शोध आलेख : चित्तौड़गढ़ के पाषाणकालीन अवशेषों का अध्ययन : एक दृष्टि / स्वाती वर्मा एवं डॉ. वृषभ महेश

चित्तौड़गढ़ के पाषाणकालीन अवशेषों का अध्ययन : एक दृष्टि
- स्वाती वर्मा एवं डॉ. वृषभ महेश

शोध सार : भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित राजस्थान के पुरापाषाणिक अवशेषों का अध्ययन, प्रागैतिहासिक मानव की जीवन निर्वहन तथा उनके व्यवहार के संबंध में संपूर्ण जानकारी प्राप्त करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है। यह क्षेत्र अतीत में हुए स्थायी जलवायु परिवर्तनों के स्पष्ट साक्ष्य प्रस्तुत करता है। राजस्थान अत्यधिक जलवायवीय विविधता वाला प्रदेश है जिसका उत्तर पश्चिमी भाग शुष्क जलवायु तथा दक्षिणी पूर्वी भाग अर्धशुष्क जलवायु वाला क्षेत्र है। इस विविध परिदृश्य के भीतर बेडच बेसिन का अर्धशुष्क क्षेत्र जो दक्षिण पूर्वी राजस्थान में स्थित है, पश्चिम में शुष्क थार के रेगिस्तान तथा पूर्व में विंध्य की पर्वत श्रृंखलाओं से सीमांकित है। 1950 के दशक से ही इस महत्त्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में पाषाणकालीन सर्वेक्षण किए गए हैं, परंतु इसके पश्चात भी बहुविषयक दृष्टिकोण के अभाव के कारण प्रागैतिहासिक मानव तथा उसकी जीविका निर्वहन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर अभी तक स्पष्ट नहीं हैं। इस क्षेत्र में हाल ही में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षणों के परिणाम स्वरुप अनेक पुरापाषाणकालीन स्थल विभिन्न भौगोलिक सन्दर्भों में प्राप्त हुए हैं। इस शोध पत्र में पुरापाषाणकालीन संस्कृतियों की प्रकृति और क्षेत्र तकनीकी परिवर्तनशीलता को समझने के लिए हमारे अध्ययन के परिणाम प्रस्तुत किए गए हैं।

बीज शब्द : प्रातिनूतन काल, हैंडएक्स, क्लीवर, कोर, फ्लेक, अन्वेषण, एश्यूलियन, पुरापाषाण काल, पुरास्थल, प्रीकैंब्रियन।

मूल आलेख : राजस्थान भारतीय महाद्वीप के महत्त्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्रों में से एक हैं जो अतीत में एक लंबे समय तक हुए विभिन्न जलवायु परिवर्तनों के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करता है और साथ ही साथ हमें प्रागैतिहासिक मानव के जीवन निर्वहन और व्यवहार को समझने पर पर्याप्त अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। [1-4] इस क्षेत्र में स्थित सिंगी तालाब, 16 आर (एक स्थिर जीवश्म रेत का टीला), कटओती, और बूढ़ा पुष्कर नामक पुरास्थलों से पाषाणकालीन संस्कृतियों के समृद्ध प्रमाण मिले हैं। [5-11] एश्यूलियन संस्कृति के अवशेष वैसे तो राजस्थान के अनेक पुरास्थलों  पर पाए जाते हैं परंतु चित्तौड़गढ़ में इसके अत्यधिक सघन एवं उत्कृष्ट प्रमाण चिन्हित किए गए हैं। [12] चित्तौड़गढ़ के पाषाणकालीन अवशेष, भारतीय पुरातत्व और प्राचीन इतिहास के अध्ययन में महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। ये अवशेष भारतीय उपमहाद्वीप के प्रागैतिहासिक काल की जीवनशैली, तकनीकी विकास, और मानवीय गतिविधियों की समझ प्रदान करते हैं। चित्तौड़गढ़, जो वर्तमान राजस्थान में स्थित है, ऐतिहासिक रूप से विभिन्न सभ्यताओं और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। यह क्षेत्र पुरानी सभ्यताओं के लिए अनुकूल था क्योंकि यहाँ प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता थी। पानी, भोजन और कच्चे माल के पर्याप्त संसाधानों ने इस क्षेत्र को प्रतिनूतन काल से ही मानव हेतु रहने योग्य बना दिया था, अंततः यह क्षेत्र पुरापाषाणकालीन संस्कृतियों तथा उनके अवशेषों की जानकारी प्रदान करने के लिए उत्कृष्ट क्षमता रखता है।

पाषाणकालीन अवशेषों में विभिन्न प्रकार के पत्थरों से निर्मित औजार शामिल हैं, जैसे कि हैंडएक्स, क्लीवर, फ्लेक्स आदि। ये औजार मानवीय तकनीकी कौशल और संस्कृति के विकास का प्रमाण हैं। इन अवशेषों का अध्ययन हमें प्राचीन मानव समुदायों की जीवनशैली, शिकार की तकनीक, और आजीविका के साधनों की जानकारी देता है। चित्तौड़गढ़ के पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त जानकारी उस काल के पर्यावरणीय और भूविज्ञानिक परिस्थितियों की भी जानकारी प्रदान करती है, जो मानव विकास के इतिहास को समझने में सहायक है।

चित्तौड़गढ़ के पाषाणकालीन अवशेष केवल भारतीय इतिहास के लिए, बल्कि वैश्विक पुरातत्विक और प्राचीन इतिहास के अध्ययन के लिए भी महत्त्वपूर्ण हैं। ये अवशेष प्रागैतिहासिक काल के मानवीय विकास और संस्कृतियों की जटिलता और विविधता की गहराई को दर्शाते हैं। यह शोधपत्र बेडच बेसिन के पुरापाषाणकाल के अवशेषों को समझने के लिए किये गए हमारे अध्ययनों के परिणामों की चर्चा करता है। इस क्षेत्र में किए गए पूर्व अन्वेषण नदियों के किनारे तक ही सीमित थे, परंतु हाल ही में किए गए अन्वेषणों द्वारा प्रागैतिहासिक पुरास्थल विभिन्न भूगर्भिक सन्दर्भों जैसे पहाड़ी ढालानों, तलहटियों तथा मानसूनी जल धाराओं के ग्रेवल में पाये गये हैं जो कि परिवर्ती ऐश्यूलियन तथा मध्यपुरापाषाण काल से संबंध रखते हैं।

अध्ययन क्षेत्र :

बेडच नदी राजस्थान के उदयपुर जिले में स्थित गोगुन्दा पहाड़ियों से निकल कर उत्तर पूर्व दिशा में 150 किमी बहती है। इसका बेसिन क्षेत्रफल 7502 वर्ग किलोमीटर है। यह उदयपुर एवं चित्तौड़गढ़ से बहती हुई भीलवाड़ा के निकट बिगोद नामक स्थान पर बनास नदी में मिल जाती है। यह शोध पत्र बेडच बेसिन के पुरापाषाणकालीन स्थल जो चित्तौड़गढ़ के भीतर स्थित हैं, की जानकारी प्रदान करता है। (चित्र 1)

चित्र 1. अध्ययन क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति

 

           बेडच बेसिन लगभग 24˚ से 25˚ उत्तरी अक्षांश और 74˚ से 75˚ पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है। यह क्षेत्र आंशिक रूप से पहाड़ी तथा आंशिक रूप से मैदानी है, अत: इसकी स्थलाकृति कुछ लहरदार दिखाई देती है। क्षेत्र के पश्चिम दक्षिणी और उत्तरी भाग अधिकांशतः मैदानी है और इनका क्षेत्रीय ढलान दक्षिण से उत्तर की ओर है। पहाड़ियाँ मुख्य रूप से बड़ी सादड़ी तहसील से बिखरी हुए हैं तथा विंध्य पर्वतों की एक श्रृंखला उत्तर दक्षिण दिशा में चित्तौड़गढ़ के पूर्व में समानान्तर घाटियाँ बनाती हैं। क्षेत्र की ऊँचाई समुद्र तल से 395 मीटर है और इस क्षेत्र की सबसे ऊँची चोटी दौलतपुर गाँव में स्थित है जिसकी समुद्र तल से ऊँचाई 637 मीटर है। [12]

दक्कन ट्रैप एवं नूतनकालीन नदी जमावों को छोड़कर सम्पूर्ण क्षेत्र मुख्य रूप से प्रीकैंब्रियन चट्टानों से परिवृत्त है। इस क्षेत्र में अरावली, विंध्य, भीलवाड़ा तथा दक्कन ट्रैप से संबंधित विभिन्न प्रकार की चट्टानें पाई जाती हैं। क्षेत्र में नदी मार्ग तथा मानसूनी जलधराओं के किनारे जलोढ़ का एक पतला जमाव मिलता है। क्षेत्र में आद्यमहाकल्प से लेकर चतुर्थमहाकल्पीय युग तक की शैल श्रृंखलायें विद्यमान है। क्षेत्र के विविध शैल प्रकार भीलवाड़ा महासमूह, अरावली महासमूह, विन्ध्यन महासमूह तथा डेक्कन ट्रैप है जो कि अधिसिलिक तथा अल्पसिलिक अंतर्वेधियों की आवर्ती प्रावस्थाओं द्वारा अंतर्वेधित हुए है। सबसे पुरातन शैलों में आद्यमहाकल्प से संबंधित भीलवाड़ा महासमूह के मंगलवार कॉम्प्लैक्स के नाइस, शिस्ट, मिम्मेटाइट, क्वार्टजाइट, एम्फिबोलाइट, डोलोमाइटी मार्बल, रायोलाइट, फ्यूक्साइटक्वार्टजाइट; हिंडोली समूह के सलेट, फाइलाइट, टफ, एम्फिबोलाइट, डोलोमाइटी मार्बल, ग्रेवेक तथा सैंडमाता समूह के एम्फिबोलाइट समादविष्ट हैं। ये शैल उंटाला ग्रेनाइट, रायपुर-जलायन मैफिक शैल, बेड़च ग्रेनाइट तथा अन्य नवीनतम मैफिक तथा अधिसिलिक अंत्वेधियों से अंतर्वेधित हैं। राजपुरा-दरीबा समूह तथा पुर-बनेड़ा समूह की उपरिशायी पूर्व प्रोटीरोजोइक श्रृंखलाएँ जो कि मुख्यतः कैल्सियमी संलक्षणी शैलें हैं, एकांगी पैचों के रूप में क्रमशः मंगलवार कॉम्प्लैक्स तथा हिंडोली समूह के आधार शैलसंघों के ऊपर उपस्थित हैं। ये समूह क्वार्ट्जाइट, शिस्ट, डोलोमाइटी मार्बल, कैल्क नाइस तथा संगुटिकाश्म के संग्रहण को समाविष्ट करते हैं। क्वार्टजाइट तथा संगुटिकाश्म द्वारा निरूपित उपरिशायी रणथम्भौर समूह के शैल सीतामाता क्षेत्र के सन्निकट प्रेक्षित किए गए हैं। अरावली महासमूह के देबारी समूह के देल्वारा शैलसमूह से संबंधित कुछेक दृश्यांश जिले के उत्तर-पश्चिमी भाग में उपस्थित हैं। विश्ध्यन महासमूह एक तीक्ष्ण-कोणीय विषमविन्यास जिसे ग्रेट एपेकियन विषमविन्यास के रूप में जाना जाता है, के साथ आधार-शैलसंघ को उपरिशायी करता है। यह अंतःस्थ घाटियों के साथ विमन्द रूप से उच्च कटकों तथा पठारों की श्रृंखलाओं का निर्माण करता है तथा आधार पर एन्डेजाइटी प्रवाहों के साथ पांशु पत्थर, शेल, चूना पत्थर की एकांतर श्रृंखला को समाविष्ट करता है। इन शैलों को सेमरी समूह, कैमूर समूह, रीवा समूह तथा भंडेर समूह के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इन संग्रहणों का चूना पत्थर कुछेक स्थानों पर स्ट्रोमाटोलिटिक है। जिले के दक्षिणवर्ती भाग में डेक्केन ट्रैप, जो सपाट शीर्षित पहाड़ियों की रचना करते हैं, के बेसाल्टी प्रवाह उदभासतित हुए हैं। जिले में नदी प्रवाहों तथा धारा प्रणालों के साथ-साथ जलोढ़क का पतला प्रावार (मैंटल) मौजूद है। चित्तौड़गढ़ तथा परसोली के मध्य, जिले के उत्तरी-मध्य भाग में ग्रेट बाऊंड्री फॉल्ट द्वारा विन्ध्यम शैल आद्यमहाकल्पीय शैलों के समक्ष लूनाग्रित है।

भूआकृतिक दृष्टिकोण से जिले को मानवजनिक प्रदेश (भू-भाग) एवं जल निकायों के साथ-साथ, विविध भूआकृतिक इकाईयों नामत: संरचनात्मक कटक/घाटी, अनाच्छादित कटक/घाटी, पेडिमेंट, पेडिप्लेन, जलोढ़ मैदान, ओघनीय मैदान तथा पठार के रूप में विभाजित किया जा सकता है।

अपवाह तंत्र :

अध्ययन क्षेत्र का अपवाह बेडच एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा होता है। बेडच की छोटी सहायक नदियाँ गाम्भीरी, वागन, वागली तथा अन्य छोटी जलधाराएँ एवं नाले जिसमें कादमली, ओराई, कटरा एवं बारम नदी शामिल है, मिलकर इस क्षेत्र में जलधाराओं का एक जाल बनाते है।[12] गाम्भीरी नदी मध्य प्रदेश की जावरा पहाड़ियों से निकलकर निम्बाहेड़ा के समीप राजस्थान में प्रवेश करती है और चित्तौड़गढ़ किले के समीप बेडच नदी में मिल जाती हैं। यह विंध्य पहाड़ियों से गुजरती हुई दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर वागन नदी के लगभग समानान्तर बहती है। वागन नदी राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में बड़ी सादड़ी के पास अरावली की पहाड़ियो से उदय होती हैं तथा उत्तर की ओर लगभाग 45 किमी बहकर हाज्जियाखेडी के समीप बेडच नदी में मिल जाती है। वागली, बेडच की सबसे छोटी सहायक नदी है जो चित्तौड़गढ़ जिले में किशोर जी का खेड़ा के पास से उदय होती है तथा उत्तर पूर्व दिशा में बहती हुई सुरपुर गाँव के समीप बेडच में मिल जाती है। कादमली, एक छोटी जलधारा है जो राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में छोटी सादड़ी में स्थित पहाड़ियों से निकलकर 30 किमी दूरी तय करके निम्बाहेड़ा से लगभग 8 किमी उत्तर पूर्व में गम्भीरी नदी में मिल जाती है।

पूर्व सिंहावलोकन :

बेडच बेसिन अपने पाषाणकालीन अवशेषों की प्राचीनता के संबंध में सन 1950 एवं सन 1960 के दशक से ही विख्यात है। सर्वप्रथम सन 1953 में एस. आर. राव ने इस क्षेत्र में पाषाणकालीन अध्ययन किया तथा बिछोर, रंथजाना, एवं बदोली जैसे कई पुरापाषाण स्थलों की खोज की। [13-15] तत्पश्चात एच. डी. संकालिया, जे. डी. अंसारी, एवं एस. एन. राजगुरु ने वागन तथा गम्भीरी नदियों के किनारों पर अन्वेषण किया जिसमें उन्हें अनेक पूर्व पाषाणिक उपकरण (चॉपर, हैण्डएक्स, क्लीवर, स्क्रेपर, तथा फ्लेक उपकरण) हमीरगढ़, स्वरूपरगंज, मण्डफिया, बिगोद, जहाजपुर, देवली, बनथाली आदि पुरास्थलों से प्राप्त हुए। [16] इस क्षेत्र से प्राप्त पाषाणकालीन अवशेषों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारूपात्मक रूप से यहाँ पर पूर्व तथा मध्य पाषाण कालों के मध्य कोई अंतराल नहीं पाया जाता है। [17] बाद में एस. पी. खत्री, आर. डी. सिंह और एन. व्यास ने गम्भीरी नदी की उपत्यकाओं में एक विस्तृत अन्वेषण किया तथा अनेक पाषाणकालीन पुरास्थलों की खोज की। [18]

प्रविधि :

हमने हाल में पूर्व प्रतिवेदित पाषाणकालीन स्थलों के पुनः निरीक्षण हेतु, नवीन पुरास्थलों की खोज, कच्चे माल (पाषाणकालीन उपकरण बनाने में प्रयुक्त सामग्री) के स्त्रोतों की पहचान करने, पाषाण उपकरणों के स्तर विन्यास को समझने हेतु जनवरी और अप्रैल 2022 में चित्तौड़गढ़ और उसके आस-पास क्षेत्र में 2 सर्वेक्षण किये। इस क्षेत्र में गूगल अर्थ पर यादृच्छिक ग्रिड की योजना बनाकर एक व्यवस्थित सर्वेक्षण किया गया। तत्पश्चात् नदियों, पहाड़ी ढलानों तलहटियों के किनारे सर्वेक्षण का कार्य किया गया। इस सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप बेडच बेसिन में 25 से अधिक नए पुरापाषाणिक स्थल प्रकाश में आये। (चित्र 2 तालिका 1) इन नवीन पुरास्थलों को जीपीएस का प्रयोग करके आलेखित किया गया और साथ ही पाषाण उपकरणों का व्यापक फोटोग्राफिक दस्तावेजीकरण किया गया था। सभी पाषाण उपकरणों को यादृच्छिक विधियों द्वारा एकत्र किया गया था।

चित्र 2. अध्ययन क्षेत्र में सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप 25 से अधिक नवीन प्रतिवेदित पुरास्थल


तालिका 1 : हमारे सर्वेक्षण से प्रतिवेदित पुरास्थलों के नाम और उनके भू-निर्देशांक


परिणाम : हमारे सर्वेक्षणों के अनुसार बेडच बेसिन में प्रागैतिहासिक स्थलों का वितरण, गंभीरी नदी (बेडच की एक सहायक नदी) के पश्चिम, पूर्व और दक्षिण में प्रमुख समूहों में प्रतीत होता है और स्थलों की सर्वाधिक सांद्रता पूर्वी समूह में चिह्नित है। इन तीनों समूहों में प्रौद्योगिकी, कलाकृतियों की घनत्वता और कच्चे माल की प्राथमिकता के मामले में भिन्नता है। यहाँ सभी प्रागैतिहासिक स्थल खुले वायुमंडलीय पृष्ठीय स्थल हैं और एचेउलियन संस्कृति सभी प्रागैतिहासिक संस्कृतियों में सबसे अधिक प्रतिनिधित्वित है। स्थानिक डेटा से पता चलता है कि ये सभी स्थल मुख्य रूप से एश्यूलियन पाषाणकालीन संस्कृति के अवशेष प्रकट करते हैं जो विन्ध्य पर्वतमाला के तलहटी और सीमांत क्षेत्रों में स्थित हैं, जहाँ कच्चा माल सरलता से उपलब्ध है। ये एश्यूलियन पुरास्थल विभिन्न भूगर्भिक संन्दर्भो जैसे क्षरित सतह, नदी के किनारों तथा मिश्रोढ जमाव वाले क्षेत्रों में पाए गए हैं। अपरदन प्रक्रियाओं के कारण विभिन्न पुरास्थलों पर जमीन के अंदर दबे हुए पाषाण उपकरण उद्घाटित हो रहे हैं। अधिकांशतः पाषाण उपकरण मिश्रोढ जमाव से ही प्राप्त हो रहे हैं। (चित्र-3)

चित्र 3. विंध्यन सुपरग्रुप में पाए जाने वाले निचले पुरापाषाण स्थलों की सामान्य स्ट्रैटिग्राफी। अधिकांश स्थानों पर निचले पुरापाषाण स्थल विंध्यन सुपरग्रुप के जलोढ़ निक्षेपों से जुड़े हुए हैं।

 

           पाषाण उपकारणों को बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के कच्चे माल का प्रयोग किया गया जो इस क्षेत्र में सुलभता से उपलब्ध है। (चित्र 5(3)) इनमें आदिमानव ने मुख्य रूप से विंध्य पर्वत से प्राप्त होने वाले क्वार्टजाइट तथा क्वार्टजाइटिक बलुआ पत्थर का प्रयोग किया  है। इसके अतिरिक्त बड़ी सादड़ी के निकट पाये जाने वाले पुरास्थलो पर मुख्यतः लाल रंग के क्वार्टजाइट का प्रयोग किया गया है तथा भदेसर एवं चित्तौड़गढ़ के पश्चिमी ओर स्थित पुरास्थलों में विविध प्रकार के कच्चे माल जैसे कि चर्ट, क्वार्ट्ज़, क्वार्टजाइट इन सभी पाषाण खण्डों का प्रयोग किया गया है।

इन पुरास्थलों से प्राप्त पाषाण उपकरण हैण्डएक्स, क्लीवर, फ्लेक, बड़े कोर आदि मुख्यतः एश्यूलियन संस्कृति से संबंध रखते हैं। (चित्र 4) परंतु कुछ पाषाण उपकरण जैसे कि लेवाल्वा कोर, लेव्लवा प्वाइंट, स्क्रेपर आदि मध्य पुरापाषाण की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते है। अध्ययन क्षेत्र से प्राप्त पुरास्थलों में क्लीवर उपकरणों की संख्या अधिक पाई गई है।

चित्र 4 : विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त पाषाणकालीन उपकण

 

क्लीवर :

क्लीवर उपकरणों की अधिक संख्या पश्चिमी एवं मध्य भारत के एश्यूलियन पुरास्थलों पर पाई जाती है। [19-25] क्लीवर बेडच बेसिन के ऐश्यूलियन पुरास्थलों पर पाया जाने वाला प्रमुख पाषाण उपकरण है जो हैण्डएक्स की तुलना में लगभग दोगुनी संख्या में प्राप्त होता है। क्लीवर मुख्य रूप से फ्लेक पर बने होते हैं। इस क्षेत्र से प्राप्त कुछ क्लीवर कम्बेवा फ्लेक पर भी बने हुए है। अधिकांशतः क्लीवर थोड़े बहुत घिसे हुए है परंतु कुछ उपकरण ताजे भी दिखाई पड़ते है। (चित्र 5(2))

हैण्डएक्स :

विभिन्न पुरापाषाणिक स्थलों से भिन्न-भिन्न प्रकार के हैण्डएक्स भी प्राप्त हुए हैं। अधिकांश हैण्डएक्स बटिकाश्मों पर, कुछ हैण्डएक्स फ्लेक पर भी बने हुए है। हैण्डएक्स प्रायः 10 से 22 सेमी तक लम्बे है। कुछ हैण्डएक्स उपकरण ऐसे भी मिले हैं जो पूर्ण रूप से तैयार नहीं किये गये है। (चित्र 5(1))

बाईफेस :

ऐसे उपकरण जिनमें उभयपक्ष पर फ्लेकिंग तो पाई जाती है, परंतु उनका कोई निश्चित आकार नहीं था, तथा जो हैण्डएक्स क्लीवर से अलग प्रकार के होते हैं, उन्हें इस शोध में बाईफेस उपकरणों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है। इस क्षेत्र से प्राप्त बाईफेस, बटिकाश्म तथा फ़्लेक दोनों पर निर्मित पाए जाते है। ये विभिन्न आकार एवं माप में पाए गए है जो सामान्यतः 8 से 18 सेमी लंबे हैं। कुछ बाईफेस उपकरण हैण्डएक्स बनाने के असफल प्रयासों के परिणाम लगते हैं जबकि कुछ उपकरणों को देखकर ऐसा लगता है कि इनमें उभयपक्षीय फ्लेकिंग करके केवल एक धारदार उपकरण बनाने का प्रयास किया गया है।

कोर :

बेडच बेसिन के पुरापाषाणिक पुरास्थलों से विभिन्न प्रकार के कोर प्राप्त हुए हैं जो इस क्षेत्र में कोर रिडक्शन की विभिन्न तकनीकों के प्रयोग के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इस क्षेत्र में प्रीफेरेन्शियल सरफेस कोर, डिस्क्वाइडल कोर, लेवाल्वा कोर, प्रीपेर्ड कोर, रेडियल कोर, यूनिडाईरेक्शनल तथा मल्टीप्लेटफार्म कोर प्राप्त होते हैं।

अन्य उपकरण :

अन्य उपकरणों में फ्लेक, प्वाइंट, लेवाल्वा प्वाइंट, स्क्रेपर, यूनीफेशियल प्वाइंट तथा बड़े फ्लेक (10 सेमी>) की प्राप्ति होती है। (चित्र 5(4))




चित्र 5 : (1) हैंडएक्स, (2) क्लीवर, (3) पुरास्थल पर उपस्थित क्वार्ट्ज़ीटिक बलुआ प्रस्तर, (4) मिश्रोढ़ जमाव से प्राप्त पुरावशेष

परिचर्चा :

बेडच बेसिन में पाए गए पुरापाषाणिक उपकरणों की विशेषताएं और उनके प्रकारों का अध्ययन इस क्षेत्र के प्रागैतिहासिक समाज की तकनीकी कुशलता और सांस्कृतिक विकास को समझने में महत्त्वपूर्ण है। क्लीवर उपकरणों की उच्च संख्या, जो हैण्डएक्स की तुलना में अधिक प्राप्त होते हैं, इस क्षेत्र में पत्थर उपकरण निर्माण की विशिष्ट शैली को दर्शाते हैं। यह तथ्य कि क्लीवर मुख्य रूप से फ्लेक पर निर्मित होते हैं और कई ताजा स्थिति में पाए जाते हैं, यह संकेत देता है कि पुराने समय में इस क्षेत्र में संसाधनों का प्रबंधन और उपकरण निर्माण की विधियाँ काफी विकसित थीं।

हैण्डएक्स उपकरणों की विविधता और उनकी विशेषताएं जैसे कि लंबाई और निर्माण की स्थिति, इस क्षेत्र के शिल्पकारों की कलात्मकता और सूक्ष्मता को बताती हैं। विशेष रूप से, ऐसे हैण्डएक्स जो पूर्णतः तैयार नहीं हुए थे, शिल्पकला के विकासात्मक चरण का संकेत देते हैं। बाईफेस उपकरणों का अस्तित्व और उनके आकार-प्रकार इस बात का संकेत हैं कि इस क्षेत्र में पत्थर उपकरणों की विविधता और तकनीकी जटिलता मौजूद थी। इन उपकरणों का उपयोग और उनके निर्माण की विधियाँ प्रागैतिहासिक समय के विभिन्न चरणों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं।

कोर उपकरणों की विविधता और उनके निर्माण की विधियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि इस क्षेत्र में पत्थर उपकरण निर्माण की तकनीक काफी विकसित थीं। विभिन्न प्रकार के कोर्स से यह पता चलता है कि इस क्षेत्र के निवासी पत्थरों को तराशने की विभिन्न तकनीकों से परिचित थे और उन्हें कुशलतापूर्वक उपयोग करते थे। अन्य उपकरण जैसे कि फ्लेक, प्वाइंट्स, लेवाल्वा प्वाइंट्स, और स्क्रेपर्स की प्राप्ति इस बात का संकेत है कि इस क्षेत्र के प्रागैतिहासिक निवासी विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए उपकरणों का निर्माण और उपयोग करते थे। ये उपकरण उस समय के लोगों की जीवनशैली, उनके कार्यों और उनकी सांस्कृतिक विकास की गति को समझने में सहायक हैं।

चित्तौड़गढ़ के पाषाणकालीन अवशेषों से जुड़े प्राचीन समुदायों के सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव हमें आरंभिक मानव जीवन और उसके विकास की गहरी समझ प्रदान करते हैं। इन अवशेषों का अध्ययन हमें बताता है कि प्राचीन मानव समुदायों ने किस प्रकार अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन और जीवन रक्षा की रणनीतियाँ विकसित की थीं। हैंडएक्स और क्लीवर जैसे विभिन्न प्रकार के पत्थरों के औजारों की विविधता यह संकेत देती है कि उन्होंने अपने पर्यावरण और उपलब्ध संसाधनों की गहरी समझ के साथ उनका उपयोग किया था। इन औजारों की जटिलता और कारीगरी उस समय के सामाजिक संगठन और समूह गतिशीलता की ओर इशारा करती है। यह सुझाव देता है कि ज्ञान और कौशल साझा किए जाते थे और संभवतः एक सामुदायिक जीवन और अस्तित्व के लिए सहयोग की भावना विकसित की गई थी। पत्थरों के औजारों से सरल से अधिक जटिल निर्माण तकनीकों का संक्रमण इन समाजों के संज्ञानात्मक और सांस्कृतिक विकास को दर्शाता है। इससे पता चलता है कि समय के साथ उनके सोच प्रक्रियाओं, समस्या समाधान क्षमताओं में प्रगति हुई थी और शायद सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक चिंतन भी विकसित हुआ था।

औजारों के प्रकार से उन समुदायों की आर्थिक गतिविधियों और जीविका के पैटर्न के बारे में भी जानकारी मिलती है। यह दर्शाता है कि उन्होंने कैसे शिकार, संग्रह करके अपने पर्यावरण के साथ संपर्क स्थापित किया था। इसके अलावा, पाषाणकालीन स्थलों से प्राप्त प्रमाण यह भी बताते हैं कि प्रारंभिक मानवों ने किस प्रकार से अपने पर्यावरण के साथ अंतर्क्रिया की और उस पर प्रभाव डाला। इन पुरास्थलों का वितरण उनके प्रवास पैटर्न और बसावट के विकल्पों के बारे में भी जानकारी देता है, जिससे पता चलता है कि उन्होंने क्यों कुछ क्षेत्रों को निवास के लिए चुना था। इस प्रकार, चित्तौड़गढ़ के पाषाणकालीन अवशेष हमें केवल प्रारंभिक मानवों की प्रौद्योगिकी क्षमताओं की झलक दिखाते हैं, बल्कि उनके सामाजिक ढांचे, सांस्कृतिक विकास, पर्यावरण के साथ उनकी अंतर्क्रिया के बारे में भी जानकारी देते हैं। ये पहलू सामूहिक रूप से मानव विकास और मानव समाज के मूल तत्वों की एक समृद्ध समझ में योगदान करते हैं।

निष्कर्ष : 70 से अधिक वर्षों में किए गए शोध के बाद चित्तौड़गढ़ की उभरती हुई तस्वीर को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र भी अन्य क्षेत्रों के समान प्रारम्भिक होमिनिन द्वारा रहने के लिए चयनित किया गया था। अतीत में किए गए तर्कों के अनुसार क्वार्टजाइट तथा क्वार्टजाइटिक बलुआ प्रस्तर उपकरण निर्माण के लिए उपयुक्त था जो इस क्षेत्र में सुगमता से उपलब्ध था। इसी कारण प्रारम्भिक मानव ने इसे अपना निवास स्थान बनाया होगा। यह अध्ययन समृद्ध पुरापाषाणिक पुरातात्विक अवशेषों वाले क्षेत्रों की पुनः जांच से उभरे नए आंकड़ों के महत्व पर प्रकाश डालता है। इस क्षेत्र में पूर्व सिंहावलोकन ज्यादातर नदी के किनारे वाले क्षेत्रों में आयोजित किए गए थे, जिसके परिणामस्वरूप कुछ एश्यूलियन पुरास्थल प्रतिवेदित हुये थे। हमारे अध्ययनों से पता चला है कि एश्यूलियन पुरास्थल तलहटी के मिश्रोढ संदर्भ में प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं जो हाल ही के उत्खनन या कटाव के कारण निरावरण हुए हैं। चित्तौड़गढ़ ने अब तक हमारे समक्ष पाषाणकालीन संस्कृतियों के अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किए हैं तथा इसके भूगर्भ अब भी जाने कितनी प्रागैतिहासिक अवशेष दबे हुए हैं। आधुनिक खनन कार्यों के चलते चित्तौड़गढ़ में स्थित प्रागैतिहासिक पुरास्थल बहुत तेजी से नष्ट हो रहे हैं। इनके बचाव कार्य हेतु इनके नष्ट हो जाने से पहले इनका व्यापक शोध तथा इनके विस्तृत दस्तवेज़ीकरण की नितान्त आवश्यक्ता है।



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स्वाती वर्मा
शोधार्थी, पुरातत्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग, महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा, गुजरात
swativerma0284@gmail.com, +91 9454931900
 
डॉ. वृषभ महेश (शोध निर्देशक)
असिस्टेंट प्रोफेसर, पुरातत्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा, गुजरात
vrushab999@gmail.com, +91 9586024249

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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