शोध आलेख : हिमाचल की समकालीन हिंदी कविता में श्रम : समाजशास्त्रीय पाठ / दिनेश शर्मा

हिमाचल की समकालीन हिंदी कविता में श्रम : समाजशास्त्रीय पाठ

- दिनेश शर्मा


शोध सार : श्रम मानवीय जीवंतता का ऐतिहासिक सांस्कृतिक दस्तावेज़ है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काम सीखना और निरंतर श्रम से उसे करते जाना होमोसेपियंस की जीवन यात्रा का प्रारंभ बिंदु माना जा सकता है। तकनीकी युग के संचार क्रांति पड़ाव में भी श्रम की महत्ता बराबर बनी हुई है। दुनिया के लगभग 3.4 अरब श्रमिक आज भी सभ्यता के भार को अपने कंधे पर उठाए हैं। कृषि, उद्योग, व्यापार, सेवा आदि सभी क्षेत्रों के कार्यों का निष्पादन श्रमिकों के सहयोग के बिना संभव नहीं है। लेकिन हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद उन्हें दो वक़्त की रोटी मयस्सर नहीं है। 2023 में भारत सरकार अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त भोजन देने का दावा कर रही है। कमोबेश दुनिया के अधिकांश हिस्से में यही दुरवस्था है। प्रस्तुत पत्र हिमाचल प्रदेश में श्रम और श्रमिकों की यथार्थ स्थिति और समकालीन कविता में उसके दर्ज होने की समाजशास्त्रीय पड़ताल करता है। इसमें श्रम के विभिन्न स्वरूपों श्रमिकों की स्थितियों का विवेचन किया गया है। प्रकार्यवादी संघर्षवादी परिप्रेक्ष्य से कविता का पाठ कर कवियों के मन को टटोला गया है।

बीज शब्द : श्रम, समकालीन कविता, सांस्कृतिक विरासत, प्रकार्यवाद, संघर्षवाद, जनजाति, जाति, स्त्री-श्रम, बालश्रम।

मूल आलेख :

पता नहीं कितना अंधकार था मुझमें
मैं सारी उम्र चमकने की कोशिश में बीत गया।1
 

श्रम मानव जीवन का आधार है। यह व्यक्ति के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य, आर्थिक उपादेय से लेकर राष्ट्र निर्माण सम्पूर्ण मानवीय अस्तित्व का मूल रहा है। कोई भी तकनीक या यंत्र श्रम का विकल्प नहीं हो सकता। मशीनों के निर्माण और इस्तेमाल में भी श्रम का योगदान रहता है। मनुष्य की उत्तरजीविता, आराम, विलासिता तथा ऐश्वर्य के तमाम उपादानों में श्रम का निवेश हुआ है। कोई भी संस्था, कार्य या सामाजिक-आर्थिक संरचना श्रम के अंशदान के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। वर्तमान वैश्विक समाज में भी श्रम की गतिशीलता तथा श्रमिकों का जीवन महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक मुद्दे हैं। इन्हीं के फलस्वरूप अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ तथा विश्व के सभी देशों की सरकारों में श्रम-मंत्रालय कार्यरत हैं। इन्हीं मुद्दों के फलीभूत समाजवादी विचारधारा का प्रादुर्भाव, विकास प्रसार हुआ तथा रूस की क्रांति अनेक श्रमिक आंदोलन दुनिया के विभिन्न देशों में खड़े हुए। तमाम संघर्षों, आंदोलनों, संस्थागत उपायों, नीतियों विधानों के बावजूद श्रमिकों की समस्याएँ आज भी यथावत बनी हुई हैं। श्रमिकों धनाढ्यों के बीच दूरियाँ बढ़ी हैं, श्रमिकों की संख्या दुःख भी बढ़े हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, प्रतिव्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा आदि सूचकांकों में श्रमिक धरातल पर ही हैं। समूचे विश्व के भारत जैसे अतिजनसंख्या वाले देशों में, जहाँ लोगों का बड़ा हिस्सा श्रम से आजीविका अर्जित करता है, श्रम और श्रमिकों के प्रति संवेदनशीलता की अधिक आवश्यकता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 2022 में भारतवर्ष में श्रम से रोज़ी कमाने वाले लोगों की संख्या 52,38,39,158 है।2  आँकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में इस संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। इनमें से अधिकतर लोग असंगठित क्षेत्र में रोज़ी कमाते हैं जहाँ आय और रोज़गार की अनिश्चितता है। नीति आयोग की मार्च 2022 की वर्कफोर्स चेंजेज़ एंड एम्प्लॉयमेंट रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कृषि, विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्र में क्रमशः 45.6, 23.7 तथा 30.8 फ़ीसदी श्रम-शक्ति कार्यरत है जिसका तात्पर्य है कि हम विकासशील अर्थव्यवस्था हैं। कृषि क्षेत्र में छिपी हुई तथा मौसमी बेरोज़गारी रहती है, जिसका प्रभाव आय जीवन स्तर पर पड़ता है। उतर-कोविड काल की बढ़ती बेरोज़गारी और आसमान चूमती महँगाई की स्थितियों ने श्रमजीवी लोगों के जीवन को और भी दुष्कर बना दिया है। इसलिए सुदामा पांडे धूमिल का प्रश्न रह जाता है कि पसीने से खुद को सारी उम्र चमकाने वाला अंततः क्योंकर बीत जाता है?

            कविता बेहतर दुनिया का स्वप्न है। निराला ने लिखा है- 'गहन है यह अँधकार'... कवि हमेशा अपने को एक प्रकार के बंधन में पाता है। वह अपने शब्दों से अंधकार की जड़ता की दीवार को तोड़ना चाहता है, एक बेहतर दुनिया का सपना देखता है। मुक्तिबोध ने कहा है-जो है उससे बेहतर चाहिए' एक बेहतर कविता एक बेहतर दुनिया का विकल्प प्रस्तुत करती है।"3 विभिन्न विषयों विधाओं के विद्वान, अध्येता, कलाकार, सृजनकर्ता आदि भी बेहतर दुनिया का ही स्वप्न देखते हैं। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों सम्मेलनों का प्रयोजन भी वही है। अर्थशास्त्री इस ध्येय की प्राप्ति के लिए संसाधनों की पड़ताल करता है, आँकड़ों की टोकरी भरता है, नियोजन करता है; राजनीतिज्ञ नीतियों का निर्माण करता है; समाजशास्त्री संबंधों के जाल के हरेक रेशे से गुजरता है, जबकि कवि संवेदना के स्पर्श से दुखती देह टूटते मन को मरहम लगाता है।

        जीवन के विविध पहलुओं से गुज़रता हुआ समकालीन समाज का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक साहित्यिक चिंतन विशेषीकृत होता गया है। विभिन्न मुद्दों, पक्षों पहलुओं पर आज के समय में विस्तार गहनता से विवेचन हुआ है। इसे विमर्श की संज्ञा दी गयी है। इसमें नारी, दलित आदिवासी विमर्श; सांस्कृतिक-ऐतिहासिक बोध, नस्लवादी आलोचना, आधुनिकवाद, उत्तराधुनिकवाद, वैश्वीकरण, बाज़ारवाद, राष्ट्रवाद आदि विमर्श धाराएँ विकसित हुई हैं। समकालीन हिंदी कविता इन विमर्शों से अछूती नहीं रही। वह अपने समय की जाति, लिंग, नस्ल, वर्ग आदि पर आधारित वंचनाओं, विसंगतियों, दुश्वारियों को आँकती गयी तथा बेहतर दुनिया की सृष्टि के लिए स्वप्न देखती गयी। समकालीन कविता शास्त्रीय रचनाकर्म पर विश्वास नहीं करती बल्कि अपने समाज की खामियों, विडंबनाओं, संत्रास दुर्बलताओं को दर्ज करती है तथा उनके निराकरण के लिए उत्तरदायी व्यवस्था से प्रश्न करती है, सत्ता उसकी वैधता को कटघरे में खड़ा करती है। डॉ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय लिखते है, “समकालीन कविता अपने समय के मुख्य अंतर्विरोधों और द्वंद्वों की कविता है। समकालीन कविता में जो हो रहा है’ (बिकमिंग) का सीधा खुलासा है। इसे पढ़कर वर्तमान काल का बोध हो सकता है क्योंकि इसमें जीते, संघर्ष करते, लड़ते, बौखलाते, तड़पते, गरजते तथा ठोकर खाकर सोचते हुए वास्तविक आदमी का परिदृश्य है।4 यह कविता मनुष्य और मनुष्यता को चिंतन के केंद्र में लाती है; शहर, बाज़ार और पूँजी के कारण बौने हुए मानव को यथा स्थान देने की पुरज़ोर पैरवी करती है। यह कार्य वह यथार्थ के धरातल पर करती है, समय के घटनाचक्र और उसके कारणों को स्पष्ट करते हुए। इसी आशय में धूमिल लिखते है-

"एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।"5 

            यह कविता पारम्परिक मूल्य, विचारधारा वाद से मुक्त होकर संवेदना और सहानुभूति की भावभूमि में जीवन का बचाव करती है। इसमें जनतांत्रिक मूल्यों- जिसमें समानता, स्वतन्त्रता भ्रातृभाव की गहनता रहती है, का संचार है। सामाजिक यथार्थ, सपाटबयानी के साथ राजनीति एवं व्यंग्य इसके महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। इस काव्यधारा का लक्ष्य आम आदमी और समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करना है।"6

         लम्बे समय से अध्ययन के विभिन्न विषयों तथा साहित्य की विविध विधाओं में श्रम-विमर्श आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक सांस्कृतिक पहलुओं के साथ दर्ज हुआ है। काम ही पूजा है, श्रम की गरिमा, कार्य उद्यम से सिद्ध होते हैं मनोरथ से नहीं जैसी सूक्तियाँ; महात्मा गांधी काआजीविका श्रम’ (Bread Labour) का सिद्धांत, कार्ल मार्क्स कीसर्वहाराकी अवधारणा, अतिरिक्त मूल्य तथा अलगाववाद के सिद्धांत, दुर्खीम का श्रम-विभाजन का सिद्धांत, मैक्स वेबर का प्रोटेस्टेंट आचार पूँजीवाद की आत्मा का सिद्धांत तथा सनातन धर्म मेंकर्म सिद्धांतका दर्शन आदि श्रम-विमर्श के मजबूत वैचारिक आधार रहे हैं। अर्थशास्त्रीय अध्ययन में आर्थिक वर्गों की जनांकीय आर्थिक स्थिति का सापेक्ष तुलनात्मक अध्ययन हुआ है। इसमें कृषि गैर-कृषि, संगठित असंगठित क्षेत्र तथा कुशल अकुशल श्रम-शक्ति का सांख्यकीय अध्ययन बाज़ार की माँग पूर्ति के संदर्भ में होता है। समाजशास्त्रीय अध्ययन में आयु, जेंडर, बेगार बंधुआ मज़दूरी, स्तरीकृत संरचनाओं, संसाधनों पर स्वामित्व, वंचनाओं तथा शोषण आदि विषयों पर विश्लेषण किया गया है जबकि कविता तथा साहित्य की अन्य विधाओं में संवेदना, करुणा, सुहानुभूति एवं आत्मीयता से श्रमिकों की दयनीय स्थिति को अंकित कर समाज उसकी व्यवस्थाओं से संवेदनशील होने की अपील हुई है। दूसरी ओर श्रम के महत्त्व सौंदर्य पर भी सृजन हुआ है। कोविड-19 कि महाविपदा में मज़दूरों की स्थिति और विकट हुई है। उनकी दुर्दशा पर संवेदनशील समाज का ध्यान गया है। कवियों ने भी इसका नोटिस लिया है तथा उत्तरदायी व्यवस्था से प्रश्न पूछे हैं।

            समकालीन हिंदी कविता में श्रम श्रमिकों पर आधारित कविताओं की एक लंबी फेहरिस्त है। सुमित्रानंदन पंत की मज़दूरनी के प्रति, कवि किसान, चरखा गीत; बाल कृष्ण नवीन की मज़दूर, किसान उठो; सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की तोड़ती पत्थर; केदारनाथ अग्रवाल की जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है’, मज़दूर का जन्म, जो शिलाएँ तोड़ते हैं, भवानी प्रसाद मिश्र की श्रम की महिमा कविताएँ श्रमिकों के जीवन की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डालती हैं। समाज के लिए श्रम की महता का भी इनमें जीवंत वर्णन मिलता है-

भ्रम, भ्रम, भ्रम,-
कहता चरखा प्रजा तंत्र से :
मैं कामद हूँ सभी मंत्र से;
कहता हँस आधुनिक यंत्र से :
नम, नम, नम!
सेवक पालक शोषित जन का,
रक्षक मैं स्वदेश के धन का,
कातो हे, काटो तन मन का
भ्रम, भ्रम, भ्रम!’ ”7

            श्रम श्रमिकों की समस्याएँ केवल उनकी ही नही हैं, बल्कि वे समाज, देश, सम्पूर्ण विश्व मानवता की  समस्याएँ हैं। देश का उत्पादन आय श्रम के बेहतर उपयोग से बढ़ते हैं, जिसके लिए श्रमिकों का स्वस्थ कुशल होना अपरिहार्य है, उनका शोषण से मुक्त होना आवश्यक है। ऐसी मानवीय पूँजी ही लोकतंत्र के विकास में योगदान दे सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से ही उनका उद्धार भी हो सकता है। कविता का इस जागृति सुधार के आह्वान प्रेरणा में योगदान रहता है। वह दमित चेतना में आत्मविश्वास के प्राण फूँकती है-

उठो, उठो नंगो भूखों
मज़दूर किसान, उठो,
इस गतिमय मानव-समूह के
प्रचंड अभिमान, उठो।8 

            कवि का आह्वान संवेदना स्फूर्त होता है। जीवन के पारदर्शी यथार्थ, जिन्हें नीति-निर्माता अनदेखा कर देता है, को वह मार्मिकता से स्पर्श करता है। वह जीवन की दुश्वारियों की विकल तस्वीर चित्रित कर मानव हृदय को द्रवित करता है। खासतौर पर स्त्री बच्चों की रोज़ी-रोटी कमाने की मशक्कत उसे विचलित करती है। इसलिए वह समाज के बर्फ़ हुए हृदय को पिघलाने के लिए सृजन के सूरज कागज़ पर उकेरता है-

यह कच्ची
कमज़ोर सूत-सी नींद नहीं
जो अपने आप टूटती है
रोज़रोज़ की दारुण विपत्तियाँ हैं
जो आँखें खोल देती हैं अचानक।9 

           समकालीन कविता की इन प्रवृत्तियों के अनुरूप हिमाचल में रचा गया काव्य शोषण, वंचना, विषमता, संत्रास, संघर्ष, विरोध, प्रचार, दबाव, प्रतिनिधित्व, असहमति, दर्द, यातना, जिजीविषा आदि के यथार्थ को दर्ज़ करता है। यह ज़िम्मेदार व्यवस्थाओं के खिलाफ अपना स्वर मुखर करता है। हाशिए के आदमी को केंद्र में लाने की वकालत करता हुआ लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सजगता लाता है। स्त्री-स्वतन्त्रता, जातीय बंधनों से छुटकारा, पश्चिमी प्रभाव से मुक्त स्थानीय संस्कृति की चेतना, राजनीतिक जागृति जैसे समकालीन मुद्दों के साथ श्रम के मूल्य श्रमिकों के अवदान की सराहना करता है, साथ ही उनकी बेहतरी के प्रश्न उठाता है। कवियों की एक बड़ी जमात मानवीय श्रम को कविता की संवेदना में पिरोती है। इस फेरहिस्त में कुमार कृष्ण कीपृथ्वी पर मज़दूर’, ‘भूख में मज़दूर’; तुलसी रमण कीशिमला’; श्रीनिवास श्रीकांत कीशिल्पी’, ‘देहात के लोग’, ‘कारीगर’; प्रफुल्ल कुमार परवेज़ कीनौकर’; यादवेंद्र शर्मा कीसबसे सुंदर लडकियाँ’, ‘ड्राइवर भाई’, ‘खुरदरे चेहरे’; सुरेश सेन निशांत कीकाम पर लड़की’, ‘वे जो लकड़हारे नहीं हैं’, ‘उपले’, ‘पिता का गमछा’, ‘किसान’, ‘वह औरत’, ‘काग़ज के फूल बनाने वाली लड़की’, ‘पोंछा लगाना’; आत्मा रंजन कीकंकड़ छाँटती’, ‘पत्थर चिनाई करने वाले’,’ रंग पुताई करने वाले’, ‘बोलो जुल्फ़िया रे’, ‘ये हाथ’, ‘जो उठाए है आपका बोझ’, ‘सूर्य नमस्कार’, ‘दृश्य’, ‘महाविपद में उनका लौटना’, ‘झूम्ब’, ‘हूल’, ‘कुटुवा’, ‘ताज्जुब’, ‘आख़िरी दिनों में पिता’, ‘कुछ आवाज़ें’; मोहन साहिल कीहथौड़ा’; अजेय कीइन सपनों को कौन गाएगा’, ‘ब्यूनस की टहनियाँ’, ‘पहाड़ी खानाबदोशों के गीत’; ‘विक्रम मुसाफिर कीबाअदब’, ‘मज़दूर औरतें’; सत्यनारायण स्नेही कीपिता का लोइया’, ‘जो कहलाती है वो कुशल गृहिणी’; प्रदीप सैनी कीउनके तलुओं में दुनिया का मानचित्र है’, दुःख का एक ताप होगा उनके भीतर’; हुकुम ठाकुर कीगड़रिया और कनावर’, ‘भूमिहीन’, ‘ऋण मेले में नमस्कार का टुकड़ा’; नवनीत शर्मा कीवे जो बज रहे हैं’; विजय विशाल कीचींटियाँ शोर नहीं करती’, कुलदीप शर्मा कीसिलाई मशीन’; दिनेश शर्मा कीबीड़ी’, ‘दादा की डायरी’, ‘छत की स्लेटें’; राजीव कुमार त्रिगर्ती कीस्लेट खान का मज़दूर’; मनोज कुमार कीपत्थर तोड़ती औरत’, ‘कबाड़ उठाती लडकियाँकुछ उल्लेखनीय कविताएँ हैं। ये कविताएँ या तो पूर्ण रूप से श्रम को विषय बनाकर रची गयी हैं या फिर समग्र संवेदनाओं में श्रम को चिह्नित करती हैं। कुमार कृष्ण की कविताएँ लोक में राजनीतिक चेतना के प्राण फूँकती हैं, आत्मा रंजन और सुरेश सेन निशांत की कविताएँ श्रम के सामाजिक यथार्थ का बोध कराती हैं। इन कविताओं का केंद्रीय भाव और सौंदर्य श्रम की महिमा में ही उभरता है।

            उन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स के लेखन से जो श्रमिक चेतना विकसित हुई, जिससे सम्पूर्ण विश्व में अपने अधिकारों के लिए मजदूरों के संगठन बने और समाजवादी विचारधारा का प्रसार हुआ, उसका किंचित प्रभाव यहाँ की कविता में भी सत्ता को प्रश्नांकित करने के लिए हुआ है। राजनीतिक आर्थिक सत्ता मज़दूरों की बदहाली के लिए उत्तरदायी मानी गयी, साहित्य और संस्कृति की सत्ता उसके बरक्स खड़ी हुई-

अपने लिए स्टूल
राजा के लिए कुर्सी-सिंहासन बनाकर
पछताता है कारीगर
वह नहीं जानता था-
सिंहासन पर बैठ कर राजा
कटवा देगा उसके कुर्सी बनाने वाले हाथ।10 

            “... the work he performs is extraneous to the worker, that is, it is not personal to him, is not part of his nature... feels miserable rather than content, cannot freely develop his physical and mental powers, but instead becomes physically exhausted and mentally debased.”11

             शासन व्यवस्था कोई भी हो- मज़दूर, किसान, कारीगर की मेहनत शासक को ताक़त देती है और शासक अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए उन्हें कमज़ोर करता है। मार्क्स के मत में, जब पूँजी और सत्ता का गठजोड़ होता है तो मज़दूर का उसके काम से अलगाव हो जाता है, उसका काम ही उसको नियंत्रित करने वाली ताकत बन जाती है। सामंतवाद तो सामाजिक विषमता और संस्तरण पर आधारित था ही, आज के लोकतांत्रिक शासन में भी राजनीतिक व्यवस्थाएँ सरमायेदारों के साथ मौन गठबंधन रखती हैं। यह चुनावी राजनीति हालांकि संख्या बल पर आधारित है लेकिन धन, बल और छल से आम श्रमजीवी लोगों, जो संख्या में उसके नियंताओं से अधिक ही होते हैं, पर अपना कब्ज़ा कर लेती है। अल्पविकसित राष्ट्रों में जहाँ शिक्षा का स्तर निम्न होता हैं; आम जनमानस पर अज्ञानता और अंधविश्वास पैठ बनाए रहते हैं, वहाँ धर्म का इस्तेमाल कामगारों को अभाव और कष्टों की अपनी नियति में विश्वास करने के लिए किया जाता है। आम आदमी भी धीरे-धीरे बेसुध होकर स्वार्थ के अपने कोष्ठकों तक सीमित रह जाता है। फलतः दूसरों के दुःख और दर्द के प्रति वह असंवेदनशील रहता है। कवि ऐसी स्थितियों को कविता में दर्ज करता है-

हमारे गोदाम अनाज से भरे थे और दिल बेशर्मी से
हमने तुम्हारी भूख को देखा और अपनी भूख को याद किया
हमने कितनी ही रेसिपीज मंत्रों की तरह
खा-पी कर सोई हुई अपनी भूख के कान में फूँकी।12 

            कोविड-19 की विपदा में ऐसी तसवीरें देखने को मिलीं, जिनमें एक तरफ भूख से लड़ते मज़दूर शहरों की काल-कोठरियों को छोड़कर भूखे पेट अपने घरों की ओर पलायन कर रहे थे तो दूसरी ओर सोशल मीडिया का बंधुआ मध्यम वर्ग ऑनलाइन खाने-पीने के नुस्ख़े सीख-सिखा रहा था। विपदा में मानवीय मूल्यों पर इस से बड़ी चोट और क्या हो सकती है! दूसरी ओर मज़दूरों ने अपना संयम बनाए रखा और शासकीय आदेशों की सविनय अवज्ञा करते हुए भूखे पेट लम्बी दूरियाँ तय कीं-

घबराइए नहीं राजन
उमड़ता ये जन सैलाब विरोध है विद्रोह
तमाम आदेशों के प्रति मगर एक अस्वीकार है।13

            पलायन करते लोग कभी भी अपनी बदहाली के सवाल सत्ता से नहीं पूछ पाए। वे सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के लिए खुद को ही कारण मानते गए। जब उन्होंने सत्ता के आदेशों को अस्वीकार भी किया, तो उन्हें आन्दोलनजीवी की संज्ञा से नवाज़ा गया। कार्ल मार्क्स के दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओके आह्वान की मानिंद हिमाचल का कवि क्रांति का बिगुल नहीं बजाता, लेकिन हालात बदलने के लिए एकता के सूत्र का मंत्र अवश्य देता है। ऐसा वह कभी व्यंजना में करता है, तो कभी तीखे-तल्ख लहजे की सपाट भाषा में-

मुट्ठी भर तिनके
जब भी होते हैं तब्दील झाड़ू में
साफ़ हो जाते हैं घर
सड़कें, गली-मुहल्ले सभी कुछ
बहुत हैं आँगन भर लोग
ज़मीन की शक्ल बदलने को।14 

            भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों की भाँति हिमाचल का समाज आज भी आर्थिक वर्गीय संस्तरण के अलावा जातीय स्तरीकरण में विभक्त है। वस्तु सेवा विनिमय की पारम्परिक जातीय जजमानी व्यवस्था तो समाप्त हो गयी लेकिन जाति आधारित पेशे आज भी जिंदा हैं। केवल विनिमय का मुद्रीकरण हुआ है। बढ़ई, लोहार, सुनार, बजंतरी, भंगी आदि जातियाँ आज भी जातिगत व्यवसायों से आजीविका अर्जन कर रही हैं। जितने भी मंदिरों का जीर्णोद्धार हिमाचल के विभिन्न क्षेत्रों में किया गया है, उनमें यहाँ की बढई जाति का योगदान है जबकि मोहरे और पालकियों के निर्माण में सुनारों-लोहारों की मेहनत है। परंपरागत वाद्य-यंत्रों को आज भी यहाँ की ढाकी तुरी जातियाँ बजा रही हैं। प्रदेश के विभिन्न शहरों कस्बों में सफ़ाई का काम आज भी भंगी जाति के द्वारा किया जा रहा हैं। यह शिल्पी, कलाकार और कामगार दोहरे स्तरीकरण की मार झेलता हुआ आज भी सामाजिक स्तरीकरण के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है। ये भूमिहीन लोगों के वर्ग हैं, जो अपने कार्य-कौशल और शारीरिक बल से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और हस्तांतरण का भार भी इन्हीं के कंधों पर है। इसी आशय मेंवे जो बज रहे हैंकविता में नवनीत शर्मा लिखते हैं-

एक पूरे का पूरा जैसी राम
प्राणों समेत
फूँक भरते हुए
हावी हो गया है
तुरही पर
आखिर इसी से चलेंगे
रुकेंगे, बैठेंगे, लौटेंगे इसी से।15 

            हिमाचल प्रदेश में लगभग 5500 करोड़ रुपये की बागवानी की अर्थव्यवस्था है। इसी तरह बे-मौसमी सब्जियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। कृषि-बागवानी के इन दोनों क्षेत्रों के अलावा निर्माण उद्योग तथा विनिर्माण उद्योगों में असंख्य प्रवासी मज़दूर यहाँ काम करते हैं। ये मज़दूर मुख्यतः नेपाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड छत्तीसगढ़ से आते हैं, शारीरिक श्रम से अपनी रोज़ी कमा रहे हैं तथा घुमंतू जीवन जीते हैं। इनकी यत्रतत्र चिंता यहाँ की कविता में हुई है, हालांकि यह नाकाफी जान पडती है। 'वे दस जन' कविता में कवि सुरेश सेन निशांत ने पहाड़ों पर रोज़ी कमाने आए मजदूरों की बेबसी और दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया है। असंख्य प्रवासी मज़दूर यहाँ सड़क निर्माण और पन-विद्युत परियोजनाओं में काम करते हुए अपनी जान गवाँ चुके हैं। कभी-कभी तो उनकी मौत की सूचना तक उनके परिवारजनों को नहीं मिल पाती। नेपाली मज़दूर सेब बागवानी की रीढ़ हैं, किन्तु उनके दुःख-दर्द और परेशानी का जिक्र बागवान कवियों की कविताओं से भी नदारद है। कुमार कृष्ण की कवितातवामें संथाल परगना से आए मजदूरों का वर्णन देखिए-

जल-जल कर, तप-तप कर
हो गया है तवा काला-कलूटा संथाली मज़दूर।16 

            हिमाचल प्रदेश के दुर्गम जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जीवंतता भी यहाँ की कविता में दर्ज हुई है। यहाँ पर भेड़-बकरी तथा पशु पालने वाले घुमंतू लोग अपना जीवन बसर कर रहे हैं। चंबा जिले के भरमौर पांगी में गद्दी तथा किन्नौर जिले में नेगी या कनावरे नामों से सम्बोधित जनजातियाँ तथा लाहौल जिले की लाहोला, भोट स्वाँगला आदि जनजातियाँ भेड़-बकरी पालन से अपना गुज़र-बसर करती हैं। इसी तरह मंडी-बिलासपुर आदि जिलों में रहने वाली गुज्जर जनजाति भी पशुपालन करती है तथा घुमंतू जीवन बसर करती है। हालांकि समय के साथ कृषि, बागवानी तथा सरकारी सेवा में भी इन जनजातियों की सहभागिता बढ़ी है। 2011 की जनगणना के अनुसार इन जनजातियों की कुल जनसंख्या 3,92,126 है, जो प्रदेश की जनसंख्या का 5.7 प्रतिशत है। हिमाचल की समकालीन हिंदी कविता में इन श्रमशील जनजातियों की मेहनत और संस्कृति दर्ज हुई है। लाहौल के कवि अजेय की कवितापहाड़ी खानाबदोशों के गीतमें घुमंतू लोगों के जीवन की बानगी ध्यातव्य है-

अलविदा पतझड!
बाँध लिया है अपना डेरा-डफेरा
होंने ही वाला है सवेरा
हाँक दिया है अपना रेवड़ हमने पथरीली फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठण्डी रात थी
अब जल्दी ही बीत जाएगी
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे!”17 

            ये जनजातियाँ हिमालय की मध्य और बाह्य चोटियों में रहती हैं, जो वर्ष के अधिकतर समय में बर्फ से ढकी रहती हैं। पतझड़ के आरंभ से ही ये लोग अपने रेवड़ के साथ निचले क्षेत्रों के लिए प्रस्थान करते हैं और विस्थापित जीवन बसर करते हैं। इनका घर इनकी पीठ पर रहता हैं और सपने आँखों में। ये लोग नदी की तरह निरन्तर चलते हैं और जानलेवा दर्रों को हौसलों की लाठी टेककर पार करते हैं। अनुभवों से भरी कविताएँ इनकी जेबों में ठूँसी रहती हैं-

एकगद्दीदिखता है बदहवास
जिस की भेड़ें एक-एक कर के गुम हो रही हैं
सपने मे कोई राजा नहीं है
जहाँ गुहार लगाई जा सके
वो सारे के सारे कसाई उस के पहचाने हुए हैं
जिन्होंने उस का माल चुराया है
जो आस्तीनों में चापड़ और तेग छिपाए हैं
और ताक़त की तरह खड़ा रहता उन के पीछे
पूरा एक बाज़ार ...”18 

            गद्दी मुस्तैद होकर अपना काम करता है, लेकिन उसके श्रम पर कसाई और हिंसक जानवर की आँख रहती है। कवि गद्दी की संवेदना के धरातल पर उतरकर उसकी मेहनत के गीत गाना चाहता है, उसकी दुश्वारियों उसके सपनों की गूँज-अनुगूँज पहाड़ों की छाती पर लिखना चाहता है। साथ ही वह यहाँ की बदलती आर्थिकी संस्कृति पर भी अपनी चिंता व्यक्त करता है।
 
            समाज में महिलाओं का श्रम चिरकाल से अलक्षित रहा है। महिलाएँ जीवन के हर क्षेत्र में श्रमशील रही हैं। खेतों, कारखानों खदानों से लेकर निर्माण कार्यों तक उनकी सहभागिता रही है। घर के उनके रोजमर्रा के काम अवैतनिक ही रहते हैं और समाज उनकी गणना भी नहीं करता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की 'केअर वर्क एंड केअर जॉब' रिपोर्ट के अनुसार, एशिया और पैसिफिक देशों में महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा देखभाल के अवैतनिक कार्यों में 4.1 गुना ज्यादा समय खर्च करती हैं। (ILO report on Care work and care jobs for the future of decent work) हिमाचल सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष में महिलाओं के अवैतनिक श्रम की गणना नही होती। वह खेत के कामों, मवेशियों के पालन, घर के ईंधन, पानी, खाना पकाने, सफाई बच्चों की देखभाल के कार्यों में तमाम उम्र व्यस्त रहती है जिसे काम की परिभाषा में शामिल नहीं किया जाता, ही उसका कोई आर्थिक मूल्य लगाया जाता है। महिलाओं के इस आर्थिक-सामाजिक योग को सराहता हुआ कवि उसका यशोगान करता है-

एक स्त्री का हाथ है यह
जीवन के समूचे स्वाद में से
कंकड़ बीनता हुआ।19
 
            कवि की दृष्टि ही देख पाती है कि महिला के कार्य केवल आर्थिक उपार्जन के नहीं होते। वे जीवन को सुंदर बनाते हैं, दुष्कर जीवन में स्वाद घोलते हैं लेकिन इतने श्रम के बावजूद महिलाओं के किए हुए कामों को समाज सहमति स्वीकृति नहीं देता, उनके कामों को बराबर भी नहीं समझा जाता। संवैधानिक प्रावधानों से आज समान कार्यों के लिए समान वेतन सुनिश्चित हुआ है लेकिन महिलाओं की समाज में बराबरी, आत्मनिर्भरता तथा स्वतंत्र अस्तित्व आज भी स्वप्न की तरह है। बचपन से वृद्धावस्था तक वे पिता, पति, पुत्र पर आश्रित रहती हैं। उन्हें शिक्षा स्वास्थ्य में भी बराबर की सुविधा नहीं मिल पाती। अवसरों की समानता अभी भी दूर की कौड़ी है। होश संभालते ही जिम्मदारियों का बोझ उन पर लाद दिया जाता है। वे सहायिका परिचारिका की भूमिका में ही कर्मशील दिखाई पड़ती हैं। अपने बारे में सोचने, सपने देखने और जीवन को सँवारने का उन्हें अधिकार ही नहीं-

दस बरस की लड़की
जा रही काम पर
फिल्लियों में है उदास थकान
आँखों में टूटी हुई नींद
सपने तैरते हुए।20

            टूटी हुई नींद और टूटे हुए सपनों वाली लड़कियाँ शहर के घरों में बरतन साफ़ करती और बच्चों की देखभाल करती हुई दिख जाती हैं। शिमला शहर में ही नौकरी-पेशा मध्यम वर्ग और व्यवसायियों के घरों में शिमला और सिरमौर के दूरस्थ क्षेत्रों से लाई गई लड़कियाँ अपनी रोज़ी कमा रही हैं, अपनी ही उम्र की बच्ची का स्कूल बस्ता उठा रही हैं जिनकी वंचनाओं का ज़िक्र यहाँ की कविता में ठीक से रेखांकित नहीं हुआ। इसी तरह मैदानी क्षेत्रों से आए प्रवासियों के बच्चे यहाँ होटलों और ढाबों में काम करते हुए नज़र आते हैं। कभी-कभी यहाँ की साहित्यिक गोष्ठियों में चाय-पानी पिलाते हुए भी ये बच्चे दिखाई पड़ते हैं। कुछ प्रवासी मजदूरों के बच्चे कूड़ा बीनते भी देखे जा सकते हैं। भारत की 2001 की जनगणना के अनुसार 5-14 वर्ष के कुल बच्चों में बाल श्रमिकों की संख्या 5% थी जबकि 2011 की जनगणना में यह 3% रह गयी थी। इन जनगणनाओं में हिमाचल प्रदेश में बाल श्रमिकों की कुल संख्या क्रमशः 1,07,774 15,001 थी। ये आँकड़े हमारे विकास के दावों की पोल खोलते हैं-

भीख नहीं माँगते
कागज़ के फूल बनाते हैं
वे सब जन
छोटी-सी पाँच बरस की बच्ची भी
फूल बनाने में माहिर
यही है उसका खेल।21
 
            काग़ज के फूल बनाने वाली लड़कियाँ बड़ी होकर मज़दूर औरतें हो जाती हैं। उम्र और शरीर के बढ़ने के अलावा उनके जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आता, बल्कि शोषण के स्वरूप बदल जाते हैं। अब केवल उनके श्रम की चोरी नहीं, उनका शारीरिक-मानसिक शोषण भी होता है। उनके विरुद्ध अपराध, हिंसा और वंचना नए रूपों में लक्षित होती है। आदमी की मुस्कराहट से उन्हें डर लगता है। प्यार, करुणा, सुहानुभूति उनके शब्दकोश में विपरीत अर्थ रखते हैं। युवा कवि विक्रम मुसाफिर ने इस तथ्य को ख़ूबसूरती से बयां किया है-

वे अक्सर मुस्कराती हैं
ठेकेदार जब रोब झाड़ता है
सहम जाती हैं वे
ठेकेदार जब मुस्कराता है।22
 
            हिमाचल की समकालीन हिंदी कविता में केवल श्रम की महत्ता; श्रम करने वाले कामगारों, किसानों, गृहिणियों, कारीगरों की समस्याओं, शोषण और वंचनाओं का बखान ही नहीं किया गया है, बल्कि श्रम के सौंदर्य का महिमागान भी यहाँ ख़ूबसूरती के साथ मिलता है। केदारनाथ अग्रवाल की कविता छोटे हाथ और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता भूख की भावभूमि पर यहाँ ख़ूबसूरत कविताएँ रची गयी हैं। आत्मा रंजन की ये हाथ, सूर्य नमस्कार, अजेय की इन सपनों को कौन गाएगा, यादवेंद्र शर्मा की सबसे सुंदर लड़कियाँ आदि कविताएँ श्रम के सौंदर्य बोध में लिखी गयी हैं। इन कविताओं से केवल श्रम के प्रति मनुष्य-भाव में रुचि का परिष्कार होता है, साथ ही सौंदर्य की हमारी दृष्टि भी उदात्त समृद्ध होती है-

ऐसे मत देखो भाई इन्हें
काले हैं बदरंग तो क्या
खुरदरे और सख्त /ये हाथ
तमाम सौंदर्य के सर्जक हैं।23 
 
            आत्मा रंजन की कविताएँ जहाँ मेहनतकश लोगों की सभ्यता के निर्माण की उपलब्धियों के प्रति भावांजलि समर्पित करती हैं, वहीं वे बाज़ार मीडिया निर्मित सतही सौंदर्यबोध के प्रति सजग भी करती हैं। यह सौंदर्य दैहिक, उच्छृंखल, यौन कुंठित और बेतुका नहीं है। इसमें मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति की सदिच्छा है, कर्म प्रधानता है, भाव प्रवणता है-

कि सूर्य नमस्कार के अभ्यासी
किसी निठल्ले की देह मुद्रा से
ज्यादा सुन्दर लग रही है
धान रोपती औरत की देह मुद्रा।24
 
            घोर प्रतियोगिता, उपभोगवाद और सूचनाओं की अधिकता के युग में जिन महत्त्वपूर्ण कार्यों पर समाज की नज़र नहीं जा रही, कविता उस ओर सिर्फ दृष्टिपात ही नहीं करती बल्कि उन्हें हाशिए से केंद्र में लाती है। वह जीवन की प्राथमिकताओं को स्पष्ट करती है, विवेक और सुरुचि की रक्षक है। वह अनदेखे किए जा रहे सामाजिक वर्गों और उनके योगदान को रेखांकित करती है। सौंदर्य-विधान और पवित्र हेतु के बिना कविता शब्दों के लक्कड़-पत्थर का ढेर है। कविता का सौंदर्य और उसका अभिप्राय सामाजिक आदर्शों मूल्यों की क्यारियों में पल्लवित-पुष्पित होता है और कवि उसका माली है। वह उसे समुचित रूपाकार संरचना में ढालता है, उसे संस्कारों से सिंचित कर संतुलित पोषण देता है, झाड़ियों और खरपतवार से मुक्त रखता है।शिल्पीकविता में श्रीनिवास श्रीकांत लिखते हैं-


विलम्बित चल रहा काम
कर्मठ गा रहा अपनी भाषा में
एक मधुर लोकगीत
फूलों के मौसम का
करुणा से भरा।25
 
            कवि श्रम को नीरस और आरोपित नहीं बल्कि सहज और आत्मिक क्रिया मानता है। यह उसकी खुशियों की अभिव्यक्ति है। कर्मठता मनुष्य का सद्गुण बताया गया है। काम में डूबे हुए व्यक्ति के हृदय से मातृभाषा में लोकगीत स्वतः ही फूट पड़ते हैं और वह वसंत हो जाता है। करुणा उसकी प्रवृत्ति हो जाती है। जिस दिन श्रम का मनुष्य से अलगाव हो जाता है और वह उस पर थोपा जाता है, उसकी आत्मिक संतुष्टि स्वतः समाप्त हो जाती है। यह दुखद है कि श्रमशील लोगों को समाज में समुचित स्थान सम्मान मिलता है, ही पर्याप्त आय। औद्योगीकरण मशीनीकरण ने तो उन्हें दारिद्र्य ही सौंपा है। उनकी दुर्दशा को श्रीनिवास श्रीकांत मार्मिकता से चित्रित करते हैं-

कस्बे की मैली बस्ती में थे
व्यावसायिक भिखारियों के कबीले
शिल्पी, बुनकर, चर्मकार
दर्जी, ठठेरे, राजगीर.....इत्यादि।26
 
            हिमालय के साहित्य में शुमार ये कविताएँ यहाँ की हवा, जल, धूप और मिट्टी से पोषित हैं इसलिए यहाँ के इतिहास और संस्कृति में इनकी जड़ें गहरी डूबी हुई हैं। आत्मा रंजन की झूम्ब, कुटुआ, हूल, बोलो जुल्फ़िया रे आदि कविताएँ श्रम के सांस्कृतिक इतिहास के साथ स्मृति और स्वप्न के बीच साकार होती हैं। ये कविताएँ पुरखों की श्रमशील गौरव-गाथा उनके संघर्षों तथा सभ्यता के उपादानों सहित मनुष्य जिजीविषा का चित्रण करती है-

लगी बरसात में झूम्ब ही दे पाती
दराती पर चलते हाथों का साथ
यूँ झूम्ब ने चुना हमेशा
कर्मशील हाथों का साथ !”27
 
            श्रम की यह सांस्कृतिक चेतना पहाड़ के कठिन भूगोल और संसाधनों की कमी सदुपयोग के पीढ़ियों के पन्ने खोलती है। इसमें अन्न के पकने की खुशबू है, मेले-त्योहारों का उल्लास है, सम्बंधों का मर्म है। सीख के बीज सब्र के ताबीज़ तथा ज़िम्मेदारियों के अंतःकरण में लगातार बहते सोते हैं। सत्यनारायण स्नेही की कविता की तकली में ऊन के धागों में लिपटे कर्मठ पिता के उपदेश हैं-

लगातार तकली घुमाते
उंगलियों पर पड़े छाले
साबित करते थे
उनका पिता होना ×××
पिता का लोइया
एक जीवंत दस्तावेज
मेहनत उत्तरदायित्व का।28
 
            हिमाचल में रची जा रही समकालीन कविता से गुजरते हुए निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यहाँ श्रम के मानवीय सरोकार कवि की संवेदना में गहरे विन्यस्त हैं। कवि श्रम को अभीष्ट स्थान देता हुआ सृजनशील है। सभ्यता की यात्रा के उत्तर आधुनिक युग में भी वह इस बात की तस्दीक करता है कि श्रम के बिना पूँजी, तकनीक बाज़ार का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता। वैश्वीकरण की प्रक्रिया भी इस तथ्य को स्थापित करती है कि सीमाओं के आर-पार श्रम की अबाध गति विकास की आवश्यकता है। मनुष्य जाति का स्वयं का अस्तित्व भी श्रमशील रहने में ही है। यह सुखद है कि समस्त मानव जाति