हिमाचल की समकालीन हिंदी कविता में श्रम : समाजशास्त्रीय पाठ
- दिनेश शर्मा
शोध सार : श्रम मानवीय जीवंतता का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दस्तावेज़ है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काम सीखना और निरंतर श्रम से उसे करते जाना होमोसेपियंस की जीवन यात्रा का प्रारंभ बिंदु माना जा सकता है। तकनीकी युग के संचार क्रांति पड़ाव में भी श्रम की महत्ता बराबर बनी हुई है। दुनिया के लगभग 3.4 अरब श्रमिक आज भी सभ्यता के भार को अपने कंधे पर उठाए हैं। कृषि, उद्योग, व्यापार, सेवा आदि सभी क्षेत्रों के कार्यों का निष्पादन श्रमिकों के सहयोग के बिना संभव नहीं है। लेकिन हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद उन्हें दो वक़्त की रोटी मयस्सर नहीं है। 2023 में भारत सरकार अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त भोजन देने का दावा कर रही है। कमोबेश दुनिया के अधिकांश हिस्से में यही दुरवस्था है। प्रस्तुत पत्र हिमाचल प्रदेश में श्रम और श्रमिकों की यथार्थ स्थिति और समकालीन कविता में उसके दर्ज होने की समाजशास्त्रीय पड़ताल करता है। इसमें श्रम के विभिन्न स्वरूपों व श्रमिकों की स्थितियों का विवेचन किया गया है। प्रकार्यवादी व संघर्षवादी परिप्रेक्ष्य से कविता का पाठ कर कवियों के मन को टटोला गया है।
बीज शब्द : श्रम,
समकालीन कविता, सांस्कृतिक विरासत, प्रकार्यवाद,
संघर्षवाद,
जनजाति,
जाति,
स्त्री-श्रम, बाल–श्रम।
मूल
आलेख :
मैं सारी उम्र चमकने की कोशिश में बीत गया।1
श्रम मानव जीवन का आधार है। यह व्यक्ति के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य, आर्थिक उपादेय से लेकर राष्ट्र निर्माण व सम्पूर्ण मानवीय अस्तित्व का मूल रहा है। कोई भी तकनीक या यंत्र श्रम का विकल्प नहीं हो सकता। मशीनों के निर्माण और इस्तेमाल में भी श्रम का योगदान रहता है। मनुष्य की उत्तरजीविता, आराम, विलासिता तथा ऐश्वर्य के तमाम उपादानों में श्रम का निवेश हुआ है। कोई भी संस्था, कार्य या सामाजिक-आर्थिक संरचना श्रम के अंशदान के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। वर्तमान वैश्विक समाज में भी श्रम की गतिशीलता तथा श्रमिकों का जीवन महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक मुद्दे हैं। इन्हीं के फलस्वरूप अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ तथा विश्व के सभी देशों की सरकारों में श्रम-मंत्रालय कार्यरत हैं। इन्हीं मुद्दों के फलीभूत समाजवादी विचारधारा का प्रादुर्भाव, विकास व प्रसार हुआ तथा रूस की क्रांति व अनेक श्रमिक आंदोलन दुनिया के विभिन्न देशों में खड़े हुए। तमाम संघर्षों, आंदोलनों, संस्थागत उपायों, नीतियों व विधानों के बावजूद श्रमिकों की समस्याएँ आज भी यथावत बनी हुई हैं। श्रमिकों व धनाढ्यों के बीच दूरियाँ बढ़ी हैं, श्रमिकों की संख्या व दुःख भी बढ़े हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, प्रतिव्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा आदि सूचकांकों में श्रमिक धरातल पर ही हैं। समूचे विश्व के भारत जैसे अति–जनसंख्या वाले देशों में, जहाँ लोगों का बड़ा हिस्सा श्रम से आजीविका अर्जित करता है, श्रम और श्रमिकों के प्रति संवेदनशीलता की अधिक आवश्यकता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 2022 में भारतवर्ष
में श्रम से रोज़ी कमाने वाले लोगों की संख्या 52,38,39,158 है।2 आँकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में इस संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। इनमें से अधिकतर लोग असंगठित क्षेत्र में रोज़ी कमाते हैं जहाँ आय और
रोज़गार की अनिश्चितता है। नीति आयोग की मार्च 2022 की ‘वर्कफोर्स चेंजेज़ एंड एम्प्लॉयमेंट रिपोर्ट’ के अनुसार, भारत में कृषि, विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्र में क्रमशः 45.6, 23.7 तथा 30.8 फ़ीसदी श्रम-शक्ति कार्यरत है जिसका तात्पर्य है कि हम विकासशील अर्थव्यवस्था हैं। कृषि क्षेत्र में छिपी हुई तथा मौसमी बेरोज़गारी रहती है, जिसका प्रभाव आय व जीवन स्तर पर पड़ता है। उतर-कोविड काल की बढ़ती बेरोज़गारी और आसमान चूमती महँगाई की स्थितियों ने श्रमजीवी लोगों के जीवन को और भी दुष्कर बना दिया है। इसलिए सुदामा पांडे धूमिल का प्रश्न रह जाता है कि पसीने से खुद को सारी उम्र चमकाने वाला अंततः क्योंकर बीत जाता है?
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।"5
यह कविता पारम्परिक मूल्य, विचारधारा व वाद से मुक्त होकर संवेदना और सहानुभूति की भावभूमि में जीवन का बचाव करती है। इसमें जनतांत्रिक मूल्यों- जिसमें समानता, स्वतन्त्रता व भ्रातृभाव की गहनता रहती है, का संचार है। “सामाजिक यथार्थ, सपाटबयानी के साथ राजनीति एवं व्यंग्य इसके महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। इस काव्यधारा का लक्ष्य आम आदमी और समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करना है।"6
लम्बे समय से अध्ययन के विभिन्न विषयों तथा साहित्य की विविध विधाओं में श्रम-विमर्श आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक पहलुओं के साथ दर्ज हुआ है। ‘काम ही पूजा है’, ‘श्रम की गरिमा’, ‘कार्य उद्यम से सिद्ध होते हैं मनोरथ से नहीं’ जैसी सूक्तियाँ; महात्मा गांधी का ‘आजीविका श्रम’ (Bread Labour) का सिद्धांत, कार्ल मार्क्स की ‘सर्वहारा’ की अवधारणा, अतिरिक्त मूल्य तथा अलगाववाद के सिद्धांत, दुर्खीम का श्रम-विभाजन का सिद्धांत, मैक्स वेबर का प्रोटेस्टेंट आचार व पूँजीवाद की आत्मा का सिद्धांत तथा सनातन धर्म में ‘कर्म सिद्धांत’ का दर्शन आदि श्रम-विमर्श के मजबूत वैचारिक आधार रहे हैं। अर्थशास्त्रीय अध्ययन में आर्थिक वर्गों की जनांकीय व आर्थिक स्थिति का सापेक्ष व तुलनात्मक अध्ययन हुआ है। इसमें कृषि व गैर-कृषि, संगठित व असंगठित क्षेत्र तथा कुशल व अकुशल श्रम-शक्ति का सांख्यकीय अध्ययन बाज़ार की माँग व पूर्ति के संदर्भ में होता है। समाजशास्त्रीय अध्ययन में आयु, जेंडर, बेगार व बंधुआ मज़दूरी, स्तरीकृत संरचनाओं, संसाधनों पर स्वामित्व, वंचनाओं तथा शोषण आदि विषयों पर विश्लेषण किया गया है जबकि कविता तथा साहित्य की अन्य विधाओं में संवेदना, करुणा, सुहानुभूति एवं आत्मीयता से श्रमिकों की दयनीय स्थिति को अंकित कर समाज व उसकी व्यवस्थाओं से संवेदनशील होने की अपील हुई है। दूसरी ओर श्रम के महत्त्व व सौंदर्य पर भी सृजन हुआ है। कोविड-19 कि महाविपदा में मज़दूरों की स्थिति और विकट हुई है। उनकी दुर्दशा पर संवेदनशील समाज का ध्यान गया है। कवियों ने भी इसका नोटिस लिया है तथा उत्तरदायी व्यवस्था से प्रश्न पूछे हैं।
समकालीन हिंदी कविता में श्रम व श्रमिकों पर आधारित कविताओं की एक लंबी फेहरिस्त है। सुमित्रानंदन पंत की ‘मज़दूरनी के प्रति’, ‘कवि किसान’, ‘चरखा गीत’; बाल कृष्ण नवीन की ‘ओ मज़दूर’, ‘किसान उठो’; सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘तोड़ती पत्थर’; केदारनाथ अग्रवाल की ‘जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है’, ‘मज़दूर का जन्म’, ‘जो शिलाएँ तोड़ते हैं’, भवानी प्रसाद मिश्र की ‘श्रम की महिमा’ कविताएँ श्रमिकों के जीवन की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डालती हैं। समाज के लिए श्रम की महता का भी इनमें जीवंत वर्णन मिलता है-
कहता चरखा प्रजा तंत्र से :
‘सेवक पालक शोषित जन का,
भ्रम, भ्रम, भ्रम!’ ”7
श्रम व श्रमिकों की समस्याएँ केवल उनकी ही नही हैं, बल्कि वे समाज, देश, सम्पूर्ण विश्व व मानवता की समस्याएँ हैं। देश का उत्पादन व आय श्रम के बेहतर उपयोग से बढ़ते हैं, जिसके लिए श्रमिकों का स्वस्थ व कुशल होना अपरिहार्य है, उनका शोषण से मुक्त होना आवश्यक है। ऐसी मानवीय पूँजी ही लोकतंत्र के विकास में योगदान दे सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से ही उनका उद्धार भी हो सकता है। कविता का इस जागृति व सुधार के आह्वान व प्रेरणा में योगदान रहता है। वह दमित चेतना में आत्मविश्वास के प्राण फूँकती है-
ओ मज़दूर किसान, उठो,
ओ प्रचंड अभिमान, उठो।”8
कवि का आह्वान संवेदना स्फूर्त होता है। जीवन के पारदर्शी यथार्थ, जिन्हें नीति-निर्माता अनदेखा कर देता है, को वह मार्मिकता से स्पर्श करता है। वह जीवन की दुश्वारियों की विकल तस्वीर चित्रित कर मानव हृदय को द्रवित करता है। खासतौर पर स्त्री व बच्चों की रोज़ी-रोटी कमाने की मशक्कत उसे विचलित करती है। इसलिए वह समाज के बर्फ़ हुए हृदय को पिघलाने के लिए सृजन के सूरज कागज़ पर उकेरता है-
कमज़ोर सूत-सी नींद नहीं
जो अपने आप टूटती है
रोज़−रोज़ की दारुण विपत्तियाँ हैं
जो आँखें खोल देती हैं अचानक।”9
समकालीन कविता की इन प्रवृत्तियों के अनुरूप हिमाचल में रचा गया काव्य शोषण, वंचना, विषमता, संत्रास, संघर्ष, विरोध, प्रचार, दबाव, प्रतिनिधित्व, असहमति, दर्द, यातना, जिजीविषा आदि के यथार्थ को दर्ज़ करता है। यह ज़िम्मेदार व्यवस्थाओं के खिलाफ अपना स्वर मुखर करता है। हाशिए के आदमी को केंद्र में लाने की वकालत करता हुआ लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सजगता लाता है। स्त्री-स्वतन्त्रता, जातीय बंधनों से छुटकारा, पश्चिमी प्रभाव से मुक्त स्थानीय संस्कृति की चेतना, राजनीतिक जागृति जैसे समकालीन मुद्दों के साथ श्रम के मूल्य व श्रमिकों के अवदान की सराहना करता है, साथ ही उनकी बेहतरी के प्रश्न उठाता है। कवियों की एक बड़ी जमात मानवीय श्रम को कविता की संवेदना में पिरोती है। इस फेरहिस्त में कुमार कृष्ण की ‘पृथ्वी पर मज़दूर’, ‘भूख में मज़दूर’; तुलसी रमण की ‘शिमला’; श्रीनिवास श्रीकांत की ‘शिल्पी’, ‘देहात के लोग’, ‘कारीगर’; प्रफुल्ल कुमार परवेज़ की ‘नौकर’; यादवेंद्र शर्मा की ‘सबसे सुंदर लडकियाँ’, ‘ड्राइवर भाई’, ‘खुरदरे चेहरे’; सुरेश सेन निशांत की ‘काम पर लड़की’, ‘वे जो लकड़हारे नहीं हैं’, ‘उपले’, ‘पिता का गमछा’, ‘किसान’, ‘वह औरत’, ‘काग़ज के फूल बनाने वाली लड़की’, ‘पोंछा लगाना’; आत्मा रंजन की ‘कंकड़ छाँटती’, ‘पत्थर चिनाई करने वाले’,’ रंग पुताई करने वाले’, ‘बोलो जुल्फ़िया रे’, ‘ये हाथ’, ‘जो उठाए है आपका बोझ’, ‘सूर्य नमस्कार’, ‘दृश्य’, ‘महाविपद में उनका लौटना’, ‘झूम्ब’, ‘हूल’, ‘कुटुवा’, ‘ताज्जुब’, ‘आख़िरी दिनों में पिता’, ‘कुछ आवाज़ें’; मोहन साहिल की ‘हथौड़ा’; अजेय की ‘इन सपनों को कौन गाएगा’, ‘ब्यूनस की टहनियाँ’, ‘पहाड़ी खानाबदोशों के गीत’; ‘विक्रम मुसाफिर की ‘बाअदब’, ‘मज़दूर औरतें’; सत्यनारायण स्नेही की ‘पिता का लोइया’, ‘जो कहलाती है वो कुशल गृहिणी’; प्रदीप सैनी की ‘उनके तलुओं में दुनिया का मानचित्र है’, ‘दुःख का एक ताप होगा उनके भीतर’; हुकुम ठाकुर की ‘गड़रिया और कनावर’, ‘भूमिहीन’, ‘ऋण मेले में नमस्कार का टुकड़ा’; नवनीत शर्मा की ‘वे जो बज रहे हैं’; विजय विशाल की ‘चींटियाँ शोर नहीं करती’, कुलदीप शर्मा की ‘सिलाई मशीन’; दिनेश शर्मा की ‘बीड़ी’, ‘दादा की डायरी’, ‘छत की स्लेटें’; राजीव कुमार त्रिगर्ती की ‘स्लेट खान का मज़दूर’; मनोज कुमार की ‘पत्थर तोड़ती औरत’, ‘कबाड़ उठाती लडकियाँ’ कुछ उल्लेखनीय कविताएँ हैं। ये कविताएँ या तो पूर्ण रूप से श्रम को विषय बनाकर रची गयी हैं या फिर समग्र संवेदनाओं में श्रम को चिह्नित करती हैं। कुमार कृष्ण की कविताएँ लोक में राजनीतिक चेतना के प्राण फूँकती हैं, आत्मा रंजन और सुरेश सेन निशांत की कविताएँ श्रम के सामाजिक यथार्थ का बोध कराती हैं। इन कविताओं का केंद्रीय भाव और सौंदर्य श्रम की महिमा में ही उभरता है।
उन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स के लेखन से जो श्रमिक चेतना विकसित हुई, जिससे सम्पूर्ण विश्व में अपने अधिकारों के लिए मजदूरों के संगठन बने और समाजवादी विचारधारा का प्रसार हुआ, उसका किंचित प्रभाव यहाँ की कविता में भी सत्ता को प्रश्नांकित करने के लिए हुआ है। राजनीतिक व आर्थिक सत्ता मज़दूरों की बदहाली के लिए उत्तरदायी मानी गयी, साहित्य और संस्कृति की सत्ता उसके बरक्स खड़ी हुई-
राजा के लिए कुर्सी-सिंहासन बनाकर
पछताता है कारीगर
वह नहीं जानता था-
कटवा देगा उसके कुर्सी बनाने वाले हाथ।”10
“... the work he performs is extraneous to the worker, that is, it is not personal to him, is not part of his nature... feels miserable rather than content, cannot freely develop his physical and mental powers, but instead becomes physically exhausted and mentally debased.”11
हमने तुम्हारी भूख को देखा और अपनी भूख को याद किया
हमने कितनी ही रेसिपीज मंत्रों की तरह
खा-पी कर सोई हुई अपनी भूख के कान में फूँकी।”12
कोविड-19 की विपदा में ऐसी तसवीरें देखने को मिलीं, जिनमें एक तरफ भूख से लड़ते मज़दूर शहरों की काल-कोठरियों को छोड़कर भूखे पेट अपने घरों की ओर पलायन कर रहे थे तो दूसरी ओर सोशल मीडिया का बंधुआ मध्यम वर्ग ऑनलाइन खाने-पीने के नुस्ख़े सीख-सिखा रहा था। विपदा में मानवीय मूल्यों पर इस से बड़ी चोट और क्या हो सकती है! दूसरी ओर मज़दूरों ने अपना संयम बनाए रखा और शासकीय आदेशों की सविनय अवज्ञा करते हुए भूखे पेट लम्बी दूरियाँ तय कीं-
उमड़ता ये जन सैलाब न विरोध है न विद्रोह
तमाम आदेशों के प्रति मगर एक अस्वीकार है।”13
पलायन करते लोग कभी भी अपनी बदहाली के सवाल सत्ता से नहीं पूछ पाए। वे सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के लिए खुद को ही कारण मानते गए। जब उन्होंने सत्ता के आदेशों को अस्वीकार भी किया, तो उन्हें आन्दोलनजीवी की संज्ञा से नवाज़ा गया। कार्ल मार्क्स के ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ’ के आह्वान की मानिंद हिमाचल का कवि क्रांति का बिगुल नहीं बजाता, लेकिन हालात बदलने के लिए एकता के सूत्र का मंत्र अवश्य देता है। ऐसा वह कभी व्यंजना में करता है, तो कभी तीखे-तल्ख लहजे की सपाट भाषा में-
जब भी होते हैं तब्दील झाड़ू में
साफ़ हो जाते हैं घर
सड़कें, गली-मुहल्ले सभी कुछ
बहुत हैं आँगन भर लोग
ज़मीन की शक्ल बदलने को।”14
भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों की भाँति हिमाचल का समाज आज भी आर्थिक वर्गीय संस्तरण के अलावा जातीय स्तरीकरण में विभक्त है। वस्तु व सेवा विनिमय की पारम्परिक जातीय जजमानी व्यवस्था तो समाप्त हो गयी लेकिन जाति आधारित पेशे आज भी जिंदा हैं। केवल विनिमय का मुद्रीकरण हुआ है। बढ़ई, लोहार, सुनार, बजंतरी, भंगी आदि जातियाँ आज भी जातिगत व्यवसायों से आजीविका अर्जन कर रही हैं। जितने भी मंदिरों का जीर्णोद्धार हिमाचल के विभिन्न क्षेत्रों में किया गया है, उनमें यहाँ की बढई जाति का योगदान है जबकि मोहरे और पालकियों के निर्माण में सुनारों-लोहारों की मेहनत है। परंपरागत वाद्य-यंत्रों को आज भी यहाँ की ढाकी व तुरी जातियाँ बजा रही हैं। प्रदेश के विभिन्न शहरों व कस्बों में सफ़ाई का काम आज भी भंगी जाति के द्वारा किया जा रहा हैं। यह शिल्पी, कलाकार और कामगार दोहरे स्तरीकरण की मार झेलता हुआ आज भी सामाजिक स्तरीकरण के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है। ये भूमिहीन लोगों के वर्ग हैं, जो अपने कार्य-कौशल और शारीरिक बल से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और हस्तांतरण का भार भी इन्हीं के कंधों पर है। इसी आशय में ‘वे जो बज रहे हैं’ कविता में नवनीत शर्मा लिखते हैं-
प्राणों समेत
फूँक भरते हुए
हावी हो गया है
तुरही पर
आखिर इसी से चलेंगे
रुकेंगे, बैठेंगे, लौटेंगे इसी से।”15
हिमाचल प्रदेश में लगभग 5500 करोड़ रुपये की बागवानी की अर्थव्यवस्था है। इसी तरह बे-मौसमी सब्जियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। कृषि-बागवानी के इन दोनों क्षेत्रों के अलावा निर्माण उद्योग तथा विनिर्माण उद्योगों में असंख्य प्रवासी मज़दूर यहाँ काम करते हैं। ये मज़दूर मुख्यतः नेपाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड व छत्तीसगढ़ से आते हैं, शारीरिक श्रम से अपनी रोज़ी कमा रहे हैं तथा घुमंतू जीवन जीते हैं। इनकी यत्र–तत्र चिंता यहाँ की कविता में हुई है, हालांकि यह नाकाफी जान पडती है। 'वे दस जन' कविता में कवि सुरेश सेन निशांत ने पहाड़ों पर रोज़ी कमाने आए मजदूरों की बेबसी और दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया है। असंख्य प्रवासी मज़दूर यहाँ सड़क निर्माण और पन-विद्युत परियोजनाओं में काम करते हुए अपनी जान गवाँ चुके हैं। कभी-कभी तो उनकी मौत की सूचना तक उनके परिवारजनों को नहीं मिल पाती। नेपाली मज़दूर सेब बागवानी की रीढ़ हैं, किन्तु उनके दुःख-दर्द और परेशानी का जिक्र बागवान कवियों की कविताओं से भी नदारद है। कुमार कृष्ण की कविता ‘तवा’ में संथाल परगना से आए मजदूरों का वर्णन देखिए-
हो गया है तवा काला-कलूटा संथाली मज़दूर।”16
हिमाचल प्रदेश के दुर्गम जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जीवंतता भी यहाँ की कविता में दर्ज हुई है। यहाँ पर भेड़-बकरी तथा पशु पालने वाले घुमंतू लोग अपना जीवन बसर कर रहे हैं। चंबा जिले के भरमौर व पांगी में ‘गद्दी’ तथा किन्नौर जिले में ‘नेगी’ या ‘कनावरे’ नामों से सम्बोधित जनजातियाँ तथा लाहौल जिले की ‘लाहोला’, ‘भोट’ व ‘स्वाँगला’ आदि जनजातियाँ भेड़-बकरी पालन से अपना गुज़र-बसर करती हैं। इसी तरह मंडी-बिलासपुर आदि जिलों में रहने वाली ‘गुज्जर’ जनजाति भी पशुपालन करती है तथा घुमंतू जीवन बसर करती है। हालांकि समय के साथ कृषि, बागवानी तथा सरकारी सेवा में भी इन जनजातियों की सहभागिता बढ़ी है। 2011 की जनगणना के अनुसार इन जनजातियों की कुल जनसंख्या 3,92,126 है, जो प्रदेश की जनसंख्या का 5.7 प्रतिशत है। हिमाचल की समकालीन हिंदी कविता में इन श्रमशील जनजातियों की मेहनत और संस्कृति दर्ज हुई है। लाहौल के कवि अजेय की कविता ‘पहाड़ी खानाबदोशों के गीत’ में घुमंतू लोगों के जीवन की बानगी ध्यातव्य है-
बाँध लिया है अपना डेरा-डफेरा
होंने ही वाला है सवेरा
हाँक दिया है अपना रेवड़ हमने पथरीली फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठण्डी रात थी
अब जल्दी ही बीत जाएगी
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे!”17
ये जनजातियाँ हिमालय की मध्य और बाह्य चोटियों में रहती हैं, जो वर्ष के अधिकतर समय में बर्फ से ढकी रहती हैं। पतझड़ के आरंभ से ही ये लोग अपने रेवड़ के साथ निचले क्षेत्रों के लिए प्रस्थान करते हैं और विस्थापित जीवन बसर करते हैं। इनका घर इनकी पीठ पर रहता हैं और सपने आँखों में। ये लोग नदी की तरह निरन्तर चलते हैं और जानलेवा दर्रों को हौसलों की लाठी टेककर पार करते हैं। अनुभवों से भरी कविताएँ इनकी जेबों में ठूँसी रहती हैं-
जिस की भेड़ें एक-एक कर के गुम हो रही हैं
सपने मे कोई राजा नहीं है
जहाँ गुहार लगाई जा सके
वो सारे के सारे कसाई उस के पहचाने हुए हैं
जिन्होंने उस का माल चुराया है
जो आस्तीनों में चापड़ और तेग छिपाए हैं
और ताक़त की तरह खड़ा रहता उन के पीछे
पूरा एक बाज़ार ...”18
जीवन के समूचे स्वाद में से
कंकड़ बीनता हुआ।”19
जा रही काम पर
फिल्लियों में है उदास थकान
आँखों में टूटी हुई नींद
सपने तैरते हुए।”20
कागज़ के फूल बनाते हैं
वे सब जन
छोटी-सी पाँच बरस की बच्ची भी
फूल बनाने में माहिर
यही है उसका खेल।”21
ठेकेदार जब रोब झाड़ता है
सहम जाती हैं वे
ठेकेदार जब मुस्कराता है।”22
काले हैं बदरंग तो क्या
खुरदरे और सख्त /ये हाथ
तमाम सौंदर्य के सर्जक हैं।”23
किसी निठल्ले की देह मुद्रा से
ज्यादा सुन्दर लग रही है
धान रोपती औरत की देह मुद्रा।”24
कर्मठ गा रहा अपनी भाषा में
एक मधुर लोकगीत
फूलों के मौसम का
करुणा से भरा।”25
व्यावसायिक भिखारियों के कबीले
शिल्पी, बुनकर, चर्मकार
दर्जी, ठठेरे, राजगीर.....इत्यादि।”26
दराती पर चलते हाथों का साथ
यूँ झूम्ब ने चुना हमेशा
कर्मशील हाथों का साथ !”27
उंगलियों पर पड़े छाले
साबित करते थे
उनका पिता होना ×××
एक जीवंत दस्तावेज
मेहनत व उत्तरदायित्व का।”28