शोध आलेख : ‘पौराणिक साहित्य’ के ‘आत्मसातीकरण’ के रूप में ‘कृष्णकाव्य’ का अनुशीलन / विकास शुक्ल

पौराणिक साहित्यकेआत्मसातीकरणके रूप मेंकृष्णकाव्यका अनुशीलन
- विकास शुक्ल


            अपनी सामाजिक उपादेयता एवं जनोपयोगी वैचारिकी के कारण भक्ति साहित्य का भारतीय साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस प्रयोजनमूलक साहित्यिक खंड की शाश्वतता सदैव से चर्चा के केंद्र में रही है। भक्ति साहित्य हिंदी के साथ-साथ समस्त भारतीय भाषाओं में अपनी उपस्थिति से जनमन का उद्बोधन करता रहा है। विदित है कि समस्त भारतीय भाषाओं की रचनात्मकता में प्राचीन संस्कृत साहित्य का एक सा प्रभाव हमें आश्चर्यचकित करता है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में हम जिस भाषाई और साहित्यिक एकता की वकालत करते हैं, मध्यकाल में उसकी बृहद साहित्यिक अभिव्यक्ति हुई थी। इन साहित्यिक अभिव्यक्तियों की समानता का सबसे बड़ा कारण हमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य थे। वेदों, पुराणों, उपनिषदों में उपस्थित राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आस्मिताओं को समकालीन परिपेक्ष्य में लोक भाषाओं के माध्यम से प्रस्तुत करना ही मध्यकालीन कवियों का प्रमुख लक्ष्य था। भक्ति साहित्य का विकास एक सामाजिक क्रांति के रूप में उत्तर भारत में उस समय हुआ जब भारत की सत्ता लगभग मुस्लिम शासकों के अधीन हो चुकी थी। प्राचीन भारतीय भाषाओं के साहित्य की नई-नई व्याख्याओं ने भक्तिकाल को आंदोलित किया। जो भक्ति साहित्य गूढ़ अर्थों के साथ केवल मंदिरों तक सीमित था, भक्तिकालीन कवियों ने उसको समाज से जोड़कर उस सुखी हुई धारा को पुनः प्राणवान कर दिया। भक्ति, पूजा को मंदिर से निकालकर भक्तिकालीन कवियों ने उसको समाज के साथ संयोजित ही नहीं किया बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों एवं सम्प्रदायों के लिए उसको सहज ही उपलब्ध करवा दिया।

कृष्णभक्ति के आत्मसातीकरण की परम्परा पर विचार करने से पूर्व समझना चाहिए कि भक्तिकाल में उपजी चेतना के मूल स्रोतों की प्रकृति क्या थी? अनुवाद अध्ययन में आत्मसातीकरण और रूपांतरण (Appropriation And Adaptation) का उपयोग विभिन्न अनुवादों के संदर्भ में काफी समय से होता रहा है। भक्ति-काव्य का बड़ा हिस्सा प्राचीन धार्मिक साहित्य को आधार बनाकर लिखा गया है, जिसका अध्ययन अनुवाद की आत्मसातीकरण व्याख्या को ध्यान में रखकर अनुवाद के शोधार्थी एवं शिक्षक करते रहे हैं। प्रो.देवशंकर नवीन अपनी पुस्तक अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य  में लिखते हैं किआत्मसातीकरण अनुवाद की एक बुलंद धारणा है, जो भारत में सदा से उपलब्ध रही है। यही वह पद्धति है, जो अनुवादक को शब्दानुवाद से बचने की प्रेरणा देती है, और अनुवादक स्रोत-भाषा के पाठ को लोकोपयोगी बनाकर लक्ष्य-भाषा में पेश करता है। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का लगभग मध्ययुगीन साहित्य ऐतिहासिक-पौराणिक ग्रंथों के ऐसे आत्मसातीकरण का बेहतरीन नमूना है। रामकथा और कृष्णकथा की असंख्य छवियाँ प्रस्तुत करते हुए मध्यकालीन भारतीय रचनाकारों ने अपनी उसी विलक्षण रचनात्मकता और अनुरागमय समाजबोध का परिचय दिया है[i]  इस परिभाषा को सबसे अहम् तथ्य है कि स्रोत भाषा के पाठ को लोकोपयोगी बनाकर लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करना। मसलन रामकथा और कृष्णकथा के प्राचीन पाठ केवल मठ एवं मंदिरों तक सीमित थे। इन मठों और मंदिरों में इन प्राचीन साहित्य का उपयोग तथाकथित समाज के सभी वर्गों के लिए उपलब्ध नहीं था। ऐसे में यह आवश्यक था कि लोक भाषाओं में उन साहित्य को सहज उपलब्ध करवाया जाए। भक्तिकाल को लोकजागरण की संज्ञा इन्हीं बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए दी गई। तुलसीदास ने स्पष्ट रूप से रामचरित मानस में लिखा कि...

जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा[ii]।।

 

तुलसीदास की इस प्रसिद्ध पंक्ति को समझने का प्रयास करते हैं तो स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि गीता में श्रीकृष्ण द्वारा कही गई प्रसिद्ध पंक्ति- “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय दुष्कृताम् धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे[iii]।। का स्पष्ट आभास है। समकालीन समस्याओं से निपटने के लिए मनुष्यों के प्रेरक स्रोत के रूप में मध्यकाल में प्राचीन संस्कृत साहित्य के आत्मसातीकरण की अनूठी परम्परा का विकास यहाँ स्पष्ट दिखाई पड़ता है। मध्ययुग में कृष्ण आधारित काव्य का प्रारंभ होने से बहुत पहले ही लगभग छठीं शताब्दी .पू. में ही हमें प्रारंभिक कृष्ण भक्ति के साहित्यिक सूत्र दिखाई पड़ने लगते हैं। इस लेख का उद्देश्य कृष्ण भक्ति-काव्य के मूल स्रोतों की खोज करते हुए उनके आत्मसातीकरण की प्रेरणा की तलाश करना है जिसने मध्ययुगीन चेतना के नेपथ्य में रहकर भी मध्ययुगीन काव्य प्रेरणा को समकालीन स्थितियों के संदर्भ में प्रस्तावित किया। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए शिवकुमार मिश्र अपनी पुस्तक भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य  में लिखा किभक्तिकाव्य, धर्म और भक्ति की केन्द्रीयता के बावजूद महज पूजा-पाठ, ध्यान-उपासना और उनके माध्यम से इस लोक के दुःखों से मोक्ष पाते हुए परलोक में सुख भोगने का संदेश और प्रेरणा देने वाला काव्य नहीं है, धर्म और भक्ति के आवरण में वह सामाजिक अन्याय के विरोध में मानवीय न्याय के पक्ष में, एक उन्नत मानवीय समाज और एक उन्नत मूल्य व्यवस्था के पक्ष में खड़ा होने वाला और उसके लिए संघर्ष करने वाला काव्य है[iv] यह काव्य महज लोक से परलोक की यात्रा का काव्य होकर मानवीय संवेदना अभिव्यक्ति का काव्य बनकर हमारे सामने उपस्थित हुआ था। आत्मसातीकरण की श्रृंखला में मध्यकालीन साहित्यिक अभिव्यक्त ने नए वैचारिक संघर्ष का सूत्रपात किया था जिसने समकालीन साहित्य को यथा संभव प्रभावित किया है।

विश्व साहित्य में वेदों को प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त है, पौराणिक साहित्य को भारतीय संस्कृति के आधार ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है, भारतीय भाषाओं के मध्यकालीन साहित्य पर ही नहीं अपितु आधुनिक साहित्य भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका है। ध्यातव्य है किहमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य में मुख्य रूप अठारह महापुराणों और अठारह उपपुराणों की सूचना मिलती है[v] अठारह पुराणों में से आधे से अधिक पुराण वैष्णव धर्म से संबंधित हैं। श्रीमद्भागवत, विष्णु, ब्रह्मवैवर्त, नारद और पद्म एवं ब्रह्म पुराण का सबसे अधिक प्रभाव कृष्ण भक्ति-काव्य पर दिखाई पड़ता है। भारतीय साहित्य में कृष्ण भक्ति-काव्य का आधार ग्रन्थ श्रीमद्भागवत पुराण को माना जाता है। कृष्ण भक्ति-काव्य के समान्तर अनेक ऐसे संप्रदाय भी स्थापित हुए, जिनमें कृष्ण के चरित्र को विभिन्न रूपों से आत्मचित करने का प्रयास किया गया। वैष्णव धर्म से संबंधित लगभग समस्त धार्मिक संप्रदाय श्रीमद्भागवत से ही प्रभावित है। इन धार्मिक सम्प्रदायों में सबसे प्रमुख हैं-वल्लभ और चैतन्य संप्रदाय, जो उपनिषद्, भगवतगीता तथा ब्रह्मसूत्र प्रस्थानत्रयी के साथ भागवत पुराण को भी अपना उपजीव्य मानते हैं। इन विभिन्न सम्प्रदायों से जुड़े कवियों ने उस संप्रदाय के उपजीव्य पुराण को ही अपने काव्य का आधार बनाया। श्रीमद्भागवत में विष्णु के बाईस अवतारों का वर्णन हुआ है परन्तु इनमें से कृष्ण का अवतार सबसे अधिक प्रभावशाली रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हुआ है। भागवत पुराण कृष्ण-लीला और भक्ति का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। भागवत का बालकृष्ण सब कलाओं में पूर्ण है। इसमें कृष्ण के जीवन की विभिन्न लौकिक और अलौकिक लीलाओं का विस्तार से वर्णन हुआ है। इसमें कृष्ण का स्वरूप एक ओर वेदांत का वर्णन करता है तो दूसरी ओर असुरों का संहार भी करता है। सूरदास के साहित्य पर इसका स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है, सूरदास ने अनेक स्थानों पर इसका स्पष्ट आभास दिया है।

सुनि भागवत सबनि सुख पायौ। सूरदास सो बरनि सुनायौ
कहौ सु कथा सुनो चित धारि। सूर कह्यौ भागवत बिचारि[vi]।।

 

यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यहाँ है कि सूरसागर और भागवत दोनों ही में बारह स्कंध हैं तथा इन स्कंधों की कथाएँ भी एक सी हैं। दोनों ग्रंथों के नवमस्कंध में रामावतार का वर्णन है और दशम स्कन्ध में कृष्णावतार का। परन्तु यहाँ ध्यान देने की बात है कि सूरदास ने भले ही भागवत पुराण से कथाओं को लिया हो परन्तु सूरसागर में अनेक मौलिकता भी दिखाई देती पड़ती है। इन्हीं मौलिकताओं में आत्मसातीकरण की धारण निहित है जिसमें सूरदास ने उपजीव्य साहित्य से प्रेरणा ग्रहण करने के बाद अपने भावों और जीव-जगत की उत्कंठाओं को अपने काव्य में स्थान दिया है। मध्यकाल की जड़ताओं के मध्य रहकर गोपियों के स्वच्छंद चरित्र का वर्णन तथा प्रकृति की विभिन्न छटाओं के साथ श्रीकृष्ण की विभिन्न छवियों का वर्णन भी सूरदास की अपनी विशेषताओं में शामिल है। भागवत पुराण में विष्णु के विभिन्न अवतारों को महत्त्व दिया गया परन्तु सूरदास ने अपने आराध्य के रूप के केवल कृष्णावतार को महत्त्व दिया है। डॉ. गिरिधारीलाल शास्त्री ने अपनी पुस्तक हिंदी कृष्णभक्ति-काव्य की पृष्ठिभूमि  में स्पष्ट लिखा किभागवत पुराण में ब्रजवासी कृष्ण की कथा उनचास अध्याय में तथा द्वारिका की कथा इकतालीस अध्याय में कही गई है। परन्तु सूरदास के सूरसागर में 3500 पदों में से केवल 138 पदों में द्वारिका की कथा का वर्णन है[vii] अतः स्पष्ट है कि सूरदास का पूरा ध्यान ब्रजवासियों के जीवन पद्धतियों को उजागर करते हुए प्रेम के विभिन्न स्रोतों को प्रस्तुत करना था। सूरदास के साथ-साथ अन्य कृष्ण भक्त-कवियों ने भी ब्रजवासियों के उसी पक्ष को सामने रखने का प्रयास किया। रसखान के साथ-साथ अन्य कृष्ण कवियों ने भी कृष्ण के इसी व्यक्तित्त्व को अपने काव्य का विषय बनाया। इन कवियों को ब्रज में प्रकृति का साहचर्य भी उतना ही प्रिय था जिनता अपने आराध्य कृष्ण की भक्ति। रसखान का यह प्रसिद्ध सवैया कृष्ण के प्रति उनकी आस्था को प्रदर्शित करता है। कृष्ण के अन्यय भक्ति रसखान ने कृष्ण की भक्ति को इस तरह से ग्रहण किया है कि उनके द्वारा धारण की गई लाठी और कम्बल पर वे तीनों लोकों का राज्य भी त्यागने को तैयार हैं।   

या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहुँ पुर को तजि डारौ।
आठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौ॥
रसखानि जबै इन नैनन ते ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौ।
कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौ॥

 

श्रीमद्भागवत पुराण के अन्य पक्षों का ध्यान रखने पर हम पाते हैं कि ब्रज संस्कृति के दो पक्ष हैं एक तो वह शहरी संस्कृति जहाँ कृष्ण चले जाते हैं और गोपियों के लिए ऊधो के माध्यम से सन्देश भेजते हैं। अगर ध्यान से देखे तो मथुरा की नगर सभ्यता का गोपियों ने भरपूर विरोध किया है। नगरीय सभ्यताओं और ग्रामीण सभ्यताओं के मध्य गहरा मतभेद केवल आज ही नहीं दिखाई पड़ता बल्कि ये मध्यकालीन में विकसित होते नगरीय सभ्यताओं में भी निहित थी। मध्यकाल में कृष्ण काव्य सामूहिकता का काव्य कहा जा सकता है। ब्रज में कृष्ण के जन्म से लेकर उनके मथुरा पलायन तक सूरदास ने अनेक सांस्कृतिक, मांगलिक कार्यक्रमों का वर्णन सूरसागर में किया है परन्तु किसी में भी ऐसा नहीं है जिसमें सामूहिकता का आभास दिया हो। प्रेमशंकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र में लिखा किसूर की सृजनशीलता यह है कि ब्रजमंडल का लगभग समूचा सांस्कृतिक जगत अपने संस्कारों, त्यौहारों, जीवनचर्या की कुछ झांकियों और शब्दावलियों के साथ यहाँ प्रवेश कर जाता है[viii]

आत्मसातीकरण की प्रमुख व्याख्याओं में एक यह भी है कि लेखक स्रोत भाषा के कथ्य को प्रस्तुत करने के लिए नवीन विधा को आत्मसात करता है। सूरदास ने कृष्ण भक्ति-काव्य को विभिन्न रागों के माध्यम से प्रस्तुत किया इसीलिए उन्होंने अभिव्यक्ति के लिए किसी खास तरह के दोहा,चौपाई और सवैया का चुनाव करते हुए मुक्तकों के माध्यम से अपनी बात को रखने का प्रयास किया है।   

श्रीमद्भागवत पुराण के बाद मुख्य पुराण के रूप में हमारे समक्ष विष्णु पुराण का नाम आता है। विष्णु पुराण में कुल छह खंड हैं जिसमें से पांचवां खंड मुख्य रूप से कृष्ण के चरित्र से संबंधित है। इसमें कृष्ण के अलौकिक चरित्र वैष्णव भक्तों का आलम्बन है। यहाँ कृष्ण चरित्र भागवत के दशम स्कंध के समान ही है, किन्तु उसकी अपेक्षा बहुत संक्षेप में है। इस पुराण के दार्शनिक सिद्धांतों और कृष्ण चरित्र का प्रभाव हिंदी भक्ति-काव्य पर बहुत अधिक पड़ा है।  इन पुराणों के बाद तीसरा सबसे महत्त्वपूर्ण पुराण ब्रह्मवैवर्त्त  पुराण हमारे सामने आता है। इस पुराण को मुख्य रूप से चार खण्डों में विभाजित किया गया है। पहला- ब्रह्मखंड, दूसरा- प्रकृति खण्ड, तीसरा- गणेश खण्ड, चौथा- कृष्ण जन्म खण्ड। इस पुराण का चौथा खण्ड कृष्ण भक्ति-काव्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। कृष्ण जन्म खण्ड ही इस पुराण का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है और इसी को आधार बनाकर भक्तिकालीन कवियों ने कृष्ण के जन्म की विभिन्न छवियों को मनमोहनी दृष्टि से प्रस्तुत किया है। इस पुराण की दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें राधा का वर्णन भी मिलता है। अध्याय 127 में राधा और कृष्ण के श्रृंगार का वर्णन है। श्रीकृष्ण राधा के साथ अनेक वन-उपवन-शैल सरोरुह समुद्र-नद-नदी आदि जल स्थल स्थानों में विहार करते हैं। फिर कृष्ण राधा के साथ गोकुल जाते हैं और ब्रजवासियों में उल्लास की लहर दौड़ जाती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण का हिंदी के कृष्ण भक्ति साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है। सूरदास को श्रृंगार की सम्पत्ति ब्रह्मवैवर्त पुराण से ही मिली है। जयदेव, विद्यापति और चंडीदास आदि भी इस संबंध में इसी पुराण के आभारी हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण की भांति सूरदास में रासलीला का प्रसंग एक से अधिक बार आया है और उस पर ब्रह्मवैवर्त का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है।कृष्ण चरित्र का विस्तृत और सांगोपांग रूप से वर्णन करना इस पुराण का प्रधान लक्ष्य मालूम होता है।  राधा कृष्ण की शक्ति है और इस राधा का वर्णन बड़े सांगोपांग ढंग से किया गया है। राधा-कृष्ण की लीला, स्वरूप तथा उनके पारस्परिक संबंध के विषय में वैष्णव सम्प्रदायों में, विशेष तथा गौड़ीय वैष्णव, वल्लभमत तथा राधावल्लभी मतों में जिन साधनभूत रहस्यों का आजकल प्रचार है, उनका मूल ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में मिलता है। कृष्ण गोपी और कृष्ण की शक्तिभूता राधा के चरित्र का विस्तृत वर्णन इस पुराण में किया गया है, इसी के पन्द्रवें अध्याय में राधा का कृष्ण के साथ विवाह का वर्णन भी हुआ है। साथ ही इसमें वृन्दावन तथा गोलोक का विस्तृत वर्णन भी मिलता है[ix] इस पुराण ने मुख्य रूप से कृष्ण उपासकों को सबसे अधिक प्रभावित किया। विशेषतः गौड़ीय वैष्णवों में इस पुराण का बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है।

अगले प्रमुख पुराण के रूप में हमारे सामने पद्मपुराण आता है अपने प्रसिद्ध पुस्तक The Vishnu Purana: a system of Hindu mythology and tradition में H.H. Wilson लिखते हैंइन दोनों ही पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि इनमें पञ्च लक्षण नहीं मिलते। ये दोनों ही सांप्रदायिक भावना से पूर्ण है और अर्वाचीन प्रतीत होते हैं। इनका ध्येय विष्णु की सत्ता को प्रतिपादित करना प्रतीत होता है। इनमें अनेक ऐसे प्रार्थनाएं हैं जो विष्णु के एक एक रूप का वर्णन करती हैं। इनमें विष्णु पूजा माहात्म्य का भी वर्णन है। अनेक ऐसी प्राचीन और अर्वाचीन कथाएँ हैं जो हरिभक्ति का महत्त्व बतलाती हैं[x] यहाँ विल्सन ने भारत की धार्मिक इतिहास में शैव और वैष्णों के मध्य उभरी साम्प्रदायिकता का आभास दिया है, परन्तु यहाँ ध्यान रखना आवश्यक है कि वैष्णवों और शैव के मध्य विवाद की स्थिति दो अलग पूजा पद्धतियों के कारण संभव थी कि किसी साम्प्रदायिकता के कारण। इन पुराणों में वर्णित कहानियों में वैष्णवों धर्म पर विभिन्न दृष्टिकोण से विचार किया गया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने त्रिवेणी में लिखा किजिस प्रकार बंग देश में कृष्ण चैतन्य ने, उसी प्रकार भारत में बल्लभाचार्य जी ने परमभाव का उस आनंदविधायिनी कला का दर्शन कराकर, जिसे प्रेम कहते हैं, जीवन में सरसता का संचार किया। दिव्य प्रेम-संगीत की धारा में इस लोक का सुखद पक्ष निखर आया और जमती हुई उदासी या खिन्नता बह गयी शुक्ल जी ने जमती हुई उदासी अर्थात् मध्यकाल के बीच फैली खिन्नता में प्रेम और ख़ुशी के प्रेरणा के रूप में कृष्ण भक्ति साहित्य की व्याख्या की है। कृष्णकाव्य ने जयदेव और विद्यापति से होते हुए लोकभाषाओं में अपना स्थान बनाया। मध्यकाल की राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्थितियों ने भक्तिकालीन लेखकों में नए चेतना का संचार किया। यह चेतना केवल विजातीय सांस्कृतिक एवं धार्मिक सत्ता के खिलाफ़ ही नहीं थी बल्कि स्वयं के भीतर भरी जड़ता को तोड़ने की भी थी। सूरदास जी वल्लभाचार्य के शिष्य थे, “जिन्होंने भक्ति मार्ग में भगवान का प्रेममय स्वरूप प्रतिष्ठित करके उसके आकर्षण द्वारासायुज्य मुक्तिका मार्ग दिखाया था जिस मार्ग की वर्णन शुक्ल जी ने किया वह मध्यकाल की उस सामंती और रुढ़ियों से जकड़ी मानसिकता को चुनौती देती है। अगले प्रमुख पुराण के रूप में हमारे समक्ष ब्रह्म पुराण का नाम आता है, इसी पुराण में सबसे पहले कृष्ण के जन्म के साथ-साथ उनकी विभिन्न पत्नियों (कृष्ण के साथ जाम्बवती और सत्याभामा) का नामोल्लेख हुआ है। विभिन्न स्थानों पर रासक्रीड़ा का वर्णन भी दिखाई पड़ता है।

श्रीमद्भागवत पुराण से अलग हटकर स्वामी हितहरिवंश ने राधावल्लभ संप्रदाय की स्थापना करके राधा को कृष्ण के साथ प्रमुख स्थान दिया। यहाँ हितहरिवंश ने मुख्य रूप से राधा को आराध्य के रूप में स्थापित करते हुए राधावल्लभ की प्रतिमा को वृन्दावन में स्थापित किया। अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान् Guy L.Beck ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Alternative Krishnas: Regional and Vernacular Variations on a Hindu Deity में स्पष्ट रूप से लिखा किराधा और कृष्ण पर इसका दृष्टिकोण मानक कृष्णवादी धर्मशास्त्र से भिन्न है। ये भिन्नता मुख्य रूप इन विभिन्न सम्प्रदायों के स्रोत ग्रन्थ की भिन्नताओं के कारण ही संभव था[xi] उदाहरण के लिए ब्रह्मवैवर्त पुराण राधावल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख आधार ग्रन्थ था। यहाँ राधा को परम सत्ता के रूप में स्वीकार करते हुए उनकी आराधना को महत्त्व दिया गया था। ये संप्रदाय मुख्य रूप से गृहस्थ जीवन में रहकर अपना जीवनयापन करते हुए अपने आराध्य को पूजने पर जोर देते थे।

कृष्ण काव्य में अनुराग पैदा करने के लिए संगीत की विभिन्न रागनियों का उपयोग करके कवियों ने प्राचीन कथानक को समकालीनता के संदर्भ में पुनः प्रस्तुत किया। ग्रामीण परिवेश की जीवंतता को विभिन्न अनुषांगिक क्रियाओं के साथ प्रस्तुत करने का कार्य कृष्ण धारा के कवियों ने किया। उल्लेखनीय है कि अनुवाद में आत्मसातीकरण की बुलंदधारणा को भक्तिकाव्य के संदर्भ में बार-बार प्रस्तुत किया जाता रहा है। आत्मसातीकरण ने भक्तिकाव्य को समकालीन संदर्भों में प्रस्तुत करने के साथ-साथ काव्यगत संदर्भों में मौलिकता का अवसर भी कवियों के लिए प्रस्तुत किया। सूरदास ने अपने आराध्य कृष्ण को ग्रहण किसी विशेष काव्य के अधीन बने रहकर उनका चरित्रिक विकास करने का प्रयास नहीं किया बल्कि उनके बालपन और व्यक्तित्व में आई विविधता सूरदास की अपनी कल्पना है। कृष्ण काव्य में आये इन बदलाव समय की सापेक्षता के साथ प्रस्तुत होते हैं और उसी के अनुरूप रहकर उसका बोधन संभव है। उक्त पौराणिक संदर्भ कथा की दृष्टि से उपजीव्य मात्र है कथा विराट प्रस्तुत तथा विभिन्न सांस्कृतिक छवियों का प्रबोधन भक्तिकाव्य के लोकधर्मी चरित्र का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ने के नाम पर यूरोपीय देशों ने मध्यकाल में अपने ही देश के धार्मिक अनुवाद को बिलकुल बर्दास्त नहीं किया। बाइबिल का अनुवाद करने वाले विलियम टिन्देलT (WILLIAM TYNDALE) को बाइबिल अनुवाद के कारण ही अपनी पांडुलिपियों के साथ मृत्युदंड दे दिया गया। कुछ ऐसी ही सज़ा जान वाईकिल्फ़ (JOHN WYCLIFFE) को उनके अनुवाद के कारण मिली। परन्तु अपने अनुवाद के कारण ही आधुनिक विचारकों ने इन्हेंसुधार का चमकता सिताराकहकर संबोधित किया। उल्लेखनीय है कि भारतीय समाज में अगर ऐसी जड़ता का परिचय दिया गया होता तो मध्यकाल के साहित्य की कल्पना करना ही नामुमकिन था। भारतीय समाज ने साहित्यिकता में नए-नए प्रयोगों को हमेशा से स्थान दिया है। भक्ति साहित्य का अध्ययन इन्हीं प्राथमिकताओं के साथ करना हमारा कर्तव्य है।

सन्दर्भ :

[i] नवीन, देवशंकर, अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, दिल्ली, पृष्ठ-15
[ii] तुलसीदास, रामचरितमानस, गीता प्रेस, गोरखपुर
[iii] गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर
[iv] मिश्र, शिवकुमार, भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ- 288
[v] अग्रवाल, डॉ. शशि, हिंदी कृष्णभक्ति-काव्य पर पुराणों का प्रभाव, हिन्दुस्तान एकेडेमी, इलाहबाद, पृष्ठ. 2
[vi] https://shorturl.at/coJPZ
[vii] शास्त्री, डॉ. गिरिधारीलाल, हिंदी कृष्णभक्ति-काव्य की पृष्ठिभूमि, भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़, पृष्ठ- 106
[viii] प्रेमशंकर, भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ- 103
[ix] अग्रवाल, डॉ. शशि, हिंदी कृष्णभक्ति-काव्य पर पुराणों का प्रभाव, हिन्दुस्तान एकेडेमी, इलाहबाद, पृष्ठ. 2
[x] H.H. Wilson, The Vishnu Purána: a system of Hindu mythology and tradition, https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.220642/page/n11/mode/1up
[xi] Beck, Guy L., Alternative Krishnas: Regional and Vernacular Variations on a Hindu Deity, Suny press, first edition, 2012, pg. 24

 


विकास शुक्ल
हिंदी अनुवाद, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई-दिल्ली- 110067
Vikash71­_lle@jnu.ac


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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