शोध आलेख : दृश्य कला के धार्मिक चरित्र / डॉ. क्षमा द्विवेदी

दृश्य कला के धार्मिक चरित्र
                          डॉ. क्षमा द्विवेदी                             


The great Indian epic 'The Ramayana" at Ellora caves-( cave-16) 


शोध सार : भारत देश अनेक प्रकार की संस्कृति, रीति-रिवाजों की खान है। मानव जन्म के साथ ही कला ने भी जन्म लिया। भारतीय संस्कृत में कला का समावेश भारत को विशिष्ट पहचान दिलाता है। सामूहिक जीवन की कलाप्रियता का अंश हमें इनमें देखने को मिलता है। वैसे तो कला सभी के बीच त्योहारों, पूजा-पाठ एवम कर्मकांड में मौजूद रहती है, परंतु ब्राह्मण धर्म में यह कहीं भी अछूती ना रह गई हैं। वर्तमान में भारतीय कला अंतरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित होकर लोकप्रिय हो चुकी है। भारत की संस्कृति अनेक होते हुए भी एक है, तथा इनका उद्देश्य भी आध्यात्मिक से जुड़ा हुआ होना है। प्रस्तुत शीर्षक के द्वारा दृश्य कलाओं में समाहित राम और कृष्ण की आत्मीयताओं को उजागर करना है। राम और कृष्ण ऐसे दो नाम है, जिन्हें संसार में परिचय की कोई आवश्यकता नहीं है।(1) हिंदू धर्म मे अनेक देवी-देवताओं का निवास है। भारत की ललित कलाओं का आधार मुख्य रूप से धर्म रहा है। कला में ब्राह्मण धर्म का पूर्णत: उदय गुप्तकाल में हुआ है। पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर भारतीय कलाकारो ने रामायण और महाभारत के आख्यानों को कला का प्रमुख विषय बनाया। इस लेख के द्वारा दृश्य कला में राम और कृष्ण के अनेक कथानकों के साक्ष्य ललित कलाओं के द्वारा हम जान पायेंगे।

बीज शब्द : गुप्तकाल, कृष्ण, राम, राजस्थानी शैली, हुसैन।  

Krishna Govardhana. Gupta, 4th - 6th centuryBharat Kala Bhavan, Varanasi, India
    

कला का इतिहास हजारों साल पुराना है।(2) धर्म का कलाओं से अंतःसंबद्ध रहा है। जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ब्राह्मण धर्म एवम लोकधर्म सभी धर्मो का भारतीय कला में महत्पूर्ण योगदान रहा है। मत्स्यपुराण में विष्णु के 10 अवतार का बखान है। इन अवतारों में सातवें क्रम मे राम तथा आठवीं क्रम में कृष्ण का नाम आता है। ग्रन्थ और पुराणों में ऐसा माना गया है कि जब भी धरती पर अन्याय और अधर्म की अधिकता होगी उस समय भगवान विष्णु एक नया अवतार लेंगे और धर्म का उत्थान होगा। भगवान राम का अवतार त्रेता युग में तथा भगवान कृष्ण का अवतार द्वापर युग में हुआ है। 3कला के क्षेत्र में धर्म का विशेष महत्व है। भारत की सभी कलाओं का उत्थान और विकास धर्मावलंबी है। स्थापत्य कला, चित्रकला, काव्य कला, नाट्य एवं संगीत कला इन सभी कलाओं में धर्म विशेष रूप से परिलक्षित होता है। अवध के मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन काल बहुत ही कठोर रहा, 14 वर्ष का वनवास एवम इनके जीवन से जुड़ी सभी कथानको का उल्लेख सर्वप्रथम महर्षि वाल्मीकि ने ग्रंथ रामायण में किया है। तत्पश्चात 15वीं शदी में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस में उनके जीवन को साहित्यिक रूप में दर्शाया गया। इसी प्रकार भगवान कृष्ण का उल्लेख महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद् भागवत में प्रस्तुत किया गया है। 4कला में राम तथा कृष्ण के साक्ष्य सर्वप्रथम हमें गुप्तकालीन मूर्ति कला में देखने को मिलता है। कर्नाटक के अइहोल में स्थित बदामी की गुफाओं में दृष्टव्य बदामी की ऊपरी शिवालय में राम कथा के अनेक दृश्य मिलते हैं। बदामी की गुफा संख्या दो और तीन में केवल समुद्र मंथन, कृष्ण की बाल लीलाओं तथा उनके जीवन की घटनाओं का दृश्य उत्कीर्ण है। (5) इसी क्रम में पत्तदकल के पाप नाथ मंदिर में स्वतंत्र रथीकाओं पर राम कथा के दृश्यों का सुंदरता से अंकन है। भगवान कृष्ण की गोवर्धन धारी मूर्ति प्राचीन उदाहरण जो काशी में एक टीले से प्राप्त गुप्तकालीन मूर्ति कला का स्पष्ट उदाहरण है। यह मूर्ति बनारस के भारत कला भवन संग्रहालय में सुरक्षित है। पूर्व मध्यकाल में राम तथा कृष्ण के कथानको का अंकन अधिकतर मंदिरों के रूप में उत्तीर्ण देखा जा सकता है।(6)

लगभग 600 से 800 तक राम और कृष्ण का रूप चालुक्य, राष्ट्रकूट तथा पल्लव कला में निखरकर सामने आया। इस प्रकार हिंदू धर्म ने मूर्ति कला के क्षेत्र में अपना विशेष स्थान स्थापित किया है। हालांकि सर्वप्रथम इसके साक्ष्य हमें कुषाणकाल से ही प्राप्त होते हैं, परंतु हम यह कह सकते हैं कि भारतीय साहित्य एवं कलाओं में प्रमुख रूप से राम एवं कृष्ण के छवियों को उकेरा गया है।(7) विश्व विख्यात एलोरा की गुफाओं में मंडप पर रामायण तथा महाभारत के अनेक उत्कीर्ण चित्र मिलते हैं। यह उत्कीर्ण चित्र धीरे-धीरे विकसित होकर हमें दक्षिण भारत के मंदिरों में दिखाई देने लगते हैं, जहां राम तथा कृष्ण के चित्र प्राप्त होने लगते हैं।(8) पल्लवकालीन महाबलीपुरम में कृष्ण तथा रामायण के दृश्य विश्व प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार हम उड़ीसा के पुरी मंदिर के भित्ति पर उदाहरण देख सकते हैं। उड़ीसा में 11वीं शदी में निर्मित लिंगराज मंदिर में रामायण तथा महाभारत के दृश्य अंकित हैं, जहां पांडवों का स्वर्गआरोहण एक अत्यंत ही उत्कृष्ट कलाकृति है।

Phad - A Blend of Performance and Visual Art

    मध्यकाल में आते-आते राम और कृष्ण का काव्य तथा चित्रकला में विशेष स्थान था। लगभग 14वीं शताब्दी में राजस्थान में राम और कृष्ण के जीवन की झांकी हमें साहित्य काव्य के रूप में दिखाई पड़ती है,उदाहरण स्वरूप तुलसीदास कृत रामचरितमानस तथा जयदेव कृत गीत गोविंद में राम तथा कृष्ण के जीवन की रचना की गई है। इन्हीं टीग्रंथो को आधार मानकर 15वीं शदी में राम तथा कृष्ण का अत्यंत ही मनमोहक चित्रांकन हुआ है, इन चित्रों के प्रमाण समकालीन समय में भारत तथा विदेशों से प्राप्त होते है। भारतीय कलाओं तथा ईश्वर के जुड़ाव का सिलसिला यूं ही समाप्त नहीं होता, बल्कि सभी कलाओं के अंतर्गत उनकी पकड़ मजबूत होती जाती है।(9) 17वीं शताब्दी में रामलीला की शुरुआत मानी जाती है। इसी प्रकार कृष्ण लीला का भारत में नाट्य रूपांतरण होता रहता है। रामलीला आज भारत ही नहीं बल्कि विश्व में भी अपना अलग स्थान बनाए हुए हैं। नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया आदि देशों से सांस्कृतिक संबंध मजबूत हो रहे हैं। इस लेख के द्वारा राम और कृष्ण की महत्ता को वैश्विक परिप्रेक्ष्य पर लाना ही इसका उद्देश्य है। भारतीय कला को पांच भागों में वर्गीकृत किया गया है। जिसके अंतर्गत मूर्ति, चित्र, काव्य, स्थापत्य, संगीत नृत्य आदि कलाएं आती हैं। परंतु यह कहना अतिशयोक्ति होगा कि इन कलाओं का मूल प्राण धर्म ही रहा है।

Sri Rama Vanquishing the Sea, Raja Ravi Varma

    बौद्ध धर्म, जैन धर्म तथा ब्राह्मण धर्म का कला में अथक योगदान है। साहित्य के क्षेत्र में भी तीनों धर्मो का विशेष महत्व रहा है, अनेक पांडुलिपियों एवम ग्रंथो का निर्माण हुआ। मध्यकाल में पाल शैली में ग्रंथ चित्रों के साथ-साथ साहित्य का समावेश अत्यंत ही मनोहर जान पड़ता है।(10) मध्यकाल में संस्कृति साहित्य के द्वारा बंगाल, बिहार के साथ-साथ नेपाल से भी जोड़े रखती है। पाल शैली के अनेक ग्रंथ नेपाल से प्राप्त हुए हैं धर्म प्रचार के लिए चित्रकारों तथा कवियों ने विभिन्न महाराजाओं के साथ इनका निर्माण किया। 

इसी क्रम में धार्मिक आख्यानों में दृश्य कला के अंतर्गत भगवान शिव प्रमुखता से समाहित हैं। सही मायने में भगवान शिव के सर्वप्रथम साक्ष्य हमें मोहनजोदड़ो मे प्राप्त मोहरों में परिलक्षित होने लगते हैं।(11) हड़प्पा से भगवान शिव का नटराज रुप मूर्ति रुप में प्राप्त है। कुषाण काल में भगवान शिव के साक्ष्य हमें सिक्कों पर देखने को मिलता है। जिससे यह ज्ञात होता है, की कुषाण काल में शैव धर्म की मान्यता थी। इसी क्रम में गुप्त काल में तो मानो विष्णु और शिव को कला में प्रमुख स्थान था। इसी क्रम में गुप्तकालीन भूमरा का शिव मंदिर इस काल का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। (12) चंदेल काल और राष्ट्रकूट काल दोनों में ही भगवान शिव के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। राष्ट्रकूट काल में शिव को प्रमुखता से दर्शाया गया है। इसका एक विश्व प्रसिद्ध उदाहरण एलोरा का गुफाएं हैं। जिनमे भगवान शिव के अनेक रूप को मूर्ति रूप दिया गया है। महाराष्ट्र के ही क्षेत्र में धारापुरी नामक स्थान पर एलिफेंटा की गुफाएं अपना सानी नहीं रखती हैं। यहां शंकर भगवान के त्रिमुख तीन रूपों का वर्णन मूर्ति रूप में किया गया है। चोल कॉल कल तक आते-आते भगवान धार्मिक विषयों में भगवान शंकर का स्थान मूर्तिकला एवम चित्रकला में प्रमुख हो जाता है। इस काल में भगवान की अनेक रूपों का वर्णन मूर्तियों के रूप में परिलक्षित है। कांचीपुरम का कैलाश नाथ मंदिर तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर इस कल के विश्व प्रसिद्ध उदाहरण है। मध्यकालीन साहित्य में शिव धर्म से संबंधित अनेक पुराणों की रचना की गई है। चित्रकला के क्षेत्र में मध्यकालीन साहित्य में मेवाड़ में एकलिंग जी का चित्रण किया गया है। राजस्थानी शैली में राम और कृष्ण दो प्रमुख रूपों के साथ शिव का भी स्थान पारीलक्षित होता है। आधुनिक काल तक आते-आते भगवान शिव का चित्रण अवनींद्रनाथ की कृतियों में एवं नंदलाल बोस की कृतियों में बखूबी देखा जा सकता है।

     इसी प्रकार पश्चिमी भारत या फिर उत्तरी भारत में जैन धर्म से संबंधित ऐसे पोथी चित्रों को बखूबी देख सकते हैं, उदाहरण स्वरूप अहमदाबाद से प्राप्त बसंत विलास संस्कृत गुजराती भाषा में चित्रित जैन पोथी है। समकालीन समय में यह ग्रंथ वाशिंगटन के फियर आर्ट गैलरी में रखी गई है। इन ग्रंथों में चित्र साहित्य का अच्छा समीकरण देख सकते हैं। इसी प्रकार जैन धर्म से संबंधित बाल गोपाल स्तुति, गीत गोविंद में धर्म साहित्य तथा चित्रों का सुंदर समावेश देखा जा सकता है। जैन धर्म की प्रमुख पोथी कल्पसूत्र भारत की सर्वप्रथम कागज पर लिखी तथा चित्रित की गई है। इसकी पांच प्रति प्राप्त है, इन ग्रंथो का विषय जैन तीर्थंकर है। साहित्य चित्र तथा धर्म का यह समावेश यूं ही समाप्त नहीं होता है। जैन तथा बौद्ध के साथ-साथ ब्राह्मण धर्म भी कहीं पिछड़ा नहीं है, अपितु मध्यकाल में ब्ब्राह्मण धर्म का बहुत बड़ा भाग इसके योगदान में शामिल है।(13) 15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक का काल ब्राह्मण धर्म रूपी कला से ओत प्रोत नजर आता है। तत्कालीन समय में मुगल काल में भी ब्राह्मण धर्म का चित्रकला में अनूठा प्रभाव रहा है। राजस्थानी तथा मुगल दोनों ही काल में साहित्य एवम चित्रकला के क्षेत्र में अथक योगदान दिया है। एक तरफ अकबर के काल में साहित्य में रामायण तथा महाभारत का फारसी अनुवाद किया गया, जिसे चंगेजनामा, जफरनामा तथा रम्जनामा आदि नाम से जाना जाता है। वहीं दूसरी ओर तो मानो कृष्ण ने पूरे राजस्थान को अपने वश में कर लिया हो, या यूं कहें कि कृष्ण तथा राम के प्रेम में अनेक राजस्थानी राजाओं ने साहित्य ग्रंथ को मुख्य विषय मानकर कृष्ण तथा राम से संबंधित अनेक अनगिनत चित्रों की रचना करवाई। जिनके विषय राग रागिनी, प्रेम, कृष्ण लीला, रामायण के दृश्य आदि हैं। डॉ. आनंद कुमार स्वामी ने राजस्थानी तथा पहाड़ी कलाओं का स्वरूप पृथक पृथक बताया है। हिमाचल तथा कश्मीर की मनोरम पहाड़ियों में पनपी कला को पहाड़ी कला नाम से अभिहित किया है। इन पहाड़ी कलाओं के अलग-अलग क्षेत्र विभाजित हैं। उदाहरण स्वरूप बसौली, गुलेर, कांगड़ा, चंबा, कुल्लू, गढ़वाल तथा जम्मू और कश्मीर। यहां विषय के रूप में रामायण तथा भागवत पुराण से संबंधित चित्रित ग्रंथ एवं चित्र बने हैं। यहां के चित्रों में कृष्ण को प्रेम का साक्षी माना गया है। यह सिलसिला यहीं नहीं थमता कांगड़ा तथा गुलेर शैली में इनके चित्रात्मक साहित्यिक रूप देखने को मिलता है। तत्पश्चात मुगलों में भी रामायण और महाभारत का अनुवाद प्राप्त है। 19वीं सदी में रामायण और कृष्ण भारतीय लोक कला में खास रूप से परिरक्षित होने लगते हैं।

  स्थानीय लोक कलाओं में इनका अपना अलग ही स्थान प्राप्त होता है। इसी क्रम में विश्व प्रसिद्ध बिहार की मधुबनी कला की बात करते हैं, जहां के मुख्य विषय सीता के जीवन से संबंधित है। ऐसा माना जाता है कि दशरथ के समय में मधुबनी कला की शुरुआत हुई थी और इन कलाओं का संबंध सीताजी के विवाह से माना जाता है। चित्रों का मुख्य विषय राम और सीता के विवाह एवम कोहबर है। इसी क्रम में तेलंगाना राज्य की चेरियल चित्रकारी एक प्रकार की पट्टचित्र कला है जो पुराणों की लोकप्रिय पौराणिक कथाओं को दर्शाती सूक्ष्म चित्रकारी जैसी प्रतीत होती है। इन चित्रों की पृष्ठभूमि अधिकतर लाल रंग की होती है। पट्टचित्र का आरम्भ सदा गणपति के चित्र से होता है। उनके पश्चात सरस्वती का चित्र होता है। किसी भी नवीन चित्र का आरम्भ करने से पूर्व चित्रकार इन दोनों देवताओं की आराधना करते हैं। उसके पश्चात कथानक के विभिन्न दृश्य चित्रित किये जाते हैं। पट्टचित्र के आकार के अनुसार एक पंक्ति में एक दृश्य अथवा अनेक दृश्य हो सकते हैं। इस प्रकार की लोक कला भारत के विभिन्न भागों में पायी जाती है। भारत के अन्य प्राचीन लोककला शैलियों के समान यह शैली भी भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग है। आधुनिक काल और भारतीय समकालीन कला में अनेक प्रसिद्ध कलाकार हुए जिन्होंने राम कृष्ण को अपनी कृतियों का विषय बनाया है उदाहरण स्वरूप राजा रवि वर्मा की कृति राम द्वारा समुद्र का मानभंग मनमोहक कृति है, समकालीन कलाकार मकबूल फ़िदा हुसैन की महाभारत श्रृंखला विख्यात चित्र है। कहने का तात्पर्य यह है कि राम कृष्ण दो ऐसे पौराणिक चारित्र है, जिनका स्थान भारतीय साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला काव्यकला में वृहद रूप से परिलक्षित है।        

Mahabharata series, M. F. HUSSAIN

                     निष्कर्ष :  उपर्युक्त लेख के द्वारा यह निष्कर्ष निकलता है की, भारतीय कलाओं का मूल आधार धर्म है। इनके द्वारा ही हम हमारी संस्कृति तथा परंपरा को कलाओं के माध्यम से जीवित रखते हैं। कला के साथ ही जीवन के नैतिक मूल्यों का संदेश समाज में प्रसारित होता जाता है। भविष्य में ऐसे महान् चरित्रों को कला में महत्वपूर्ण स्थान सदैव बना रहेगा। भारतीय कलाएं धार्मिक पक्ष के बिना अधूरी हैं धर्म के द्वारा भारतीय कला में विविधता प्राप्त होती है शास्त्रीय कलाएं हो या लोक कला सभी का मूल धर्म ही रहा है। समय के अनुसार कला के अंतर्गत धार्मिक स्वरूपों ने नए-नए संयोजनों के साथ अपना सामंजस्य बनाए रखा है। खाने का अभिप्राय यह है कि धर्म और कला का एक दूसरे से अतः संबंध सदियों से चला रहा है और आगे भी यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। धार्मिक विषय के कुछ ऐसे चरित्र जो सदा के लिए जीवंत हो गए हैं कलाओं में उनका स्थान सदा ही महत्वपूर्ण बना रहेगा। भारतीय समकालीन कला में भारतीयता की पहचान एवं संस्कृति का समायोजन प्रमुखता से होता रहा है जिनके अंतर्गत देवी देवताओं का वर्णन किया जाता रहा है आज भी कलाकारों का समय-समय पर यह प्रिय विषय रहा है।

 सन्दर्भ 

1.            श्रीवास्तव विमल मोहिनी, प्राचीन भारतीय कला में मांगलिक प्रतीक, प्रथम संस्करण,2002, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृ. सं. 98-99

2.            वही, पृ. सं. 105-111

3.            श्रीवास्तव डॉ. आर. एन., भारतीय कला में नाग, प्रथम संस्करण, 2008, स्वाति पब्लिकेशन, पृ. सं. 9-10

4.            दिवेदी राकेश नारायण,वानपुर विविधा, कल्चर हिस्ट्री ऑफ़ वानपुर बुन्देलखंड एंड सराउंडीग, पृ. सं. 21

5.            मिश्र विद्या निवास,लोक और शास्त्र-अन्वय और समन्वय, संस्करण प्रथम, 2015, वाणी प्रकाशन, पृ. सं. 232

6.            मिश्र विद्या निवास,लोक और शास्त्र-अन्वय और समन्वय, संस्करण प्रथम, 2015, वाणी प्रकाशन, पृ. सं. 224

7.            सक्सेना बीएल., सरण सुधा, लाकटकिया आनंद, कला सिधांत और परंपरा, चतुर्थ संस्करण, प्रकाश बुक डिपोट, पृ. सं. 68

8.            गैरोला वचस्पति,भारतीय चित्रकला कला, प्रथम संस्करण, मिश्र प्रकाशन प्रा. लि. इलाहबाद, पृ. सं. 73

9.            वाजपाई डॉ संतोष कुमार, गुप्तकालीन मूर्तिकला का सौन्दर्यात्मक अध्ययन, संस्करण प्रथम,1992, इस्टर्न बुक लिंकर्स, पृ. सं. 53

10.         अग्रवाल वासुदेव सरण, भारतीय कला, प्रथम संस्करण, पृथ्वी प्रकाशन बी 9/122 दुमरागओं कोठी अस्सी घाट वाराणसी, पृ. सं. 32

11.         वही, पृ. सं. 99-100

12.         वही, पृ. सं. 107-108

13.         जोशी ईसा नारायण, मालवा की लोक चित्रकला, प्रथम संस्करण, विश्व भारतीय प्रकाशन, पृ. सं. VI आमुख

डॉ. क्षमा द्विवेदी
चित्रकार, अयोध्या, उत्तर प्रदेश
7747054906, kshamadivedi@gmail.com

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक चंदवानी

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