भक्ति सामाजिक विकास की अवस्था में विकसित हुई है तो इसका अपना-अपना समाज, आराध्य-संसार और भक्तों की उपासना की विविधता इसको व्यापक सामाजिक और दार्शनिक आयाम देती है| इसी से इसका सांस्कृतिक स्वरुप, भाषिक, सांगीतिक और कलात्मक आकार ग्रहण करता है| यह सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों से अपने को पुष्ट करते हुए विकास करती है| इसका अपना ‘इतिहास’ और ‘वर्तमान’ है| इसकी अपनी ‘आर्थिकी’ है| इसकी अपनी ‘लोकेशन’ भी है| यह लोकेशन इसकी प्रादेशिकता और स्थानीयता से जुड़ते हुए इसके भाषिक-भूगोल को निर्मित करती है| इसी क्रम में इसका पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय पहलू सामने आता है| यह सामुदायिक और सांस्कृतिक-चेतना से जुड़ा हुआ नया आयाम है| सांस्कृतिक-अध्ययन ने भक्तिकाव्य और भक्ति-आन्दोलन को देखने का एक व्यापक फलक उपस्थित किया है| भक्ति के मनोवैज्ञानिक आयाम और भक्ति की सामाजिक भूमिका को एक ‘थैरेपी’ के तौर पर देखा जाने लगा है| यह संसारजन्य मानव के अवसाद की औषधि है और करुणामयी-संसार की आधारशिला| यह एक संतुलन है या पॉवर इकोनोमी ? यह जड़ समाज-व्यवस्था का विकल्प है या संत-भक्त-कवियों का प्रति-संसार ? यह सांसारिक-जगत को, मनोमय, कल्पनाजन्य और चेतनामयी दृष्टि से सुधारकर स्वीकृत/अंगीकार करने का प्रतिफलन तो नहीं है ?
इस विषय को मुख्यत: निम्नलिखित बिन्दुओं/प्रश्नों में बाँटकर देखने की आवश्यकता है – पहला, भक्ति क्या है ? इसकी पृष्ठभूमि और इतिहास को विद्वानों ने कैसे देखा है ? दूसरा, भक्ति-आन्दोलन और भक्तिकाव्य के बीच सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय कोई सम्बन्ध बनता है या नहीं ? तीसरा, हिंदी की ‘सांस्कृतिक-परिधि’ से क्या तात्पर्य है ? इस परिधि को अकादमिक-जगत ने कितना स्पेस दिया है या नहीं ? चौथा, भक्तिवाद को लेकर नई वैचारिकी क्या कहती है ? भक्ति, विश्वमानस का विनयी रूप है| यह निजता, सामुदायिकता, प्रादेशिकता, राष्ट्रीयता और वैश्विकता से जुड़ा हुआ भाव-जगत है| आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि – “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है|”[1] भक्ति के लिए श्रद्धा और प्रेम का होना अनिवार्य पहलू है| भक्ति इस रूप में व्यक्ति मन का भाव है, साथ ही इसकी सामाजिक भूमिका भी है| भक्ति, लोकमंगल की सहायिका शक्ति है| इसके प्रयत्न और उपभोग-पक्ष हैं| लोकजीवन की रक्षा और लोकरंजन इसके पाथेय हैं| मध्यकालीन भक्तिकाव्य के अनुसंधाता विजयेन्द्र स्नातक के अनुसार - “भक्ति मनुष्य की एक प्रमुख नैसर्गिक प्रवृत्ति है जो व्यक्ति की आस्था और ईश्वर के अस्तित्व के साथ जुड़ी हुई है । मन के भीतर निहित पूज्य भाव या श्रद्धा भाव जब अपने से अधिक शक्तिशाली शक्ति या व्यक्ति के प्रति व्यक्त होता है तब वह लौकिक श्रद्धा कहलाता है, किन्तु जब यही भाव अलौकिक, अदृश्य-शक्ति के प्रति उदय होकर शाब्दिक रूप में व्यक्त किया जाता है तब भक्ति कहलाता है। भारतीय तत्व चिंतन में भक्ति को ईश्वर की उपासना, आराधना, पूजा, सेवा आदि के मूल में स्थित मुख्य प्रेरक भाव माना गया है। मनुष्य अपनी सीमित शक्ति से इस विश्व का पालन या विध्वंस नहीं कर सकता,
अतः उसका ध्यान एक ऐसी विराट सत्ता की ओर जाता है जो दृश्यमान-जगत के प्रादुर्भाव, स्थिति एवं संहार का कारण है। यहीं से आस्तिक श्रद्धा का उदय होता है। दार्शनिक शब्दों में शक्ति को ब्रह्म शब्द से व्यवहृत किया जाता है। उसी को दूसरे शब्दों में ईश्वर भी कहा गया। यह ब्रह्म नित्य, शुद्ध-बुद्ध, मुक्त-स्वभाव, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अमर-अजर अपरिवर्तनीय है। इसकी भक्ति का विधान ही ईश्वर भक्ति है। धर्म और सम्प्रदायों में अपनी धारणा के अनुसार ईश्वर के नाम का सृजन किया गया है, किन्तु वास्तव में सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक ईश्वर एक ही है।”[2]
वैष्णव धारा में रामभक्ति का सामाजिक आधार को आलवारों से तुलसी तक देखा जा सकता है | ‘भक्ति’ को ‘द्राविड़ क्षेत्र से उपजी’ हुई मानने पर विशेष जोर दिया गया है| हिंदी में प्रचलित दोहे से इसकी पुष्टि होती रही है, जैसे –
भक्ति द्राविड़ उपजी, लाये रामानन्द|
परगट कियो कबीर ने, सात द्वीप नौ खण्ड||
सुवीरा जायसवाल ने वैष्णव भक्ति के आधार ग्रन्थ और क्षेत्र-विस्तार के बारे में व्याख्या करते हुए लिखा है कि – “विविध लोकप्रचलित और वीर गाथाओं के नायक आराध्य वासुदेव-कृष्ण की भक्तिपूर्ण उपासना का वैदिक देवता विष्णु की उपासना से समन्वय की प्रक्रिया महाभारत में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, और इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भगवद्गीता, जो महाभारत का ही एक अंश है, वैष्णव भक्ति का सबसे पहला प्रामाणिक धर्मग्रन्थ है, परन्तु श्रीमद्भागवत-महापुराण के माहात्म्य का रचनाकार वैष्णव भक्ति का धार्मिक भूपरिचय मानवीकृत वैष्णव भक्ति का नारद से संवाद के माध्यम से बतलाता है, और स्पष्ट रूप से कहता है कि भक्ति द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बढ़ी, महाराष्ट्र में कहीं-कहीं सम्मानित हुई किन्तु गुजरात में उसे बुढ़ापे ने आ घेरा| वहाँ वह अपने दो पुत्र, ज्ञान और वैराग्य के साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी| अब वह वृन्दावन आ गयी और वह फिर से सुरूपणी नवयुवती हो गयी है, परन्तु उसके पुत्र अभी भी बूढ़े और थके-माँदे तथा दुखी हैं|”[3]
इसके प्रतीकात्मक अर्थ को समझते हुए यह कहा जा सकता है कि भक्ति का जन्म कुरुक्षेत्र में नहीं हुआ| इसको द्राविड़ आलवारों से जोड़ा गया है| इसका विकास कर्नाटक के वैष्णव आचार्यों, महाराष्ट्र के संतों, गुजरात के नरसी मेहता से होते हुए, यह वृन्दावन में कृष्णभक्ति के आचार्यों, कवियों, संगीतज्ञों, गायकों, कथावाचकों द्वारा पल्लवित-पुष्पित होती रही है| इसका भौगोलिक विकास इसकी स्थिति और केन्द्रों को उद्घाटित करता है| यह मथुरा और वृन्दावन से काशी, जगन्नाथ पुरी, नवद्वीप और कामरूप तक अपनी स्वीकृति का विस्तार करती है| यह सांस्कृतिक-भूगोल शंकराचार्य के हाथों पहले ही उद्घाटित हो गया था| शंकराचार्य का अद्वैतवाद और इस्लाम का एकेश्वरवाद संघर्ष के साथ संवाद करते हुए मेल-जोल को बढ़ा रहे थे|
फ्रीड्हम हार्डी ने ‘विरह भक्ति : द अर्ली हिस्ट्री ऑफ कृष्ण डिवोशन इन साउथ इंडिया’ पुस्तक में भक्ति-विन्यास के तीन मूलभूत तत्त्व बताये हैं : “सौन्दर्य-बोध, आराध्य के प्रति रत्यात्मक (इरोटिक) प्रेम और भावोन्माद|”[4]
राधावल्लभ त्रिपाठी ने संस्कृत में श्रीधरदास कृत ‘सदुक्तिकर्णामृत’ (रचनाकाल – 1205-6) का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि – “‘सदुक्तिकर्णामृत’ में लगभग 500 कवियों के कुल 2380 पद्य संकलित किए गए हैं|... श्रीधर ने ‘सदुक्तिकर्णामृत’ को पाँच प्रवाहों में विभक्त किया है|... देवप्रवाह में यद्यपि भक्तिभावना का प्राधान्य है और अनेक सम्प्रदायों को प्रतिनिधित्व दिया गया है, पर इसमें लौकिक (सेक्युलर) पद्य भी हैं| इन पद्यों को आज के प्रचलित अर्थ में धार्मिक नहीं कहा जा सकता|”[5] संस्कृत काव्य की परंपरा में भी लौकिक काव्य धारा का सूत्रपात हो गया था| उसमें शिव, महादेव, गंगा, काली, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नरसिंह, वराह, वामन, परशुराम, श्रीराम, विरही राम, हलधर, बुद्ध, कल्कि, कृष्ण का शैशव, कौमार्य, यौवन, हरिक्रीड़ा, वेणुनाद, गीत, गोवर्धनोद्धार, उत्कंठा, गोपीसंदेश, हरिभक्ति, लक्ष्मी, सरस्वती आदि की भक्ति में लौकिकता का समावेश हुआ है| “विष्णु के अर्द्धपशु अर्द्धमानव अवतार : नरसिंह और हयग्रीव”[6] को भारतीय सामाजिक संरचना में स्थान मिलना और उसका अवतारी रूप गतिशीलता को दर्शाते हैं| यह निश्चित ही ठहरी हुई जड़ता की स्थिति नहीं है बल्कि भक्ति के सहारे समावेशन का नया अध्याय है| यहाँ बहिष्करण की प्रवृत्ति को त्याज्य माना गया है| यहाँ स्वीकरण या निवेदित रूप की प्रस्तावना है| यह उस झूठ को उद्घाटित करने के लिए है कि संस्कृत साहित्य ने जनजीवन और लोकजीवन को ध्यान में नहीं रखा था ! लोकभाषाओं के उदय के साथ या पहले भी भक्ति के स्वर संस्कृत काव्य में दिखलाई देते हैं| यहाँ सामाजिक-जीवन को पौराणिक आधार पर काव्यात्मक और यथार्थ बनाया गया है| यहाँ भक्त का समर्पणवाद, जातीय सोपानबद्ध ढांचे को नहीं तोड़ता है और सामन्ती व्यवस्था का विस्तार करता है| यह इस रूप में जातिव्यवस्था के खिलाफ़ कोई बुलंद स्वर नहीं निर्मित करता है| जबकि जनभाषाओं में जाति व्यवस्था के खिलाफ परिधि का शंखनाद गूंजा है| इसे निर्गुण धारा ने प्राथमिकता दी है| दक्षिण भारत और महाराष्ट्र की समाज-व्यवस्था में पंचम/आधुनिक दलित को जाति के खिलाफ बुलन्द होते हम पाते हैं| दलित संत चोखामेला ने तुलसी से पूर्व ही अगले जन्म में इससे मुक्त होने का भाव मुखरित किया था| डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने एक पुस्तक इसी संत को समर्पित की है| यह अंतर्विरोध, सगुणवाद की आन्तरिकता और सामाजिक यथार्थ की वास्तविकता से मेल खाता है| वस्तुत: टकराव तो उच्चवर्गीय सगुण रामोपासना और निम्नवर्गीय निर्गुण एकेश्वरवाद में था|
शेल्डन पोलॉक ने ‘रामायण एण्ड पॉलिटिकल इमेजिनेशन इन इंडिया’ (1993) नामक लेख में रामभक्ति सम्प्रदाय के उदय को 12-13 वीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमण की प्रतिक्रिया से जोड़ते हुए उसकी नाटकीय और अभूतपूर्व व्याख्या की है| यह मत पुरातात्त्विक और अभिलेखीय साक्ष्यों से मेल नहीं खाता है| यह ‘सभ्यताओं की टकराहट’ और ‘धार्मिक उन्माद’ का अमेरिकी संस्करण है| जिसके तले साहित्य और भारतीय जनजीवन की सामासिकता की बलि चढ़ाई जा रही है ! राम भक्ति ने मंदिर और भारतीय परिवार व्यवस्था के भीतर पैठ बनायी और नया विधान तैयार किया| जिसे हम कथा, कीर्तन, गायन, वादन, नृत्य और सामाजिक जनजीवन में भावित होते पाते हैं|
भक्ति की उत्पत्ति में शैव, शाक्त, वैष्णव, स्मार्त, आर्येतर, सूफी, इस्लामी, ईसाई और द्राविड़ मतों के साथ जनजातीय प्रभाव को देखना एक नया आयाम हो सकता है| यह आयाम परंपरागत जीवन-विधान के साथ कैसे सांस्कृतिक एकीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा बनता है, यह दिलचस्प कहानी है| विष्णु के चार अवतार वाराह, नरसिंह, वामन और मानुष माने गये हैं| इनमें से दो का सम्बन्ध जनजातीय/आदिवासी समाज/समुदायों से है| पशुरूपी देवता के रूप में इनकी उपासना को देखा जा सकता है| इनका समावेशन भारतीय परिधि और सांस्कृतिक विकास को दर्शाता है| मेगस्थनीज ने मथुरा में वासुदेव-कृष्ण की उपासना का उल्लेख किया है| इससे यह ध्वनित होता है कि पशुपालक और गोचारण-संस्कृति का पौराणिक आधार पर समावेशन हुआ है| कृष्ण का विष्णु-नारायण से तादात्म्य तो अवतारवाद का केन्द्रबिन्दु है ही| पौराणिक मिथकों की सृष्टि से शक्ति, राम, कृष्ण और शिव को जोड़कर देश में एकीकरण का वैचारिक अभियान भारतीय मेधा का अपना समावेशी मॉडल है| इसने स्वाधीन और इनकी अधीनता न मानने वाले समुदायों को अपनी कथाओं का प्रतिनायक बनाया| उनकी छवि मानव के होने से एक स्तर नीचे रखी गयी| इस रूप में वे नाग-संस्कृति (कालियनाग मर्दन) का प्रतिकार कर सके| यह प्रसंग कृष्ण-कथा का अभिन्न हिस्सा बन गया| कृष्ण और पांडवों द्वारा अरण्यमुखी जीवन-शैली से महरूम करने की योजना का पहला नगरीय प्रारूप महाभारतकाल में शूरसेन जनपद में दिखता है| यह खांडव-वन के दहन से आकार लेता है| यह राजधानी निर्माण का महाभारतकालीन संस्करण है| महाभारत विश्वमानस की आर्थिक लूट और युद्ध की विभीषिका का पर्यावरणीय-दहन है| जहाँ विधवाओं और रुदालियों का करुण-स्वर है|
‘लीलापद’ का प्रबंध-विधान शृंगारिक या वत्सलता से भरा हुआ है| इसमें जीवन का आनंद है| इसलिए भक्ति को विद्वानों ने न तो सुखान्त माना और न ही दुखान्त, बल्कि इसे मनुष्य के भाव दशा से प्रशान्त की श्रेणी में रखा है| भक्ति निश्चित ही धर्म-मीमांसा के साथ आकार लेती है| इसका ‘जनक्षेत्र’ तो संसार और जगत (कथा-जगत, काव्य-जगत, नाट्य-जगत, मनोजगत, हृदय-जगत, भक्ति-जगत, मानस-जगत) है| इसका भूगोल हिंदी पट्टी का नाथद्वारा, गल्ताजी, वृन्दावन, मथुरा, काशी, प्रयाग का सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण है| जहाँ साहित्य, संगीत और कला का स्पेस है| जहाँ तीर्थाटन है| यहाँ मानव के भावलोक को भक्ति हिंदी की जनपदीय धारा में संचरित करती है| यह कब कबीले के सरदार या प्रमुख से सामंतवाद और पुरोहितवाद की सोपानीबद्ध व्यवस्था में रूपांतरित हो जाती है| भक्ति एक संदेश है| यह शक्तिरूपा है| सामंतवादी सत्ता रूपी वातावरण कैसे सामाजिक प्रश्नों को किनारे लगा देता है, यह जानना असंभव ही है|
भक्ति हमारे देह के बनने के वितान को ‘पंचतत्त्व’ से जोड़ता है| इस रूप में इसकी सृष्टिवादी संकल्पना ने आकार लिया| यह अब विज्ञान के सामने किनारे हो गयी है| यह तो हमारा जीवन-दर्शन है - ‘छिति जल पावक गगन समीरा’ (तुलसी), ‘पाँच तत्त्व को पूतरो , ऐसो तत्त्व अनूप’ (कबीर)| यह तो सांख्य-दर्शन है का सार है जो भक्ति-कविता में ज्ञान-मीमांसा के रूप में आ रहा है| सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड, नाद, ध्वनि, जीव, हमारी देह, मन, प्राण, आत्मा, हृदय-पक्ष, मानस, चेतना, जगत, माया, संसार, जन्म-मृत्यु, आकार-निराकार, समाधि, एकाग्रता, पूजा, ईश्वर का स्वरुप, श्रम-संस्कृति, ज्ञान-योग, शृंगार और राजा-प्रजा के सम्बन्ध, समाज-व्यवस्था, पारिवारिकता का विस्तार, आदर्श, प्रेम, वैराग्य, गृहस्थ-जीवन और बाजार के बीच जूझता मानव-समुदाय, जिज्ञासा का अनंत लोक, धर्म, वनस्पति-जगत सब इस भक्तिकाव्य में समाये हुए हैं| यह केवल काव्य नहीं है यह रामजी का कंठ है जो नर-नारी के गीत और कथा को सिरजता है|
इस धरा की संस्कृतियों को हम वैश्विक, राष्ट्रीय, प्रादेशिक/स्थानीय और परिधि की श्रेणियों में बाँटकर समझने का प्रयत्न करते रहे हैं| क्या वैश्विक-स्तर पर केवल पश्चिम का बाजार और तकनीक आधारित अर्थ केन्द्रित और भौतिकतावादी मॉडल राज करेगा ? या इसे विभिन्न महाद्वीपों के विभिन्न राष्ट्रों की प्रकृति आधारित जीवन-शैली और सभी जीवों को साथ लेकर चलने वाली जीवन-दृष्टि संचालित करेगी| जैसे – भूटान का ‘हैप्पीनेस का मॉडल’| या स्थानीय और प्रादेशिक संस्कृति इसका आधार लेगी| या परिधि का केंद्र से संवाद होगा ?
भक्ति और भक्तजन सारी मानव सभ्यता के हिस्से हैं| इसे धर्म की नैतिकता से खाद-पानी या ऊर्जा मिलती है| धर्म की वैधानिकता, लोकमत, आस्था और विश्वास के सहारे राजनीति और अर्थसत्ता पर नियंत्रण रखती आयी है| आज यह संकट में है| इसलिए सारी दुनिया क्रूरता का खेल, खेल रही है| भक्ति, निर्भय समाज और संतुलन का काम करती आयी है| भक्ति ने भारत के प्रवासियों और स्वाधीनता-आन्दोलन में सत्य की लड़ाई का अभिनव पाठ निर्मित किया है| गाँधी की प्रेरणा मीरा, मध्यकालीन समय में सत्य की पहली सत्याग्रही रही है| प्रवासियों की उपलब्धि में ‘रामचरितमानस’ की भूमिका से कैसे हम इनकार कर सकते हैं ? प्रवासी जन-मन ने संघर्ष की लड़ाई में इस सांस्कृतिक कृति से नैतिक जीवन का पहला आखर आत्मसात किया था | ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में अपनाई गयी उदार-दृष्टि ने ज्ञान को आत्मसात करने में मजहब, जाति, लिंग, क्षेत्र, भाषा आदि सीमाओं का अतिक्रमण किया है| संगत और पंगत के साथ मानव-सेवा को सबसे ऊँचा स्थान दिया गया है| संतों के काव्य-लोक और आदर्श-स्वप्न-लोक में ‘बेगमपुरा’ का बीज गतिशील हुआ है| जहाँ रैदास कहते हैं – ‘ऐसा चाहूँ राज मैं, मिले सबन को अन्न’| संत ‘श्रम-संस्कृति’ के पक्षधर बनकर आते हैं| किसान-जीवन की पीड़ा यहाँ अभिव्यक्त होती है| सत्ता और सामंत के तले पीसते जीवन को यहाँ स्वर मिलता है| यह मार्मिकता और संवेदनशील जीवन का अमर काव्य है|
मानव-समाज, सांसारिक/भौतिक, मानसिक/बौद्धिक, कल्पनाजन्य जगत या लोक की भावभूमि में विचरण करता है| वह हृदयलोक के भाव, अनुभूति, संवेदन, इन्द्रियजन्य-ज्ञान, विचार और चेतनामय मनोभूमि के साथ एक भाषिक-लोक का निर्माण करता है| इस भाषिक-लोक में क्षेत्र और प्रदेश विशेष का जनमानस स्वीकृत होता रहता है| यहाँ सामुदायिक आस्था और विश्वास के केंद्र, प्राकृतिक शक्तियों से विकसित दैवीय स्वरूप को ग्रहण करते हैं| इसमें संगीत और मंत्र प्रधान भूमिका निभाते हैं| भक्ति में जो गायन, वादन, नृत्य और काव्य की रस लहरी बहती है, उसका एक पुरातन इतिहास है| भक्ति केवल मध्यकालीन सामंती समाज और इतिहास की उपज नहीं है वह पुरातन विश्वासों के साथ नये रूप में संयोजित होती है| इन सबके समायोजन से ‘धर्म’ और ‘भक्ति’ का सम्बन्ध जुड़ता है| इसी धरातल से विभेद का भी वातावरण निर्मित होता है| क्योंकि मानव-समाज एक यात्री है| इसका यात्रा में होना ही भक्ति के विचार और संदेश को संप्रेषित करता रहा है| यह संत-मन या फकीरी की दुनिया का ब्रह्म-विचार है| यह गीत और कथा का मिश्रित रूप है| यहाँ संगीत की विधिवत शिक्षा का परिसर है| भक्ति आचार्यों से शास्त्रबद्ध अवश्य हुई है लेकिन वह जगत, जीव, माया और ब्रह्म के साथ कवि/कवयित्री के आत्म से रचित भी है| जैसे – ‘भैरवी अक्क महादेवी की कविताएँ’ – “धूल है मेरी देह, मेरी आत्मा आकाश का विस्तार है|”[7] भक्ति-आन्दोलन का इतिहास और सांस्कृतिक विस्तार, भाषाई-काव्य संसार से विकसित हुआ है| इसमें मल्लिकार्जुन अर्थात् शिव जो चमेली के पुष्पों से सुसज्जित है| उसकी चाह व्यक्त हुई है| सारा संसार मरणशील है केवल जो कभी मरता नहीं उस अनीश्वर से अपने सम्बन्ध की इच्छा व्यक्त करना मीरां/मीराबाई को भी भाया| जैसे – ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई’| यह अनन्यता भक्ति की आधारभूमि है| अपने मन के भावों, विचारों, अनुभवों, क्षण-विशेष की मनोस्थिति आदि को साझा करना, मानव मन की निर्भय स्थिति को दर्शाता है| यह आदिम और मध्यकालीन मन की आत्माभिव्यक्ति है| आधुनिक मानव-मन कुंठा, त्रास और अवसाद का वीभत्स दृश्य उपस्थित करता है| इसमें आत्महत्या और हिंसा की प्रवृत्ति का विस्तार है| यह डरा हुआ मन है जो साहस और साफगोई से किनारा करता है| यह ज्ञानयोग और भक्तिपथ के शिविरों से अपने को भरता है ! भक्ति संसार से पलायन नहीं है, यह रचाव-बचाव की संस्कृति का प्रवेश-द्वार है| जहाँ एकांत-दिगंत, वाणी और वचन का भाषायी अनुसृजन है| यहाँ निजता, प्रार्थना, भजन और कीर्तन का ब्रह्म-नाद है| यह नाद, चैतन्य महाप्रभु को बेसुध करता है| यह सूफ़ी ‘समाओं’ अर्थात् संगीत-सभाओं में गायी जाने लगीं| हिन्दवी कविताएँ तत्कालीन राजसत्ता की फारसी से अधिक प्रभावकारी रही हैं| गीतकार गोपाल दास ‘नीरज’ ने लिखा है कि – “इस काल की विशेष उपलब्धि यह थी कि सन्तों ने संस्कृतनिष्ठ भाषा के स्थान पर देश में बोली जाने वाली जनभाषा ‘हिन्दवी’ अर्थात् हिंदी में ही अपने उद्गार व्यक्त किए और वही संतकाव्य की भाषा बनी| सन्तों ने इसी भाषा में एक बहुत बड़ी वैचारिक क्रांति की नींव डाली| हिन्दवी की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि इसमें लिखी रहस्यवादी कविताएँ सूफ़ी समाओं (संगीत सभाओं) में गायी जाने लगीं और ख्वाजा मुहम्मद गेसू दराज, हमीदुद्दीन नागौरी जैसे सूफ़ियों का यह विश्वास बन गया था कि लोगों को आनन्द-विभोर करने के लिए हिंदी कविताएँ फारसी से अधिक प्रभावशाली हैं| शेख फरीद की हिंदी रचनाएँ ‘गुरुग्रन्थ’ में संग्रहीत हैं| कबीर के पद्य सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही दिल्ली तथा आगरा की सूफ़ी खानकाहों में पढ़े व उद्धृत किए जाते थे|”[8]
आदिम-संस्कृति के अध्येताओं जैसे एडवर्ड टायलर (प्रिमिटिव कल्चर) का मानना है कि – आदिम विश्वास, भक्तिवाद में समन्वित हो गये| जैसे – राजस्थान में गुरू जाम्भोजी (1451-1526) ने ‘विश्नोई/बिश्नोई-पन्थ’ का प्रवर्तन किया| उन्होंने दोहरे-मापदण्ड और ‘दिखावे’ की आलोचना करते हुए लिखा है कि -
“टूका पाया मगर मचाया, ज्यों हडिया का कुत्ता|
जोत जुगत की सार न जागी, मूड मुडाया बिगूला|
सुण रे काजी सुण रे मुल्ला, सुण रे बकर कसाई|
किण री थरपी छाली रो लो, किण री गाडर खाई||”[9]
इस मत को मानने वाले विश्नोई कहलाये| इस मत को मानने वाले को 29 (बीस+नौ) नियमों का अनुपालन करना होता है| उसमें से दो नियम पुरातन मानस की समझ और मध्यकालीन इतिहास की कोख से उपजे थे जो आधुनिक मानव-मन को रास आये, ‘हरा वृक्ष नहीं काटना’ और ‘जीव मात्र पर दया करना’| इन विचारों ने कैसे खेजड़ी वृक्ष की रक्षा (अमृता देवी के नेतृत्व में, वर्ष-1730 में, जिसमें 363 लोग शहीद हुए) में जोधपुर की स्थानीय सत्ता के सामने साहस का परिचय दिया| चिपको-आन्दोलन की प्रेरणा मध्यकालीन समाज और इतिहास में घटे आन्दोलन से आयी है| यह केवल एक परिघटना नहीं है बल्कि सामुदायिक जीवन-प्रणाली है| जो अजस्र बह रही है| वृक्ष केवल पेड़ नहीं है वे हमारे होने/अस्तित्व के आधार हैं| यह साहस, भक्ति की सामुदायिक जीवन में उपस्थिति से आया| जीववाद और सर्वात्मवाद एक ही हैं| फिर जीवों की हत्या कैसे न्यायोचित हो सकती है ? हर जीव के प्रति दया भाव रखना यह सामाजिकी, आधुनिक सभ्यता के महारथियों और शिकार के अभ्यासकों को कैसे संप्रेषित होगी ? मृग की रक्षा में अपने जीवन का बलिदान करने वाले संत से भी इस भक्तिकाव्य और आन्दोलन का सांस्कृतिक विस्तार होता है| यह मानवता की रक्षा में उठा कदम मात्र नहीं है, बल्कि सभी जीवों के प्रति आदर्श की सृष्टि है| ‘स्वर्णमृग’ से सियाराम तक नहीं बच पाये, फिर इन संतों ने परिधि से एक भिन्न संस्कृति का बीज अंकुरित किया| उस फसल ने नये रूप में भक्ति-काव्य के वैविध्य का विस्तार किया| इस मत के अनुयायी जाम्भो जी को विष्णु का अवतार मानते हैं| यहाँ ‘विष्णु सहस्रनाम’ की अवधारणा काम करती है| इतिहासकार सुवीरा जायसवाल का मत वैष्णववाद को समझने में सहायक है| मध्यकाल में सांस्कृतिक-आक्रमण की लहर से इतर परिधि पर रचित पद सामुदायिक-जीवन को प्राक्-आधुनिकता से जोड़ते हैं| इस रूप में भक्ति के हवाले से नया जीवन-दर्शन ‘सर्वधर्मसमभाव’ आकार लेता है| यह मेलजोल और मिश्रण से सत्य का संधान करता है| भक्ति कौनसे कालखण्ड में विकसित हुई ? यह कहना मुश्किल है| आदिम मानवता के किस खोल से यह अवतरण लेती है ? यह गणचिह्न, जादू और धर्म के साथ सर्वात्मवाद को लेकर आज भी जीवित तो नहीं है ! भक्तिकाव्य और भक्ति-आन्दोलन के अध्ययन को लेकर अभी भी संभावनाएँ बनी हुई हैं| इसके पीछे यह तर्क दिया जा सकता है कि समेकित रूप से भक्तिकाव्य का अनुसंधान अभी तक नहीं हुआ है| भक्ति-आन्दोलन की व्यापकता और उसका भारतीय उपमहाद्वीप और जनजीवन पर गहरा असर रहा है, इसको भी सामने लाने की आवश्यकता है|
भक्ति ईश्वर और भक्त के बीच प्रेम और श्रद्धा से परिपूर्ण अनन्य सम्बन्ध का नाम है| ईश्वर या अलौकिक सत्ता से सम्बन्ध बनाने के कई माध्यम हो सकते हैं| जैसे – कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति| इन सब में भक्ति नैसर्गिक और प्राथमिक हो गयी| इसका अपना अनुबंध-चतुष्ट्य है| भक्ति का अधिकारी कौन ? इसका विषय क्या होगा ? इसका सम्बन्ध किन-किन के बीच होगा ? उसका क्या स्वरुप होगा ? इसकी प्रयोजनीयता कैसे सिद्ध होगी ? आदि बिंदु इसके पाट को विस्तृत करते हैं| भक्ति में भक्त और भगवान के बीच एक निर्मल भाव की स्तुति, प्रार्थना, विनय पद और अनुनय की सुदीर्घ धारा है| इसको नाम, स्मरण, भजन, कीर्तन, सेवा, अर्चन, वंदन, दर्शन आदि से सिद्ध किया जा सकता है| यह योग की कठिन साधना नहीं है| यह ज्ञान की अबूझ पहेली भी नहीं है| यह कर्म-योग की राह भी नहीं है| यह तो ब्रह्म की असीम कृपा और विनय से अर्जित की जानेवाली सिद्धि है| जिसमें लोकमंगल का प्रयत्न-पक्ष और उपभोग-पक्ष संचरणशील है| इसे बुद्धि की नादानी ही कहें कि भक्ति जो भावना का विषय है उसे अंत:करण की पवित्रता से ही समझा जा सकता है| यह ‘गूंगे केरी सरकरा’ है| यह भाव, अनुभव और अनुभूति की सत्यशोधक भावधारा है| जहाँ गुलामी अपने आराध्य के प्रति है| जहाँ संबंधों का दास्य-रूप कब सख्य-रूप में और मर्यादा-भाव में रूपांतरित हो जाता है इसका भान ही नहीं रहता है| यह ब्रजमंडल की पशुचारण-संस्कृति का नवनीत है| जहाँ गाँव और नगर का द्वैत है| जहाँ ज्ञान और भक्ति का द्वैत है| जहाँ निर्गुण और सगुण का द्वैत है| जहाँ भावना और बुद्धि का द्वैत है| सरल हृदय का सौन्दर्य भक्ति का विषय बनता है| कृष्ण भक्त कवियों की लोकेशन गोवर्धन पर्वत और ब्रजमंडल है| इसकी इकोनोमी के अवरोधक तत्कालीन सत्ता से आने वाले कर्मचारी हैं जो पशुपालक समाज के उत्पाद को बाजार पहुँचने से पहले रोकते हैं| यह अहीर और यदुवंशी समाज का आख्यान है| जहाँ पशुधन की महत्ता हमें आर्थिक खुशहाली का संकेत करती है|
ईश्वर-भक्ति एक परम्परागत भावना से विकसित होती हुई हिन्दी के भक्त कवियों को मिली है। रामविलास शर्मा ने ‘संत-साहित्य के अध्ययन की समस्याएँ’ नामक निबंध में भक्ति काव्य को ‘मनुष्यता की निशानी’
के तौर पर रेखांकित करते हुए लिखा है कि - “मनुष्यता की बहुत बड़ी निशानी भोले शिशुओं की रक्षा, उनसे स्नेह है। इस ऐटमबम के युग में जब लाखों नर-नारियों और बच्चों को एक क्षण में नष्ट करने के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं, भारत के अमर गायक सूर द्वारा कृष्ण की बाल-लीला का वर्णन ध्वंस और विनाश के विरुद्ध एक चुनौती बनकर मानव को सजग करता है।”[10]
सबसे पहले हमारे लिए यह जानना आवश्यक होगा कि अभी तक भक्ति को देखने की दृष्टियाँ कौन-कौन सी रही हैं ? भक्ति को देखने का दार्शनिक आधार, उसके धार्मिक आयाम से सम्बद्ध रहा है| भक्ति को ईसाई देन, इस्लाम व सूफी प्रभाव से जोड़ते हुए इसे ‘सेमेटिक’ या ‘इब्राहिमी’ मानकर इसके विजातीय होने को बुलंद किया गया है| भक्ति को ‘धर्मों और सांस्कृतिक-आक्रमण’ से जोड़ते हुए इसके विजेता और विजित के बायनरी रूपों को महिमामंडित करने की कोशिश की गयी और ‘पराजित जनता के मनोभाव’ से देखने की दृष्टि का निरंतर विकास होता रहा है| इसके साथ या विरोध या पूरकता में इसे ‘दक्षिण’ के प्रभाव से नत्थी भी किया गया है| एक अन्य मत इसे विदेशी प्रभाव से इतर ‘भारतीय चिंता/चिंतनधारा’ का स्वाभाविक विकास से जोड़ता आया है| इस क्रम में इसके साक्ष्यों को परम्परा में तलाशता आया है| कुछ इसे ‘बौद्ध-मत’ के महायान से जोड़ते आये हैं| इन सबके अपने-अपने आधार हैं| इससे यह तो ध्वनित होता ही है कि भक्ति का सवाल उतना सरल नहीं है जितना भक्ति करना| भक्ति के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आयामों ने इसे और भी अधिक व्यापक बनाया है साथ ही इसकी सामाजिकता का आधार पुष्ट किया है| भक्ति केवल काव्य या साहित्य की ज्ञात दुनिया तक सीमित नहीं है| यह कथा-संस्कृति का मध्यकालीन देशीय संस्करण है जिसमें रासलीला और रामलीला का अंकिया विस्तार है| यह भारतीय देशज रूपों के साथ एकाकार होती है| यहाँ भवई का ख्याल से मेल-मिलाप है| यहाँ भांड का स्वांग से संवाद है| यहाँ नाचा का जातरा/जात्रा से संयोजन है| हिंदी के जनपदीय रूप परिधि से सांस्कृतिक विकास की ओर बढ़ते हैं| यह तमाशा का लावनी से संवाद है| यह संवाद कथा-संस्कृति से संचालित होता है| इसमें गायन, वादन, संगीत, नृत्य, लोक और काव्य का रसायन घुला-मिला है| यह संगीत, गायन, नृत्यकला, मूर्तिकला, स्थापत्य और चित्रकला के साथ बहुआयामी भी है| अपने आराध्य की मूर्ति का संसार में स्वरूप निर्मित होने की आर्थिकी केवल वैचारिक भिन्नता मात्र नहीं है, इसका एक बाजार है जिसकी इकोनोमी है| इसके कुशल शिल्पकार हैं| इसका इतिहास केवल मध्यकाल से ही नहीं जुड़ता है बल्कि भारतीय सभ्यता के आरम्भ से ही इसके साक्ष्य जुड़ते हैं| सिन्धुघाटी सभ्यता में शिव और मातृशक्ति के साक्ष्य इसकी प्राचीनता को मानव-समाज की आदिमता से सिद्ध करते हैं| जहाँ ‘सर्वात्मवाद’ का दर्शन, भक्तिकाव्य के बीच अपनी पैठ बनाये हुए है| ‘आदिम-संस्कृति’ में आत्मा को लेकर दो तरह के विचार रहे हैं| पहला मत यह मानता है कि – व्यक्तिगत जीवों की आत्मा, मृत्यु या शरीर के नष्ट होने पर भी लगातार बनी रहती है| दूसरा मत है कि – अन्य आत्माओं से सम्बंधित है जो ऊपर के शक्तिशाली देवों की पंक्ति तक पहुँचती है| आध्यात्मिक जीव, भौतिक जगत की घटनाओं और मानव के इस लोक के तथा बाद के जीवन को प्रभावित तथा नियंत्रित करने वाले समझे जाते हैं| यह संसार केवल भौतिक वस्तुओं से ही नहीं भरा है, अपितु इसमें एक अध्यात्म-पदार्थ अथवा जीव भी है, जिसे आत्मा कहते हैं और जो भौतिक वस्तुओं में छिपी रहती है अथवा उनसे अलग और स्वतंत्र भी उसका अस्तित्व है| यह विश्वास है कि मानव के विचार, भाव और अनुभूतियां ऐसी अतिप्राकृतिक शक्तियां हैं जो भौतिक जगत से भी स्वतंत्र हैं, आदिम मनुष्यों के बीच प्रारंभिक धर्म सम्बन्धी तथा आदर्शवादी प्रवृत्तियों का आधार था| नृत्य-संगीत, पुनर्जन्म और सर्वात्मवाद ने भक्तिआन्दोलन की पृष्ठभूमि निर्मित की है| सभी सन्तों और भक्तों के काव्य में इसके साक्ष्य देखे जा सकते हैं| जैसे कबीर की पंक्ति है कि – ‘हंसा निकल गया काया से खाली पड़ी रही तस्वीर’ या ‘बकरी पाती खात है ताकि काढी खाल’, ये काव्य-पंक्तियाँ आत्मा की महत्ता और दृश्मान-पदार्थ शरीर की नश्वरता को रेखांकित करती है| यदि सभी जीवों में सर्वात्मवाद ही है तो जीव-हत्या और उसका भक्षण कैसे तार्किक हो सकता है ? ‘अहिंसा परमो धर्म’ वाली उक्ति केवल वाणी की शोभा नहीं है यह आचरण की सामाजिकी है| यह गांधी को क्यों भायी ? आधुनिक-सभ्यता को क्यों यह नहीं भाती है ? इसकी खोज भाखा/भाषा और देशज मेधा की वैचारिक सरणी में ढूँढना तर्कसंगत होगा| यह चिंतन भारतीय ज्ञानमीमांसा और व्यक्ति की भाववादी स्थिति से आकार लेता है| इसमें षड्विकार – “काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, ईर्ष्या और चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष”[11] के संयोजन से सामाजिक की स्थिति का बोध होता है| संत इस षड्विकार को नियंत्रित करते हैं| यह एक नई परिघटना है जो वैदिक धर्म से मेल नहीं खाती है| यह जैन-बौद्ध मत के प्रभाव का दर्शन है या भागवत का नया रास, जिसमें शिव का नर्तन और गायन, वैष्णव की आर्त ध्वनि बनकर, भक्ति की शक्ति के रूप में लोकजीवन का संबल बनता है|
धर्म और पारिस्थितिकीय आयाम को लेकर पंकज जैन ने एक पुस्तक की लिखी है – ‘धर्मा एण्ड हिन्दू कम्युनिटीज : सस्टेनांस एण्ड सस्टेनएबिलिटी’ (2011)| इस किताब में धरती/धरणी और धर्म दोनों की उत्पत्ति एक ही धातु रूप से घोषित करते हुए उनके साक्ष्य भारतीय सभ्यता की सिन्धु घाटी में देखने की पहल की गयी है| सिन्धु परम्परा के धर्म को, हम (धरती और मातृशक्ति की उपासना) पुरातात्त्विक-स्रोत से ग्रहण करते है| इसमें दूसरा साक्ष्य भील समुदाय, प्रकृति और मानवेतर जीवों के मध्य सम्बन्ध पर आधारित हैं| ‘भीली महाभारथ’(महाभारत) और ‘रामायण’ इस विश्वास को पुष्ट करते हैं कि हिंदी पट्टी की सांस्कृतिक परिधि में ये मातृशक्ति और पारिस्थितिकी को जीवन-आस्था और मूल्य के रूप में ग्रहण करते रहे हैं| इसी पुस्तक का एक अध्याय गुरू जम्भेश्वर पर केन्द्रित है| एक अध्याय स्वाध्याय आन्दोलन पर है जिसकी अगुवाई पांडुरंग शास्त्री अठावले ने की थी| कबीर कहते हैं कि – ‘काहे को नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे नाल सरोवर पानी’| या ‘जल में कुम्भ, कुम्भ में जल, बाहर भीतर पानी’| यह प्राकृतिक जगत और परिवेशगत वनस्पति का भाषाई आधार पर सांस्कृतिक विकास है| यह काव्यात्मक है इसलिए सांस्कृतिक है| यह जीवन, दर्शन, प्रकृति और संस्कृति का समायोग है| इसी तरह ‘जवासे’ के प्रयोग से पारिस्थितिकीय विविधता और स्वाधीन प्रकृति की अभिव्यक्ति हुई है|
सुदीप्त कविराज ने चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण के अवतार के रूप में रेखांकित करते हुए उसे वैष्णव धर्मशास्त्र से जोड़ते हुए लिखा है कि – “चूँकि चैतन्य के चरित्र में कृष्ण का और प्रेम के नारी-स्वरूप दोनों का मिश्रण है इसलिए वे एक उभयलिंगी देवता है| एक लोकप्रिय धर्म का देवता, जो पूर्वी भारत के हिन्दू समाज के तुलनात्मक रूप से उपाश्रित किसान की कल्पना को भी स्वयं में समाहित कर सकता है|”[12]
सुदीप्त कविराज का मानना है कि हर भाषा की अपनी ‘आत्म-निशानदेही’ की तलाश बहुत ही मुश्किल कार्य है| जयदेव ओड़िशा, विद्यापति मिथिला और चैतन्य बांग्ला के बीच भाषाई विभाजन का उद्घाटन मुश्किल कार्य है| यह भाषायी इतिहास और भूगोल में सीमांकन के अभाव के कारण है|
भक्ति साहित्य के महान अनुवादों में ‘कुम्भलिका’ अर्थात् “एक अजीब प्रकार की उल्टी साहित्यिक चोरी की परंपरा जिसमें लोग दूसरे की रचनाओं को अपनी रचना बताने का दावा नहीं करते थे बल्कि अपनी रचनाओं को किसी और की रचना होने का दावा करते थे|”[13] इस परम्परा में कथा को अपनी शैली में तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने और एक नये धर्म के अस्तित्व की व्याख्या का प्रतिपादन किया जाता था| यह भक्तिआन्दोलन के इतिहास लेखन का एक गंभीर संकट है|
मध्यकाल में हम ब्रजमंडल और ब्रजसंस्कृति को सर्वदेशीय होते देख सकते हैं| ब्रज भाषा ने मध्यकाल में सांस्कृतिक रूप से भाषायी दूरी को पाटा था| पूर्वी भारत में ओड़िया, बांग्ला, असमिया भाषा में ‘ब्रजबुलि’ का विकास क्षेत्रीय सीमाओं का अतिक्रमण करता है| कृष्ण की भक्ति से जुड़े सारे उपादान, सभी कवियों के यहाँ नामावली के रूप में देखे जा सकते हैं| यमुना और वहाँ की वनस्पतियाँ समुच्चय रूप में नवद्वीप में भी प्रकट हुई हैं| इसे सांस्कृतिक-विकास और भक्ति का प्रताप ही कहा जा सकता है| सूरदास की कविता हो या रसखान का काव्य|
यह सांस्कृतिक मेल-जोल और मिलाप की प्रक्रिया का ही परिणाम था कि स्थानीयता, पारिस्थितिकी और भारतीयता का समन्वय भक्ति के साँचें में आकार लेता रहा| इसे ही दिनकर और नेहरू ने ‘सामासिक-संस्कृति’ कहा है| रहीम का जीवन-दर्शन भी ‘बिन पानी सब सून’ से संचालित है|
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है सर्वात्मवाद, भक्ति आन्दोलन की प्राणधारा है- चाहे निर्गुण हो या सगुण, लौकिक हो या सार्वदेशीय सबमें इसके तत्त्व हैं| भक्ति के संदेश ने मानवता का बहुत हित किया| भक्ति के विचार ने धर्म को रसात्मक बनाया| भक्ति भाषा, साहित्य, संगीत और कलापरक होते हुए राज, धर्म और अर्थ सत्ता से मुखातिब हुई| विभिन्न समुदायों के समावेशन से भक्ति आन्दोलन ने इसकी स्थानीयता को निर्मित किया| यह विश्व के मानस का विनयसागर है| जहाँ सारी वसुधा और ब्रह्माण्ड की चिंता है| यह पर्यावरण-प्रसंग के बिना अपनी स्थानीयता को पुष्ट नहीं कर सकती है| इसकी भाषा का व्याकरण और चिह्न पारिस्थितिकीय परिप्रेक्ष्य से आकार लेता है| इसके पूजन और भोज्य में भूगोल का स्वाद अवस्थित है|
[1] रामचन्द्र, शुक्ल, चिन्तामणि (विचारात्मक निबंध) पहला भाग, कला मन्दिर, दिल्ली, 2003, पृ. सं. 26
[2] विजयेन्द्र, स्नातक, हिन्दी साहित्य का इतिहास, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2009, पृ. सं. 31
[3] सुवीरा, जायसवाल, सवर्ण और अवर्ण की उत्पत्ति : दलित समस्या की ऐतिहासिक जड़ें तथा कुछ अन्य निबन्ध, (संकलन और सम्पादन : रंजन आनन्द), सेतु प्रकाशन प्रा. लि., नोएडा, 2023, पृ. सं. 124
[4] सुवीरा, जायसवाल, सवर्ण और अवर्ण की उत्पत्ति : दलित समस्या की ऐतिहासिक जड़ें तथा कुछ अन्य निबन्ध, (संकलन और सम्पादन : रंजन आनन्द), सेतु प्रकाशन प्रा. लि., नोएडा, 2023, पृ. सं. 130
[5] राधावल्लभ, त्रिपाठी, श्रीधरदासकृत सदुक्तिकर्णामृत, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 2007, पृ. सं. 6-7
[6] सुवीरा, जायसवाल, सवर्ण और अवर्ण की उत्पत्ति : दलित समस्या की ऐतिहासिक जड़ें तथा कुछ अन्य निबन्ध, (संकलन और सम्पादन : रंजन आनन्द), सेतु प्रकाशन प्रा. लि., नोएडा, 2023, पृ. सं. 194
[7] यतीन्द्र, मिश्र, (प्रस्तुति)), भैरवी अक्क महादेवी की कविताएँ, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. सं. 10
[8] शहाबुद्दीन, इराकी, मध्यकालीन भारत में भक्ति आन्दोलन : सामाजिक एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ.सं. x
[9] लाजपतराय, भल्ला, सामयिक राजस्थान, कुलदीप पब्लिकेशन्स, जयपुर, 2014, पृ. सं. 395
[10] अजय, तिवारी, (संकलन), रामविलास शर्मा : संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, 2013, पृ.सं. -198
[11] मणीन्द्रनाथ, ठाकुर, ज्ञान की राजनीति : समाज अध्ययन और भारतीय चिन्तन, सेतु प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, 2022, पृ.सं. xv
[12] हिलाल, अहमद, सुदीप्त कविराज, सेतु प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, 2023 , पृ.सं. 257
[13] हिलाल, अहमद, सुदीप्त कविराज, सेतु प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, 2023 , पृ.सं. 255
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