ब्रजभाषा
के कृष्ण
भक्त मुसलमान
कवि
- चारुचंद्र मिश्र
इतिहास की धारा में जब भी दो संस्कृतियों का आमना-सामना होता है, तब या तो एक संस्कृति किसी दूसरी संस्कृति को अतिक्रमित कर देती है या दोनों के समुच्चय से एक साझी संस्कृति का निर्माण होता है। इस्लाम का प्रसार जब ईरान में हुआ तो वहाँ की संस्कृति को इस्लामी संस्कृति ने अतिक्रमित किया। अतिक्रमण की प्रकिया में इस्लाम ने प्राचीन ईरानी सांस्कृतिक शब्दावलियों का उपयोग किया और उसे अपने रंग में ढालने की प्रक्रिया का आरंभ किया।
इसी प्रक्रिया को विजयदेवनारायण साही ईरानी नवीन इस्लामी कवि फ़िरदौसी के बहाने व्यक्त करते हैं - “इस्लाम के साथ ईरान में अरबी शब्दों का बहिष्कार किया और उनकी जगह फारसी भाषा के पुराने और प्रचलित शब्दों को नवीन धार्मिक सांस्कृतिक संदर्भ में प्रयुक्त किया। अरबी, अल्लाह, नबी, मलायक आदि का फ़ारसी, खुदा, पैगंबर, फरिश्ता हो जाने की यही कथा है।”1.
इस्लाम के भारतीय शासन व्यवस्था में उपस्थित हो जाने के पश्चात उनके प्रचारकों यथा मौलवी और सूफियों ने भी भारतीय परंपरा के शब्दों में इस्लामी धर्म का प्रचार और अतिक्रमण का प्रयास किया। साही जी कहते हैं “शब्दों के सांस्कृतिक स्थानांतरणशीलता का आविष्कार करते समय जायसी की भूमिका भी फ़िरदौसी जैसी है।”2.
भारतीय इतिहास में बिलग्राम और ग्वालियर दो ऐसे स्थल रहे हैं जहां से इस तरह के प्रभाव को संस्थानिक रूप से अंजाम दिया गया था। बिलग्राम जहां एक तरफ सैयदों की पीठ रही है तो वहीं ग्वालियर भौगोलिक और प्रशासनिक तौर पर दो संस्कृतियों के संक्रमण का कारण बना। किन्तु इन स्थलों से इस्लाम के प्रचार का कार्य उस तरह से संपादित न हो सका जिस प्रकार ईरान में हुआ था। इसका कारण है कि भारत की सांस्कृतिक जड़ें इस तरह से गहरी थीं कि उसमें इस्लाम की उचित बातों को स्वीकार किया परंतु अपना अस्तित्व नहीं छोड़ा। इस प्रक्रिया में दूसरे तरह की संस्कृति का व्यापक प्रसार देखने को मिलता है। इस संक्रमण से एक ऐसी साझा संस्कृति बनी जिससे मध्यकालीन कला यथा – कविता, संगीत और चित्रकला के मिले जुले का रूप प्रकट हुआ। वहीं इसका दूसरा पक्ष भी देखने को मिलता है। भारतीय सांस्कृतिक शब्दावलियों के स्थानांतरण की प्रक्रिया में कुछ मुस्लिम मेधा भारतीय संस्कृति की प्राणवायु यथा भक्ति की तरफ इस तरह आकर्षित हुए कि धर्म तो उनका इस्लाम रहा किन्तु आस्था उनकी सनातनी हो गई। इसमें भी बड़ा वर्ग उन मुस्लिम मेधावों का रहा है जो ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति के सौंदर्यमय - प्रेममय आकर्षण की तरफ आकर्षित होने वाले कवियों का है। एक समान साहित्यिक भाषा किसी निश्चित प्रदेश तक सीमित नहीं रह सकती है उसका क्षेत्र बहुत व्यापक और विस्तृत होता जाता है। ऐसा ही ब्रजभाषा में लिखने वाले कवियों का हुआ , भले ही वह ब्रज क्षेत्र से नहीं आते पर उनकी कविताई का स्वर एक जैसा ही था। भारत में वह काल भी था जब सूफ़ीवाद रहस्यवाद का प्रचार प्रसार भारत में हुआ। यह वाद भी भावपूर्ण समर्पण में आस्था रखता था। मध्यकाल भक्तियुग और सूफ़ीवाद के उत्कर्ष का ऐसा काल था जब भावपूर्ण समर्पण में आस्था अपने ईश्वर की खोज करती थी।
बल्लभ, निम्बार्क, चैतन्य, अथवा गौड़ीय, हरिदासी, राधाबल्लभ, चरणदासी आदि सम्प्रदायों ने कृष्ण भक्ति की विस्तृत भूमि तैयार की। यह भूमि ऐसी थी जिसमें हिन्दू और मुस्लिम में कोई भेद नहीं था। मुसलमान कवि आस्था के रंग में ऐसे ही रम गए थे जैसे उनके आराध्य कृष्ण उन्हें साक्षात मिल गए हों। ऐसे ही कवियों के लिए ही भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी ने कहा है -
“इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिक हिन्दू वारिये ”।
ये कवि देश के अलग-अलग हिस्सों से थे लेकिन काव्य रचना ब्रजभाषा में ही किया। रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि भिखारीदास जी ने ‘काव्य-निर्णय’ नामक रचना की है जिससे यह स्पष्ट होता है कि ब्रजभाषा का सम्पूर्ण काव्य केवल ब्रजभाषा क्षेत्र के अंतर्गत ही नहीं हुआ , बल्कि उसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। उन्होंने ‘काव्य-निर्णय’ में यहाँ तक कहा कि -
“ ब्रजभाषा हेतु ब्रजभासा ही न अनुमानौ,
ऐसे ऐसे कविन की बानी हू सो जानिए।”
भिखारी दास जी का यह चिंतन लगभग १०० वर्षों की काव्य परंपरा के पर्यायलोचन के बाद का है। अतः उनकी दृष्टि बहुत सटीक जान पड़ती है। उन्होंने काव्य भाषा को ब्रजभाषा कहा है। स्वयं रीतिकाल के ज़्यादातर कवि ब्रजभाषा क्षेत्र के बाहर के थे। उनकी अपनी मातृभाषा ब्रजभाषा न थी। व्यवहार के स्तर पर कोई परिनिष्ठिठ अखिल भारतीय भाषा उभर के सामने नहीं आयी थी , इसलिए ब्रजभाषा को काव्य भाषा के रूप में सहज स्थान प्राप्त हुआ।
कृष्ण भक्त मुसलमान कवि :
राम और कृष्ण भारत की भावभूमि के नायक हैं। उनका चरित्र इतना बहुआयामी रससिक्त रहा है कि प्रत्येक युग में इस देश का सम्पूर्ण मानस उनके चरित्र से प्रभावित रहा। यह भाव भूमि ऐसी थी जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं था। यह भाव धारा इतनी प्रबल थी जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों बहे। यह विशेष रूप से काव्य के रूप में ही अभिव्यक्त हुई। संपूर्ण ब्रज मंडल उस समय कृष्ण भक्ति से सराबोर था। इसलिए ब्रजभाषा में विपुल साहित्य रचा गया सभी ने अपने भावों की अभिव्यक्ति की। उसके साथ ये कहना सही होगा की वे जनता के कंठ का हार बने। “वैष्णवों के मन में वृंदावन का महत्व सर्वाधिक है। रसखान ने वृंदावन के लिए प्रेम निकेतन शब्द का प्रयोग किया है। लगभग सभी वैष्णव ग्रंथों में वृंदावन कृष्ण की भूमि के रूप में पाया जाता है। यह वह स्थान है जहां न तो दुःख है, न ही विषाद। सिर्फ माधुर्य है और माधुर्य ही नित्य है। इस वृंदावन को मधुवन भी कहा गया है। सूरदास ने वृंदावन और मधुवन दोनों शब्दों का प्रयोग किया। सूरदास के लिए दोनों शब्द लगभग सतीर्थ हैं।”3.
मध्यकाल के कृष्ण भक्त कवियों में प्रमुख हैं, तानसेन, ताज, रहीम, रसखान, जमाल, मुबारक, ताहिर अहमद, नेवाज, आलम, शेख तथा रसलीन। हिन्दू जनता इन मुसलमान कृष्ण भक्त कवियों पर मानो न्योछावर हो गई और उन्हें हिन्दू कवियों से भी श्रेष्ठ माना। आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी अपने “हिन्दी साहित्य का इतिहास” में कहते हैं “पठान शासक भारतीय संस्कृति से अपने कट्टरपन के कारण दूर ही रहे। अकबर की चाहे नीति कुशलता कहिए, चाहे उदारता, उसने देश की परंपरागत संस्कृति में पूरा योग दिया जिससे कला के क्षेत्र में फिर से उत्साह का संचार हुआ।”4.
तानसेन : तानसेन को संगीत परंपरा के वाहक के रूप मे जाना जाता है। उनके जन्म स्थान को लेकर यद्यपि मतभेद है किन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि तानसेन का जन्म ग्वालियर से लगभग ग्यारह कि.मी. दूर बेहट नामक ग्राम में हुआ था। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार उनका जन्म लगभग 1520 विक्रम सम्वत् (1463 ई०) में हुआ। जबकि डॉ. शिवसिंह सरोज के अनुसार उनका जन्म 1588 विक्रम सम्वत् (1531 ई०) में हुआ। ऐतिहासिक काल - क्रम के अनुसार डॉ. शिवसिंह सरोज का मत समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि तानसेन अकबर (1542-1605 ई०) के समकालीन थे।
“प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त स्वामी हरिदास इनके दीक्षा-गुरु कहे जाते हैं। "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" में सूर से इनके भेंट का उल्लेख हुआ है। "दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता" में गोसाई विट्ठलनाथ से भी इनके भेंट करने की चर्चा मिलती है।”5.
तानसेन गायक होने के साथ-साथ वादक तथा कवि भी थे। तानसेन की मृत्यु ईस्वी सन् 1589 में हुई। कृष्ण की बाललीला, राधा-कृष्ण का सौन्दर्य विशेष रूप से उनकी रचनाओं के केन्द्र में है।
“लंगर बटयार खेले होरी।
बाट घाट कोउ निकस न पावे पिचकारिन रंग बोरी।।
मैं जु गई जमुना जल भरने गह मुख मींजी रोरी।
तानसेन प्रभु नन्द को दोरा बज्यो न मानत मोरी।।”
तानसेन कहते हैं कि यह नन्द का बालक गोपी का कहना बिल्कुल ही नहीं मानता। कहीं न कहीं कृष्ण की वो नटखट छवि सामने आती है जिसका रूपांतरण तानसेन ने किया है।
“ए आज बांसुरी बजाई बन मघ कौन रंग ढंग फुंकि फुंकि।
सुनत श्रवण सुथि रहि नहि तन की भई हो
बावरी वृन्दावन दिशि हेरि भुकि भुकि ॥
ब्रह्मा वेद पढ़त भूले शिव समाधि माह डोले
सुरनर मुनि मोहे देवांगना देखे लुकि लुकि ॥
सप्त स्वर तीन ग्राम अकईस मूर्छना ले तानसेन प्रभु
मुरली बजावत बोलत मोर कोकला कुहकि कुहकि ॥”6.
तानसेन के काव्य में संगीत की प्रधानता है जो उनके कृष्ण- काव्य को एक नई भंगिमा से अलंकृत करती है। आचार्य शुक्ल अकबरकालीन इन कवियों का विशेष योगदान मानते हैं जिन्होंने कृष्ण भक्ति में अपने को न्योछावर कर दिया। उसके साथ ही सभी बंधनों को तोड़ते हुए ब्रज काव्य के विकास में योगदान दिया। वह कहते हैं “नरहरि और गंग ऐसे सुकवि और तानसेन ऐसे गायक अकबरी दरबार की शोभा बढ़ाते थे। यह अनुकूल परिस्थिति हिंदी काव्य को अग्रसर करने में अवश्य सहायक हुई। ”7.
रसखान : कृष्ण भक्त कवियों में रसखान का नाम महत्वपूर्ण है। जिनका पूरा नाम सैयद इब्राहिम रसखान था। इनका जन्म 16 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। मिश्र बंधु विनोद के अनुसार इनका जन्म विक्रम संवत् 1615 तथा मृत्यु विक्रम संवत्
1685 ( ईस्वी सन 1558-1628 ) है। यह तुलसीदास के भी समकालीन माने जाते हैं। इनके बारे में बच्चन सिंह कहते हैं -
“कृष्ण भक्ति धारा का प्रभाव कहिए या भक्ति काव्य में चित्रित कृष्ण का मोहक व्यक्तित्व जिसके कारण सैयद इब्राहिम जैसे मुसलमान रसखान हो गए।”8. रसखान की सौंदर्य चेतना अनुपम है, इन्होंने जो चित्र अपने काव्य में खींचे हैं वे इनकी काव्य-मेधा का परिचायक है। रसखान का हृदय इस तरह से व्रज में बस गया है कि उन्हें इस कृष्ण भूमि को छोड़कर कहीं अन्यत्र जाने का मन नहीं होता है। रसखान की सौंदर्य चेतना अनुपम है जिसमें आधार कृष्ण भक्ति है , वो कहते हैं -
(1)
“लाल की आज छठी ब्रज लोग अनंदित नंद बड्यौ अन्हबावत।
चाइन चारू बधाइन लै चहुँ ओर कुटुंब अघात न गावत।।
नाचत बाल बड़े रसखानि छके हित काहुँ कै लाज न आवत।
तैसोइ मात पिताउ लह्यौ उलह्यौ कुलही कुलही पहिरावत।।”9.
कवि रसखान ने माता यशोदा का मातृस्नेह व बालक कृष्ण के बाल सलुभ चेष्टाओं को इतना मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है कि इसे देखते ही बनता है।
(2)
“मानुष हौं तो वही रसखानि बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरा चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन।।”10.
अतः किसी भी रूप में रसखान अपने को व्रज से अलगा नहीं सकते हैं।
(3)
“धूर भरे अति शोभित स्याम जू तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरें अँगना पग पैंजनी बाजती पीरी कछोटी॥
वा छवि को रसखानि बिलोकत बारत काम–कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी॥”11. रसखान की कविता का शिल्प अद्भुत है। यह शिल्प ऐसा है जिससे भाव को पृथक नहीं किया जा सकता। रसखान की कविता प्रवहमान है। अलंकार उसमें बाधा नहीं बनते।
रहीम :
हिन्दी के श्रेष्ठ कवियों में रहीम का नाम बहुत ही सम्मान से लिया जाता है। इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना था और ये अकबर के दरबारी कवि थे। ये अकबर के अभिभावक बैरम ख़ान के पुत्र थे। इनकी अद्भुत प्रतिभा ने मध्यकालीन काव्य को अपने आलोक से भरपूर कर दिया। इन्होंने अपनी दोहावली, बरवै तथा मदनाष्टक में कृष्ण के अनुपम सौंदर्य तथा प्रकृति का वर्णन किया है। रहीम का व्यक्तितव्य बहुआयामी था। वे अप्रतिम योद्धा, महान कवि, नीतिकार अनेक भाषा के मर्मज्ञ तथा दानवीर थे।
डॉ. बच्चन सिंह ने रहीम के बारे में बहुत सही लिखा है –“रहीम न तो जायसी की तरह सूफ़ी थे और न रसखान की तरह वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित ; पर भारतीय संस्कृति के प्रति उनमें गहरा अनुराग था। सांप्रदायिकता कहीं छू भी नहीं गयी थी। मुसलमान होते हुए भी हिन्दू देवताओं का श्रद्धापूर्वक स्मरण तथा पौराणिक गाथाओं का संदर्भण इस देश की गौरवपूर्ण संस्कृति के प्रति उनकी आस्था का सूचक है।”12. सामान्य जीवन चर्या के आधार पर ही वे अपने दोहों में महान संदेश देते हैं। उदाहरण के तौर पर कृष्ण केंद्रित उनका दोहा – (1)
“जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल।
तौ काहे कर पर ध, गोवर्धन गोपाल'।”13.
(2)
“जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।।”
(3)
“जो बड़ेंन को लघु कहैं, नहीं रहीम घटि जाँहि।
गिरधर मुरलीधर कहैं, कछु दुख मानत नाहिं।।”14.
विद्यानिवास मिश्र कहते हैं
“रहीम को संपूर्णता में पहचानने का अर्थ होता है, सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के साहित्यिक प्रदेश को पहचानना।”15. पूरे हिन्दी साहित्य में रहीम अद्भुत व्यक्तित्व थे। जिन्होंने सोलह वर्ष की अवस्था से लेकर बहत्तर वर्ष तक कठिन से कठिन लड़ाइयाँ लड़ीं और विजय भी हासिल किया। इतना बड़ा दानी की किसी ने ये कहा की मैंने एक लाख अशर्फियाँ आँख से नहीं देखीं तो एक लाख अशर्फियाँ उसे दे दीं, और उसके साथ ही इतना विनम्र कि किसी कवि ने कहा कि देते समय ज्यों-ज्यों रहीम का हाथ उठता है त्यों-त्यों उनकी नज़र नीची होती जाती है और रहीम ने जो उत्तर दिया वो बहुत ही सुंदर है।
“देनहार कोई और है भेजत हैं दिन रैन।
लोग भरम हम पर धरैं यातें नीचे नैन।।”16.
ताज बीबी
: ताज बीबी का जन्म राजस्थान के फतेहपुरी में हुआ था। ये अकबर के समकालीन कवयित्री थीं। ताज के काव्य में भावनाओं का अतिरेक तो है लेकिन कहीं मर्यादाहीनता नहीं है। उनके लिए कृष्ण एकमात्र विश्वास हैं। सगुण ईश्वरोपासक भक्त कवियों एवं कवयित्रियों ने अपने आराध्य के प्रति एकनिष्ठ भाव से भक्ति की थी। भक्त कवि अपने आराध्य के जिस रूप सौंदर्य पर मुग्ध होता था , वह निरंतर उसी स्वरूप का ध्यान एवं साधना भक्ति करता था। उसी में अपना जीवन मङ्गलमय समझता था। ऐसा ही कवयित्रि ताज के साथ भी था।
(1)
“काहू को भरोसो बद्रीनाथ आय पाँय परे
काहू को भरोसो जगन्नाथ जू के मान को।
काहू को भरोसो 'ताज' पुस्कर में दान दिये,
मो को तो भरोसो एक नन्दजी के लाल को।।”17.
(2)
“सुनो दिलजानी, मेरे दिल की कहानी तुम दरत ही बिकानी, बदनामी भी सहोगी मैं,
देव पूजा ठानी में निवाज हूँ भुलानी, तजे कलमा कुरान, सारे गुनन महाँगी मैं।
स्थामला सलोना सिरताज सिर कुल्ली दिये, तेरी नेह आग में निदाग हो दहौंगी मैं।
नन्द के कुमार कुरबान तोंडी सूरत पे ताँड़ नाल प्यारे, हिन्दुवानी हो रहौंगी मैं।”18.
ताज ने पूरे संकल्प के साथ कहा है , मैं कृष्ण के सौन्दर्य पर, उनके व्यक्तिव पर एवं उनके चरित्र पर मुग्ध होकर उनकी भक्त हो गई। वो किसी भी हाल में भगवान कृष्ण को ही सर्वस्व मानती हैं।
जमाल :
कवि जमाल का जन्म सन् 1545 में हुआ। इन्हें भक्ति और रीति के संधि के कवि के रूप में देख सकते हैं। इनकी मृत्यु सन् 1605 में मानी जाती है। हिन्दी में जमालुद्दीन नाम के कई कवि मिलते हैं। स्व. राधाकृष्णदास ने सूरसागर की भूमिका में सूरदास के समकालीन कवियों में जमाल और जमालुद्दीन नामक दो कवियों का उल्लेख अलग-अलग किया है। उनमें जमाल तो कूट-दोहाकार जमाल ही हैं किन्तु दूसरे जमालुद्दीन संभव है शिवकानपुर के काजी जमालुद्दीन हों जो अकबर काल के हिन्दी कवि हैं।
‘शिवसिंह सरोज’ में जमाल का जन्मकाल सं. 1602 वि. दिया है, और यही संवत् मिश्रबंधुओं को भी मान्य है। इनके अतिरिक्त स्वयं कवि का भी एक दोहा है, जो उसके अकबरकालीन होने का प्रमाण है। रीतिकालीन साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् विश्वनाथप्रसाद मिश्र को दीनदयाल गिरि के प्रशिष्य से ज्ञात हुआ कि जमाल रहीम के पुत्र हैं। जो हो, इन दंतकथाओं से इतना तो प्रकट है कि जमाल मुसलमान थे और बादशाह अकबर के समकालीन थे। कवि एक दोहे में अपनी 'गोर' (कब्र) बनाने की चर्चा करता है।
“करज्यो गोर जमाल की, नगर कूप के माँय।
मृग-नैनी चपला फिरें, पड़ें कुचन की छाँय॥”19.
जमाल के द्वारा रचित कृष्ण केंद्रित दोहे हैं जिनमें एक दोहा प्रसिद्ध है दृश्य कुछ इस प्रकार है कृष्ण गोरस के लिए गोपियों का मार्ग रोकते हैं। और दही माखन देने के लिए दोनों को विवस भी करते हैं –
“घेरत नित्य मुहिं कुँज में भाई नन्द किशोर।
दधि माखन को खान हित कह जमाल करि गोर।।
जमाल अपने आराध्य भगवान कृष्ण को मानते हैं जिनके विषय मे वे कहते हैं –
“विधि विध कै सब विधि जपत, कोउ लहत न लाल।
सो विधि को विधि नन्द घर खेलत आए जमाल।।”
सैयद मुबारक :
सैयद मुबारक अली हरदोई जिले के बिलग्राम कस्बे में जन्में फ़ारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे , इनके ढेर सारे स्फुट छंद मिलते हैं जो कवित्त और सवैया ब्रजभाषा में लिखा हुआ है।सुना जाता है कि इन्होनें दसों रंगों पर दस शतक लिखा था किन्तु इस समय इनकी दो पुस्तकें मिली हैं जिनके नाम हैं अलकशतक तथा तिलकशतक। उनकी रचनाएं श्रृंगार-मूलक हैं। कृष्ण और राधा के एक उद्यान में आकस्मिक रुप से मिलने पर जो सुंदर छंद उन्होनें रचा है वह इस प्रकार है -
“वह सोकरि कु की खोरि अचानक माधव राधा भेंट भई।
मुसकान भली अंचरा की अली त्रिबली की बली पर दीठि गई।।
शहराइ झुकाइ रिसाइ मुबारक बाँसुरिया हँसि छीनि लई।
भृकूटी-मटकाइ गोपाल के गालन आंगुरि ग्वालि गड़ाई गई।।”
इनकी कविता सरस और मनोहारिणी हुई है। मुबारक के पद अत्यंत रमणीय और प्रेम से परिपूर्ण हैं। उनका ये कवित्त दृष्टव्य है -
“दीरघ उजारे कजरारे भरे प्रेमन के नद कोक नद राजत दल कैसे भँवर के।
सुघर सलोने के मुबारक सुधा के भौन छवि के बिछोने के अमलता से थरके ॥
लाज के जहाज कैधों मान के विराज मान राधिका सुजान आज तेरे दृग दरसे।
चार चकोर भए मृग दास मोल लिए खंजन खवास भए सफरीन फरसे ॥”
मुबारक के काव्य में अनुप्रास, रूपक, उपमा और श्लेष का सुन्दर प्रयोग मिलता है। मुबारक की यह काव्य-परम्परा अप्रतिहत बनी रही। इसी परम्परा में आगे चलकर आलम हुए।
आलम : आलम जाति के ब्राह्मण थे परंतु शेख नामक रंगरेजिन के प्रेम में मुसलमान हो गए। मिश्र बंधु ने इनका कविताकाल संवत १७६० विक्रम में होना माना है। आलम ने मुक्तक और प्रबंध दोनों तरह की रचनाओं की उनके कई ग्रंथ मिलते हैं क्रमशः आलमकेली, , सुदामाचरित्र, स्यामस्नेही, माधवानल-कामकंदला। आलम के पदों में कृष्ण भक्ति से संबंधित भावपूर्ण पद मिलते हैं जिस आधार पर विद्वानों ने उन्हें कृष्ण भक्त कवि माना है। आलम प्रांजल भाषा में नाद सौन्दर्य और भाषा की आलंकारिक शक्ति का प्रयोग करने में सिद्ध हस्त हैं। ब्रजभाषा की चित्रमयता और और नाद सौन्दर्य की बंकिम छटा अनायास प्रवहित है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इन्हें रसखान और घनानन्द की कोटी में रखते हैं। कृष्ण की बाल लीला पर आधारित यह पद दृष्टतव्य है -
(1)
“पालन खेलत नन्द - ललन छलन बलि,
गोद लै ले ललना करति मोद गान हैं।
'आलम' सुकवि पल पल मया पावै सुख,
पोषति पियूष सु करत पय पान हैं ॥
नन्द सो कहति नन्दरानी हो महर ! सुत
चन्द की सी कलनि बढ़त मेरे जान हैं।
आइ देख आनंद सो प्यारे कान्ह आनन में,
आन दिन आन घरी धान छवि आन हैं ॥
(2)
जसुदा के अजिर बिराजै मनमोहन जू,
अंग रज लागे छबि छाजै सुर पालकी।
छोटे छोटे आछे पग घुंघरू घूमत घने,
जासो चित हित लागै सोभा बाल जाल की ॥
आछी बतियां सुनावै छिनु छाड़िवो न भावै,
छाती सो छपावै लागै छोह वा दयाल की।
हेरि ब्रज नारि हारी बारि फेरि डारी सब,
'आलम' बलैया लीजै ऐसे नन्दलाल की ॥20.
शेख रंगरेजन : शेख रंगरेजन एक मुसलमान कृष्ण भक्त कवयित्री थीं। इनका विवाह आलम से हुआ था , दोनों कृष्ण भक्ति पर कविता करते थे। सभी कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण के अलग-अलग जीवन प्रसंगों पर अपनी लेखनी चलाई है। इन्होंने भी कृष्ण के मधुबन चले जाने के बाद गोपियों के द्वारा अपने विरह वियोग का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है इनके ये पद भाव तथा कला दोनों की दृष्टि से मनोरम हैं। यथा -
“जबतें गोपाल मधुबन की सिधारे भाई,
मधुबन भयो मधु दानव विषम सौं।
सेख कहे सारिका शिखंडी मंडरीक सुक,
मिलि के कलेस कीन्हीं कालिन्दी कदम सौं।
देह करे करठा करेजो लीन्हों चाहत हैं,
काग भई कोयल कगायो करे हम सौं।।”21.
रसलीन : सैयद गुलाम नबी बिलग्रामी का उपनाम रसलीन था। रसलीन साहित्य संगीत और कला के मर्मज्ञ व्यक्तित्व थे। इनकी दो ग्रंथ पाए जाते हैं: अंग दर्पण और रस प्रबोध। एक मुसलमान कवि होते हुए जैसे इन्होंने हजरत मोहम्मद और नबी को याद किया है वैसे ही राधा-कृष्ण और राम के पद भी गाए हैं। ये मुख्य रूप से कृष्ण भक्त कवि के रूप में ही जाने जाते हैं। उनकी काव्य का मूल स्वर कृष्ण भक्ति ही है। चरित्र से संबंधित एक पद जिसमें वह कृष्ण की श्रृंगार रूप का वर्णन करते हैं वह अनुपम है -
“रस को रूप बखानि कै वरनौ नौ रस नाम।
अब बरतन सिंगार कों जाही ते सब काम।।
तेहिं सिंगार को देवता कृष्ण लीजिओ जानि।
और बरनहूँ कृष्ण लौं कृष्ण बरन पहिचानि।।”
रसलीन का कृष्ण भक्तिकाव्य प्रेम और आनंद की अनुभूतियों से भरपूर है। मुस्लिम कृष्ण भक्त कवियों में जैसा रसखान और रहीम का स्थान आता है वैसे ही रसलीन भी समादृत हैं। रसलीन सिर्फ कृष्ण की व्यक्तिगत जीवन से संदर्भित पद ही नहीं लिखते थे अपितु उन प्रसंगों पर भी प्रकाश डालते थे जो उनसे संबंधित गोपी-गोपिकाओं के मनोभाव थे।इतने के बावजूद भी उनके काव्य प्रसंग से मर्यादा की सीमा का उल्लंघन कहीं भी होता प्रतीत नहीं होता है। एक दोहा दृष्टव्य है -
"राधापद बाधा हरन साधा करि रसलीन।
अंग अगाधा लखन को कीनो मुकुट नवीन।।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन कृष्ण भक्त कवियों ने अपनी रचनाओं से कृष्ण काव्य को समृद्ध किया। इनके अलावे कुछ और कवियों ने भी कृष्ण सबंधी रचनाएँ लिखी हैं। जिनमें ‘मुहम्मद याकूब सनम', 'सैयद फजलुल हसन', नबी बख्स फलक, शेख अलीजान, बेदम वारसी, काजिम, कासिम अली, अख्तर शिरानी, अफ़सोस, अब्दुल असर हफीज, दरिया खां, असरफ महमूद, दाना, नबी, नफीस खलीली, निजामी, फरहत आदि महत्वपूर्ण हैं।
निष्कर्ष : ब्रजभाषा में रचना करने वाले इन सभी मुस्लिम कवियों और कवयित्रियों की साधना एवं सृजन यात्रा से स्पष्ट हो जाता है कि सांप्रदायिकता को तोड़कर ये सभी कवि भाव साधना की ओर उन्मुख हो गए थे। मैनेजर पांडे बताते हैं कि "भक्त कवियों की दृष्टि में मानुष सत्य से ऊपर कुछ भी नहीं है। न कुल, न जाति, न धर्म, न सम्प्रदाय, न स्त्री , न किसी पुरुष का भेद ना किसी शास्त्र का भय और ना लोक का भ्रम। इन सब का दुराग्रह हमेशा मनुष्य के विकास में बाधक बनता है।”22. वास्तविकता में सूफियों के हाल की अवस्था और कृष्ण के प्रेम के माधुर्य में कोई अवस्थात्मक अंतर प्रतीत नहीं होता है। जिस प्रकार चैतन्य महाप्रभु कृष्ण की गायन का अनुभव कर अपनी अवस्था भूल जाते हैं वैसे ही सूफी साधक अपने गीतों के प्रभाव में अपनी अवस्था को हाल में रूपांतरित करते हैं। दोनों के मूल में अंततः प्रेम है जो बंधनों की सीमा को तोड़ता है। इसी को अपनाते हुए कृष्ण भक्त मुस्लिम कवियों ने भी प्रेम और सौंदर्य का मार्ग चुना। ब्रजभाषा में इन भक्त कवियों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई। जो कृष्ण की जन्म व कर्मभूमि ब्रज की लोक संस्कृति के व्यापक फलक पर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। हम देखते हैं कि इन कवियों ने कृष्ण को आधार बना कर मानवीय प्रेम और सौंदर्य को साकार किया साथ ही व्यापक सांस्कृतिक चेतना का उन्नयन भी किया। इन कवियों ने जो निधि हमें साहित्य के लिए प्रदान की उसके लिए हम इनके आजीवन ऋणी रहेंगे।
संदर्भ :
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22.भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पांडेय, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, 2011, , पृ.1