शोध आलेख : ‘भरथरी’ लोकगाथा के भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी रूपों में साम्य-वैषम्य / रवि प्रकाश सूरज

'भरथरी लोकगाथा के भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी रूपों में साम्य-वैषम्य
- रवि प्रकाश सूरज

शोध सार : भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओँ का लोकसाहित्य अत्यंत समृद्ध रहा है। भोजपुरी में कुल नौ और छत्तीसगढ़ी में लगभग तीस प्रमुख लोकगाथाओं का प्रचलन है। इनमें से कुछ लोकगाथाएं भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों क्षेत्रों में समान रूप से प्रचलित हैं। ‘भरथरी की गाथा एक ऐसी ही गाथा है। यह लोकगाथा राजा भरथरी के वैराग्यमार्ग पर जाने तथा गुरु गोरखनाथ  से शिष्यत्व ग्रहण करने की कथा है। राजा भरथरी आगे चलकर नाथ संप्रदाय के प्रमुख संतों में स्थान पाते हैं। नाथ पंथ के जोगियों द्वारा सारंगी की तान पर घूम-घूमकर गाई जाने वाली यह गाथा मनुष्य को वैराग्य की तरफ जाने तथा परम सत्य की खोज के लिए प्रेरणा देती है। भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों रूपों में इस गाथा के कथावस्तु और ऐतिहासिकता में समानता है तो कुछ स्थानों पर विभिन्नताएं भी हैं। इसके बावजूद गाथा के  मूल स्वरुप और उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं होता। प्रस्तुत आलेख में भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी ‘भरथरी के साम्य-वैषम्य पर चर्चा की गई है।

बीज शब्द : भरथरी, लोकगाथा, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, नाथ संप्रदाय, गोरखनाथ, लोकसाहित्य, पौराणिक गाथा, ऐतिहासिकता, मौखिक परंपरा, भर्तृहरि, लोकसंस्कृति।

मूल आलेख : ‘लोक शब्द का मूल बहुत ही प्राचीन रहा है। भारतीय परम्परा में ‘वेद और ‘लोक दोनों शब्द दो अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों की ओर इंगित करते हैं। वेद में कही गई बातों को ‘वैदिक और ‘लोक में प्रचलित बातों को ‘लौकिक कहा जाता है। प्रायः ‘लोक का संबंध अंग्रेजी के ‘फोक शब्द से जोड़ा जाता है। पाश्चात्य जगत की अवधारणा को ही कई भारतीय विद्वान स्वीकार कर ‘लोक का अर्थ ग्रामीण, अशिक्षित या जंगलों-पर्वतों में रहने वाले आदिवासियों से लगाते हैं। पर, वस्तुतः यह सच नहीं है। ‘लोक शब्द का मूल संस्कृत का ‘लोक दर्शने धातु से सम्बन्धित है जिसका अर्थ है देखने वाला। इस आधार पर जो भी जनसमुदाय देखने का कार्य संपन्न कर रहा है वह लोक की श्रेणी में आएगा।

 डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं। ये लोग नगर में परिष्कृत, रूचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं।”1

डॉ कृष्णदेव उपाध्याय के अनुसार “जो लोग संस्कृत या परिष्कृत वर्ग से प्रभावित न होकर अपनी पुरातन स्थितियों में ही रहते हैं, वे ‘लोक होते हैं।”2

इस तरह अनेक विद्वानों ने लोक की परिभाषा और उसके महत्त्व को रेखांकित किया है। सबका निचोड़ यही है कि ‘लोक मानव समाज का वह वर्ग है जो एक परम्परा के प्रवाह में जीता है और जिसमें अभिजात्य संस्कार और शास्त्रीय चेतना का अहंकार न मिलता हो। ऐसे ही वर्ग का साहित्य ‘लोकसाहित्य कहलाता है। यह वह साहित्य है जिसमें देश की आम जनता की परम्परा का स्वरुप, उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना, उसकी सभ्यता-संस्कृति, उसके रीति-रिवाजों और उसकी भावना का सजीव चित्रण और अभिव्यक्ति मिलती हो। डॉ कृष्णदेव उपाध्याय कहते हैं “लोकसाहित्य को जनजीवन का दर्पण कहा जाए तो इसमें कुछ अत्युक्ति नहीं होगी। लोकसाहित्य जनता के ह्रदय के उदगार हैं।”3

लोकसाहित्य का एक प्रमुख अंग लोकगाथा है। लोकगाथाओं को ‘कथात्मक गीत अथवा ‘गीतकथा की भी संज्ञा दी जाती है। 4 अंग्रेजी में इसका अर्थ ‘बैलेड से लगाया जाता है। ‘बैलेड शब्द की उत्पत्ति लैटिन धातु ‘बैलारे से हुई है जिसका अर्थ है ‘नाचना5 रॉबर्ट ग्रेब्स ने इसकी उत्पत्ति को ‘बैलेट शब्द से जोड़ा है जिसका अर्थ है नाच के समय गाया जाने वाला गीत। लोकगाथा के अंतर्गत ऐसे गीत और काव्य आते हैं जिनमें किसी कथानक अथवा नायक की जीवनी की प्रधानता होती है, जो गेयात्मक होता है और जिसका आकार बहुत लंबा होता है। जी ए ग्रियर्सन ने इसे ‘पॉपुलर सांग कहकर संबोधित किया है मगर यह तार्किक प्रतीत नहीं होता। 6 डॉ कृष्णदेव उपाध्याय ने इन कथात्मक गीतों को ‘लोकगाथा कहकर संबोधित किया है और यही नाम प्रचलित है एवं सार्थक भी है।7 लोकगाथाओं की विशेषताओं को कई विद्वानों ने अपने-अपने शोधकार्यों में चिन्हित किया है। संसार के हर देश की लोकगाथाओं की विशेषता एकसमान होती है।8

भारतीय आर्य भाषाओँ में भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों एक ही परिवार की भाषाएँ हैं। इन दोनों भाषाओँ की विकास यात्रा भी एकसमान है। छत्तीसगढ़ राज्य के उत्तरी जनपदों की सीमायें भोजपुरी भाषी प्रदेश की सीमाओं से मिलती हैं। पूर्ववर्ती अविभाजित बिहार (झारखंड सहित) का पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ रहा है। प्राचीन छत्तीसगढ़ के इतिहास के अनुसार समीपवर्ती राज्य खासकर बिहार से कई लोग छत्तीसगढ़ प्रदेश में आकर बसे हैं। आज भी यहाँ प्रवासी भोजपुरी भाषी जनता बड़ी संख्या में निवास करती है। इस वजह से भी दोनों भाषा-संस्कृतियों में विषमताओं के बावजूद कई समानताएं भी दृष्टिगोचर होती हैं।

भोजपुरी और छतीसगढ़ी दोनों लोकभाषाएं बेहद समृद्ध हैं विशेषकर मौखिक या वाचिक लोकसाहित्य की दृष्टि में। दोनों भाषाओँ में लोकगाथाओं की भी उतनी ही समृद्ध और प्राचीन परंपरा रही है जितना कि इन दोनों भाषाओँ का इतिहास। भोजपुरी जनपद यानी भोजपुरी भाषी प्रदेश में कुल नौ लोकगाथाओं का प्रचलन है। 9 इनके अलावा छोटे आकार की दो-तीन अन्य लोकगाथाओं का भी वर्णन मिलता है मगर मुख्यतः नौ लोकगाथाओं को ही अध्ययन के उपयुक्त समझा गया है। डॉ कृष्णदेव उपाध्याय ने भोजपुरी लोकगाथाओं को अध्ययन की सुविधा हेतु तीन भागों में वर्गीकृत किया है-– वीरकथात्मक, प्रेमकथात्मक एवं रोमांचकथात्मक।10

डॉ सत्यव्रत सिन्हा ने भोजपुरी लोकगाथाओं में उपस्थित लोकतत्त्वों की प्रधानता के आधार पर इन्हें चार भागों में बांटा है—वीरकथात्मक, प्रेमकथात्मक, रोमांचकथात्मक एवं योगकथात्मक।11 यह वर्गीकरण ज्यादा तार्किक है।

छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य में तीस से अधिक लोकगाथाएं प्रचलित हैं।12 छत्तीसगढ़ी भाषा के अधिकांश लोकगीतों पर लोकगाथाओं का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। डॉ विजय कुमार सिन्हा ने छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं को तीन भागों में वर्गीकृत किया है – प्रेम गाथाएं, पौराणिक गाथाएं, वीर गाथाएं।13 यह वर्गीकरण उनके विषयवस्तु पर आधारित है।

भोजपुरी हो या छत्तीसगढ़ी दोनों क्षेत्रों की प्रचलित लोकगाथाएं परंपरानुगत होती हैं यानी जो सदियों से मौखिक परंपरा द्वारा लोककंठ में संरक्षित होकर प्रश्रय पा रही हैं और जिनके रचयिता अज्ञात हैं। लोरिकायन हो या ढोला-मारू हो या फिर बिहुला विषहरी या अहिमन रानी की गाथा सभी लोकगाथाओं में स्थानीय परिवेश, लोकसंस्कृति, आस्था-विश्वास, सामाजिक यथार्थ आदि का समावेश रहता है। लोकगाथाओं में स्थानीयता का तत्त्व होना इनकी एक विशेषता है। लोकगाथाएं चाहे कहीं जन्म ले मगर वे घूम-फिरकर जिस स्थान पर प्रश्रय पाती हैं वहाँ के स्थानीयता और ऐतिहासिकता के गंध से सराबोर हो उठती हैं। कुछ गाथाओं का विषयवस्तु स्थानीय परिवेश के अनुसार बदल जाता है अथवा कभी-कभार एक नई कथानक वाली गाथा का ही जन्म हो जाता है। अगर स्थानीय अथवा आंचलिक नायकों और उनके गाथाओं का सृजन हुआ है तो पौराणिक चरित्र भी लोकगाथाओं के पात्र के रूप में जनमानस के रूप में स्वीकृत हुए हैं। इन पौराणिक लोकगाथाओं के पात्र पुराणों से लिए गए हैं मगर जब लोकगाथा गायक इनकी कथा सुनाते हैं तो उनमें सहज ही कई कल्पित प्रसंग आ जुड़ते हैं। यह भी संभव हो सकता है कि एक ही क्षेत्र के दो लोकगाथा गायकों द्वारा सुनाई जाने वाली एक ही गाथा में दो अलग-अलग प्रसंग हों।

छत्तीसगढ़ और भोजपुरी प्रदेश दोनों प्रक्षेत्रों के निवासी मूलतः धार्मिक प्रवृत्ति के रहे हैं। चाहे आर्य हो, निषाद हो या इन क्षेत्रों के वनवासी, सभी अनंत काल से ही देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में विश्वास करते हैं। धर्मग्रंथों विशेषकर पुराणों और उपनिषदों ने इन दोनों क्षेत्रों के निवासियों के जनमानस को प्रभावित किया है। हिन्दू अथवा सनातन धर्म के अलावा बौद्ध और जैन धर्मों का पल्लवन-पोषण भी इसी क्षेत्र में हुआ है। इस वजह से काल्पनिक लोकगाथाओं की तुलना में पौराणिक लोकगाथाएं इस क्षेत्र में ज्यादा प्रचलित रही हैं। ‘भरथरी और ‘गोपीचंद की लोकगाथा दो ऐसी पौराणिक लोकगाथाएं हैं जो भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों प्रदेशों में समान रूप से प्रचलित रही हैं। ‘भरथरी की गाथा तो पूरे राष्ट्र विशेषकर उत्तर भारत में प्रचलित है। यह गाथा नाथ पंथी जोगियों द्वारा सारंगी नामक वाद्य यंत्र पर घूम-घूमकर भिक्षा मांगते हुए गाई जाती हैं। एक विशेष समूह ‘जोगी द्वारा गाई जाने के कारण इसे जातीय गाथा की श्रेणी में रखा जा सकता है। जोगी नाथ संप्रदाय के अनुयाई होते हैं। इस पंथ या संप्रदाय को लोकप्रिय बनाने का श्री गुरु गोरखनाथ को जाता है। नाथ संप्रदाय को शाक्त, शैव तथा बौद्ध मत का मिला-जुला रूप माना गया है। साथ ही इस संप्रदाय के रीति-रिवाजों पर पतंजलि के हठयोग की भी स्पष्ट छाप मिलती है। ‘भरथरी की गाथा में नाथ संप्रदाय के जटिल योग साधना और वैराग्य के सिद्धांत को सरल भाषा में राजा भरथरी के जीवन चरित के जरिये समझाया गया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि “यह विश्वास किया जाता है कि आदिनाथ स्वयं शिव ही हैं और मुख्यतः समग्र नाथ संप्रदाय शैव हैं।”14 राजा भरथरी वैराग्य धारण करके योगमार्ग पर चले गये थे। इनको इस संप्रदाय का परवर्ती संत माना जाता है जिन्होंने वैराग्यमार्ग का प्रचार किया। ये नवनाथों की श्रेणी में आते हैं।

‘भरथरी की लोकगाथा यूँ तो सार्वदेशिक है और कई बोलियों में इसके रूप उपलब्ध हैं परंतु इसके भोजपुरी रूप को ही मूल और प्रतिनिधि रूप माना गया है। जोगी घूम-घूमकर बंगाल से पश्चिम भारत तक इस गाथा को गाकर वैराग्य धर्म का प्रचार करते थे। ऐसा माना जाता है कि छतीसगढ़ की मूल गाथा न होने के बावजूद यहाँ इसकी व्यापक लोकप्रियता जोगियों द्वारा ही हुई है। भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों रूपों में ‘भरथरी की लोकगाथा की कथा बहुत हद तक एकसमान है मगर स्थानीयता एवं मौखिक परंपरा के कारण कथानक एवं अन्य पक्षों में कुछ विषमताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं। इस आलेख में भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी ‘भरथरी के साम्य-वैषम्य पर विचार किया गया है।

‘भरथरी के भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों रूपों का विषयवस्तु एकसमान ही हैं जिसमें भरथरी के दार्शनिक पक्ष नहीं बल्कि उनके जीवन का वर्णन है। इसमें राजा भरथरी के वैराग्य धारण कर गुरु गोरखनाथ का शिष्य बनने की पूरी कथा है। ‘भरथरी के भोजपुरी रूप की कथा दो भागों में है। पहले भाग में राजा भरथरी के वैराग्य लेने और राज्यत्याग की इच्छा तथा दूसरे भाग में पिंगला द्वारा रानी सामदेई के पूर्वजन्म की कथा सुनाना, राजा भरथरी के ह्रदय में वैराग्यभाव का प्रस्फुटन तथा गुरु गोरखनाथ का शिष्य बनना शामिल है। पहले भाग की कथा में जब राजा भरथरी वैराग्य लेकर चलने लगते हैं तो रानी सामदेई उनका मार्ग रोकती है। भरथरी रानी को भाग्य में लिखे हुए वैराग्य जीवन की बात बताते हैं। रानी को संतोष नहीं होता और वो काफी अनुनय-विनय करती है तो राजा उससे सवाल करते हैं कि गौने की रात को पलंग पर चढ़ते ही पलंग टूट क्यों जाता है? रानी खुद तो कोई जवाब नहीं देती मगर इसका पता करने के लिए अपनी छोटी बहन पिंगला के पास जाने को कहती है। पिंगला का विवाह दिल्लीगढ़ के राजा मानसिंह के साथ हुआ था। पिंगला राजा भरथरी को टूटे हुए पलंग का भेद बताते हुए कहती है कि रानी सामदेई पूर्वजन्म में भरथरी की माता थी। राजा उदास होकर शिकार खेलने सिंहल द्वीप के जंगल की ओर चल पड़ता है। वहाँ एक काला मृग होता है जो सत्तर सौ मादा मृगों का स्वामी है। मादा मृग राजा से काले मृग की जान न लेने की प्रार्थना करती हैं मगर राजा अस्वीकार कर देता है। काले मृग पर दैवीय कृपा होने से वह राजा के बाणों के शुरूआती वारों से बच जाता है मगर सातवें तीर से घायल होकर जमीन पर गिर जाता है। मरते वक़्त काला मृग राजा को श्राप देता है कि जिस तरह सत्तर सौ मादाएं उसके बिना तड़पा करेंगी ठीक उसी तरह रानी भी तड़पेंगी। अब राजा भरथरी मृग को जिंदा करने के बारे में सोचता है और उसे लादकर गुरु गोरखनाथ के पास पहुँचता है। राजा गोरखनाथ से मृग को ज़िंदा करने की जिद करता है गोरखनाथ मृग को जीवित कर देते हैं। राजा खुद को सामर्थ्यहीन समझकर गुरु से शिष्य बनाने की प्रार्थना करता है। गोरखनाथ यह शर्त रखते हैं कि अगर राजा अपनी रानी को ‘माँ कहकर भीख मांगते हैं तो वे शिष्य बनाने को राजी होंगे। भरथरी जोगी के वेष में महल के सामने पहुंचकर “माँ, भिक्षा दो” की पुकार लगाते हैं रानी बाहर निकलकर देखती है। वह राजा को इस वेष में देखकर दुखी होती है। रानी राजा को महल में ही रहकर योग-साधना करने को कहती है मगर भरथरी राजी नहीं होते। अंत में रानी चौपड़ की बाज़ी खेलकर निर्णय लेने को कहती है। शुरू में रानी जीतने लगती है मगर अंत में गुरु गोरखनाथ की कृपा से भरथरी जीत जाते हैं और जोगी बन जाते हैं।

‘भरथरी के छत्तीसगढ़ी रूप की कथा भोजपुरी के मूल रूप से बहुत हद तक मेल खाती है। इसके बावजूद दोनों रूपों की कथा में कई जगह असमानताएं भी हैं। आधुनिक समय में छत्तीसगढ़ी गाथा को लोकप्रिय बनाने में लोकगायिका श्रीमती सुरुज बाई खांडे का बहुत बड़ा योगदान है। वे अपनी गाथा में राजा भरथरी को उजैन का राजा बताती हैं। जबकि भोजपुरी क्षेत्र में यह जनश्रुति है कि भरथरी गोरखपुर क्षेत्र के शासक थे। 15 भोजपुरी ‘भरथरी की गाथा में गुरु गोरखनाथ शिष्यत्व ग्रहण करने की परीक्षा में राजा को यह निर्देश देते हैं कि वह रानी सामदेई को अपनी माँ कहकर संबोधित करे। वहीँ छत्तीसगढ़ी लोगाथा में स्वयं रानी सामदेई ही राजा को बताती हैं कि वे पूर्वजन्म में उसकी माँ थी। ‘भरथरी की गाथाओं में यह भी जिक्र मिलता है कि उज्जैन के राजा भरथरी अपने भाई विक्रमादित्य को राजकाज सौंपकर जोगी बन गये।16 ‘भरथरी की गाथा के एक अन्य रूप में यह भी उल्लेख मिलता है कि राजा अपनी किसी रानी के अनुचित व्यवहार की वजह से वैराग्य की ओर उन्मुख हुए।17 भरथरी की रानी के चरित्र पतन की घटना का उल्लेख केवल मालवी गाथा में ही प्राप्त होता है। भोजपुरी रूप की गाथा में भरथरी के चरित्र का वर्णन व्यापक रूप में है जबकि छत्तीसगढ़ी रूप में यह बेहद सीमित तथा संकुचित रूप में है। छत्तीसगढ़ी रूप में पहले मृग का शिकार तथा उसके श्राप की घटना राजा भरथरी के वैराग्य का कारण है वहीँ भोजपुरी रूप में सर्प की घटना और रानी की मृत्यु का भी उल्लेख मिलता है। गाथा के भोजपुरी रूप में राजा भरथरी पलंग टूटने की घटना का रहस्य पता करने के लिए साली पिंगला को चिट्ठी लिखकर बुलावा भेजते हैं मगर छत्तीसगढ़ी रूप में वे आल्हा-उदल के साथ सेना लेकर दिल्ली जाते हैं। भोजपुरी ‘भरथरी में रानी पिंगला राजा को पलंग टूटने का रहस्य उसी समय बतला देती हैं मगर छत्तीसगढ़ी रूप में सात जन्मों के बाद बताती हैं। गाथा के छत्तीसगढ़ी रूप और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा किये गये उल्लेख में रानी पिंगला को ही राजा भरथरी की पत्नी दिखाया गया है जबकि भोजपुरी के प्रचलित रूप और अन्य बोलियों की गाथा में रानी सामदेई को राजा भरथरी की पत्नी और पिंगला को उसकी साली बताया गया है।

साहित्य और इतिहास का एक अमिट संबंध है। साहित्य सिर्फ वर्त्तमान की घटनाओं का दस्तावेज ही नहीं है बल्कि अतीत की गहराई से उन तत्त्वों को खोज लाने की भी क्षमता रखता है जो वर्त्तमान को गति प्रदान करती हैं और भविष्य की नींव रखती हैं। अतएव साहित्य के विभिन्न रूपों की ऐतिहासिकता का विवेचन करना भी आवश्यक हो जाता है। एक अच्छे साहित्यकार की यह विशेषता होती है कि वह इतिहास की गहराईयों में छुपे संदेशों को सामयिक संदर्भों के साथ मिलाकर ऐसे प्रस्तुत करे कि इतिहास भी सामयिक रूप से प्रासंगिक हो उठे। इस कला में वह अपनी कल्पनाशीलता का सहारा लेता है। ‘भरथरी की लोकगाथा के विभिन्न रूपों के कथावस्तु में जिस तरह साम्य-वैषम्य है ठीक वैसा ही इसकी ऐतिहासिकता को लेकर भी है। ‘भरथरी की लोकगाथा का कोई एक रचयिता नहीं है वरन यह गाथा लोकमानस के कंठ में सदियों से सुरक्षित है। लोकगायक इस गाथा में इतिहास को पिरोते हैं तो उसे रोचक और साहित्यिक रूप देने के लिए कल्पना का भी सहारा लेते हैं। लोकगाथा के नायक भरथरी और श्रृंगार शतक, नीति शतक, वैराग्य शतक के रचयिता भर्तृहरि दोनों एक हैं या नहीं इसको लेकर कभी-कभार विद्वानों में मतभेद जान पड़ता है मगर इसके ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं। मालवा प्रान्त की राजधानी उज्जैन में शासक भर्तृहरि अपने भाई राजा विक्रमादित्य के साथ निवास करते थे, राजा के जीवन में जो कुछ भी घटा उसी का वर्णन उन्होंने अपने तीनों ग्रंथों में किया है। उज्जैन के राजा भर्तृहरि की माता का नाम रूपदेई और पत्नी का नाम सामदेई था। भोजपुरी गाथा में भरथरी की पत्नी के नाम में भी यही उल्लेख मिलता है मगर छत्तीसगढ़ी गाथा के एक रूप में पिंगला का उल्लेख पत्नी के रूप में है। दसवीं शताब्दी में उज्जैन के राजा भर्तृहरि ने गोरखनाथ की शिक्षाओं से प्रभावित होकर नाथ पंथ की दीक्षा ली थी यह सर्वविदित है। प्रायः सभी गाथाकारों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि भरथरी उज्जैन के राजा थे और उनकी पत्नी का नाम सामदेई था। दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह के अनुसार 274 वीं पीढ़ी के राजा गंधर्वसेन के ज्येष्ठ पुत्र विक्रमादित्य और छोटे पुत्र भर्तृहरि थे। उनका मत है कि विक्रमादित्य के शासनकाल में ही भर्तृहरि गोरखपुर के शासक बने थे। इसी वजह से भोजपुरी क्षेत्रों में आज भी किंवदंती के रूप में यह स्थापित है कि राजा भरथरी का जन्म गोरखपुर में ही हुआ था।18 आचार्य नंदकिशोर तिवारी के अनुसार “चुनार में गंगा-तट पर भरथरी ने साधना की थी। इनके खडाऊ भी यहाँ रखे हुए हैं। उज्जैन के निकट इनकी समाधि है। गोरखनाथ धाम में रहकर इन्होने बाबा गोरखनाथ या उनके शिष्य से दीक्षा ली थी।”19 छत्तीसगढ़ में सर्वप्रथम गोदरिया जोगियों ने भरथरी की गाथा का प्रच्यार किया, बाद में इसे देवार-बालाओं फिर उसके बाद सतनाम पंथ की गायिकाओं ने इसे अपनाया। छत्तीसगढ़ में शक्ति आराधना के एक स्वरुप ‘जंवारा को भी भरथरी के सिद्धांतों से जोड़ के देखने की कोशिश हुई है। इसके अलावा शिवरीनारायण में स्थापित ‘कनफड़ा और ‘नकफड़ा’ बाबा की मूर्तियाँ भी नाथ संप्रदाय के स्पष्ट प्रभाव को रेखांकित करती हैं। छत्तीसगढ़ में आज भी इस गाथा का प्रचलन व्यापक रूप में है मगर यह स्थापित तथ्य है कि भरथरी की गाथा मूल रूप से भोजपुरी ही है जिसका जन्म भोजपुरी प्रदेश के गोरखपुर से हुआ है। डॉ रामनारायण धुर्वे के अनुसार “भरथरी लोकगाथा छत्तीसगढ़ में आकर यहाँ की संस्कृति में रच-बसकर ही समादृत हुई हैं। इसकी मूल कथा में इसीलिए परिवर्तन हुआ है जो सहज-स्वाभाविक है। लोकगायक एवं गायिकाएं इतिहास की मूल आत्मा को संजोते हुए आंचलिक रंग और काल्पनिक तरंग का इस तरह आश्रय लेते हैं कि ये इतिहास का ही अंग प्रतीत हों।”20

निष्कर्ष : भरथरी की लोकगाथा हिन्दी लोक में गहरे तक विद्यमान है। इस गाथा के नायक भरथरी एक ऐतिहासिक और पौराणिक चरित्र हैं। देश, काल, भाषा, संस्कृति और परंपरा की विभिन्नताओं के चलते कथावस्तु और ऐतिहासिकता में भिन्नता जरुर आ गई है, परंतु मूल कथा के स्वरुप और गाथा के उद्देश्य में कोई भिन्नता नहीं है। लोकगाथा के गायकों के मधुर कंठ से रस की जो धारा निकलती है वह सुनने वालों को सराबोर तो करती ही हैं साथ ही इस गाथा का जो उद्देश्य है उसकी भी पूर्ति करती है। कथावस्तु और ऐतिहासिक पक्ष में तमाम साम्य-वैषम्य होने के बावजूद ‘भरथरी की गाथा के भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों रूपों का उद्देश्य एक ही रहता है—वैराग्यमार्ग  का प्रचार और मनुष्यों को सांसारिक मोह-आसक्ति से दूर करते हुए परम सत्य की खोज के लिए प्रेरित करना। भरथरी एक ऐतिहासिक और पौराणिक चरित्र होने के बावजूद इतिहास और पुराण की परिधि में बंध कर नहीं रहते बल्कि भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी दोनों प्रदेशों में स्थानीय लोकसंस्कृति और आंचलिकता के प्रभाव में उनकी गाथा में आधुनिकता और समकालीनता का ऐसा समावेश है जिससे ना सिर्फ भरथरी की गाथा की रोचकता बनी रहती है बल्कि गाथा का रस भी अक्षुण्ण बना रहता है।

सन्दर्भ :
1.    आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, ‘लोकसाहित्य का अध्ययन’, जनपद त्रैमासिक, पृष्ठ  65-66
2.    डॉ कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकसाहित्य का अध्ययन, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, 1960, भूमिका
3.    डॉ कृष्णदेव उपाध्याय, लोकसाहित्य की भूमिका, साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद, 1957, पृष्ठ 260
4.    सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, 1957, पृष्ठ 1
5.    फ्रैंक सिजविक, ओल्ड बैल्लाड्स, रीड बुक्स, 2007, पृष्ठ 1
6.    जी ए ग्रियर्सन, इंडियन एंटीक्वारी, वॉल्यूम- 15, बॉम्बे, 1886, पृष्ठ 120-22
7.    डॉ कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकसाहित्य का अध्ययन, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, 1960, पृष्ठ 492
8.    सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, 1957, पृष्ठ 52
9.    वही, पृष्ठ 44
10.  डॉ कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकसाहित्य का अध्ययन, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, 1960, पृष्ठ 499
11.  सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, 1957, पृष्ठ 54
12.  डॉ विजय कुमार सिन्हा, छत्तीसगढ़ी लोकगाथा समग्र, पंकज बुक्स, 2020, पृष्ठ 50
13.  वही, पृष्ठ 51
14.  हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ संप्रदाय, हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, 1950, पृष्ठ 3
15.  दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीतों में करुण रस, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 1965, पृष्ठ 13-14
16.  सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, 1957, पृष्ठ 189
17.    हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ संप्रदाय, हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, 1950, पृष्ठ 168
18. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीतों में करुण रस, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 1965, पृष्ठ 13-14
19.  नंदकिशोर तिवारी, भरथरी छत्तीसगढ़ी लोकगाथा, मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद्, 1994, पृष्ठ 11-12
20. डॉ रामनारायण धुर्वे, भरथरी, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2010, पृष्ठ 114-115

रवि  प्रकाश सूरज
शोध छात्र, स्नातकोत्तर भोजपुरी विभाग, वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार
पत्राचार- सुरभि कुंज, आदर्श होमियोपैथी क्लिनिक,
डी एम कोठी-क्लब रोड, आरा, पिन- 802301
9891087357, raviprakashsuraj@gmailcom

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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