शोध आलेख : दरिया कहे शब्द निरवाना / प्रो.सुनील कुमार तिवारी

दरिया कहे शब्द निरवाना
- प्रो.सुनील कुमार तिवारी



            प्राणी मात्र के कल्याण में सतत संलग्न, कबीर के अवतार की संज्ञा से विभूषित, महान तत्वज्ञानी, सत्य के उपासक, नामोपासना में अटूट आस्थावान, दरिया पंथ के प्रवर्तक संत दरिया साहब व दरिया दास का जन्म बिहार प्रांत के रोहतास जनपद के धरकंधा नामक गांव में कार्तिक सुदी 15 संवत 1691 को हुआ था। वे जाति के मुसलमान( दर्जी) थे। इनके जन्म के समय भारतवर्ष की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति विश्रृंखलित- सी हो गई थी। सर्वत्र अशांति और अव्यवस्था का साम्राज्य कायम था। जीवन के नैतिक मूल्यों का क्षरण अत्यंत तीव्र गति से हो रहा था। उचित नेतृत्व के अभाव में जनता के समक्ष न कोई आदर्श बचा था और न उद्देश्य। देश में मुगलों का शासन था। औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीति से जनता अत्यंत पीड़ित थी। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच परस्पर जातीयता को लेकर कटुता और अविश्वास बढ़ता जा रहा था। ऐसी स्थिति में देश और समाज को एक ऐसे पथ-प्रदर्शक की आवश्यकता थी, जो आदर्शविहीन जनता के मन- प्राणों में नवीनता की ज्योति प्रज्वलित कर सके ।संत दरिया साहब एक ऐसे ही संत थे, जिन्होंने कुंठित जनता एवं संकटग्रस्त समाज को भक्ति के द्वारा सद्भावना एवं प्रेम का पाठ पढ़ाया, सत्य की रक्षा की और निर्गुण भक्ति एवं ज्ञान का प्रकाश फैलाया।वस्तुत: दरिया साहब अपनी गहन संवेदनात्मकता, अपार सर्जनात्मकता, विराट सत्य की अहर्निश खोज, अनुभूति की परम उदात्तता और अगाध चेतना की अजस्रता के कारण विलक्षण संत ,अद्भुत रचनाकार, विवेकी साधक और परमज्ञान संपन्न गुरु के रूप में प्रत्यक्ष होते हैं ।संत दरियादास के जीवन से संबंधित अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि दरिया साहब के पिता उज्जैन वंशी क्षत्रिय थे। उनका नाम पृथुदेव सिंह था। बादशाह औरंगजेब की प्रिय बेगम की दर्जी की लड़की के साथ पृथुदेव सिंह की शादी हुई थी। शादी के बाद उनका नाम पीरनशाह हो गया और वे अपनी ससुराल धरकंधा में ही बस गए। जनश्रुति है कि दरिया साहब जब केवल एक माह के ही थे ,तब एक दिव्य पुरुष ने दर्शन देकर उनका नाम दरिया व दरिया शाह रखा था। इनका विवाह 9 वर्ष की अवस्था में इनके कुल नियमानुसार हो गया था, फिर भी वे कभी सांसारिक पदार्थों एवं माया मोह में आसक्त नहीं हुए। उनका स्वभाव बहुत सरल था। वे सबके साथ मधुर व्यवहार रखते थे। वे मांसाहार के कट्टर विरोधी थे और सात्विक भोजन एवं सादा जीवन के पक्षपाती थे। इनके साधारण जीवन स्तर को देखकर बहुधा लोग इनकी हंसी उड़ाया करते थे,पर वे सांसारिक अपेक्षाओं से हमेशा बेपरवाहरहे।


संत दरिया साहब के विचार अत्यंत उच्च एवं उदार थे। वे हृदय के सच्चे थे और इसी कारण इन्हें तर्क-वितर्क के द्वारा उपलब्ध कोरे ज्ञान से कहीं अधिक सत्य की पूर्ण अनुभूति में आस्था थी। धीरे-धीरे संसार से वे विमुख होते चले गए और 16 वर्ष की उम्र में घर परिवार छोड़कर वैरागी हो गए । 20 वर्ष की अवस्था तक इनमें भक्ति का पूर्ण विकास हो गया और 30 वर्ष की उम्र में इन्होंने तख्त पर बैठकर लोगों को उपदेश देना आरंभ कर दिया।शीघ्र ही इनके उपदेश को सुनने के लिए अनेक विद्वान संत- महात्माओं की अच्छी खासी भीड़ जमा होने लगी , तब से वे एक सिद्ध संत के रूप में प्रसिद्ध हो गए। उन्हें पूर्व जन्म की बातें भी याद आती थीं । ऐसे महापुरुषों की हर बात निराली होती है। उनकी साधारण- सी बातें भी असाधारण होती हैं। सिद्ध एवं सच्चे संत जो कुछ कहते हैं, वह सत्य होता है। दरिया साहब के जीवन में भी अनेक ऐसे आख्यान भरे पड़े हैं।दरिया साहब के नाम पर जो पंथ चला उसे दरिया पंथ कहा गया।इस पंथ में साधु तथा गृहस्थ दोनों प्रकार के लोग सम्मिलित थे। पंथ में हिंदू या मुसलमान दोनों ही शामिल हो सकते थे। वे किसी भी व्यक्ति के घर भोजन कर सकते थे ।साथ ही उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं माना जाता था ।साधु सिर मुड़ाते थे और गृहस्थ टोपी पहनते थे ।दरियादासी संप्रदाय में सभी श्रेणी और जाति के लोगों के लिए पांच बार पूजा करने का प्रावधान था, जिसके लिए किसी मंदिर या मस्जिद की आवश्यकता नहीं थी। वस्तुत: अपने संप्रदाय पोषित मूल्यों और मर्यादाओं का दरिया साहब ने पूर्ण निष्ठा और आत्मविवेक से अनुपालन किया और जात-पांत के बंधन को अस्वीकार करते हुए उन्होंने धर्म के नाम पर किसी तरह के मतवाद को कभी समर्थन नहीं दिया।
दरिया साहब के 36 मुख्य शिष्य थे।इनके मठों की संख्या 112 थी, जिसमें चार गद्दियां धरकंधे के अतिरिक्त तेलपा( सारण), मिर्जापुर (सारण) तथा मनुआं(मुजफ्फरपुर) प्रसिद्ध हैं।
भक्ति कविता की निर्गुण परंपरा से जुड़े अनेक संत, लोक कवि, गायक और पदकर्ता के नाम लिए जा सकते हैं ,जो कबीर के मर्म से संबद्ध रहे।दरिया साहब भी कबीर के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे। लोग उनको कबीर का अवतार मानते थे। उन्होंने 'दरिया सागर' नामक अपनी रचना में कहा है-

सोई कहो जो कहहि कबीरा।
दरियादास पद पायो हीरा।। *1


दरिया साहब यह घोषित करते हैं कि कबीरदास के पद हीरे के समान बहुमूल्य हैं और वेउन्हीं बातों को जनता के सामने रख रहे हैं, जिन्हें कबीर ने प्रस्तुत किया था।
'दरिया ग्रंथावली' के द्वितीय भाग की पूर्वपीठिका में डॉ. धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री ने लिखा है "जैसी श्रद्धा भक्ति दरिया को कबीर के प्रति थी, वैसी ही अन्य महान संतों के प्रति थी, जिन्हें हम निर्गुण संतमत की भाव-धारा का प्रतिनिधि मानते हैं।" *2


अपनी कृति 'ज्ञान रतन' में दरिया साहब ने नाथपंथियों तथा योगियों की ससम्मान चर्चा कीहै-


नवो नाथ रहे गोरख जोगी।
भक्त भेख भूप रस भोगी।। *3


उन्होंने यत्र- तत्र संत नामदेव,योगीराज मत्स्येद्रनाथ का भी आदर सहित उल्लेख किया है -
नामदेव कलि जागे ऐसे, दास कबीर ज्ञान मुख जैसे। मच्छीन्द्र जागे सब केहु जाना, सतगुर भेद बिरले पहचाना। *4


दरिया साहब ने कविजनोचित और काव्योचित आदर्शों पर भी बराबर अपनी दृष्टि रखी। वे ऐसे कवियों की रचनाओं को काव्य की संज्ञा देने को तैयार नहीं थे, जो अपनी कविता के द्वारा अक्षरों का महल खड़ा करके माया का प्रपंच सजाते हैं। जिस काव्य के द्वारा विमल नाम के प्रेम का आस्वादन होता है, उसे ही दरिया साहब कविता मानते हैं –


विमल नाम प्रेम नहिं चाखे।
कलि में कथा बहुत चित राखे।।
कवि आखर करी बहुत बनाई।
माया भेद ज्ञान नहीं पाई।। *5


कबीर के अनुसार, प्रत्येक संत का अंतिम ध्येय सत्यलोक की प्राप्ति है, जो तीन लोकों से परे है। दरियादास ने उसी सत्यलोक को बहुधा 'छपलोक' नाम से अभिहित किया है और उसे 'अभय लोक' या 'अमरपुर' भी कहा है।इसके अतिरिक्त उनके मत पर सूफी संप्रदाय एवं सतनामी संप्रदाय का भी न्यूनाधिक प्रभाव दीख पड़ता है । देशाटन के दौरान दरियादास जी के संपर्क में जो समाज या समुदाय आया, वह उनका होकर रह गया। इन यात्राओं के कारण दरिया पंथ की शाखाएं देश के विभिन्न भागों में फैलती चली गईं।
कबीर की तरह ही दरिया साहब पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन तर्क प्रवणता के साथ हृदय का संस्पर्श उनकी रचनाओं को अत्यंत प्रभावी बना देता है।
वस्तुत: दरिया साहब ने प्रचलित भारतीय चिंतन प्रणालियों एवं प्रस्थानों को उनकी समग्रता में ग्रहण किया ।उन्होंने कहा है -यह संसार एक समुद्र के समान है। इसमें अथाह जल भरा हुआ है। गुरु खेवनहार है ।उसके बिना मझधार को पार नहीं किया जा सकता-


वारिधि अगम अथाह जल, बोहित बिनु किमी पार।
कनहरिया गुरु ना मिला, बूड़त हैं मझधार ।।


कृष्ण दत्त पालीवाल के अनुसार, "संत कवियों ने हर सांस में गुरु की महत्ता का बखान किया है ।परमात्मा से साक्षात्कार के लिए गुरु की आवश्यकता का प्रतिपादन किया और गुरु को ब्रह्मा का स्वरूप कहा ।कबीर जैसे संतों ने गुरु को गोविंद से ज्यादा महत्व दिया।" *6
दरिया दास जी के मतानुसार निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति के लिए उसे जीव के भीतर ही खोजना परमावश्यक है। आत्मदेव निरंजन बाहर भीतर सर्वत्र एक ही प्रकार से व्याप्त है ।वह आदि, मध्य तथा अंत अर्थात सर्वत्र एकरस है और चर- अचर आदि सभी में एक ही प्रकार से संस्थितहै।

दरिया साहब के अनुसार हिंदू या मुसलमान, ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य ,शूद्र सभी मानव में एक ही ब्रह्म का निवास है ।सभी एक ही पृथ्वी पर निवास करते हैं। सबमें एक ही जल है, एक ही पुरइन( माता के गर्भ की झिल्ली जिसमें बच्चा बंद रहता है ),एक ही नाल, एक ही कमल (आत्मा), एक ही भंवरा( मन )है तो बताओ जाति और अजाति कौन है? प्रत्येक शरीर में एक ही जीवात्मा बसता है और प्रत्येक की प्रकृति में भूख- प्यास आदि भावनाएं समान रूप से विद्यमान हैं। प्रत्येक शरीर का निर्माण समान रूप से पांच तत्वों से हुआ है। एक ही रक्त, हड्डी, मांस और त्वचा (चमड़ा), तीन गुण (सत्व, रज,तम),एक ही रंग, सभी एक ही आकार के हैं, सबमें एक ही खून है और सबमें एक ही आत्मा जागृत है। बनावट की विभिन्नताएं तो ठीक उसी समान हैं जैसे- कुम्हार के एक ही चाक पर से विभिन्न बर्तनों की सृष्टि होती है।*7
दरिया साहब ने केवल दो ही वर्ग (जाति) को मान्यता दी- देव (मानव) और दैत्य (दानव)। अंकुर, अन्न,फल और दूध तथा शाकाहारियों को देव श्रेणी में रखा तथा मीन, मांस भक्षकों, मद्यपान करने वालों एवं हिंसकों को दानवों की श्रेणी में रखा।दरिया साहब ने हिंदू और मुसलमान दोनों को काफिर कह कर मिथ्या मार्गगामियों को ठीक राह पर लाने का प्रयास किया। छुआछूत का विरोध कर ऊंच-नीच की भावना को बुरा बताया और हिंदुओं में व्याप्त वर्ण व्यवस्था की खिल्ली उड़ाकर मानव मात्र की एकता और समानता पर जोर दिया।
दरिया साहब के अनुसार स्रष्टा की दृष्टि में एकरूपता है, सबकी एक धरती है ,सबका एक ही परमात्मा है, जो जाति -पांति तथा धर्म के बंधन से परे है-


जाति-पांति सब जाति कही, अजाति जाति से भिन्ह।
नहीं ब्राह्मन नहि राजपूत है, वैश्य शूद्र का चीन्ह ।।


दरिया साहब ने "इन बातन में बादि है" कहकर रोजे का माखौल उड़ाया ,पशु वध का विरोध किया और "नेम कहा जब मीनहि खाए' कह कर करारा व्यंग्य किया, हलाल की खिल्ली उड़ाई , काजी के ऊपर कटाक्ष किया तधा मौला के शुद्ध- सात्विक आचरण की अनुपस्थिति को रेखांकित किया-


मियां जी काजी चतुर सेयाना ।
जाहि गाय से अमृत चुवतु है ,ताहि मारिके खाना।।
पकड़े जइहो जमपुर वासी, तुमके के फुरमाना ।।


इस तरह मुल्ला, मस्जिद-बाग, रोजा तथा हलाल आदि पर दरिया साहब ने करारा व्यंग्य किया है। उनकी समस्त आलोचनाएं अत्यंत रुखी एवं नीरस प्रतीत होती हैं, परंतु इनमें सहानुभूति एवं सच्चाई भरी हुई है, क्योंकि दरिया साहब ने बड़ी ईमानदारी के साथ दोनों धर्म और दोनों समाजों की बुराइयों को सबके सामने प्रस्तुत किया है।*8


दरिया साहब का मानना था कि निर्दयतापूर्वक जीव हत्या करने वाले सीधे नरक में जाते हैं ।हमें ज्ञान की तलवार से काम, क्रोध, माया, मोह तथा लोभ की हत्या करनी चाहिए ,तभी हम सच्चे अर्थ में धार्मिक बन सकते हैं-


जो तोहि खून सांच मन भावा ।
करहु खून हम तुहि बतावा।
गयान खड्ग दिढ़ कर गहो, कामादिक झटमारि।
पांच पचिस ही ज्योति के करम भरमि सब झारि।। *9


दरिया साहब ने मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनकी एक रचना का नाम 'मूर्ति उखाड़' है। कहते हैं कि भारी विरोध के बावजूद उन्होंने अपने ग्राम धनकंधा स्थित दुर्गा मूर्ति की असमर्थता का सार्वजनिक प्रदर्शन किया था और उक्त मूर्ति को उखड़वा कर गांव के पोखर में तीन माह तक छुपा कर रखवा दिया था। उन्होंने जोर देकर कहा कि बड़े आश्चर्य की बात है कि लोग भ्रम में इतने जकड़ गए हैं कि निर्जीव मूर्तियों के सम्मुख बकरी और भैंसे जैसे सजीव प्राणियों का वध करते हैं ।पूजा के योग्य वास्तविक मूर्ति तो सजीव प्राणी है।ईश्वर का निवास प्रत्येक मानव में है, इसलिए हमें हर मनुष्य के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखना चाहिए।
दरिया साहब एकेश्वरवादी थे। प्रचलित बहुदेववाद में उनकी तनिक आस्था नहीं थी। उनका कहना था-


यह जग वेश्या बहुत भतारी।
एक भक्ति करु तन मन वारी।।


दरिया साहब ने पाखंडी साधु संन्यासियों, ऋषि-मुनियों आदि के आडंबरों का विरोध किया। 'तिलक माला से तरे न कोई' कह कर उनके माला धारण करने को मिथ्या बताया है।
तीर्थाटन में उनकी कोई आस्था नहीं थी। 'दरिया साहब ने बहुधा बनारस के प्रसंग में यही कहा है कि यह दुश्चरित्र पुरुषों और पुंश्चली स्त्रियों का अड्डा है और इनमें पाखंडी साधुओं की भी भरमार है।' *10


वे तत्कालीन काशी का वर्णन इन शब्दों में करते हैं -
सहर बनारस मोहिनी मोहन, जोहत है सब लाल रंगीले।

तपसी जो तपन जोग टिके, छूटि जात है ध्यान सो काम के नीचे। *11


दरिया साहब मनुष्य जन्म की सार्थकता, परमात्म प्रेम और भाईचारे के संदेश पर विशेष बल देते हैं ।दरअसल, इतिहास के दिए सारे घाव, अंतर्ग्रस्त समाज की हताशाओं से घिरी जीवन व्यवस्था तथा सत्ता और धर्म के धुरीहीन चरित्र की साफ पहचान दरिया साहब ने ठीक-ठीक कर ली थी। इसीलिए दरिया साहब के कभी दो चेहरे नहीं रहे।उनका मार्ग सरल, ऋजु, सीधा, सच्चा, स्पष्ट मार्ग था। संतों की यह रीति है कि आत्मतत्व की पहचान को उन्होंने स्वयं तक ही समेट कर नहीं रखा,बल्कि वे सर्वदा सकल समाज को आत्मतत्व में संस्थित करने हेतु प्रतिश्रुत रहे। इसी क्रम में दरिया साहब ने धर्म के नाम पर पहले से विद्यमान तमाम भ्रमों से जनता को दूर करने का भाव मंत्र दिया। लोकभ्रमों को दूर करते हुए उन्होंने हिंदू- मुसलमान को एक रहने की सलाह दी। दरिया साहब सत्याग्रही संत थे ।उन्होंने पुरोहितवाद-पंडावाद को न अपनाने की सलाह दी। समाज सुधार के संबंध में उनका काम अतुलनीय है। उन्होंने निर्भयता से हिंदू- मुसलमान दोनों को संबोधित किया और जाति-पांति, वर्ण व्यवस्था, कर्मकांड पर प्रहार करते हुए शास्त्र धर्म की लीकों को निर्ममता से तोड़ा।

ध्यातव्य है कि दरिया साहब की कविताई किंचित उपदेश काव्य ही नहीं है, बल्कि आत्मानुभूति ,उद्बोधन, आलोचना और व्यंग्य से परिपूरित अतिशय संवेदनशील विवेक की नम आंच है। संत दरियादास ने सत्संग से अपने शब्द विवेक को जाग्रत और सुविस्तृत कर अपनी वाणी का अभिनव वितान तैयार किया था। उनकी 'बानी' अनुभव की वाणी है, जो प्रयोगशाला में नहीं, बल्कि लोकशाला में विकसित हुई थी। उनके सृजन में दार्शनिक लय एवं मानवतावादी भावधारा की अद्भुत अनुगूंज है। उनकी रचनाओं में एक ओर योगमार्गी रहस्यवादी पदबंध मिलते हैं, जिनमें प्रतीकों के सहारे गहन आध्यात्मिक आशय की व्यंजना की गई है तो दूसरी ओर सामाजिक यथार्थ के ऐसे स्वर और तेवर भी देखने को मिलते हैं ,जो अनुभव के साँचे में ढलकर और भी मुखर हो उठते हैं। मुक्तिबोध के अनुसार संत काव्य निचली जाति की सांस्कृतिक आत्मप्रस्थापना का काव्य है। वर्ग भेद, छुआछूत, ऊंच- नीच की जाति व्यवस्था को कबीर से बहुत पहले सिद्धों ने भी प्रश्ननांकित किया था। रूढ़ि ध्वंस की परंपरा को और पैना बनाते हुए दरिया दास ने उन्हीं प्रश्नों को चुना है, जो सदियों से आत्म जिज्ञासुओं कोललकारते रहे हैं।


संदर्भ : 

1. दरिया सागर, पृष्ठ 80, बेलवेडियर प्रेस,इलाहाबाद
2. दरिया ग्रंथावली,( द्वितीय ग्रंथ) सं.डॉ धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री, पूर्वपीठिका, पृष्ठ 12
3.ग्यान रतन,पृष्ठ-202
4.ग्यान रतन,पृष्ठ-192
5.ग्यान रतन,पृष्ठ-122
6. समाज विज्ञान विश्वकोश, खंड -6 सं. अभय कुमार दुबे,पृष्ठ -1857
7. संत दरिया: एक अनुशीलन, डॉ. धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री,पृष्ठ -144- 145
8. दरिया साहब की सामाजिक चेतना, डॉ.रामदुलार दास, पृष्ठ- 116 -122
9. प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ दरिया साहब शब्द 295
10. संत दरिया: एक अनुशीलन,डॉ. धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री, पृष्ठ- 144
11. दरिया सागर, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद


प्रो.सुनील कुमार तिवारी
प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
9810734820


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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