मानवता का विनम्र स्वर ‘गुरुनानकदेव’
- डॉ. पीयूष कुमार द्विवेदी
भारत की पुण्यभूमि पर अनेक ऋषियों-मुनियों, भक्तों एवं सन्तों ने जन्म लिया है। भक्तिकालीन निर्गुण साधकों में गुरुनानक देव एक ऐसे महान सन्त हुए हैं जिन्होंने भारत की महान संस्कृति न केवल अपनी उपस्थिति से समृद्ध किया बल्कि इस देश के विशाल जनसमुदाय का सांस्कृतिक,सामाजिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उन्नयन भी किया तथा इसके साथ ही सम्पूर्ण विश्व की शांति और समृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया है। गुरुनानकदेव ने 28 वर्ष की अवस्था में ही अपने व्यक्तिगत व सांसारिक सुखों का त्याग कर दिया और समग्र मानवता के कल्याण हेतु निकल पड़े। गुरु नानक देव जी का जन्म सन् 1469 इसी को तलवंडी रायभोई(वर्तमान,ननकाना साहिब पंजाब राज्य,पाकिस्तान) में हुआ था। गुरु नानक देव जी को संत, भक्त और शांति के प्रतीक के रूप में पेश किया गया है,लेकिन उनके व्यक्तित्व का सबसे निर्मल और उज्ज्वल स्वरूप एक समाज सुधारक के रूप सामने आता है। गुरु नानक देव जी संत के अतिरिक्त महान मानववादी चिंतक भी रहे हैं। उनका जीवन सिर्फ धर्म के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा अपति उन्होंने उस समय के, समाज के हर पक्ष को उभारा है। उन्होंने पक्षपात, अन्याय, जुल्म के विरोध में न्याय और एकता की आवाज को उठाया। गुरु नानक देव के जन्म के समय समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थिति बहुत ही गंभीर थी। समाज धर्म के आधार पर बंटा हुआ था। शासक ही शोषक बने हुए थे। जनता पाखंडों और अंधविश्वासों में उलझी हुई थी। राजाओं की यातना और छुआछूत से देश के लोगों का बुरा हाल था। पथ प्रदर्शक आध्यात्मिक प्रवृत्ति से ओतप्रोत गुरु नानक देव ने जनमानस को अपनी वाणी के माध्यम से मानवता का सही मार्ग दिखाया। गुरुनानक ने 1499 ई. से लेकर 1522 ई. के समय में पूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में चार उदासियाँ अर्थात यात्राएँ की हैं। उन्होंने बाइस वर्ष यात्राएँ की हैं। उनकी वाणी आम जन तथा समग्र मानवता के हित के लिए लिखी गई है। गुरुनानकदेव ने अपने जीवनकाल में हरिद्वार जगन्नाथपुरी, प्रयाग, अयोध्या, वाराणसी, गया, पटना, कलकत्ता, चित्रकूट, ग्वालियर झाँसी, मथुरा, दिल्ली, कुरुक्षेत्र, सहित न केवल भारत भ्रमण किया बल्कि अपने संदेश को भारतवर्ष की सीमाओं से बाहर भी अपनी उपस्थिति के माध्यम से पहुँचाया। इस क्रम में वे तमाम धर्मों के पंडितों-पुरोहितों, सन्त-महात्माओं एवं योगियों से मिले तथा विचारों एवं व्यवहारों को उन्होंने करीब से देखा। इसी दौरान उन्हें आम जनजीवन में व्याप्त निराशा एवं जड़ता को भी देखा और मानव समाज अपने अधिकार एवं कर्त्तव्यों हेतु सचेत करने का प्रयत्न भी किया; साथ ही जनसमाज के मन-मस्तिष्क में प्रेम, सद्भाव, करुणा, त्याग, परोपकार, सत्य एवं अहिंसा जैसे मानवीय मूल्यों का बीजवपन किया। कुँवरपाल सिंह लिखते हैं "गुरुनानक ने देश-विदेश की जितनी यात्राएँ की, शायद ही किसी सन्त अथवा भक्त कवि ने की हो वे देश के हर तीर्थ स्थल पर गये। उन्होंने स्वयं सब कुछ अपनी आँखों से देखा सन्यासियों वैरागियों सूफियों, योगियों, पंडितों, मुल्ला और मौलवियों से बात की श्रेष्ठ मानव समाज के लिए जो भी सूत्र उन्हें मिले, वे ग्रहण किए। उन्होंने भाईचारा, जनकल्याण सत्य की खोज को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। धर्म के नाम पर फैले पाखण्डों, बाह्याडम्बरों का खुलकर विरोध किया। द्वेष और घृणा के स्थान पर प्रेम और बन्धुत्व का संदेश दिया।"1
इन बृहत यात्राओं और जनसमाज के बीच के अनुभवों से समृद्ध होकर गुरुनानक का मानवतावादी चिंतन हमारे सामने आता है जिसमें सभी के लिए स्थान है, सबकी पीड़ाएँ सुनी जाती हैं और सभी समता के साथ जीने के अधिकारी माने जाते हैं। गुरुनानक का मानवतावादी चिंतन भारतीय धर्म और दर्शन के लिए नया नहीं है। भारतीय धर्म और दर्शन में ऐसे कई तत्व हमें प्राप्त होते हैं जो अपनी सम्पूर्णता में मानवतावादी हैं। वेदों, पुराणों में अभिव्यक्त मानवतावाद बौद्ध व जैन दर्शन का भी केन्द्रीय बिन्दु बनता तथा कालान्तर में मध्ययुगीन संतों की वाणी में इसकी झलक हमें दिखाई देती है चाहे वह कबीर हों, सन्त रविदास हों या श्री गुरु नानकदेव। भारतीय धर्म और दर्शन के निर्मल मानवतावादी चिंतन को गुरुनानकदेव ने नए रूप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया जो काल के क्रम में तमाम मत-मतान्तरों तथा सम्प्रदायों की खींचातानी में कहीं खो सा गया था।
हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल मानवीय सरोकारों से जुड़ा है। तत्कालीन परिस्थितियों के फलस्वरूप भक्ति से प्रेरित कवियों की वाणी में सर्वहित तथा लोकमंगल की कामना व्याप्त है। भक्तिकाल में गुरु नानकदेव का आर्विभाव उस समय हुआ जब भारत में इस्लाम का प्रवेश और तत्कालीन शासकों की निर्दयता और निरंकुशता अपनी चरम सीमा पर थी। वर्गीकृत समाज का नैराश्य, निरीह और निर्दोष प्रजा पर अन्याय और भारतीय जनमानस के दारिद्रय से जन्मी भयावहता ने उन्हें संतप्त कर दिया। इन सारी विपरीत परिस्थितियों के बीच में गुरुनानकदेव ने अपनी विनम्र वाणी के माध्यम से मानवता को नया स्वर प्रदान किया। मध्यकालीन सन्त कवियों में रविदास की भांति ही गुरुनानक का स्वर मानव कल्याण के हेतु जितना ओजस्वी है उतना ही अपनी कहन में विनम्र है। गुरुनानक के जीवन में मानवता के स्वर को मजबूत करने का सबसे बड़ा हथियार उनकी विनम्रता थी जिसके बल पर उन्होंने कठोर से कठोर हृदय वाले व्यक्ति का भी अपनी विनम्र वाणी के माध्यम से मार्गदर्शन किया। गुरु नानक देव का मानना था कि मनुष्य को अहंकार से नहीं अपनी मधुर वाणी व विचारों से दूसरे के मन को जीतना चाहिए। उन्होंने बहुत ही विनम्रता से अपनी शिक्षाओं और उपदेशों को सामान्य मानस तक पहुँचाया। गुरुनानक देव का मानना था कि बाहरी आडम्बरमय जीवन ही मनुष्य को परमात्मा की राह में पहुँचाने में बाधक है, बल्कि अंतरात्मा की पवित्रता और मन को वश में रखकर ही परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। गुरु नानक देव ने परमात्मा के स्वरूप को ओंकार बताकर सभी भ्रमों का निराकरण किया। ईश्वर के बारे में गुरनानक का मूल मंत्र है-
ओ सति नाम करता पुरुख निरनउ नीरिवैरु
अकाल मूरति अजूनि सैभं गुरु प्रसादि।।2
गुरु नानक देव ने किसी भी धर्म को कोसते नहीं है बल्कि अपनी विनम्र वाणी के माध्यम से सभी धर्मों के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। गुरु नानक देव का आविर्भाव उस समय हुआ जब भारत की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थिति असंतोषजनक थी। देश में मुसलमानों का शासन स्थापित होने के कारण आम जनता को शासन की क्रूरता, धर्मान्धता व संकीर्णता की पीड़ा उठानी पड़ रही थी। इसी घोर अंधकार और धार्मिक कर्मकांडों से भरे दिशाहीन समाज व समय में गुरु नानक देव का जन्म हुआ। गुरु नानक देव के बारे में गुरुदास ने लिखा है;
सतिगुरु नानक प्रगटिआ मिटी धुंधु जगि चाणनु होआ।
जिउ कवि सुरजू निकलिआ तारे छिपी अंधेरु पलोआ ॥3
गुरु नानक देव की वाणी विनम्रता मधुरता से ओत-प्रोत है और विनम्र वाणी उन्हीं की होती है जो सत्य का आचरण करते हैं। विनम्रता मनुष्य को मनुष्य बनाती है। गुरु नानक देव सत्य को सबसे ऊपर मानते हैं लेकिन वे सत्य के आचरण को उससे भी महत्वपूर्ण तथा श्रेष्ठ स्वीकारते हैं। गुरु नानक देव कहते हैं, "सच्ची उरै सब को ऊपर सच आचार।" विनम्रता में सबसे बड़ा बाधक अहम् या अहंकार है। परमात्मा की प्राप्ति के लिए अहंकार को नष्ट करके स्वयं को परमात्मा के प्रति समर्पित करना अति आवश्यक है क्योंकि अहंकार मनुष्य को मदांध बना देता है और वह दिग्भ्रमित हो जाता है। यदि हम परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हैं तो अहंकार से ऊपर उठकर ईश्वर के चरणों में स्वयं को सौंपना होगा जब अहम् समाप्त होता है तो मनुष्य ईश्वर में विलीन हो जाता है। 'हो जाई तां कत समाई।" अहंकार त्यागने पर गुरु नानक देव ने विशेष बल दिया है।
गुरूनानक देव ने अपनी विनम्र वाणी के माध्यम से वाणी समाज के निम्न जाति के लोगों एवं स्त्रियों प्रति श्रद्धा प्रेम व्यक्त किया है। गुरुनानक कहते हैं-
नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीचु।।
नानकु तिन के संगि साथि बडिआ सिउ किआ रीस।।4
अर्थात जो नीचों में अति नीच जाति के है, गुरुनानक उनके साथ है, उन्हें उच्च जातियों से कोई लेना देना नहीं है उस परमपिता की कृपा की नजर भी उन गरीबों एवं नीच जाति के लोगों पर बनी रहती है। गुरु नानक देव जी मानते है कि परमात्मा उन्हें ही मिलता है जो गुरुमुख होते है, वह चाहे किसी भी जाति या आर्थिक स्तर के क्यों न हो।
"सभू को ऊंचा आखीऐ नीचु न दीसै कोई।। इकनै भांडे साजिऐ इकु चानणु तिहु लोइ।
करमि मिलै सच पाईऐ धुरि बखस न मेटे कोई॥5
अर्थात सभी मनुष्यों को उच्च कहना चाहिए, किसी को भी नीच नहीं कहना चाहिए उस अकाल पुरुख ने ही सभी को बनाया है तीनों लोकों में सभी ओर उसकी (परमात्मा) ज्योति फैली हुई है। अच्छे कर्म से ही उसको पाया जा सकता है।
गुरुनानक देव के जन्म के समय तत्कालीन राजनीतिक, समाजिक एवं आर्थिक स्थितियाँ अच्छी न थीं और स्त्रियों की दशा तो बहुत दयनीय थी। नानकदेव स्त्रियों की ऐसी दशा देख कर चिंतित थे। गुरुनानक देव स्त्रियों प्रति श्रद्धा भाव रखते थे तथा चाहते थे कि उन्हें वह सम्मान एवं आदर मिले जिसकी वह अधिकारी हैं। नानकदेव के समय में स्त्रियों की स्थिति सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक आदि प्रत्येक स्तर पर बहुत ही दयनीय थी। बाल विवाह, दहेजप्रथा सती प्रथा, बाल विधवा, छुआ-छूत इत्यादि तमाम तरह की कुरीतियाँ समाज में व्याप्त थी। स्त्रियों को कुलटा, माया, ठगिनी आदि कहकर संबोधित किया जाता था। ऐसी परिस्थिति में गुरु नानक देव ने स्त्रियों को बराबरी का हक देते हुए लंगर-पंगत और धार्मिक कार्यों में समान रूप से भाग लेने दिया । उन्होंने उसे अपनी आत्मिक उन्नति के लिए स्वयं उत्तरदायी माना तथा नारी की निंदा करने वालों से कहा कि नारी अनिन्दनीय है, आसा दी वार में गुरु नानक लिखते हैं -
भंडि जमीऐ भंडि निमीऐ भंडि मंगणु वीआहु।
भंडहु होवै दोसती भंडहु चले राहु।
भंडु मुआ भंडु भालीऐ भंडि होवै बंधानु।
सो किउ मंदा आखीऐ जितु जंमहि राजान।
भंडहु ही भंडु उपजै भंडै बाझु न कोई॥6
भावार्थ हमारा जन्म नारी से होता है। हम नारी के गर्भ में पलते है, नारी से ही हमारी सगाई और शादी होती है नारी ही हमारी दोस्त भी होती है. वह ही यश को भी आगे चलाती है। यदि किसी पुरुष की स्त्री मर जाती है तो वह दूसरी स्त्री खोजता है। नारी से ही घर की मर्यादा बनी रहती है नारी हमारे लिए इतना कुछ करती है तब भी हम उसे बुरा क्यों कहते है? उस नारी ने ही दुनिया के महान राजाओं को जन्म दिया है नारी ही अपने जैसी दूसरी नारी को जन्म दे सकती है परमात्मा के साथ-साथ उस नारी के बिना भी ससार नही चल सकता। इस प्रकार गुरु जी की वाणी समाज के वंचितों, उत्पीडतों एवं स्त्रियों प्रति भी अगाध प्रेम और श्रद्धा है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि यद्यपि मध्यकाल लोकजागरण और सामाजिक जागरण का युग है लेकिन उस जागरण के काल में भी हम सामंती संरचना और सोच से मुक्त नहीं हो पाए थे और इसका प्रभाव हम अपने सन्त कवियों पर भी देख सकते हैं। नारी के प्रति दूषित दृष्टिकोण और माया के माध्यम से उसे बुराइयों के जड़ स्वीकारना कहीं हमारे सन्त और भक्त कवियों ने भी नहीं छोड़ा चाहे वह महान संत कवि कबीर हों या भक्त कवि तुलसी। कबीर बड़े क्रांतिकारी और सामजिक परिवर्तन के कवि हैं नारी के प्रति उनका भी दृष्टिकोण बदलता नहीं है और वे भी उसे बुराइयों की जड़ कहते हैं। लेकिन इस स्वरूप में गुरुनानक का स्वर हमे अलग सुनाई पड़ता है जिन्होंने अपनी वाणी के माध्यम से न केवल समाज के दलित,शोषित और उपेक्षित वर्ग की पीड़ा को वाणी दी बल्कि हज़ारों सालों से सामंती व्यवस्था के नीचे दबी कुचली आधी आबादी अर्थात नारी जाति की पीड़ा को भी समझा और उसे अपना स्वर प्रदान किया। इस मायने में गुरुनानक एक सच्चे,विनम्र और सम्पूर्ण रूप में हमें मध्यकाल से लेकर वर्तमान तक आलोकित कर रहे हैं। नानक ने अपने काव्य में बहुधा मातृ रूपकों का प्रयोग किया है तथा इससे नानक न केवल स्त्रियों। के सामाजिक रूप से सम्मान का हकदार मानते हैं बल्कि धार्मिक रूप से भी वे नारी रूप के वात्सल्य और प्रेम को समृद्ध करते हैं।
गुरु नानक देव जी ने अपनी वाणी के माध्यम से नवीन एवं अनूठा धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दर्शन दिया जिसमें आज के आदर्श समाज की झलक दिखलाई देती है। धर्म प्रचारकों में गुरु नानक देव जी का स्थान सम्माननीय और अद्वितीय है क्योंकि उन्होंने सच्ची कर्मशीलता और आध्यात्मिकता का समन्वय करके व्यक्ति को जीवन जीने का ढंग सिखलाया और नवीन समाज की नींव रखी। गुरु नानकदेव की वाणी के संदर्भ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं- “जिन वाणियों से मनुष्य के अंदर इतना बड़ा अपराजेय आत्मबल और कभी समाप्त न होनेवाला साहस प्राप्त हो सकता है, उनकी महिमा निस्संदेह अतुलनीय है। सच्चे हृदय से निकले हुए भक्त के अत्यंत सीधे उदगार और सत्य के प्रति दृढ रहने के उपदेश कितने शक्तिशाली हो सकते हैं, यह नानक की वाणियों ने स्पष्ट कर दिया है।”7
गुरुनानक देव नाम स्मरण, शब्द जाप, गुरु के महत्व एकेश्वरवाद, ईश्वरीय सत्ता तथा अध्यात्म की सहजता को स्वीकारते हैं, इन्हीं के कारण मनुष्य में विनम्रता का भाव जागृत होता है। गुरु नानक देव भाईचारे तथा देश-प्रेम के साथ-साथ मानवतावाद का प्रचार जीवन भर करते रहे और सभी मनुष्य परमात्मा की संतान हैं, ऐसे विश्वास के साथ लोक से जुड़े। गुरु नानक देव ईश्वर के नाम स्मरण को अमृत के समान सुख देने वाला और मित्र के समान अंतिम समय तक साथ रहने वाला मानते हैं। गुरु के बिना जगत बावला सा प्रतीत होता है जो ईश्वर की इच्छा को अपने ह्रदय में धारण कर लेता है वास्तव में वही सच्चा सेवक है जो व्यक्ति अपने मन के अनुसार कार्य करता है। उसे जीवन में कभी सुख की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि अंधे को अंधेपन के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। क्योंकि ईश्वर की भक्ति व सेवा और सानिध्य से ही हमें हमारी वास्तविक खुशी मिल सकती है गुरुनानक देव विनम्र शब्दों में कहते हैं -
"अमृत नामु सदा सुख दाता अंते होई सखाई।
बाझु गुरु जगतु बुउराना नावे सार न पाई।
सतिगुरु सेवहि से परवाणु जिन जोति जोति मिलाई।
सो साहिब सो सेवकु तेहा जिसु भाणा मन्नि बसाई।
आपणो भाणो कहु किनि सुखु पाईया अंधा अंधु कमाई।"8
इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु नानक देव एक अनन्य भक्त महान संत साधक, चिन्तक, उपदेशक थे। वह कट्टरता, रूढ़िवादिता, कर्मकांड और अंधविश्वास आदि से मुक्ति दिलाने वाले महान संत थे। इन्होने भक्ति, ज्ञान तथा कर्म में सामंजस्य स्थापित करते हुए प्रत्येक शब्द को सत्य-धर्म का उपदेश देने वाला बताया। उन्होने अन्य धर्म की निंदा न कर उसके मूल आदर्श की ओर संकेत किया। गुरु नानक देव ने ईश्वर की एकता, सामाजिक समानता तथा भ्रातृत्व की भावना का प्रचार-प्रसार अपनी विनम्र वाणी में किया। जिस जात-पात और ऊँच-नीच के भेद-भाव को आज के युग में बलपूर्वक कानून द्वारा भी पूर्णरूप से दूर नहीं किया जा सका उसी को उन्होंने हृदय में आस्था के द्वारा सहज प्रेम की भावना से स्थापित कर दिया। पंगत और संगत इसी उत्कृष्ट भावना का परिणाम है। गुरु नानक देव ने अपनी विनम्र वाणी के माध्यम अपने विचारों और उपदेशों को आम जनता तक पहुँचाया। गुरुनानक देव का उद्देश्य था कि भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों से मनुष्य को बाहर निकाला जा सके और उसे सत्य, करुणा व विनम्रता की राह दिखाई जा सके।
संदर्भ :
1- भक्ति आंदोलन:इतिहास और संस्कृति,सम्पादक- कुँवरपाल सिंह, पृष्ठ संख्या-203, संस्करण-2015, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
2- गुरुनानक
:जीवन और दर्शन, नारायणदत्त, पृष्ठ-152, संस्करण-1970,नवभारती सहकार प्रकाशन,दिल्ली
3- श्री गुरुनानक देव जी, डॉ. कुल्दीपचन्द अग्निहोत्री, पृष्ठ-59, संस्करण-2019,प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली
4- गुरु नानक वाणी, सम्पादक-भाई जोध सिंह, डॉ. हरिभजन सिंह(हिंदी रूपान्तरकार),पृष्ठ-87, संस्करण-2019,राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,नई दिल्ली
5- वही,पृष्ठ-38
6- वही, पृष्ठ-124
7- हिंदी साहित्य:उद्भव और विकास, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी,पृष्ठ-90,सप्तम संस्करण(2006),राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
8- गुरुनानक
व्यक्तित्व और विचार, डॉ. सीता हाड़ा,पृष्ठ-9,संस्करण-1984,चिन्मय प्रकाशन जयपुर।