शोध सार : हिंदी फिल्म संगीत का नाम जुबान पर आते ही, न जाने कितने ही गीतों की धुनें और शब्द मन-मस्तिष्क में गूंज उठते हैं। फिल्मी गीतों का जादूमयी संसार है ही ऐसा कि कोई व्यक्ति इससे अछूता नहीं रहा है।जीवन के अनेक प्रसंगों में इन गीतों ने कभी हमें गुदगुदाया तो कभी विस्मृत किया, कभी हंसाया तो कभी रुलाया, कभी अपनी खीज निकालने में तो कभी मस्ती मजाक में, कभी अपने प्यार के इजहार में तो कभी तन्हाई की किसी शाम में अपनी उपस्थित से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अपनी विशेष जगह बनाने में सफलता हासिल की है। भावों का यह तादात्म्य फिल्म संगीत को सर्वाधिक प्रचलित करने में अहम भूमिका निभाता है। मानवीय भावना को सृजित एवं अभिव्यक्त करने का श्रेष्ठ एवं लोकप्रिय माध्यम संगीत है। संगीत की इसी खूबी को समझकर सिनेमा ने इसे अभिन्न अंग के रूप में अंगीकार किया।
यूं तो सिनेमा में सभी प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति हुई है किन्तु रति भाव अर्थात श्रृंगार रस से संबंधित गीत बहुतायत में निर्मित हुए है। यदि सवाक् सिनेमा के उद्भव से वर्तमान समय तक सिने संगीत का विवेचन किया जाए तो इसे मोटे तौर पर चार प्रमुख खंडों में बाँटा जा सकता है। प्रथम कालखंड 1931-1947 अर्थात स्वतंत्रता पूर्व तक, द्वितीय 1948-1970 तक, तृतीय 1971-2000 तक तथा चौथा और अंतिम कालखंड 2001 से वर्तमान समय तक माना जा सकता है। सम्पूर्ण कालावधि का विवेचन एक साथ करने से यह शोध-पत्र अति विस्तृत रूप ले लेगा। अतः इस शोध पत्र में कुछ प्रमुख गीतों के माध्यम से प्रथम कालखंड की ही विवेचना की गई है।
बीज शब्द : हिन्दी फिल्म, सिनेमा, भाव, रस, प्रेम, श्रृंगार, अभिव्यक्ति, गीत-संगीत, राग, संगीतकार।
मूल आलेख : ‘हिंदी फिल्मों में गीत-संगीत के इस सुनहरे दौर की शुरुआत हुई पहली सवाक् फिल्म आलमआरा के साथ जिसका निर्माण सन् 1931 में हुआ था। हालांकि मूक फिल्मों के समय भी संगीत चलायमान समूह के द्वारा स्थान, परिवेश आदि के आधार पर प्रदर्शित किया जाता था।1 किंतु उसका फिल्म की पटकथा से कोई सरोकार नहीं होता था।’ फिल्मी गीतों की वृहद् एवं व्यापक विषय सामग्री के पीछे फिल्म की पटकथा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भिन्न-भिन्न विषयों तथा पहलुओं को लेकर बनी फिल्मों में गीत की विषय वस्तु भी विषद् एवं व्यापक होती गई। इन गीतों में जीवन से जुड़े लगभग सभी प्रसंग तथा भावों का भरपूर उपयोग और प्रदर्शन हुआ।
‘भावों को व्यक्त करने की चेष्टा प्राणी मात्र का स्वभाव है।’2 मनुष्य अपने मन में उत्पन्न होने वाले भावों का प्रदर्शन संगीत के माध्यम से सदैव करता आया है। भाव विहीन होकर मनुष्य मात्र हाड़मांस का पुतला भर रह जाएगा। यह भाव और संवेदना ही तो है जो मनुष्य को मानवीय गुणों से परिपूर्ण करते हैं। फिल्मकारों ने इस बात को ध्यान में रखकर ही फिल्मों की भावपूर्ण कहानियाँ चुनी और दर्शक को आकर्षित करने और अपना बनाने में अपार सफलता हासिल की। दर्शक इस सिनेमाई दुनिया के तिलिस्म में खोकर कुछ पल के लिए ही सही स्वयं को इस संसार का हिस्सा महसूस कर आनंद की अनुभूति करता है। इस भावपूर्ण यात्रा का महत्वपूर्ण हिस्सा होता हैं इसमें प्रयुक्त गीत-संगीत, जो फिल्म की कहानी को अधिक प्रभावमयी तथा प्रवाहमयी बनाने में अपना योगदान देते हैं। इस भावात्मकता के कारण ही ये गीत न केवल फिल्म की कहानी का हिस्सा बनकर बल्कि इसके इतर भी दर्शक के हृदय में अपना स्थान बनाने में सफल होते हैं। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि फिल्म संगीत ने अनेकानेक श्रोताओं की नयी पौध को तैयार करने का कार्य भी किया है।
यदि देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले सांगीतिक आयोजनों पर गौर करें तो पता चलता है कि सर्वाधिक लोकप्रिय सांगीतिक आयोजन फिल्म संगीत से जुडे हैं, क्यूँकि फिल्मी गीत-संगीत में हर उम्र, वर्ग, जाति एवं धर्म के व्यक्ति को बांधने की विलक्षण क्षमता है। फिल्मी कहानी की आवश्यकता के अनुरूप निर्मित इन गीतों में प्रदर्शित भाव जब दर्शक की तत्कालीन परिस्थिति एवं मनोदशा के साथ एककार हो जाते हैं तो वह फिल्म का हिस्सा न रहकर उसकी स्वयं की अनुभूति बन उसकी स्मृति में अंकित हो जाते हैं। उदाहरणार्थ किसी फिल्म में प्रयुक्त विभिन्न गीतों में प्रणयगीत, बिरहगीत, पारिवारिक रिश्तों पर आधारित गीत जैसे मां, भाई, बहन, दोस्त आदि से संबंधित, संघर्षमय जीवन से लड़ने की प्रेरणा देने वाला तथा उत्सव आदि से संबंधित गीतों में जो भाव दर्शक के जीवन की उस बेला में अधिक प्रबल होगा वह उसी भाव से संबंधित गीत से अधिक प्रभावित भी होगा। यह भी संभव है कि वह थिएटर से निकलते वक्त उसी गीत की पंक्तियां गुनगुना रहा हो जिससे वह फिल्म देखने के दौरान सर्वाधिक प्रभावित हुआ था।
फिल्मी गीत कथानक का हिस्सा अवश्य होते हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते।3 फिल्म का हिस्सा होने के बावजूद भी प्रत्येक गीत अपनी स्वतंत्र पहचान रखता है। फिल्मी गीत न सिर्फ सिनेमा के द्वारा बल्कि रेडियो, टीवी, कैसेट्स, सीडी और अब तो इंटरनेट माध्यम से भी मोबाइल आदि पर देखें और सुने जा सकते हैं। जब गाना स्वतंत्र रूप से सुना जाता है तब उस गीत में प्रस्तुत भाव की महत्ता सर्वोपरि होती है ना कि फिल्म के कथानक की। गीत के भाव से स्वयं के मनोभाव का तादात्म्य होने पर श्रोता सुख या दुख की अनुभूति करता है। फिल्म संगीत में लोक संगीत की सहजता और मिठास, शास्त्रीय पक्ष की उत्कृष्टता एवं समृद्ध परंपरा के साथ-साथ भक्ति संगीत की आत्मीयता भी समाहित हैं।
आचार्य बृहस्पति के अनुसार भाव मनुष्य के हृदय में सुप्त अवस्था में विद्यमान रहते हैं तथा अनुकूल परिस्थिति में जागृत हो जाते हैं।4 महर्षि भरत ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में 8 स्थायी भावों से संबंधित 8 रसों का विस्तृत विवेचन किया है। रति नामक भाव से श्रृंगार रस, हास नामक भाव से हास्य रस, शोक से करुण रस, क्रोध से रौद्र रस, उत्साह से वीर रस, भय से भयानक रस, जुगुप्सा से विभत्स रस तथा विस्मय से अद्भुत रस उत्पन्न होता है।5 शास्त्रकारों द्वारा श्रृंगार रस को रसराज की संज्ञा दी गई है। श्रृंगार रस में प्रणय और विरह दोनों ही भावों का समावेश होता है। हिंदी फिल्मी गीतों में इस भाव से संबंधित गीत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। सिनेमा के प्रारंभिक दौर से वर्तमान समय तक गीत संगीत में रसराज (श्रृंगार रस) की महत्ता चिरस्थाई है। इस शोध पत्र में फिल्मी गीत-संगीत की इस श्रृंगारिक यात्रा पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। अत्यधिक संख्या में गीत बनने के कारण कुछ प्रमुख गीतों के माध्यम से ही इस सुरीले सफर को देखने और समझने का प्रयास किया जा रहा है। इस शोध पत्र में वर्णित सभी गीतों का यूट्यूब लिंक संदर्भ सूची में क्रमवार दिया गया है।
प्रथम बोलती फिल्म आलम आरा 1931 में बनी थी। सिनेमा के इस शुरुआती दौर में मुख्यतः धार्मिक फिल्में ही बनाई गई।6 सिनेमा के शैशवकाल में जनता को आकर्षित करने एवं जन-मानस में अपनी जगह बनाने के लिए धार्मिक कथा-कहानियों को ही फिल्म के माध्यम से दिखाया गया जो कि आमजन के बीच पहले से ही प्रचलित थी। इन फिल्मों में प्रयुक्त गीत भी मुख्यतः पारंपरिक साहित्य से ही लिये गए। समयानुसार धीरे-धीरे फिल्मों में श्रृंगारिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रभक्ति संबंधी कथावस्तु का समावेश भी होने लगा।7 स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात फिल्मी गीत-संगीत ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। फिल्मी गीत-संगीत की उत्कृष्टता की दृष्टि से पचास से सत्तर के दशक को फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहना उचित ही प्रतीत होता है। इस कालखंड में न केवल संगीतिक बल्कि साहित्यिक उन्नति भी हुई। जितने उत्कृष्ट, मधुर, सुरीले एवं भावपूर्ण गीत इस कालखंड में रचे गए उतने किसी अन्य काल में नहीं। साजन, सिंदूर, शहनाई, मेला, शहीद, अंदाज़, बरसात, नागिन, आर-पार, टैक्सी ड्राइवर, झनक झनक पायल बाजे, चोरी-चोरी, प्यासा, मदर इंडिया, नया दौर, साधना, मधुमति, नवरंग, मुगल-ए-आजम,
अनुराधा, बरसात की रात, गंगा जमुना, साहब बीवी और गुलाम, हम दोनों, बीस साल बाद, बंदिनी, संगम, गाइड, तीसरी कसम, मिलन, सरस्वतीचंद्र, आराधना, खिलौना, दस्तक, हीर-रांझा इत्यादि फिल्मों का गीत-संगीत बहुत प्रसिद्ध हुआ।
1970 के बाद से फिल्मों की कहानियों तथा गीत संगीत में बदलाव देखने को मिला। जिसका कारण समाजिक बदलाव, जीवन शैली में बदलाव तथा तकनीक का उपयोग आदि मुख्य कारक है। सत्तर के दशक से प्रत्येक दशक में कुछ मुख्य बदलाव भारतीय सिने संगीत में देखने को मिले। सिने संगीत के साथ-साथ गीत लेखन में भी कुछ बड़े बदलाव हुए। पूर्व के मधुर एवं साहित्यिक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट गीतों का स्थान धीरे-धीरे हल्के फुल्के गीतों ने ले लिया। बीसवीं सदी के अंत तक गीतों की भाषा का स्तर गिरने लगा तथा अश्लीलता ना केवल गीतों में समाहित हुई वरन् समाज द्वारा स्वीकृत भी की जाने लगी। हालांकि इस कालखंड में कुछ अच्छे गीतों का निर्माण भी हुआ किंतु उनकी संख्या बहुत कम थी।
इक्कीसवीं सदी में बनी फिल्मों में गीतों का प्रयोग अत्याधुनिक युवा पीढ़ी को ध्यान में रखकर किया जाने लगा है। जिस तरह की भागदौड़ वाली जिंदगी आधुनिक समय में व्यक्ति जी रहा है उसी गति का दर्शन फिल्मी गीतों में तेज बीट्स और शोरगुल वाले क्लब सोंग्स के रूप में देखने और सुनने को मिलने लगा है। हालाँकि क्लब सोंग्स का प्रचलन पुरानी फिल्मों में भी था लेकिन अब उनके प्रदर्शन में बदलाव देखने को मिलता है। पुरानी फिल्मों में क्लब सोंग्स ज्यादातर आधुनिक प्रचलित आइटम सान्ग की तरह प्रदर्शित किए जाते थे जिसमें