सम्पादकीय : यह दौड़ हमें वहाँ तो नहीं ही ले जाएगी / माणिक

सम्पादकीय :  यह दौड़ हमें वहाँ तो नहीं ही ले जाएगी / माणिक

एक आदमी दो दर्जन दिनों तक भूख हड़ताल करके लौट गया। हताश और निराश। इस तरह न हम पहाड़ को बचा पाए न अपने घर को और न ही नागरिक होने की गंभीर अनुभूति। देश के बहुत से संस्करणों में यह ख़बर भी न छपी हो शायद। दूसरे पड़ाव पर पेन ड्राइव बांटा जा रहा है। अस्मिताओं को लेकर हमारी समझ बहुत हद तक भोथरी हो चुकी है। चिंता में डालती हुई खबरों को पढ़ने के बाद हम अख़बार में छपे किसी बड़े मॉल के डिस्काउंट ऑफर में खो जाते हैं। इतनी ही संजीदगी बची है। दौड़ के मारे हम पैदल चाल का महत्त्व एकदम भूल चुके हैं। ठहरकर पिछे मुड़ते हुए चलते का आनंद अलग है। झूठ पकड़ने की मशीन ने अब हार मान ली है। आदमी जो बोलता है उस पर विश्वास दिनोंदिन समाप्ति के कगार पर है। टीवी नहीं देखने से भी जीवन वैसा ही चल रहा है जैसा उसे देखते हुए चलता है। कुछ जिम्मेदार लोग कहते हैं कि हम जो पढ़ते हैं वह पहले से बिक चुका होता है। अख़बार पढ़ो या न भी पढ़ो बहुत ज्यादा फ़र्क नहीं है। ठीक से सोचें तो राजनीति हमारे जीवन को बहुत गहरे में प्रभावित करती है। इसलिए यह कहकर मुद्दों और बहसों को टाल देना कि 'राजनीति बड़ी बेकार चीज़ है' जीवन को बहुत हलके में ले लेना ही है। सरकार का चयन हमसे विवेक मांगता है। विवेक लिए हमें मुद्दों पर लगातार समझ बढाने की ज़रूरत है। बहसों में हिस्सा लेने की तहज़ीब विकसित करनी होगी। तर्क की ताकत को महसूसना होगा। वार्ड पञ्च से लेकर देश के प्रधानमंत्री जैसे अहम् पद तक का चयन हमारी साझी जिम्मेदारी है। खासकर जब हम इतने बड़े महादेश में निवास करते हैं तो आम चुनाव हमारी भागीदारी का सबसे विशाल मौक़ा है

बीते दिनों 'स्लो इंटरव्यू' सीरीज में साढ़े तीन घंटे तक विकास दिव्यकीर्ति को सुना। उनमें गज़ब की अध्यापकी और प्रबंधन है आत्महत्या करते बच्चों से लेकर शिक्षा के माध्यम को लेकर पनपे द्वंद्व पर बढ़िया दृष्टि देता है। विश्व में एक साथ विभिन्न स्तर पर हो रहे बदलाव से मानव एक नए ही काल में प्रवेश कर चुका है। जानकर भय और अचरज दोनों की अनुभूति हुई कोई कह रहा था ‘एआई’ आ जाने से सब बदल जाएगा। मैं गफलत में रहा कि मेरा आसपास अब भी वैसा ही है। सच की जाजम सिकुड़ गयी है। ईमान की क्या कहूँ सभी सब्जियां और फलों में दवाइयों के इंजेक्शन लगाकर उनका आकार रातोंरात बड़ा करने वाला अब बिलकुल नहीं घबराता है। वह बेख़ौफ़ अमीर होना ठान चुका है। नागरिक अपने होने को भूलता जा रहा है। मतदान का गिरता हुआ प्रतिशत अचरज में डालता है जबकि हाल ही में हमने बड़ी धूमधाम से अम्बेडकर जयंती मनाई है। बीते दिनों सर्वाधिक बार अगर कसम खाई गयी तो वह संविधान की थी। आम चुनावों को समझने के क्रम में रोज़ गच्चा खा जाता हूँ। एक भी किनोर पकड़ में नहीं आ रही है। अवाम चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरफ मुंह करके सोता है। अफवाहों की बेलड़ी को लू तक नहीं लग रही। झूठ को घी-शक्कर नहीं सींचना पड़ता है। कुछ ज़िंदा पत्रकार हैं जिन्हें सुनने और देखने से शरीर में साँस का आभास बाकी है। जो हाथ से छूटता जा रहा है अब भी दुखी करता है। ‘सामाजिक न्याय’ जैसे प्रत्यय अब भाषण देने के लिए काम आते हैं। हर तीसरे दिन आदमी अपने कहे से मुकरने का आदी हो गया है। तमाम दिक्कतों के बीच हम सभी चार जून के दिन हिन्दुस्तान के लिए एक मजबूत और जनपक्षधर सरकार की कामना करते हैं।   

वक़्त अब बार-बार हमें हेल्थ से जुड़े आलेख पढ़ने को सुझाता रहता है। दैनिक भास्कर में अंतिम पृष्ठ पर निचे की तरफ दो शोध रोजाना छपते हैं। ज़िंदगी को समझने और सहेजने की तरफ इशारा करते हुए शोध। कभी-कभार किसी डॉक्टर का ‘लल्लनटॉप इंटरव्यू’ देख लो तो तुरंत सहकर्मियों में साझा करते हैं। एकाएक अपने लीवर पर ध्यान जाने लगता है। पार्टियों के मीनू में से कचोरी, समोसे गायब और कोल्ड ड्रिंक पर पुनर्विचार शुरू। घर में मोटे अनाज और ऑर्गेनिक शक्कर पर काम शुरू हो जाता है। गाय का घी ढूँढने में समय जाने लगता है। खानपान में हर चीज़ पर गंभीरता से चर्चा होने लगती है। यह सब चिंता से ज्यादा चिंतन के कारण हो पाता है। आदमी जब बीमार पड़ता है तो उसे अपने अधूरे प्रोजेक्ट याद आने लगते हैं। वह गुज़रे हुए समय में से ऐसे ही गँवा दिए पलों को लेकर खुद पर खीजता है। हॉस्पिटल में भर्ती आदमी को बीते हुए जीवन में सार्थकता और निरर्थकता बार-बार द्वंद्व में डालती हैं। आजकल में शुरू हुई कोरोना वेक्सिन की चर्चा भी एक नया झोल है। शरीर की दशा बहुत कुछ मन पर निर्भर है। अफ़सोस इन्सान सारा प्रपंच शरीर के लिए करता है जबकि दिक्कतें मन से जुड़ी ज्यादा है। जब मामला बहुत आगे निकल जाता है तब वह शरीर के साथ ही मन पर काम करने के लिए दर्शन, आध्यात्म आदि की ढूंढ में निकलता है।


एक अंतराल के बाद यह अंक संपादित कर रहा हूँ। आलेखों को चुनने के दौरान की अनुभूतियाँ और लेखकों से संवाद रुचिकर रहा। ज्ञानवर्धक भी। इस अंक में दो नए कॉलम शुरू किए हैं। पहला है ‘चीकू के बीज’ इसमें छद्म नाम से स्कूली बच्चे अपनी आप-बीती कहेंगे। दूजा है ‘गुलमोहर के फूल’ इसमें अपनी माटी मण्डली के कुछ चुने हुए बच्चे हैं जो डायरी लेखन करते हैं तो यहाँ प्रत्येक अंक में चुनिन्दा डायरियां यहाँ साझा करने का मन है। कुछ नए कॉलम जल्दी ही आगामी अंकों में शामिल होंगे जैसे ‘ नदी के नाम लम्बी चिट्ठी’ और ‘ शहर को जैसा मैंने जाना’। हमारे अंकों की ख़ासियत ‘अफ़लातून की डायरी’, शेखावटी की खुशबू लेकर आते ‘हेमंत के संस्मरण’, डायर के ‘अध्यापकी के अनुभव’ तो है हीं। इस अंक में चार बेहद महत्वपूर्ण इंटरव्यू हैं। कथेतर के नाम पर सत्यनारायण जी हमारी पहली पसंद रहे हैं जिनसे आग्रह करके माधव राठौड़ से हमने यह बातचीत जुटाई है। प्रखर आदिवासी स्वर के धनी अनुज लुगुन की बातें आज के दौर की ज़रूरत है। प्रो अरविन्द त्रिपाठी से हुई बातों के लिए शशिभूषण भाई का आभार। शशि भाई ने हमें हर अंक में एक बढ़िया बातचीत का वादा किया है। हमारे ही साथी बृजेश ने एक पुराना मगर अप्रकाशित इंटरव्यू भेजा है जो आदरणीय मंगलेश डबराल जी से लिया हुआ है। समीक्षा में आँचल जैसी युवा विद्यार्थी को छापकर हमें एक तसल्ली है। ‘केम्पस के किस्से’ में इस बार हैदराबाद विश्वविद्यालय के जसवंत ने राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर के बारे में दिलचस्प लिखा है। डॉ. राजेंद्र सिंघवी वर्ष में दो बार भिन्न और ज़रूरी स्वर के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं और उसी क्रम में सोहनलाल द्विवेदी पर एक बढ़िया आलेख यहाँ पढ़ने को मिलेगा। बाकी इस बार विविधता का पूरा ध्यान रखा है। अंक प्रकाशन हेतु आपकी तरफ से मिले सहयोग हेतु आभार। प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।


-माणिक


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक चंदवानी

3 टिप्पणियाँ

  1. इतने दिनों बाद लिखा है लेकिन आपकी संपादकीय शैली लाजवाब है। बहुत से समसामयिक मुद्दों को आपने छुआ है जो अत्यंत जरूरी रहे। लेकिन दुःख की बात है की हम ये सभी जरूरी मुद्दे पिछले कुछ दिनों चल रहे चुनावी शोरगुल में भूल गए। ऐसा लगता है जैसे राजनीति ही जीवन का केंद्र बन चुका है। मीडिया के द्वारा हमें जबरदस्ती उन मुद्दों पर भी विचार करने के लिए दबाव बनाया जाता है जो गैर जरूरी है। एक शिक्षक मन ने इन पीड़ाओं को पकड़ा और साझा किया है।

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  2. डॉ. हेमंत कुमारमई 04, 2024 7:06 pm

    एक शहरी के रूप में आम आदमी की लापरवाही की हद तक पहुँच चुकी बेपरवाही चिंताजनक है। चिंताजनक है सत्ता के शीर्ष से लेकर आम आदमी के अर्स तक पसरा झूठ। किसी का भी किसी भी सूरत में अमीर हो जाने का मकसद डरावना है। आपकी चिंताएँ वाजिब हैं। हमारी तमाम कोशिशें शरीर को लेकर हैं। मन पर हम बेमन से भी नहीं सोचते। संपादकीय पढ़े जाने के बाद भी देर तक साथ रहनेवाला है।

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