शोध आलेख : हिंदी फिल्मी गीतों में भावाभिव्यक्ति (कालखंड 1931-1947) / संगीता शर्मा

हिंदी फिल्मी गीतों में भावाभिव्यक्ति (कालखंड 1931-1947)
संगीता शर्मा

शोध सार : हिंदी फिल्म संगीत का नाम जुबान पर आते ही, जाने कितने ही गीतों की धुनें और शब्द मन-मस्तिष्क में गूंज उठते हैं। फिल्मी गीतों का जादूमयी संसार है ही ऐसा कि कोई व्यक्ति इससे अछूता नहीं रहा है।जीवन के अनेक प्रसंगों में इन गीतों ने कभी हमें गुदगुदाया तो कभी विस्मृत किया, कभी हंसाया तो कभी रुलाया, कभी अपनी खीज निकालने में तो कभी मस्ती मजाक में, कभी अपने प्यार के इजहार में तो कभी तन्हाई की किसी शाम में अपनी उपस्थित से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अपनी विशेष जगह बनाने में सफलता हासिल की है। भावों का यह तादात्म्य फिल्म संगीत को सर्वाधिक प्रचलित करने में अहम भूमिका निभाता है। मानवीय भावना को सृजित एवं अभिव्यक्त करने का श्रेष्ठ एवं लोकप्रिय माध्यम संगीत है। संगीत की इसी खूबी को समझकर सिनेमा ने इसे अभिन्न अंग के रूप में अंगीकार किया।

              यूं तो सिनेमा में सभी प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति हुई है किन्तु रति भाव अर्थात श्रृंगार रस से संबंधित गीत बहुतायत में निर्मित हुए है। यदि सवाक् सिनेमा के उद्भव से वर्तमान समय तक सिने संगीत का विवेचन किया जाए तो इसे मोटे तौर पर चार प्रमुख खंडों में बाँटा जा सकता है। प्रथम कालखंड 1931-1947 अर्थात स्वतंत्रता पूर्व तक, द्वितीय 1948-1970 तक, तृतीय 1971-2000 तक तथा चौथा और अंतिम कालखंड 2001 से वर्तमान समय तक माना जा सकता है। सम्पूर्ण कालावधि का विवेचन एक साथ करने से यह शोध-पत्र अति विस्तृत रूप ले लेगा। अतः इस शोध पत्र में कुछ प्रमुख गीतों के माध्यम से प्रथम कालखंड की ही विवेचना की गई है।

बीज शब्द :  हिन्दी फिल्म, सिनेमा, भाव, रस, प्रेम, श्रृंगार, अभिव्यक्ति, गीत-संगीत, राग, संगीतकार

मूल आलेख :हिंदी फिल्मों में गीत-संगीत के इस सुनहरे दौर की शुरुआत हुई पहली सवाक् फिल्म आलमआरा के साथ जिसका निर्माण सन् 1931 में हुआ था। हालांकि मूक फिल्मों के समय भी संगीत चलायमान समूह के द्वारा स्थान, परिवेश आदि के आधार पर प्रदर्शित किया जाता था।1 किंतु उसका फिल्म की पटकथा से कोई सरोकार नहीं होता था।फिल्मी गीतों की वृहद् एवं व्यापक विषय सामग्री के पीछे फिल्म की पटकथा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भिन्न-भिन्न विषयों तथा पहलुओं को लेकर बनी फिल्मों में गीत की विषय वस्तु भी विषद् एवं व्यापक होती गई। इन गीतों में जीवन से जुड़े लगभग सभी प्रसंग तथा भावों का भरपूर उपयोग और प्रदर्शन हुआ।

              ‘भावों को व्यक्त करने की चेष्टा प्राणी मात्र का स्वभाव है।2 मनुष्य अपने मन में उत्पन्न होने वाले भावों का प्रदर्शन संगीत के माध्यम से सदैव करता आया है। भाव विहीन होकर मनुष्य मात्र हाड़मांस का पुतला भर रह जाएगा। यह भाव और संवेदना ही तो है जो मनुष्य को मानवीय गुणों से परिपूर्ण करते हैं। फिल्मकारों ने इस बात को ध्यान में रखकर ही फिल्मों की भावपूर्ण कहानियाँ चुनी और दर्शक को आकर्षित करने और अपना बनाने में अपार सफलता हासिल की। दर्शक इस सिनेमाई दुनिया के तिलिस्म में खोकर कुछ पल के लिए ही सही स्वयं को इस संसार का हिस्सा महसूस कर आनंद की अनुभूति करता है। इस भावपूर्ण यात्रा का महत्वपूर्ण हिस्सा होता हैं इसमें प्रयुक्त गीत-संगीत, जो फिल्म की कहानी को अधिक प्रभावमयी तथा प्रवाहमयी बनाने में अपना योगदान देते हैं। इस भावात्मकता के कारण ही ये गीत केवल फिल्म की कहानी का हिस्सा बनकर बल्कि इसके इतर भी दर्शक के हृदय में अपना स्थान बनाने में सफल होते हैं। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि फिल्म संगीत ने अनेकानेक श्रोताओं की नयी पौध को तैयार करने का कार्य भी किया है।

              यदि देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले सांगीतिक आयोजनों पर गौर करें तो पता चलता है कि सर्वाधिक लोकप्रिय सांगीतिक आयोजन फिल्म संगीत से जुडे हैं, क्यूँकि फिल्मी गीत-संगीत में हर उम्र, वर्ग, जाति एवं धर्म के व्यक्ति को बांधने की विलक्षण क्षमता है। फिल्मी कहानी की आवश्यकता के अनुरूप निर्मित इन गीतों में प्रदर्शित भाव जब दर्शक की तत्कालीन परिस्थिति एवं मनोदशा के साथ एककार हो जाते हैं तो वह फिल्म का हिस्सा रहकर उसकी स्वयं की अनुभूति बन उसकी स्मृति में अंकित हो जाते हैं। उदाहरणार्थ किसी फिल्म में प्रयुक्त विभिन्न गीतों में प्रणयगीत, बिरहगीत, पारिवारिक रिश्तों पर आधारित गीत जैसे मां, भाई, बहन, दोस्त आदि से संबंधित, संघर्षमय जीवन से लड़ने की प्रेरणा देने वाला तथा उत्सव आदि से संबंधित गीतों में जो भाव दर्शक के जीवन की उस बेला में अधिक प्रबल होगा वह उसी भाव से संबंधित गीत से अधिक प्रभावित भी होगा। यह भी संभव है कि वह थिएटर से निकलते वक्त उसी गीत की पंक्तियां गुनगुना रहा हो जिससे वह फिल्म देखने के दौरान सर्वाधिक प्रभावित हुआ था।

              फिल्मी गीत कथानक का हिस्सा अवश्य होते हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते।3 फिल्म का हिस्सा होने के बावजूद भी प्रत्येक गीत अपनी स्वतंत्र पहचान रखता है। फिल्मी गीत सिर्फ सिनेमा के द्वारा बल्कि रेडियो, टीवी, कैसेट्स, सीडी और अब तो इंटरनेट माध्यम से भी मोबाइल आदि पर देखें और सुने जा सकते हैं। जब गाना स्वतंत्र रूप से सुना जाता है तब उस गीत में प्रस्तुत भाव की महत्ता सर्वोपरि होती है ना कि फिल्म के कथानक की। गीत के भाव से स्वयं के मनोभाव का तादात्म्य होने पर श्रोता सुख या दुख की अनुभूति करता है। फिल्म संगीत में लोक संगीत की सहजता और मिठास, शास्त्रीय पक्ष की उत्कृष्टता एवं समृद्ध परंपरा के साथ-साथ भक्ति संगीत की आत्मीयता भी समाहित हैं।

             आचार्य बृहस्पति के अनुसार भाव मनुष्य के हृदय में सुप्त अवस्था में विद्यमान रहते हैं तथा अनुकूल परिस्थिति में जागृत हो जाते हैं।4 महर्षि भरत ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में 8 स्थायी भावों से संबंधित 8 रसों का विस्तृत विवेचन किया है। रति नामक भाव से श्रृंगार रस, हास नामक भाव से हास्य रस, शोक से करुण रस, क्रोध से रौद्र रस, उत्साह से वीर रस, भय से भयानक रस, जुगुप्सा से विभत्स रस तथा विस्मय से अद्भुत रस उत्पन्न होता है।5 शास्त्रकारों द्वारा श्रृंगार रस को रसराज की संज्ञा दी गई है। श्रृंगार रस में प्रणय और विरह दोनों ही भावों का समावेश होता है। हिंदी फिल्मी गीतों में इस भाव से संबंधित गीत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। सिनेमा के प्रारंभिक दौर से वर्तमान समय तक गीत संगीत में रसराज (श्रृंगार रस) की महत्ता चिरस्थाई है। इस शोध पत्र में फिल्मी गीत-संगीत की इस श्रृंगारिक यात्रा पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। अत्यधिक संख्या में गीत बनने के कारण कुछ प्रमुख गीतों के माध्यम से ही  इस सुरीले सफर को देखने और समझने का प्रयास किया जा रहा है। इस शोध पत्र में वर्णित सभी गीतों का यूट्यूब लिंक संदर्भ सूची में क्रमवार दिया गया है।

             प्रथम बोलती फिल्म आलम आरा 1931 में बनी थी। सिनेमा के इस शुरुआती दौर में मुख्यतः धार्मिक फिल्में ही बनाई गई।6 सिनेमा के शैशवकाल में जनता को आकर्षित करने एवं जन-मानस में अपनी जगह बनाने के लिए धार्मिक कथा-कहानियों को ही फिल्म के माध्यम से दिखाया गया जो कि आमजन के बीच पहले से ही प्रचलित थी। इन फिल्मों में प्रयुक्त गीत भी मुख्यतः पारंपरिक साहित्य से ही लिये गए। समयानुसार धीरे-धीरे फिल्मों में श्रृंगारिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रभक्ति संबंधी कथावस्तु का समावेश भी होने लगा।7 स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात फिल्मी गीत-संगीत ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। फिल्मी गीत-संगीत की उत्कृष्टता की दृष्टि से पचास से सत्तर के दशक को फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहना उचित ही प्रतीत होता है। इस कालखंड में केवल संगीतिक बल्कि साहित्यिक उन्नति भी हुई। जितने उत्कृष्ट, मधुर, सुरीले एवं भावपूर्ण गीत इस कालखंड में रचे गए उतने किसी अन्य काल में नहीं। साजन, सिंदूर, शहनाई, मेला, शहीद, अंदाज़, बरसात, नागिन, आर-पार, टैक्सी ड्राइवर, झनक झनक पायल बाजे, चोरी-चोरी, प्यासा, मदर इंडिया, नया दौर, साधना, मधुमति, नवरंग, मुगल--आजमअनुराधा, बरसात की रात, गंगा जमुना, साहब बीवी और गुलाम, हम दोनों, बीस साल बाद, बंदिनी, संगम, गाइड, तीसरी कसम, मिलन, सरस्वतीचंद्र, आराधना, खिलौना, दस्तक, हीर-रांझा इत्यादि फिल्मों का गीत-संगीत बहुत प्रसिद्ध हुआ। 

              1970 के बाद से फिल्मों की कहानियों तथा गीत संगीत में बदलाव देखने को मिला। जिसका कारण समाजिक बदलाव, जीवन शैली में बदलाव तथा तकनीक का उपयोग आदि मुख्य कारक है। सत्तर के दशक से प्रत्येक दशक में कुछ मुख्य बदलाव भारतीय सिने संगीत में देखने को मिले। सिने संगीत के साथ-साथ गीत लेखन में भी कुछ बड़े बदलाव हुए। पूर्व के मधुर एवं साहित्यिक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट गीतों का स्थान धीरे-धीरे हल्के फुल्के गीतों ने ले लिया। बीसवीं सदी के अंत तक गीतों की भाषा का स्तर गिरने लगा तथा अश्लीलता ना केवल गीतों में समाहित हुई वरन् समाज द्वारा स्वीकृत भी की जाने लगी। हालांकि इस कालखंड में कुछ अच्छे गीतों का निर्माण भी हुआ किंतु उनकी संख्या बहुत कम थी। 

              इक्कीसवीं सदी में बनी फिल्मों में गीतों का प्रयोग अत्याधुनिक युवा पीढ़ी को ध्यान में रखकर किया जाने लगा है। जिस तरह की भागदौड़ वाली जिंदगी आधुनिक समय में व्यक्ति जी रहा है उसी गति का दर्शन फिल्मी गीतों में तेज बीट्स और शोरगुल वाले क्लब सोंग्स के रूप में देखने और सुनने को मिलने लगा है। हालाँकि क्लब सोंग्स का प्रचलन पुरानी फिल्मों में भी था लेकिन अब उनके प्रदर्शन में बदलाव देखने को मिलता है। पुरानी फिल्मों में क्लब सोंग्स ज्यादातर आधुनिक प्रचलित आइटम सान्ग की तरह प्रदर्शित किए जाते थे जिसमें मुख्यतः कैबरे डान्सर्स नृत्य किया करती थी। गीत में फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से साहित्य और भाव समाहित हुआ करते थे किन्तु वर्तमान समय में इन तेज शोरगुल और रिदम आधारित गीतों में फिल्म की नायिका तथा नायक झूमते नजर आते हैं। इन गीतों में भावनाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है। यहां तो केवल रिदम की ही महत्ता है जो व्यक्ति को झूमने पर मजबूर कर दें। आधुनिक पीढ़ी की दिनचर्या में क्लब नाइटस की महत्ता बहुत ज्यादा हो गई है, जिसके चलते उन्हें गीत-संगीत भी उसी तरह का पसंद आता है और इस वजह से भावनात्मक स्तर के गीत अब कम ही निर्मित होते हैं।

              सिनेमा के शुरूआती दौर में गीत-संगीत पर शास्त्रीय संगीत, नाट्य शैली तथा पारसी रंगमंच का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।8 धीरे-धीरे इसमें देश के विभिन्न प्रांतीय लोकसंगीत का समावेश होने लगा। यदि प्रथम कालखंड की बात की जाए तो गुलाम हैदर ने पंजाबी, आर सी बोराल, तिमिर बरन, पंकज मलिक, अनिल बिश्वास आदि ने बंगाली लोक संगीत को फिल्मी गीतों में प्रयुक्त किया। इसी प्रकार खेमचंद प्रकाश ने राजस्थानी लोक संगीत और नौशाद ने पूरबी लोक संगीत का बेहतरीन प्रयोग कर लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। शुरूआती समय में तकनीकी अल्पता तथा तेज आवाज में गाने के कारण गीत में भावपूर्ण तादात्म्य की कमी दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त फिल्मों की कथावस्तु पौराणिक अथवा ऐतिहासिक होने के कारण उसमें श्रृंगार रस के स्थान पर भक्तिरस की प्रधानता दिखती है, फिर भी इस शोध पत्र में यथासंभव 1932 से 1947 तक श्रृंगार रस संबंधी गीतों का उल्लेख किया जा रहा है।

              प्रथम सवाक् फिल्म 'आलमआरा' के 'दे दे खुदा के नाम पे प्यारे' गीत को फिल्म इतिहास का पहला गीत कहलाने का और इस गीत को गाने वाले वजीर मोहम्मद खान को फिल्म जगत के पहले गायक होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस फिल्म के लिए संगीत निर्देशन का कार्य फिरोजशाह मिस्त्री ने किया था।9 हालाँकि यह गीत श्रृंगार रस से संबंधित नहीं है लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसका उल्लेख करना आवश्यक जान पड़ता है। दुर्भाग्य से 'आलमआरा' का प्रिन्ट नष्ट होने के कारण आज उपलब्ध नहीं है किन्तु इसके गीत का रिकॉर्ड यूट्यूब आदि ऑनलाईन माध्यमों पर अवश्य उपलब्ध है। यदि आज हम इस ऐतिहासिक गीत को सुन सकते हैं तो इसका श्रेय जाता है निर्देशक नानूभाई वकील को जिन्होनें 1931 में बनी आलमआरा को कुछ फेरबदल के साथ 1973 में पुनः निर्मित किया और इस प्रथम फिल्मी गीत को वजीर मोहम्मद खान की आवाज में ही पुनः रिकॉर्ड किया।10 

              1932 में इम्पीरियल फिल्म्स के बैनर तले 'माधुरी' नामक फिल्म का निर्माण हुआ। इस फिल्म के गीतों का संगीत निर्देशन प्राणसुख नायक ने किया तथा शास्त्रीय गायक विनायक राव पटवर्धन ने अपनी पुरजोर आवाज से इन्हें सजाया है। इस फिल्म के विषय में एक उल्लेखनीय बात यह है कि यह सबसे पहली फिल्म थी जिसके ग्रामोफोन रिकॉर्ड जारी हुए थे।11  'सरिता सुगंध शोभे वसंत, जियरा रास खेले रे'12 गीत में वसंत ऋतु में आल्हादित मन पर छाई मस्ती तथा प्रियतम से मिलने की व्याकुलता का निरूपण किया गया है। अन्य गीत 'कैसे देखूं कैसे माधुरी, जिया जनत नाहि'13 में प्रियतम से मिलने, उसे जी भर देखने का भाव होते हुए भी संकोच का भाव प्रेयसी के मन में है। फिल्मी गीत होते हुए भी उपरोक्त दोनों ही गीतों का प्रस्तुतीकरण शास्त्रीय बंदिश की तरह किया गया है। दोनों ही गीतों में राग-विस्तार, अलंकारिता एवं तान अंग का प्रदर्शन देखने को मिलता है। इसी फिल्म का एक अन्य गीत 'अहंकार करती हमेशा' में पूर्णतः मराठी नाट्य शैली का अनुकरण किया गया है।14 अतः यह कहा जा सकता है कि शुरूआती गीतों में कोमलता एवं भावात्मकता का गुण गौण था जो कि कालांतर में फिल्मी गीतों का अनिवार्य अंग बन गया। विरह में गाये गए इस गीत में शास्त्रीय अंगो का अति प्रयोग नायिका की पीड़ा का किचिंत मात्र भी आभास नहीं होने देते हैं। संभवतः इसी बात का अनुभव कर परवर्ती संगीतकारों ने फिल्मों में उप शास्त्रीय विधाओं का प्रयोग करना अधिक उचित समझा।

              सन् 1933 में 'मिस 1933' नामक फिल्म में मिस गौहर की आवाज में राग मिश्र भैरवी पर आधारित ग़ज़ल नुमा गीत 'कोई किसी का नहीं सखी'15 अत्यंत कर्णप्रिय है। मिस गौहर की आवाज की बनावट, स्वरों का लगाव, लोच आदि में बेगम अख्तर की गायकी की झलक सुनाई पड़ती है। विशेष रूप से जब 'बड़ी बेवफाई देखी' शब्दों का उच्चारण किया गया है तो मिस गौहर की आवाज का टोन बिल्कुल बेगम अख्तर जैसा ही सुनाई देता है। इस फिल्म के गीतों को उस्ताद झंडे खां द्वारा संगीतबद्ध किया गया था। लेखक एवं संग्रहकर्ता विजय वर्मा ने 'मील के पत्थर' नामक पुस्तक में इस गीत के लिए कहा है कियह गीत सारी तानों हरकतों के साथ उस दौर के अर्धशास्त्रीय गायन की महफिली शैली में है16 इसके अलावा इसी फिल्म का राग देस पर आधारित  गीत 'मत करो किसी से प्यार'17 भी अत्यंत मनमोहक गीत है।

              सन 1934 में न्यू थिएटर के बैनर तले 'चंडीदास' नामक फिल्म में उमा शशि तथा के एल सहगल की आवाज में गया युगल गीत 'प्रेम नगर में बनाऊंगी घर मैं'18 श्रृंगार रस का अद्भुत उदाहरण है। इस गीत में प्रेम को सर्वस्व बताकर जीवन को प्रेममय बनाने का संदेश दिया गया है। इस फिल्म में आर सी बोराल ने संगीत दिया है और गीत आगा हश्र कश्मीरी ने लिखे हैं।

              सन 1935 में फिल्म देवदासपी सी बरूआ  के निर्देशन में बनाई गई। इस फिल्म के गीत बहुत प्रसिद्ध हुए तथा जनता की जुबान पर चढ़ गए। राग देस पर आधारित गीत 'दुख के अब दिन बीतत नाहि'19 विरह में व्याकुल प्रेमी का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है। इस गीत में  विरहाग्नि में जल रहे नायक के ह्रदय में प्रेमिका से मिलन की कोई संभावना नहीं होने के कारण जीवन से विरक्ति का भाव दृष्टिगोचर हो रहा है। मुखड़े के बाद इन्टरल्यूड में देस की स्वरावली सुन ऐसा प्रतीत होता है जैसे नायक की विरह पीड़ा से व्याकुल होकर चहूं ओर काले मेघ घिर आए हैं। ये संगीतकार तमिर बरन के अद्भुत कौशल का ही प्रमाण है कि अंतरे की पंक्तियों में जो भाव व्यक्त होने वाला है उसका आभास एक उपयुक्त स्वरावली से पूर्व में ही निर्मित कर दे। अंतरे की पंक्तियाँ इस प्रकार है:  'ना मैं किसी का, ना कोई मेरा, छाया चारों ओर अंधेरा, अब कछू सूझत नाहि, मोरे अब दिन बीतत नाहि।

              1936 में आई फिल्म 'मनमोहन' में सुरेंद्र और बिब्बो का गया गीत 'तुम्हीं ने मुझको प्रेम सिखाया'20 में प्रेम के इजहार का वर्णन है। प्रीतम अपनी प्रेयसी को याद कर गा रहा है। उसी क्षण प्रेयसी को सामने पाकर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। दोनों प्रेमी मिलकर युगल गीत गाते हुए एक दूसरे से अपने प्रेम का इजहार करते हैं। 1937 में आई फिल्म 'मुक्ति' में कानन देवी के द्वारा गया गया बिरह गीत 'कैसे उजड़ा चमन खुशी का'21 खमाज तथा जैजैवंती की छटा लिए अत्यंत मार्मिक गीत है। इस गीत को आरजू लखनवी ने लिखा है तथा संगीतबद्ध पंकज मलिक ने किया है।

              1938 में बनी फिल्म 'स्ट्रीट सिंगर' में नवाब वाजिद अली शाह द्वारा रचित भैरवी में निबद्ध पारम्परिक गीत 'बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए'22 को संगीतकार आर सी बोराल ने के. एल. सहगल के सांगीतिक जीवन का ऐतिहासिक गीत बना दिया। सहगल के इस दुनिया से रुखसत होने तथा चालीस के दशक से लेकर वर्तमान समय तक आज भी यह गीत लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है और सहगल के प्रेमियों को उनकी याद दिलाता रहता है। यह गीत फिल्मों में कई बार प्रयुक्त हुआ है किंतु सहगल की पूर्व कशिश आवाज में इस गीत का एक अलग ही प्रभाव नजर आता है। संभवत: फिल्म संगीत में इस गीत को जितनी खूबसूरती से सहगल ने गाया वैसा किसी अन्य ने नहीं।

              सहगल की ही आवाज में गया एक और गीत 'मैं क्या जानू क्या जादू है'23 राग यमन पर आधारित गीतों की सूची में अपना अलग स्थान रखता है। सन् 1940 में 'जिंदगी' नामक फिल्म में आया यह गीत अत्यंत कर्णप्रिय गीत है। इस गीत को पंकज मलिक ने बेहद खूबसूरती से संगीतबद्ध किया है और केदारनाथ के बोलों ने इस गीत को खरा सोना बना दिया है। यदि गौर से सुना जाए तो इस एक गीत में आगामी वर्षों में आने वाले कई यादगार गीतों की झलक मिलती है। ऐसा लगता है कि परवर्ती संगीतकारों ने इस गीत से प्रेरणा लेकर कई गीत बनाए।

              1941 में 'बहन' नामक फिल्म में नलिनी जयवंत का गाया गीत 'जिया लहराए आई जवानी, पिया घर जाना सजन घर जाना'24 गीत में यौवनावस्था की दहलीज पर कदम रख चुकी नायिका के मन में उत्पन्न पिया मिलन की आस का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया गया है। इस गीत को संगीत से अनिल विश्वास ने सजाया है तथा सफदर आह ने सुंदर शब्दों का प्रयोग कर गीतकार होने का दायित्व बखूबी निभाया है। इस फिल्म का निर्देशन महबूब खान ने किया था। नलिनी जयवंत की आवाज में यह गीत बहुत ही कर्णप्रिय मालूम पड़ता है। 'पिया नैनों में आन समाए'25 1942 में निर्मित फिल्म 'मुकाबला' में करीम के बोलो से सजा यह गीत रजनी की आवाज में खान मस्ताना के संगीत निर्देशन में तैयार हुआ। इस गीत की धुन प्रसिद्ध कजरी 'सावन झर लागी ला धीरे-धीरे' पर आधारित है।

              इसी प्रकार 1943 में आई तानसेन फिल्म में 'मोरे बालापन के साथी छैला भूल जइयो ना'26 संगीतकार खेमचंद प्रकाश के संगीत निर्देशन में, कुंदन लाल सहगल तथा खुर्शीद बानो के स्वर में अत्यंत कर्णप्रिय रचना है। इस गीत में प्रेमिका परदेस जा रहे प्रियतम को वहां जाकर स्वयं को भूल ना जाने का आग्रह कर रही है। साथ रहकर जो आनंदमयी जीवन उन्हें जीना है,उसका वास्ता देती है। इस पर नायक उसे धैर्य रखने तथा पुनः मिलने का आश्वासन देता है। राग देस में निबद्ध इस गीत की कथावस्तु, स्वर-रचना तथा उसमें निहित भाव तीनों ही राजस्थानी लोकगीतों की नायिका की हूबहू छवि प्रस्तुत करते हैं।

             सन 1944 में नौशाद के संगीत से सजी फिल्म 'रतन' के गीत हल्के-फुल्के,अत्यंत मधुर और कर्ण प्रिय होने के कारण इतने मशहूर हुए की हर एक की जुबान पर चढ़ गए। इन गीतों में लोक संगीत के साथ-साथ शास्त्रीय संगीत की खूबियां भी मौजूद थी। 'अखियां मिलाके जिया भरमा के चले नहीं जाना'27  बेहद मधुर एवं चुलबुला गीत है। उपरोक्त गीत में भी अलग होने का परिदृश्य है किन्तु इस गीत में गांभीर्य नहीं है बल्कि मीठी चुहलबाजी है। इसके अतिरिक्त 'मिलके  बिछड़ गई अखियां'28 इस फिल्म का अत्यंत मार्मिक विरह-गीत है।

             1945 में आई आम्रपाली फिल्म में 'पिया मेरे साथ रहेंगे आज की रात'29 गीत अमीरबाई कर्नाटकी के द्वारा गाया गया है। श्रृंगार रस का गीत होते हुए भी प्रारंभ में यह गीत विरह भाव प्रकट करता है।  इस फिल्म का संगीत निर्देशन सरस्वती देवी ने किया है एवं गीत प्रदीप द्वारा लिखे गये हैं। 1946 में आई फिल्म 'अनमोल घड़ी' में संगीतकार नौशाद ने ऐसा गीत नूर जहां से गवाया जो उनके नाम का पर्याय बन गया। इस ऐतिहासिक गीत के बोल 'आवाज दे कहां है'30 आज भी लोगों की जुबान पर है। इस गीत ने लोकप्रियता की सारी हदें तोड़ दी। पाकिस्तान में बस जाने के कई वर्षों बाद जब नूरजहां पुनः लौटकर भारत आई तो उन्होंने स्टेज से इस गीत को एक बार फिर अपने चाहने वालों के लिए गाया। इसके अलावा इस फिल्म के 'जवां है मोहब्बत हसीं है जमाना', 'आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे', 'सोचा था क्या हो गया' आदि गीत भी अत्यंत लोकप्रिय हुए।

              1946 में ही बनी एक और फिल्म शाहजहांमें के एल सहगल का गाया गीत 'जब दिल ही टूट गया'31 बिरह गीत के रूप में अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ। मजरूह सुल्तानपुरी, नौशाद और सहगल की तिकड़ी ने इस गीत को बहुत लोकप्रिय बना दिया और आज भी उसकी प्रसिद्धी में कोई अंतर नहीं आया है। सन 1947 में आई फिल्म दर्द का अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का32 गीत अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इस फिल्म के अन्य कई गीत भी अत्यंत लोकप्रिय हुए जैसे 'बेताब है दिल दर्दे मोहब्बत के असर से'33 तथा 'बीच भंवर में आज फंसा है दिल का सफीना',34  एक हल्का-फुल्का गीत 'झूम खुशी में झूम' तथा एक विरह गीत 'हम दर्द का अफसाना दुनिया को सुना देंगे' भी सम्मिलित है। 

निष्कर्ष : मनुष्य सामाजिक प्राणी है। फिल्मों में मानव समाज का ही बिम्ब परिलक्षित होता है। मनुष्य के मन में भावनाओं का जो विस्तृत समुद्र हिलोरे ले रहा है उसकी अभिव्यक्ति तत्कालीन समयानुसार हिन्दी फिल्मों तथा उसमें प्रयुक्त गीत-संगीत में होती रही है। हालांकि शुरूआती समय में तकनीकी अल्पता तथा तेज आवाज में गाने के कारण गीत में भावपूर्ण तादात्म्य की कमी दिखाई देती है किन्तु कालांतर में यह कमी पूर्ण कर ली गई। समस्त भावों में प्रेम का भाव सर्वोपरि है और इसी सर्वव्यापी मधुमय प्रेम रस के विभिन्न रूपों का दर्शन फिल्मी गीतों में मिलता है। इन भावपूर्ण गीतों ने मानव समाज का अभिन्न अंग बन एक नई परंपरा का आगाज़ कर दिया है। इन गीतों के बोल, इनकी धुनें हमारे अवचेतन में इस तरह बैठ गई है कि इक्कीसवी सदी में भी हम चालीस के दशक का गीत  साक्षात नहीं सुनने के बावजूद भी बरबस ही गुनगुना उठते हैं क्योंकि इन गीतों को हमनें  अपने अग्रज, परिवारजनों से अथवा किसी अन्य माध्यम से कभी ना कभी अवश्य सुना है। यही कारण है कि अनेक गीतों की अनेक पंक्तियाँ अवसरानुकूल अनायास ही हमारे मन-मस्तिष्क में गूंज उठती है। कहने का तात्पर्य यह है कि मानवीय भावों की अभिव्यक्ति को हिन्दी फिल्मी गीत-संगीत और अधिक समृद्ध, सुंदर एवं प्रभावशील बनाता है। 

            उपरोक्त वर्णित सभी गीतों की लोकप्रियता और प्रभावशीलता कई दशक बीत जाने के बाद भी कम नहीं हुई है, इसके पीछे गीतकारोंसंगीतकारों, साजिन्दों आदि की कड़ी मेहनत और लगन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तत्कालीन समय की जरूरत को ध्यान में रखकर गीतों में रागों, तालों तथा वाद्यों का प्रयोग किया जाता था। चालीस के दशक में पंकज मलिक, नौशाद, खेमचंद प्रकाश, सरस्वती देवी आदि संगीतकारों द्वारा फिल्म संगीत में जो नयापन, ताजगी, प्रवाहमयता और भावपूर्णता का समावेश किया गया उसने फिल्म संगीत को नई दिशा प्रदान की है


संदर्भ :

  1. राजीव श्रीवास्तव  : सात सुरों का मेला, प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली , 2020, पृ सं 10
  2. कैलाश चंद्र देव बृहस्पति  : भरत का संगीत सिद्धांत, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण, 1991, पृ सं 255
  3. अशरफ़ अज़ीज़  : हिन्दुस्तानी सिनेमा और संगीत, जवरीमल्ल पारख (अनुवाद एवं संपादन), ग्रंथ शिल्पी प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 2022, पृ सं 19
  4. कैलाश चंद्र देव बृहस्पति  : भरत का संगीत सिद्धांत, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण, 1991, पृ सं 257
  5. संपादक- श्रीबाबूलाल शुक्ल : नाट्यशास्त्र, चौखंबा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, 2020, पृ सं 299
  6. राजीव श्रीवास्तव  : सात सुरों का मेला, प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली , 2020, पृ सं 12
  7. वहीपृष्ठ संख्या 22
  8. विजय वर्मा  : हिंदी फिल्म संगीत  मील के पत्थर, अंतरा इन्फो मीडिया प्राइवेट लिमिटेड जयपुर 2022, पृ सं 25
  9. पंकज राग  : धुनों की यात्रा  , राजकमल प्रकाशन  , नई दिल्ली  , चौथा संस्करण , 2017, पृ सं 11
  10. https://youtu.be/JwIZIEw09AQ?si=IMmomYb0b0_mD0Kr
  11. विजय वर्मा  : हिंदी फिल्म संगीत  मील के पत्थर, अंतरा इन्फो मीडिया प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर,  2022, पृ सं 24
  12. https://youtu.be/SKT1rqhfPdM?si=8B0B52zEXmBANYQO
  13. https://youtu.be/c4JidkT-2Ck?si=2Oo8vgHUASOpPlmF
  14. विजय वर्मा  : हिंदी फिल्म संगीत  मील के पत्थर, अंतरा इन्फो मीडिया प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर, 2022, पृ सं 30
  15. https://youtu.be/MDTbJLIlq5U?si=8KCkBlwNrbZCWLsu
  16. विजय वर्मा  : हिंदी फिल्म संगीत  मील के पत्थर,अंतरा इन्फो मीडिया प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर, 2022, पृ सं 32
  17. https://youtu.be/t-8JeV_HNHg?si=39b-srxwTjkpjoO7
  18. https://youtu.be/XBY9YYySKQQ?si=iSNOjJc0A5fsL6HW
  19. https://youtu.be/pVFqwGzl7x4?si=BTlalVi10HkbiVsy
  20. https://youtu.be/Q2kO0ynMJ68?si=GenqTzigVZcDOWN1
  21. https://youtu.be/N5OpOZNbXCM?si=fwsHbQaLp9Y8BpSD
  22. https://youtu.be/ouheLTzfeBc?si=Cz3etEl_wDHpO0Dy
  23. https://youtu.be/JJlHdQlw9y0?si=y4ABd_nCee6Gf4GM
  24. https://youtu.be/X8l4ruRlzE0?si=RFOMmiKHK71NlRPA
  25. https://youtu.be/3rcwxQiGWwY?si=YkeNcyedjaICdQvZ
  26. https://youtu.be/9RvcNEVFrKE?si=YrE6TxC3E6aKGZm6
  27. https://youtu.be/EsS7JvOzWjw?si=cx1o4CpDYNmayrlv
  28. https://youtu.be/0lmBQ5SWTKA?si=mZ13TRuLwqZ24AfG
  29. https://youtu.be/mSmBTUXuKO8?feature=shared
  30. https://youtu.be/ANptt7VMxXU?si=wYNCqnYF8tssPVVp
  31. https://youtu.be/nQQPV-DtY3s?si=j5gCBDxtqrcB9cza
  32. https://youtu.be/D7XJy4bSNRY?si=0UCdheJn142kMdrY
  33. https://youtu.be/7Ixwm-uDdHI?si=PUk7ba2FWS0UjOPw
  34. https://youtu.be/IWJM-gDhqfg?si=TNQ-hibqH7vfO6j7

 

संगीता शर्मा
सहायक आचार्य (संगीत), सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय, अजमेर
sangitayadav141@gmail.com 9460135273


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक कुमार

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