शोध आलेख : जयशंकर प्रसाद और मणि मधुकर के नाटकों में सामाजिक चेतना / रवि शंकर सैनी

जयशंकर प्रसाद और मणि मधुकर के नाटकों में सामाजिक चेतना
- रवि शंकर सैनी


शोध सार : साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्त विषमताओं व सामाजिक समस्याओं को उजागर किया जाता है। जयशंकर प्रसाद एक ऐसे ही व्यक्तित्व है जिन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से सामाजिक समस्याओं पर कटाक्ष किया है। इनके ही सदृश मणि मधुकर का नाम लिया जा सकता है। उक्त दोनों ही नाटककारों ने अपने नाटकों में जातिगत विषमता, वर्ण व्यवस्था, स्त्री-पुरुष संबंध,मानवीय रिश्तों का अवमूल्यन आदि समस्याओं का चित्रण कर समाज में चेतना लाने का स्तुत्य प्रयास किया है।

बीज शब्द : संकल्पना, भौतिकतावादी, प्रणाली, आकांक्षा, सामाजिक विघटन, पृष्ठभूमि, दृष्टिकोण, आर्य संस्कृति, माया स्तूप, परिकल्पना आदि।

मूल आलेख : संयुक्त परिवार की व्यवस्था भारत में परंपरा से चली आ रही है। इस प्रणाली में नाना प्रकार के परिवर्तन होते रहे हैं। आधुनिक भौतिकवादी युग में तो इस संयुक्त परिवार प्रणाली में कई प्रकार के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार संयुक्त परिवार की यह व्यवस्था क्षीण होती जा रही है। प्रसाद के नाटकों के पात्रों में भी पारिवारिक विघटन देखने को मिलता है। जिसका प्रधान कारण परिवार में आकांक्षाओं, संतोष और नियंत्रण का लोप होना है। प्रसाद ने अपने नाटकों में गृह-कलह, द्वेष, ईर्ष्या, तनाव, संघर्ष आदि के कारण सामाजिक विघटन को दर्शाया है वहीं यह भी प्रतिपादित किया है कि परिवार तथा समाज के हितार्थ संयुक्त परिवार प्रणाली उत्तम तथा कल्याणकारी है। अजातशत्रु तथा स्कंदगुप्त नाटक में इस प्रणाली का चित्रण प्रसाद ने किया है। अजातशत्रु नाटक में बिंबिसार, वासवी, छलना, अजातशत्रु, बाजीराव आदि संयुक्त परिवार में रहते हैं। प्रसाद ने अपने नाटकों में संयुक्त परिवार की व्यवस्था को समाज के हितार्थ आवश्यक माना है। डॉ. प्रेमदत्त शर्मा कहते हैं कि" प्रसाद इन कल्पित घटनाओं के आधार पर सांसारिक जीवन के उतार-चढ़ाव को प्रस्तुत करते हुए एक सुखी और समृद्धि युक्त परिवार की स्थापना करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मगध, कौशल और कौशांबी के राज परिवार की घटनाओं को लेकर पारिवारिक समाज का चित्रण किया।"1 प्रसाद के नाटकों में दांपत्य के दोनों रूपों उत्तम और निकृष्ट का चित्रण देखने को मिलता है। ध्रुवस्वामिनी नाटक में ध्रुवस्वामिनी का विवाह एक आचरण विहीन व्यक्ति रामगुप्त से हो जाता है। इस कारण उनका दांपत्य जीवन कई प्रकार की कठिनाइयो व समस्याओं से घिर जाता है और अंत में दोनों का विवाह-विच्छेद हो जाता है। राज्यश्री नाटक में गृहवर्मा  की मृत्यु हो जाने के कारण राज्यश्री वैधव्य जीवन व्यतीत करती है। जन्मेजय का नागयज्ञ नाटक में दामिनी और वेद के दांपत्य जीवन में दामिनी की अतिरिक्त कामवासना बाधक बन जाती है। इस प्रकार प्रसाद ने अपने नाटकों के द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि प्रेम, विश्वास, सम्मान और मेल विवाह के आधार पर ही पारिवारिक जीवन सुखमय और आदर्शमय हो सकता है। प्रसाद ने पारिवारिक कल्याण की कामना के निमित्त अजातशत्रु नाटक में कहा है कि -

" बच्चे - बच्चों से खेले, हो स्नेह बढ़ा उनके मन में,
कुल लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंगल उनके जीवन में।
बंधुवर्ग हो सम्मानित, हों सेवक सुखी, प्रणत अनुचर,
शांतिपूर्ण हो स्वामी का मन, तो स्पृहणीय न हो क्यों घर ?"2


प्रसाद के नाटक पौराणिक, ऐतिहासिक और काल्पनिक होते हुए भी उनके नाटकों की पृष्ठभूमि सामाजिक और सांस्कृतिक है। उनका प्रधान ध्येय अपने नाटकों के माध्यम से सामाजिक चेतना के स्वरूप को उद्घाटित करना था। डॉ.हरदेव बाहरी लिखते हैं कि "प्रसाद ने देशकाल की स्थिति को विशद रूप में रखा है और समय-समय की सामाजिक,राजनीतिक और धार्मिक अवस्थाओं का इतिहाससम्मत चित्रण किया है।"3 प्रसाद के नाटकों में ऐतिहासिक व पौराणिक विषयों को लेकर चित्रण देखने को मिलता है परंतु उद्देश्य की दृष्टि से उनके नाटक सामाजिक-सांस्कृतिक हैं क्योंकि उनके नाटकों में समाज, देश, जाति, धर्म, व्यक्ति व विश्व मानवता को ध्यान में रखा गया है। उनके नाटकों का कोई भी आदर्श चरित्र व्यक्तिगत हित के लिए काम नहीं करता वरन् वह समाज व राष्ट्रहित को अपना परम ध्येय समझता है। डॉ.शांति स्वरूप गुप्त लिखते हैं कि" प्रसाद के नाटकों में पहले साहित्य, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन की झांकी मिलती है, क्योंकि यदि इतिहास वह खूंटी है, जिस पर नाटककार अपने नाटकों को लटकाता है तो ऐतिहासिक वातावरण वह दीवार है, जिस पर वह खूंटी गड़ी है। प्रसाद जी ने अपने नाटकों में तत्कालीन युग की सामाजिक और सांस्कृतिक विकास धाराओं के विविध पक्षों का कुशल चित्रण किया है।"4 प्रसाद भारत की सामाजिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे। कठोर सामाजिक बंधनों के कारण व्यक्तियों को बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता था। उनके नाटकों में नारी पात्रों को प्रमुखता से उभारा गया है। जिनमें वासवी, देवकी और कमला आदर्श माता के रूप में, चंद्रलेखा, वपुष्टमा, पद्मावती, जयमाला व वनमाला साध्वी पत्नियों के रूप में चित्रित की गई है। प्रसाद ने अपने नाटकों के माध्यम से नारी की गरिमा को बनाए रखते हुए समाज के नारी विषयक दृष्टिकोण को बदलने का स्तुत्य प्रयास किया। उन्होंने जिस नारी समाज की कल्पना की थी उसको अपने नाटकों में चरितार्थ किया है। प्रसाद ने आर्य संस्कृति के उज्ज्वल पक्षों को उजागर करने का प्रयास अपने नाटकों के माध्यम से किया है। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए ही अपने नाटकों के माध्यम से प्रतिपादित किया है कि ब्राह्मण वर्ग को त्यागी व तपस्वी, क्षत्रिय को वीर, वैश्य को समाज का पोषक तथा शूद्र को सेवा कार्य में रत रहने वाला होना चाहिए। चाणक्य कहते हैं कि" ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है ओर न किसी के अन्न से पलता है। वह स्वराज में विचरता है और अमृत होकर जीता है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखने पर भी स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है। प्रकृति के कल्याण के लिए अपने ज्ञान का दान देता है।"5 सामाजिक चेतना से युक्त होकर जनमेजय का नागयज्ञ नाटक की पात्र सरमा अपने पति से कहती है कि" आपको और सब अधिकार हैं पर मेरी सहज स्वतंत्रता का अपहरण करने का नहीं।"6 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रसाद जी ने सामाजिक जीवन के उत्थान के लिए वैदिक वर्ण- व्यवस्था के महत्व को स्वीकार किया तथा जाति-पाति व ऊॅच-नीच की परंपरा का घोर विरोध किया।

भारतीय जीवन दर्शन प्रसाद के नाट्य साहित्य में सर्वत्र देखने को मिलता है। ब्रह्मचर्याश्रम में शिक्षा ग्रहण करने का ही परिणाम है कि विशाख इरावती से स्वयं की सहायता करने की बात करता है। वह कहता है कि" उपाध्याय ने यह उपदेश दिया है कि दुखी की आवश्यक सहायता करनी चाहिए इसलिए मेरी इच्छा है कि मेरी सेवा आप लोगों के सुख के लिए हो।"7 इसी प्रकार सिंहरण भी आम्भीक से कहता है कि "विनम्रता के साथ निर्भीक होना मालवों का वंशानुगत चरित्र है और मुझे तो तक्षशिला की शिक्षा का भी गर्व है तथा गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती है अन्य आज्ञायें अवज्ञा के कान से सुनी जाती है राजकुमार।"8 प्रसाद के नाटकों की स्त्री पात्रों को सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। इसकेउदाहरण स्वरूप अजातशत्रु नाटक की स्त्री पात्र शक्तिमती कहती है कि " यदि पुरुष इन कामों को कर सकता है तो स्त्रियां क्यों नहीं ।"9 प्रसाद ने अपने नाटकों में वैदिक वर्ण- व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, स्त्री- पुरुष साम्य, विवाह स्वातंत्र्य और स्वावलंबी प्रकृति जीवन पद्धति का विश्लेषण किया है। उनके नाटकों में प्राचीन भारतीय सभ्यता व समाज के उच्च आदर्शों के आधार पर वर्तमान समाज की परिकल्पना की गई है। उन्होंने वैदिक युगीन जीवन को ही अपना आदर्श माना है। इनके विषय में डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त लिखते हैं कि "देखा जाए तो प्रसाद नाटककार, कवि, दार्शनिक और इतिहासकार से भिन्न एक समाजशास्त्री के रूप में प्रकट होते हैं। ऐसा लगता है कि उनका अपना एक सामाजिक दर्शन था। अपने उस सामाजिक दर्शन को उन्होंने सीधे-सीधे न कहकर नाटक के रूप में प्रस्तुत किया है।"10

नाटककार मणि मधुकर ने अपने नाटकों के माध्यम से सामंती मनोवृति पर कटाक्ष किया है। आज के सामाजिक जीवन में छुआछूत और जातीय समस्याएं उभरकर सामने आ रही है। मणि मधुकर ने अपने नाटकों के माध्यम से इन सामाजिक समस्याओं के बारे में आमजन को जागरूक करने का प्रयास किया है। इनके सभी नाटक मध्यम आकार के हैं। मध्यम आकार का होने के बावजूद भी इन्होंने अपने नाटकों की विषयवस्तु के माध्यम से मध्यम वर्गीय परिवारों के संस्कारों, कुंठाओं, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण किया है। इनके विषय में डॉ.एन.एम.डोडिया लिखते हैं कि" कथ्य के धरातल पर मणि मधुकर के नाटक नवीन युगबोध के परिप्रेक्ष्य में जीवन के विविध पक्षों की सार्थक तथा सशक्त अभिव्यक्ति करते हैं। उन्होंने अपने नाटकों में जीवन के अविश्वास, खोखलेपन, कृत्रिमता, आस्थाहीनता और परिवेश की घुटन को विशेष रूप से उभारा है। साथ ही समसामयिक जीवन की समस्याओं, अभावों और आम आदमी की विडंम्बित स्थिति के साथ सत्ता के मुखौटे को भी बेनकाब करता है।"11 समाज में अलग-अलग प्रवृत्ति के लोग निवास करते हैं। उनमें कुछ न कुछ विषमता भी देखने को मिलती है। जब यह विषमताएं बढ़ती जाती है तो समाज के लिए हानिकारक बनती जाती है। आज समाज में हर तरफ सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक विषमताएं देखने को मिलती है। मणि मधुकर ने अपने नाटकों के माध्यम से इन सामाजिक समस्याओं पर करारा प्रहार किया है।" स्वातंत्र्योत्तर भारत के लिए आत्मनिर्भर बनना आवश्यक था। इसलिए औद्योगीकरण के माध्यम से आर्थिक विकास पर जोर दिया गया। तकनीकी प्रगति के बावजूद जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव ही रहा है। इसका कारण है रूढ़िवादिता तथा जनजागृति का अभाव। दूसरा कारण है औद्योगीकरण से बिखरी सामाजिक व्यवस्था। इन कारणो से कई सामाजिक समस्याएं उपजी और उनकी गंभीरता बढ़ती गई। वर्तमान में जनसंख्या वृद्धि, युवाओं की दिशाहीनता, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता आदि समस्याओं ने समाज को त्रस्त किया है। मणि मधुकर ने सामाजिक समस्याओं को गंभीरता से महसूस किया तथा नाटकों द्वारा इन समस्याओं के कारण एवं परिणामों की चर्चा कर जन जागृति का महत्वपूर्ण कार्य किया।"12

प्राचीन भारतीय समाज चार वर्णों में विभाजित था। वर्णों के अनुसार उनके अपने-अपने कार्य निर्धारित कर दिए गए थे। वर्ण व्यवस्था के विभाजन के अनुसार ब्राह्मणपठन-पाठन, वैश्य उद्योग, क्षत्रिय इन तीनों वर्णों की रक्षा का कार्य करते थे। इन सभी की सेवा करने का कार्य शूद्रों द्वारा किया जाता था। इस तरह की वर्णव्यवस्था से समाज उन्नति करने की बजाय अवनति की ओर अग्रसर हुआ। प्राचीन काल में जातिगत विषमता का स्वरूप इतना भयावह था कि लोग निम्न जातियों के लोगों की हत्या तक का जघन्य अपराध करने में भी पीछे नहीं रहते थे। नाटक इकतारेकी आंख का यह उदाहरण देखिए जो यह स्पष्ट करता है कि सामाजिक विषमता किस प्रकार समाज पर हावी थी।"अपने बने हुए थान का सौदा करने बाजार गए थे तुम्हारे बापू और लौटकर आया उनका मुर्दा। गर्मा- गर्मी भाव-ताव को लेकर हुई थी लेकिन बनिए ने तुम्हारे बापू नूरा पर इल्जाम लगाया कि उसने गाली दी है। ब्राह्मण,बनिया जात को बुरा भला कहा है। फिर क्या था उन लोगों ने नूरा ताऊ को पीट-पीट कर मार डाला।"13 इस कथन से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन समय में जातिगत विषमता कितनी भयावह थी। मणि मधुकर नेअपने नाटक इकतारे की आंख में कबीर के माध्यम से तत्कालीन समाज व्यवस्था में व्याप्त अन्याय एवं शोषण के खिलाफ विद्रोह किया। कबीर के समय की विसंगतियां, संकीर्णताएं, धर्मांधता आज भी समाज में मौजूद है। जाति-पाति, भेदभाव, छुआछूत आदि पर कबीर का व्यक्तित्व लोक कल्याण चेतना से संयुक्त है। कबीर आम लोगों को एकत्रित कर उनके बीच अन्याय, शोषण आदि से लड़ने की प्रेरणा प्रदान करते है। डॉ.एन.एम.डोडिया लिखते हैं कि "संकल्पना की विजय तभी हो सकती है जबकि जनता जागरूक हो। जिंदगी की विसंगतियों को दर्शाकर नाटककार दर्शकों की आंखों पर पड़ा आज्ञाकारिता का पर्दा हटाकर उन्हें यथार्थ स्थिति के दर्शन कराता है।"14 नाटककार मणि मधुकर ने अपने नाटकों रसगंधर्व, बुलबुल सराय, दुलारीबाई, खेलापोलमपुर, इकतारे की आंख आदि के माध्यम से समाज में निरंतर परिवर्तित होने वाले मानवीय संबंधों का बखूबी चित्रण किया है। समाज में होने वाले अन्याय, शोषण, पूंजीपतियों का आतंक आदि सामाजिक समस्याओं को भी नाटककार ने अपने नाटकों के माध्यम से उठाया है। मणि मधुकर ने समाज को एक नई दृष्टि से देखने का प्रयास किया तथा समाज में निहित अमानवीयता का पर्दाफाश किया। उनके नाटकों में सामाजिक चेतना के उदाहरण स्वरूप इकतारे की आंख की महिला पात्र नीमा कहती है कि" आगे से बनियों को अपनी बनी हुई चीज नहीं देंगे, सीधे ग्राहकों को बेचेंगे।"15 इसी क्रम में कबीर रैदास से कहते हैं कि" अन्याय के सामने हार मानने वाली नहीं थी मेरी मां।"16

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक पात्रों द्वारा तथा मणि मधुकर ने अपने काल्पनिक पात्रों द्वारा सामाजिक समस्याओं को उजागर करके समाज में नई चेतना लाने का स्तुत्य प्रयास किया। प्रसाद ने वर्ण व्यवस्था, जातिगत विषमता, स्त्री- पुरुष संबंध, स्त्रियों की दयनीय स्थिति, काम भाव से प्रेरित स्त्री-पुरुष संबंध आदि सामाजिक समस्याओं को उजागर किया तो मणि मधुकर ने कबीर के व्यक्तित्व के माध्यम से सामाजिक समस्याओं पर करारा प्रहार किया।

सन्दर्भ :
1. प्रेमदत्त शर्मा: प्रसाद साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, जयपुर पुस्तक सदन, जयपुर, 1998, पृ.103
2. जयशंकर प्रसाद: अजातशत्रु, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994, पृ.26
3. हरदेवबाहरी:प्रसाद साहित्य कोष, भारती भंडारपब्लिकेशन,मेरठ, 1996, पृ.262
4.शांति स्वरूपगुप्त: प्रसाद के नाटक एवं नाट्य शिल्प, अशोक प्रकाशन,दिल्ली, 1969, पृ.157
5. जयशंकर प्रसाद: चंद्रगुप्त, साक्षी पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2019, पृ. 48
6. जयशंकर प्रसाद: जन्मेजय का नागयज्ञ, हिंदी पुस्तक भंडार, बिहार, 1984, पृ.35
7. जयशंकर प्रसाद: विशाख, भारतीय भंडार प्रकाशन, इलाहाबाद, 1921, पृ.14
8. जयशंकर प्रसाद: चंद्रगुप्त, साक्षी पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2019, पृ. 48
9. जयशंकर प्रसाद: अजातशत्रु, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994, पृ.118
10. परमेश्वरी लाल गुप्ता: प्रसाद के नाटक, हिंदी प्रचार पुस्तकालय, वाराणसी, 1956, पृ.236
11. एन.एम.डोडिया: मणि मधुकरके नाटकों में सामाजिक चेतना, साइबरटेक पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 2017, पृ.  
      105
12. वही, पृ.107
13. मणि मधुकर: इकतारे की आंख, सरस्वती विहार, दिल्ली, 1980, पृ.37
14. एन.एम.डोडिया: मणिमधुकर के नाटकों में सामाजिक चेतना, साइबर टेक पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 2017,
      पृ. 130
15.वही, पृ.127
16.वही, पृ.127


रवि शंकर सैनी
शोधार्थी, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
Sainiravishankar734@gmail.com, 9887331331   

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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