शोध आलेख : मद्रास प्रेसीडेंसी में स्वदेशी शिक्षा की स्थिति : थॉमस मुनरो द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण(1822-25) का एक विश्लेष्णात्मक अध्ययन / दीपक

मद्रास प्रेसीडेंसी में स्वदेशी शिक्षा की स्थिति : थॉमस मुनरो द्वारा करवाए गए
सर्वेक्षण (1822-25) का एक विश्लेष्णात्मक अध्ययन

- दीपक


शोध सार : इस शोध-पत्र का मुख्य उद्देश्य 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण भारत, विशेषत: मद्रास प्रेसीडेंसी में, भारतीय स्वदेशी शिक्षा-व्यवस्था की स्थिति का आंकलन करना है, और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राथमिक स्रोत के रूप में मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन गवर्नर थॉमस मुनरो द्वारा स्वदेशी शिक्षा की स्थिति के संदर्भ में करवाए गए सर्वेक्षण (1822-25) का उपयोग किया गया है। हालांकि, यह सर्वेक्षण कुछ पहलुओं में अपूर्ण है (केवल परिमाणात्मक दृष्टि से, कि गुणात्मक दृष्टि से) जिसके बारे में इस शोध-पत्र में चर्चा की गई है, लेकिन इसके बावजूद इस सर्वेक्षण से कई महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ निकलकर सामने आती हैं, जो आधुनिक भारतीय इतिहास की मुख्यधारा में प्रचलित कई अवधारणाओं को चुनौती पेश करती हैं। साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, मार्क्सवादी, सबाल्टर्न एवं दलित इतिहासकारों आदि द्वारा प्रतिपादित यह अवधारणा जिसके अनुसार यह माना जाता रहा है कि भारत में प्राचीनकाल के समय से लेकर  ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना होने से पूर्व तक शिक्षा का विशेषाधिकार केवल उच्च वर्गों अथवा द्विज जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के लोगों को ही था। तथाकथित निम्न वर्गों अथवा शुद्र एवं अति-शुद्र जातियों के लोगों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया था, यह अवधारणा इस सर्वेक्षण के तथ्यों द्वारा खंडित होती है। इसके अलावा, साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, मार्क्सवादी, कैंब्रिज विचारधारा के इतिहासकारों एवं ईसाई मिशनरियों आदि द्वारा प्रतिपादित यह अवधारणा जिसके अनुसार यह बताया जाता रहा है कि भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना से पूर्व भारतीय समाज बहुत ही गरीब और पिछड़ा हुआ था और यहाँ के लोग अनपढ़, अंधविश्वासी, दुष्ट, कायर और बर्बर प्रवृत्ति के थे तथा यहाँ के धर्म, सभ्यता और संस्कृति में कुछ भी गर्व करने लायक नहीं था। यह अवधारणा भी इस रिपोर्ट के तथ्यों द्वारा पूर्णत: खारिज होती है, और यह निष्कर्ष निकलकर सामने आता है कि तत्कालीन भारतीय समाज में शिक्षा की स्थिति तत्कालीन यूरोपीय देशों की तुलना में कहीं ज्यादा अच्छी थी। इस रिपोर्ट से तत्कालीन स्वदेशी-शिक्षा की स्थिति के साथ-साथ, उसके स्वरूप और उसकी व्यापकता के बारे में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इस शोध-पत्र में अन्य प्राथमिक स्रोतों के रूप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों में चयन समिति (सलेक्ट कमेटी) की रिपोर्ट तथा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स एवं ब्रिटिश भारतीय प्रांतों के गवर्नर्स और गवर्नर-जनरल के बीच हुए पत्राचार का उपयोग किया गया है, जबकि द्वितीय स्रोतों के रूप में धर्मपाल की प्रसिद्ध पुस्तक ब्यूटीफुल ट्री, जे.पी. नायक एवं सैय्यद नुरुल्ला की पुस्तक भारतीय शिक्षा का इतिहास (1800-1973)’, सुंदरलाल की पुस्तक भारत में अंगरेजी राज(2 खंड), मेजर बी.डी. बसु की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ एजुकेशन इन इंडिया : अंडर रूल ऑफ दि ईस्ट इंडिया कंपनी(1922) इत्यादि का प्रयोग किया गया है।

बीज शब्द : स्वदेशी शिक्षा-व्यवस्था, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन, थॉमस मुनरो, ईसाई मिशनरी, ग्रामीण पाठशालाएं, पूर्वाग्रह, इतिहास की मुख्यधारा में प्रचलित अवधारणाएं, विकेंद्रीकृत स्थानीय शासन-व्यवस्था; उपनिवेशवादी, मार्क्सवादी, सबाल्टर्न एवं दलित इतिहासकार आदि।

मूल आलेख : भारत प्राचीन काल के समय से ही शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। यहाँ पर तक्षशिला (वर्तमान - रावलपिंडी, पाकिस्तान), नालन्दा (वर्तमान - राजगीर{पटना}, बिहार), वल्लभी (वर्तमान - काठियावाड़ क्षेत्र, गुजरात) एवं विक्रमशिला (वर्तमान - भागलपुर, बिहार) जैसे उच्च शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे, जिनकी प्रशंसा में भारत भ्रमण पर आने वाले कई विदेशी यात्रियों ने काफी कुछ लिखा है। प्राचीनकाल में भारतीय शिक्षा की स्थिति के संदर्भ में जानने के लिए .एस. अल्टेकर की पुस्तक एजुकेशन इन एंसिएंट इंडिया (1934) एक महत्त्वपूर्ण कृति है। मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणकारियों के आगमन के परिणामस्वरूप भारत के उच्च शिक्षा केंद्रों को काफी क्षति पहुंची। बख्तियार खिलजी द्वारा नालन्दा विश्वविद्यालय और वल्लभी विश्वविद्यालय को नष्ट किए जाने की घटना सर्वविदित है। लेकिन, भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना होने के पश्चात् भी  ग्रामीण स्तर पर शिक्षण संस्थाएं पहले की तरह ही फलती-फूलती रहीं, क्योंकि अधिकांश मुस्लिम शासकों द्वारा स्थानीय शासन-व्यवस्था में ज्यादा फेरबदल नहीं किया गया, इसलिए स्थानीय स्तर पर ग्रामीण पाठशालाओं, गुरुकुलों, टोलों एवं घरों इत्यादि में शिक्षा प्रदान करने का कार्य पूर्ववत ही चलता रहा। इसके अलावा, इस दौरान मुस्लिम बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए मुस्लिम शासकों द्वारा बड़ी संख्या में मकतब और मदरसों की स्थापना भी करवाई गई, जिनमें मुस्लिम बच्चों को अरबी और फारसी भाषा, अंकगणित, मुस्लिम धर्मशास्त्रों आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। मध्यकालीन भारत में शिक्षा की स्थिति के संदर्भ में जानने के लिए एस.एम. जाफर की पुस्तक एजुकेशन इन मुस्लिम इंडिया (1936) एक महत्त्वपूर्ण कृति है। भारत में प्राचीनकाल के समय से लेकर मध्यकाल तक विभिन्न हिंदू एवं मुस्लिम शासकों; स्थानीय सरदारों, जमींदारों, व्यापारियों, महाजनों, ग्राम पंचायतों इत्यादि द्वारा शिक्षण संस्थाओं एवम् विभिन्न विद्वानों को भू-दान, वजीफा, पेंशन आदि के रूप में आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता था, लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना होने के पश्चात् देसी शासकों की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति क्षीण हो गई, और अंग्रेजों द्वारा विभिन्न शोषणकारी आर्थिक नीतियों तथा दमनकारी भू-राजस्व प्रणाली को लागू करने के कारण स्थानीय सरदारों, जमींदारों, व्यापारियों, महाजनों, किसानों इत्यादि की भी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर हो गई। परिणामस्वरूप स्वदेशी शिक्षण संस्थाओं को आर्थिक सहायता मिलनी कम होती चली गई और धीरे-धीरे लगभग बंद ही हो गई। दूसरी ओर, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा इन शिक्षण संस्थाओं को कोई आर्थिक सहयोग प्रदान नहीं किया गया, क्योंकि इस परंपरागत शिक्षा-प्रणाली को जारी रखने में उनकी कोई रूचि नहीं थी। उल्टा वे तो स्वयं ये चाहते थे कि ये शिक्षण संस्थाएं जल्दी ही मृतप्राय हो जाएं ताकि वे आसानी से इन शिक्षण संस्थाओं के स्थान पर पाश्चात्य शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर सकें, और हुआ भी वैसा ही। इस संदर्भ में नायक और नुरुल्ला लिखते हैं, “भारत की परंपरागत शिक्षा पद्धति के बारे में अनेक पाश्चात्य विद्वानों का ऐसा विश्वास था कि यह पद्धति कोई मूल्यवान चीज नहीं थी। अतः इसका समाप्त हो जाना ही अच्छा था। उनका यह भी विश्वास था कि शिक्षा विभाग के ब्रिटिश पदाधिकारी का यह कार्य पूर्णतया उचित था कि उन्होंने इस पद्धति को समाप्त हो जाने दिया अथवा इसकी समाप्ति में सहायता की और इसके स्थान पर पाश्चात्य संस्थाओं की स्थापना की।[1]

भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना होने से पूर्व यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था की क्या स्थिति थी, इस संदर्भ में सुंदरलाल लिखते हैं, “अंग्रेजों के आने से पहले सार्वजनिक शिक्षा और विद्या प्रचार की दृष्टि से भारत संसार के अग्रतम देश में गिना जाता था। 19वीं शताब्दी के शुरू में और उसके कुछ वर्ष बाद तक भी यूरोप के किसी भी देश में शिक्षा का प्रचार इतना अधिक नहीं था जितना कि भारतवर्ष में था।[2] इसी संदर्भ में वे आगे लिखते हैं, “उस समय जनसामान्य को शिक्षा प्रदान करने के लिए मुख्यतः चार प्रकार की संस्थाएं थीं – (i) ब्राह्मण अध्यापक अपने-अपने घरों पर विद्यार्थियों को रख कर शिक्षा देते थे। (ii) मुख्य नगरों में उच्च संस्कृत शिक्षा के लिएटोलयाविद्यापीठहोती थीं। (iii) उर्दू और फारसी की शिक्षा के लिए जगह-जगह पर मकतब और मदरसे थे। (iv) इसके अतिरिक्त, देश के हर छोटे से छोटे गांव में बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए कम-से-कम एक पाठशाला होती थी। जिस समय तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने आकर भारत की हजारों साल पुरानी ग्राम पंचायत व्यवस्था को नष्ट नहीं कर डाला, तब तक  गांवों के बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करना हर ग्राम पंचायत अपना आवश्यक कर्तव्य समझती थी और उसका सदा पालन करती थी[3] इसी प्रकार, पूर्व-ब्रिटिश काल में भारतीय समाज में शिक्षा की क्या स्थिति थी, इस संदर्भ में मेजर बी.डी. बसु लिखते हैं, “यह स्मरण रहे कि पूर्व-ब्रिटिश काल में भारत अशिक्षित देश नहीं था। यह भूमि शिक्षा के क्षेत्र में पश्चिम के कई ईसाई देशों के कहीं अधिक उन्नत स्थिति में थी। लगभग प्रत्येक गांव में  केवल 3 नहीं, बल्कि 4-आर के प्रसार के लिए अपने स्कूल थे, अंतिम आर धर्म अथवा रामायण था।[4]

तत्कालीन भारतीय परंपरागत शिक्षा-प्रणाली का स्वरूप कितना सरल एवं सार्थक था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस तरीके से यहाँ पर बच्चों को शिक्षा प्रदान की जाती थी (वरिष्ठ छात्र पद्धति/ निगरानी पद्धति/ पारस्परिक निर्देश पद्धति - जिसमें शिक्षक द्वारा पाठशाला के वरिष्ठ छात्रों को सीधे शिक्षा प्रदान की जाती थी, जबकि इन वरिष्ठ छात्रों में से सबसे कुशाग्र-बुद्धि वाले छात्र अपने से कनिष्ठ छात्रों को पढ़ाते थे, और फिर आगे उनमें से भी कुछ कुशाग्र-बुद्धि वाले छात्र उनसे कनिष्ठ छात्रों को पढ़ाते थे) उस तरीके की सरलता एवं कारगरता से प्रभावित होकर एंड्रयू बेल, जो एक स्कॉटिश ईसाई पादरी एवं शिक्षाविद् था और करीब 10 वर्षों तक मद्रास में रहा था, जब वह 1796 में वापिस अपने देश लौटा तो उसने शिक्षा प्रदान करने की इस पद्धति को स्कॉटलैंड और इंग्लैंड के स्कूलों में लागू किया, जिसे वहाँ परमद्रास सिस्टमअथवामॉनिटोरियल मेथडअथवाम्यूचुअल इंस्ट्रक्शन मेथडअथवाबेल-लैंकेस्टर मेथडकहा गया।[5] इसी संदर्भ में अगस्त, 1823 में बेल्लारी जिले के कलेक्टर .डी. कैंपबेल द्वारा प्रदान की गई रिपोर्ट में कहा गया गया था, “जिस व्यवस्था के अनुसार भारत की पाठशालाओं में बच्चों को लिखना सिखाया जाता है और जिस ढंग से ऊंचे दर्जे के विद्यार्थी नीचे दर्जे के विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते हैं और साथ-साथ अपना ज्ञान भी पक्का करते रहते हैं, यह पद्धति नि:संदेह प्रशंसनीय है तथा इंग्लैंड में उसका जो अनुसरण किया गया है, वह सर्वथा उचित है।[6]

भारतीय परंपरागत शिक्षा-प्रणाली की तत्कालीन स्थिति, उसके स्वरूप तथा उसकी व्यापकता के बारे में जानकारी एकत्रित करने का फैसला ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा क्यों और कब लिया गया, इस संदर्भ में धर्मपाल लिखते हैं, “भारतीय स्वदेशी शिक्षा का स्वरूप, उसकी व्यापकता तथा उसकी तत्कालीन स्थिति के बारे में जानकारी एकत्र करने का निर्देश इंग्लैंड के हाउस ऑफ कॉमंस में 1813 के चार्टर कीभारत में ईसाई धर्म का प्रचारशीर्षक धारा 13 पर हुई लंबी बहस का परिणाम था, क्योंकि किसी भी विषय पर नई नीति के निर्धारण से पूर्व उसकी वर्तमान स्थिति को ठीक प्रकार से समझ लेना जरूरी होता है।[7] इसी संदर्भ में, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार को प्रत्येक प्रांत (प्रेसीडेंसी) में शिक्षा विषयक व्यापक सर्वेक्षण करने का आदेश दिया गया। परिणामस्वरूप, मद्रास प्रेसीडेंसी में वहाँ के तत्कालीन गवर्नर थॉमस मुनरो द्वारा (1822-25 में), बंबई प्रेसीडेंसी में वहाँ के तत्कालीन गवर्नर स्टुअर्ट एलफिंस्टन द्वारा (1823-25 तथा 1829 में), तथा बंगाल प्रेसीडेंसी में वहाँ के तत्कालीन गवर्नर-जनरल विलियम बैंटिक के आदेश पर विलियम एडम द्वारा (1835-38 में) सर्वेक्षण किया गया।

थॉमस मुनरो द्वारा करवाया गया सर्वेक्षण : थॉमस मुनरो द्वारा 25 जून, 1822 को राजस्व/वित्त विभाग के सचिव को पत्र लिखकर मद्रास प्रेसीडेंसी में स्वदेशी शिक्षा की स्थिति के संदर्भ में सर्वेक्षण करवाने का आदेश दिया गया था।[8] इसी क्रम में 2 जुलाई, 1822 को राजस्व विभाग के सचिव द्वारा राजस्व विभाग के बोर्ड के अध्यक्ष एवं सदस्यों को इस संदर्भ में सूचित किया गया।[9] आगे इसी क्रम में 25 जुलाई, 1822 को सेंट जॉर्ज किले के सचिव द्वारा मद्रास प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आने वाले सभी 21 जिलों के कलेक्टर्स को इस संदर्भ में सूचना एकत्रित करने हेतू पत्र भेजा गया था।[10] वह निर्धारित प्रपत्र (प्रोफॉर्मा) जिसके अनुसार विभिन्न जिलों के कलेक्टर्स से जानकारी एकत्रित करने को कहा गया था, उसमें जो जानकारियाँ मांगी गई थीं, वे इस प्रकार थीं – (1) जिले के कुल स्कूलों एवं कॉलेजों, तथा उनमें पढ़ने वाले पुरुष एवं महिला विद्यार्थियों की संख्या; (2) इन पुरुष एवं महिला विद्यार्थियों की संख्या को आगे 5 प्रकार की भिन्न श्रेणियों के अंतर्गत रखा जाना था – (i) ब्राह्मण छात्र, (ii) वैश्य छात्र, (iii) शूद्र छात्र, (iv) अन्य वर्गों/जातियों के छात्र, (v) मुस्लिम छात्र। (3) श्रेणी संख्या (i) से (iv) के अंतर्गत आने वाली संख्याओं को अलग-अलग जोड़ा जाना था। (4) इसके उपरांत, इस संख्या में श्रेणी (v) की संख्या को जोड़कर जिले के स्कूलों एवं कॉलेजों में पढ़ने वाले कुल विद्यार्थियों की संख्या का पता लगाया जाना था। श्रेणी (iv) जिसमे अन्य वर्गों/जातियों के छात्रों की संख्या को मांगा गया था, ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें तत्कालीन समय में अति-शूद्र माने जाने वाली जातियों के छात्रों की संख्या के बारे में जानकारी मांगी गई थी, जिन्हें वर्तमान मेंअनुसूचित जातियोंकी श्रेणी में सूचीबद्ध किया जाता है।[11]

सरकार द्वारा मांगी गई जानकारी के जवाब में विभिन्न जिला कलेक्टर्स द्वारा भेजी गई रिपोर्ट्स विवरण/विस्तार एवं गुणवत्ता की दृष्टि से भिन्न भिन्न थीं, जिन जिला कलेक्टर्स को यह कार्य रूचिपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण प्रतीत हुआ, उनके द्वारा इस संदर्भ में विस्तृत जानकारी प्रदान की गई, जबकि दूसरी ओर जिन जिला कलेक्टर्स को इस कार्य में रुचि नहीं थी और जिन्हें यह कार्य कम महत्त्वपूर्ण प्रतीत हुआ, उनके द्वारा कम विस्तृत जानकारी प्रदान की गई। इस संदर्भ में धर्मपाल लिखते हैं, “विभिन्न जिलों से प्राप्त जानकारी विस्तार और गुणवत्ता की दृष्टि से काफी भिन्न थी।तीन जिलों - विशाखापटनम, मसूलीपटनम और तंजावुर द्वारा सरकार द्वारा निर्धारित किए गए प्रपत्र में ब्राह्मण एवं वैश्य छात्र की श्रेणी के मध्य में एक अन्य श्रेणी क्षत्रिय/राजा श्रेणी जोड़ी गई थी। कुछ जिला कलेक्टर्स, विशेषकर बेल्लारी, कडप्पा, गुंटूर और राजमुंद्री द्वारा विस्तृत रिपोर्ट भेजी गई थी, जबकि कुछ अन्य विशेषकर तिनेवेली, विशाखापटनम, तंजावुर और गंजाम द्वारा अधूरी जानकारी भेजी गई थी। कुछ जिला कलेक्टर्, विशेषकर राजमुंद्री द्वारा स्कूलों एवं कॉलेजों में प्रयुक्त होने वाली 43 पुस्तकों की सूची भी प्रदान की थी।[12]

सारणी 1 में जिला कलेक्टर्स द्वारा भेजी गई जानकारी के आधार पर प्रत्येक जिले में स्थित स्कूलों एवं कॉलेजों की संख्या तथा उनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या प्रदान की गई है :- [13]

 

सारणी 1 : स्कूल एवं कॉलेजों की जानकारी


*स्रोत धर्मपाल, ब्यूटीफुल ट्री, 2021, पृ. 20-21.

सारणी 2 में स्कूलों एवं कॉलेजों में पढ़ने वाले पुरुष छात्रों का जातिगत वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है।[14] इसके विश्लेषण से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण जानकारी निकलकर सामने आती है। ज्यादातर औपनिवेशिक, वामपंथी, सबाल्टर्न एवं दलित इतिहासकारों द्वारा यह प्रतिपादित किया जाता रहा है कि भारत में प्राचीनकाल से ही शिक्षा पर केवल उच्च वर्गों का ही विशेषाधिकार रहा है, जबकि तथाकथित निम्न वर्गों को शिक्षा के अधिकार से वंचित ही रखा गया था। लेकिन, इस सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त आंकड़ों से उनका यह दावा सिरे से खारिज हो जाता है। बंबई प्रेसीडेंसी में एलफिंस्टन द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण (1823-25) से तथा बंगाल प्रेसीडेंसी में विलियम एडम द्वारा किए गए सर्वेक्षण (1835-38) से प्राप्त आंकड़ों से भी कमोबेश ऐसी ही तस्वीर  सामने आती है, जो वामपंथी एवं दलित इतिहासकारों के इस दावे को गलत साबित करती है।


 *स्रोत धर्मपाल, ब्यूटीफुल ट्री, 2021, पृ. 23.


            सारणी 2 के आंकड़ों का जब हम प्रतिशत अनुसार आंकलन करते हैं तो स्थिति और भी ज्यादा साफ हो जाती है :- उड़ियाभाषी गंजाम जिले में स्कूलों एवं कॉलेजों में पढ़ने वाले ब्राह्मण पुरुष छात्रों की संख्या लगभग 27%, वैश्य छात्रों की संख्या लगभग 8%, जबकि शूद्र एवं अन्य जातियों के छात्रों की संख्या मिलाकर लगभग 64% है। कन्नड़भाषी बेल्लारी जिले में ब्राह्मण पुरुष छात्रों की संख्या लगभग 18%, वैश्य छात्रों की लगभग 15% तथा शुद्र एवं अन्य जातियों की संख्या मिलाकर लगभग 63% है। उसी प्रकार, तमिलभाषी उत्तरी आर्कोट जिले में ब्राह्मण पुरुष छात्रों की संख्या लगभग 9%, वैश्य छात्रों की लगभग 8%, तथा शूद्र एवं अन्य जातियों की संख्या मिलाकर लगभग 74% है, कोयंबटूर जिले में ब्राह्मण पुरुष छात्रों की संख्या लगभग 11%, वैश्य छात्रों की लगभग 3%, तथा शूद्र एवं अन्य जातियों की संख्या मिलाकर लगभग 81% है। केवल कुछ तेलुगुभाषी जिलों में ही ब्राह्मण पुरुष छात्रों की संख्या शूद्र एवं अन्य जातियों के छात्रों की कुल संख्या से थोड़ी ज्यादा है, जैसे, विशाखापटनम जिले में ब्राह्मण पुरुष छात्रों की संख्या लगभग 46%, वैश्य छात्रों की लगभग 10%, तथा शूद्र एवं अन्य जातियों की संख्या मिलाकर लगभग 41% है, इसी प्रकार गुंटूर जिले में ब्राह्मण पुरुष छात्रों की संख्या लगभग 40%, वैश्य छात्रों की लगभग 20%, तथा शूद्र एवं अन्य जातियों की संख्या मिलाकर लगभग 35% है।

सरकार द्वारा मांगी गई जानकारी के जवाब में बेल्लारी जिले के कलेक्टर .डी. कैंपबेल द्वारा 17 अगस्त, 1823 को भेजी गई रिपोर्ट सबसे ज्यादा विस्तृत थी, इसमें उन्होंने भारतीय परंपरागत शिक्षा-प्रणाली की तारीफ करते हुए उसके स्वरूप तथा विभिन्न आयामों के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान की थी। साथ ही साथ, उन्होंने स्वदेशी शिक्षा-व्यवस्था की स्थिति में आई तीव्र गिरावट के लिए सीधे-सीधे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को ही जिम्मेवार बताया था। कैंपबैल लिखता है, “इस समय असंख्य लोग ऐसे हैं जो अपने बच्चों को इस शिक्षा का लाभ नहीं पहुंचा सकते, …..मुझे कहते हुए दुख होता है कि इसका कारण यह है कि सारा देश धीरे धीरे निर्धन होता जा रहा है। जब से भारत के बने हुए सूती कपड़ों की जगह पर इंग्लैंड के बने हुए कपड़ों को इस देश में प्रचलित किया गया है, तब से यहाँ के कारीगर-वर्ग के जीविका-निर्वाह के साधन बहुत कम हो गए हैं।….. देश का धन देशी दरबारों और उसके कर्मचारियों के हाथों से निकलकर यूरोपियनों के हाथों में चला गया है।…..ये यूरोपियन कर्मचारी देश के धन को प्रतिदिन ढो-ढोकर बाहर ले जा रहे हैं…..सरकारी लगान जिस कड़ाई के साथ वसूल किया जाता है, उसमें भी किसी तरह की ढिलाई नहीं की जाती…..मध्यम और निम्न वर्ग के अधिकांश लोग अब इस योग्य नहीं रहे कि अपने बच्चों की शिक्षा का खर्च उठा सकें।[15] भारतीय परंपरागत शिक्षण-संस्थाओं की पूर्व की स्थिति और भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना होने के पश्चात् इन शिक्षण संस्थाओं की वर्तमान स्थिति की तुलना करते हुए, कैंपबेल अपनी रिपोर्ट में लिखता है, “ इस जिले की करीब दस लाख आबादी में से इस समय सात हजार बच्चे भी शिक्षा नहीं पा रहे हैं, इससे स्पष्ट तौर पर जाहिर है कि शिक्षा में निर्धनता के कारण कितनी अवनति हुई है। बहुत-से गांवों में जहाँ पहले बड़ी-बड़ी पाठशालाएं थीं,वहाँ अब केवल अत्यंत धनाढ्य लोगों के थोड़े-से बच्चे ही शिक्षा पाते हैं, दूसरे लोगों के बच्चे निर्धनता के कारण पाठशाला नहीं जा पाते।….. इस जिले में अब घटते-घटते केवल 533 शिक्षण संस्थाएं ही रह गई हैं, और मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इनमें से किसी एक को भी अब (अंग्रेज) सरकार की ओर से किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं दी जाती है।[16] पूर्व के समय में इन शिक्षण-संस्थाओं को देशी शासकों द्वारा मिलने वाले आर्थिक सहयोग की तुलना वर्तमान स्थिति से करते हुए कैंपबेल लिखता है, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि, पूर्व के समय में और विशेषकर हिंदू शासकों के काल में, इन शिक्षण संस्थाओं को धन और भूमि दोनों रूपों में, बहुत बड़ा अनुदान प्रदान किया जाता थाकिंतु, हमारे शासनकाल में इस स्थिति में बहुत अवनति हुई हैपहले जो महत्त्वपूर्ण सहायता राज्य/शासन की ओर से विद्या/विज्ञान को दी जाती थी, उसके बंद हो जाने के कारण अब विद्या केवल थोड़े से दानशील व्यक्तियों की उदारता के सहारे ही ज्यों-त्यों कर जीवित है। भारत के इतिहास में विद्या के इस तरह के पतन का दूसरा समय दिखा सकना कठिन है।[17]

गृह-शिक्षा : भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही गृह-शिक्षा प्राप्त करने का प्रचलन रहा है, और तत्कालीन समय में भी व्यापक स्तर पर इसका प्रचलन मौजूद था। लेकिन, जिस प्रपत्र के आधार पर सरकार द्वारा विभिन्न जिला कलेक्टर्स से जानकारी मांगी गई थी, उसमें गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के बारे में कोई जिक्र नहीं किया गया था, अत: यह स्वाभाविक ही था कि इस संदर्भ में ज्यादातर जिला कलेक्टर्स द्वारा कोई जानकारी प्रदान नहीं की गई। लेकिन फिर भी, मालाबार एवं मद्रास जिले के कलेक्टर्स द्वारा इस संदर्भ में जानकारी प्रदान की गई थी। इसके अलावा, कनारा जिले के कलेक्टर द्वारा यह बताया गया था कि उस जिले में बहुत सारे बच्चों, विशेषकर लड़कियों द्वारा गृह-शिक्षा प्राप्त की जाती है, हालांकि उसने सरकार द्वारा मांगी गई जानकारी के जवाब में कोई रिपोर्ट नहीं भेजी थी। मालाबार जिले के कलेक्टर द्वारा 5 अगस्त, 1823 को भेजी गई रिपोर्ट के अनुसार, उच्च शिक्षा के विभिन्न विषयों जैसे, धर्मशास्त्र एवं विधि, खगोलशास्त्र, आध्यात्मिक विज्ञान, नीतिशास्त्र और आयुर्विज्ञान आदि की गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाले विभिन्न वर्गों के कुल छात्रों की संख्या 1594 (1553 लड़के और 41 लड़कियाँ) बताई गई थी।[18] इसी प्रकार, मद्रास जिले के कलेक्टर द्वारा 12 फरवरी, 1825 को भेजी गई रिपोर्ट के अनुसार, मद्रास जिले के स्कूलों एवं कॉलेजों में पढ़ने वाले कुल छात्रों की संख्या 5236 (5109 लड़के और 127 लड़कियाँ), तथा चैरिटी स्कूलों में पढ़ने वाले कुल छात्रों की संख्या 463 (414 लड़के और 49 लड़कियाँ) बताई गई थी, जबकि गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाले कुल छात्रों की संख्या 26,963 बताई गई थी अर्थात् गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या स्कूलों एवं कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की तुलना में लगभग 4.73 गुणा थी।[19]

बालिका शिक्षा : मद्रास प्रेसीडेंसी के विभिन्न जिला कलेक्टर्स द्वारा भेजी गई रिपोर्ट्स के अनुसार, विभिन्न स्कूलों एवं कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने वाली विभिन्न वर्गों की लड़कियों की कुल संख्या 4540 थी।[20] हालांकि, इसमें गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाली लड़कियों की संख्या को शामिल नहीं किया गया था। लेकिन फिर भी, स्कूलों एवं कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने वाले पुरुष छात्रों की कुल संख्या (1,53,172) की तुलना में महिला छात्रों की कुल संख्या (4540) बहुत ही कम थी, इस बात को नकारा नहीं किया जा सकता है। इस संदर्भ में धर्मपाल लिखते हैं, “एकमात्र लेकिन बहुत ही महत्त्वपूर्ण पहलू जिसमें तत्कालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था इंग्लैंड की तुलना में पीछे थी, वह थी बालिका शिक्षा।[21] कुछ विद्वानों द्वारा भारत में बालिका शिक्षा कम होने का तर्क यह दिया जाता है कि अधिकतर लड़कियाँ गृह-शिक्षा प्राप्त करती थीं, इसलिए पाठशालों में उनकी उपस्थिति नहीं के बराबर रहती थी। हालांकि, इस तर्क की सत्यता अभी शोध का विषय है।

थॉमस मुनरो की टिप्पणी : सभी जिला कलेक्टर्स द्वारा भेजी गई रिपोर्ट्स के आधार पर मार्च, 1826 में थॉमस मुनरो ने मद्रास प्रेसीडेंसी में स्वदेशी शिक्षा-व्यवस्था की स्थिति के संदर्भ में अपनी टिप्पणी (मिनट) प्रस्तुत की थी। इसमें मुनरो लिखता है, “सभी जिला कलेक्टर्स द्वारा भेजी गई रिपोर्ट्स के आधार पर यह प्रतीत होता है कि मद्रास प्रेसीडेंसी में स्कूलों एवं कॉलेजों की संख्या 12,498 है और इसकी जनसंख्या 12,850,941 है, अर्थात् प्रत्येक 1000 की जनसंख्या पर एक स्कूल है, लेकिन चूंकि बहुत ही कम संख्या में महिलाओं को स्कूलों में पढ़ाया जाता है, इसलिए हम मान सकते हैं कि प्रत्येक 500 की आबादी पर एक स्कूल विद्यमान है।[22] वे अपनी टिप्पणी में आगे लिखते हैं, “मेरा अनुमान है कि स्कूली शिक्षा प्राप्त करने वाली पुरुष आबादी का हिस्सा कुल मिलाकर एक-चौथाई से एक-तिहाई के करीब होगा, क्योंकि गृह- शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या के बारे में हमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई है।[23] उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी में शिक्षा की तत्कालीन स्थिति की तुलना इंग्लैंड और यूरोपीय देशों में शिक्षा की स्थिति से करते हुए लिखा है, “यहाँ शिक्षा की स्थिति यद्यपि हमारे अपने देश की तुलना में कम है, तथापि कुछ ही समय पूर्व अधिकांश यूरोपीय देशों में शिक्षा की जो स्थिति थी, उसकी अपेक्षा अच्छी है। निस्संदेह, पूर्ववर्ती कालों में तो इसकी स्थिति और भी बेहतर रही होगी।[24]

सर्वेक्षण की विश्वसनीयता : इस सर्वेक्षण के आंकड़ों की विश्वसनीयता को लेकर विभिन्न विद्वानों में मतभेद है, फिलिप हार्टोग द्वारा उनकी पुस्तक सम एस्पेक्ट्स ऑफ इंडियन एजुकेशन’  में इस सर्वेक्षण की विश्वसनीयता को लेकर आपत्ति उठाई गई थी और उनका विचार था कि इन आंकड़ों को अनावश्यक महत्त्व दिया गया है, लेकिन अन्य विद्वानों (विशेषकर, धर्मपाल) द्वारा उनकी इस आपत्ति को गलत साबित किया गया है। इसी संदर्भ में नायक और नूरुल्ला लिखते हैं, “… उपलब्ध सामग्री का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनका (फिलिप हार्टोग) यह विचार सही नहीं है।[25] हालांकि, यह बात सत्य है कि यह सर्वेक्षण कई पहलुओं में अपूर्ण प्रतीत होता है, लेकिन इस बात से इस सर्वेक्षण के सिर्फ परिमाणात्मक पक्ष पर प्रश्नचिह्न लगाया जा सकता है, ना कि इसके गुणात्मक पक्ष पर। इस सर्वेक्षण के अपूर्ण प्रतीत होने के कई कारण हैं, जैसे-  

(i)            वह निर्धारित प्रपत्र जिसके आधार पर सरकार द्वारा जानकारी मांगी गई थी, उसमें गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के बारे में कोई जिक्र नहीं किया गया था, अत: अधिकांश जिला कलेक्टर्स द्वारा (केवल दो जिला कलेक्टर्स को छोड़कर) इस संदर्भ में कोई जानकारी प्रदान नहीं की गई, जबकि तत्कालीन भारतीय समाज में गृह-शिक्षा प्राप्त करने का प्रचलन काफी व्यापक स्तर पर प्रचलित था। अगर इस सर्वेक्षण में गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों को भी शामिल किया गया होता तो निस्संदेह इस सर्वेक्षण के आंकड़े बहुत ही प्रभावशाली होते।

(ii)          निर्धारित प्रपत्र में ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, मुस्लिम एवं अन्य वर्ग का तो जिक्र था, लेकिन इसमें क्षत्रिय वर्ग का कोई जिक्र नहीं था, इसलिए यह प्रतीत होता है कि अधिकांश जिला कलेक्टर्स द्वारा (केवल 3 जिला कलेक्टर्स को छोड़कर) क्षत्रिय वर्ग के बच्चों की गिनती या तो ब्राह्मण वर्ग में कर ली गई होगी या फिर वैश्य वर्ग में। क्षत्रिय वर्ग के बच्चों की गिनती शूद्र एवं अन्य वर्गों में करने की संभावना न्यून प्रतीत होती है।

(iii)         ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार द्वारा मांगी गई यह जानकारी कुछ जिला कलेक्टर्स के विचार में ज्यादा महत्त्व की नहीं थी, इसलिए उन्होंने इस जानकारी को जुटाने में अधिक रुचि नहीं ली। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि कुछ जिला कलेक्टर्स (जैसे कि, कनारा जिला) द्वारा तो इस संदर्भ में सरकार को कोई भी रिपोर्ट नहीं भेजी गई थी, जबकि कुछ जिला कलेक्टर्स (जैसे कि, गंजाम और विशाखापट्टनम) द्वारा अधूरी रिपोर्ट्स ही भेजी गई थीं।

(iv)         मद्रास जिले के कलेक्टर द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के अनुसार वहाँ पर गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या स्कूलों एवं कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की तुलना में लगभग 5 गुणा थी। इन आंकड़ों पर थॉमस मुनरो को यकीन नहीं हो रहा था, और उन्होंने इन आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया था, लेकिन इन आंकड़ों को अस्वीकार करने के पीछे उनके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं था बल्कि यह सिर्फ उनका व्यक्तिगत विचार था। और अगर उनको सच में इन आंकड़ों पर संदेह था तो वो इनकी दोबारा जांच करवाकर अपनी शंका का समाधान कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस संदर्भ में नायक और नूरूल्ला लिखते हैं, “अगर मुनरो का ऐसा मानना था कि ये आंकड़े विश्वसनीय नहीं हैं, तो उसके लिए संभवत: सबसे अच्छा तरीका यह होता कि वह मद्रास के आंकड़ों की पुन: जांच करने की मांग करते और अन्य जिलाधीशों से भी गृह-शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों के आंकड़े एकत्रित करवाते। परंतु उनकी रुचि इस समस्या की ओर नहीं थी। उनका लक्ष्य सही आंकड़े प्राप्त करना नहीं था। जैसा कि उन्होंने अपने मूल विवरण पत्र में बताया था उनका एकमात्र उद्देश्य देशी शिक्षा पद्धति की कुछ जानकारी प्राप्त करना था ( कि विस्तृत एवं सटीक जानकारी) उन्होंने इस विषय में आगे जांच नहीं करवाई क्योंकि उनका मानना था कि उनकी शिक्षा सुधार संबंधी प्रस्थापनाओं को तैयार करने के लिए उन्हें पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो गई है।[26]

(v)          कुछ आलोचकों का यह भी विचार हो सकता है कि इन आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है, लेकिन इस बात की संभावना लगभग नहीं के बराबर है। इसका कारण यह है कि इस सर्वेक्षण का आदेश देने वाले और इसके लिए आंकड़े जुटाने वाले ब्रिटिश अधिकारीगण ही थे, और यह बात सर्वविदित है कि अधिकतर ब्रिटिश विद्वान, राजनेता एवं अधिकारीगण इत्यादि भारत के बारे में विभिन्न पूर्वाग्रहों से ग्रसित थे और उनका ऐसा मानना था कि भारत यूरोप की तुलना में काफी गरीब एवं पिछड़ा हुआ है तथा यहाँ के लोग अनपढ़, अंधविश्वासी और बर्बर हैं। इसलिए, इस बात की संभावना तो हो सकती है कि उन्होंने इस सर्वेक्षण के आंकड़ों को कुछ कम करके दिखाने की कोशिश की हो, लेकिन इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती कि उन्होंने इन आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की कोशिश की होगी।

निष्कर्ष : भारत में प्राचीनकाल से ही शिक्षा को काफी महत्त्व प्रदान किया जाता रहा है। प्राचीनकाल में भारत में शिक्षा की स्थिति काफी ऊंची थी, मध्यकाल में भी शिक्षा की स्थिति संतोषजनक थी, लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना होने के पश्चात् अतिशीघ्र ही स्वदेशी शिक्षण संस्थाओं का ह्रास होना शुरू हो गया क्योंकि पूर्व समय में इन शिक्षण संस्थाओं को देशी शासकों एवं स्थानीय लोगों द्वारा आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता था, लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना होने के पश्चात् उनका यह आर्थिक आधार समाप्त हो गया, परिणामस्वरूप स्वदेशी शिक्षा-व्यवस्था शीघ्र ही पतनशील हो गई। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा इस परंपरागत शिक्षा प्रणाली को जारी रखने एवं इसे पुनर्जीवित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया, अपितु अपने आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसके स्थान पर पाश्चात्य शिक्षण प्रणाली को स्थापित कर दिया गया। भारत में स्वदेशी शिक्षा की स्थिति जांचने के लिए ब्रिटिश शासन अथवा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक मंडल द्वारा बंगाल के गवर्नर-जनरल तथा अन्य प्रांतों के गवर्नर्स को आदेश दिया गया, इसी संदर्भ में मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन गवर्नर थॉमस मुनरो द्वारा यह सर्वेक्षण (1822-25) करवाया गया था। इस सर्वेक्षण के आंकड़ों से तत्कालीन स्वदेशी शिक्षा की स्थिति, उसके स्वरूप और उसकी व्यापकता के संदर्भ में काफी जानकारी प्राप्त होती है। हालांकि, यह सर्वेक्षण कुछ पक्षों में अपूर्ण था, जिसके बारे में ऊपर चर्चा की जा चुकी है, लेकिन फिर भी इससे जो प्रमुख तथ्य निकलकर सामने आए, उनमें से एक तथ्य यह था कि हालांकि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के कारण तत्कालीन भारतीय स्वदेशी शिक्षा पतन की ओर अग्रसर थी, तब भी भारत में शिक्षा की स्थिति और उसकी व्यापकता तत्कालीन बहुत सारे यूरोपीय देशों की तुलना में अधिक थी। इस तथ्य से ब्रिटिश साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी इतिहासकारों, ईसाई मिशनरियों, तथा मार्क्सवादी इतिहासकारों आदि द्वारा प्रतिपादित यह अवधारणा सिरे से खारिज होती है, जिसके अनुसार भारत को अशिक्षित एवं पिछड़ा हुआ देश बताया जाता रहा था। इस सर्वेक्षण के आंकड़ों से एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह निकलकर सामने आया कि तत्कालीन स्वदेशी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त करने वाले कुल छात्रों में से आधे से अधिक छात्र उन वर्गों/जातियों से संबंधित थे, जिन्हें तथाकथित तौर पर निम्न/पिछड़ा वर्ग (शूद्र एवं अति शूद्र जातियाँ) माना जाता है। इस तथ्य से वामपंथी, सबाल्टर्न एवं दलित इतिहासकारों आदि द्वारा प्रतिपादित यह अवधारणा खारिज होती है, जिसके अनुसार यह बताया जाता रहा है कि भारत में प्राचीनकाल के समय से लेकर भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना होने से पूर्व तक शिक्षा का विशेषाधिकार केवल तथाकथित उच्च वर्ग अथवा द्विज वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) को ही प्राप्त था, जबकि तथाकथित निम्न वर्णों को शिक्षा के अधिकार से वंचित ही रखा गया था। इस सर्वेक्षण के आंकड़ों ब्रिटिश उच्च अधिकारियों एवं सरकार के लिए इतने आश्चर्यजनक थे कि वे लोग इन तथ्यों को मानने के लिए तैयार ही नहीं हुए, और उन्होंने इस सर्वेक्षण से प्राप्त होने वाली जानकारियों को नकार दिया। ब्रिटिश सरकार की यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी क्योंकि वे लोग इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं थे कि यह कैसे संभव हो सकता है कि उनकी नजर में जो देश इतना अविकसित एवं गरीब था, असल में वहाँ पर शिक्षा की स्थिति तत्कालीन यूरोपीय देशों की तुलना में अधिक अच्छी है।

संदर्भ :
[1] जे.पी. नायक और सैय्यद नूरूल्ला : भारतीय शिक्षा का इतिहास (1800-1973), दि मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम हिंदी संस्करण : 1976, पृ. 1.
[2] सुंदरलाल : भारत में अंगरेजी राज (द्वितीय खंड), प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, पंचम संस्करण : 2016, पृ. 169.
[3] वही
[4] मेजर बी.डी. बसु : हिस्ट्री ऑफ एजुकेशन इन इंडिया : अंडर रूल ऑफ दि ईस्ट इंडिया कंपनी,  कलकत्ता, 1922, पृ. iii.
[5] वही, पृ. 170; जे.डब्ल्यू. एडमसन, शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ एजुकेशन,  कैंब्रिज, 1919, पृ. 246.
[6] सुंदरलाल : भारत में अंगरेजी राज  (द्वितीय खंड), प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, पंचम संस्करण: 2016, पृ. 171 ; रिपोर्ट ऑफ .डी. कैंपबेल, कलेक्टर ऑफ बेल्लारी, दिनांक 17 अगस्त, 1823: फ्रॉम रिपोर्ट ऑफ सलेक्ट कमेटी, खंड I, प्रकाशित 1832.
[7] धर्मपाल : ब्यूटीफुल ट्री, राष्ट्रोत्थान साहित्य, बंगलुरू एवं समाजनीति समीक्षण केंद्र, चेन्नई, 2021, पृ. 12 ; हेनसार्ड (HANSARD), 22 जून और 1 जुलाई, 1813.
[8] मिनट ऑफ गवर्नर थॉमस मुनरो ऑर्डरिंग कलेक्शन ऑफ डिटेल्ड इन्फॉर्मेशन ऑन इंडिजिनियस एजुकेशन : 25.6.1822 ; टी.एन.एस.. : राजस्व परामर्श (रेवेन्यू कंसल्टेशंस): खंड 277, पृ. 1771-75: कार्यवाही 2 जुलाई, 1822, संख्या 1.
[9] गवर्नमेंट इंस्ट्रक्शंस टू बोर्ड ऑफ रेवेन्यू : 2.7.1822 ; टी.एन.एस.. : राजस्व परामर्श (रेवेन्यू कंसल्टेशंस) : खंड 277, पृ. 1777-79: कार्यवाही 2 जुलाई, 1822, संख्या 2.
[10] सर्कुलर फोर्ट सेंट जॉर्ज : 25.7.1822 ; टी.एन.एस.. : बी.आर.पी. (बोर्ड ऑफ रेवेन्यू प्रोसीडिंग्स) : खंड 920, पृ. 6971-72: कार्यवाही 25 जुलाई, 1822, संख्या 7.
[11] धर्मपाल : ब्यूटीफुल ट्री, राष्ट्रोंत्थान साहित्य, बंगलुरु एवं समाजनीति समीक्षण केंद्र, चेन्नई, 2021, पृ. 17-18.
[12] वही, पृ. 18-19.
[13] वही, पृ. 20-21.
[14] वही, पृ. 23.
[15] सुंदरलाल : भारत में अंगरेजी राज (द्वितीय खंड), प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, पंचम संस्करण: 2016, पृ. 171.
[16] वही, पृ. 172.
[17] वही, पृ. 173; रिपोर्ट ऑफ .डी. कैंपबेल, कलेक्टर ऑफ बेल्लारी, दिनांक 17 अगस्त, 1823 : फ्रॉम रिपोर्ट ऑफ सलेक्ट कमेटी, खंड I, प्रकाशित 1832.
[18] कलेक्टर, मालाबार रिपोर्ट टू बोर्ड ऑफ रेवेन्यू : 5.8.1823 ; टी.एन.एस.. : बी.आर.पी. : खंड 957, पृ. 6949-55: कार्यवाही 14 अगस्त, 1823, संख्या 52-53.
[19] कलेक्टर, मद्रास रिवाइज्ड रिपोर्ट टू बोर्ड ऑफ रेवेन्यू : 12.2.1825 ; टी.एन.एस.. : बी.आर.पी. : खंड 1011, पृ. 1193-94: कार्यवाही 14 फरवरी, 1825, संख्या 46.
[20] धर्मपाल : ब्यूटीफुल ट्री, राष्ट्रोत्थान साहित्य, बंगलुरू एवं समाजनीति समीक्षण केंद्र, चेन्नई, 2021, पृ. 40-41.
[21] वही, पृ. 15.
[22] मिनट ऑफ सर थॉमस मुनरो : 10.3.1826 ; किला सेंट जॉर्ज: राजस्व परामर्श, खंड 314, पृ. 875-84: कार्यवाही 10 मार्च, 1826, संख्या 2.
[23] वही
[24] जे.पी. नायक और सैय्यद नूरूल्ला : भारतीय शिक्षा का इतिहास (1800-1973), मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम हिंदी संस्करण: 1976, पृ. 5 ; सेलेक्शंस फ्रॉम रिकॉर्ड्स ऑफ गवर्नमेंट ऑफ मद्रास, संख्या II, परिशिष्ट ई।
[25] वही, पृ. 7.
[26] वही, पृ. 8.

                                                                              

दीपक
शोधार्थी, इतिहास विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) – 136119
1564deepak@gmail.com, 89299-22065

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

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