शोध आलेख : भारत बिम्ब के निर्माण में अरुणाचल प्रदेश का योगदान / प्रो.श्याम शंकर सिंह

भारत बिम्ब के निर्माण में अरुणाचल प्रदेश का योगदान
- प्रो.श्याम शंकर सिंह

शोध सार : भारत में राष्ट्रीयता जैसी अवधारणा पर जब बात की जाती है तब परम्परा विच्छिन्न  भारतीय मनीषा यूरोप-केंद्रित दृष्टि से ही बातें करना श्रेयस्कर समझती है! उसके सामने यह बात उभर नहीं पाती या उभरने पर दृष्टि से ओझल रह जाती है या फिर बात सामने आती भी है तो इस बात के प्रति उपेक्षा भाव या गौर करने का भाव दिखाई पड़ने लगता है कि भारत में एक चेतना का अस्तित्व जाने कब से विद्यमान रहा है। भारतवंशियों को राजनीतिक एकता को प्रमाणित करने की आवश्यकता है- यह भावना भी विद्यमान रही है। भले ही यह काल की लम्बी व्यापकता की दृष्टि से बीच-बीच में स्पष्ट रूप में दिखी हो! जब मध्ययुग में विजातीय आस्था और विश्वास वाले विदेशी आक्रमणकारी आए तब इस भावना की आवश्यकता बड़ी तत्परता से महसूस हुई। महमूद गजनवी के हमलों का मुक़ाबला करने के लिए संघ बनाने वाले पंजाब के राजा जयपाल इसके प्रमाण हैं।


जब सात समुद्र पार से आए विजातीय आस्था और विश्वास वाले व्यापारी वर्ग ने भारत के दुर्बल और क्रमशः शनैः शनैः क्षीण पड़ते जाने के क्रम में आक्रमणकारी के रूप में केंद्रीय सत्ता हथिया ली और फिर वह सत्ता ब्रिटिश राज के नियंत्रण में चली गयी, तब दीर्घकालीन संघर्ष के क्रम में यह महसूस किया जाने लगा कि भारत की राजनैतिक-सांस्कृतिक एकता को संवैधानिक रूप दे दिया जाना परम आवश्यक है। तब यह भारत के संविधान के रूप में सामने आया जोअर्ध-संघीययासंघात्मक कम एकात्मक अधिक है। भारत की सांस्कृतिक राष्ट्रीय एकता की संप्रेषणीयता आदिकाल से ही विद्यमान रही है। फिर भी जिजीविषा केंद्रित ग्रहण’–‘त्याग मूलक संस्कृति,सामासिक संस्कृति,संस्कारधर्मी संग्राहक संस्कृति और संश्लिष्ट संस्कृति के सिद्धांत गढ़े जाते रहे और भारतीय परम्परा के स्वरों और भारतीय राजत्व सिद्धांत को भुलाया जाता रहा। इस ओर सजग प्रयत्न की चेष्टा अपेक्षाकृत उतनी नहीं दिखी जितनी अभीष्ट थी। यह विविधता के संदर्भ में ही परिभाषित होती रही! उत्तर आधुनिक दौर में तो यह दृष्टि उत्कर्ष पर पहुँच गयी।


    भारतवर्ष की राजनीतिक चेतना-सांस्कृतिक चेतना एकात्मवाद के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित होती रही है। काल के फैलाव में इस चेतना का स्पंदन अलग-अलग स्तर पर दिखता रहा है, लेकिन स्पंदन रहा ज़रूर है! भूमि आधारित राजनीतिक चेतना का संदर्भ व्यापक है और हम एक ऐसे परिवेश में रह रहे हैं जो विविधता से भरा हुआ है और एकता की नींव पर अवस्थित है, यह भावना भी आदिकाल से ही  इस देश में स्वतः संचरित होती चली आयी है। भारत भूमि में अनेक जाति-रेसेज़ हैं, अनेक वर्णों के लोग हैं। विविधता में एकता, भेदों में अभेद, अद्वैत दर्शन की पीठिका का भाव लम्बे समय से व्याप्त रहा है। अपने-अपने समय में हरिश्चंद्र, अश्वमेध यज्ञ करने वाले रघुवंशी सम्राट, युधिष्ठिर, अशोक, विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने वाले सम्राट समुद्रगुप्त एवं हेमचंद्र, भारत की केंद्रीय राजनीतिक शून्यता को पहचानने वाले राजनीतिज्ञ, अलग-अलग कालों में भारत अभिधान का प्रयोग करने वाले चिंतक, विदेशियों के मन में विद्यमान भारतीयता की अवधारणा, भारतीयों के मन में विद्यमान भारतीयता की अवधारणा, भक्त दार्शनिक आचार्यों की दिग्विजय यात्राएँ, नामों की साम्यता, सेंगोल (ब्रह्म दंड) की मान्यता-ये सभी राष्ट्र की चेतना के संकेतक रहे हैं। देशवासियों के मन में अरुणाचल प्रदेश के संदर्भ में कल्हण द्वारा वर्णित उदयाद्रि की परिकल्पना प्राचीन काल से ही रही है। ऋग्वेद की रचना के काल से हीराष्ट्रशब्द का प्रयोग बड़े सजग भाव से होता रहा है तब मनीषी अरुणाचल प्रदेश के प्रसंग में भारतीय राष्ट्रीय पहचान संबद्धता के लिए यदि अतीत को भी उल्लिखित करें तो इसे स्वाभाविक माना जाना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश अपनी भारतीय पहचान संबद्धता के लिए पौराणिक काल की ओर उन्मुख होता रहा है तो ऐतिहासिक काल की ओर भी उन्मुख होता रहा है।

 

बीज शब्द: भारत बिम्ब, प्रादेशिक बोध, दुभाषिये, पोसा, वाचिक परम्परा, ऐतिहासिक यथार्थ, स्वतंत्रता सेनानी, भारत: एक बनता हुआ राष्ट्र, अंग्रेज़ी राज, प्रतिरोध, स्वतंत्रता सेनानी, सांस्कृतिक राष्ट्र , राष्ट्रीय चेतना

 

भारत बिम्ब के निर्माण में अरुणाचल प्रदेश का अनिवार्य रूप से योगदान रहा है। इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा दर्शाया जा सकता है

 

भारतीय भाषाओं और संस्कृति में पायी जाने वाली एकता

भारतीय भाषाओं में बोधगम्यता के तत्व कम हैं, यह एक सुविदित तथ्य है। लेकिन  भाषाविदों ने भारत को एक भाषाई क्षेत्र भी माना है। अरुणाचल प्रदेश के विशेष संदर्भ में  विविधता में एकता जैसे प्रतिपादित सिद्धांत के आधार पर भारतीय राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना की बात सम्भव है। भौतिक मानवशास्त्री यह मानते हैं कि भारत में प्रागैतिहासिक काल से ही मंगोलायड समूह का अंशदान रहा है।मंगोलायड समूह दो शाखाओं में उपविभाजित है: पुरा-मंगोलायड और तिब्बती-मंगोलायड। हिमालय क्षेत्र के आदिवासी समूह और पूर्वोत्तर के लोग इसी समूह के लोग हैं (1) अरुणाचल प्रदेश की जनजातियाँ इन्हीं में से हैं।  

 

प्रादेशिक बोध की निर्मिति


      अरुणाचल प्रदेश जनजातीयबहुल प्रदेश है। इस प्रदेश में अनेक जनजातियाँ-ह्रुसो, आदी, गालो, अपातानी, खाम्प्ती, बुगुन, खांबा, तागिन, वांग्सा, त्युत्सा, नोक्ते, न्यीसी, फकियल, मिश्मी, मीजी, मेम्बा, मोन्पा, योबिन, वाङ्चा, शेरदुक्पेन, सिंगफो, पुरोईक आदि निवास करती हैं। आदिकाल और मध्यकाल में इन जनजातियों में यह भावना नहीं थी कि सभी एक ही पर्वतीय अंचल के निवासी हैं। अर्थात् पर्वतीय अंचल के आधार पर अधिकांश जनजातियों में एकता का अभाव था। सभी जनजातियों में पृथक-पृथक अस्मिता बोध थी। प्रादेशिक बोध अत्यंत लघु भू खंड तक ही सीमित था। अर्थात् प्रदेश के महायानियों एवं स्थविरवादियों में एक प्रदेश में रहने का बोध नहीं था। न्यीसी जनजातियों और स्थविरवादियों में यह बोध नहीं था कि दोनों एक ही प्रदेश के नागरिक हैं। प्रादेशिक बोध काफ़ी बाद की बात है। एक दूसरे के क्षेत्र में आवागमन और यातायात की सुविधा ने इस बोध में शीघ्रता ला दिया। इस क्षेत्र में ब्रिटिश राजसत्ता के हस्तक्षेप ने शनैः शनैः प्रादेशिक बोध का बीज बोया। ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत यह बोध तीव्र होता गया कि सभी जनजातियाँ एक ही प्रदेश की नागरिक हैं। आबोतानी से अपने आप को जोड़ने वालों में वंश परम्परा के आधार पर क्षेत्रीय बोध का एक दुर्बल आधार विद्यमान था, साथ ही यह भी कि वे बहुत सी जन जातियाँ उत्तर, उत्तर पूर्व या दक्षिण पूर्व से स्थानांतर गमन के माध्यम से इस क्षेत्र में आकर रह रही  हैं। राज्य विषयक नागरिकता बोध की भावना थी। क्षेत्र विषयक भावना ही विद्यमान थी। कदाचित् इसीलिए त्वेनसांग के पृथक होने पर प्रादेशिक बोध को भावात्मक आघात का अनुभव हुआ।

 

मैदानी क्षेत्र से सम्बंध का बोध


      ब्रिटिश राज से पहले सभी जनजातियों में यह भावना पृथक-पृथक रूप में विद्यमान थी कि पर्वतीय अंचल के लोगों और मैदानी क्षेत्र के लोगों में समानता के साथ-साथ भेद भी है। लेकिन मैदानी क्षेत्र के लोगों से पर्वतीय अंचल के लोगों का सम्पर्क बना रहता था। एल.एन. चक्रवर्ती ने लिखा है कि जिसे अरुणाचल नाम से जाना जाता है, उस पर्वतीय क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों के असम के मैदानी क्षेत्र के निवासियों के साथ निकट के सम्बंध थे। इन सम्बंधों के कई संदर्भ इस क्षेत्र से सम्बंधित उपलब्ध अभिलेखों में प्राप्त होते हैं।(2)

 

द्विभाषिकता और दुभाषिये


भारत में विद्यमान द्विभाषिकता कमोबेश यहाँ भी थी। इसीलिए इस क्षेत्र का सम्पर्क असमिया भाषा के माध्यम से, अधिकतर असमिया जानने वाले दुभाषियों के माध्यम से सम्भव हो पाता था।   

 

पोसा  

अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल में रहने वाली अनेक जनजातियाँ अहोमों के समय मेंपोसाप्राप्त करती थीं, ब्रिटिश राज में भी इन्हें बहुत दिनों तक पोसा मिलता रहा। पोसा सामान्य उद्देश्य के लिए किए गए चंदे का संग्रह’(3) रूप में होता था जिसे इस पर्वतीय अंचल की अनेक जनजातियाँ लेती थीं। पोसा कोभत्ते के रूप में भी समझा गया है औरअवैध वसूली के रूप में भी जिसे दारंग और लखीमपुर के क्षेत्र में पर्वतों में रहने वाली कुछ पहाड़ी जनजातियों को, अवैध रूप से लूट रोकने के बदले में या कुछ दुआरों पर से अपने अधिकारों या दावों को त्याग देने के लिए दिया जाता था”(4) मैदानी क्षेत्र में रहने वाले अहोम शासित गाँव वालों द्वारा पर्वतीय अंचल की जनजातियों को दिए गएचंदेकी राशि को अहोम शासकों  ने कर के स्तर पर स्वीकृति प्रदान कर रखी थी-इसलिए इसे देने वालों को सरकार को कर नहीं देना पड़ता था। अंग्रेज़ी राज में प्रशासन ने इसे राजकीय स्तर पर स्वीकृति प्रदान करते हुए इसे सरकारी ख़ज़ाने से देना स्वीकार किया। इसके पीछे अंग्रेज़ी राज का एक और उद्देश्य था-वह सरकार की स्थिति को पर्वतीय क्षेत्र में और सुदृढ़”(5) होते देखना चाहती थी आगे चल कर ब्रिटिश सरकार ने इस पर पुनर्विचार किया और जिन्हें पोसा दिया जाता था उनके बारे में निर्णय लिया कि, सभी मामलों में, स्वतंत्र व्यक्तियों का पोसा, वर्तमान पोसा प्राप्त करने वाले की मृत्यु के बाद बंद कर दिया जाए तथा जो परिवार दूसरों के ग़ुलाम हैं उनका पोसा तत्काल से बंद कर दिया जाए(6) आदी जनजाति के क्षेत्र में भेजे गए एक दल की यात्रा के बाद(7) आदी जनजाति  का पोसा बंद कर दिया गया था। इस तरह पोसा के इतिहास से स्पष्ट है कि अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल से मैदानी क्षेत्र के लोगों से पोसा प्राप्ति के स्तर पर घनिष्ठ सम्बंध था।

 

 वाचिक परम्परा में पुराणकथा  विषयक स्मृतियाँ


ब्रह्मा के पुत्र से सम्बंधित ब्रह्म कुंड और परशुराम कुंड की स्मृतियों को मिशमी  जनजाति के लोगों ने संजोए रखा है। डॉक्टर एम.सी. बेहरा के अनुसार, 11वीं शताब्दी के इंद्रपाल के कॉपर प्लेट में मिले वर्णन से परशुराम कुंड की ऐतिहासिकता का पता चलता है। इससे पूर्व का कोई ऐतिहासिक प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। जबकि कालिका पुराण के अनुसार इसका अस्तित्व छठी शताब्दी में होने का पता चलता है।(8) ब्रह्म कुंड का पानी तप्त था। 1950 . के भूकंप से पहले यह विद्यमान था। ब्रह्म कुंड से निकलकर बनने वाला दूसरा शीतल कुंड अभी भी विद्यमान है, जो परशुराम के नाम के साथ प्रख्यात है। मातृहन्ता परशुराम के हाथ से चिपका खून लगा फरसा यहीं डुबकी लगाने से अलग हुआ था। दिगारू मिशमी और मिजू मिशमी उपजनजाति दोनों में यह कथा प्रचलित है। मिजू मिशमी की एक अन्य कथा में परशुराम की जगह ड़्रापकाप उल्लिखित है।(9) देऊरी समुदाय में भी परशुराम से संबंधित स्मृतियाँ सुरक्षित हैं। वे उन्हें राम का अवतार मानते हैं। खाम्ती जनजाति में भी परशुराम से संबंधित स्मृतियाँ सुरक्षित हैं। वे कुंड को बुद्ध से संबंधित स्थल मानकर भ्रमण करते हैं। बाहर से आने वाले तीर्थ यात्रियों में यह मान्यता थी कि परशुराम कुण्ड में स्नान करके पहने हुए गीले वस्त्र वहीं छोड़ दिए जाने चाहिए। लोक मान्यता है कि सारे पाप कपड़ों के माध्यम से अलग हो  जाते हैं, इसलिए यही श्रेयस्कर मान लिया जाता है! गुरु नानकदेव पहली उदासी (1500-1506 .) में परशुराम कुंड होते हुए बर्मा (ब्रह्म देश-अब म्यानमार) गए थे। म्यानमार, ढाका, असम, सिक्किम, भूटान, नगालैंड आदि से सम्बंधित स्थलों का उल्लेख डॉक्टर कुलदीप मेहंदीरत्ता ने  किया है। डॉक्टर आलोक सिंह  ने लिखा है कि सन 1505 . में उनकी भेंट श्रीमंत शंकरदेव से भी हुई थी(10) गुरु नानकदेव ढाका से धुबड़ी गए और कहा जाता है कि गुरु नानकदेव असम के धुबड़ी से रंगामाटी, जोगीगोफा, ग्वालपाड़ा, कामाख्या, हाजो, सदिया, अरुणाचल प्रदेश  परशुराम कुंड से होते हुए तिब्बत चले  गये (11)    

 

रामकथात्मक साहित्य और लौहित्य  प्रदेश


राजनीतिक सामान्यता के आधार पर स्वयं को पहचानने का प्रमाण कालिदास कृत रघुवंश के चतुर्थ सर्ग में रघु की दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में दिखाई पड़ता है। रघु किरात, किन्नर प्रदेश से होते हुए मान सरोवर क्षेत्र से होते हुए, लौहित्य नद होते हुए प्राग्ज्योतिषेश्वर-कामरूपेश्वर के राज्य की ओर बढ़े थे”(12) कालिदास ने कामरूपेश्वर द्वारा रघु के पैरों की छाया की पूजा का उल्लेख करते हुए रघु के पैरों के लिये हेमपीठ की अधिदेवी (हेमपीठाधिदेवताम”(13)) शब्द का आलंकारिक प्रयोग किया है। हेमपीठ में समस्त पूर्वी अरुणाचल क्षेत्र जाता है। रघु के पैर अरुण वर्ण को समोए हुए दिव्य की तरह हो गए थे। हेमपीठ की अधिदेवी से यह आशय है। पीठ से अभिप्राय है रघु के पैरों के लिए उदयाद्रि की भूमि आसन हो गयी थी। उस भूमि पर रघु के पाँव थे। इस आलंकारिक उक्ति में यथार्थ की झलक भी है। पैरों की छाया के उल्लेख से यह स्पष्ट है। कृष्ण नारायण प्रसाद मागध ने  रघुवंश के चतुर्थ सर्ग के इस साक्ष्य से अरुणाचल क्षेत्र को हेमपीठ की मान्यता दी है।“(14)  

 

राम कथात्मक साहित्य की बौद्ध  परंपरा


स्थविरवादी खाम्ती जनजाति रामकथा की बौद्ध परंपरा कोलिकचाओलामाङ (श्रीराम काव्य) अथवा चाओआलाङलामाङ (श्री रामावतार कथा)”(15) नामक ग्रंथ के रूप में बड़े यत्नपूर्वक संजोए हुए है।  

 

लोक कथाओं में राम कथात्मक साहित्य के सदृश वर्णन


डॉक्टर दिनेश कुमार चौबे ने मिश्मी जनजाति में प्रचलित एक ऐसी लोक कथा का उल्लेख किया हैजो राम कथा से साम्य रखती है(16) उनका मानना है कि इस कथा में राजा की कन्या का आठ सिरों वाले राक्षस द्वारा अपहरण, राजा द्वारा बानरों के राजा की सहायता लेना, बंदर द्वारा कन्या की खोज, बंदर की पूँछ में आग लगा देना, पूँछ की आग से पूरे नगर को जलाना एवं कन्या का उद्धार करना आदि वर्णित है। यहाँ राजा, कन्या, राक्षस, बंदर में राम, सीता, रावण एवं हनुमान का अनुमान कर सीता-अपहरण, खोज, लंकादहन, सीता उद्धार आदि घटनाओं का अनुमान कर इस कथा का साम्य राम कथा से स्थापित करना अप्रासंगिक प्रतीत नहीं होता।(17)   

 

वाचिक परम्परा में वर्णित कृष्ण विषयक स्मृतियाँ       


1965 . नारी नामक ग्राम में वासुदेव थान और देवकी थान की पहचान की गयी। इस स्थान पर लगभग 80 फीट की परिधि में एक श्याम वर्ण की गोलाकार बड़ी शिला है। यहीं वासुदेव के बैठने का स्थान बताया जाता है। वहीं थोड़ी दूरी पर स्थित एक इससे छोटी श्याम वर्ण की ही एक और शिला है। इससे थोड़ी दूर पर स्थित एक मंदिर हैIकहा जाता है कि वासुदेव की माँ देवकी का यह थान (स्थान) हैI(18)   


लेकिन सबसे जीवंत स्मृति है द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की जो ईदु मिशमी लोगों के मानस में आज भी यथावत विद्यमान है। भीष्मकनगर और रुक्मिणी नटी के दुर्ग इस स्मृति को रूपायित करते प्रतीत होते हैं। श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के भाई को पराजित कर उसके सिर के आगे के बालों  को सुदर्शन चक्र से काट दिया था। इस घटना के बाद से ही इस जनजाति में सिर के आगे के बालों को काटकर रखने की परंपरा चली रही है। उल्लेखनीय है कि श्रीकृष्ण जब रुक्मिणी को हरकर ले जा रहे थे तब अरुणाचल का ही मालिनी थान रास्ते में पड़ा था। श्रीकृष्ण को देवी पार्वती (पार्वती के साथ शिव थे) ने फूलों की माला भेंट किया था। श्रीकृष्ण ने पार्वती को परिहासस्वरूप मालिनी (माला गुँथने वाली) कहकर पुकारा था। तभी से यह स्थान मालिनी थान के नाम से पुकारा जाने लगा। मालिनी थान की खोदाई में लगभग 14-15वीं शती के धार्मिक स्थल के अवशेष प्राप्त हुए हैं।इस खोदाई में पत्थर की मूर्तियों में भगवान इंद्र को ऐरावत हाथी पर, कार्तिकेय को मयूर पक्षी पर सवार तथा दो हाथियों की पीठ पर चार शेरों की आकृति मंदिर के चारों कोनो पर पायी गयी हैI”(19) मंदिर, दस भुजा पार्वती की तीन टुकड़ों में टूटी मूर्ति, टूटा हुआ शिवलिंग प्राप्त हुआ है। शिव का वाहन नन्दी, वीणावादिनी सरस्वती, दुर्गा, मूषक पर सवार गणेश, सात घोड़ों से खींचे जाने वाले रथ में सूर्य तथा चाँदी के पुष्प भी मिले हैंI


      रोईंग के आसपास मानव निर्मित लगभग 10 पुष्करिणी पायी गयी हैं, जिनमें कुछ वर्गाकार हैं, एक v वी आकार की है। एक का नाम इतानात या रुक्मिणी पोखरी है जो आयताकार है। यह नामकरण देशज आस्था और विश्वास को मानने वाले लोगों द्वारा किया गया है। इनमें कुछ ईंट की बनी हैं, कुछ कच्ची हैं। एक नहर और सड़क का पाया जाना बताता है कि यहाँ कभी सुनियोजित बस्तियाँ थीं जिन्हें काल ने लुप्त कर दिया। इनका निर्माण काल 10वीं से 16वीं शताब्दी बताया गया है।


अका जनजाति यह मानती है कि उन्हें असम के मैदानी क्षेत्रों से रुक्मिणी का अपहरण कर द्वारका जाते समय, कुछ के अनुसार, बाणासुर के साथ युद्ध करते समय कृष्ण और बलराम ने उन्हें वर्तमान क्षेत्रों की ओर भगा दिया था।(20)

 

वाचिक परम्परा में पुराण वर्णित कथा विषयक स्मृतियाँ


प्रहलाद के पुत्र विरोचन हुए। विरोचन के पुत्र चिरंजीवी महाबलि हुए। महाबलि के सबसे बड़े पुत्र बाणासुर हुए। बाणासुर के धर्म पुत्र (धर्म सम्मत पुत्र, जो कर्त्तव्य ज्ञान की दृष्टि से उत्पन्न किया या माना गया हो, केवल कामवासना का परिणाम हो) शिवासुर हुए। शिवासुर की धर्म पत्नी-पतिव्रता शिवानी थी। इसी का पुत्र भालुका या भालुक हुआ। अका जनजाति में परंपरा से चले रहे मान्य विश्वास के अनुसार ईस्ट कामेंग ज़िला में भराली नदी के दाहिने तट पर स्थित भालुकपोङ् गिरि- “दुर्ग का निर्माण शोणितपुर-नरेश वाणासुर के पौत्र भालुका अथवा भालुक ने कराया था।”(21) कहीं-कहीं यह उल्लिखित मिलता है कि भालुका बाणासुर का नाती था।(22)  इस क़िले को 10वीं से 12वीं शताब्दी का बताया गया है।

 

ऐतिहासिक यथार्थ से सम्बंधित खंडहर


अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल में मध्यकाल से सम्बंधित खंडहर पाए गए हैं। ये खंडहर असम के मैदानी क्षेत्र को अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल से जोड़ते हैं। यहाँ रहने वाली न्यीसी जनजाति में प्रचलित कहानी में यह बताया गया है कि ईंटानगर में पाए जाने वाले दुर्ग के खंडहर असम के किसी शरणार्थी राजा से सम्बंधित हैं।


अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर का नाम राजधानी में मिले ईटों से बनी दुर्गनुमा संरचना के आधार पर पड़ा है। एल.एन. चक्रवर्ती द्वारा दिए गए विवरण से ज्ञात होता है कि यह दुर्ग 14वीं सदी के उत्तरार्ध में बना था। राजा रामचंद्र ने इसका निर्माण करवाया था। रामचंद्र ने इस शहर का नाम मायापुर रखा था। राजा का दूसरा नाम मायामत्त भी था।(23) उल्लेखनीय है कि असम और अरुणाचल की सीमाएँ मध्यकाल में नहीं थीं। डॉक्टर वाणीकांत काकती का मानना है कि मार्कण्डेय पुराण में लौहित्य समन्वित प्राग्ज्योतिष उल्लिखित है: प्राग्ज्योतिषा: सलौहित्या: (श्लोक-55/13) (24)


बालिजान और तारासो  के अंतर्गत रामघाट के निकट व्यास कुंड नामक गुफा है। यह गुफा अहोमों के समय से विद्यमान है। पहले यह गुफा बड़ी थी। वर्षा एवं भूस्खलन के कारण छोटी हो गयी। श्री तेची तागुङ् ने लिखा है कि खुदाई में 226 मीटर लम्बे क़िलेबंदी का पता चला है जो पत्थर के ब्लॉक, जली हुई ईंटों और पत्थर के शिलाखंडों से बना जिसमें एक द्वार है। कुछ पत्थरों में धनुष और तीर, त्रिशूल जैसी आकृति मिली है। खुदाई के स्थल से टूटा हुआ शिवलिंग भी प्राप्त हुआ है।...पत्थर की सीढ़ी के अवशेष भी पाए गए हैं।(25)  इसे 12वीं-13वीं शताब्दी का बताया गया है।


14वीं-15वीं शताब्दी के पत्थरों से बनी संरचना के खंडहर सेइजोसा स्थित नक़्शा (नक्षत्र?) पर्वत पर पाए गए हैं। इसका समय 14-15वीं शताब्दी बताया गया है। पत्थरों से बना  गोल कुआँ, शिला में उत्कीर्ण आकृतियाँ, घर के लिए बनी पत्थर की कुर्सियाँ (जिस पर घर बनाया जाता है) और स्तंभ पाए गए हैं। इन्हें असम के राजाओं द्वारा बनवाया हुआ माना जाता  है।प्रदेश में तेजू के पास एक मिट्टी से बना दुर्ग भी प्राप्त हुआ है। इसे 14वीं-15वीं शताब्दी का बताया जाता है।  

 

शंकरदेव से दीक्षा


शंकरदेव भारतीय चेतना से समन्वित थे तो उनसे दीक्षित और अपनी जाति से उन्हें जोड़  कर देखने वाली दृष्टि में यदि भारतीय चेतना की झलक दिखे तो यह स्वाभाविक माना जाएगा। नोक्ते जनजाति के बहुत से लोगों में विद्यमान सनातन धर्म समन्वित स्थानीय संस्कृति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। डॉक्टर सी..जीनी ने लिखा है, कहा जाता है कि वोकते (पुस्तक में नोक्ते लिखा होना चाहिए था) जाति के एक सरदार ने असम के महापुरुष शंकरदेव से दीक्षा ग्रहण की थी तथा उन्हें नाम नरोत्तम नाम से जाना जाने लगा था। इस दृष्टि से वोकते एवं असमीया वैष्णव धर्म के अनुयायियों में सांस्कृतिक सम्पर्क और साम्य दिखाई पड़ता है। वे अपने को हिंदू कहते हैं।(26)  

 

शंकरदेव और  मिसिंग जनजाति


 मिसिंग जनजाति जो पहाड़ी क्षेत्र के मीरी (जो अब निशी जनजाति के रूप में अपनी पहचान घोषित करती है) से अलग मैदानी क्षेत्र में मीरी के रूप में जाने जाते थे और जिनके कुछ लोग अभी भी अरुणाचल की आबादी का अभिन्न हिस्सा हैं, शंकरदेव को अपनी जनजाति का मानती है। डॉक्टर देवकांत पांगिङ् ने मिसिंग जनजाति में पाए जाने वाले इस विश्वास का उल्लेख किया है कि शंकर देव मूलतः मिसिङ जाति के थे इसलिए शंकर देव द्वारा प्रचारित वैष्णव मत को मिसिङ् लोगों ने स्वीकार कर लिया, किंतु पूर्ण रूप से नहीं। शंकर देव के मत को मानते हुए भी मिसिंग लोगों में अपने आदि धर्म की प्रथाओं-परम्पराओं का भी पालन किया जाता है।(27) शंकरदेव कायस्थ जाति से थे, लेकिन महापुरुष जाति से ऊपर उठे होते हैं। लोग महापुरुष को अपने समुदाय से जोड़ने में गौरवान्वित महसूस करते हैं।

 

बोन धर्म, बुद्ध मत  


यहाँ बोन नामक अत्यंत प्राचीन धार्मिक संप्रदाय के लोगों की बस्ती भी है जो कैलाश-मानसरोवर में भी आस्था रखती है और यमराज की प्रतिमा की पूजा भी करती हैं। लेकिन यह अलग धर्म है जो बौद्ध धर्म से अधिक समानता रखता है। स्थविरवादी एवं महायानी शाखाएँ  भी हैं। मोनपा और शेरदुकपेन क्षेत्र में एक क़िला, स्तूप और गोमपा पाए गए हैं जो मध्यकाल के हैं। अन्य क्षेत्रों में भी बौद्ध धर्म के वज्रयान सम्प्रदाय से सम्बंधित मूर्तियाँ मिली हैं। अनेक ग्रंथों में बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया है, हालाँकि कुमारिल भट्ट जैसे विद्वान