षेत्र में भी अहम बनी हुई थी।
प्रमुख उपकरण एवं सिंचाई के साधन :
पूर्व मध्यकालीन कृषि उपकरणों का विवरण हमें समकालीन साहित्य में बखूबी मिलता है। कृषि के प्रमुख उपकरणों में हल एवं बैल का विवरण सर्वाधिक संख्या में नज़र आता है जिसके अभाव में कृषि कार्य करना संभव ही नहीं था। इस काल के लोग कुदाल, कुल्हाड़ी, हँसिया एवं भूसी निकालने वाले उपकरणों का प्रयोग करते थे जो उस समय के हिसाब से तकनीकी दृष्टि से काफी उत्कृष्ट थे। खेतों में सिंचाई के लिए प्राकृतिक एवं कृत्रिम दोनों साधनों का प्रयोग किया जाता था। आदि-पुराण में सिंचाई के प्राकृतिक साधनों का वर्णन नज़र आता है जिसके अनुसार कृषक खेती के लिए मुख्यत: वर्षा पर निर्भर होता था। इसके अलावा नदी, तालाबों इत्यादि द्वारा भी सिंचाई करके कृषि कार्य संपन्न किया जाता था। इसका एक उदाहरण रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख है जिसमे मौर्य साम्राज्य से लेकर गुप्त साम्राज्य तक का ब्योरा दर्ज़ है, जिसकी समय-समय पर मरम्मत कराई गई और जो सिंचाई में प्रमुख भूमिका में नज़र आता है। इसके अलावा अथर्ववेद में भी नहरों से सिंचाई करने का वर्णन मिलता है।
आदि-पुराण में भी कृत्रिम संसाधनों का उल्लेख मिलता है जिसमें नहर, कुएँ एवं रहट प्रमुख साधन थे। जिसके द्वारा सिंचाई पूर्ण की जाती थी।5 यहाँ एक बात बता देनी आवश्यक है कि कृत्रिम सिंचाई के लिए किसानों को अतिरिक्त कर देना होता था जबकि प्राकृतिक संसाधनों के लिए किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। पूर्व मध्यकाल में सामंतवादी व्यवस्था आरंभ हो चुकी थी राजाओं ने बड़े-बड़े भू-भागों को सामंतों और भू स्वामियों के अधीन करके कृषि क्षेत्र का विस्तार करने की चेष्टा की थी। इस समय ब्राह्मणों को भी भूमि दान दी जाती थी, जिनको अग्रहार कहा जाता था। ब्राह्मण भी अपने भूभाग पर कृषि कार्य करने तथा उसको विकसित करने चेष्टा करते थे। जिसमें हलवाहे अर्थात कृषक-मज़दूर इनका साथ देते थे। पूर्व मध्यकालीन समाज में एक ऐसा वर्ग भी था जिसके पास बहुत कम भूमि होती थी जिसको साधारण कृषक कहा जा सकता है। जिसमें स्त्रियाँ पुरुषों के साथ अपने भू-भाग पर कृषि कार्य करती थी। एक ओर जहाँ पुरुष अपने खेतों को तैयार करते थे, वहीं दूसरी तरफ़ महिलाएँ फसल काटने में यहाँ तक कि फसल को बोने में भी उसका साथ देती थीं। धर्मशास्त्रों में खेतों में बीज डालने की क्रिया को वप्त कहा गया है।6
पशुपालन :
भारत
में प्राचीनकाल से ही पशुओं के प्रति अगाध प्रेम देखने को मिलता है प्राचीन धर्मग्रंथों
में गाय को माता के रूप में पूजनीय माना गया है। इसके अलावा श्री कृष्ण, जिनको गाय के साथ प्रदर्शित
किया जाता है, गोपाल कहा गया है। इतिहासकारों
के अनुसार मेहरगढ़ जो विश्व का प्राचीनतम गाँवों में एक माना गया है, में भैंस पालने के साक्ष्य
प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार पूर्व मध्यकालीन भारतीय समाज में भी पशु कृषि
व्यवस्था के प्रमुख आधार के साथ-साथ समाज की ज़रूरतों को पूरा करने में अहम भूमिका
निभाते थे। भारतीय कृषि में हल एक प्रमुख कृषि उपकरण प्राचीन काल से
ही रहा है जिसको चलाने के लिए बैल की आवश्यकता पड़ती थी। जिसके कारण भी पशुपालन को
बढ़ावा मिला। वहीं दूसरी तरफ़ यातायात के साधन के रूप में पशुओं का बड़े
पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। इसी कड़ी में गाय, भैंस, भेड़,
बकरी आदि से दूध पर निर्भरता बनी हुई थी। जिससे स्वादिष्ट और पौष्टिक
भोजन मिलता था, जो मानव की आधारभूत ज़रूरत की पूर्ति करता था। इसके अलावा पशुओं के
गोबर का प्रयोग खाना बनाने के इंधन के साथ-साथ खेतों में खाद के रूप में भी उपयोग
में लाया जाता था। इस प्रकार पशु लगभग सभी ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम थे।
ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जिसके पास अनेक गाय या पशु होते थे, उनको समाज में
सम्मानित दृष्टि से देखा जाता था। विद्वानों के अनुसार गाय को प्राचीन काल में
मुद्रा के रूप में भी प्रयोग में लाए जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं।
जिसके लिए एक कबीला दूसरे कबीले से युद्ध करने में भी पीछे नहीं हटता था।
पशुपालन में महिलाएँ पशु तथा उसके बच्चों की देखरेख करने उन को चारा डालने तथा
उनका दूध निकालने आदि कार्य करती थीं। इसके अतिरिक्त वे खुद खेत
से हरी घास का चारा काटकर लाती और पशुओं को खिलाती थीं। इन पैसों से प्राप्त होने
वाले दूध से वह दही, घी, मक्खन इत्यादि निकालती थी जो तत्कालीन परिवार के साथ-साथ
समाज को आर्थिक दृष्टि से मज़बूत करने में सक्षम नज़र आते थे। तिलक मंजरी से पता चलता है
कि पशु पालने वाले को गोप या गोपाल कहा जाता था तथा उसकी पत्नी को गोपललना कहा
जाता था।7 इसी प्रकार प्रबंध चिंतामणि
में एक किसान की पत्नी को अपनी भैंस के बच्चे से अत्यंत स्नेह और प्रेम करते हुए
तथा उसे दूध पिलाते हुए वर्णित किया गया है। जिससे नारियों द्वारा दूध,
दही, छाछ बनाने के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।8 इस प्रकार महिलाएँ पशुओं की
देखभाल में विशेष योगदान देकर घर की आर्थिक स्थिति को मज़बूत करने में अहम भूमिका
निभाती थीं।
इत्र निर्माण :
प्राचीन काल से ही महिलाएँ सौंदर्य प्रसाधनों के प्रति
आकर्षित होती आई हैं। पुरुष भी विभिन्न तरीक़ों द्वारा अच्छे दिखने की चेष्टा करते
रहते थे। पूर्व मध्यकालीन समाज में स्त्री व पुरुष अपनी सुंदरता को
बढ़ाने के लिए उबटन, लेप का उपयोग करते थे, ऐसे प्रमाण प्राप्त होते हैं।
लोग अपने शरीर की लवणता को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के सुगंधित और जड़ी-बूटी एवं अन्य पदार्थों का प्रयोग करते थे। हड़प्पा
सभ्यता के विभिन्न स्थलों से अनेक सौंदर्य प्रसाधन की प्राप्ति इस बात की पुख्ता
सबूत है कि प्राचीनकाल हो या मध्यका, स्त्री और पुरुष खुद को सुंदर दिखाने की भरपूर
कोशिश करते थे। हड़प्पा सभ्यता के स्थल नौसारो से सिंदूर के साक्ष्य मिलते हैं। इसके
अतिरिक्त हर्षचरित, कादंबरी, कर्पूर मंजरी, कथा सरित्सागर आदि ग्रंथों से ज्ञात
होता है कि महिलाएँ व पुरुष दोनों सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल करते थे।
जिसका निर्माण स्त्रियाँ करती थी। वस्त्रों को सुगंधित बनाने के लिए इत्र का उपयोग
किया जाता था जो कपूर, फूलों के रस तथा अन्य चीजों को मिलाकर तैयार
किया जाता था। जिसमें महिलाएँ अग्रणी भूमिका में नज़र आती थीं, जिसका प्रमाण हमें
दंडी रचित दसकुमारचरित में प्राप्त होता है। इन सभी चीजों का इस्तेमाल
व्यापार में भी होता होगा जो नारियाँ उत्पादित करती थीं। जिससे आर्थिक पक्ष मज़बूत
होता था।9
माला और आभूषण निर्माण :
फूल हमेशा से ही मनमोहक होने के साथ-साथ आकर्षक भी होते हैं जो किसी को भी अपनी तरफ़ आकर्षित कर सकते हैं। जिनको त्योहार, उत्सवों के साथ-साथ एक विशेष अवसर पर इस्तेमाल किया जाता है। मंदिर,भवन, किले स्मारक एवं देवी-देवताओं की मूर्तियों को लोग विभिन्न फूलों तथा फूलों की माला से सजाकर अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं और मध्यकालीन भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही फूलों के आभूषण व मालाओं को अपने सिंगार में इस्तेमाल करते थे। तिलकमंजरी में स्त्री और पुरुष दोनों ही अपने बालों को फूलों की माला और कानों को पुष्पों से सजाते थे, ऐसा वर्णित है। इसी समय नारियों द्वारा अपनी रचनात्मक प्रतिभा के बल पर फूलों से तरह-तरह की मालाएँ और आभूषण बनाए जाते थे। जिसको भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न नामों से जाना जाता था। हर्षचरित में महिलाओं द्वारा जायफल एवं लौंग की माला बनाने का वर्णन मिलता है जो देखने में अत्यंत ही सुंदर होते थे। सहसा किसी को भी लुभा सकते थे।10 इसी प्रकार यशस्वीतिलक से ज्ञात होता है कि महिलाएँ लाल कमल में सफेद कमल का फूल मिलाकर केयूर नामक आभूषण बनाती थी।11 वहीं दूसरी तरफ़ तिलकमंजरी में लिखा है कि नारियाँ फूलों के विभिन्न आभूषण तथा माला बनाने की कलाओं में प्रवीण थीं। इस ग्रंथ के अनुसार किरात नारियाँ कर्णिकार से कर्णफूल आभूषण बनाती थीं जो शायद कानों में पहना जाता था।12 इसके अलावा अपने इस्तेमाल के अतिरिक्त महिलाएँ बाजार के लिए भी ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करती थी, जिनको बेचकर आर्थिक रूप से सुदृढ़ बन सकती थीं।
वस्त्र निर्माण :
वस्त्र उद्योग भारत के प्राचीन उद्योगों में से एक माना जाता है। साहित्य में अनेक प्रकार के वस्त्रों के उदाहरण मिलते हैं। हड़प्पा सभ्यता में एक पुजारी की मूर्ति खुदाई से प्राप्त हुई है जिसने तीन पत्तियों वाला शाल पहना हुआ है, जो प्राचीन भारतीय महिलाओं की दक्षता का जीता जागता उदाहरण है। चीनी लेखक चाऊ-जू-कुआ के अनुसार गुजरात एवं बंगाल प्राचीन भारत के साथ-साथ मध्यकालीन भारत में भी सूती वस्त्र उद्योग के लिए प्रसिद्ध थे। यहाँ के बने वस्त्र विदेशों में बड़ी मात्रा में निर्यात किए जाते थे। भारत की स्त्रियाँ पुरुषों के साथ घर में रहकर सुंदर-सुंदर वस्त्रों का निर्माण करती थी। इसके पश्चात उन पर कढ़ाई की जाती थी। हमें ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि भारत में वस्त्रों पर रंगाई और छपाई का कार्य भी बड़े पैमाने पर किया जाता था। जिसमें भी महिलाएँ अग्रणी भूमिका में नज़र आती थी।भारतीय विधि ग्रंथ मेधातिथि का कहना है कि विधवा तथा अन्य महिलाएँ, जो गरीब हों या जिनके पति ने उनको छोड़ दिया हो या जीवनयापन के लिए धन न छोड़ा हो, वह सब सिलाई, कढ़ाई, बुनाई तथा कपड़े की जाली बनाकर अपना जीवन निर्वाह कर सकती थी।13 एक अन्य ग्रंथ कुट्टनिम्नतम से ज्ञात होता है कि स्त्रियों वस्त्र उद्योग के लिए कपास चुनने का कार्य भी करती थी। कपास लाने के लिए निर्जन वाटिका अथवा जंगल में भी स्त्रियाँ ही जाती थी जो एक कठिन कार्य जान पड़ता है। इन सब कार्यों के द्वारा स्त्रियाँ अपने परिवार के साथ-साथ समाज का आर्थिक पक्ष मज़बूत करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका में नज़र आई।14 वल्लाल कृत भोजप्रबंध में सूत कातने वाली स्त्रियों का उल्लेख देखा जा सकता है इस काल में नारियाँ धागा बनाने का कार्य भी करती थी। जिससे अनेक वस्त्र बनाए जा सकते थे। उपर्युक्त साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि नारियों की भागीदारी वस्त्र उद्योग से काफी महत्त्वपूर्ण थी।15
मिट्टी के खिलौने और बर्तनों का निर्माण :
सबसे पहले फ्लेंडर पेट्री नामक विद्वान ने मृदभांड के महत्त्व को समझा और बताया कि प्रत्येक युग के विशेष प्रकार के मृदभांड बनाए जाते थे। जिसका अध्ययन करके हम विशेष संस्कृति संबंधी कुछ बातें जान सकते हैं। पेट्री के निष्कर्ष के बाद विद्वानों ने इसका महत्त्व समझा और इसे पुरातत्व की वर्णमाला के रूप में मान्यता प्रदान की गई। भारत में अनेक मृदभांड संस्कृति प्राप्त होती हैं। इसके विभिन्न नाम इस प्रकार हैं- गैरिक मृदभांड, चित्रित धूसर मृदभांड, कृष्ण लोहित मृदभांड आदि। जिसके आधार पर भारतीय इतिहास का काल विभाजन किया गया है। प्राचीन भारत में नवपाषाण काल में मानव ने बरतन बनाने में निपुणता हासिल की। इसके बाद आगे आने वाले समय में उसमें उत्कृष्टता बढ़ती चली गई। हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त बरतन उच्च कोटि के हैं। बरतन निर्माण की कला भी स्त्रियाँ जानती थीं। वे बरतन पर चित्रकारी करती थीं। तिलकमंजरी में स्त्रियों के खिलौने बनाने के उदाहरण मिलते हैं। बरतन निर्माण कला को एक विशेष कर्म कहा गया है।16 मिट्टी के बरतन बनाने का कार्य कुम्हार लोगों द्वारा किया जाता था। इस कार्य में उसके परिवार की नारियाँ भी सहयोगी बनती थीं। बरतन बनाकर उनको बाजारों में बेचा जाता था। हर्षचरित्र में भी नारियों द्वारा मिट्टी बर्तनों के ऊपर फूल-पत्तियों की चित्रकारी करने का साक्ष्य प्राप्त होता है। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि बर्तनों को भी उच्चतम और निम्नतम वर्गों के लिए अलग-अलग बनाया जाता था। कुलीन लोगों के बर्तनों को बड़ी उत्कृष्टता के साथ तैयार किया जाता था। जिसके लिए वे शायद अतिरिक्त शुल्क अदा करते होंगे।
अन्य गतिविधियों में भूमिका :
पूर्व मध्यकालीन महिलाएँ कृषि कार्य को करने में पर्याप्त
रुचि तो लेती ही थीं तथा अन्य आर्थिक गतिविधियों में भी पुरुष के साथ कंधे से कंधा
मिलाकर कार्य करती थी। कृषक परिवार की नारी पुरुषों के साथ खेतों में काम करते थी।
महिलाएँ कटाई, निराई तथा सिंचाई के कार्य खुद करती थीं। पाराशर मुनि के अनुसार जो महिलाएँ
अपने परिवार के साथ मिलकर खेती में कार्य करती थीं, वही अधिक पैदावार कर सकती थी। इस
विचारधारा के फलस्वरूप नारियाँ अपने खेतों की देखभाल करती थीं। नारियाँ कृषि के
लिए अत्यंत सावधानीपूर्वक बीज तैयार करती थी। बीज को तैयार करने के लिए
माघ और फल्गुन के महीनों में बीजों को इकट्ठा किया जाता था। तत्पश्चात उसे धूप में सूखाकर
रखा जाता था। पाराशर ने आगे कहा है कि राजस्वला स्त्री,बांझ स्त्री तथा
गर्भवती स्त्री बीजों को हाथ नहीं लगाती थी क्योंकि ऐसा करने से बीज खराब होने की
संभावना बढ़ने की आशंका होती थी।17 महिलाएँ खेतों की रखवाली करने का कार्य किया
करती थीं। ऐसा भी विवरण मिलता है कि फसलों को पकने से पहले कृषकों
द्वारा उसकी रक्षा का उपाय किया जाता था। खेत के चारों तरफ़ ऊँची बाड़
लगाकर विभिन्न प्रकार की आकृति वाले पुतले खड़े किए जाते थे। जिसमें स्त्री और
पुरुष बैठकर खेतों की रखवाली करते थे। शिशुपाल वध में नारियों
द्वारा धान के खेतों की रखवाली का वर्णन मिलता है। उसमें लिखा है कि आश्विन महीने
में धान की फसल की रखवाली करने वाली महिलाएँ जंगली पशुओ को अपने मधुर स्वरों से
गीत गाकर मनोहर ध्वनि उत्पन्न करके खेतों की रक्षा करती थी। जिससे हिरण मोहित होकर
उनके धान की फसल बर्बाद नहीं करते थे। इसी ग्रंथ में आगे लिखा है
कि तोतों को उड़ाने के लिए भी महिलाएँ टोलियों में कार्य करती थी।18 इस प्रकार यदि फसल ही बर्बाद
हो जाती तो परिवार के साथ साथ अन्य लोगों को भी भोजन प्राप्त नहीं हो सकता था। इस
आर्थिक गतिविधि में महिलाएँ पुरुषों से किसी भी प्रकार से कम नहीं थीं।
महिलाओं की बदलती स्थिति :
प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल प्राप्त था। हमें अनेक ऐसे प्रमाण मिलते है जो बताते है कि वैदिककाल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वैदिक ऋचाएं बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवतः उन्हें अपना पति चुनने की भी आजादी थी। जिसका ज़िक्र रामायण और महाभारत में वर्णित स्वयंवर प्रथा में देखा जा सकता है। इसके अलावा ऋग्वेद और उपनिषद महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी, कात्यायनी, उपाला, विशवरा के नाम उल्लेखनीय हैं। हड़प्पा सभ्यता में भी ऐसे बहुत से साक्ष्य मिलते हैं जो बताते है कि यहाँ महिलाओं का सम्मान होता था क्योंकि सबसे ज़्यादा मात्रा में महिलाओं मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। बौद्ध और जैन धर्मों में भी महिलाएँ स्वछन्द रूप से विचरण करती थी। उनको संघ में भी शामिल किया जाने लगा था। बात यही समाप्त नहीं हुई, समाज मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मक में बदल गया। जिसके फलस्वरूप महिलाओं से उनके अधिकार छीने जाने लगे। समाज में अनेक बुराइयाँ आ गईं; जैसे- बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा के साथ देवदासी प्रथा मुख्य हैं। ऐसा भी नहीं है कि महिलाएँ अब आर्थिक गतिविधियों में पुरुषों का साथ नहीं देती थीं किन्तु अब घर का काम हो या बाहर का, उनका ही काम समझा जाता था। जिसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क का कोई अधिकार नही दिया जाता था। महिलाओं की दशा और दिशा दोनों बदल चुकी थी। जिसको ठीक करने के लिये भक्ति आंदोलन ने महिलाओं की बेहतर स्थिति को वापस हासिल करने की कोशिश की और प्रभुत्व के स्वरूपों पर सवाल उठाया। एक महिला संत, कवयित्री मीराबाई भक्ति आंदोलन के सबसे महत्त्वपूर्ण चेहरों में से एक थीं। इस अवधि की कुछ अन्य संत-कवयित्रियों में अक्क महादेवी, रामी जानाबाई और लालद्यद शामिल हैं। हिंदुत्व के अंदर महानुभाव, वरकारी और कई अन्य जैसे भक्ति संप्रदाय, हिंदू समुदाय में पुरुषों और महिलाओं के बीच सामाजिक न्याय और समानता की खुले तौर पर वकालत करने वाले प्रमुख आंदोलन थे।
निष्कर्ष : उपर्युक्त विवरण को आधार बनाने से यह स्पष्ट होता है कि कृषि कार्य में नारियों की सहभागिता पुरुषों से किसी भी क्षेत्र में कम नहीं थी। वह पुरुषों के ही समान अपनी फसलों की रखवाली करती थी अर्थात आर्थिक क्षेत्र में उनका योगदान विशेषता उन के अभाव में कृषक एवं राज्य की आय की कल्पना कर पाना मुमकिन नहीं था। फसलों की कटाई में नारियों का योगदान अहम था। फसलें पक जाने के पश्चात उनको काटने तक नारी कदम से कदम मिलाकर पुरुष का साथ देती थी। समकालीन साहित्य में यह बातें स्पष्ट हो जाती हैं। आदिपुराण में वर्णित है नारियाँ अनाज को अपने साफ करने का कार्य करती थी। इसके साथ-साथ उसका भंडारण भी महिलाओं के अहम कामों में गिना जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उद्यानों, पशुपालन, वस्त्र निर्माण के साथ-साथ बरतन बनाने तक की समस्त आर्थिक गतिविधियों में महिलाएँ पुरुषों के मुकाबले किसी भी मामले में कम नहीं थीं। तत्कालीन समाज की कल्पना महिलाओं के बिना कर पाना संभव नहीं था। जो आज भी इस तथ्य को सार्थक सिद्ध करता है। आज के आधुनिक काल में भी महिलाएँ अपने क्षेत्र में पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं और अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं। लेकिन फिर भी नारी की आलोचना की जाती रही। किसी ने बड़ी सही बात कही है -
नारी से ही नर उपजे, ध्रुव प्रहलाद समान
1. पराशरमुनि, कृषिपराशर; अनुवादक और संपादक द्वारकाप्रसाद शास्त्री, चौखंबा संस्कृतसीरीज ऑफिस, वाराणसी, 2017, पृष्ठसंख्या-2
2. राघवेंद्र प्रताप सिंह, पूर्वमध्यकालीन उत्तर भारत का सामाजिक इतिहास, कला प्रकाशन, वाराणसी, 2008, पृष्ठ संख्या 164
3. राजशेखर, काव्य मीमांसा, हिंदी व्याख्याकार गंगासागर राय, चौखंबा विद्याभवन वाराणसी, 2013 अध्याय 12 संख्या 138
4. एम इलियट एंड जॉन डॉसन, द हिस्ट्री ऑफ इंडिया आज टोल्ड बायइट्स ओन हिस्टोरियंस, दी मोहम्मडन पीरियड्स, वॉल्यूम-1, ट्रबनर एंड कंपनी, लंदन,1867,पृष्ठसं -15
5. आचार्य जिनसेन महापुराण आदिपुराण, अनुवादक एवं संपादक पंडित पन्नालाल जैन, भारतीभाग-1, 1951, पृष्ठसंख्या -360
6. गोकुलचंद्र, यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, सोहनलाल जैनधर्म प्रचार समिती, अमृतसर, 1967, पृष्ट 190
7. पुष्पागुप्ता, धनपाल कृत तिलकमंजरी एक सांस्कृतिक अध्ययन, पब्लिकेशन स्कीम, जयपुर, पृष्ठ संख्या- 209
8. मेरुतुंग आचार्य, प्रबंध चिंतामणि, हिंदी भाषांतर हिंदी सिंधी जैन ग्रंथमाला कोलकाता 1940, पृष्ठसंख्या 30
9. दंडी दशकुमारचरितम्, व्याख्याकार आचार्य श्रीदेशराज शर्मा रेडमी, संपादक चौखंबा कृष्णदास अकादमी वाराणसी, पृष्ठसंख्या 218
10. वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना,1958, पृष्ठसंख्या -73
11. गोकुलचंद्र, पूर्वोक्त, पृष्ट -147
12. पुष्पा गुप्ता, धनपाल कृत तिलकमंजरी एक सांस्कृतिक अध्ययन, पब्लिकेशन स्कीम,जयपुर, पृष्ठसंख्या- 186
13. ओमप्रकाश, प्राचीन भारत का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, वाइली इस्टर्न लिमिटेड, नईदिल्ली,1986, पृष्टसंख्या- 96
14. दामोदरगुप्त ,कुट्टनिमतमकाव्यम, अनुवादक जगन्नाथपाठक, संपादक मित्र पब्लिकेशन,इलाहाबाद, 2017,पृष्ट 181
15. श्रीबल्ल्लाल, भोजप्रबंध, चौखम्बा अमर भारती प्रकाशन, वाराणसी, 1979, पृष्ठसंख्या -133
16. पुष्पा गुप्ता पूर्वोक्त, पृष्ट -152
17. पाराशर मुनि, पूर्वोक्त,पृष्ट -34
18. रामप्रताप, शिशुपाल वध महाकाव्य, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 2009, पृष्ट -163
पी. एचडी. शोधार्थी, इतिहास विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय,धर्मशाला
pkuk68881@gmail.com, 9467761677
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी